वर्ष २०१३ उत्तर प्र...
 
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वर्ष २०१३ उत्तर प्रदेश की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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वो घुड़सवार,
वो पानी,
वो फूट-सेंध,
सब याद आ रही थीं!
होले,
और वो कच्चे मटर!
सब याद आ रहे थे!
वो बेहतरीन शराब!
क्या लिखा था?
हां!
प्लायमाउथ!
अंग्रेजी शराब थी!
नीम्बू की महक वाली!
लाजवाब शराब!
ऐसे ही ख्यालों में,
करवटें बदलता रहा मैं,
लेकिन कल रात की,
वो घटना,
भूले से नहीं भूला,
तभी भाभी जी आयीं,
खाने को पूछा,
भूख थी नहीं,
सो, मना कर दिया,
और फिर से लेटा ही रहा,
आँख लग ही गयी,
आ गयी नींद!
आँख जब खुली,
जब माता जी और अन्य लोग आये,
सभी खुश थे!
चमत्कार हो गया था!
माता जी के पेट में,
कोइ रसौली थी ही नहीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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अब बिलकुल ठीक थीं वो!
ख़ुशी के मारे,
फूली नहीं समा रही थीं!
मैं भी खुश था!
और मन ही मन,
उन सभी को धन्यवाद दे रहा था!
जिनकी वजह से,
ये चमत्कार हुआ था!
क्या क्या होता है जीवन में!
न मुझे देर होती,
न मैं आगे आता,
न पैदल पैदल चलने के सोचता,
और न मैं उनसे मिलता!
कैसा संजोग था!
कैसा अद्भुत समय था!
मुझे हर्ष था!
बहुत हर्ष!
की मैं मिला था उनसे,
और दुखी भी था,
कि,
अब कभी,
दुबारा नहीं मिल पाउँगा उनसे!
और यही सोच कर,
मेरे आंसू गिरने लगे थे!
मैं अपना चेहरा,
छिपा रहा था सबसे,
आंसू,
मेरी पोल खोलने पर,
आमादा थे!
काश!
मैं फिर मिल पाता उनसे!
उन सभी से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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काश!
मैं उठकर,
बाहर आ गया,
और बाहर की तरफ चला,
गाँव से बाहर की तरफ,
बाहर,
मंदिर तक आया!
और बैठ गया!
कुछ जानकार मिले,
हाल-चाल पूछे गए,
और मैं बैठा ही रहा वहाँ!
बहुत देर हो गयी,
और दो दिन भी पूरे हो गए थे,
परसों,
नौकरी पर भी जाना था,
दिल अवसाद से भरा था,
बार बार याद करता मैं उन्हें!
इसी,
मेरे सामने वाले रास्ते पर,
कहीं भटक रहे हैं सभी के सभी!
काश,
मैं देख पाता!
देख पाता उन्हें!
पर,
जो चाहो,
वो चुटकी मारते ही,
नहीं मिल जाता,
यदि ऐसा होता,
तो ये जीवन,
बेमायनी हो जाता!
कोई संघर्ष ही,
शेष न रहता!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब नहीं मिलेंगे वो!
यही सच्चाई थी!
यही थी हकीकत!
अब स्वीकार करनी थी मुझे!
और कोई विकल्प नहीं था!
मैं उठा,
और सामने नहर तक गया,
नहर का पानी,
गवाह था मेरा,
मेरा,
मेरी उस यात्रा का,
जिसे कल रात,
कनखियों से,
देखा था इस नहर ने!
सहसा,
नहर में कुछ बहता दिखा,
धुंधलका था,
नज़रें गड़ायीं,
तो ये बोरा था एक!
वैसा ही बोरा,
जैसा कल मैंने देखा था!
मैं देखता रहा उसे!
जब तक,
वो ओझल न हो गया मेरी आँखों से!
पता नहीं!
पता नहीं,
कहाँ खो गया था मैं!
भूल पाना,
बहुत मुश्किल था!
तभी वहां,
बड़े भाई आ गए,
मुझे बुलाया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और मंदिर ले गए,
पूजा-अर्चना की,
लेकिन मेरा मन नहीं लगा,
मैं खड़ा ही रहा,
और फिर उनके साथ,
वापिस घर आ गया!
