वो ठिठुरती सर्दी की सुबह थी! कम्बल में से निकलने का मन ही नहीं कर रहा था! बाहर धुंध छायी थी! खिड़कियों के शीशे पर, रात भर अंदर ताकती धुंध के निशाँ साफ़ थे! उसने सुरागरसी की थी! अब अपने चिन्ह छोड़ गयी थी! सुबह की ओंस ने, अब उसको बूंदों के रूप में पकड़वा ही दिया था! मेरा तकिया, बहुत ठंडा हो चुका था, चेहरा टकराता तो पता चलता कि उस कमरे में, जहाँ रात को अंगीठी जली थी, सर्दी ने सेंध लगा ही ली थी! शर्मा जी, अपने बिस्तर में मुड़े-तुडे लेटे थे, और मेरी आँख अभी खुली थी, मेज़ पर निगाह गयी तो वहाँ दो गिलास, एक बोतल और एक खाली तश्तरी और सिगरेट के कुछ फ़िल्टर रात भर हमे ही ताकते रहे थे! मैंने घड़ी देखी, साढ़े सात का समय था, सूरज का तो अभी नामोनिशान भी नहीं था! सर्दी की सखियों ने आज लगाम पकड़ ली थी उस सप्त-अश्व(गायत्री, बृहती, उस्निक, जगाति, त्रिस्तुप, अनुस्तूप और पंक्ति, ये सभी उच्चैश्रवा के कनिष्ठ माने जाते हैं, उच्चैश्रवा, असुरराज महाराज बलि को भेंट दिया गया था, मंथन समय!) रथ की! और सारथि( पक्षीराज गरुड़ के भाई अरुण, सारथि हैं इस रथ के) को अपनी अल्हड़ता से रिझा लिया था! आज वे भी विलम्ब से ही चल रहे थे! सर्दी के दिनों में सूरज को मद चढ़ा रहता है, अलसाये से रहते हैं! और अक्सर दिन भर हम इस मृत्युलोक वासियों से, लुकाछिपी करते रहते हैं! यही हो रहा था! तभी दरवाज़े पर थाप हुई! बड़ी मुसीबत! कम्बल से निकलो, तो सर्दी की बाहों में समा जाओ! और इस समय ये बहुत ही कठिन लग रहा था! शर्मा जी भी जाग गए, कंबल हटाया उन्होंने सर से, और मुझे देखा, प्रणाम किया, और मैं फिर, दरवाज़े की तरफ चला, दरवाज़ा खोला, चिटकनी ऐसी हो रही थी जैसे हिम ने रात भर मरदन किया हो उसका! खैर, खोल ली, बाहर, एक सहायक खड़ा था! एक ऊनी लबादा सा पहने, पाँव में जुराब पहने थे, और उन पर, लोट्टो लिखा था!
प्रणाम हुआ!
"चाय या दूध?" उसने पूछा,
"चाय" पीछे से शर्मा जी की आवाज़ आयी,
"चाय ही ले आओ" मैंने कहा,
"जी" उसने कहा, और चला गया,
अब मैंने दरवाज़ा भिड़ा दिया,
और वापिस हुआ,
गुसलखाने पहुंचा, और कुल्ला-मंजन किया अब!
हाथ-मुंह धोये, पानी ऐसा ठंडा कि जहां पड़े वहाँ से चेतना ही लौट जाए!
और फिर तौलिये से हाथ-मुंह पोंछे,
फिर शर्मा जी ने अपना चश्मा उठाया,
रुमाल से साफ़ किया,
पहना, और वे भी गुसलखाने की तरफ चले गये!
फिर वापिस आये,
और फिर वो सहायक आ गया!
उसने चाय रखी, साथ में कुछ खाने को भी, ये मुझे आलू के पकौड़े से लगे, बड़े बड़े!
चाय से उठती गरम गरम भाप बहुत बढ़िया लगी!
मैंने कप उठाया, और चुस्की भरी!
मजा आ गया!
अब वो पकौड़ा उठाया,
और चाय के संग खाता चला गया!
कर लिया नाश्ता!
और अब,
सबसे बड़ा काम!
स्नान करना था!
उस बर्फीले पानी से स्नान!
खैर साहब!
वो भी किया!
