"तेतिल?" चीखा वो, उस पेड़ को देख कर!
मैंने भी उस पेड़ को देखा, शांत सा पेड़ वो, जैसे सब सुन रहा था!
"हा? तेतिल? थू! थू!" दो बार थूका उसने!
वो गुस्से में था बहुत! उस जले हुए नर-मुंड को हाथ में थामे, उस पेड़ को जैसे गालियां सुना रहा हो! सब कुछ अजब सा पहेली जैसा था! मुझे कुछ समझ आता और कुछ नहीं! जो नहीं आता समझ, उससे दिमाग फटने लगता! लगता मैं कुछ छोड़े जा रहा हूँ! कुछ ऐसा, जो इस पहेली की कड़ी है, कुछ ऐसा जैसे वो किसी चूल की कील है! एक बात, अब तक, साफ़ हो ही चुकी थी, कि वो, अग्घड़, ये जो कोई भी तैतिल था, से नफ़रत ही नहीं, बल्कि शत्रुता की हद तक शत्रु था उसका! अब कुछ आभास होता था मुझे कि, हो न हो, पीछे के इतिहास में ऐसा कुछ, ज़रूर दफन है, जिसमे इस शत्रुता की जड़ जमी है! लेकिन, न ये अम्फू बाबा ही कुछ बता रहा था, न पता ही चल रहा था और न तैतिल का ही कुछ पता था!
तभी अम्फू बाबा ने, उस कपाल को चूमा, अपने गाल से लगाया, जैसे केश संवारे हों उसके, ऐसे किया, फिर पूरे सम्मान के साथ उसे, उस पेड़ की जड़ में, अंदर, माँद में घुसा के रख दिया!
"कलाकेशि तू जीतेगा!" चीख कर बोला वो!
कलाकेशि, आखिर ये है कौन?
बड़ा ही अजीब सा व्यवहार हो जाता था उस बाबा अम्फू का जब वो कलाकेशि के नाम पुकारा करता था! उस में स्नेह सा दौड़ जाता था! दोनों हाथ उठाकर, वो ये बोला करता था!
वो उठा, और पलटा मेरी तरफ! मुझे घूर के देखा!
"अम्फू! देखेगा! सब देखेगा! तेतिल! मृणा! सब देखेगा!" बोला वो, हंस कर!
मैं चौंका! मेरे दोनों पाँव कांपे!
मृणा? बाबा ने भी नाम लिया था मृणा का!
ये मृणा कौन है?
कौन है ये मृणा?
कोई संगिनी है उस ब्रह्म-पिशाच की?
नाम तो स्त्री जैसा ही है?
"बाबा?" कहा मैंने,
"हो?" बोला वो,
"ये मृणा कौन है?'' पूछा मैंने,
वो मुस्कुराया! सामने आया मेरे!
"कलाकेशि?" बोला वो,
इशारा करते हुए, उस जगह की तरफ, जहां अभी थोड़ी देर पहले उसने, वो कपाल रखा था!
"हाँ?" कहा मैंने,
"कलाकेशि!" अपनी छाती पर हाथ मारा उसने, ये कहते हुए!
मैं नहीं समझा उसका इशारा!
"मृणा? हो? मृणा! तेतिल!" बोला वो उस पेड़ की तरफ इशारा करते हुए!
ओह! अब समझा!
समझा मैं! ये भी समझ गया कि कलाकेशि कोई स्त्री है या थी! जैसे कलाकेशि बाबा के लिए, ठीक वैसे ही, ब्रह्म-पिशाच तैतिल के लिए वो उसकी संगिनी मृणा!
अब गुत्थी की गाँठ ढीली होनी शुरू हुई थी! कलाकेशि, तू जीतेगा! इसमें स्त्रीलिंग थ्व पुर्लिंग का दोष, मात्र भाषाई था! जैसे आज भी कई स्थानों और राज्यों में होता है! लेकिन, अब थाह तक जाना था! आखिर में असलियत है क्या, ये जानना बेहद ज़रूरी था!
