मुझे ये फूट-सेंध और कूकड़ी दीं गयीं!
"और शराब?" किसी की आवाज़ आई,
शराब?
हाँ!
शराब भी!
वो अंग्रेजी बेहतरीन शराब!
मैं दायें मुड़ा,
देखा किसने कहा था ये शराब!
ये चाचा जी थे,
कुनबे के ही चाचा,
दरोगा रहे थे कभी,
अब सेवानिवृत थे,
"शराब भी दी थी उसने?" चाचा ने पूछा,
"हाँ चाचा" मैंने कहा,
"सोहन ने?" वे बोले,
मेरा सर घूमा!
कान लाल हो गए!
मुंह खुला रह गया!
इन्हे कैसे पता?
"ठाकुर बलवंत सिंह, है न?" वे बोले,
मैं तो जैसे,
जड़ हो गया,
कुठाराघात हुआ मुझ पर!
काठ मार गया!
सभी चौंक पड़े!
माँ, पिता जी,
बड़े भाई!
और कई लोग!
"आपको कैसे.......?" मैंने पूछा,
और पूछते पूछते रुका,
"ठाकुर बलवंत सिंह के बड़े लड़के की तबियत खराब है, ये पूजा का सामान है, दो अन्न की बोरियां, वो गुड की भेलियाँ, और कुछ पूजा का सामान, फिर एक झोंपड़ी, फिर वो
घुड़सवार, फिर वो सत्तन!" वे बोले,
मैं हैरान!
चाचा जी को कैसे पता?
ये तो,
ऐसे बोल रहे हैं कि,
जैसे मेरे साथ ही थे,
कल रात!
"यही हुआ था न?" पूछा चाचा जी ने,
मैं तो सन्न था!
कि चाचा कैसे जानते हैं सब?
वो झोंपड़ी,
वो सत्तन?
वो होले?
कैसे जानते हैं?
"है? या नहीं महेंद्र?" बोले वो,
"हाँ, यही, सबकुछ यही!" मैंने कहा,
"महेंद्र! अब न तो सोहन ही है, न वो ठाकुर बलवंत सिंह, न वो सत्तन! सब बहुत अर्से पहले, मर चुके हैं!" वे बोले,
मर चुके हों?
अभी तो मिला हूँ सबसे?
कुछ घंटे पहले,
साथ में ही था मैं उनके?
कैसे मर गए?
क्या कह रहे हैं चाचा जी?
मुझे यक़ीन नहीं आया!
मैं तो,
पलक पीटता रह गया!
"ठाकुर बलवंत सिंह! आज़ादी से पहले रहते थे उस गाँव में! आज से कोई साठ साल पहले, ये सत्तन, वे सभी लोग, वो सोहन, सभी नौकर थे उनके, वो सारी ज़मीनें, ठाकुर बलवंत सिंह की ही थीं, अब कोई नाम लेवा भी नहीं उनका!" वे बोले,
अचानक से ध्यान आया!
उनका वो बेटा!
वो फौजी बेटा!
"लेकिन उनका एक बेटा है, फ़ौज में?" मैंने कहा,
"होगा, लेकिन वो कभी नहीं लौटा था, शायद किसी जंग में खेत रहा!" वे बोले,
अब दिमाग फटा!
अब बस,
विस्फोट होने को था!
सभी,
मुझे ही ऐसे देख रहे थे,
कि जैसे मैं,
कोई मदारी हूँ!
अभी पिटारे से,
कुछ बजरबट्टू निकालूँगा!
मैं गहन सोच में डूब गया,
मुझे ऐसा क्यों नहीं लगा?
और जो वहम मुझे हुआ था,
दो बार,
क्या वो सही था?
क्या वो बच्चे,
सच में भाग रहे थे पीछे पीछे?
वो कौन थे?
और वो,
औरत,
कहाँ से आ गयी थी अचानक बैलगाड़ी में?
और वो बोरा?
वो क्या था?
और वो चाय?
वो सब?
क्या था?
सब झूठ था?
नहीं!
नहीं!
झूठ नहीं था!
मैंने फूट-सेंध खायी थी!
तभी मेरी नज़र,
अपने हाथ पर पड़ी,
मेरे हाथ,
अभी तक काले थे!
