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वर्ष २०१३ काशी के पास की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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गंगा जी का तट था वो, तट किनारे कुछ झोंपड़ियां पड़ी थीं, झोंपड़ियों में कुछ लोग सुस्त रहे थे, उनमे हम भी थे, मैं, शर्मा जी और एक बलवंत नाथ नाम का औघड़ था, अभी शुरुआत ही की थी उसने, आयु में पैंतीस बरस का रहा होगा, उसका घर-परिवार था, माँ थी, बड़े भाई थे, लेकिन उसको न जाने संसार से अलगाव सा हो चला था, अतः भटकते भटकते वो बाबा हनुमंत नाथ के पास चला आया था, बाबा ने रख लिया था उसको अपने संग, रहने वाला वो जिला कानपुर का था, बलवंत के पास खरबूजे थे, चाकू से काट काट कर, और छील छील कर, हमें खिला रहा था और खुद भी खा रहा था, हम भी बातें करते जा रहे थे, कभी कहीं की और कभी कहीं की! कुल मिलाकर, समय ही काट रहे थे, क्रिया रात्रि समय में थी, तो हम यहां आ बैठे थे, मौसम अच्छा 

था, थोड़ी देर पहले ही हल्की सी बूंदाबूंदी हुई थी, दूसरी झोपड़ी में दो चार लोग और भी थे, वे इस बलवंत के जानकार थे, मेरे नहीं, बार बार शर्मा जी से बीड़ी मांगने आ जाया करते थे, तो शर्मा जी ने पुरा बंडल ही दे दिया था उन्हें! वे अब आराम से बैठे हए बीड़ी के संग संग मदिरा का स्वाद भी ले रहे थे! उसी नदी किनारे एक नैय्या भी पड़ी थी, लेकिन थी जर्जर अवस्था में, कुछ लोग उसकी कीलें निकाल ले गए थे, ऐसी मान्यता है ज्योतिष में की इसकी कीलें भी काले घोड़े की नाल की तरह से प्रयोग हुआ करती हैं, लेकिन इसमें कुछ और भी मुख्य है, वे कीलें, जंग लगी नहीं होनी चाहियें! और जहां तक काले घोड़े की नाल की बात है, तो आपको बता दूँ, नाल वही काम करती है जो स्वयं घोड़े के पाँव से अलग हो जाती है, यदि निकलवाई गयी है तो उसमे और साधारण लोहे में कोई फ़र्क नहीं। अब दूसरी बात, नाल का जब छल्ला बनाया जाता है, तो वो मात्र लुहार ही बनाये, वो भी ठंडे लोहे पर, यदि गर्म कर दी, तो उसका प्रभाव ख़त्म हो जाएगा! यही कुछ भांतियां हैं, जिनके विषय में लोग नहीं जानते! बस, भागे जा रहे हैं! "और लाऊँ क्या?" पूछा बलवंत ने, "लाऊँ? कहाँ से लाऊँ?" पूछा शर्मा जी ने! "वो पास में ही है खेत!" बोला वो, "क्यों किसी गरीब का नुकसान कर रहा है यार?" बोले शर्मा जी, "बोलो तो लाऊँ?" बोला वो, "रहने दे, बस!" बोले वो, 

और तभी पायजेब सी बजने की आवाज़ गूंजी! लगा कोई महिला आ रही है, मैंने उस झोंपड़े में सरकंडों के बीच एम से देखा, तो चार महिलायें थीं वो, हमारी ओर ही आ रही थीं! "यहीं आसपास के गाव की ही हैं" बोला मैंने, बलवंत ने देखा, और उठ खड़ा हुआ, 

"ये तो आँचल है!" बोला वो, "कौन आँचल?" मैंने पूछा, "वो बगल वाले डेरे की रहने वाली!" बोला वो, "तो?" मैंने कहा, "अच्छी लगती है मुझे!" मुस्कुरा के बोला वो! "बैठ जा! बैठ जा! अच्छा ही लगना था तो तेरे घर में पत्नी नहीं तेरी बेचारी? छोड़ आया उसे घर पर? किसके सहारे?" पूछा मैंने, झेंप गया वो! "वो भेज देता हूँ कुछ रकम" बोला वो, "अच्छा , सच में?" पूछा मैंने, "हाँ, भेज देता हूँ" बोला वो, "फिर ठीक है,और जाने दे इसको, बैठ जा!" बोला मैं, बैठ गया वो, लेकिन आँखें न हटाईं उसने! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और तब वे चारों गुजरी वहाँ से, और उस आंचल ने, पीछे मुड़के देखा, बलवंत ने देखा उसे, दोनों ही हँसे, अब ऐसा लगा जैसे मैंने बलवंत को ज़बरदस्ती बिठा के रखा है! "जा!" मैंने कहा, 

वो तो कुत्ते की तरह से उठा! और पहुँच गया उसके पास! करने लगा बातें! "हरामी है साला ये तो!" बोले शर्मा जी! "जाने दो यार! अब क्या कहें!" मैंने कहा, 

और थोड़ी देर में आ गया वापिस वो! जैसे झंडा फहरा दिया हो उसने। "खुश लग रहा है बे?" बोले शर्मा जी, "हाँ!" बोला वो! "साले! हरामगर्दी अच्छी नहीं! लपेट देगा कोई तुझे किसी दिन!" बोले शर्मा जी! "अजी कैसे!" बोला वो! "चल ऐश कर यार!" मैंने कहा, शाम हो चली थी तब तक, सूरज अब अस्तांचल में मेहमान बनने जा रहे थे। अब विश्राम का समय था उनका! सारा दिन महाराज अपने घोड़े पर बैठ, आकाश का भ्रमण किया करते हैं। अब पृथ्वी पर, चन्द्र की सत्ता छा जानी थी! और चन्द्र अभी श्रृंगार में लगे थे। काफी समय था उनको आने में खगोल के मध्य! आअज तो वैसे भी पूर्णिमा थी, आज तो पूर्ण श्रृंगार करेंगे! तत्पश्चात, सोमरस पान! चन्द्रमुखियाँ आसपास डटी होंगी! क्या कहने कुमार चन्द्र के! "आ, चलें वापिस" मैंने कहा, 

"चलो जी" बोला वो, 

और हम तीनों चल दिए वापिस, बातें करते करते, आ गए डेरे में, गए अपने कक्ष में, लेट गए! "स्नान कर लें अब!" मैंने कहा, "हाँ, रेत काटने लगी है" बोले वो, "मैं आता हूँ"मैंने कहा और चला गया स्नान करने, 

आया वापिस, तो शर्मा जी चले गए! आये वापिस, बैठ गए! और तभी बलवंत आ पहंचा वहाँ "चाय लाया है?" पूछा शर्मा जी ने, "हाँ जी" बोला वो, "ला! ला यार!" बोले वो, 

और चाय दे दी उसने हमें! हम पीने लगे! फिर हुई शाम। हुड़क तो लगी, लेकिन आज श्मशान में पूजन था, तभी पीनी थी मदिरा! इसीलिए संध्या समय नहीं ली थी मैंने! आज मैं शर्मा जी को भी संग ले जाने वाला था अपने साथ! वो मेरे संग ही बैठते। इस से कोई नियम भंग नहीं होता, कोई पूछता भी तो कह देता मेरे सहायक हैं। बस! फिर कोई नहीं पूछता! हुई रात! अपना सामान लेकर मैं शर्मा जी को ले, चल दिया श्मशान में! वहां पहुंचा, तो करीब बीस 

औघड़ बैठे थे! बीच में एक चिता जल रही थी! लपटें तेज थीं उसकीन, शायद सामग्री आदि डाल दी थी उसमे! मैंने प्रणाम किया उस चिता को, शर्मा जी ने भी प्रणाम किया! और हम सभी को प्रणाम कर, बैठ गए वहीं सभी! 