घर आया,
बैठा,
इधर-उधर की बातें हुईं,
और फिर मैंने बताया,
मुझे जाना है कल,
उन्होंने, देसी घी, गुड, डालें, चावल,
सब बाँधने शुरू कर दिए!
रात हुई,
खाना खाया,
और सो गया,
फिर सुबह हुई,
नहाया धोया,
फारिग हुआ,
दही के साथ परांठे बनाये थे भाभी जी ने,
पेट भर खाया,
रास्ते के लिए,
परांठे और अचार,
बाँध दिए थे उन्होंने!
अब सभी से विदा ली,
बड़े भाई ने साइकिल निकाली,
मैंने अपना बैग संभाला,
और वो सामान भी,
और वो मुझे छोड़ने चल दिए!
हम उसी रास्ते से गए,
नहर नहर!
मुझे सब याद आ गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सब!
जैसा कल देखा था मैंने!
आखिर आ गए हम सड़क तक!
यहीं से बस मिलनी थी,
और लोग भी खड़े थे,
हम भी खड़े हो गए,
आधे घंटे के बाद बस आई,
अब भाई के चरण छुए,
उनसे गले मिला,
और अपना सामान लेकर,
बस में घुस गया,
भाई देखते रहे!
और मैं बैठ गया!
खत्म हुआ सब कुछ!
इस रास्ते से नाता खत्म!
इस नहर से नाता खत्म!
और बस चल पड़ी,
भाई ने हाथ हिलाया,
मैंने भी हाथ हिलाया,
और बस का इंजन,
अब घरघराया,
ड्राइवर ने गियर बदला,
और हम चल पड़े!
छूट गया पीछे सबकुछ!
वो बैलगाड़ी!
वो सोहन!
वो सत्तन,
सब खत्म!
मैं स्टेशन पहुंचा,
टिकट लिया,
गाड़ी आई,
और मैं सवार हुआ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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चल पड़ी गाड़ी,
दिल्ली के लिए!

अब वर्तमान में................
वे चुप हो गए,
चश्मा उतारा,
अपने कुर्ते से पोंछा,
वे खोये हुए थे,
वहीँ,
उसी रात में,
चालीस साल बीत गए थे!
महेंद्र जी,
चालीस साल से,
एक इच्छा पाले हुए थे अपने दिल में!
कि,
एक न एक दिन तो,
मुलाक़ात होगी ही उनकी,
इसी रास्ते पर,
इसी नहर किनारे,
उस सोहन से,
उस सत्तन से,
उस औरत से!
अब माता जी और पिता जी,
इस संसार में नहीं थे उनके,
बड़े भी भी अब,
बीमार ही रहा करते थे,
खेती का काम-काज,
अब उनके बेटों पर था,
महेंद्र जी ने अपनी एक बेटी,
ब्याह दी थी पिछले साल,
मैं नहीं आ सका था,
मैं दूर था कहीं,


   
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श्रीशः उपदंडक
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इसी कारण से,
इस बार आया था मैं,
मैं और महेंद्र जी,
एक दूसरे को कोई दस वर्ष से जानते थे,
मेरे एक जानकार,
अनिल जैन साहब की मातहत!
पारलौकिकता में महेंद्र जी की,
बहुत रूचि थी!
जो मिलता, जैसी भी किताब मिलती,
पढ़ लिया करते थे,
मुझसे प्रश्न पूछते और मैं उत्तर देता उनके!
बस,
इतना यही नाता था मेरा उनसे!
मैं सब समझ गया था!
सब!
कि क्या चल रहा है है मन में उनके!
उन्होंने मुझे देखा,
और नज़रें नीचे कीं अपनी,
"महेंद्र जी?" मैंने कहा,
उन्होंने मुझे देखा,
गहरी निगाह से,
किसी अप्रत्याशित प्रश्न के लिए,
तैयार होते हुए!
"मिलना चाहोगे सोहन से?" मैंने पूछा,
वे खड़े हुए!
भौंचक्के से!
काँप गए हों जैसे!
घबरा गए हों!
जो सुना हो,
वो सही सुना या नहीं!
चेहरा,
भाव-शून्य हो चला था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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थूक गटका उन्होंने!
लेकिन,
बोले कुछ नहीं!
"एक बार फिर से, बैलगाड़ी की सवारी हो जाए!" मैंने मुस्कुरा के कहा!
उनके भावहीन चेहरे पर,
चश्मे के नीचे से,
आंसू बह चले!
