उसी का सामान लाया है वो,
और ये जो औरत है,
इसका नाम फूला है,
ये उसकी पत्नी है,
दोनों ही,
अपने ठाकुर बलवंत सिंह के,
नौकर हैं,
लेकिन कभी भी,
ठाकुर बलवंत सिंह ने,
नौकर नहीं समझा उन्हें!
बहुत सम्मान देते हैं,
खेती,
पैसा,
रहन-सहन,
सबका ध्यान रखते हैं,
ठाकुर बलवंत सिंह,
ये नाम नहीं सुना था मैंने कभी,
फिर सोचा,
गाँव में तो,
पांच कोस को भी,
फर्लांग भर कह देते हैं,
तो इनका गाँव भी आगे ही कहीं आसपास ही होगा,
"आप कहाँ से आ रहे हो बाबू जी?" सोहन ने पूछा,
"मैं, शहर से, दिल्ली से" मैंने कहा,
"इतनी अवेर से? (इतनी देर से?)" सोहन ने पूछा,
"हाँ, कोई बस या सवारी ही नहीं मिली" मैंने कहा,
"अच्छा, तो वही रुक जाते, या सुबह को आ जाते" बोला सोहन.
"कहाँ रुकता! और फिर गाँव में, माँ की तबियत भी बहुत खराब है" मैंने कहा,
"क्या हुआ उन्हें?" सोहन ने पूछा,
"डॉक्टर्स उनके पेट में रसौली बताते हैं, उसके कारण उन्हें दर्द होता है, दर्द होता है तो बुखार बन जाता है, अब उनका ऑपरेशन करवाता, लेकिन जेब ही कट गयी आज!" मैंने कहा,
"जेब कट गयी?" सोहन ने बैलगाड़ी रोकी,
"हाँ, गाड़ी में, दिल्ली वाली गाडी में" मैंने कहा,
"ओ! ये बहुत बुरा हुआ बाबू जी" बोला सोहन,
"अब क्या करें! कट गयी तो कट गयी" मैंने कहा,
"कहाँ रखे थे पईसा?" पूछा सोहन ने,
"बटुए में थे, यहां, पीछे रखे थे" बताया मैंने,
"बहुत बुरा हुआ" बोला सोहन,
"हाँ, सो तो है" मैंने कहा,
अब हाँकी बैलगाड़ी उसने,
"कितने थे पईसा?" पूछा सोहन ने,
"चार सौ थे" बताया मैंने,
"ज़माना ही खराब है बाबू जी" बोला सोहन,
जब, बैलगाड़ी चल रही थी,
तो मुझे,
मेरे पीछे,
कुछ बार बार लग रहा था,
मैंने पीछे देखा,
ये फूट-सेंध थी,
मैंने एक ले ली,
"खाओ, बहुत मीठी है" बोला सोहन,
अब मैंने दांतों से छीली,
और खाने लगा,
सच में मीठी थी,
बातें करते रहे,
कभी कुछ और कभी कुछ,
उस औरत ने कुछ नहीं कहा,
बस चुपचाप बैठी ही,
और सोहन, हांकता रहा बैलगाड़ी,
तभी रुका सोहन,
और नीचे उतरा,
"आओ बाबू जी, पानी पी लो" बोला सोहन,
और अपने बैल के लिए भी, एक बड़ी सी बाल्टी ले ली,
मैं उतर गया,
एक कुआँ था,
पुराना सा,
मैंने कभी नहीं देखा था,
खजूरों के पेड़ों से होते हुए,
सोहन ले गया वहां,
बाल्टी डाली,
और रस्सी से पानी खींचा,
पानी आया,
ताज़ा ठंडा पानी,
"लो बाबू जी, पियो" वो बोला,
और मैंने ओख से पानी पिया,
पानी बहुत मीठा था!
फिर सोहन ने भी पिया,
अपना साफा उतारा,
और अपना मुंह साफ़ किया,
फिर आवाज़ देकर,
अपनी पत्नी से भी पूछा,
न जाने क्या बात हुई दोनों में,
और वो पानी लेकर चला गया,
मैं भी उसके पीछे पीछे चलता बना,
आ गए बैलगाड़ी तक,
उसकी पत्नी ने भी पानी पी लिया,
और फिर,
अपने बैल को पानी पिला दिया उसने,
बैल पानी पीता रहा,
दो बाल्टी पानी पी गया वो!
"नहर में पानी बहुत है आजकल" मैंने कहा,
"हाँ बाबू जी, आजकल खेती कट ही गयी है" वो बोला,
"हाँ" मैंने कहा,
और फिर कुछ और बातें,
और फिर बैलगाड़ी में बैठ,
हम आगे चलते बने!
