तीन बजने में,
दो मिनट थे,
रात बहुत गहरी थी!
तारे,
ऐसे लग रहे थे,
कि उछल के पकड़ लो!
चाँद, जैसे,
नहर में स्नान करने,
आ रहे हों नीचे,
पल पल में नीचे!
चाँद के गड्ढे,
साफ़ दीख रहे थे!
मैं बैलगाड़ी तक आया,
और बैठ गया,
और फिर लेट गया,
अब नींद नहीं आई,
मैं खुली आँखों से,
आकाश को ही देख रहा था,
तभी मुझे,
गंध सी आई,
शराब की सी गंध,
देखा तो,
मेरी बाजूं गीली हो गयी थी,
बाजू के साथ,
एक बोतल पड़ी थी,
मैंने बोतल उठायी,
ये अंग्रेजी शराब थी,
मैंने लेबल पढ़ा उसका,
प्लायमाउथ लिखा था उस पर,
महंगी रही होगी!
"सोहन?" मैंने कहा,
"हाँ बाबू जी?" बोला वो,
"ये बोतल रिस रही है" मैंने उसको वो बोतल देते हुए कहा,
उसने लगाम छोड़ी,
और बोतल पकड़ी,
बोरी से साफ़ किया,
और रख दी एक तरफ!
"शौक़ रखते हो बाबू जी?" सोहन ने पूछा,
"किसका?" मैंने पूछा,
"सराब का!" वो बोला,
"हाँ कभी कभी" मैंने कहा,
"लोगे?" उसने कहा,
"इतनी सुबह?" मैंने पूछा,
"सुबह तो बहुत दूर है बाबू जी" वो बोला,
सच कहा था उसने,
बहुत दूर थी सुबह अभी!
उसने बैलगाड़ी रोकी,
उतरा,
और पीछे गया,
एक गिलास लाया,
और वो मटर!
बोतल ली,
ढक्कन खोला,
और भर दिया गिलास,
और डाल दी शराब उसमे!
"पानी?" मैंने कहा,
"अंग्रजी है, पानी न पड़ा करे इसमें!" वो हँसते हुए बोला,
बड़ी हिम्मत कर,
मैंने वो शराब गटकी!
सच में,
बहुत शानदार शराब थी वो!
ज़रा सी भी कड़वी नहीं!
फिर मटर दिए उसने मुझे,
और सोहन ने,
बोतल से ही पी ली,
बिना मुंह लगाये!
"ठाकुर साहब कुछ न बोलेंगे?" मैंने कहा,
"ठाकुर साहब ने रास्ते के लिए ही तो दी थी!" हंस के बोला सोहन!
मैं भी हंस पड़ा!
फिर से,
उसने एक गिलास भरा,
और दे दिया मुझे,
मैं वो भी गटक गया!
लेकिन एक बात!
नशा क़तई नहीं हुआ!
लाजवाब शराब थी वो!
स्वाद,
मुझे आजतक याद है!
बहुत मीठा,
नीम्बू की खुश्बू लिए हुए!
लगा,
लाट साहब की शराब पी हो आज!
बोतल रखी उसने,
बैठा,
और हाँक दी बैलगाड़ी आगे!
बैलगाड़ी,
धीरे धीरे,
आगे बढ़ रही थी,
तभी मुझे,
नहर में,
टक्कर के पानी की आवाज़ आई,
नहर में बनी टक्कर,
ये बनायी जाती है,
अक्सर कुछ किलोमीटर पर,
कभी कभी आधा किलोमीटर पर,
इसमें पानी,
घूम कर जाता है,
बहते पानी की दिशा में,
सामने कंक्रीट से,
एक छोटी सी दीवार सी बना दी जाती है,
जिस से पानी, वेग से ऊपर चढ़ता है,
धक्का लगाता हुआ,
और फिर आगे,
घुमावदार,
रास्ते से,
नीचे गिरता है,
इस से पानी को वेग मिल जाता है!
यही होती है टक्कर!
देहाती भाषा में टक्कर!
तो मुझे पानी के टक्कर की आवाज़ आई,
ऐसी आवाज़ थी,
जैसे कोई विद्युतीय-रेल-इंजन जब सांस छोड़ता है,
तो जैसे आवाज़ आती है,
वैसे आवाज़!
बहुत तेज!
अर्थात,
यहाँ से अब कोई,
बीस-बाइस किलोमीटर ही रहा होगा गाँव!