अब एक और सवाल मेरे ज़हन की ज़मीन में से सर निकालते हुए, बाहर आया! सवाल ये, कि तैतिल और मृणा ठीक! बाबा अम्फू और कलाकेशि! ये भी ठीक! लेकिन इस लड़की का क्या? ये लड़की, गोमती, इसका क्या लेना-देना? इसे क्यों बीच में घसीट लिया गया है? ये सवाल अब बड़ा होने लगा था! और इसका जवाब, बस यहीं था!
"अम्फू सोना अब!" बोला वो,
अर्थात, अब अम्फू, सोयेगा! यही अर्थ था उसका!
"तैतिल, जागना!" बोला वो,
अर्थात, अब तैतिल जागेगा!
जागेगा? क्या? बाबा सोयेगा और तैतिल जागेगा? इसका क्या मतलब हुआ? यही सब चल रहा है क्या यहां? या कुछ और अर्थ है इसका?
"कलाकेशि! तू जीतेगा!" बोला वो, चीख कर!
और इसके बाद, इसके बाद, गोमती झुकी पीछे! खाए दो झटके! मुंह से कराहट सी निकली, बदन लाल हुआ उसका! मुट्ठियाँ भिंच गयीं उसकी! दांत किटकिटा गए! सर कई बार हिलाया! और एक झटके से, वो आगे को गिरने लगी! मैंने तभी हाथ बढ़ा दिए अपने! वो, मेरे हाथों पर झूलती चली गयी! उसका बदन, गरम था बहुत, जैसे अभी आग के सामने से उठ कर आई हो! मैंने लिटा दिया उसे वहीँ! और शर्मा जी को आवाज़ दी! वे धीरे धीरे चलते हुए आये, कमर पर हाथ रखा था उन्होंने अपने, उनको दर्द था कमर में, उनकी चाल से पता चलता था!
"ये ठीक तो है?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या हुआ है?'' पूछा उन्होंने, अब धीरे से बैठते हुए!
"उतार हुआ है, जामद का असर है!" कहा मैंने,
"अच्छा, पानी लाऊँ?" बोले वो,
"नहीं! अभी आ जाएगा होश!" कहा मैंने,
तब मैंने, जितना बता सकता था उन्हें, बताना शुरू किया, वे गौर से सुनते रहे, कोई सवाल नहीं किया उन्होंने! बस सुनते ही रहे! और सुन ली पूरी बात उन्होंने!
"ये मामला तो सोच से भी कहीं अधिक खतरनाक है!" बोले वो,
"हाँ, और हाथ अभी कुछ लगा नहीं!" कहा मैंने,
"अब लग ही जाएगा!" बोले वो,
"उम्मीद तो यही है!" कहा मैंने,
"हो न हो, यहां अवश्य ही कुछ हुआ था, भयानक!" बोले वो,
"हाँ, ये तो निश्चित है!" कहा मैंने
"तो जवाब भी यहीं मिलेगा!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब? अब क्या करें?" पूछा उन्होंने,
"बताता हूँ!" कहा मैंने,
तब, उस पेड़ को देखा मैंने! पेड़ जैसे मेरी योजना, जानता हो पहले से ही!
"आज रात यहीं बिताएंगे हम!" कहा मैंने,
"और ये? गोमती?" बोले वो,
"और कोई नहीं! बस हम दो!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
"आपको दर्द है क्या?" पूछा मैंने,
"नहीं, नचका सा है!" बोले वो,
"वो तो अभी ठीक कर दूंगा!" कहा मैंने,
तभी आँखें खोलीं गोमती ने, हमें देखा, गरदन उठा, आसपास देखा, और हड़बड़ा कर उठ गयी! अपने कपड़े ठीक किये उसने!
"आराम से!" कहा मैंने,
"अब कैसी हो?" पूछा शर्मा जी ने,
"ठीक, क्या हुआ था मुझे?'' पूछा उसने,
अपने मिटटी वाले हाथ देखते हुए!
