मान गए वो!
नहीं करेंगे कोई सवाल!
हम चल पड़े!
उस बियाबान रास्ते पर,
बस,
चाँद की रौशनी ही,
हमारे साथ थी,
खजूर के पेड़,
ऐसे लगते थे कि,
जैसे जिन्नात खड़े हों,
टोपी पहने!
सरकंडे,
जो नहर किनारे लगे थे,
जैसे, हमारी सारी,
बातचीत सुन रहे हों!
बीच बीच में,
कीकर के पेड़ों की कोई डाली,
रास्ते के बीच आ जाती थी,
आराम से उस डाली को हटा कर,
हम आगे बढ़ते थे!
हम कोई,
एक किलोमीटर दूर चल दिए थे!
और तभी!
तभी एक लोक-गीत के स्वर गूंजे!
हमारे ठीक पीछे,
ये आल्हा-ऊदल का लोक-गीत था!
कोई गा रहा था!
रागिनी की तरह से!
हिचकोले खाते पहियों की,
चर्र चर्र आवाज़ आ रही थी!
कोई आ रहा था!
हम पीछे मुड़े,
महेंद्र जी का दिल धड़का बहुत तेज,
मुझे और शर्मा जी को,
उत्कंठा का पेंच चुभा!
सीने में घुसने को आमादा था!
हम ठिठक कर,
रुक गए!
और कोई दस मीटर दूर,
एक बैलगाड़ी,
रुक गयी!
बैल,
अपनी दुम हिला रहा था!
अपना सर हिला रहा था,
पाँव,
फटकार रहा था,
एकदम सफ़ेद बैल!
रौशनी सी बिखेरता हुआ!
और उस बैलगाड़ी में,
कोई बैठा था,
कोई हांकता हुआ उसे,
एक और सर नज़र आ रहा था!
घूंघट से ढका!
वो आदमी,
बैलगाड़ी से उतरा,
और थोड़ा सामने आया,
इतिहास,
जीवित हो उठा!
महेंद्र जी,
काँप उठे!
"बाबू जी?" वो आदमी बोला!
महेंद्र साहब का,
सीना फटने को हुआ!
चालीस साल बाद भी,
उस आदमी ने,
पहचान लिया था महेंद्र साहब को!
वो जवान महेंद्र साहब,
अब बुढ़ापे में क़दम रख चुके थे!
फिर भी पहचान लिया था!
"सोहन?" महेंद्र साहब ने,
कांपती आवाज़ में कहा,
"मेरे बाबू जी!" बोला सोहन,
और भाग छूटा सामने की तरफ!
आते ही,
गले से लग गया!
"बाबू जी? आज फिर से अवेर?" बोला सोहन!
"हाँ सोहन! आज फिर से अवेर!" बोले महेंद्र जी!
"आओ! बैठो! बाबू जी, आप भी आ जाओ!" हमसे बोला सोहन!
किता सरल हृदय था सोहन!
हंसमुख!
मदद करने को,
हमेशा तैयार!
नहर का पानी,
शांत हो कर,
सब सुनता जा रहा था!
और हम!
चालीस साल के इतिहास में,
पीछे लौट गए थे!
या फिर,
इतिहास,
सम्मुख आ खड़ा हुआ था!
"आओ!" बोला सोहन!
और हाथ पकड़ कर,
महेंद्र जी का,
ले आया बैलगाड़ी तक,
अपनी उस औरत से कुछ कहा,
वो औरत,
पीछे सरक गयी,
उसने महेंद्र जी को चढ़ाया,
और हमारे लिए,
जगह बना दी!
"आ जाओ बाबू जी!" बोला सोहन!
और हम,
अब चढ़ गए उस बैलगाड़ी में!
सोहन ने देखा,
कि सभी आराम से बैठ गए,
तो हाँक दी अपनी बैलगाड़ी उसने आगे!
हम आगे चल पड़े,
चर्र चर्र करते वो पहिये,
चल रहे थे,
सोहन हांके जा रहा था!
बीच बीच में,
बातें भी करता,
अपने बैल से,
और फिर चल पड़ता!
तभी,
सोहन ने,
अपने बाएं हाथ पर,
रखा एक झोला उठाया,
और महेंद्र जी को दिया,
"लो बाबू जी! फूट-सेंध खाओ!" बोला सोहन!
महेंद्र जी ने,
झोला खोला,
उसमें फूट-सेंध थीं,
झोला खुला,
और उन फूट-सेन्धों की,
ख़ुश्बू उडी!
मुंह में पानी आ गया!
अब महेंद्र जी ने,
एक एक हमको दी,
और एक अपने लिए ले ली!
"बहुत मीठी हैं! खाओ!" बोला सोहन!
वाक़ई!
बहुत मीठी थीं वो!