और तब, एक महिला उठी, संग उसके एक जवान और खूबसूरत लड़की थी, कोई बीस-बाइस साल की, वो औरत, एक डिबिया में से टीका निकाल कर सभी को लगा रही थी, टीके की डिबिया उस लड़की के हाथों में थी, लड़की की वेशभूषा साध्वी वाली भी नहीं थी, और कुछेक औघड़, गिद्ध-दृष्टि से देख हे थे उसको, वो झेंप रही थी! ये साफ़ झलकता था उसकी भाव-भंगिमा से! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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आई हमारे पास! टीका लगाया उस स्त्री ने, मैंने उस लड़की को देखा, नज़रें झुका लीं उसने नीचे! "क्या करने आई है यहां?" पूछा मैंने उस लड़की से, 

लड़की झेंपी। तो उस स्त्री ने देखा मुझे,फिर एक औघड़ को देखा, जो शुरू में बैठा था, वो नेम नाथ था, कोई साठ साल का औघड़! "पूजा करने" बोली वो स्त्री, 

"मैंने आपसे नहीं पूछा, इस लड़की से पूछा!" मैंने इशारा करके कहा, वो लड़की न बोली कुछ! "बता? क्या कर रही है यहां?" पूछा मैंने, "मैंने बुलाया है" बोला नेम नाथ! उठके खड़ा हो गया था, मैं भी खड़ा हो गया था तभी! "किसलिए बुलाया है?" पूछा मैंने, "पूजा के लिए" बोला वो, "कौन सी पूजा?" पूछा मैंने, "लड़की पर ब्रह्मप्रेत विराजता है। बोला वो, अब लड़की को देखा मैंने! "इधर आ?" बोला मैं, लड़की डरे! "इधर आ?" कहा मैंने, 

अब उस स्त्री ने आगे किया उसको, "किसने बताया ये तुझे?" पूछा मैंने, "बाबा ने " बोली वो, "कब से हैं ब्रह्मप्रेत?" मैंने उस बाबा से पूछा, "छह महीने से" बोला वो! "हाथ दिखा?" बोला मैं, उसने हाथ आगे किये, "पीछे हो?" बोला मैं, 

वो पीछे हट गयी! "घूम जा!" बोला मैं, घूम गयी वो! मैंने देखा उसे! "सुन, घर चली जा, अभी, कोई ब्रह्मप्रेत नहीं, जा!" मैंने कहा, अब वो औरत सन्न! नेमनाथ भी सन्न! "जा अब!" बोला मैं वे नहीं गयीं! दोनों ही नहीं गयीं! "अरे माता! ले जा इसको! कुछ नहीं है इस पर!" मैंने कहा, अब वो स्त्री, बार बार बाबा नेम नाथ को ही देखे! दूसरे औघड़ मेरा मुंह ताकै! 

"जाओ! कुछ नहीं है!" मैंने कहा, अब जाने लगीं वो! उस स्त्री ने हाथ पकड़ लिया उस लड़की का, और जाने लगी! "ठहरो!" बोला नेम नाथ! वे रुक गयीं! अब नेम नाथ के साथी भी खड़े हो गए! आया नेम नाथ मेरे पास! "जो मैंने कहा, क्या वो गलत है?" पूछा उसने! "हाँ! गलत है!" बोला मैं। "कैसे?" पूछा उसने! "नेमी! अगर इस पर ब्रह्मप्रेत होता, तो ये यहां नहीं आ पाती! दूसरा ये, कि तुझे शर्म आनी चाहिए! ये तेरी पोती समान है! तूने अनर्गल ढंग से डरा दिया इन बेचारों को! पता नहीं क्या क्या बताया होगा तूने! और......." मैंने बोलता पूरी बात, तो काट दी उसने! "क्या अनर्गल बात कही?" पूछा उसने! "सुन ले पहले! यदि ब्रह्मप्रेत होता, तो इसको वो आने नहीं देता, और नेमी, तेरी हडियों का चूर्ण बना अभी तक भस्म कर चूका होता तेरे को! दूसरी बात, इसको कोई समस्या नहीं, मैंने जांच लिया है इसे, ब्रह्मप्रेत होता, तो अभी अलंकृत दिखती मुझे। ज़रा सा ठीकरा लग गया रास्ते से, तो वो ब्रह्मप्रेत हो गया!" मैंने कहा, अब बगलें झांके वो! "कितना पैसा खाया?" पूछा मैंने, अब न बोला कुछ! "पचहत्तर हज़ार!" वो स्त्री बोली! "अच्छा। वाह नेमी! अपने ही प्रेत सवार कर दिए बेचारी में!" मैंने कहा। "इधर आ, क्या नाम है तेरा?" पूछा मैंने उस लड़की से, "सौम्या" वो बोली अब, और आई आगे! "चेहरा उठा?" मैंने कहा, उसने चेहरा उठाया, अब मैंने एक मंत्र पढ़ा, और अपने दादा श्री की माला छुआ दी उसके माथे 

से। 

"चल जा अब! अब ठीक है तू!अब न आना इस लम्पट के कहने में! जा! ये जगह तेरी जैसियों के के लिए नहीं, जा अब, ले जाओ इसे" मैंने उसकी माँ से कहा, शायद माँ ही थी


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसकी! उसने प्रणाम किया हमें और चल दी साथ लेकर उस लड़की को! उस लड़की ने पीछे मुड़के देखा हमें! मैंने जाने का इशारा कर दिया! और अब हुआ उस नेम नाथ से मुखातिब! "शर्म नहीं आती?" कहा मैंने, नज़रें झूका लीं! 

"अरे शर्म कर! तेरी पोती बराबर है वो,आज ब्रहमप्रेत है, कल कुछ और होगा,तू सवारी करवाएगा, इनको डराएगा, इसके माँ-बाप से अनुमति लेगा, इस से संसर्ग करेगा, करता रहेगा! फिर रखैल की तरह रखने की सोचेगा! है न?? तेरे जैसे को तो काट के फैंक देना चाहिए 

सामने नदी में!" बोला मैं! "नदी को गंदा क्यों करो?"बोला एक औघड़! चन्दन नाम है उसका! मैंने देखा उसे! वो खड़ा हुआ! "डूब के मर जा! हरामज़ादे! तेरी पोती के साथ ऐसा हो तो? वो तो शुक्र है, ये थे यहां, नहीं तो तुमने कोई कसर नहीं छोड़नी थी इस लड़की का जीवन बर्बाद करने में! सुनो साथियो, निकालो इसको यहाँ से, अभी!" बोला चंदन! "उठा ओये, अपना बोरा-बिस्तरा! और निकल ले, कभी यहां की तरफ आने की सोच भी मत लेना, चल निकल?" बोला चंदन! 

अपना सा मुंह लिए, चलता बना, उठाया अपना सामान और चला गया वापिस! "ये बहुत अच्छा किया आपने! मुझे मेरी पोती की याद आ गयी उस लड़की को देख कर!" बोला चंदन! चाँद भी कोई साठ वर्ष का ही रहा होगा! मैं होगा इसलिए बोल रहा हूँ, कि हमारी आपस में ऐसी ही चलती है! "साथियो! आरम्भ करते हैं अब!" बोले एक वयोवृद्ध औघड़! "हाँ हाँ!" सभी बोले और बैठ गए अब सभी! 

और फिर हई वो क्रिया आरम्भ। सभी की साध्वियां आ जटीं, हमारे पास तो कोई थी नहीं, हम ऐसे ही बैठ रहे! अपने अपने कर्म से मंत्र पढ़ते जाते, अलख में ईंधन झोंकते जाते! वो चिता, ही अलख थी हमारी! ये क्रिया करीब तीन घंटे चली! मसिरा पी ही ली थी, पूजन भी अब समाप्त हो चला था, कुछ तो वहीं औंधे हो चले थे, कुछ उठने लगे थे, कुछ उठाये जा रहे थे, हम भी उठे, 

और चल दिए वापिस अपना अपना सामान लेकर! कक्ष में पहुंचे, स्नान किया और फिर सो गए आराम से! सुबह हुई! मैं करीब आठ बजे उठा! रात की मदिरा की गंध अभी तक साँसों में थी! शर्मा जी अभी लेटे ही हुए थे, मैंने उठाया उन्हें, वे उठे, अंगड़ाई ली, और सर पकड़ा! "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "बहन* * !" बोले वो! "क्या हो गया?" पूछा मैंने! "सर फट रहा है बुरी तरह!" बोले वो! "फट तो मेरा भी रहा है!" मैंने कहा, 

"गंदी थी शराब! बदबू कितनी थी उसमे, उलटी आने वाली है जल्दी ही!" बोले वो, 

और थूकने चले गए! मैं भी गया, कुल्ला-दातुन किया, सर में हथौड़े से बज रहे थे बुरी तरह! दातुन करते हुए सर हिलता तो लगता कि दिमाग सर से बाहर आ जाएगा! 

