और उसकी गंध!
सब याद आ रहे थे,
मेरे होंठ फिर से सूख चले थे,
मात्र ख़याल से ही उसके!
और तभी फ़ोन बजा,
मैंने फ़ोन उठाया,
ये आद्रा थी!
मैं उठ गया बिस्तर से,
और कुर्सी पर जा बैठा,
"हाँ आद्रा!" मैंने कहा,
"पहुँच गए?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"अच्छा!" वो बोली,
"और तुम वहीँ हो अभी?" मैंने पूछा,
"हाँ, अकेली!" वो बोली,
मैं हंस पड़ा!
"वो कब आती है घर, आपकी सहेली?" मैंने पूछा,
"चार बजे" वो बोली,
"तो चार बजे जाओगी वापिस?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोली,
"अच्छा" मैंने कहा,
"एक बात कहूं?" उसने पूछा,
"हाँ, हाँ, कहो?" मैंने कहा,
"ये क्या कर दिया आपने मुझे?" उसने पूछा,
"क्या हो गया?" मैंने पूछा,
"मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा" वो बोली,
"क्यों?" मैंने पूछा,
"मेरा बदन खाली खाली लग रहा है" वो बोली,
"जानता हूँ!" मैंने कहा,
"ये क्या हुआ है?" उसने पूछा,
"हुआ तो है, क्या हुआ है, कैसे ठीक होगा, ये मैं बाद में बताऊंगा!" मैंने कहा,
"बाद में कब?" उसने पूछा,
""जब रात को मैं तुम्हारे साथ होउंगा, तुम्हारे स्थान पर" मैंने कहा,
शरमा गयी!
"मुझसे नहीं रहा जा रहा!" उसने कहा,
"रहना तो होगा!" मैंने कहा,
"सहन नहीं हो रहा" वो बोली,
"सहन करना होगा!" मैंने कहा,
"आपको कुछ नहीं हुआ?" उसने पूछा,
"मुझे जो हुआ है वो तो मैं बता भी नहीं सकता आद्रा!" मैंने कहा,
समझ गयी वो!
"वहाँ से खबर आ गयी?" उसने पूछा,
"नहीं, शाम तक आएगी" मैंने कहा,
"अच्छा" वो बोली,
फिर और कुछ,
अंतरंग बातें,
और फिर फ़ोन बंद कर दिया उसके,
और मैं लेटने चला गया पलंग पर,
कंबल ओढ़ा,
और सोने की कोशिश करने लगा,
सो गया आखिर,
जब आँख खुली तो,
छह बजे थे!
शर्मा जी उठ चुके थे,
और कमरे में नहीं थे,
मैं उठा,
हाथ-मुंह धो कर आया,
और बैठ गया,
शर्मा जी आ गए,
चाय लाये थे,
मैंने चाय ली,
और पीने लगा,
पी ली चाय,
और अब हम बाहर चले,
थोड़ा घूमने,
घूम कर वापिस आये तो,
सात बज चुके थे,
शाम हो गयी थी,
अब हुड़क लगी!
और इंतज़ाम किया मैंने!
सलाद, पानी और कुछ फल,
बाकी का खाना सहायक लाने ही वाला था,
अब हुए हम शुरू!
और मढ़ गए!
सहायक,
भोजन भी ले आया,
और फिर तो मजा, दोगुना हो गया!
तभी फ़ोन बजा!
ये आद्रा का ही फ़ोन था,
मैंने उठाया,
"हाँ आद्रा?" मैंने कहा,
"कहाँ हो?" उसने पूछा,
"यही, अपने स्थान पर" मैंने कहा,
"अच्छा, क्या कर रहे हो?" उसने पूछा,
"फिर से वही सवाल!" मैंने कहा,
"अच्छा, समझ गयी मैं!" वो बोली,
"हाँ, ठीक समझीं!" मैंने कहा,
"कोई खबर आयी?" उसने पूछा,
"अभी तक तो नहीं" मैंने कहा,
"आये तो मुझे बताना" वो बोली,
"हाँ, ज़रूर बताऊंगा!" मैंने कहा,
"और सुनाओ, याद आयी मेरी?" उसने पूछा,
"हाँ, बहुत याद आयी, आ रही है!" मैंने कहा,
"आ जाऊं?" उसन हंस के कहा,
"अभी नहीं!!" मैंने भी हंस के कहा,
फिर वो हंसी!