कुछ क्षण और ठहरता तो सीधा उस त्रिलोकी से मिलन हो जाता! हो जाता बेड़ा पार! पर, ठहर गया मैं! अभी थोड़ा वक़्त और बिताना है न यहाँ इसीलिए!
अब हम बाहर चले!
मैंने जैकेट पहनी थी, सर पर टोपी और गले में मफलर! फिर भी सर्दी घुसे ही जा रही थी! केश अभी गीले थे, पानी टपकता तो सिहरन उठ जाती! बाहर, अनार के पेड़ लगे थे! उनमे फूल खिले थे! बहुत सुंदर था वो स्थान, कुबेर की वाटिका सी लगती थी वो! हम घूमते रहे!
ये स्थान था काशी के पास की एक जगह का!
हम यहाँ एक क्रिया हेतु आये थे, और अब क्रिया संपन्न करने के बाद,
एक आयोजन में सम्मिलित होना था,
तदोपरांत, वापिस जाना था!
आयोजन आज ही था!
दोपहर का समय था,
और भोजन हमने कर ही लिया था!
तभी मेरे कमरे में,
कोई आया,
ये बाबा पांडु थे,
बैठे,
नमस्कार हुई,
और मैं भी बैठ गया!
अब शुरू हुईं बातें!
"वापिस कब जाना है?" उन्होंने पूछा,
"कल की सोची है" मैंने कहा,
"अच्छा" वे बोले,
वो जैसे बोले, मुझे लगा कि कोई न कोई बात है!
"कोई काम है क्या?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
"बताइये?" मैंने पूछा,
"अब कल जाओगे तो कैसे बनेगी बात?" वे बोले,
"आप बताइये तो सही?" मैंने कहा,
वे चुप हुए,
कुछ सोचा,
और फिर मुझे देखा,
"उसके पास एक देव-कन्या है!" वे बोले!
वे बोले और मैं हुआ चकित!
हैरान!
किसके पास?
कौन?
कैसे?
कहाँ?
एक साथ प्रश्नों के समूह ने दिमाग में घर कर लिया!
देव-कन्या?
क्या कह रहे हैं ये?
कैसे सम्भव है?
मेरा तो मुंह खुल ही रह गया!
"किसके पास?" मैंने पूछा,
"आद्रा के पास" वे बोले,
"आद्रा?" ये कौन है?" मैंने पूछा,
"एक साध्वी है" वे बोले,
एक साध्वी के पास देव-कन्या?
ऐसा कैसे सम्भव है?
मैंने तो,
न देखा?
न सुना?
फिर कैसे?
"कहना है ये साध्वी?" मैंने पूछा,
"गौरांग के पास" वे बोले,
"कौन गौरांग?" मैंने पूछा,
"है एक औघड़!" वे बोले,
"कहाँ है?" मैंने पूछा,
"यहाँ से कोई डेढ़ सौ किलोमीटर दूर" वे बोले,
डेढ़ हज़ार भी होता,
तो भी क्या फ़र्क़ पड़ता!
पर?
बाबा क्या चाहते हैं?
किसलिए पूछ रहे हैं?
"आप....आपको क्या करना है?" मैंने पूछा,
वे चुप हुए,
वयोवृद्ध थे वे वैसे तो,
फिर मुस्कुराये,
"मेरे गुरु के पास थी वो देव-कन्या!" वे बोले,
क्या?
ये क्या है?
अब तो मामला मेरी पकड़ से बाहर का था!
"आपके गुरु के पास?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
"फिर?" मैंने पूछा,
"उसने छीन लिया" वे बोले,
उसने?
गौरांग ने?
"क्या गौरांग ने?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
अब हुई कहानी पेंचदार!
बाबा गौरांग के पास थी ये देव-कन्या!
अपने तंत्र-बल से उसने क़ैद कर रखा होगा उसको!
पर बाबा पांडु के गुरु से हथियाना इतन सरल तो नहीं रहा होगा?
फिर कैसे?
यही प्रश्न,
मैंने बाबा पांडु से किया,
"वे मृत्यु-शय्या पर थे, तब उसने वो पात्र लिया, जो एक सिद्ध पात्र है, ये पात्र मेरे गुरु को, उनके गुरु और पिता ने दिया था, बाबा गौरांग उनका भी शिष्य रहा है, ये तो बाद में पता चला कि वो किस वजह से शिष्य बना था, मैं उस समय वहाँ नहीं था, बस, वो ले गया" वे बोले,
तो ये थी कहानी!