आ बैठे हम पलंग पर! स्नान कर ही लिया था! और तभी बलवंत आ पहंचा! चाय ले आया था! "ले आ यार। बहुत ज़रूरत है इसकी!" बोले वो, "क्या हुआ?" पूछा उसने, "सर में भूचाल आया हुआ है!" बोले वो! "ज़्यादा पी ली क्या?" पूछा उसने! "हाँ यार!" बोले वो! "दवा


   
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श्रीशः उपदंडक
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लाऊँ?" बोला वो! "कौन सी दवा?" पूछा उन्होंने चाय पीते हए! "गोली हैं?" बोला वो! "ले आ यार!" बोले वो! वो गया और ले आया दो गोलियां! ब्रूफैन थीं! एक मैंने ली और एक शर्मा जी ने! अब चाय के साथ ब्रेड-बंद लाया था, वही पेल गए हम तो! "आज निकलोगे?" पूछा उसने, "हाँ" मैंने कहा, "रात भगा दिया नेमी को!" बोला वो! "हाँ, कमीना आदमी है वो!" मैंने कहा, "यही करता है वो!" बोला वो! "मरेगा किसी दिन!" बोले शर्मा जी! "मरने दे साले को!" बोला वो! "और तू, यहीं रहेगा?" पूछा मैंने, "हाँ जी" बोला वो! "चल, फिर मिलेंगे तुझसे!" कहा मैंने! "जब मर्जी!" बोला वो! हम चाय पीने के बाद, अब निकलने ही वाले थे कि मेरे पास चंदन आये। हमें बैठना पड़ा तब! नमस्कार आदि हो ही चुकी थी! "आओ चंदन!" कहा मैंने, "चल दिए?" पूछा उन्होंने, 

"हाँ" मैंने कहा, "बड़ी जल्दी?"बोले वो! "वो बड़े बाबा के यहाँ भी काम है कुछ" कहा मैंने, "वो, हरि बाबा?" पूछा उन्होंने, "हाँ, वहीं" मैंने कहा, "अच्छा!" बोले वो! "कुछ काम था" बोले वो, "बताओ?" कहा मैंने, अब जेब से कुछ निकाला उन्होंने! कोई सफ़ेद सी वस्तु! मेरे हाथ में दी ये एक हड्डी सी थी, लेकिन लगती शंख जैसी थी, टुकड़ा था शायद उसका, लेकिन उस पर बिंदु थे, सोने जैसे सुनहरे बिंदु! "ये क्या है?" पूछा मैंने, "आप बताइये क्या है?" पूछा उन्होंने, "मुझे तो हड्डी सी लगती है" मैंने कहा, "हड्डी नहीं है!" बोले वो, "नहीं है??" मैंने हैरत से पूछा, "हाँ, नहीं है!" बोले वो! मैंने फिर से उठाया उसे, गौर से देखा! सफेद रंग था उसका! दूध सा सफेद! "तो क्या है?" मैंने पूछा, "शर्मा जी, अपना लाइटर दो!" बोले वो, शर्मा जी ने दे दिया लाइटर! लाइटर जलाया और उस हड्डी जैसी वस्तु को छुआ! उसने रंग बदला अपना! सुनहरा हो गया रंग उसका! और तो और, गरम भी नहीं हुई। "ये देखो, पकड़ो!" बोले वो! मैंने पकड़ा! 

अभी भी ठंडी! कमाल था! "ये है क्या?" मैंने पूछा, सच में! वो हड्डी जैसे वस्तु गर्म नहीं हुई थी! वो ठंडी ही थी! मैंने ऐसी वस्तु या हड्डी पहले कभी नहीं देखि थी। लेकिन सवाल ये, कि ये है क्या? दिमाग झनझना गया था मेरा तो! मैंने शर्मा जो को भी दिखाई वो, वजन में बहुत भारी थी, जैसे पारद भरा हो उसमे अपने आयतन के अनुसार उसमे वजन बहुत अधिक था! मैंने उलट-पलट के देखा उसको, कई बार! "और देखो!" बोले वो! 

मैंने पकड़ा दी वो हड्डी उन्हें! "ज़रा एक गिलास पानी देना शर्मा जी?" बोले वो, दे दिया पानी जग से निकाल कर! अब चंदन ने वो हड्डी उस पानी में डाल दी, वो गिलास के तले से टकराई, रंग फिर से सफ़ेद हआ और फिर ऊपर उठने लगी! उठते ही तैरने लगी वो! अब तो दिमाग में विस्फोट हुआ! मैंने ऐसी हड्डी तो कभी देखी ही नहीं थी, मैंने कई आश्चर्यजनक वस्तुएं देखी थीं लेकिन ऐसी कभी नहीं! "चंदन! ये है क्या?" पूछा मैंने! उन्होंने पानी से निकाला उसे, कपड़े से साफ़ कर लिया, मैंने उनके हाथ से ले ली वो वापिस! हैरतअंगेज़ वस्तु थी! "बताओ?" पूछा मैंने! "ये है सर्प-वेलिका!" बोले वो! "क्या?" कहा मैंने, मैं तो खड़ा ही हो गया था! "हाँ! सर्प-वेलिका!" बोले वो! "लेकिन वैलिका तो जिन सर्यों में होती है, उन सॉं का मिलना दुर्लभ ही नहीं, असम्भव भी है!" मैंने कहा! "हाँ, सत्य है ये!" वे बोले, "और


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसको कहाँ से मिली?" पूछ लिया मैंने "जंगल से" बोले वो! "कौन से जंगल से?" पूछा मैंने, "वहीं चुनार के पास से ही" बोले वो! "इसका अर्थ ऐसा सर्प है वहाँ?" पूछा मैंने, "अब होगा!" बोले वो! होगा! 

और मेरे सर में बजा डंका! मैं हआ खड़ा! ख्यालों में ही जा पहुंचा चुनार के जंगलों में! सर्प भी ढूंढ लिया! बेलिका भी! 

और माला भी बना ली! सबकुछ कैसे एक ही क्षण में हो गया! "कब ले जा रहे हो हमें वहां?" मैंने पूछा, वे सकपकाये! थोड़ा सा! "जब चाहो!" बोले वो! "मैं यहाँ तीन दिन में काम निबटा लूँगा, फिर मिलता हूँ आपसे!" कहा मैंने! "मैं यहीं हूँ" बोले वो! "और न बताना किसी को!" मैंने कहा, "अरे नहीं!" बोले वो! फिर चले गए वो! 

और मुझे लगा, मेरी सर्प-वेलिका उठा ले गए वहाँ से! "कमाल की चीज़ है!" बोले शर्मा जी! "हाँ!" कहा मैंने! 

"मैंने कभी नहीं देखी सुनी!" बोले वो! "मैंने सुना तो था, देखा आज ही!" कहा मैंने! "क्या क्या है संसार में!" बोले वो! "सबकुछ है!" मैंने कहा! "और आज किसी को बताओ, तो यकीन नहीं करेगा!" बोले वो "हाँ! सही बात है!" कहा मैंने! मैं बैठ गया था कुर्सी पर! पानी पिया! 