फफक फफक कर रोने लगे!
शर्मा जी ने संभाला उन्हें!
समझाया उन्हें,
चालीस साल का वो अवसाद,
अब बह निकला था बाहर!
भले ही,
आंसुओं के रूप में!
फिर चुप हुए वो!
अब हम बैठ गए!
"कौन सा दिन था वो?" मैंने पूछा,
'चौदस थी उस रात" वे बोले,
"माह कौन सा था वो?" मैंने पूछा,
उन्होंने ज़ोर डाला,
कुछ मैंने भी मदद की,
तो पता चल गया,
ये ज्येष्ठ का महीना था,
ज्येष्ठ माह, चौदस, शुक्ल-पक्ष!
और अब चल रहा था,
बैसाख!
ज्येष्ठ माह आने में,
अभी अठारह दिन थे!
"वे रोज नहीं घूमते होंगे?" उन्होंने पूछा,
"संभव है, पर उस दिन तो अवश्य ही होंगे! प्रेत, समय को नहीं देखते, ये एक घटना-चक्र है, उसमे उनके लिए उक्त घटना की पुनरावृति होती रहती है, यही है उनका भटकाव! सौ वर्ष की कोई भी घटना उनके लिए अभी वर्तमान की ही बात है!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ओह..." उनके मुंह से निकला,
"कभी आपने सोहन के बताये हुए गाँव में जाकर, ठाकुर बलवंत सिंह के बारे में नहीं पूछा?" मैंने कहा,
"बस इतना ही बताया कि ठाकुर साहब का वंश नाश हो गया" वे बोले,
"और उनकी हवेली?" मैंने पूछा,
"सब टूट-फाट गयी, अब कुछ नहीं है, बस नींव के पत्थरों को छोड़ कर" वे बोले,
"हम्म! सब वहीँ है! इतिहास के गर्भ में! हम खंगाल लेंगे इतिहास भी!" मैंने कहा,
अब वे खुश हुए!
गले लग गए मेरे!
नहीं सोचा था कभी उन्होंने कि,
एक ऐसा भी दिन आएगा!
अब हम वापिस चले वहाँ से,
मित्रगण!
वो नहर वाला रास्ता, अभी भी जस का तस पड़ा है,
लेकिन अब कोई जाता नहीं वहाँ से,
गाँव के पिछली तरफ,
एक नया रास्ता सरकार द्वारा बना दिया गया है,
ये रास्ता कई गाँवों को जोड़ता चलता है!
लेकिन,
हमे तो इसी नहर वाले रास्ते से जाना था!
और इसी प्रकार,
हमारा कार्यक्रम निर्धारित हो गया,
हम दिल्ली से,
ज्येष्ठ, शुक्ल-पक्ष की चौदस को,
वहीँ से आएंगे!
अपनी सवारी से नहीं!
जैसे महेंद्र साहब आये थे,
वैसे ही!
हम दो दिन और ठहरे वहाँ,
महेंद्र जी ने,
हमको वो अपना बटुआ भी दिखाया,
वो चोरी हो गया था,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और बाद में मिल भी गया था!
ये सब,
उन्ही का कमाल था!
खैर,
हम निकल आये वहाँ से,
महेंद्र जी,
वहीँ रह गए थे,
दालें, अचार,
सब्जियां, गन्ने,
गुड, चावल आदि,
सब रख दिए थे उन्होंने!
हम शाम तक दिल्ली आ गए,
और फिर मैं अपने निवास-स्थान चला गया,
और शर्मा जी,
अपने निवास-स्थान,
अगले दिन मिले हम,
और साथ ही अपने स्थान पर गए,
यहाँ कुछ काम था,
वही निबटाया!
पांच दिन के बाद,
महेंद्र जी भी आ गए थे दिल्ली,
आज वे राजपत्रित अधिकारी हैं,
आते ही, काम पर लग गए अपने!
हमारी बातें होती रहीं!
और फिर,
आ गया वो दिन भी!
दोपहर का समय था!
वे आ गए थे हमारे पास,
अपनी सरकारी गाड़ी से,
उसी से हम,
स्टेशन गए,
महेंद्र जी ने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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पैसेंजर गाड़ी के टिकट लिए,
और अब किया इंतज़ार!
आई गाडी,
और हम हुए सवार!
इंसान पर इंसान चढ़ा था!