उन होलों के कारण,
मैं छील छील के खा रहा था,
उन्ही की,
कालिख थी ये!
"होले! यही दिए थे न सत्तन ने?" बोले चाचा जी!
मैंने उन्हें देखा!
"हाँ!" मैंने कहा,
"खाये होंगे?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"और वो, ताज़े मटर भी!" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा,
लेकिन, चाचा जी को,
कैसे पता?
यही सवाल था,
जो दिमाग में,
मेरो सोच की मिट्टी को,
धँसाये जा रहा था!
"चाचा? एक सवाल है" मैंने कहा,
"जानता हूँ! कि मैं कैसे जानता हूँ!" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा,
"बीस साल पहले, मैं भी ऐसे ही रात को लौट रहा था, मुझे भी वही बैलगाड़ी मिली, वही कुआँ, वही सबकुछ, जैसा तुमने देखा!" वे बोले,
"और जानते हो?" वे बोले,
"क्या चाचा जी?" मैंने पूछा,
"नहर के पास, जो दायाँ पुल है, वहाँ एक खंडहर है, एक हवेली के खंडहर, ये शिकारगाह है ठाकुर बलवंत की!" वे बोले,
अब यक़ीन आया!
हाँ,
वो कुआँ!
वो मीठा पानी!
सब याद आ गया!
"आपने चाचा जी, जांच नहीं की?" मैंने पूछा,
"की, और जो पता चला, वो बता दिया है मैंने" वो बोले,
"लेकिन आपको कैसे पता चला कि वे सब प्रेत हैं?" मैंने पूछा,
"शक तो मुझे पहले तब हुआ, जब वो झोंपड़ी आई, वो चाय, दूसरा, वो भागते हुए बच्चे, तीसरा और बोरा, चौथा, वो औरत, जो बोल रही थी कि सुबह होने वाली है, वापिस नहीं जाना?" वो बोला,
अच्छा!
ये बोल रही थी वो औरत!
और इसीलिए,
वो सोहन,
डाँट रहा था उसे!
उसे मुझे छोड़ना था!
मेरे गाँव तक!
ओह!
कितने भले प्रेत हैं वो सब!
कितने वर्षों से,
ऐसे ही भटक रहे हैं!
ऐसा सोच कर,
मेरे तो पाँव काँप उठे!
लेकिन एक सवाल रह गया था!
इन सबको क्या हुआ था?
अर्थात,
वे सब एक साथ कैसे मरे?
क्या हुआ था?
अब मैं जान गया था,
कि मैं कल सारी रात,
उन प्रेतों के संग था!
कितने प्रेम से,
आदर से,
मेरा सत्कार कर रहे थे वे सब!
चाय पिलाई,
होले खिलाये,
फूट-सेंध,
और तो और,
वो टूटा रास्ता,
वहाँ भी,
मिट्टी नहीं डालने दी उसने!
दिमाग भनभना गया मेरा!
माता जी ठीक थीं!
कैसे?
अचानक कैसे हुआ ये?
चार बरस की बीमारी,
छह घंटों में,
कैसे कट गयी?
कहीं ये सब,
उसी सोहन का किया-धरा तो नहीं?
हाँ!
ये चमत्कार,
उसी प्रेत,
उसी सोहन ने ही किया है!
मन में तीव्र इच्छा उठी!
दुबारा मिलने की,
काश,
एक बार और मिल लूँ मैं उनसे!
मुझे भय नहीं था,
क़तई भी नहीं!
बल्कि,
आदर था,
प्रेम था,
स्नेह,
जो अभी उपजा था!
"दुबारा, कभी नहीं मिलेंगे वो! मुझे भी नहीं मिले महेंद्र बेटा!" वे बोले,
कांच सा टूटा,
टूट कर बिखर गया,
बिखरा,
तो किरिच,
मुझे चुभ गयीं!
मेरी सोच का,
रक्त बहने लगा,
रक्त,
मेरी इच्छा,
मेरी तीव्र इच्छा का रक्त!
मैं उठ खड़ा हुआ,
और स्नान करने के लिए,
तैयारी करने लगा,
पिता जी,
और वो चाचा जी,
आपस में बातें करने लगे,
माँ खुश थी,
कि प्रेतों से मिलकर भी,
सकुशल लौट आया उनका बेटा!