और खो गया उस सर्प में! "क्या कोई गांधर्व का चक्कर तो नहीं?" पूछा उन्होंने, "ये तो जा कर ही पता चलेगा!" कहा मैंने! "अच्छा!" बोले वो! कुछ देर चुप्पी! "आओ, चलें!" मैंने कहा, "चलो फिर" बोले वो, 

और हम आये अब बाबा के पास, एक बार फिर से बात की, और निकल पड़े! पहुंचे सीधे अपने डेरे! आराम किया! श्री श्री श्री थे नहीं वहाँ, इसीलिए आराम ही किया! चाय मंगवा ली थी शर्मा जी ने, मैंने मना कर दिया था। मैं तो उस सर्प-वेलिका में ही खो गया था! कब जाऊं। जल्दी जाऊ! दिखा जाए वो! ऐसे ऐसे खयाल, दिमाग में नाचने लगे थे। उन तीन दिनों में मैंने अपने सभी काम निबटा लिए थे, अपने महागुरु श्री श्री श्री से आज्ञा भी ले ली थी, चुनार के जंगलों में जाने की, कुल मिलाकर, मैं बहुत उत्सुक था! उत्सुक तो इतना था कि जैसे मेरा ही इंतज़ार करते हए मिलेगा मुझे वो सर्प! लेकिन अभी तो मुझे बाबा की उस चेली से भी मिलना था जिसे वो सर्प-वेलिका मिली थी! तभी कुछ सटीक पता चलता! अभी तो मैंने हवाई-किले बना लिए थे, जिसमे बस दो ही जगह थीं, एक में मैं था और एक में वो सर्प! शर्मा जी भी बेचैन थे। कहते तो नहीं थे, लकिन सोच में डूबे थे। ऐसे ही उस शाम हम बैठे हुए थे कक्ष में, श्री श्री श्री किसी कार्य से शहर से बाहर गए थे, मैं, सिद्धा और शर्मा जी, मदिरा का 

आनंद ले रहे थे! सिद्धा को भी रोमांच उठ आया था। वो भी संग चलने की ज़िद कर रहा था! अब उसको भी ले जाना ही था! "वैसे एक बात बताइये?" बोले शर्मा जी, 

"पूछिए?" मैंने कहा, "ये सर्प हैं कितने प्रकार के?" उन्होंने पूछा, "इनके कुल अठारह सौ प्रकार हैं, हम अभी एक चौथाई को ही जान पाये हैं!" मैंने कहा, "अच्छा !" बोले वो! "हाँ, ये इस संसार के हर भूगोल में हैं!" मैंने कहा, "हाँ, ये तो है!" बोले वो! "अब कुछ ऐसे भी यहीं,


   
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जो दिव्य हैं, या रूप परिवर्तित करते हैं!" कहा मैंने! "हाँ, समझता हूँ" वे बोले, "ऐसे ही ये धुरजुटाक्ष भी है!" मैंने बताया! "अलौकिक है!" बोले वो! "हाँ, सो तो है!" कहा मैंने! "तो मात्र यही सर्प-वेलिका बनाता है?" पूछा उन्होंने, "हाँ मात्र यही!" मैंने कहा! "कमाल है!" बोले वो! "हाँ! कमाल तो है!" मैंने कहा, उस रात ही हम उसी सर्प के विषय में बातें करते रहे! और बातें करते करते, सो गए! रात भर मुझे तो सांप ही सांप सिखाई देते रहे! काले-पीले, रंग-बिरंगे! छोटे-बड़े! सुबह हुई! फारिग हुए हम! आज निकलना था बाबा चंदन के पास! तो हम, सिद्धा को संग ले, निकल पड़े थे! बाबा के पास पहुंचे, नमस्कार आदि हुई, और कुछ बातें भी हुई हमारे सफर के बारे में! "बाबा, बताओ? कब निकलना है?" मैंने पूछा, "आज ही निकलते हैं, मैं तैयार हूँ!" बोले वो! 

और किसी को आवाज़ दी, कोई नवेश था, शायद सहायक था उनका! आ गया था वो! "भोजन?" पूछा उन्होंने! "हम तो करके आये हैं!" कहा मैंने, "अच्छा ! और कर लो!" बोले वो! "आप करो, हम बाहर बैठते हैं" मैंने कहा, "अरे यहीं बैठो, दो रोटी खानी हैं!" बोले वो! हम बैठे रहे वहीं! बाबा ने भोजन कर लिया, हाथ मुंह भी धो लिए! और नवेश से सामान बाँधने के लिए कह दिया, नवेश भी साथ ही जा रहा था हमारे, सामान बाँधने लगा फिर वो! चुनार तक 

कोई अधिक दूरी नहीं है वहां से जाने के लिए, डेढ़ घंटे में पहुँच जाते हम आराम से बस से! मुझे तो बेसब्री थी बहुत! मन में कई प्रश्न थे मेरे! जो बस उस सर्प के दर्शन ही उत्तर दे सकते थे! वो हो गए तैयार! "आओ जी, चलो!" बोले बाबा चंदन! हम तो तैयार थे ही! हो गए खड़े! 

और चल दिए बाहर, सवारी पकड़ी, बस अड्डे आये! और बस ले ली हमने! और कोई घंटे भर से थोड़ा अधिक समय में ही, पहँच गए हम चुनार! बढ़िया शहर है चुनार! चुनार का लाल पत्थर बहुत से किलों आदि में प्रयोग हुआ है! अब हम चुनार के उस स्थान से, उस स्थान के लिए चले, जहां बाबा चंदन हमे ले जाने वाले थे! चल पड़े, सवारी पकड़ ली, वहां तक पहंचे, और फिर गाँव तक जाने के लिए, सवारी पकड़ ली, अब गाँव आ पहुंचे, और फिर पैदल चले थोड़ा सा! आ गया था गाँव, सभी बाबा चंदन को जानते थे यहाँ इस गाँव में, सभी नमस्कार करते उन्हें! ले आये घर में हमें! घर काफी बड़ा था, दोमंजिला था! पीछे काफी स्थान खुला था उसमे! घर के लोग मिले, पाँव छए उन्होंने सभी के! "ये मकान मेरे कुनबे के ही एक भाई का है!" बोले वो। "अच्छा !" कहा मैंने! "जीतेन्द्र, पानी लाओ" बोले वो, 

और तभी पानी आ गया! हमने पानी पिया फिर! 

"आओ, यहाँ आओ" बोले वो! 

और ले आये बैठक में। "क्या चलेगा, चाय या दूध?" बोले वो! "चाय ठीक रहेगी!" मैंने कहा, "पुष्पा? चाय भेजो" बोले बाबा! "लेट जाओ! जूते खोल लो! घर है अपना!" बोले वो! मैंने और शर्मा जी ने जूते खोल लिए! बैठ गए पाँव ऊपर करके! 


   
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और फिर चाय आ गयी! दूध में पत्ती मार दी थी! लेकिन चाय पीकर, मजा आ गया! "ये आपके भाई करते क्या है?" पूछा मैंने, "सरकारी नौकर हैं" बोले वो, "अच्छा! बढ़िया!" बोले वो! "कहाँ?" पूछा मैंने, "मंडी में" बोले वो, 

"अच्छा अच्छा!" कहा मैंने! "अच्छा बना रखा है मकान!" मैंने कहा, "हाँ! दो लड़के हैं, एक लड़की का ब्याह कर ही दिया है!" बोले वो! "ये बढ़िया किया!" बोला मैं! "लड़की कानपुर में ब्याही है, अध्यापक है।" बोले वो, "अरे वाह!" मैंने कहा, चाय पी ली थी! "आओ!" बोले बाबा! "जीतेन्द्र? चाबी दे?" बोले वो, "खुला है बाबा!" आवाज़ आई! शायद जीतेन्द्र ही था वो! "आओ फिर!" बोले वो, 

और हम चले फिर, वहाँ से! ले आये छत पर! आ गए कमरे में! "यहां करो आराम!" बोले वो! "बढ़िया!" मैंने कहा! 

और मैं तो लेट गया पलंग पर! "आराम करो! मैं आऊंगा बाद में!" बोले बाबा! चले गए फिर बाहर। "सिद्धा? लेट जा यार उधर!" मैंने कहा, सिद्धा जा लेटा बिस्तर पर! "गाँव तो शानदार है!" शर्मा जी बोले! "हाँ, बड़ा भी और पुराना भी!" मैंने कहा, "हाँ, पुराना तो है!"बोले वो! तभी जीतेन्द्र आया ऊपर, पानी रखने आया था! नमस्कार की उसने सभी से! शर्मा जी ने कुछ बातें भी की उस से, पढ़ाई आदि के बारे में। फिर चला गया वो! सीधा लड़का था जीतेन्द्र! 

शाम हो ही चुकी थी! लेकिन माल-टाल था नहीं! 

और तभी बाबा चंदन आ गए! अपने चचेरे भाई के साथ! 