ऐसी भीड़ थी!
बुरा हाल था!
लेकिन हम खड़े रहे किसी तरह!
दो घंटे के बाद,
सीट भी मिल गयी,
बैठ गए हम!
शाम कोई साढ़े आठ बजे,
हम पहुँच गए उस जगह!
जहां हमे आना था!
हम स्टेशन से बाहर आये,
फिर फाटक तक आये,
अब खोमचों की जगह वहां,
पक्के मकान से थे,
पक्की दुकाने!
फलों के,
ठेले लगे थे!
बस भी खड़ी थी,
लेकिन हम नहीं बैठे!
हम यहां से,
उसी दिन की तरह जाना चाहते थे!
जैसे उस दिन,
चालीस साल पहले,
महेंद्र जी गए थे!
हमने चाय पी,
समोसे खाये,
कुछ फल भी खाये,
और अब बजे दस!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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अब सुनसान सा हो गया था वो क्षेत्र,
अब कोई पैसेंजर गाड़ी नहीं थी!
तो,
दुकाने भी बंद हो गयीं थी!
वो टूटा मंदिर,
अब पक्का हो चला था!
भीड़-भाड़ अब कम हो गयी!
अभी करीब सत्ताईस-अट्ठाइस किलोमीटर चलना था,
एक दूध की गाड़ी आई,
उस से बात की,
वो कोई पच्चीस किलोमीटर तक छोड़ सकता था,
हम बैठ गए!
आ गए उस जगह,
जहां उतारा उसने हमे!
उसको पैसे दिए,
और चल पड़े आगे!

तो हम उतर गए थे वहाँ,
अभी यहाँ से,
नहर वाला रास्ता,
काफी दूर था,
कोई दस किलोमीटर,
हम पैदल पैदल ही चले,
और चलते रहे,
चाँद की रौशनी,
साथ ही थी हमारे!
तारे भी खूब,
चमक रहे थे!
चाँद की रौशनी में,
अपनी श्याम-नील रौशनी,
मिश्रित कर रहे थे!
तभी पीछे से प्रकाश कौंधा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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पहियों के सड़क से रगड़ने की आवाज़ आई,
ये एक ट्रक था,
महेंद्र जी ने हाथ दिया,
तो रुक गया,
उस से बात हुई,
उसने नहर वाले रास्ते तक,
छोड़ना स्वीकार कर लिया,
हम बैठ गए,
और चल पड़े,
कोई पंद्रह मिनट में,
हम पहुँच गए वहाँ,
उत्तर गए,
ट्रक वाले को पैसे दिए,
तो मना कर दिया उसने!
हंस कर यही कहा,
की कोई अधिक दूर नहीं आये हो!
हमने नमस्ते की,
और वो आगे बढ़ गया,
चला गया दूर,
और अब हम,
कुल तीन लोग,
नहर के उसी रास्ते पर खड़े थे,
जहां, आज से,
चालीस साल पहले,
एक घटना हुई थी!
वो घटना,
जिस के कारण,
हम आज फिर से आये थे यहाँ!
लगता था,
इतिहास,
दोहरा रहा है अपने आप को आज!
नहर का पानी,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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साफ़ स्वच्छ और दूधिया जान पड़ता था!
चौदस के चाँद की रौशनी,
खूब खिली थी!
नहर के पानी पर उसकी रौशनी,
झिलमिला रही थी!
पेड़ आदि,
जैसे आज हमारा ही इंतज़ार आकर रहे थे!
सुनसान था वहाँ!
बीहड़,
दूर दूर तक कोई प्रकाश नहीं!
कभी कभार बस,
एक आद जुगनू टिमटिमा जाता!
या फिर,
उस सड़क पर आता जाता कोई इक्का-दुक्का वाहन,
अपने पहियों की आवाज़ सुना जाता!
अब हम आगे चले,
उसी कच्चे रास्ते पर!
यही था वो रास्ता!
जहां चालीस साल पहले,
महेंद्र जी के साथ,
वो घटना हुई थी!
मैंने ,
महेंद्र जी को समझा दिया था,
की, वे कोई सवाल नहीं करें उनसे,
उनके लिए,
महेंद्र जी से मिलना,
ऐसा ही है,
जैसे वे अभी,
इसी पल मिले हैं!
वे जो बोलें,
सुन लें!
लेकिन सवाल न करें!


   
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