आज रात ही,
इबु को हाज़िर करना था,
और उसको बता कर,
भेज देना था,
बाकी का काम,
वो खुद ही कर लेता!
हाँ, उसके भोग के लिए,
मैंने बता दिया था महेंद्र जी को,
उन्होंने,
एक जानकार के लड़के को,
भेज दिया था,
सभी सामान लाने को!
और फिर आ गयी रात!
रात करीब ग्यारह बजे,
मैं एक खाली कक्ष में पहुंचा,
भोग सजाया,
और पढ़ दिया शाही-रुक्का!
झमझमाता हुआ,
इबु हाज़िर हुआ!
मुस्कुराता हुआ!
अब मैंने उसे,
उसका उद्देश्य बताया,
वे सभी नाम बताये,
और उनके साथ, जो भी हों,
उन सब को,
गिरफ्त में लेने को कहा!
इबु हंसा!
भोग लिया,
और उड़ चला!
मैं कक्ष में ही बैठा रहा,
कोई आधे घंटे के बाद,
इबु लौटा!
काम कर आया था अपना!
वही काम,
जैसा मैंने कहा था!
मैं खुश हुआ इबु से,
और उसका हाथ थाम लिया!
हाथ में पड़े,
उसके कड़े,
टकराये एक-दूसरे से!
वो खुश हुआ बहुत!
और अब वो वापिस हुआ!
मेरे कहने पर!
प्रेतों को पकड़ना,
इबु के लिए ऐसा ही है,
जैसे एक चुटकी मारना!
अब काम हो चुका था!
तो अब बाहर आया मैं!
महेंद्र जी,
बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे!
मुझे देखा,
तो खड़े हुए वो,
मैं मुस्कुराया!
"क्या हुआ गुरु जी?" उन्होंने पूछा,
"हो गया काम!" मैंने कहा,
शर्मा जी को तसल्ली हुई,
पर महेंद्र साहब अभी भी,
एक अजीब सी,
दुविधा में थे!
"महेंद्र साहब! सब पकड़ में आ गए हैं!" मैंने कहा,
"सब?" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा,
वे बैठ गए!
चलो!
अच्छा हुआ!
बहुत अच्छा हुआ!
बेचारे,
अब भटकेंगे तो नहीं!
किसी के,
हाथ तो नहीं लगेंगे!
अच्छा हुआ!
महेंद्र साहब,
अचानक से रो पड़े!
ये ख़ुशी के आंसू थे!
मैंने नहीं रोका उन्हें!
न शर्मा जी ने ही रोका!
"गुरु जी, क्या मैं देख सकता हूँ उन्हें?" उन्होंने पूछा,
"अभी नहीं" मैंने कहा,
"फिर?" वे बोले,
"नवमी को, आ जाना मेरे यहां, मैं बात भी करवा दूंगा" मैंने कहा!
अब प्रसन्न हुए वो!
उस रात,
उन्ही सब की बातें होती रहीं,
और फिर उसके बाद,
हम सो गए!
सुबह हुई,
और हम जागे,
स्नान आदि से फारिग हुए,
फिर नाश्ता किया,
कोई ग्यारह बजे भोजन,
और बाद वापिस चले हम!
दिल्ली के लिए!
यहां का काम समाप्त हो गया था!
अब वहाँ का काम शेष था!
हम,
अब दूसरे रास्ते से वापिस हुए,
जो अब नया बना था,
एक जानकार ने,
अपनी जीप से हमे छोड़ा वहाँ,
यहां से बस ली,
और बस से स्टेशन पहुंचे,
तीन वाली गाड़ी पकड़ी,
और शाम को,
दिल्ली पहुँच गए!
स्टेशन से,
महेंद्र जी अलग चले,
और हम अलग,
हमने विदा ली,
अब एक दूसरे से!
मैं अपने निवास-स्थान गया,
और शर्मा जी अपने!
अगले दिन,
हम मिले,
महेंद्र साहब भी आ गए,
वे दफ्तर नहीं गए थे उस दिन!
फिर से बातें हुईं!
"गुरु जी, ये तो पता चल जाएगा न, कि ऐसा कैसे हुआ?" वे बोले,
"हाँ! सोहन ही बताएगा!" मैंने कहा,
"अच्छा!" वे बोले,
"ठाकुर साहब का भी पता चल जाएगा!" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
अब मैंने,
उस मुक्ति-क्रिया के लिए,
सामग्री जुटानी आरम्भ की,
खर्चा सभी,
महेंद्र जी ने उठाया,
और देखिये,
हर दूसरे दिन,
आ जाते मेरे पास!
बहुत उत्सुक थे!
उन सबसे मिलने के लिए!
फिर से!
इस बार!
हमारे स्थान पर!
उत्सुक तो,
मैं भी था!
कुछ प्रश्न थे,
वही जानने थे,
उसके उत्तर!
और ये उत्तर,
वही दे सकते थे!
सोहन!
सोहन देता ये उत्तर!