"तुम्हें याद नहीं, कुछ भी?" पूछा शर्मा जी ने,
"नहीं, क्या हुआ था?" पूछा उसने,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"रूपी कहाँ है?" पूछा उसने,
"उधर!" किया मैंने इशारा!
वो उठी, और दौड़ पड़ी, अपने सहेली की तरफ! मैं और शर्मा जी, वहीँ बैठे रह गए!
मित्रगण! अब मैंने ये निर्णय ले लिया था कि उस रात, हम दोनों ही वहां होंगे, और अन्य कोई नहीं! न गोमती ही, न वो रूपी और न वे ही दोनों! मेरे मन में कुछ चल रहा था, निरंतर चलता जा रहा था, मैं चाहता था कि अब मैं स्वयं उस ब्रह्म-पिशाच तैतिल को देखूं! मैंने एक तरह से, बाबा की पूरी बात, अब जहां तक जान सका था, जानी थी, अब यदि वो तैतिल प्रसन्न हो, तो कुछ पता चले मुझे कि आखिर ये सब है क्या? इस स्थान का क्या महत्व है? वो क्या शत्रुता है जिसको आज तक, कम से कम वो बाबा अम्फू निभाता आ रहा है! कौन है ये कलाकेशि और कौन है ये मृणा! कुछ तो पता चले? नहीं तो, अभी तक बस, धूल में ही लाठी भांजे जा रहे थे हम! तह तक न मैं पहुंचा था और न ही बाबा चंदन! गोमती का ऐसा हाल क्यों है, ये भी नहीं पता चल सका था! तो आज, जगाना था उस ब्रह्म-पिशाच को जो एक अहम कड़ी था इस रहस्य की गुत्थी का!
हम उस समय, घर पर थे, गोमती के, रात होने को थी, साढ़े सात का समय हो चुका था, बाबा चंदन के कूल्हे की एक हड्डी, अपनी जगह से हट गयी थी, उनको चलने में भारी दिक्कत आ रही थी, मैंने उन्हें सबकुछ बता दिया था, और उनसे आज्ञा भी ले ली थी, उन्होंने कहा था कि मैं जो कुछ भी करूँ, बस, इस गोमती का अहित न हो पाये! यही प्राथमिकता थी उनके कहे अनुसार! गोमती को भी सब समझा दिया था, और उस रात, गोमती को चले जाना था रूपी के घर, वहां वो सहज हो कर रह सकती थी, रूपी समझदार लड़की थी, समझ से काम लेती थी, मुझे पूरी उम्मीद थी कि वो गोमती का पर्याप्त ख़याल रखेगी! मैंने अपना बैग ले लिया था! जो भी आवश्यक सामग्रियाँ थीं, सबका प्रबंध कर लिया था! नौ तरह के फूलों से ब्रह्म-पिशाच की साधना होती है, तो मैंने नौ तरह के फूल इकट्ठे कर लिए थे, कुछ तेल, सुगन्धि आदि भी ले ली थी, और संग लिया था मैंने श्री श्री श्री का अभेद्य-माल, जिसका प्रयोग मैं यदा-कदा ही किया करता हूँ! एक बड़ी टोर्च ले, हम करीब आठ बजे चल पड़े थे गाँव से बाहर अपना सामान लेकर, गाँव के कुछ हिम्मत वाले युवक भी तैयार थे संग चलने को, उनमे से दो संग ले लिए थे, वे एक दूरी बना कर रहने वाले थे, जब तक मदद के लिए नहीं पुकारा जाए उनका नाम, उनको वहाँ नहीं आना था! उन युवकों के अनुसार, ये समस्या मात्र गोमती की ही नहीं थी, गाँव में किसी के साथ भी घट सकती थी, अतः वे सहर्ष तैयार हो चुके थे! अपने अपने हथियार ले, वे चल पड़े थे हमारे साथ! पूरे इंतज़ामात के साथ वे दोनों साहसी युवक हमारे साथ बतियाते हुए, आ पहुंचे थे नदी तक! हमने नदी पार की तब! घुप्प अन्धकार था वहां! बस टोर्च की रौशनी ही भेद