और कोई एक किलोमीटर दूर जाकर,
बैलगाड़ी रोक दी उसने,
उतरा,
और सड़क किनारे,
चिल्लाने लगा,
"रे, बुद्धन यही क्या?"
एक बार!
फिर दो बार!
फिर तीन बार!
"हाँ, आ रहा हूँ" आवाज़ आई,
और खेतों के बीच से,
एक आदमी आता दिखाई दिया,
कोई चालीस बरस का रहा होगा वो,
उन दोनों में बात हुई,
बुद्धन ने,
कुछ पोटली सी पकड़ाई उसे,
रख ली,
सोहन ने,
और फिर दोनों बतियाते रहे,
और फिर,
बुद्धन,
वहीँ चलता बना,
जहां से आया था!
"इस पोटली में क्या है?" मैंने पूछा,
"ताज़ा मटरा हैं बाबू जी" वो बोला,
और पोटली मुझे दे दी,
वाक़ई पोटली में,
ताज़ा मटर ही थीं!
"चाबोगे?" बोला सोहन,
'अरे नहीं" मैंने कहा,
"अरे चाब लो" बोला सोहन,
और कई सारी,
मटर की फलियां,
दे दीं मुझे,
मैं छीलता उन्हें,
और एक एक दान,
चबाता जाता!
मीठे थे वो सभी मटर!
अभी बहुत रास्ता तय करना था,
और घड़ी में,
बड़ा काँटा,
जूझ रहा था,
बारह का अंक पकड़ने को!
छोटा वाला,
जा पहुंचा था,
दो के अंक के घर में,
अब वहीँ आराम करना था उसको,
पूरे साठ मिनट तक!
तब तक,
छुपम-छुपाई ही खेलता रहता,
बड़ा काँटा!
खैर साहब लोग!
बैलगाड़ी आगे बढ़ी!
अब आँख भारी होने लगी थी,
थकावट,
घेरने लगी थी बदन को,
टूटने लगा था बदन,
और वो,
बैलगाड़ी के कच्चे रास्ते,
पर चलने से,
जो हिचकोले,
लगते,
तो लगता था कि जैसे,
बैलगाड़ी,
बैलगाड़ी न हो कर,
पालना बन गया हो!
इस कारण से,
और नींद आने लगी थी,
पीछे वो औरत बैठी थी,
नहीं तो,
वहीँ सो जाता मैं, लम्बा हो कर!
तो,
कभी आँखें खोलता,
कभी बंद करता,
सोहन कोई,
लोक-गीत गा रहा था!
वो मुझे,
लोरी जैसा लग रहा था!
नींद,
लगातार गाढ़ी हुए जा रही थी,
बीच बीच में,
मुंह से लार टपकने लगती,
मैंने तो, शरीर, छोड़ दिया था,
उन हिचकोलों के सहारे,
वही हिलाते डुलाते थे अब तो!
तभी आवाज़ आई!
"रे! सोहन है क्या!"
एक बार!
दो बार!
"आयो रे!" बोला सोहन,
मेरी नींद खुली,
सामने एक झोंपड़ी सी बनी थी,
रास्ते के,
बायीं तरफ,
कुछ पुआल भी रखे थे,
दो तीन बिटोरे भी पड़े थे,
एक लालटेन टंगी थी उसमे,
प्रकाश नाम मात्र को ही था,
ऐसे टंगी थी,
कि जैसे किसी को,
दिखाने के लिए ही,
टांगी गयी हो वहाँ!
''आओ बाबू जी, चहा-वहा पी लो" बोला सोहन!
चहा-वहा! अर्थात, चाय-वाय!
रात को, सवा दो बजे,
चाय?
चलो जी!
अब इस आदमी ने,
भले आदमी ने, बैलगाड़ी में बिठाया है,
तो चलो, चाय भी सही!
सोहन तो पहले ही जा पहुंचा था वहाँ,
मैं भी पहुँच गया,
दो आदमी बैठे थे वहाँ,
उनसे राम-राम हुई,
"आओ, बाबू जी, बैठो" एक बोला उनमे से,
ज़मीन साफ़ करते हुए,
बैठने के लिए,
मैं बैठ गया,
वहाँ एक औरत थी,
स्टील के गिलास में,
मुझे चाय पकड़ा दी उसने,
मैंने ले ली,
और वो औरत,
एक गिलास लेकर,
चली गयी,
बैलगाड़ी की तरफ,
उस औरत को देने!
"कहाँ से आ रहे हो बाबू जी?" एक ने पूछा,
"शहर से, दिल्ली से" मैंने कहा,
चाय का घूँट भरते हुए,
"अवेर हो गयी बहुत?" बोला वो,
अब सोहन ने,
सारी बात बता दी,
सभी को अफ़सोस हुआ,
लानत भेजी उस जेबकतरे को!