मुझे भी,
नवमी का बहुत बेसब्री से,
इंतज़ार था!
जैसे जैसे दिन जाते,
उत्कंठा,
दिल कुतरने लग जाती!
दिन में वही बातें,
रात भी वही बातें!
और फिर मित्रगण!
आ ही गयी नवमी!
और आ गए महेंद्र जी भी!
बेचैन!
और फिर हुई रात!
नक्षत्र का,
एक चरण बीता!
अब ये तीन चरण,
यही थे महत्वपूर्ण!
अब मैंने मुक्ति-कर्म की क्रिया के लिए,
तैयारियां आरम्भ की,
मैं, अपने क्रिया-स्थल में पहुंचा,
शर्मा जी और महेंद्र जी,
वहीँ दूसरे कक्ष में थे,
अब मैंने,
गुरु नमन किया,
स्थान नमन,
और फिर,
अघोर-पुरुष नमन!
तदोपरांत,
मैंने इबु का शाही-रुक्का पढ़ा!
भड़भड़ाता हुआ इबु हाज़िर हुआ!
उसकी लाल-पीली आँखें,
चमचमा रही थीं!
उसने आशय समझा मेरा,
और उन सभी को,
पेश कर दिया!
सभी घबराये हुए थे!
समझ नहीं आ रहा था उन्हें कि,
ये क्या हुआ,
सोहन तो,
आँखें फाड़,
मुझे ही देखे जा रहा था,
सत्तन काँप रहा था!
और दूसरे सहमे हुए थे!
मैंने इबु से कह कर,
फिर से गिरफ्त में ले लिया उन्हें!
और इबु लोप हो गया!
अब मैंने क्रिया आरम्भ की,
करीब एक घंटा लगा,
मैंने क्रिया का वो मृद-भांड,
उठाया,
और चला आया बाहर,
अब जमुना नदी पर जाना था!
मैंने सीधा पहुंचा अपने कक्ष में,
और उनको बताया,
हम तीनों जल्दी से,
वहाँ पहुंचना चाहते थे!
समय की कमी तो नहीं थी,
लेकिन जितना शीघ्र हो,
उतना बढ़िया!
करीब आधे घंटे में,
हम पहुँच गए जमुना जी,
हम एक जगह बैठ गए,
यहां मैंने एक वृत्त खींचा,
और एक रेखा खींची,
ये रेखा,
नदी के समीप ही खींची थी,
अब मैंने नौ दीप जलाये,
और मंत्रोच्चार किया!
और फिर,
शाही रुक्का पढ़ा उस वृत्त में जाकर,
वृत्त काफी बड़ा खींचा था,
यहीं पढ़ा मैंने रुक्का इबु का!
इबु हाज़िर हुआ,
और देखते ही देखते,
वे सभी प्रेत,
उस वृत्त की बीच आ गए,
कोई कहीं नहीं भाग सकता था!
इसीलिए ये वृत्त खींचा गया था!
और उनको छोड़,
अब इबु हुआ लोप!
जैसे ही वे सब आये,
कुल चौदह लोग थे वो,
वयस्क,
और छह बालक-बालिकाएं,
शर्मा जी,
और महेंद्र जी,
एकटक घूर रहे थे उन्हें!
जैसे ही,
सोहन ने देखा महेंद्र जी को,
वो चिल्लाया, "बाबू जी! बाबू जी!"
हृदय-विदारक चीख थी वो!
सत्तन भी यही चिल्ला रहा था!
मैंने चुप कराया उनको!
महेंद्र जी, रो पड़े,
बेचारे!
"सोहन?" मैंने कहा,
"हाँ बाबू जी?" वो बोला,
"सोहन! बहुत भटक लिए तुम सब! बस! अब और नहीं!" मैंने कहा,
वो समझ नहीं सका!
बेचारा देहाती!
"तुम जीवित नहीं हो!" मैंने कहा,
उसने छू कर देखा अपने आप को!
जैसे यक़ीन नहीं हुआ हो!
"अब न ठाकुर साहब हैं, और न उनका वो बीमार बेटा! न कोई पूजा!" मैंने कहा,
बहुत समझाया उसे!
बहुत!
बताया कि,
सवा सौ बरस गुजर गए हैं!
वो प्रेत थे,
अटके हुए थे,
समझ नहीं सकते थे!
ये मैं जानता था!
"बाबू जी? छोड़ दो हमे!" गिड़गिड़ाया सोहन!
सत्तन भी! और दूसरे भी!
तब महेंद्र जी आगे आये,
चले गए सोहन के पास!
गले मिले उस से!
और ये वचन ले लिया,
कि जैसा वो कहेंगे,
वैसा करना होगा!
हाँ कह दी, उस देहाती सोहन ने!
सोचा होगा,
कि आज़ाद हो जाएगा!
चला जाएगा यहां से!
वहीँ!
उसी नहर के पास!
उसी बैलगाड़ी में!
हाँ!
सत्तन समझ रहा था कुछ!
उसे देख,
ऐसा ही लगता था!
अब मैं गया उसके पास!