नमस्कार आदि हुई,खाने पीने की पूछी उन्होंने! भले आदमी लगे वे! 

और फिर, बाबा ने करवा दिया इंतज़ाम! हम हो गए शुरू! उनके भाई भी संग ही रहे हमारे! "ये दिल्ली से हैं दोनों!" बोले बाबा! "अच्छा जी!" उनके भाई बोले! "आये हैं किसी काम से यहां!" बोले वो! "अच्छा जी!" बोले वो! "जीतेन्द्र से कह के, सब्जी और मंगा लो!" बोले बाबा! "अभी कहता हूँ" बोले, उठे, आवाज़ दी, और फिर ही नीचे चले गए वो! हमनें रात को खाना खाया, आराम से सो गए फिर! स्थान खुला था, तो गर्मी भी नहीं लगी! हाँ मच्छर बहुत थे, इसीलिए कोइल जला दी थी उन्होंने! नहीं तो मच्छर सोने नहीं देते! उनकी पिन्न-पिन्न से दिमाग सरक जाता है। और जब चुम्मी लेते हैं तो ऐसी सुई लगाते हैं कि चमड़ी ही छील लो! उस कोइल से लाभ हुआ था! नींद आ गयी थी आराम से! सुबह हुई, और अब फारिग हए, घर में ही सारा इंतज़ाम था, नहीं तो सुबह लोटा या बोतल ले जानी पड़ती और जाना पड़ता जंगल घूमने! फिर मैं और शर्मा जी थोड़ी दूरी बना कर, बैठते! ताकि पीछे से कोई सांप या कोई अन्य जानवर, या कीड़ा-मकौड़ा आये तो दिख जाए! खैर, ऐसा नहीं हुआ था, सारा इंतज़ाम घर में ही था, हम हो गए थे फारिग, स्नान कर लिया था और फिर सुबह तब ही, डोल भर, दूध ले आये बाबा चंदन! साथ में मिठाई! मैंने मिठाई ली थोड़ी सी और दूध लिया, ज़बरस्ती दो गिलास पिला दिया! पेट ही भर दिया हमारा तो उन्होंने! फिर किया आराम, दूध


   
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श्रीशः उपदंडक
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से ज़रा थोड़ी सी अलक़त आ जाया करती है, इसीलिए लेट गए थे! बजे ग्यारह! और मुझे लगी कचकची! "शर्मा जी, साथ आओ मेरे" बोला मैंने, "चलो!" बोले वो, 

और हम नीचे उतर आये, बाबा चंदन वही बैठे थे और घर के लोगों से बातें कर रहे थे। "आओ जी, आओ!" बोले बाबा! हम जा पहुंचे वहां! "बैठी" बोले वो, हम बैठ गए! घर के लोग उठ गए थे वहाँ से! 

"भोजन बन रहा है, भोजन कर लें पहले!" बोले वो! "ठीक है, लेकिन." मैंने कहा, "कहिये?" बोले बाबा! "आप उस स्त्री को तो बुलाओ?" कहा मैंने! "हाँ, बलाता हूँ!" बोले वो, गरदन घुमायी अपनी, "पुष्पा? बेटा ज़रा श्यामो को बुला!" बोले बाबा! "अच्छा बाबा!" बोली पुष्पा! 

और एक स्त्री, घर से बाहर चली! घर का एक छोटा सा श्वान आ गया मेरे पास! ऐसे दुम हिलाये जैसे मुझे जानता है कई जन्मों से! काले-सफेद रबग का वो श्वान, मोटा-ताज़ा बहुत सुंदर था! उठा लिया मैंने! और सर पर हाथ फिराया उसके मैंने! अपने छोटे छोटे दांतों से, मेरा हाथ चबाये वो! "रॉकी नाम है इसका!" बोला जीतेन्द्र! "बढ़िया नाम रखा है!" मैंने कहा! बहुत प्यारा था वो! बहुत प्यारा! मैंने छोड़ा तो फिर लिपट गया मुझसे! 

अब शर्म अजी ने उठा लिया उसे। मुंह चाटे! कमीज पकड़े! दिल जीत लिया उसने तो! छोटी छोटी प्यारी से आँखें! छोटे छटे सफेद पंजे! प्यार भरी आवाज़! मैंने लिया उसे, और चूम ली उसकी खोपड़ी! अब तो पक्की दोस्ती हो गयी हमारी! दरअसल ये श्वान मुझे अपने ही 'स्टाफ' का समझते हैं! शर्मा जी को भी! ये सब, बस श्वान-सवारी वाले की ही कृपा है! वो भौंकने लगा किसी को! प्रवृति है उसकी ये! ये श्यामो थी! पुष्पा ले आई थी उसके! वो आई, बाबा के पाँव पड़े! और बैठ गयी नीचे! मैंने कुर्सी पर बिठाया, बैठ नहीं रही थी, लेकिन फिर भी बिठाया! "ये है श्यामो!" बोले बाबा! 

"अच्छा!" कहा मैंने, "इसने ही दी थी वो मुझे" बोले बाबा, "अच्छा!" कहा मैंने, श्यामो कोई पचास बरस की रही होगी, गरीबी झलकती थी वस्त्रों से उसकी, लेकिन, वस्त्र न देखिये कभी!! कोयले से ही, हीरा जन्म लेता है। "श्यामो?" बोले बाबा! "हाँ जी?" बोली वो! "ये कुछ सवाल पूछेगे, जवाद देना!" बोले बाबा! "जी' बोली वो! "आपको वो, वैलिका कहाँ से मिली?" पूछा मैंने, वो नहीं समझी! क्या वेलिका? "अरे वो हड्डी? जो दी थी तूने मुझे?" बोले बाबा! "वो, तालाब के पास से" बोली वो, "कहाँ है वो तालाब?" पूछा मैंने, "है कोई दो किलोमीटर" बोली वो, "बड़ा है?" पूछा मैंने, "हाँ जी" बोली वो, "क्या और भी थीं?" पूछा मैंने, "नहीं" वो बोली! "आपको क्या लगा उसको देखकर?" मैंने पूछा, "चमक रही थी, मैंने सोचा, कोई कांच है" बोली वो! "फिर?" पूछा मैंने, "मैं पास गयी, देखा तो हड्डी थी" बोली वो, "कैसी हड्डी?"" पूछा मैंने, "बाबा को दी थी मैंने" बोली वो, "हाँ, देखी मैंने!" मैंने कहा, "वही थी" बोली वो, "क्या करने गयीं थी आप?" पूछा मैंने, सवाल अटपटा था वैसे तो! "मेरा बेटा है, अनिल, गुस्सा हो गया था, ढूंढने गयी थी" बोली वो, "अच्छा!" कहा मैंने, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जी' बोली वो! "अच्छा! आप उसे उठा लायीं, हैं न?" पूछा मैंने! "हाँ जी" बोली वो! "तो आप घर ले आयीं उसे!" कहा मैंने! "हाँ जी!" बोली वो! "तो फिर क्या हुआ?" पूछा मैंने! "मैं घर लायी उसे, रख दी, रात को पानी पीने उठी, तो चमक रही थी। मैं तो डर गयी! न जाने 

क्या है ये! बस कपड़े में लपेट के रख दी" बोली वो! मैं मुस्कुरा पड़ा! "फिर?" मैंने पूछा! "मैं तो बाबा जी को बतायी ये बात, बाबा को दे दी मैंने वो हड्डी!" बोले वो! "समझा!" बोला मैं! "बाबा? यही बात है?" पूछा मैंने! "हाँ यही बात है!" बोले वो! "ठीक! श्यामो जी, आप अब जा सकती हैं!" कहा मैंने श्यामो ने बाबा को देखा! बाबा ने दे दी आज्ञा! चली गयी श्यामो! "बाबा!" मैंने कहा, "हाँ?" बोले वो! "चेली काम की है!" मैंने कहा! बाबा ने अपनी दाढ़ी सुलझाई! हंस पड़े! "एक काम करते हैं!" बोला मैं! "भला क्या?" बोले बाबा! "कल देखते हैं तालाब!" बोला मैं! "चलो!" बोले वो! "और हाँ, इस श्यामो को भी ले चलना!" कहा मैंने! "चल पड़ेगी!" बोले वो। "बस!" कहा मैंने! 

