एक नयी घटना आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहा हूँ!
इसमें मेरा कोई लेना-देना नहीं है!
ये घटना,
सत्तर के दशक में,
उत्तर प्रदेश के,
जिला बुलंद शहर के,
एक गाँव के पास ही घटी थी,
न इसमें कोई तंत्र है,
न कोई मंत्र,
बस यूँ कहिये,
इतिहास,
से कुछ लम्हे छीन कर लाया हूँ मैं!
आपके लिए!
ये सन उन्नीस सौ बहत्तर है,
अर्थात,
सन उन्नीस सौ बहत्तर की एक घटना!
मेरा जन्म भी नहीं हुआ था तब तो!
और ये घटना,
श्री महेंद्र सिंह जी के साथ घटी थी,
तब महेंद्र सिंह,
सत्ताईस वर्ष के युवा थे!
ये घटना उन्ही ने सुनाई थी मुझे!
मैं,
उनके सबसे छोटे पुत्र,
अनिल के विवाह में गया था तब!
गाँव में हम घूम रहे थे,
खेतों में,
खलिहानों में,
सामने बिटोरे बने थे,
उन पर,
काशीफल और तोरई आदि की बेलें चढ़ी थीं!
घीये भी थे वहाँ!
हम आगे चल रहे थे,
शाम का खुशनुमा माहौल था!
सामने ही,
कुछ दूर पर,
एक बड़ी सी नहर बह रही थी!
नहर पुरानी थी,
क्योंकि,
उसके पल छोटे थे,
और बीच बीच में वो,
बहुत बड़ी हो जाती थी!
नहर से पानी कट कर,
एक ओर,
जमा हो गया था,
और अब ये एक बड़ा सा पोखर बन चुका था,
जल-पक्षी,
बगुले,
जल-क्रीड़ा कर रहे थे!
बहुत ही अनुपम माहौल था वहाँ!
हम वहीँ चले!
छोटी छोटी मछलिया,
पानी से बाहर,
झुण्ड बना कर कूदतीं ऊपर,
शायद,
सूरज की आखिरी लालिमा भरी,
धूप को ग्रहण करने!
करीब सैंकड़ों होंगी वो!
वो कूदतीं,
और जल-पक्षी हमला कर देते!
कुछ को मिला भोजन,
और कुछ, फिर से टकटकी लगाए,
वहीँ देखते रहते!
यही है जीवन!
किसी के प्राण गए,
किसी को जीवन मिला!
हम और आगे चले,
यहां जामुन के पेड़ लगे थे,
कुछ अब ठूंठ थे,
कुछ पर,
अभी भी वानर-समुदाय,
अपना हक़ जमाये बैठा था!
हमे देखा उन्होंने,
और यही कहा होगा कि,
लो! आधुनिक वानर आ गए!
न खाने की तमीज़,
न व्यवहार की तमीज़!
सब हमे ही देख रहे थे!
तभी मेरी नज़र,
एक सांप पर गयी,
ये पानी का सांप,
पीले रंग का,
मेंहुआ था,
हल्का ज़हर होता है इसमें,
काट ले तो,
आधा घंटा,
शरीर में,
थकान सी हो जाती है,
बस और कुछ नहीं!
इसको कोई मारता भी नहीं!
किसानों के लिए,
चूहे, मेंढक मारा करता है!
सामने आ जाए, तो,
छोड़ देते हैं इसको!
तो ये मेंहुआ,
यहां मेंहुआ मेंढक आदि पकड़ने आया था!
उसकी लाल लाल आँखें,
दहक रही थीं!
खैर,
हमारा रास्ता छोड़,
झाड़ी में सरक गया!
हमने पोखर पार किया,
और मुझे तभी सामने,
एक पतले से पुल के पास,
कुछ दीवारें सी दिखाई दीं,
ये एक ऊंचे से टीले पर बनी थीं,
पानी नीचे से होकर बह रहा था,
हरी काई जमी थी वहाँ,
"महेंद्र जी? वो क्या है?" मैंने पूछा,
उन्होंने देखा,
और जैसे कहीं खो गए!
अतीत में उतर गए जैसे!
मैंने फिर से पूछा,
फिर से,
कुछ नहीं बोले!
बस वहीँ देखते रहे!
मैंने कंधे पर हाथ रखा उनके!
वे पीछे मुड़े,
अपना चश्मा उतारा, कुर्ते से साफ़ किया,
और मुझे देखा,
"ये लम्बी कहानी है गुरु जी" वे बोले,
लम्बी कहानी?