"सत्तन?" मैंने कहा,
"हाँ बाबू जी" बोला वो,
"क्या ठाकुर साहब के यहां पूजा हुई थी?" मैंने पूछा,
उसे कुछ याद नहीं था!
कुछ भी!
सब भूल चुका था!
गर्द जम चुकी थी उसकी सोच पर!
मुझे मेरे प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले!
उत्तरों के लिए,
मुझे वाचाल की आवश्यकता थी!
और वो अभी नहीं था यहां!
तो सोचा,
कि इनको सबसे पहले,
मुक्त किया जाए!
"सोहन? वापिस जाओगे?" बोले महेंद्र जी!
"हाँ जी बाबू जी, हम सगरे के सगरे!" वो बोला,
"ठीक है! सबसे पहले बालक-बालिकाएं जाएंगे!" अब मैंने कहा!
"जी बाबू जी!" बोला सोहन!
अब मैं, रेखा के एक ओर खड़ा हुआ,
यही से,
इसी रेखा से छूते ही,
वे मुक्त हो जाने थे!
उनका सूक्ष्म-तत्व,
जा मिलता उस योनि-चक्र से!
और ये सब,
इस संसार से मुक्त हो जाते!
मैंने बच्चों बुलाया,
वे आये,
रेखा पर जैसे ही,
स्पर्श हुआ,
लोप!
ऐसे ही,
एक एक करके,
वे सब लोप होते चले गए!
वो अपाहिज औरत,
घूंघट ढके,
आई,
और लोप हुई!
रह गए तीन!
नंदू आया!
और लोप!
फिर सत्तन आया!
और लोप!
अब रह गया केवल सोहन!
अब उसे बुलाया मैंने!
वो खुश हुआ,
महेंद्र जी से राम राम की,
शर्मा जी से राम राम की,
और मेरी तरफ चला!
और जैसे ही आया,
लोप हुआ!
हो गए मुक्त सभी!
महेंद्र जी,
रोते रोते बैठ गए वहीँ!
मेरी भी,
आँखें नम हो गयीं!
पर अब शान्ति पसरी थी हृदय में!
शर्मा जी भी,
अपनी उँगलियों से,
अपने आंसुओं की धार,
तोड़ रहे थे!
सब खत्म!
अब रह गए तो प्रश्न!
कि क्या हुआ था आखिर!
हमने दीप वहीँ छोड़ दिए!
और वापिस हुए!
महेंद्र साहब,
बहुत भावुक हो उठे थे!
वो हम सभी ही थे!
उसी शनिवार को,
मैंने वाचाल-महाप्रेत का आह्वान किया!
और पूछा उस से!
और जो पता चला,
वो दिल दहला देने वाला था!
कहानी कुछ ऐसी है,
जब पूजा का सामान लाया गया वहाँ,
तो पूजा आरम्भ हुई,
हलवाई,
सब अपने अपने काम में लगे थे!
अनेकों गाँव वाले मौजूद थे वहाँ!
ठाकुर बलवंत सिंह और उनकी पत्नी,
वहीँ बैठे थे,
जब बुलाया गया उनके बेटे को वहाँ,
तो एक नौकर गया था,
उनके लड़के,
प्रशांत सिंह को लेने,
तो प्रशांत,
शांत लेटा था!
उसके प्राण-पखेरू उड़ गए थे!
जब ऐसा बताया ठाकुर साहब को,
तो वे टूट गए!
बहुत प्यार करते थे अपने इस पुत्र से वो!
और इसी टूटन में,
उन्होंने अपना आपा खो दिया!
वो एक कमरे में भागे,
जहां भूसा आदि रखा था,
यहीं घी-तेल भी रखा था,
आग लगा ली उन्होंने अपने आपको!
कमरा बंद था!
आग भड़क उठी!
और इसी आग में,
ठाकुर साहब,
उनके नौकर,
और अन्य,
उनको बचाने की कोशिश में,
खुद भी शिकार हो गए उस भयानक आग का!
आग फ़ैल गयी,
और ये बालक-बालिकाएं भी जल गए बेचारे!
इनको बाद में,
नहर में बहा दिया गया!
इसी कारण से ये बालक-बालिकाएं,
नहर में कूद जाते थे!
ठाकुर साहब का छोटा बेटा, एक लड़ाई में खेत रहा,
ये थी वो दर्दनाक कहानी!
मैंने बता दी महेंद्र साहब और शर्मा जी को!
महेंद्र साहब ने,
गाँव में एक बहुत बड़ा भंडारा किया,
और शन्ति-कर्म भी करवा दिया!
न जाने, अभी भी इतिहास ने,
क्या क्या छिपा रखा है अपने कोष्ठ में!
कभी कभार,
ये कोष्ठ खुल जाता है!
और कोई सोहन!
कोई सत्तन!
आ जाते हैं बाहर!
वर्तमान में,
सीधे इतिहास से जुड़े हुए!
भूतकाल के कैदी!
बेचारे!
-------------------------साधुवाद!------------------------