"तुम कहाँ हो?" मैंने पूछा,
"भाई के पास" वो बोली,
"अच्छा, वापिस कब जाओगी?" मैंने पूछा,
"भजे रहे हो मुझे वापिस?" उसने सवाल किया,
"मैंने वैसे ही पूछा" मैंने कहा,
"अभी नहीं जाउंगी, जब तक आप नहीं कहोगे!" उसने कहा,
"ये ठीक है!" मैंने कहा,
"हाँ" वो बोली,
"मेरे साथ ही चलना अब वहाँ!" मैंने कहा,
"हाँ!" वो बोली,
"चलो, अब आराम करो!" मैंने कहा,
"मुझे आराम नहीं चाहिए अब!" वो बोली,
"फिर क्या चाहिए?" मैंने पूछा,
"नहीं समझे?" उसने कहा,
"हां! समझ गया!" मैंने कहा,
"इतने भी भोले नहीं हो आप!" वो बोली,
'सही कहा!" मैंने कहा,
"सुनो?" वो बोली,
"हाँ?" मैंने कहा,
"यहाँ आ जाओ!" वो बोली,
मैं हंसा!
बहुत हंसा!
"आउंगा! ज़रूर आउंगा आद्रा!" मैंने कहा,
फिर कुछ और बातें!
सरल,
पर अर्थपूर्ण!
प्रेमालाप की बातें!
और फिर फ़ोन रख दिया उसने!
और मैंने भी अपना फ़ोन रख दिया!
तभी फिर से फ़ोन बजा,
ये आद्रा का ही था!
मैंने उठाया,
"हाँ?" मैंने कहा,
"मुझे प्रेम हो गया है आपसे!" वो बोली,
मैं चुप हो गया!
फिर वो हंसी!
और फ़ोन काट दिया!
साढ़े आठ बज चुके थे तब,
कब कमरे में,
बाबा पांडु ने प्रवेश किया,
और उनके साथ कोई और भी था,
बाबा ही था कोई,
"आओ बाबा, बैठो" मैनें कहा,
अब वे दोनों बैठ गए,
"खबर पहुंचा दी?" मैंने पूछा,
"हाँ, ये बाबा महिपाल हैं, ये ही गए थे" वे बोले,
"कब की तारीख मिली है?" मैंने पूछा,
"आगामी अमावस" वो बोले,
अमावस,
यानि, अभी पांच दिन और,
"और ये, ये भेजा है उसने आपके लिए" वो बोले,
ये एक पोटली थी,
मैंने ली,
और खोली,
उसमे बाल थे,
बाँध कर गुच्छे से बनाये गए थे,
कुछ लटें थीं,
कुल ग्यारह होंगी,
समझ गया!
ये वो ग्यारह हैं,
जो पराजित हुए उस से द्वन्द में!
और मेरे लिए ये चेतावनी थी!
मैंने वो पोटली दे दी वापिस,
बाबा उदास थे,
मैंने देखा उन्हें,
"घबराइये नहीं!" मैंने कहा,
और उनकी आँखें भीग गयीं!
"नहीं बाबा! कुछ नहीं होगा मुझे!" मैंने कहा,
वो उठे, और मेरा सर पकड़ा,
और चूम लिया मेरा माथा,
मिल गया आशीर्वाद उनका!