बाबा गौरांग ने जो किया था,
वो नियम-विरुद्ध था!
पर,
अब वो उस देव-कन्या का मालिक बन बैठा था!
लेकिन बाबा पांडु क्या चाहते थे?
ये था असली सवाल!
"आप क्या चाहते हैं?" मैंने पूछा,
"उस देव-कन्या की मुक्ति" वे बोले,
ओह!
मेरे सारे संशय धूल-धसरित हो गए!
अब आ गया समझ मुझे!
लेकिन बाबा गौरांग से भिड़ना इतना सरल नहीं था,
वो प्रबल था,
निपुण था,
और कारगुज़ार भी!
इतना सरल नहीं था उस से भिड़ना!
"तो आप चाहते हैं कि मैं उस बाबा गौरांग से उस देव-कन्या को मुक्त करा दूँ!" मैंने कहा,
"हाँ, यही" वे बोले,
फिर कुछ और बातें हुईं!
और बाबा ने,
मुझे पता दे दिया वहाँ का!
अब मुझे वहाँ जाना था!
तब बाबा चले गए!
और मुझे,
छोड़ गए सोच के समुद्र में,
गोते लगाने के लिए!
"जाओगे आप?" शर्मा जी ने पूछा,
"जाना ही पड़ेगा" मैंने कहा,
"और न माना तो?" वो बोले,
"देखते हैं" मैंने कहा,
और फिर अब मैंने रणनीति बनायी!
क्या करना है?
कैसे करना है?
क्या होगा?
कितना समय लगेगा?
बस कुछ ऐसे ही सवाल!
शाम हुई अब!
और लगी हुड़क!
किया इंतज़ाम!
और हुए शुरू!
"तो उसने वो पात्र साध्वी को दिया है" बोले शर्मा जी,
"हाँ, साध्वी आद्रा" मैंने कहा,
"लेकिन किसलिए?" वे बोले,
"वो साध्वी विशेष होगी!" मैंने कहा,
"हाँ, सम्भव है" वे बोले,
"यही होगा!" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"चलते हैं कल" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
और हम खाते पीते रहे तब!
बातें करते रहे,
और साथ ही साथ,
मदिरा रानी के हुस्न से खेलते रहे!
उसके बाद फिर भोजन किया!
और फिर हम सो गए!
हुई सुबह!
हम हुए फारिग अब!
फिर पी चाय,
और फिर कोई साढ़े ग्यारह बजे,
भोजन भी कर लिया,
और मैं फिर शर्मा जी के साथ,
बाबा पांडु के पास गया,
उनसे मिला,
और फिर अपना सामान उठाकर,
बाहर चला गया,
अब हम वहीँ जा रहे थे!
रास्ता बस से ही था,
तो बस अड्डे पहुंचे,
पूछताछ की,
और फिर बस मिल गयी,
हम बैठ गए बस में!
और चल पड़े अपने गंतव्य स्थान की ओर!
डेढ़ सौ किलोमीटर की वो यात्रा,
ऐसी थी कि जैसे भारत-भ्रमण पर निकले हों!
कहीं रास्ता संकरा और कहीं कहीं बहुत चौड़ा था!
हरा-भरा रास्ता था वैसे तो,
लेकिन थोड़ी ही देर में,
मुझे नींद लग गयी,
और मैं सो गया!
शर्मा जी भी सो गए!
बीच बीच में आँख खुल जाती थी,
सारा रास्ता एक जैसा ही था!
आँखें बंद कर,
हम बैठे ही रहे थे!
कोई चार घंटे के आसपास,
हम वहाँ पहुंचे,
उतर गए!
और यहाँ फिर चाय पी,
वहाँ का रास्ता पूछा,
तो पता चला कि,
वो स्थान अभी भी कोई बीस किलोमीटर दूर है!
लेकिन सवारी थी वहाँ जाने के लिए,
अब सवारी पकड़ी!
और फिर चल दिए!
वहाँ पहुंचे,
बड़ा ही अजीब सा स्थान था ये तो!