मैं स्नान कर आया,
और फिर अब,
दूध पिया,
थोड़ी देर बाद,
भोजन किया,
और सो गया फिर,
नींद में भी,
सोहन और वही बैलगाड़ी,
वही प्रेत,
वही रास्ता,
वही उसका लोक-गीत,
आल्हा-ऊदल का वो गीत,
यही घूमता रहा दिमाग में!
मैं करीब पांच घंटे सोया,
उसके बाद,
खड़ा हुआ,
वस्त्र पहने,
और,
गाँव से बाहर जाने लगा,
तभी,
चाचा जी द्वारा बतायी हुई,
वो ठाकुर बलवंत सिंह की,
शिकारगाह याद आई,
वहीँ चल पड़ा मैं,
पहले मंदिर आया,
हाथ जोड़े,
और फिर आगे चला,
फिर पुल आया,
पुल पार किया,
और सामने ही वो खंडहर थे,
शिकारगाह!
ठाकुर बलवंत सिंह की शिकारगाह!
मैं ऊपर चढ़ा,
ये टीला था अब,
मिट्टी का टीला,
जंगली झाड़ लगे थे,
मैं चलता रहा,
और पहुँच गया वहाँ,
अब यहां,
भांग और धतूरे थे!
धतूरों में,
फूल खिले थे,
बड़े बड़े,
और धतूरे भी लगे थे,
मैंने चारों ओर देखा,
आगे चला,
और अचानक!......................
अचानक!
अचानक से मेरी नज़र,
सामने पड़ी,
दीवार पर बने एक आले पर,
आला,
टूटा हुआ था,
लेकिन नीचे का भाग,
अभी शेष था!
वहीँ,
कुछ चौकौर सी वस्तु रखी थी,
ये प्राकृतिक नहीं था!
अवश्य ही किसी ने रखा था वहाँ!
ये ये था क्या?
भूरे रंग का,
चौकोर सा!
मैं आगे बढ़ा,
उन झाड़ियों को पार किया,
और धीरे धीरे आगे बढ़ा,
मेरी तो आँखें फट गयीं!
दिल ज़ोरों से धड़का!
बदन सिहर उठा!
हाथ-पाँव,
ठंडे हो गए!
ये तो...
ये तो!!
ये तो मेरा कल गाड़ी में चोरी हुआ,
बटुआ था!
हाँ!
वही था!
बिलकुल वही!
मेरा ही बटुआ था वो!
उस पर,
सनराइज लिखा था!
जैसा,
मेरे बटुए पर लिखा था!
धड़कते दिल से,
कांपते हाथों से,
मैंने वो बटुआ उठाया,
खोला,
उसमे पूरे चार सौ तेरह रुपये थे!
कुछ सिक्के भी!
उतने ही,
जितने थे उसमे!
अब आया चक्कर!
मैं वहीँ,
एक पत्थर पर,
बैठ गया,
भौंरे चक्कर काट रहे थे वहाँ,
ततैय्ये, बर्रे,
सभी चक्कर काट रहे थे!
मुझे भय नहीं लगा,
न!
ज़रा सा भी नहीं!
किसने रखा ये बटुआ?
सोहन ने?
क्या सोहन जानता था?
की मैं यहां,
आऊंगा?
ढूंढने?
असलियत जानने के बाद?
हाँ!
जानता होगा वो!
अवश्य ही जानता होगा!
मैं खड़ा हुआ,
बटुआ देखा,
और जेब में रखा,
फिर चारों ओर देखा,
कोई भी नहीं था वहाँ!
कोई भी नहीं!
न जाने, क्या सूझी मुझे!
'सोहन!'
'सोहन!'
मैं पुकारता गया,
लेकिन कुछ नहीं!
मेरी आवाज़,
बस हवा ने सुनी,
और हवा ही उसका संवेग बहा ले गयी!
मैंने फिर से पुकारा!
कई बार!
कई बार!
लगता था,
वे सभी वहीँ हैं!
सभी के सभी!
मुझे देख रहे हैं!
मेरे पास ही कहीं हैं!
सोहन देख रहा है,
वो औरत भी!
