मैंने शर्मा जी को उठाया,
वे उठे,
मैंने नीचे उतरने को कहा,
वे नीचे उतरे,
और अब हम सामने चले,
जहां वो दोनों खड़े थे,
"क्या बात हुई सोहन?" मैंने पूछा,
"रास्ता टूटा है बाबू जी, देख लो" वो बोला,
हाँ!
सच में ही,
रास्ता टूटा पड़ा था!
लगभग आधा,
बैलगाड़ी नहीं जा सकती थी उस से!
"अब सोहन?" मैंने कहा,
"कोई बात नहीं बाबू जी, मैं अभी भर देता हूँ" बोला सोहन,
और चल पड़ा अपनी बैलगाड़ी की ओर!
ले आया अपनी बाल्टी,
और नहर की तरफ उतर गया!
और कोई बीस-बाइस बाल्टी रेत लाकर,
भर दिया गड्ढा!
"आओ बाबू जी!" बोला सोहन!
और चल पड़ा बैलगाड़ी की ओर,
हम भी चल पड़े,
इस मेहनतकश सोहन ने,
अपने सेवा-भाव से,
अपनी सरलता से,
दिल में जगह बना ली!
ये जब जीवित होगा,
तब भी ऐसा ही,
सुहृदय ही रहा होगा!
हम आ गए वहाँ.
और बैठ गए,
और चल पड़े आगे!
एक घंटा बीत गया,
"रे, सोहन है क्या?" एक आवाज़ आई!
"हां! आ रहा हूँ सत्तन!" बोला सोहन,
और आगे चलते हुए,
बाएं रोक दी बैलगाड़ी!
उतरा!
सामने ही,
सत्तन खड़ा था!
हाथ में,
झोला लिए!
वे मिले आपस में!
और फिर सत्तन आया हमारे पास!
राम राम की,
हमने भी की,
"बाबू जी? फिर से अवेर हो गयी दीखै!" वो बोला,
"हाँ सत्तन! फिर से अवेर हो गयी!" बोले महेंद्र जी!
"आ जाओ! नीचे कूद आओ!" बोला सत्तन!
हम उतर गए!
"आओ" बोला सत्तन!
हम चल पड़े उसके पीछे,
वो एक खेत में ले गया,
मचान पड़ी थी वहाँ!
रखवाली कर रहा था खेतों की वो सत्तन!
एक झोंपड़ी पड़ी थी वहाँ,
वो झोंपड़ी में गया,
और कूकड़ी बाँध लाया!
"लो बाबू जी! ताज़ा है, शाम को हो तोड़ीं!" बोला सत्तन!
और दे दिया वो झोला सा महेंद्र जी को,
"लो बाबू जी, ये होरे(होले) खाओ!" बोला सत्तन!
और हम सबको!
हमारे हाथ भर भर के दे दिए!
ताज़ा थे वो!
"बाबू जी? ये लो" बोला सत्तन,
और फूट-सेंध दे दीं शर्मा जी को!
"कोई झोला ना है?" बोला सोहन!
"हाँ, लाया" वो बोला,
झोंपड़ी में गया,
और एक झोला ले आया,
अब सारा सामान भर दिया उसमे उसने!
"लो! बालक खुश हो जाएंगे!" बोला सत्तन!
सत्तन!
पच्चीस बरस का रहा होगा!
मजबूत नौजवान!
मेहनतकश!
लम्बा-चौड़ा!
हलकी सी दाढ़ी-मूंछें!
हमसे,
ऐसे मिल रहा था जैसे,
ना जाने कब से जानता हो हमें!
"चहा पिरा दई बाबूजीन नै?" पूछा सत्तन ने सोहन से,
"हाँ, पिरा दई!" बोला सोहन!
मेरे दिल में,
छिपा बैठा,
मैं कहीं,
बहुत तेज रोया!
बहुत तेज!
छाती पीट कर!
बुक्का फाड़कर!
ये बेचारे!
कब से भटक रहे हैं!
रोज बैलगाड़ी,
रोज कुआँ,
रोज टूटा रास्ता,
रोज सत्तन,
रोज चाय,
रोज लोक-गीत,
रोज जे कूकड़ी!
रोज ये होले!
रोज ये फूट-सेंध!
और ना जाने,
कब तक ऐसे,
ही,
भटकते रहेंगे!
इनके लिए तो,
ऐसा ही है,
कि मौत के लिए,
रोज रोज जीना!
काश........
ये भी उस समय मुक्त हो जाते!
काश..........
लेकिन अटक गए!