वो स्वाद,
आज भी याद है मुझे!
लगता था,
कि जैसे छांट छांट के रखी हों!
खा लीं हमने वो फूट-सेंध!
ताज़ा थीं!
एकदम ताज़ा!
रस ऐसे टपक रहा था,
कि जैसे आम खाये हों!
मिठास ऐसी,
कि जैसे पेठे की मिठाई,
खायी हो!
उनके बीज,
अभी भी दांत के नीचे थे,
चबा रहे थे हम सभी!
हाथ पोंछे हमने अब,
अपने रुमाल से,
और उस सोहन के,
लोक-गीत में खो गए,
रास्ता बेहद खराब था,
मैं और शर्मा जी,
टकरा जाते थे कभी कभी!
कोई पंद्रह मिनट बीते,
और रोक दी बैलगाड़ी उनसे,
"आओ बाबू जी! पानी पी लो, मुंह धो लो" बोला सोहन,
हम उतरे!
उसने एक बड़ी सी,
पीतल की बाल्टी उठायी,
रस्सी समेत,
और चल दिया उन्ही खजूरों के पेड़ के बीचोंबीच!
यही वो कुआँ था!
जिसके बारे में बताया था,
महेंद्र जी ने!
हम उसके पीछे चलते रहे!
उसने कुँए में बाल्टी डाली,
और भर लिया पानी,
और फिर,
सभी को पिलाया,
बड़ा मीठा पानी था!
मैंने तो सर भी धो लिया अपना!
ठंडा पानी था बहुत!
उस गर्मी में,
बहुत बढ़िया लगा वो पानी!
अब उसने दो बाल्टी पानी,
अपने बैल को भी पिलाया,
वो भी पी गया!
अब बाल्टी रखी उसने बैलगाड़ी में,
फंसा दी एक जगह,
और फिर से बैठ गए हम!
घड़ी देखी,
बारह से कुछ कम समय हुआ था अभी!
हम आगे बढ़ चले!
"बाबू जी, आज तो नहीं कटी जेब?'' पूछा सोहन ने!
हंस पड़े महेंद्र जी!
"नहीं सोहन! आज नहीं कटी!" वे बोले,
"अच्छी बात है!" बोला सोहन!
"हाँ सोहन, अच्छी बात है" वे बोले,
उन्हें याद आ गया,
अपना वो बटुआ,
जो अगले दिन,
मिल गया था उन्हें!
ठाकुर साहब की शिकारगाह से!
"माता जी ठीक हैं बाबू जी?" बोला सोहन,
"हाँ सोहन! ठीक हैं!' बोले महेंद्र जी!
"अच्छी बात है, बीमार न रहना चाहिए कोई भी!" वो बोला,
"सोहन?" मैंने कहा,
"हाँ बाबू जी?" बोला सोहन,
मुझे देखते हुए,
"ये सामान क्या है?" मैंने पूछा,
"ये?" उसने अपने सांटे से,
उन बोरों को छूते हुए पूछा,
"हाँ, ये" मैंने कहा,
"ये अन्न है बाबू जी, कुछ पूजा का सामान" वो बोला,
"कैसी पूजा सोहन?" मैंने पूछा,
"पूजा है कल ठाकुर बलवंत सिंह के यहां" वो बोला,
"कैसी पूजा?" मैंने पूछा,
"बाबू जी को बतायी थी मैंने" बोला सोहन,
"हमे भी बता दो?" मैंने कहा,
"बताता हूँ बाबू जी! ठाकुर साहब के दो लड़के हैं, एक फ़ौज में है, और एक बड़ा, बीमार रहता है, बहुत भला लड़का है, फालिज पड़ गयी है उसे, बहुत इलाज करवाया, ठीक नहीं हुआ, तब किसी ने पूजा बतायी, तो कल है वो पूजा, मैं तो सामान लेके आया हूँ शहर से" वो बोला,
''अच्छा!" मैंने कहा,
"और आपके ठाकुर साहब कैसे हैं?" मैंने पूछा,
"बहुत नेक आदमी हैं ठाकुर साहब, यु कहो, कि गरीबों के लिए तो भगवान हैं, कोई जात-पात नहीं, कोई उंच-नीच नहीं, सबकी मदद करते हैं, बहुत मान है जी उनका!" वो बोला,
नमक!
नमक बोल रहा था ये!
ठाकुर साहब का नमक!
और ये,
उनका वफ़ादार नौकर!
और तभी सामने,
एक झोंपड़ी दिखी!
लालटेन टंगी थी वहाँ!
मद्धम सी रौशनी थी!
दो आदमी बैठे थे वहाँ,
और एक औरत भी थी!