और फिर चले गए वो,
और हम हुए शुरू फिर से,
"तो आ गया पत्र!" शर्मा जी बोले,
"हाँ जी!" मैंने कहा,
"उड़ा साले को हवा में, ऐसा कि जब गिरे तो कूल्हे थे भी या नहीं, पता ही न चले!" वे बोले,
मैं हंसा!
"हाँ! सही कहा!" मैंने कहा,
तभी ध्यान आया आद्रा का,
अब मैंने फ़ोन लगाया,
उसने उठाया,
"आद्रा, तारीख मिल गयी है" मैंने कहा,
"कौन सी?" उसने पूछा,
"इस अमावस की" मैंने कहा,
"अच्छा, कुछ दिया है आपको?" उसने पूछा,
"हाँ एक पोटली!" मैंने कहा,
"बाल होंगे उसमे?" वो बोली,
"हाँ" मैंने कहा,
"ऐसा ही करता है वो" वो बोली,
"वो लड़ता कहाँ से है?" मैंने पूछा,
"यहाँ, मेरे भाई के स्थान से" वो बोली,
"अच्छा! तो अमावस को यहाँ आ जाना तुम, वहाँ मत रहना, समझीं?" मैंने कहा,
"नहीं! मैं वहीँ रहूंगी, मैं जानती हूँ कि क्या करना है उसके बाद" वो बोली,
"ठीक है, लेकिन आराम से रहना" मैंने कहा,
"हाँ, चिंता न करो!" वो बोली,
"कैसे न करूँ?" मैंने कहा,
वो हंसी!
"मुझे कुछ नहीं होगा!" वो बोली,
"ये बढ़िया है" मैंने कहा,
"हाँ" वो बोली,
"चलो, अब सो जाओ" मैंने कहा,
"भोजन किया?" उसने पूछा,
हाँ किया" मैंने कहा,
"ठीक है, मैं भी कर रही हूँ" वो बोली,
करो, कल बात करते हैं" मैंने कहा,
"ठीक है" वो बोली,
और फ़ोन काट दिया मैंने,
हमारा भी भोजन हो गया!
अब हाथ-मुंह धोये,
और घुस गए बिस्तर में!
कम्बल ओढ़े,
और सो गए!
बढ़िया नींद आयी!
सुबह हुई,
उस सुबह बादल छाये हुए थे,
और थोड़ी देर में ही,
बरसात होने लगी!
अब सर्दी और बढ़ने वाली थी!
अब नहाये धोये,
फारिग हुए,
और फिर शर्मा जी,
जाकर चाय ले आये,
चाय पी हमने तब!
और फिर से बिस्तर में घुस गए!
तभी फ़ोन बजा,
ये आद्रा ही थी!
मैंने उठाया,
"हाँ आद्रा!" मैंने कहा,
"आज आओगे?" उसने पूछा,
"आज तो बारिश है" मैंने कहा,
"हाँ है तो" वो बोली,
"तो कैसे आउंगा?" मैंने पूछा,
"मैं आ जाऊं?" उसने पूछा,
"कैसे आओगी?" मैंने पूछा,
"छतरी है मेरे पास" वो बोली,
"कब आओगी?" मैंने पूछा,
"आती हूँ ग्यारह बजे" वो बोली,
"ठीक है, आ जाओ" मैंने कहा,
फ़ोन कट गया,
अब मैंने शर्मा जी को बता दिया,
फिर बाहर गया,
और एक कमरे की चाबी ले आया,
कमरा साफ़ भी करवा दिया,
और फिर ठीक ग्यारह बजे,
आद्रा आ गयी वहाँ,
प्रणाम हुआ,
और मैं उसको लेकर कमरे में गया,
उसने छतरी दरवाज़े के पास रख दी,
"तुम्हारे तो कपड़े भी गीले हो गए हैं?" मैंने कहा,
"क्या करूँ बताओ?" उसने पूछा,
"इनको बदलो, उतारो" मैंने कहा,
"और कपड़े कहाँ से लाऊं?" उसने पूछा,
"रुको" मैंने कहा,
और उसके लिए अपनी दूसरी जैकेट ले आया,
"ये लो, उतारो इन्हे" मैंने कहा,
नहीं उतारे!