और तब, पुष्पा लगा लायी खाना! और हमने किया शुरू भोजन! 

तो हमने भोजन किया! भोजन बहत स्वादिष्ट था! अब गाँव का भोजन तो गाँव का हो होता है। शर का कोई भी भोजन उसके सामने फीका ही लगेगा! फिर छाछ, जीरे का तड़का लगी हुई! देसी घी से चुपड़ी रोटियां, कि हाथ भी तर हो जाएँ! घर का पड़ा राई लगा अचार, उड़द की दाल, साथ में प्याज और हरी मिर्च, हरी तीखी चटनी, गोभी की सब्जी! साहब क्या कहने ऐसे खाने के। पेट ढुस के भर जाता है। तो ऐसा ही था वो खाना! भरपेट खाया! और फिर छाछ, मुंह में आता मक्खन! मैंने तो दो गिलास इकोस लिए थे छाछ के। पेट गले तक भर आया था! चटनी ऊँगली से चाट चाट कर थाली में से साफ़ कर दी थी! नाक कई बार पोंछनी पड़ी! लेकिन खाने 

का मजा आ गया! खाना खान के बाद बदन टूटा! अन्न का नशा एक अलग ही नशा है! ऊपर से छाछ का बोझिलपन! बस, फिर तो बिस्तर ही दीखा! हो गए ढेर! अभी तक डकारें आ रही थीं! कुछ ही देर में लग गयी झपकी! और मैं तो खर्राटे मार कर, सो गया! शर्मा जी कब सोये, सिद्धा कब सोया, पता नहीं! जब नींद खुली तो तीन बजे का समय था! शर्मा जी को जगा दिया था मैंने! सिद्धा अभी तक सोया था! उसको सोने ही दिया! "क्या बजा?" बोले वो, "तीन बजे हैं" बोला मैं, "अरे? अभी तो दिन बाकी है" बोले वो, "हाँ" कहा मैंने, "बस समय काटना ही मुश्किल है!" बोले वो! "हाँ, सही बात है" बोला मैं, तभी जीतेन्द्र आ गया, पानी रखने आया था, उसने चाय की पूछी तो हाँ कर दी हमने, और सिद्धा को भी जगा दिया, वो भी चाय पीने वाला था। चाय आई, चाय पी, और फिर से लेट गए हम! क्या करते, काम था नहीं कुछ और! किसी तरह से शाम पकड़ी! बाबा ने करवाया जुगाड़, और फिर हुई रात, रात में सोये, फिर सुबह हुई, फारिग हुए, नहाये-धोये! दूध आ गया था, दूध पिया! साथ में परांठे थे आलू के, वो भी जीम लिए! "बाबा?" कहा मैंने, "हाँ जी?" बोले वो, "उस श्यामो को बुलाओ, ले जाए तालाब पर" बोला मैंने, "हाँ, बुला लूँगा अभी" बोले घड़ी देखते


   
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श्रीशः उपदंडक
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हुए। "हाँ, देर भली नहीं!" मैंने कहा, "न! देर न होगी!" बोले वो! "कह दो पुष्पा से!" मैंने कहा, 

"अभी कह दूंगा, खाना नहीं खाओगे?" पूछा उन्होंने, "खाने की छोडो, पहले तालाब दिखाओ" कहा मैंने, "चलो जी, बुला लेता हूँ" बोले वो, और खड़े हए! चले गए बाहर! "सही किया, तालाब तो देख लें!" बोले शर्मा जी! "हाँ, देर का क्या फायदा?" बोला मैं! अब की आधा घंटा लगा उस श्यामो को आने में। हम तो सब तैयार थे ही, उठाया अपना ज़रूरो कुछ सामान और चलने को तैयार हो गए! श्यामो से नमस्कार हई, उसके साथ एक और स्त्री 

थी, वो भी बाबा चंदन की ही चेली थी, इसमें कोई संदेह नहीं था, बाबा चंदन इस गाँव में काफी मशहर हैं। तो हम चल पड़े थे उस तालाब के लिए! गाँव की गलियों से होते हए हम गाँव के पीछे से निकले और आ गया गाँव से बाहर! गाँव के बाहर से दो सड़क जा रही थीं, एक शायद शहर को और एक शायद अगले किसी गांव को, सड़क की हालत ठीक ही थी, लेकिन हमने सड़क पार की, और एक पथरीले से स्थान की तरफ चल पड़े! श्यामो और ओस त्रि आगे आगे चल रहे थे 

और हम पीछे पीछे! मवेशी घास चर रहे थे, लोग बैठे थे इक्का-दुक्का पेड़ों के नीचे, अपने अपने मवेशियों को नज़रों में बनाये हए थे! हम चलते रहे, एक जगह बियाबान सा आया, सामने दूर पहाड़ था, सूखा पहाड़, अब तक तो जंगली पेड़ पौधे ही मिले थे, खेत आदि नहीं थे वहाँ, शायद पथरीली ज़मीन होने से! "जगह तो शांत है!" बोले शर्मा जी, 'हाँ अब कोई आएगा ही नहीं तो शांत ही होगी!" कहा मैंने, "हाँ, आबादी से दूर जो है" बोले वो, "सही बात है" मैंने कहा, "सिद्धा? भाग मत यार, पानी पिला ज़रा!" मैंने कहा, वो रुका और मुझे पानी की बोतल दे दी, पानी पिया मैंने! 

और फिर से चल पड़े आगे! पानी शर्मा जी ने भी पिया! "श्यामो?" बोले बाबा, श्यामो रुकी, "और कितना है?" पूछा उन्होंने, उसने हाथ के इशारे से बता दिया, हम चल पड़े फिर! एक जगह आई.वहाँ पत्थर पड़े थे बड़े बड़े! "ये पहाड़ से गिरे होंगे?" बोले शर्मा जी, "हो सकता है!" मैंने कहा, 

"पत्थर देखो कैसा लाल है!" बोले वो! "बलुआ सा लगता है" मैंने कहा, "हाँ, इमारती है वैसे तो" बोले वो! "हाँ, चुनार का पत्थर मज़बूत होता है!" कहा मैंने, श्यामो रुकी, 

और बाबा आगे गए। "क्या हुआ?" पूछा बाबा ने! "वो वहाँ!" बोली श्यामो, हमने भी देखा! सामने एक तालाब था, लेकिन अभी दूर था! "चलो बाबा!" बोला मैं, 

और हम अब लम्बे लम्बे डिग धर,आगे बढ़ चले। "बड़ा तालाब है!" बोले शर्मा जी! "हाँ, है तो बड़ा ही!" मैंने कहा, "क्षेत्रफल भी बहुत है इसका!" बोले वो! "हाँ! देख लो, कहाँ है ये तालाब!" बोला मैं! 

और हम आखिर में आ पहंचे तालाब के पास! श्यामो रुक गयी थी! मैं आगे बढ़ा, श्यामो के पास गया! "यही तालाब है वो?" पूछा मैंने, "हाँ जी" बोली वो, "अच्छा!" मैंने कहा, बहुत बड़ा


   
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श्रीशः उपदंडक
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तालाब था वो! काफी दूर दूर तक पानी ही पानी था उसमे! जल-पक्षी जल-क्रीड़ा कर रहे थे वहाँ! जंगली जलीय-पौधे तैर रहे थे! "और वो हड्डी कहाँ मिली थी तुम्हे?" पूछा मैंने, "वो उधर" बोली वो, "चलो उधर" कहा मैंने, 

वो चल पड़ी, हम उसके पीछे चले। काफी देर चलने के बाद रुक गयी! "यहां?" पूछा मैंने, "हाँ, यहीं कहीं" बोली वो, 