पा रही थी उसका सीना! जंगल, जवान हो उठा था! आकाश में चन्द्रमा अपनी दैनिक-रीत पर लगे थे! रोज खगोल को नापते थे! अपने सभासदों, उन तारों के साथ! चमकदार आकाश था उस रात! हवा शांत बह रही थी! जंगल में से, भीं भीं प्रकार की आवाज़ें गूँज रही थीं! कहीं सियार, कहीं भेड़िये तो कहीं कुछ और कहीं कुछ! दूर गाँव से, श्वानों की कूँ और भूंक, कभी-कभार, हमारे पास तलक आ पहुंचती थी हवा के साथ साथ! झींगुरों ने कहर बरपाया था! जैसे बारात जा रही हो उनमे से किसी की, ऐसे शोर मचा रहे थे! उनके तान-तम्बूड़े शांत होने का नाम ही न लेते थे! मेंढकों के मजे आ रहे थे! अपनी अपनी संगिनी को रिझाने के लिए, उनमे होड़ लगी थी! कोई दीर्घ-स्वर से पंचम राग छेड़ता था तो कोई मृदु-स्वर से, सप्तम राग! कुछ ने अपने अलग ही राग बना लिए थे! टर्रम-टर्र और टर्रम-टर्र! जुगनुओं में भी होड़ लगी थी, कि कौन अधिक चमकता है! ताकि उनकी रात, रंगीन हो उठे किसी संगिनी को रिझाने के बाद! झाड़ियों में फंसे जुगनू मदद की गुहार लगाते थे! लेकिन सब जल्दी में थे! कौन किस की मदद करे! रात के पक्षी, आज हमें देख, बेहद चौकन्ने थे कि आज और कौन से प्रतिस्पर्धी आ धमके जंगल में! पेड़ों पर बैठे उल्लू ऐसे शोर मचा देते थे कि जैसे सभी को चेता रहे हों! रात का जीवन अपने चरम पर आ पहुंचा था! सांप-बिच्छू सभी, अपने अपने शिकार पर निकल चुके थे! हमारे सामने से, बीजू, वन-बिलाव आदि आदि भागते नज़र आते थे इधर उधर! जंगली बिल्लियाँ आदि! किन्काजू जैसे तीन तीन किलो के जानवर, इंसान को तीन जगहों से चीर दे बस तीन ही सेकण्ड्स में! तो हमने हाथों में, डंडे पकड़ रखे थे!
तो एक जगह, वे दोनों युवक ठहरा दिए गए, वे आग जलाने वाले थे, हमें आगे चलना था वहां से, उनको पुनः समझाया और समझाकर, हम आगे बढ़ लिए! आ गए पेड़ के पास! बड़ा ही डरावना सा लग रहा था वो पेड़! जैसे अभी बस, कुछ ही पलों में कोई वेताल प्रकट होगा वहां!
"ये जगह ठीक है!" बोले शर्मा जी,
मैंने मुआयना किया, ठीक जगह थी!
"हाँ, ठीक है!" कहा मैंने,
उन्होंने बैग वहीँ रख दिए, अब मैंने, उस जगह को साफ़ किये, कंकड़-पत्थर हटाये, और कुछ भस्म छिड़क दी, फिर एक चौभुज खींचा! और मध्य में आ बैठा! जूते, बेल्ट आदि सब निकाल दिए थे हमने वो बाहर रखे थे उस चौभुज के!
"दीये निकालो!" कहा मैंने,
उन्होंने, पानी से उसीजे हुए दीये बाहर निकाले, कुल चार,
"इनमे तेल डाल दो!" बोला मैं,
तेल डाला उन्होंने,
"अब बाती लगाइये!" कहा मैंने,
उन्होंने एक विशेष बाती लगाई उनमे! इस बाती को, सिंगी-बाती कहा जाता है! वो लगा दी, तेल में भिगो कर! तब मैंने प्रत्येक दीये में, कुछ सामग्री डाल दी, ये आवश्यक भी है और अंत में, कुछ उचत-सुगन्धि भी! उचत-सुगन्धि के पेड़ की गोंद हुए करती है, इसकी सुगंध कुछ कुछ लौंग जैसी होती है! इसे दीये में जलाइए तो दिया भी बहुत देर तलक जलता है! दरअसल इसका तेल रिसता रहता है, इसीलिए!