समय के,
उस खंड में अटक गए!
कुछ करना होगा!
इन सभी को,
मुक्त करना होगा!
आ गया है समय!
मैंने कर लिया निश्चित!
इन सभी को,
मुक्त करूँगा!
इनका भटकाव खत्म अब!
अब और नहीं!
बहुत हुआ!
"अब चलें सत्तन!" बोला सोहन!
"हाँ, ठीक" वो बोला,
और हम चले,
राम राम की सत्तन ने,
और चढ़ गया,
अपनी उस मचान पर!
हम आ गए बैलगाड़ी पर!
और चल दिए आगे,
सत्तन, अजीब अजीब सी आवाज़ें निकालता रहा,
और धीरे धीरे,
वो भी गायब हो गयीं!
कोई आधा घंटा और बीता,
"अरे सोहन?" बोले महेंद्र जी,
"जी, हुक्म बाबू जी!" बोला सोहन!
"वो आज, ठाकुर साहब ने सराब नहीं दी?" पूछा महेंद्र जी ने!
"बड़ी चिंता करी आपने बाबू जी!" वो बोला,
बैलगाड़ी रोकी,
और पीछे गया,
वहाँ,
एक लटकते हुए,
बोर में से,
दो बोतल निकाल लाया!
दे दीं हमे!
एक मेरे हाथ लगी!
प्लायमाउथ!
बेहतरीन अंग्रेजी शराब!
"पानी लाऊँ मैं" वो बोला,
और अपनी सुराही,
लेकर,
खेतों में उतर गया,
पांच-साथ मिनट में,
सुराही भर लाया,
दी हमे,
और गिलास निकाल लिए दो,
बस दो ही गिलास थे वहाँ!
मैंने बोतल का ढक्क्न खोला!
नीम्बू की महक आई!
खटास सी महक!
जैसे जामुन के सिरके में से आती है!
इस शराब में पानी नहीं डाला जाता,
लेकिन ये बहुत पुरानी थी,
इसीलिए मैंने अपना गिलास भरा,
उसमे पानी डाला,
और गटक गया!
बेहतरीन शराब थी वो!
करीब सौ साल पुरानी!
एकदम महीन सी!
खट्टी सी!
लेकिन लाजवाब!
मैंने वो बोतल अब,
शर्मा जी को दे दी,
और होले खाने लगा,
शर्मा जी ने भी गिलास भरा अपना,
और पानी मिलाया,
फिर खींच गए!
लाजवाब स्वाद!
उनके चेहरे से पता चलता था!
फिर महेंद्र जी ने भी पी!
और फिर सोहन को दी,
सोहन, वैसे ही गटक गया उसको!
एक बोतल हम चारों ने,
खींच मारी!
नशा भी नहीं हुआ,
और दारु की बास भी नहीं आई!
डकार आई,
तो जैसे सिरके की!
फिर दूसरी खोल ली!
वो भी खींच मारी!
हम सभी ने!
सोहन ने और की पूछी,
तो मना कर दिया!
इतनी बहुत थी!
कहीं नशा होता, तो पता चलता,
बीच रास्ते में ही सोये हुए हैं!
घड़ी देखी,
साढ़े तीन का समय था,
तभी वो औरत कुछ बोली,
तो झिड़क दिया सोहन ने!
वो बेचारी,
चुपचाप लेट गयी!
"सोहन?" मैंने कहा,
"हाँ बाबू जी, हुक्म?" वो बोला,
"घर में कौन कौन हैं तेरे?" मैंने पूछा,
"माँ है, पिता जी देखे ही नहीं, एक बड़ा भाई था, वो पागल हो कर मर गया, उसके बाल-बच्चे हैं, मैं ही देख-रेख करता हूँ उनकी, मेरा कोई बालक नहीं है बाबू जी" वो बोला,
बेचारा!
दुखी ही था!
शुरू से ही!
जीवन,
दुःख में काटा था,
और अब,
प्रेत बन,
दुःख भोग रहा था!
वाह रे नभधर तेरी लीला!
कोई काला, कोई चमकीला!
क्या लिखा था इसकी पोथी में!
जो बेचारा आज भी,
बैलगाड़ी हांके जा रहा है,
कुछ चाय पी रहे हैं!
एक वो,
बेचारा सत्तन,
मचान पर चढ़ा है!
अपने मालिक, ठाकुर साहब की,
खेती संभाल रहा है!
चाकरी कर रहा है!
और ये औरत!
बेचारी ना जाने कब से,
इस सोहन के साथ,
ऐसे ही भटक रही है!