"बाहर जाऊं मैं?" मैंने कहा,
"नहीं" वो बोली,
और फिर अपना स्वेटर उतारा,
और रख दिया,
ब्लाउज सही था,
साड़ी भी सही थी,
"पहन लो जैकेट" मैंने कहा,
और उसने पहन ली,
"बैठो अब" मैंने कहा,
वो बैठ गयी!
"चाय पियोगी?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोली,
"अच्छा" मैंने कहा,
"यहाँ आओ, वहाँ क्यों बैठे हो?" उसने कहा,
मैं उसके साथ बैठ गया!
मैंने उसका हाथ पकड़ा,
ठंडी थी वो!
"बहुत ठंडी हो रही हो?" मैंने कहा,
वो हंसी!
"आपको पता है न कि क्यों?" उसने कहा,
"हाँ पता है!" मैंने कहा,
"फिर?" उसने पूछा,
"फिर विर छोडो, कंबल में घुस जाओ!" मैंने लेटते हुए बोला,
वो नहीं आयी!
"आओ?" मैंने कहा,
अनमने मन से, आ गयी!
"अनमना मन क्यों?" मैंने पूछा,
"भाग जाते हो आप!" वो बोली,
मैं हंसा!
भाग जाता हूँ!
"अच्छा! कुछ दिन और, फिर तुम भागोगी!" मैंने कहा,
वो हंस पड़ी!
मैंने भींच लिया उसको,
और उसके सर के नीचे,
अपनी बायीं भुजा रख दी,
"एक बात बताओ?" मैंने पूछा,
"हाँ?" वो बोली,
"यदि वो तुम्हारे भाई के स्थान से लड़ेगा, तो तुम्हारा भाई भी साथ होगा?" मैंने पूछा,
"हाँ, हो सकता है" वो बोली,
"और यदि तुम्हारे भाई को पता चला कि तुम मुझसे मिल रही हो तो क्या होगा?" मैंने पूछा,
"कुछ नहीं होगा!" वो बोली,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"उसको पता कैसे चलेगा?" उसने पूछा,
"बाद में तो चलेगा?" मैंने कहा,
"चलने दो" उसने कहा,
"वो गुस्सा करेगा!" मैंने कहा,
"जब गौरांग का वो हश्र होगा तो उसको देख कर, उसका मुंह भी नहीं खुलेगा!" वो बोली,
"अच्छा!" मैंने कहा,
अब वो चुप!
मैं चुप!
मैंने करवट बदली!
और अपना हाथ उसके वक्ष पर रखते हुए आगे तक रख दिया,
और अपना घुटना उसकी जंघाओं पर!
और एक चुम्मी ले ली,
उसके कान के नीचे!
मित्रगण!
फिर से नियंत्रण!
फिर से विवेक की सुनी!
और मैं भीगी बिल्ली सा ही बना रहा!
उसने तो कोई क़सर ही न छोड़ी थी मुझे फूंकने की,
मैं बार बार उसका स्पर्श करता,
और बार बार उसके कर्षण में गिरफ्तार हो जाता!
दो घंटे बीत गए,
बाहर बारिश थम गयी थी,
और यहाँ मैं,
पूरी तरह से भीग गया था!
फिर वो उठी,
वस्त्र ठीक किये,
मैं भी उठा,
और वस्त्र ठीक किये,
काम ने मेरे शरीर पर,
कुछ भौतिक अवशेष छोड़ दिए थे,
वही ठीक किये मैंने!
"बारिश रुक गयी है बाहर" वो बोली,
"हाँ" मैंने कहा,
"अब चलती हूँ मैं" वो बोली,
"ठीक है" मैंने कहा,
उसने अपना स्वेटर देखा,