"अब एक एक कोने पर रख आइये!" कहा मैंने,
उन्होंने, एक एक दीया, उस चौभुजे के एक एक कोने पर रख दिया!
"अलख-अगन पढ़, प्रज्ज्वलित कर दीजिये अब!" कहा मैंने,
उन्होंने अलख-अगन पढ़ी, हाथ जोड़े, सर झुकाया और एक एक दीया, माचिस से सुलगा दिया!
"आ जाओ अब!" कहा मैंने,
वे आये और हो गए खड़े!
"मैं आसन लगाता हूँ, आप अपना आसन लगाइये!" कहा मैंने,
आसन-मंत्र पढ़ते हुए, आसन लगा दिया! हम दोनों ने ही!
"बैठ जाइए!" कहा मैंने,
हम बैठ गए फिर अपने अपने आसन पर!
अब स्थान-पूजन, दिशा-कीलन, दिक्पाल-पूजन किया! पृथ्वी माँ से आज्ञा ली, और फिर, अघोर-वंदन किया! गुरु-नमन किया! और, हम अब तैयार थे अपनी क्रिया को आगे बढ़ाने में!
तश्तरी निकाली और नौ तरह के फूल रखे उसमे!
आसपास, कुछ सामग्री सजा दी!
और पढ़ा एक मंत्र!
उसके बाद, देह-रक्षा और प्राण-रक्षा मंत्र पढ़, देह पुष्ट कर लीं! कलुष जागृत किया और नेत्र पोषित कर लिए! लेकिन, पेड़ के नीचे के नर-मुंड, फिर भी नहीं दीखे! ये हैरत की बात थी! अब पढ़ा ईष्ट-मंत्र! और आरम्भ किया जाप!
ये जाप, प्रत्यक्ष-मंत्र का था! अमुक के स्थान पर, ब्रह्म-पिशाच पढ़ना था, सो पढ़ता गया! बीते करीब पंद्रह मिनट! कोई न प्रत्यक्ष हुआ! और जपा, तब भी कोई नहीं! आधा घंटा हुआ, तब भी कोई नहीं! अब? अब प्रत्यक्ष-मंत्र वापिस फेरा! और जपा, काल-कण्ड मंत्र!
दस मिनट बीते!
एक हुंकार सी गूंजी!
जैसे पृथ्वी ने नीचे से करवट सी ली हो!
दीयों का प्रकाश अचानक से बढ़ गया था!
उनकी लौ चौड़ी हो, भूमि स्पर्श करने लगी थी, दीयों को ग्रास बनाते हुए! मैं जान गया था! काल-कण्ड चल निकला है! और कोई, जागने लगा है! कोई, वही, ब्रह्म-पिशाच, तैतिल!
मैं काल-कण्ड से आगे बढ़ता रहा! ये महाप्रत्यक्ष-महामंत्र है! इस मंत्र से, समाधिलीन योगी और साधक भी जाग जाते हैं! साधारण प्रत्यक्ष-मंत्र नहीं चला था यहां, अतः, मेरे पास और कोई चारा शेष न बचा था! तभी, फिर से हुंकार गूंजी! पेड़ों से पत्ते गिरने लगे! पेड़ों पर बैठे रात के परिंदे, पेड़ों को छोड़ने लगे! हमारे ऊपर, पेड़ों की पत्तियाँ गिरने लगी थीं! वो हुंकार ऐसी थी, जैसे कोई सिंह ऊँघ रहा होता है, और कोई उसे छेड़ दे! ऐसी गरजन भरी हुंकार थी! जैसे वन-द्विप को छेड़ दिया हो और वो, अपने विशाल वक्ष में वायु भर, द्रुत वेग से छोड़े जा रहा हो! ऐसी हुंकार थी वो! मैं रुका नहीं! मैं आगे जपता ही रहा! जपता जाता और सामग्री सामने उछालता जाता! फिर से हुंकार गूंजी! इस बार वायु-प्रवाह तेज बह चला! दीये किसी तरह से अपनी साँसें थामे रहे! हालांकि उनकी लौ बिखर गयी थीं! लेकिन बुझे नहीं वो!