गालियां सुनायीं,
देहाती भाषा में!
फिर वे आपस में बातें करने लगे,
लगता था कि,
पूजन के लिए,
सभी चिंतित थे,
मुझे क्या!
मैं तो बस गाँव पहुँच जाऊं!
होता रहे हवन-पूजन!
आधा घंटा लग गया,
अब वापिस हुए हम, बैलगाड़ी तक पहुंचे,
वो औरत,
अब लेट गयी थी!
और,
शायद सो रही थी!
"चलें बाबू जी?" पूछा सोहन ने,
"हाँ चलो" मैंने कहा,
और हम चल पड़े!
झोंपड़ी पीछे छूट गयी,
मैंने पीछे देखा,
लालटेन,
दीये जैसी जल रही थी!
चाय पीने से,
नींद तो अब खुल ही चुकी थी,
तो अब, सिगरेट निकाल ली मैंने,
और सुलगा ली,
और पीने लगा,
"सोहन?" मैंने कहा,
"जी बाबू जी?" बोला सोहन,
"ये ठाकुर बलवंत सिंह कैसे आदमी हैं?" मैंने पूछा,
"सोना हैं जी" वो बोला,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"देखो जी, जात-पात माने नहीं, मदद में सबसे पहले, भूखा किसी को रहन न दें! खरा सोना हैं" बोला सोहन,
स्पष्ट था,
ठाकुर बलवंत सिंह का,
नमक बोला रहा था ये!
अच्छी बात थी!
मुझे बहुत अच्छा लगा!
"कै औलाद हैं ठाकुर पे?" मैंने पूछा,
"चार हैं जी" बोला सोहन,
"कौन कौन?" मैंने पूछा,
सोचा,
समय ही काट लिया जाए!
''दो लड़की थीं, ब्याह दीं, एक छोटा लड़का, फ़ौज में है, बड़ा लड़का..........." वो बोलते बोलते चुप हो गया,
मैंने इंतज़ार किया,
कि,
अब बोलेगा सोहन,
तब बोलेगा सोहन,
न बोला,
आखिर,
मैंने ही पूछा,
"बड़ा लड़का?" मैंने पूछा,
"बीमार रहता है बहुत, सबका लाडला है, बहुत इलाज करवाया, बात नहीं बनी" वो बोला,
"क्यों? क्या हुआ है उसे?" मैंने पूछा,
"पता नहीं जी, लेटा ही रहता है" वो बोला,
"ओह" मैंने कहा,
"मर्ज़ क्या है उसे?" मैंने पूछा,
"कहते हैं फ़ालिज पड़ी है" वो बोला,
"ओह, लेकिन फ़ालिज का इलाज शहर में तो है?" मैंने कहा,
"कराया इलाज बहुत" बोला सोहन,
"अच्छा" बोला मैं,
"ये जो सामान है न?" वो बोला,
"हाँ?" मैंने कहा,
"ये उसी के लिए पूजा है, उसके लिए ही है" वो बोला,
''अच्छा!" मैंने कहा,
"लड़का ठीक हो जाए, और क्या चाहिए" बोला सोहन,
मेरी सिगरेट खत्म हुई,
मैंने फेंक दी नीचे,
होंठों पर रखी,
अब दुत्कार दी गयी थी!
यही तो है जीवन!
कभी होंठों पर,
कभी फर्श पर!
और सोहन!
बेचारा!
अपने मालिक ठाकुर,
के नमक का गुलाम!
ल रहा है सामान बहुत दूर से,
अपनी पत्नी के साथ!
"सोहन?" मैंने कहा,
"हाँ बाबू जी?" बोला सोहन.
"कै बच्चे हैं तुझ पर?" मैंने पूछा,
''एक भी न" बोला वो,
"एक भी न? क्यों?" मैंने पूछा,
"हुए ही न जी" बोला सोहन,
तरस आ गया मुझे उस पर,
उम्र उसको कोई,
चालीस की ही होगी,
उसके हाथ पर,
एक जले का निशान था,
बड़ा सा,
कभी जल गया होगा,
बचपन में,
यही सोचा मैंने,
रास्ता,
आहिस्ता,
आहिस्ता,
छोटा हुए जा रहा था,
हम बढ़ रहे थे,
धीरे,
धीरे,
अपने अपने गाँव की तरफ,
पुल से,
वो अपने गाँव जाता,
और पुल से,
मैं अपने गाँव!
लेकिन अभी चार घंटे तो लगते ही,
सुबह ही पहुंचना सम्भव था,
और बातें होती रहीं,
और हम चलते रहे,
कुछ ठाकुर साहब की,
कुछ गाँवों की,
कुछ खेती की,
और कुछ आज की यात्रा की!