अब सटीक जगह याद नहीं थी उसको, कोई बात नहीं! "पानी में चमक रही थी?" पूछा मैंने, "पानी में नहीं थी, किनारे पर थी" बोली वो, "अच्छा!" कहा मैंने, वहाँ घिसटने के निशाँ तो थे, लेकिन उनको देखकर पता चलता था की सांप तो होंगे, लेकिन उतने बड़े नहीं, रेंगने के निशान छोटे थे उनके! मैंने आगे पीछे देखा, पत्थर ही पत्थर थे! एक पत्थर के पास, एक जंगली झाडी सी लगी थी, लगता था जैसे कोई सफेद सा कपड़ा अटका हुआ है उस पर, मैं वहीं चला, पहुंचा, देखा तो ये किसी सांप की कैंचली थी,थी परी! उसको उठाया, नाप तो कोई डेढ़ मीटर की निकली और शल्कों से पता चला, और उसके सर से, कि ये किसी नाग की थी, अब तक शर्मा जी भी आ गए थे वहाँ! "केंचुली है?" पूछा उन्होंने, "हाँ" मैंने कहा, "कौन से सांप की?" पूछा उन्होंने, "नाग की है" मैंने देते हुए कहा उन्हें वो केंचुली! "काफी बड़ा है ये तो!" बोले वो! "हाँ, सांप काफी बड़ा होगा वो!" मैंने कहा, 

और मैंने फिर से आसपास नज़र दौड़ाई अपनी! झाड़ियाँ ही झाड़ियाँ मैंने वो जगह खंगाली! आसपास, दूर दूर! लेकिन कुछ है मिला, बस कुछ चूहों के बिल, कुछ जहरीले कीड़े-मकौड़े, छिपकलियां, कुछ गुहेरा और कुछ बड़ी बड़ी मकड़ियां! और कुछ नहीं! हाँ, बिच्छू भी थे, बड़े बड़े काले रंग के बिच्छू ! एक होता है, उसको कहते हैं धनिया बिच्छू, काट ले तो पानी भी न पीने दे! अवयस्क हो तो आधे घंटे में ही प्राण हर ले उसका! यहाँ काफीथे वो! इसकी पहचान है काले रंग पर, धुंए जैसा रंग, खासतौर पर उसके इंक का! और वैसे भी, बिच्छू का इंक जितना मोटा होगा, उतना ही विषैला होगा वो! एक कहावत है,सांप काटा सोय! और बिच्छू काटा रोय! सही कहावत है ये! तो बहुत ढूंढें निशान लेकिन कुछ नहीं मिला! अब क्या करें! ये तो तय था की वो सांप यहां से गुजरा होगा, लेकिन अब कहाँ होगा, ये नहीं पता था! इस विषय में कोई मदद भी नहीं कर सकता था! धुरजुटाक्ष के समक्ष तो नेवला भी नहीं जाता! कोई 

सर्प-मंत्र भी कार्य नहीं करता! अब ये कार्य दुष्कर लगने लगा था! "अब?" बोले शर्मा जी, "अब! पता नहीं शर्मा जी!" मैंने कहा, 

और हम पहुंचे बाबा चंद के साथ, जो श्यामो के संग बैठे थे एक पेड़ के नीचे! "हाँ जी, बैठो' बोले बाबा चंदन! बैठ गया मैं वहां! "क्या रहा?" पूछा उन्होंने, "कुछ पता नहीं चला!" मैंने कहा, "ये तो है ही!" बोले वो! "अब?" मैंने कहा, "जांच करो पानी की" बोले वो! हाँ! ये तो सोचा ही नहीं! पता तो चल सकता है। "आओ बाबा!" कहा मैंने, "चलो" बोले वो। 

और मैंने शर्मा जी से वो छोटा बैग ले लिया, उसने कुछ सामग्री थी, हम आये तालाब के पास, बाबा बैठे, और एक अंजुल में पानी लिया, फिर अभिमंत्रित भस्म डाली उसमे, पानी


   
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श्रीशः उपदंडक
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का रंग बदला! हरे से सफ़ेद सा हो गया था। पानी में ज़रूर कुछ छिपा था! बाबा और मैंने एक दूसरे का चेहरा देखा! "कुछ न कुछ तो है यहां!" बोले वो! "हाँ, कुछ अलौकिक!" मैंने कहा, "लेकिन तालाब बहुत बड़ा है, और गहरा भी!" वे बोले, "हाँ, और वो जल में वास नहीं करता!" मैंने कहा, "हाँ, लेकिन धुरजुटाक्ष अमावस और पूनम को जल ग्रहण अवश्य ही करता है!" बोले वो! अब ये जानकारी मेरे लिए नयी थी! अमावस और पूनम की रात! जल ग्रहण! ये नहीं जानकारी थी मेरे लिए! "आज हुई एकादशी?" बोले वो, "द्वादशी, एकादशी क्षय है" मैंने कहा, "अरे हाँ" बोले वो, "तो बचे दो दिन?" बोले वो, 

"हाँ" कहा मैंने, "तो क्या आप भी वही सोच रहे हो जो मैं?" बोले वो! "हाँ! आया जाए अमावस को?" पुछा मैंने! "हाँ, आते हैं!" बोले वो! तभी पानी में से किसी ने सर बाहर निकला, और मारी चुबक्क! तरंगें बन गयी थी अचानक से ही! काफी बड़ी बड़ी! "ये क्या था?" पूछा उन्होंने! "पता नहीं! कोई मछली?" बोला मैं, "मछली चुबक्क नहीं मारती, उछलती है!" वे बोले, 

अब गड़ा दी निगाहें पानी में! फिर से चुबक्क मारी किसी ने! और मैं जान गया! "कछुआ है!" बोला मैं। "हाँ, कछुआ ही है!" बोले वो! "काफी बड़ा कछुआ है!" मैंने कहा, "हाँ, बीस-पच्चीस किलो का होगा!" बोले वो! "आराम से!" मैंने कहा, "चलो वापिस' बोले वो! "चलो!" कहा मैंने! 

और हम हए वापिस फिर, श्यामो के पास आये, वे दोनों खड़ी हो गयी थी। "चल श्यामो, वापिस चल बोले बाबा! 

और फिर हम चले वापिस! "कुछ पता चला?" पूछा शर्मा जी ने! "कुछ भी नहीं बोला मैं, "और जो बाबा ने जांच की?" पूछा उन्होंने! अब बताया मैंने, कि क्या हुआ था, और अब अमावस की रात को आना है यहां! "रात को?" बोले वो, "हाँ" कहा मैंने, "पता कैसे चलेगा?" पूछा उन्होंने! "वो चमकता है रात को, उसके ऊपर के शल्क चमकते हैं!" मैंने कहा, "अच्छा!" वे बोले, 

"मैंने बताया तो था?" कहा मैंने, "हाँ, बताया तो था!" बोले वो! "मिल जाए बस!" बोले वो! "अभी तो तुक्का ही मार रहे हैं हम!" कहा मैंने, "तुक्का ही लग जाए!" बोले वो! "लग जाए तो काम बन जाए।" मैंने कहा, बातें करते करते हम आ गए वापिस! पहुँच गए घर, और फिर अपने कमरे में! बाबा चंदन भी आ गए थे ऊपर ही हमारे साथ! "पुष्पा? पानी भिजवा दे!" आवाज़ दी उन्होंने! 

और जूतियां खोल, बैठ गए ऊपर! "बाबा?" पूछा मैंने, "हाँ?" बोले वो, "पानी में ऐसा क्या हो सकता है?" पूछा मैंने, "अब कुछ न कुछ तो है ही!" बोले वो, "फिर भी?" पूछा मैंने, "पक्का पता नहीं, लेकिन लगता है, उस सप का कोई संबंध है इस से!" बोले वो! "यदि ऐसा है, तो सफलता करीब है हमारे!" मैंने कहा, "कह सकते हैं" बोले वो! पानी आ गया था, अब पानी पिया हमने! "खाना लगवा दूं?" बोले वो, "हाँ" कहा मैंने, अब हाथ धोये अपने हमने, और बैठ गए पलंग पर! खाना लग गया और हम खाने भी लगे! "तालाब काफी पुराना लगता है"


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने कहा, "हाँ!" वे बोले, "लेकिन एक बात देखी आपने?" मैंने पूछा, "क्या?" पूछा उन्होंने, "आसपास मवेशी थे, लेकिन जल में एक भी नहीं गया!" मैंने कहा, "हाँ! जल में तो नहीं गया!" बोले वो! "शायद कछुए आदि काट लेते हों?" शर्मा जी बोले, 