"आओ बाबू जी! चहा (चाय) पी लो" बोला सोहन,
"रे सोहन है क्या?" किसी ने आवाज़ दी,
"हाँ रे सोमा!" बोला सोहन!
और चल पड़ा उनकी तरफ!
हम भी उतरे,
और चल पड़े वहीँ!
वो दोनों आदमी खड़े हुए,
सोहन हाथ धो रहा था,
"राम राम जी" वो दोनों बोले,
"राम राम जी" हमने भी कही,
"आ जाओ, बैठो" एक बोला,
अपने गमछे से,
वो लीपी हुई ज़मीन को साफ़ करते हुए,
हम बैठ गए,
चूल्हा जल रहा था,
उस पर,
एक टोकनी चढ़ी हुई थी,
चाय खौल रही थी उसमे!
वो औरत,
एक पंखे से,
उस खुलती हुई चाय को,
हवा करती हुई,
नीचे बिठा रखी थी!
अब सोहन भी आ गया,
एक आदमी ने,
गिलास लिए,
और उन्हें पानी से,
साफ़ करने लगा,
मैंने आसपास देखा,
मक्का लगी थी शायद!
या ज्वार,
या फिर बाजरा रहा होगा वो!
गिलास ले आया वो,
चूल्हे के पास रख दिए,
हाथ पोंछे अपने, गमछे से,
'आज फिर से अवेर बाबू जी?" एक बोला,
"हाँ, आज हो गयी, फिर से अवेर!" बोले महेंद्र जी,
अब हम बैठ गए,
और उस औरत ने,
चाय घाल दी,
गिलासों में,
उस आदमी ने,
हमे हमारे,
गिलास,
एक एक करके, दे दिए!
मैंने चाय का घूँट भरा!
गुड की चाय थी वो!
गुड का ही स्वाद था!
ज़माना गुजर गया!
गुड की चाय पिए!
गुड़ और छाछ पिए, एक साथ!
वही स्वाद याद आ गया!
मेरी चाय ख़त्म हुई,
तो उस सोमा ने,
फिर से चाय डाल दी!
''अरे लो बाबू जी! हम गरीब आदमी और क्या दे सकते हैं!" वो बोला,
दिल में उतर गयी उसकी ये बात!
चीर दिया दिल को!
वो गरीब कहाँ था?
गरीब तो हम थे!
वो तो उठ चुके थे,
इस अमीरी-गरीबी के जाल से!
अब तो इस,
प्रेत-योनि में,
अटक गए थे!
ये सभी के सभी!
तभी सोहन आया,
"चाय पी ली बाबू जी?" उसने पूछा मुझसे,
"हाँ सोहन!" मैंने कहा,
"तो चलें आगे?" वो बोला,
''चलो" मैंने कहा,
और हम अब मुड़े वहाँ से,
उन्होंने राम राम कही,
बैलगाड़ी तक आये,
तो वो औरत, जो चाय लायी थी,
सोहन की पत्नी के लिए,
गिलास ले,
वापिस हुई,
घूंघट ढके!
और अब हम बैठे,
हाँक लगाई उसने,
और अब बैल चला धीरे धीरे,
पहिये,
फिर से चर्र चर्र कर उठे!
कोई आधा घंटा बीता,
और सामने से,
एक घुड़सवार आया,
"रे सोहन?" वो बोला,
"हाँ, नंदू!" बोला सोहन,
उतर गया अपनी बैलगाड़ी से,
और चल दिया उस घुड़सवार की तरफ,
आपस में बातें हुईं उनकी,
बहुत देर तक!
करीब बीस मिनट,
फिर वापसी आया सोहन,
बैलगाड़ी में,
चढ़ गया,
घुड़सवार हमारे पास आया,
"राम राम बाबू जी!" वो बोला,
"राम राम जी!" हम सबने कहा,
और चला गया आगे,
हम देखते रहे उसे!
"सोहन?" मैंने पूछा,
"हाँ बाबू जी?" वो बोला,
"ये नंदू कौन है?" मैंने पूछा,
"ठाकुर साहब का हलकारा है जी" वो बोला,
अच्छा!
खबर, लाने-ले जाने वाला हलकारा!
पहले यही हलकारे,
डाकिये का काम करते थे!
ये नंदू वही था!
एक ऐसा ही हलकारा,
अपने घोड़े पर,
सामान लटकाये,
आज तक भटक रहा है,
जिला मुज़फ़्फ़र नगर के एक गाँव के पास!
जमाल खान नाम है उसका!
जब भी मिलो उस से,
तो शक़्क़र और रोटी देता है खाने को!
मुश्क़ में पानी भरे रखता है!
वही पानी पिलाता है!
ठंडा, ताज़ा पानी!
बहुत शांत और हंसमुख है जमाल खान!
ये नंदू भी ऐसा ही हलकारा था!