डाँट खाये जा रही है!
"बाबू जी?" बोला सोहन,
"हाँ सोहन?" मैंने कहा,
'आप भी दिल्ली से ही हो?" पूछा उसने,
"हाँ सोहन" मैंने कहा,
''अच्छा, बाबू जी के गाँव जा रहे हो?" बोला वो,
"हाँ सोहन" मैंने कहा,
"तो, इतनी अवेर ना आया करो, दिन छिपे तक पहुँच जाया करो गाँव" वो बोला,
कहा तो सही था उसने!
एकदम सही!
"क्यों? तू है तो?" मैंने पूछा,
'वो तो ठीक है, लेकिन आदमी सही ना हैं यहां के, लूट-पाट कर लेते हैं" वो बोला,
''अच्छा!" मैंने कहा,
"हमे तो कोई ना मिला?" शर्मा जी बोले,
"ठाकुर साहब का डर है ना! पहचानते हैं मुझे!" वो बोला,
"अच्छा!" बोले शर्मा जी!
और फिर,
एक खाली सी जगह पर,
बैलगाड़ी रोक दी उसने,
"पेसाब-फेसाब करना हो, तो कर लो, मैं आया अभी" बोला सोहन,
तभी वो औरत उठी,
और उतरी,
चली लंगड़ा कर,
अपने घुटने पर,
हाथ रख कर,
ओह!
ये बेचारी अपंग है!
मुझे बहुत दया आई,
वो लंगड़ाती हुई,
चली गयी झाड़ियों के पीछे,
अब हम भी उतरे,
और चले लघु-शंका त्याग करने,
हुए फारिग,
नहर में हाथ धोये,
बड़ा ठंडा पानी था!
उस गर्मी में भी,
फुरफुरी चढ़ गयी!
तभी नहर की ओट से,
आया सोहन,
एक बोरा लेकर!
"इसमें क्या है?" मैंने पूछा,
"चारा है बाबू जी" वो बोला,
"अच्छा" मैंने कहा,
"वो जाते बखत, मैंने यहीं रख दिया था, सोची, वापसी में ले लूंगा" वो बोला,
"ठीक है" मैंने कहा,
अब चारा रखा उसने,
चढ़ा बैलगाड़ी पर,
वो औरत आई लंगड़ा कर,
हाथ दे,
उसको चढ़ाया उसने,
और कुछ अजीब सी भाषा बोली,
मेरी समझ में नहीं आई!
"आओ बाबू जी" बोला सोहन,
और हम चढ़ गए सभी!
हाँक दी बैलगाड़ी आगे!
बैल भी भागा अब!
आधा घंटा बीता होगा,
या कुछ अधिक!
तभी रुक गया सोहन!
"क्या हुआ सोहन?" मैंने पूछा,
"कुछ नही बाबू जी" वो बोला,
"तो रुका क्यों?" मैंने पूछा,
"वो" उसने बाएं इशारा किया,
दो औरतें आ रही थीं,
"वो कौन हैं?" मैंने पूछा,
"एक माँ और एक बड़े की पत्नी" वो बोला,
अच्छा!
उसकी माँ और भाभी!
वो आ गयीं उधर!
घूंघट से,
चेहरे ढक कर!
बैलगाड़ी के पीछे आयीं,
और चढ़ गयीं,
बैठ गयीं,
अब राम राम हुई उनसे!
सोहन ने कुछ बातें कीं उनसे,
ठाकुर साहब के बारे में,
उनकी पत्नी के बारे में,
और हाँक दी बैलगाड़ी आगे,
मित्रगण!
अब पांच बजने को थे,
सोहन की पत्नी ने,
कुछ कहा उस से,
सोहन ने फिर झिड़क दिया उसको!
वो फिर चुप हो गयी!
और तब!
तब उस टक्कर की आवाज़ आई!
नहर की टक्कर की आवाज़!
अब गाँव पास में था!
एक पुल आया,
"बाबू जी, ये है रास्ता हमारे गाँव का" बोला सोहन!
"अच्छा! कल आएंगे हम!" मैंने कहा,
"हाँ बाबू जी, ज़रूर आना!" वो बोला,
और अब तेज हाँकी उसने बैलगाड़ी!
टक्कर की आवाज़ तेज हुई!
सामने,
वो मंदिर दिखाई दे गया!
अब यात्रा समाप्त होने को थी!
आखिर,
हमे पहुंचा दिया उसने!
नीचे उतरे हम!
महेंद्र जी के आंसू छलक गए!
लेकिन पोंछ लिए!