सोहन,
आराम से,
बैलगाड़ी हांके जा रहा था!
अपना लोक-गीत गाते हुए,
मैं सुने जा रहा था,
ये आल्हा-ऊदल की कहानी थी!
वो गाता बढ़िया था!
आवाज़ बढ़िया थी उसकी!
तभी आवाज़ आई!
"रे सोहन है क्या?"
सोहन ने,
बैल को पुचकारा,
और रोक दी बैलगाड़ी,
तभी खेत से,
एक आदमी बाहर आया,
बुक्कल मारे हुए था वो!
सोहन नीचे उतरा,
और उस आदमी से मिला,
मेरे बारे में बताया,
वो आदमी आया मेरे पास,
और राम-राम की!
मैंने भी राम-राम की,
"कौन से गाँव जाओगे बाबू जी?" उसने पूछा,
इस से पहले मैं कुछ कहता,
सोहन ने ही बता दिया,
वो सुनकर,
चुप हो गया,
उस आदमी का नाम,
सोहन,
सत्तन कह रहा था!
पता चला,
सत्तन भी, ठाकुर साहब का ही नौकर है!
और उनके खेतों में काम करता है,
अब चूंकि,
मक्का लगी हुई थी.
तो वो वहीँ अपने दूसरे संगी-साथियों के साथ,
खेत पर ही था,
मुझे उबासियां आ रही थीं,
उनकी बातें न तो समझ ही आ रही थीं,
और न मैं,
समझना ही चाहता था,
बस किसी तरह से,
घर पहुंचूं,
अपने घर,
बस,
यही था दिमाग में!
तभी वो आदमी आया मेरे पास,
उसके पास,
होले थे,
एक झोले में,
मुझे भी दो मुट्ठी दे दिए,
होले,
कच्चे चने को उसके खोल सहित,
भून लिया जाता है,
और फिर,
छील छील के खाया जाता है!
वही होते हैं होले!
बहुत मोटा चना था उसका!
स्वाद भी ताज़ा था!
लगता था,
अभी भूने गए हों!
साथ में ज्वार के दाने भी थे!
वे भी ताज़ा ही थे!
मैं चबाने लगा!
रात अभी भी,
अंधियारी ही थी!
तभी उस आदमी ने,
एक मुट्ठी,
होले और दे दिए!
मेरे मना करने पर भी!
"रे खालो! गाँव बहुत दूर है अभी! बाबू जी!" वो बोला,
तो मैंने ले लिए!
"बालक-बच्चे हैं घर पर?" उसने पूछा,
अब बड़े भाई के तो थे ही!
मैंने कह दिया हाँ!
"तो ये लो!" वो बोला,
और उसने मुझे,
कुछ बड़ी बड़ी फूट-सेंध,
और कुछ कूकड़ी (मक्का, भुट्टा) दे दीं!
"लो! बालक खुश हो जायंगे!" वो बोला,
मैंने रख लीं!
घड़ी देखी,
पौने चार हो चुके थे,
दिन निकलने में अभी,
दो घंटे थे!
खैर,
उन दोनों में बातें हुईं,
और फिर सत्तन,
वहीँ चला गया खेत में,
मुझे राम-राम जी कह कर!
और अब आ बैठा सोहन बैलगाड़ी में!
और हाँक दी आगे,
"बड़े जानकार हैं तुम्हारे सोहन!" मैंने कहा,
हंस दिया वो!
"हाँ बाबू जी" वो बोला,
"पूरे रास्ते मिलते ही आये हो!" मैंने कहा,
"हाँ बाबू जी, सभी जानकार हैं!" वो बोला,
आगे चलते रहे हम!
और एक जगह जाकर,
उस औरत ने,
कुछ कहा,
वो बैठ गयी अब,
क्या बोली,
पता नहीं चला,
उसकी भाषा,
एटा की तरफ की सी लगी,
मुझे पूरी तरह समझ नहीं आई वैसे तो,
हाँ, इतना समझ आया,
कि उसने सुबह के बारे में,
कुछ बोला था!
तब!
डांट दिया उसको सोहन ने,
औरत डरके मारे,
फिर से लेट गयी!
उसने फिर से बैलगाड़ी रोकी,
उतरा और नहर की तरफ चला,
मुझे समझ नहीं आया कि कहाँ,
मैं इंतज़ार करता रहा,
बहुत देर हो गयी,
कोई पंद्रह मिनट हो गए,
मैंने पीछे देखा,
तो वो औरत भी नहीं थी वहां!