बैलगाड़ी,
धीरे धीरे आगे बढ़ी,
तभी वो औरत जागी,
उसने कुछ कहा सोहन से,
और सोहन ने,
बैलगाड़ी रोक दी,
औरत उतर गयी,
और चली गयी,
एक झाडी के पीछे,
लघु-शंका का मामला था शायद,
थोड़ी देर बाद आई,
और हम आगे चले,
तभी सामने से,
एक घुड़सवार आया,
उसने राम राम कही,
और रुक गया,
सोहन से बात हुई उसकी,
सोहन उतरा,
और वो घुड़सवार भी,
दोनों ही,
रास्ते के किनारे पर,
उस नहर के मुहाने पर,
बैठ गए,
और बातें करते रहे,
अब मुझे थकावट हो चली थी,
मैं दिल्ली से,
छह बजे चला था,
अब बदन जवाब देने लगा था,
और मैं, एक तरफ को लेट गया,
और अपने पाँव,
उस बैलगाड़ी की,
मुंडेर में फंसा दिए,
उन्होंने कितनी देर बात की,
पता नहीं, मुझे नींद आ गयी,
थोड़ी देर बाद,
मुझे खटर-पटर की आवाज़ें आयीं,
ये उस बैलगाड़ी के,
पहिये की आवाज़ थी,
मैंने कोहनी से,
हाथ ढक लिया अपना,
अभी कोई दस मिनट बीते होंगे,
कि लगा,
छोटे छोटे बालक-बालिकाएं,
बैलगाड़ी के पीछे भाग रहे हैं!
मैंने दिमाग पर,
और कानों पर,
ज़ोर लगाया,
और झुक कर,
कनखियों से देखा,
उनके छोटे छोटे पाँव दिखाई दिए!
मैं झटके से उठा,
लेकिन कोई नहीं था,
सोहन आराम से,
लोक-गीत गाता,
बैलगाड़ी,
हांके जा रहा था!
"क्या हुआ बाबू जी?" सोहन ने पूछा,
"लगा बच्चे भाग रहे हैं पीछे!" मैंने कहा,
"इतनी रात में, और ऐसे बीहड़ में बच्चे कहाँ से आ गए बाबू जी?" बोला सोहन,
बात सही थी!
बच्चे,
इतनी रात में,
ऐसे बीहड़ में,
कहाँ से आएंगे?
"लेट जाओ, आराम कर लो" बोला सोहन,
मैं लेट गया,
सोचा,
वहम होगा,
सोया नहीं हूँ न,
इसलिए!
फिर से आँख लगी,
और कुछ देर बाद,
बैलगाड़ी रुक गयी,
मेरी नींद खुली,
सोहन नहीं था बैलगाड़ी में,
मैंने आसपास देखा,
तो वो सामने,
रास्ते में खड़ा था,
मुझे ही देख रहा था,
एकटक!
चुपचाप!
हाथ में, सांटा लिए!
मैं उठा,
"क्या हुआ सोहन?" मैंने पूछा,
"यहां आओ बाबू जी?" वो बोला,
हाथ का इशारा करते हुए,
मैं उतरा बैलगाड़ी से,
और चल पड़ा आगे,
ओह!
रास्ता टूटा था!
नहर के पानी ने,
रास्ता बना लिया था वहाँ!
काट दिया था रास्ता!
और अब,
बहुत संकरा ही रास्ता बचा था,
बैलगाड़ी,
पार नहीं कर सकती थी उसे,
"अब क्या करें सोहन?" मैंने कहा,
"मिट्टी डालनी पड़ेगी" वो बोला,
"चलो फिर" मैंने कहा,
उसने बैलगाड़ी से,
अपनी बड़ी बाल्टी ली,
और रेत भरने लगा किनारे से,
और वहाँ डालने लगा,
मैंने मदद करने की कही,
तो मना कर दी,
बोला,
ये देहातियों के काम हैं,
आप रहने दो!
उस बेचारे सोहन ने,
अठारह बीस बाल्टियां डालीं,
और देखिये!
ज़रा भी नहीं थका वो!
न ही सांस फूली!
कमाल का आदमी था सोहन!
तभी मैं, नहर की तरफ उतरा,
लघु-शंका के लिए,
और पीछे देखा,
बैलगाड़ी नहीं थी वहाँ!
ये क्या?
अभी तो यहीं थी?
कहाँ गयी?
खैर,
मैं निवृत हुआ,
और ऊपर आया,
तो देखा,
बैलगाड़ी रास्ता पार कर चुकी थी,
और सोहन,
मेरा ही इंतज़ार कर रहा था,
मैंने घड़ी देखी,