करीब दस मिनट के बाद, हवा में शीतलता सी भरने लगी! फुरफुरी चढ़ा देने वाली सी शीतलता! और देखते ही देखते, एक कोहरे की सी आकृति बननी आरम्भ हुई! जैसे कोहरा आसपास से उठ कर, एक ही जगह इकट्ठा हो रहा हो! जैसे किसी दीर्घ से स्तम्भ में समावेश होता जा रहा हो उसका! वो धीरे धीरे पूर्ण होने लगा! हम आँखें फाड़, सारा दृश्य देख रहे थे! अपलक, एकटक! अचानक से, ताप बढ़ने लगा वहां का! पहले शीतलता छायी थी अब वो ताप! ताप भी ऐसा, कि देह से पसीना चूने लगा! खारिश सी हो उठी देह में! छाती, पेट, बगल, जांघें, पैर आदि सब पसीने से नहाने लगे! सर से पसीना बह निकला! माथे से टपकने लगा! नाक से होता हुआ, होंठों पर और फिर नीचे गिरने लगा! पसीना पोंछते जाएँ हम और सामने देखते जाएँ! फिर से एक हुंकार सी गूंजी! समय को ठहराव का शूल लगा हो जैसे! समय को पकड़ लिया हो उस स्थान ने अपनी गिरफ्त में जैसे, ऐसा लगने लगा था!
"जो कोई भी है, समक्ष हो!" कहा मैंने,
अचानक से वायु फिर से बहने लगी! गरम और झुलसा देने वाली!
"समक्ष हो!" कहा मैंने,
हल्की सी हुंकार उठी!
उस कोहरे के स्तम्भ में, जैसे घूर्णन हुआ! सारा कोहरा जैसे घूमने लगा था किसी लट्टू की तरह से! हवा में ही, भूमि से ऊपर, करीब दो फ़ीट! हम दम साधे, सबकुछ देखे जा रहे थे! जो भी हो रहा था, वो बड़ा ही अजीब था!
"समक्ष हो!" मैंने फिर से चीख कर बोला!
घूर्णन, स्थिर हुआ! आसपास की जो मिट्टी उड़ने लगी थी, वो शांत होने लगी! कोहरा जैसे छंटने सा लगा था, जैसे अलग अलग विपरीत दिशाओं में, अब भाग रहा हो!
और अगले ही क्षण! अगले ही क्षण, कोहरा समाप्त हो गया! और जो अब सामने खड़ा था, वो कोई यज्ज-भट्ट सा प्रतीत होता था! यज्ज-भट्ट अर्थात, लम्बा-चौड़ा, दीर्घदेहधारी, मल्ल्वान सा! कोई विकट एवं विकाट्य महा-योद्धा सा! वो कम से कम चौदह या पंद्रह फ़ीट का रहा होगा! वेताल जैसा पाषाण देहधारी! गौर-वर्ण! श्याम-केशधारी! घुंघराले केश! माथा चौड़ा, चेहरा चौड़ा, मांसल एवं पुष्ट देहधारी! स्वर्णिम से नेत्र, चमकते हुए! चौड़ी-चौड़ी मूंछें! जिनमे, घूर्ण पड़े थे, चौड़े चेहरे पर! लाल रंग का टीका, माथे पर सुशोभित! कांधों पर, लाल रंग का वस्त्र, कानों में, कुंडल धारण किये हुए! गले में आभूषण धारण किये हुए था, श्वेत-पुष्प-माल भी पहनी थी, जो नाभि के नीचे तक आती थी! भुजाएं ऐसी, कि जैसे किसी पेड़ का शहतीर! काँधे चौड़े, कमर न्यून एवं जंघा-प्रदेश अति-पुष्ट! लाल रंग का वस्त्र, नीचे तक आ रहा था उसके, जिसमे, घूम पड़े थे! सोने की सी आभा थी वस्त्रों में उसके! यज्ज-भट्ट! इसीलिए उसे मैंने यज्ज-भट्ट कहा!