"अच्छा बाबू जी, राम राम!" बोला सोहन!
राम राम!
हम सभी ने कहा!
अब अपनी बैलगाड़ी घुमायी उसने,
और चल पड़ा आगे!
जानते हो कहाँ?
अपने गाँव नहीं!
पूजा का सामान लेने!
रोज की तरह!
हम देखते रहे!
देखते रहे!
और वो, बैलगाड़ी, ओझल हो गयी!
बैलगाड़ी जा चुकी थी!
साथ ही, वे तीन औरतें,
और वो, सोहन भी!
महेंद्र जी का मन बहुत विचलित था,
वे अभी भी,
उसी रास्ते को देख रहे थे,
एकटक!
उसी समय में जी रहे थे!
मैं जानता था, कि,
क्या चल रहा है मन में उनके!
उथल-पुथल!
तूफ़ान!
सोच का तूफ़ान!
प्रलय मची थी!
और उस प्रलय में,
फंसे थे महेंद्र जी!
आँखों से,
आंसू बस,
नीचे नहीं गिर रहे थे,
नहीं तो, आँखें गीली ही थीं!
"महेंद्र जी?" मैंने कहा,
तन्द्रा टूटी उनकी!
मेरी आवाज़ सुन कर!
मुझे देखा!
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
उन्होंने हाथ आगे कर दिया,
इशारा किया उस,
रास्ते की तरफ!
कुछ बोल न पाये!
एक शब्द भी नहीं!
पौ फटी तब!
और सूर्य-रश्मियाँ,
आगे बढ़ीं!
पृथ्वी पर,
जीवन आरम्भ हो गया!
पक्षी चहचा उठे!
मंदिर में घंटियाँ बजीं!
और लोगबाग आना शुरू हुए!
और हम,
तीनों, अब घर की ओर चले उनके!
घर पहुंचे,
दूध पिया,
हाथ-मुंह धोये,
और फिर सो गए!
रात भर के जागे थे!
थकावट थी बहुत!
वो जो सामान था,
घर में रख दिया गया था!
खूब सोये हम!
और उठे,
जाकर दो बजे!
नींद पूरी हो गयी थी!
अब किया स्नान!
और फिर लग गया भोजन!
अब भोजन किया!
महेंद्र जी,
उदास थे बहुत,
समझ आती थी उनकी उदासी,
साथ ही बैठे थे,
मैं छाछ पी रहा था,
"गुरु जी?" बोले वो,
"हाँ?" मैंने कहा,
"अब कैसे होगा?" उन्होंने पूछा,
"होगा!" मैंने कहा,
"कैसे?" उन्होंने पूछा,
"आप देख लेना!" मैंने कहा!
वे चुप हो गए!
और फिर हुई शाम!
हम चले बाहर गाँव के,
नहर तक आये,
वहीँ बैठ गए,
नहर से,
फिर यादें ताज़ा हो गयीं!
सारी रात की,
वो सभी यादें!
वो सत्तन,
उसकी मचान!
वो चाय!
वो घुड़सवार!
सब याद आ गए!
एक एक करके!
अब एक काम करना था मुझे,
और यही सबसे अहम था!
मुझे अब,
इबु की मदद लेनी थी!
इबु बाँध लाता सभी को!
पकड़ लाता!
ये तो था,
कि वे सभी घबरा जाते,
लेकिन,
ऐसा करना,
बहुत ज़रूरी था!
बहुत ज़रूरी!
नहीं तो,
ये ऐसे ही भटकते रहते!
दण्ड भोग रहे होते!
और ये सिलसिला,
ऐसे ही चलता रहता!
अब मैंने,
अपनी योजना,
शर्मा जी को बतायी,
उन्होंने भी हाँ कहा,
महेंद्र जी,
न समझ सके!
और समझाया भी नहीं उन्हें!
मैंने तिथियाँ देखीं,
गणित लगाया थोड़ा,
नक्षत्र-भोग देखा,
भयात-भभोग,
तो, एक नक्षत्र सही निकला,
और तिथि भी सही थी,
क्रिया की जा सकती थी उसमे!
और ये सभी,
मुक्त हो जाते!
तिथि थी,
नवमी,
और नक्षत्र था,
रेवती!
इस नक्षत्र की,
अंतिम तीन चरण-इकाईयां,
काम की थीं!
और ये तिथि,
अभी,
आठ दिन दूर थी!
षष्ठी का ह्रास हुआ था इसमें,
अल्प समय की भी नहीं थी!
इसको,
तिथि-घटन कहते हैं,
हो गया निर्णय!