यहीं कहीं,
वो बैलगाड़ी भी खड़ी है!
बस,
पास में ही!
लेकिन कुछ नहीं था!
अब ये,
मेरा वहम था,
और कुछ भी नहीं!
इसके अतिरिक्त,
कुछ भी नहीं!
दिल बुझ गया!
मन भर आया,
आँखें गीली हो गयीं!
बुझे मन से,
मैं वापिस हुआ,
और चल पड़ा,
घर की ओर,
ढीला-ढाला,
घर पहुंचा,
घर पर,
पिता जी को पैसे दिए,
बटुआ चोरी हुआ था,
ये नहीं बताया था मैंने उन्हें,
अब पैसे आये,
तो माता जी को वो और बड़े भाई,
ले जा सकते थे,
चिकित्सीय-परीक्षण के लिए!
वे तैयार हुए,
और मैं भी,
वे अस्पताल जाते,
और मैं,
अपनी साइकिल से,
उसी रास्ते पर जाता!
वो झोंपड़ी देखने!
वो,
कुआँ देखने!
वो आधे घंटे में निकले,
और मैं भी उनके जाते ही,
फ़ौरन अपने रास्ते चला,
गाँव से बाहर आया,
मंदिर पहुंचा,
यहां पानी पिया,
और अब दौड़ा दी अपनी साइकिल!
चल पड़ा उसी रास्ते पर!
मैं चलता रहा,
कभी तेज,
कभी धीरे,
रास्ते पर,
दायें देखते हुए,
फिर मैं वहाँ पहुंचा,
जहां वे पेड़ लगे थे,
जामुन के पेड़,
चार पेड़ थे वो,
हाँ, चार ही थे,
उन्ही के नीचे,
वो झोंपड़ी थी,
वहीँ अंगीठी जल रही थी,
वहीँ वो आदमी बैठा था,
और औरत चाय बना रही थी,
वे पेड़ आ गए,
मैं रुका,
वहीँ गया,
लेकिन, यहां कुछ नहीं था,
कुछ भी नहीं,
बंजर ज़मीन थी वहां,
दूर दूर तक कुछ नहीं था!
कुछ भी नहीं!
यहीं तो पी थी चाय?
सच कहते हैं चाचा जी!
अब कुछ शेष नहीं!
मैं चला वहाँ से,
मैंने वो टूटा रास्ता देखा,
कहीं नहीं मिला,
कोई रास्ता नहीं टूटा था वहाँ,
सब ठीक था!
फिर मैं,
उस कुँए पर आया,
खजूर के पेड़ों के बीच था वो कुआँ,
नज़र आ गया कुआँ!
साइकिल खड़ी की,
और चला कुँए की तरफ!
कुआँ सामने था,
लेकिन अब टूटा-फूटा था,
कल तक तो,
चिकनी दीवारें थीं उसकी!
सीढ़ियां बनी थीं,
पत्थरों की!
और अब,
न सीढ़ियां ही थीं!
वक़्त के साथ साथ,
मिट्टी खा चुकी थी उन्हें!
वे धंस चुके थे!
और वो दीवारें,
सब टूट गयीं थीं!
घास-फूस ही थी वहाँ,
मैंने कुँए में झाँका,
पानी नहीं था उसमे!
केवल,
झाड़-झंखाड़!
और कुछ नहीं!
बहुत मीठा पानी था इसका!
मैं कहाँ चला गया था?
इतिहास में?
या वे आ गए थे,
वर्तमान में?
इतिहास से?
कुछ समझ नहीं आया!
कुछ भी!
मैं खड़ा हुआ,
और अब वापिस हुआ,
जब बीच रास्ते में आया,
तो मुझे छिलके दिखे,
उन होलों के छिलके!
वही!
जो मैंने खाये थे रात को!
क्या गुजरी,
नहीं बता सकता, नहीं बता सकता!
मैं वापिस हुआ अब,
घर आया,
माता जी और अन्य लोग,
अभी नहीं आये थे,
मैं जाकर,
अपनी,
दुकड़िया में लेट गया,
और सो गया,
कल रात की वो यात्रा,
वो बैलगाड़ी,
सोहन,
सत्तन,
वो औरत,