अब मैं डरा!
वो औरत कहाँ गयी?
मैंने आवाज़ दी सोहन को!
"आता हूँ बाबू जी!" आई आवाज़ सोहन की,
और फिर कोई अगले ही मिनट,
वो आ गया,
एक बोरा लिए!
"इसमें क्या है?" मैंने पूछा,
"वो बाबू जी, जाते हुए, चारा रख गया था मैं, वही लाया हूँ" वो बोला,
'अच्छा!" मैंने कहा,
'और ये तेरी औरत कहाँ गयी?" मैंने पूछा,
"पीछे ही तो है?" उसने कहा,
मैंने पीछे देखा,
तो वो,
वहीँ लेटी थी!
हैं?
ऐसा कैसे?
दूसरा वहम?
"लेकिन अभी तो नहीं थी?" मैंने पूछा,
''तबियत खराब है इसकी, उतर गयी होगी, जंगल फिरने(शौच करने को) को" वो बोला,
अब आई बात समझ!
मुझसे कहकर,
थोड़े ही जाती!
उतर गयी होगी!
मैं भी ख्वामख्वाह,
वहम का शिकार हो चला था!
और हम चल पड़े आगे!
अबकी बार,
भगा दी उसने अपनी बैलगाड़ी!
ऐसे हिचकोले लगे,
कि पेट में जो सेंध थी,
वो भी हिल गयी,
और वो शराब,
वो भी हिल गयी!
बैल भाग छूटा अब तेज!
मेरे लिए तो अच्छा था!
जल्दी पहुँचता,
तो सो भी जाता!
फिर अचानक से,
बैलगाड़ी रुक गयी,
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
एक पुल था वहाँ, नहर पार जाने को,
"बाबू जी, हमारे गाँव का रास्ता ये है" वो बोला,
ओह!
यानि कि,
मुझे उतरना पड़ेगा अब यहां!
और फिर,
पैदल पैदल जाना पड़ेगा!
"अच्छा!" मैंने कहा,
"अरे! रुको बाबू जी!" वो बोला,
मैं रुक गया!
चकित हुआ!
"आपको आपके गाँव तक छोड़ूंगा!" उसने कहा,
"अरे कोई बात नहीं" मैंने कहा,
"न, बैठे रहो" वो बोला,
औरत फिर से कुछ बोली,
सोहन ने,
फिर से डांटा उसको!
वो चुप हो,
लेट गयी!
और सोहन ने,
आगे बढ़ा दी बैलगाड़ी!
हाँक दी बैलगाड़ी सोहन ने आगे,
बैलगाड़ी ने,
एक झटका खाया,
और आगे चले हम,
पहिओं ने,
अजीब सी आवाज़ की,
कचर कचर जैसी,
यहां नहर काफी चौड़ी थी,
घड़ी पर नज़र डाली,
पांच बजने को थे अब,
रात का अंधियारा,
अब साथ छोड़ने लगा था रात का,
चन्द्रमा,
हालांकि चमक रहे थे,
लेकिन अपने मार्ग पर बढ़ते,
सूर्य,
अपनी आभा, खगोल में डाल चुके थे,
कुछ पक्षियों की,
दिन-चर्या,
आरम्भ हो चुकी थी,
नहर का पानी,
अब साफ़ दिखने लगा था,
मैंने एक बार फिर से,
वो कूकड़ियाँ,
और वो फूट-सेंध इकठ्ठा कीं,
लेकिन थीं बहुत ज़्यादा,
तब, सोहन ने मुझे,
एक झोला पकड़ा दिया,
उसको झाड़ा मैंने,
और सारा सामान उसमे डाल लिया,
बस,
थोड़ी ही देर में,
मेरे गाँव का रास्ता,
दिखने वाला था,
वहीँ,
कोने पर बना वो पुराना सा मंदिर,
जहां वो बरगद का पेड़ लगा है,
हम आने वाले थे वहाँ,
करीब बीस मिनिट में,
वो अब नज़र आने लगा था!
सोहन,
आराम से हांके जा रहा था,
अपनी बैलगाड़ी,
मैं अब तैयार था,
कल शाम छह बजे से चला था,
और लगभग,
छह बजे ही अब गाँव आ रहा था,
पूरे बारह घंटे,
मैं यात्रा में रहा था!