हम तो जड़ ही रह गए थे उसको देख!
ऐसा सुंदर और महाभट्ट नहीं देखा था कभी! ये तो यक्ष कुमार और गन्धर्वों से भी अधिक बलवान और कुशल सा लगता था! यही था तैतिल! वो तैतिल जिसकी शत्रुता थी उस बाबा अम्फू से! वो तैतिल, जिसने मदद की थी गोमती और रूपी की उस रात!
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
हालांकि, मेरी आवाज़ मंद पड़ गयी थी, प्रश्न पूछते हुए! मैं जानता था उसका अपार-बल! उसका सामर्थ्य और उसकी 'युद्ध-कला' के विषय में!
"अनभिज्ञ नहीं हो!" बोला वो,
वो बोला? या आकाश बोला? ऐसा गरजन? काँप ही जाए समक्ष जिसके हो वो!
"नहीं, मैं अनभिज्ञ ही हूँ!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
अब क्या कहता! जानता तो था ही!
"तैतिल!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"क्या संध है तुम्हारा?" पूछा मैंने,
"ये भी जानते हो!" बोला वो,
हाँ, जानता तो था! वो एक ब्रह्म-पिशाच था!
"क्या तुमने ही मदद की थी उन दोनों लड़कियों की?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"औचित्य?" पूछा मैंने,
"असहाय थीं वो!" बोला वो!
स्पष्ट बात कर रहा था! कोई लाग-लपेट या अहंकार क़तई नहीं दिख रहा था उसके संग वार्तालाप में! न ही उसने ऐसा प्रयास ही किया था!
"मदद की, उत्तम! परन्तु, तुम बार बार उसे क्यों बुलाते हो?" पूछा मैंने,
"मैंने कभी नहीं बुलाया उनमे से किसी को भी, कदापि नहीं!" बोला वो,
नहीं बुलाया? असत्य!
"असत्य!" कहा मैंने,
"मैं कदापि असत्य नहीं बोलता!" बोला वो,
नहीं बोलता? क्या अर्थ हुआ?
"तो कौन बुलाता है?" पूछा मैंने, उसी से ही!
"वो बाबा अम्फू!" बोला वो,
बाबा अम्फू? क्या? क्या कह रहा है ये?
"बाबा अम्फू?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"औचित्य?" पूछा मैंने,
"मैं बल से परास्त नहीं किया जा सकता!" बोला वो,
परास्त? अर्थात?
"किसने किया बल-प्रयोग?" पूछा मैंने,
"बाबा अम्फू ने!" बोला वो,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"शक्ति अर्जित करने हेतु!" बोला वो,
"शक्ति? कैसी शक्ति?" पूछा मैंने,
"नैभौम एवं इक्तवांग प्राप्ति हेतु!" बोला वो,
ये मैं क्या सुन रहा हूँ? नैभौम? इक्तवांग? क्या, इस धरा पर, किसी ने अर्जित किया ये सब? नैभौम को आप त्रय-लौकिक मानिए और इक्तवांग को, परम-सिद्धत्व! बाबा ने ऐसा किया? लेकिन.............? सर भन्ना गया मेरा उसी क्षण! विश्वास करूँ? या न करूँ? मान लूँ? या नहीं? ब्रह्म-पिशाच ये प्रदान कर सकते हैं! ये तो सत्य है! परन्तु ये इतना सरल नहीं!
ऐसा कैसे सम्भव है?
मैं जैसे, किंकर्तव्यविमूढ़ सा हो गया था! ये मैंने क्या सुना था?