ऐसा कैसे?
मैंने यही तो पूछा,
कि वो है क्या?
कहानी कहाँ से आ गयी?
फिर सोचा,
कोई इतिहास होगा इसका,
कोई बेहद,
सनसनीखेज इतिहास!
ऐसा इतिहास,
पूरे भारत में,
बिखरा पड़ा है!
"कैसी कहानी?" मैंने पूछा,
"आइये" वे बोले,
अब हम चले उनके साथ,
पुल पार किया,
और उन दीवारों तक जाने के लिए,
उस टीले पर चढ़े,
चढ़ गए,
दीवारें अब केवल,
नींव की बची थीं!
और कुछ नहीं था वहाँ शेष!
कुछ भी नहीं!
"ये दीवारें हैं न?" उन्होंने पूछा,
"हाँ?" मैंने कहा,
"कभी ये एक छोटी से हवेली थी!" वे बोले,
"अच्छा!" मैंने कहा,
और फिर चुप हुए वो!
शायद,
खो गए थे कहीं!
अतीत में!
अतीत जीवंत हो गया था!
उनके मस्तिष्क में!
वे वहीँ,
एक पत्थर पर बैठ गए,
हम भी बैठ गए,
वहाँ,
गुबरैले घूम रहे थे!
और चींटे भी!
तेज तेज भाग रहे थे!
सूरज अब,
बस अस्तांचल में जाने ही वाले थे!
महेंद्र जी सोचते रहे!
और हम इंतज़ार करते रहे!
उन्होंने,
नीचे से एक ढेला उठाया,
मिट्टी का,
और उसको तोड़ते रहे,
बड़ा अजीब सा व्यवहार था उनका,
ये तो निश्चित था,
की उस कहानी में,
या तो कोई भावनात्मा मोड़ है,
अर्थात,
वो कहानी,
कहीं न कहीं,
इनके किरदार को भी दर्शाती है!
नहीं तो,
लोग जिस तरह से,
कहानी सुनाते हैं,
वो वर्णमाला की तरह,
क से ज्ञ तक,
बिना रुके ही बता दिया करते हैं,
लेकिन महेंद्र जी तो हैसे,
बीच में,
जैसे, ट से न तक की,
पंक्ति भूल बैठे थे,
लगता था,
की ढूंढ रहे हों,
ढ पहले आता है या ड!
कुछ ऐसे ही भाव थे उनके चेहरे पर,
तभी शर्मा जी ने,
एक सिगरेट सुलगाई,
दो कश खींचे,
और मुझे दे दी,
मैंने भी सिगरेट पर तरस खाया,
और होंठों से लगा ली,
दो कश खींचे,
और राख गिरा दी नीचे,
राख नीचे गिरी,
तो एक चींटे ने सूंघी!
वो भी जानता था कि,
ये तो जानलेवा बारूद है!
हट गया वहाँ से!
"महेंद्र जी?" शर्मा जी ने पूछा,
"जी, बताता हूँ" वे बोले,
"कोई विशेष बात है?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
"ज़रा हमे भी बताइये?" वे बोले,
कुछ देर रुके,
चश्मा साफ़ किया,
और पहना,
और जो बताया,
वो इस प्रकार था,
मैं उसको उन्ही के शब्दों में लिख रहा हूँ,
प्रयास किया है,
त्रुटि के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ,
लेखन-विद्या से अनभिज्ञ हूँ.....
सन इकहत्तर में,
मेरी नौकरी लगी थी दिल्ली में,
भोगल, जंगपुरा में,
मैं क्लर्क लगा था,
मेरी मासिक तनख्वाह तीन सौ चालीस रुपये थी!
लेकिन मैं इसमें भी खुश था!
सस्ता ज़माना था,
कहीं कोई कमी थी नहीं,
गाँव में ज़मीनें थीं,
खेत थे,
मवेशी थे,
एक बड़ी बहन का ब्याह,
हो ही चुका था,
बड़े भाई का ब्याह भी हो चुका था,
वे खेती में ही,
पिता जी कि मदद करते,
मुझे खेती पसंद नहीं थी,
अतः,
मैं पढ़ाई किया करता था,
मेहनत सफल हुई,
और मेरी नौकरी लग गयी!
मैं जंगपुरा में,
एक किराए के मकान में रहा करता था,
घी, दालें, अन्न,
सब घर से आ ही जाया करते थे,
कभी, बड़े भाई दे जाते,
तो कभी पिता जी ले आते थे!