"हो सकता है!" बाबा बोले, "कुछ न कुछ तो है, पक्का!" मैंने कहा, "अमावस को देखेंगे अब!" वे बोले, फिर से और खाना आ गया, परोस दिया गया! "हाँ, अमावस को देखते हैं" मैंने कहा, 

और भोजन कर लिया हमने। हाथ-मुंह धोये और आ बैठे पलंग पर! मैं लेट गया, शर्मा जी भी लेट ही गए! वो दो दिन बड़ी ही बेसब्री और इंतहाई बेतसल्ली से काटे साहब हमने! अमावस, आन एक नाम ही न ले! घंटे दिन समान लगे! रात आये, तो दुश्मन सी लगे! दिन आये तो घर कैदखाना सा लगे! हम बस आपस में अटकलें लगाएं! कि ऐसा होगा और वैसा होगा! कैसा होगा! बस इसी में काटे वो दो दिन! और जी फिर आई अमावस! नखरे करती हई। जिसका इंतज़ार होता है, उसके नखरे भी बर्दाश्त करने ही पड़ते हैं! सौ जी किये हमने भी! और कोई रास्ता भी तो नहीं था! उस शाम खाना खा लिया था, हाँ, हड़क तो लगी थी, लेकिन उस हड़क को दबाना पड़ा! दबा ली थी हमने! तोजी रात को कोई नौ बजे, हमने अपने ज़रूरीज़रूरी सामान ले लिए थे, दो टोर्च बड़े वाली! दो चादरें और और दो ही खेस, साथ में कुछ चाय भी ले ली थी,नींद से ऊँघने से बचने के लिए! ये सामान सिद्धा ने उठाया हुआ था, पानी की बोतल हमारे पास थी ही, तोजी हम निकल 

पड़े। 

अमावस की रात! घुप्प अँधेरा। हाथ को हाथ न सूझे! बाबा चंदन टोर्च लिए हमारा रास्ता बना रहे थे! गाँव के कुछ दो चार श्वान भी चल पड़े थे हमारे साथ ही! वो भौंकते जाते और अपनी पूंछ हिला, चलते जाते हमारे साथ साथ! हम चलते रहे! रास्ता इस बार बड़ा लगा हमें! "कितना बड़ा रास्ता हो गया?" पूछा मैंने! "अभी तो है थोड़ा!" बोले बाबा! "आज लम्बा नहीं हो गया?" पूछा मैंने, "अरे नहीं, वही है" बोले वो! हम चलते रहे! जूतों से पत्थर टकराते थे बार बार! "आराम से शर्मा जी!" कहा मैंने! "हाँ, आराम से ही चल रहा हूँ" बोला मैं, "सिद्धार" बोला मैं, "हाँ जी?" बोला वो, "आगे आ जा यार!" मैंने कहा, 

"चल रहा हूँ, चलो आप" बोला वो! "सामान ज़्यादा हो तो दे दे?" बोला मैं, "न, चलो आप" बोला वो! वहाँ के पेड़ ऐसे लग रहे थे जैसे प्रेत खड़े हों बड़े बड़े! रौशनी में कंकाल से दीखते वे सभी! "डरावनी जगह है ये तो!" बोले वो! "हाँ! रात बेरात कोई आये तो ऐसे ही डर के मर जाए!" कहा मैंने। "सही कहा आपने!" बोले वो! "अरे बाबा और कितना?" पूछा मैंने, "सामने ही है बस!" बोले वो, टोर्च की रौशनी मारते हुए! "आज तो दो नहीं, चार किलोमीटर हो गया है रास्ता!" बोला मैं! "हाँ, यही लगता है! पसीने से आ गया जूतों में!" शर्मा जी बोले! 

और तभी बाबा चंदन ठहर गए! "लो! आ गए!" बोले वो! मैंने तालाब देखा! बड़ा ही भयावह दीख रहा था आज तो! पानी काला लग रहा था उसका! बस तारों का ही प्रकाश था मद्धम मद्धम! और कुछ नहीं! तालाब का कोई और-छोर नहीं नज़र आ रहा था! मैं आगे बढ़ा!


   
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"सम्भल कर!" बोले बाबा! "हाँ!" मैंने कहा, अब टोर्च जलायी अपनी वाली! और मारी रौशनी पानी में! काला पानी। डरावना! न जाने कितना गहरा था वो पानी! 

और तभी पानी में आवाज़ सी आई, जैसे कोई भागा हो पानी में! मैं उधर हो दौड़ा! वे भी दौड़े! बस सिद्धा खड़ा रहा वहीं, सामान लिए! "क्या है?" पूछा बाबा ने! "पता नहीं?" बोला मैं, रौशनी मारते हुए! पानी में! पानी में तरंगें उठी थीं। झाग से बने हुए थे। "मछली होगी कोई?" बोले वो! "हो सकता है!" मैंने कहा, "आओ चलो पीछे" बोले बाबा! मैं जैसे ही लौटा, फिर से आवाज़ हुई! मैंने फिर से रौशनी मारी! लेकिन कोई नहीं दिखा! "कछुआ होगा! शिकार कर रहा होगा!" बोले शर्मा जी! 

"हो सकता है!" कहा मैंने, 

और मैं हुआ पीछे! "उस पेड़ के पास चलो, जगह ठीक है वो!" बोले बाबा! "चलो!" कहा मैंने! 

और हम वहां चल पे, वहा ज़मीन समतल थी! "सिद्धा, यहां बिछा दे, चादर" कहा मैंने, "अभी लो" बोला सिद्धा! 

और तभी एक बड़ी सी कातर गुजरी वहाँ से! "ये देखो!" मैंने कहा, "कैसे डबल है!" बाबा बोले! "हाँ! जंगल है! शिकार पर है ये!" बोले वो! "चादर बिछाओ, मैं घेरा बांधता हूँ" बोले वो, चादर बिछा दी सिद्धाने, हम बैठ गए उस पर, और बाबा ने भस्म निकाल कर, घेरा बाँध दिया, अब कोई कीड़ा-काँटा नहीं आता वहाँ! "अब बैठो आराम से!" बोले वो! "हाँ बाबा!" बोला मैं! "अब टोर्च कर दो बंद, और देखो सामने!" बोले वो! टोर्च कर दी बंद हमने! अँधेरा ऐसा कि छ कर ही पता चले कि कौन कहाँ बैठ है! आसपास घास में सर ही सरै मचे! जंगली कीड़े-मकौड़े और जानवर, अपने अपने कलापों में लगे थे। तभी पेड़ के ऊपर से आवाज़ आई! उल्लू की आवाज़! "अरे तुम कहाँ से आ गए महाराज!" बोले बाबा! "आ गए देखने! कि आज कौन उल्लू बैठे हैं यहां!" मैंने कहा, "जाओ महाराज! क्षमा करो!" बोले बाबा! 

और उल्लू उड़ा! "लो जी! सुन ली!" कहा मैंने! "सुनते कैसे नहीं!" बोले बाबा! बस ऐसे ही बातें करते रहे हम! मैंने घड़ी देखी! रेडियम के सुईयों ने बताया कि ग्यारह बज चले 

थे। "ग्यारह बज गए!" मैंने कहा! "अभी तो बारह भी बजेंगे!" बोले बाबा! "अरे सिद्धा?" बोला मैं! 

"हाँ जी?" बोला वो! "यार चाय ही पिला दे?" पूछा मैंने! "बत्ती जलाओ!" बोला वो! 

अब जलायी टोर्च! और डाली चाय उसने गिलासों में! दे दी हम सभी को, और खुद ने भी ले ली! अब हम चाय पीने लगे। समय काटे नहीं कट रहा था! अब कुछ दिखे तो बात बने। 

और फिर बजे बारह! कुछ न दिखा अभी तक! "बाबा?" मैंने कहा, "हाँ?" बोले वो! "बात बनेगी?" पछा मैंने, "बननी तो चाहिए" बोले वो! "अब बेचैनी बढ़ रही है।" मैंने कहा, "मेरी भी!" बोले वो! 'अच्छा, वो वेलिका कहाँ है?" पूछा मैंने, "घर पर" बोले वो! "ले ही आते?" कहा मैंने, "किसलिए?" बोले वो! "क्या पता उसको देख ही आ जाता?" बोला मैं! "अरे नहीं!"


   
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