न आदमी और न आदमी की जात!
किस से पूछें?
कहाँ जाएँ?
उस सड़क से दो रास्ते कटते थे,
किस पर जाना है, पता नहीं था!
न कुछ लिखा ही हुआ था!
और सर्दी ने और कहर ढाया हुआ था!
हवा ऐसी चल रही थी कि,
जैसे हड्डियों से मित्रता कर ली हो उसने!
तभी एक व्यक्ति आता दिखायी दिया,
भैंस का एक कटरा बाँधा हुआ था उसने,
पीछे अपने कैरियर पर,
मैंने रोक लिया उसको,
वो भला आदमी रुक गया!
अब मैंने पूछा उस से,
और उसने बता दिया,
दायें जाना था हमको वहाँ से,
मैंने पूछा कि कितनी दूर,
तो उसने बताया कि है कोई दो किलोमीटर,
ठीक है जी!
और हम उसको धन्यवाद कर,
चल पड़े उसी रास्ते पर!
हवा ऐसी चलती कि,
जैसे गिरा ही देगी!
मेरी तो टोपी ही ठंडी हो गयी थी!
कान ऐसे हो गए थे जैसे,
बरफ से धोये हों!
हम पहुंचे वहाँ,
अब यहाँ आबादी दिखायी दी,
इक्का दुक्का मकान बने थे,
मंदिर बने थे वहाँ!
कोई पूज्य-स्थल था वो!
और फिर वो डेरा भी आ गया!
अब सांस में सांस आयी!
बहुत बड़ा था ये डेरा!
बहुत बड़ा!
असंख्य पेड़ लगे थे वहाँ!
मैंने उसके फाटक पर हाथ से थाप दी,
एक जवान सा लड़का आया,
"हाँ जी?" वो बोला,
"फाटक तो खोलो?" मैंने कहा,
"कहाँ से आये हैं?" उसने पूछा,
"काशी से" मैंने कहा,
"किस से मिलना है?" उसने पूछा,
"बाबा गौरांग से" मैंने कहा,
"वो यहाँ नहीं हैं" वो बोला,
गुस्सा तो ऐसा आया कि साले को,
पीट पीट के ढेर कर दूँ!
डेढ़ हड्डी का वो लड़का,
दरवाज़ा ही न खोले!
"आद्रा से मिल लेंगे" मैंने कहा,
अब वो चौंका!
"खोल भाई दरवाज़ा?" शर्मा जी ने कहा,
तब जाकर उस लड़के ने दरवाज़ा खोला!
हम अंदर घुसे,
तो काफी लोग थे वहाँ,
आदमी, औरतें आदि आदि!
"कहना हैं ये आद्रा?" मैंने पूछा,
"अंदर हैं" वो बोला,
"ले चलो" मैंने कहा,
उसने संदेह की दृष्टि से देखा मुझे!
तब उसने एक लड़की को आवाज़ दी,
वो आयी,
उस लड़के ने कुछ कहा उस से,
"जाओ इसके साथ" वो बोला,
और हम चल पड़े!
वो लड़की बार बार हमको देखे,
और आगे चले,
फिर रुके,
फिर चले!
"यहीं रुकिए" वो बोली,
हम रुक गए,
तब वो लड़की चली गयी,
वहाँ कक्ष बने थे,
बहुत सारे कक्ष!
वो एक कक्ष में घुस गयी,
पांच मिनट बाद वो बाहर आयी,
और हमको आने का इशारा किया,
और हम अब,
आगे बढ़े!
कक्ष के सामने पहुंचे,
जूते उतारे,
और अंदर चले,
काफी बड़ा कक्ष था वो!
और सामने, दरी पर एक साध्वी बैठी थी!
बहुत सुंदर!
अनुपम!
सच में ही सुंदर थी वो!
ऊंचा ठाड़ा कद!
मांसल बदन!
और कसा हुआ चेहरा,
पपोटेदार होंठ,
चिबुक में फलक पड़ी हुई,
मोटी मोटी आँखें!
और लम्बे सघन केश!
उसने बैठने का इशारा किया!
हम बैठ गए!
उम्र उसको कोई तीस-बत्तीस साल तो रही होगी!
हरे रंग के कुर्ते में तो और सुंदर लग रही थी!