"सोहन?" मैंने कहा,
"हाँ बाबू जी?" वो बोला,
"कै बालक हैं तुझ पे?" मैंने पूछा,
"एक भी न!" वो बोला,
"एक भी न? कैसे?" मैंने पूछी,
"हुए ही न जी!" वो बोला,
हंस के बोला था,
अपना दर्द,
अपनी हंसी में दबा गया था!
और फिर,
रोक दी उसने बैलगाड़ी,
"अभी आया बाबू जी" बोला सोहन,
"कोई बात नहीं" महेंद्र जी ने कहा,
और वो,
उस रास्ते के बाएं चला,
एक पगडंडी थी,
वहीँ उतर गया वो,
और चला गया खेतों के अंदर!
कोई दस मिनट के बाद,
वो आया,
हाथ में झोला लिए,
और चढ़ गया बैलगाड़ी में,
"लो बाबू जी! ताज़ा मटरा हैं, खाओ!" वो बोला,
और दे दिया झोला उसने,
महेंद्र जी को!
महेंद्र जी ने मटर निकाले,
बड़े बड़े मटर थे वो!
सेम की सी बड़ी फली जैसे!
उसके दाने खाये हमने,
बड़े मीठे थे!
दरअसल,
ये शुद्ध मटर थी!
बिना यूरिया की,
मात्र गोबर के खाद की!
कोई कीटाणुनाशक नहीं!
इसीलिए,
बहुत मीठे दाने थे उसके,
और आकार बड़ा था!
हम खाते रहे!
और बातें करते रहे!
"ठाकुर साहब कहाँ हैं सोहन?" मैंने पूछा,
"गाँव में ही हैं जी" बोला वो,
"हम मिल सकते हैं?" मैंने कहा,
"हाँ जी! कल पूजा है, आ जाओ बाबू जी!" बोला सोहन!
"ज़रूर आएंगे सोहन!" मैंने कहा,
"हाँ जी, दावत है कल!" वो बोला,
"फिर तो आना ही पड़ेगा!" मैंने कहा,
"हाँ जी!" बोला वो!
"क्या क्या बनेगा सोहन?" अब शर्मा जी ने पूछा,
"आलू का साग! काशीफल का साग! पूरियां, मिठाईयां और दही-सन्नाटा! (अर्थात मिर्च वाला तीखा रायता!) वो बोला,
"अरे वाह सोहन! तू मिलेगा वहाँ?" शर्मा जी ने पूछा,
"हाँ जी! सभी मिलेंगे!" वो बोला,
"चल, आते हैं कल फिर!" बोले शर्मा जी!
अब तक कमर,
थक चुकी थी,
मैंने जगह बनायी,
पाँव सीधे किये,
और लेट गया!
आँखें बंद कर लीं,
अभी बहुत लम्बी यात्रा थी शेष!
बैलगाड़ी,
चर्र चर्र,
चलती रही!
मेरी आँखें बंद थीं,
महेंद्र जी,
सोहन के पीछे बैठे हुए थे,
आलती-पालती मार के,
और शर्मा जी,
अब वे भी,
जगह बना कर लेट गए,
सोहन ने,
अपने सांटे से,
अपनी पत्नी को कहा,
कि जगह छोड़े वो,
बाबू जी लेटेंगे,
और वो औरत,
जगह छोड़,
बैलगाड़ी की,
किनारी से चिपक गयी!
अब मैं और शर्मा जी लेट गए थे!
तभी लगा,
कोई भाग रहा है हमारे पीछे,
मैंने आँखों से कोहनी हटाई,
महेंद्र जी,
ऊँघ रहे थे,
गर्दन नीचे किये,
मैंने सामने देखा,
वो सब बालक-बालिकाएं थे!
जो भाग रहे थे,
बैलगाड़ी के पीछे,
करीब छह थे,
एक छोटा बालक था,
नंगा ही भाग रहा था!
फिर सभी बालक,
नहर में कूद गए!
एक एक करके!
कुछ समझ नहीं आया कि क्यों!
वो छोटा बालक भी,
सरक गया नीचे,
नहर में!
ये दृश्य,
मेरे साथ शर्मा जी ने भी देखा था!
यहां, प्रेत-लीला चल रही थी!
न जाने कब से!
कब से!
मेरी आँख लग गयी थी शायद,
हाँ, शायद!
या मैं ऊँघ रहा था!
या, मैं वहाँ नहीं था!
किसी गहरी सोच में था!
मैंने करवट बदली,
तभी लगा,
बैलगाड़ी रुकी हुई है,
मैं उठा,
देखा,
तो न तो महेंद्र जी ही वहाँ थे,
और न सोहन ही,
आसपास देखा,
कोई नहीं था,
सामने देखा,
तो वे सामने खड़े थे,