आराम से जीवन बसर हो रहा था,
मैं किराया भी देता,
और घर में भी पैसे भेजता,
बहुत खुश था मैं!
एक बार की बात है,
मुझे खबर मिली,
की माता जी की तबियत खराब है,
मैं शाम को घर पर आया था,
दफ्तर से,
मकान-मालिक के पास चिट्ठी आई थी,
तब मुझे बताया था उन्होंने,
माँ से मुझे बहुत प्यार था,
सभी को होता है,
कल तक का इंतज़ार नहीं हुआ,
तनख्वाह, उसी दिन मिली थी,
मैंने सोचा,
अभी चला जाऊं, तो कोई नौ बजे तक,
गाँव पहुँच जाऊँगा,
हालांकि,
मकान-मालिक ने मना किया,
लेकिन मेरा दिल नहीं माना,
मैं उसी शाम कोई,
छह बजे,
निकल पड़ा गाँव के लिए,
गाड़ी पकड़ी,
और अपने गाँव जाने के लिए,
एक स्टेशन पर पहुंचा,
यहां से अब गाँव, सत्तर किलोमीटर था,
अंदर जाकर,
बस ही जाया करती थी,
और कोई साधन नहीं था,
मैं स्टेशन से बाहर आया,
बस इक्का-दुक्का लोग ही उतरे थे,
मैं भी आ गया बाहर,
फाटक के पास तक आया,
सारे खोमचे,
बंद हो चुके थे,
एक टूटा सा मंदिर था वहाँ,
दीया अभी जल रहा था वहाँ,
और तभी बादल गरजे!
और देखते ही देखते,
मेह बरसने लगा,
आसपास,
कुछ और लोग भी थे,
हमने एक खोमचे के अंदर शरण ले ली,
खूब बरसात हुई,
करीब एक घंटा,
और जब मौसम खुला,
तो सभी अपनी अपनी राह चल दिए,
मैं वहीँ खड़ा था,
जहां से बस जानी थी,
लेकिन जब दस बज गए,
और कोई बस नहीं आई,
तब मैं समझ गया,
कि मैं फंस गया हूँ!
अब कोई रास्ता शेष नहीं था!
अब या तो स्टेशन जाओ वापिस,
रात काटो,
या फिर आगे बढ़ो,
पैदल पैदल,
कोई तो मिलेगा,
कोई गाड़ी,
कोई ट्रक,
कोई बुग्घी,
दो मन हो गए,
और आखिर मैंने निर्णय लिया,
कि, आगे बढ़ना ही ठीक है,
और वैसे भी,
हमारे उस क्षेत्र में,
कोई लूटखोरी की,
कोई घटना नहीं हुई थी,
चोरी-डकैती आदि नहीं हुई थी,
तो इस बात से मैं निश्चिन्त था!
मैं चल दिया आगे आगे,
और तभी मैंने अपने पर्स पर हाथ रखा,
जो कि,
मेरी पैंट की पिछली जेब में था,
हाथ रखा,
तो पर्स नहीं था!
मैं घबरा गया!
कहीं, वहीँ,
उसी, खोमचे में तो नहीं गिर गया?
मैं वापिस हुआ,
और ढूँढा,
नहीं मिला,
मंदिर से जलता हुआ दिया लिया,
और आसपास देखा,
तो नहीं मिला मुझे!
अब लगा,
कि गाडी में ही किसी ने जेब काट दी थी,
और ये दोहरी मुसीबत हुई,
अगर रास्ते में कोई ट्रक आदि मिला तो?
पैसे कहाँ से दूंगा?
जेबें टटोलीं,
तो ऊपर की,
कमीज की जेब में,
टिकट में से बचे पैसे,
जो बचे थे,
वो निकाले,
गिने, तो,
साढ़े छह रुपये निकले,
ये तो बहुत थे,
आराम से पहुँचता मैं!
मैं आगे बढ़ने लगा,
सत्तर किलोमीटर बहुत होता है,
लेकिन, अपने छात्र जीवन में,
कई बार,
साइकिल पर मैंने,'
वो रास्ता काटा था,
कभी कभार,
पैदल भी!
आज फिर सही!
तो मैं पैदल पैदल चल पड़ा!
रास्ता में,
सड़क किनारे,
बने खोमचों पर रुकता,
बरमे से पानी पीता,
और आगे बढ़ जाता,
करीब पंद्रह किलोमीटर मैंने,
दो घंटे में काट दिया था,
न कोई ट्रक गुजरा,
न अन्य कोई सवारी!