अब जल्दी थी घर जाने की,
सोहन,
कुछ गाता,
और अपने बैल से बातें करता,
और बैलगाड़ी,
हिचकोले खाती,
आगे बढ़ती जाती,
और फिर,
वो मंदिर आ गया,
मंदिर में,
अभी,
दीप नहीं जले थे,
लोगबाग, अभी नहीं आये थे,
साढ़े पांच का समय था,
और तभी,
वो रास्ता भी आ गया,
जहां से मुझे,
अपने गाँव जाना था,
आसपास बिटोरे बने थे,
अब हल्का प्रकाश होने लगा था,
और फिर,
सोहन ने बैलगाड़ी रोक दी,
"तेरा धन्यवाद सोहन! मैं पहुँच गया गाँव!" मैंने कहा,
वो उतरा,
और अपने बैल की पीठ पर,
हाथ फेरा,
वो औरत उठी,
और उठ कर,
चारों तरफ देखा,
सोहन ने,
उसे फिर से डांटा,
वो बेचारी,
फिर से लेट गई!
मैं उतरा,
और सोहन से मिला,
सोहन खुश था!
"लो बाबू जी! पहुँच गए" बोला सोहन!
"हाँ सोहन!" मैंने कहा,
"बाबू जी?" बोला सोहन,
"हाँ सोहन?" मैंने कहा,
"आज पूजा है, सगरा इंतज़ाम है, आ जाना, दिन में" बोला सोहन,
मैं मुस्कुराया,
"नींद खुली, तो ज़रूर आऊंगा!" मैंने कहा,
और अब सोहन चढ़ा अपनी बैलगाड़ी पर,
बैलगाड़ी मोड़ी उसने,
और हाथ जोड़ कर,
राम-राम कही!
मैंने भी राम-राम कही,
और फिर सोहन चला गया वापिस,
मैं देखता रहा उसे,
उस बेचारे ने,
सारी रात भर,
जैसे मेरी ही सेवा की थी,
वो बढ़िया आदमी था सोहन,
मुझे छोड़ने भी आया था,
मेरे गाँव तक,
उसके बाद वापिस हुआ था,
मैं देखता रहा,
देखता रहा,
जबतक कि,
वो बैलगाड़ी ओझल न हो गयी नज़रों से,
अब मैं गाँव की तरफ चला,
अब लोगबाग जाग चुके थे,
गाँव के श्वान,
मटरगश्ती करने लगे थे,
कुछ लोग मिले,
और औरतें,
सभी से राम -राम हुई,
और इस तरह मैं,
अपने गाँव पहुँच गया,
कंधे पर,
मेरा छोटा बैग था,
और हाथ में झोला,
अपने घर पहुंचा,
जो मैंने देखा,
मेरे आश्चर्य का ठिकाना ही न रहा!
माँ,
घर में झाड़ू-बुहारी कर रही थी,
भाभी जी भी,
माँ, तो खड़ी भी नहीं हो पाती थी!
और आज?
मैं घर में आया जैसे ही,
माँ के चरण पड़े,
माँ ने गले से लगाया,
और पूछा कि,
कब चला था मैं दिल्ली से!
भाभी जी ने,
घर में खबर कर दी,
अब पिता जी,
बड़े भाई और उनके सभी बच्चे,
दौड़े चले आये!
राम-राम हुई,
मैंने सभी के पाँव पड़े,
और रिश्तेदार भी आ गए,
भाभी जी ने,
चारपाई बिछा दी,
मैं बैठ गया,
वो झोला,
बालकों को दे दिया,
बालकों ने,
झट से खोल लिया,
और फूट-सेंध ले भागे!
सब खुश थे!
अब पिता जी से,
माता जी के बारे में पूछा,
तो पता चला,
कल रात बारह बजे से,
माता जी का सारा दर्द जाता रहा,
बुखार भी,
अब तो ऐसी हैं,
कि जैसे कोई रोग था ही नहीं!
मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा!
माँ एकदम स्वस्थ लग रही थी!
चेहरा खिला हुआ था!
"कल कब चला?" भाई ने पूछा,
अब मैंने,
सारा हाल कह सुनाया,
ये भी,
कि कैसे,
मुझे पड़ोस के गाँव का,
एक आदमी मिला,
उसने मुझे कैसे,
गाँव के बाहर तक छोड़ा,
कैसे मैंने चाय पी,
कसी मैंने होले खाए,
कैसे मैंने फूट-सेंध खायी,
कैसे,