मैं चल पड़ा,
कोई आधे घंटे बाद,
मुझे सड़क पर,
दो बत्तियां जलती दिखाई दीं,
कोई गाडी थी ये,
मैं खड़ा हो गया,
और सामने से जो गाडी आई,
वो आर्मी की थी,
उन्होंने रोकी,
बात हुई,
वे मुझे तीस किलोमीटर तक छोड़ सकते थे,
इतना बहुत था!
मैं बैठ गया!
फौजी जवान बहुत अच्छे थे वे सब!
हम बीड़ी-सिगरेट पीते रहे!
और फिर,
मुझे वहाँ उतार दिया गया,
जहां से उनका रास्ता अलग होता था,
मैंने पैसे की पूछी तो मना कर दिया उन्होंने!
वे आगे बढ़ गए,
और मैं भी आगे बढ़ गया!
मैं आगे बढ़ चला,
अभी भी कोई चालीस किलोमीटर था गाँव,
रात गहरा चुकी थी,
एक से ऊपर का समय हो चला था,
तभी मैं मुख्य सड़क से,
एक रास्ते पर कट गया,
अपना छोटा सा बैग लिए,
कंधे पर धरे,
आगे बढ़ रहा था,
शुक्र ये था कि,
ये चौदस की रात थी,
चाँद रौशनी फैला रहे थे!
खिलता हुआ प्रकाश पड़ रहा था!
अँधेरा, अँधेरा न लगता था!
मैं चलता रहा सीधा,
साथ ही, वो नहर बह रही थी,
वहाँ से,
बड़ा ही खौफनाक मंजर लगता था उसका,
उसके बहते पानी का शोर,
ऐसा खतरनाक था,
कि उसको देखने में ही,
डर से सिहरन हो जाया करती थी!
मैं कम से कम ही देखता उसको!
अब चूंकि,
ये रास्ता ही नहर के साथ साथ था,
तो कभी कभार नज़र पर ही जाया करती थी,
उसका रेत,
किनारों का रेत,
चाँद की रौशनी में,
चमचमा रहा था,
जैसे हीरे जड़ दिए गए हों वहाँ,
आसपास, सरकंडे लगे थे,
कुछ कुश की बड़ी बड़ी घास थी,
कभी कभार,
कोई जुगनू,
टिमटिमा जाता था!
और प्रकाश हो जाता था!
मैं चुपचाप,
चले जा रहा था,
मेरे क़दमों से हटती वो रेत,
एक स्वर में बोलती थी,
मेरे जूते उनमे कभी कभी धंस जाते,
तो मुझे उनका रेत,
निकालना पड़ जाता था,
सहसा,
मुझे अपने पीछे,
कुछ घंटियाँ बजने की सी आवाज़ आई,
जैसे गाय या बैल आदि के,
गले में बाँध दी जाती हैं,
मैं रुका,
पीछे देखा,
एक बैलगाड़ी आ रही थी,
इतनी रात बैलगाड़ी?
क्या चक्कर है?
मैं खड़ा रहा,
और वो बैलगाड़ी आ गयी पास,
उस चलाने वाले ने बैलगाड़ी रोकी,
और 'राम राम' कही,
मैंने भी कही,
बैलगाड़ी में,
एक महिला बैठी थी,
साथ में दो बोरी अनाज की पड़ी थीं,
कुछ भेलियाँ,
गुड की रखी थीं,
कुछ एक आद पीपे रखे थे,
लगता था,
कि जैसे बाज़ार से खरीदारी करके आ रहे हों!
"कहाँ जा रहे हो बाबू जी?" उस व्यक्ति ने पूछा,
और औरत ने अब तक अपना चेहरा,
घूंघट में छिपा लिया था,
अब मैंने अपने गाँव का नाम बताया,
"अच्छा बाबू जी! बैठ जाओ! हम भी वहीँ तक जा रहे हैं, छोड़ देंगे" वो बोला,
ये तो बहुत बढ़िया था!
अब अँधा कहा चाहे,
दो आँखें!
आज तो सुन ली,
ऊपरवाले ने!
नहीं तो ऐसे बीहड़ में,
कौन मिलता है!
मैं बैठ गया,
वो औरत, सरक कर,
पीछे हो गयी,
और मैं आगे आ कर,
उस बैलगाड़ी चलाने वाले के साथ आ बैठा,
उसने अपना नाम,
सोहन बताया,
और ये भी,
कि कल घर में,
हवन है,