"एक प्रश्न और?" पूछा मैंने,
"अवश्य!" बोला वो,
"ये मृणा कौन है?" पूछा मैंने,
वो अब, चुप हो गया! सर नीचे कर लिया! जैसे, सोच में डूबा हो! जाइए, स्वयं से पूछ रहा हो, कि बताये या नहीं?
"बताओ?" कहा मैंने,
उसने सर ऊपर उठाया, उस पेड़ को देखा, नेत्र चमके उसके!
"कौन है मृणा?" पूछा मैंने,
"एक मानव स्त्री!" बोला वो,
क्या?? हैं? क्या??
एक मानव-स्त्री? मेरे सर में जैसे विस्फोट सा हुआ! एक मानव-स्त्री? उसका क्या लेना-देना इस ब्रह्म-पिशाच से? क्या संग? क्या कुसंग?
मृणा एक मानव-स्त्री थी, ये जानकर तो मैं सकते में आ गया था, भला एक ब्रह्म-पिशाच और एक मानव-स्त्री का क्या झोलनामा? क्या अर्थ? लेकिन, तैतिल ने ये स्वीकार किया था अभी अभी, तो असत्य तो नहीं बोल रहा था, ये, ऐसे दिव्यता प्राप्त, असत्य नहीं बोला करते!
"तैतिल? क्या आप और विस्तार से इस विषय में बताएंगे?" मैंने पूछा, इस बार मैंने आदर-सम्मान की भाषा बोली थी, वो मेरा शत्रु नहीं था, न ही वो गोमती या रूपी का था, उसने स्वयं ही अभी कहा भी था कि उसने, कभी किसी को नहीं बुलाया था, एक वजह ये ही रही होगी कि वो, मृणा की मानवता को जानता ही होगा, तदर्थ ही, उसने गोमती और रूपी की असहायता हो भी भांप लिया होगा, बिना मानव-पुट का अनुभव होते हुए, वो तैतिल ऐसा नहीं कर सकता था! ये भी एक कारण रहा होगा! अब सबसे बड़ा कारण और झोल जो था, वो थी मृणा! मृणा का क्या औचित्य था इस प्रकरण में, और क्या भूमिका थी, ये तैतिल से बढ़ कर, और कोई नहीं जान सकता था! न ही कोई बता ही सकता था!
"मृणा के विषय में जानना चाहते हो?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"हम्म! परन्तु..............." बोला वो,
"क्या परन्तु?" पूछा मैंने,
"आपको वचन देना होगा!" बोला वो,
"कैसा वचन?" पूछा मैंने,
"यही कि जब मैं बताऊंगा और आप सुनेंगे, तो आप किसी भी प्रकार का प्रश्न नहीं करेंगे, यदि आपने प्रश्न किया, इस मध्य, तो मैं वापिस चला जाऊँगा, कदापि नहीं आऊंगा!" बोला वो,
उसने ऐसा वचन क्यों लिया? क्यों वापिस चला जाएगा? अब इसका क्या कारण है? बड़ी ही अटपटी सी शर्त थी ये तो! परन्तु, इसका भी कोई उद्देश्य अवश्य ही रहा होगा, जो मुझे, इस समय नहीं सूझ रहा था, शायद, बाद में मैं जान जाऊं! ऐसा सम्भव था!
"स्वीकार है! वचन देता हूँ!" कहा मैंने,
मित्रगण!
अब उसने बताना आरम्भ किया! न अटका ही, न किसी भी शब्द को दुबारा ही दोहराया! उसने ऐसे बताया जैसे, ये बस, अभी, कुछ क्षणों पहले की ही बात हो! उसने जो बताया, वो मैं आपको अब अपने शब्दों में लिख कर बताता हूँ!
आज से करीब नब्बे वर्ष पहले,
उस स्थान से कुछ दूर ही, एक गाँव पड़ता था, ये गाँव, छोटा सा है, अब वो गाँव, आज के समय में, खत्म सा हुए जा रहा है, लोग, नज़दीकी क़स्बे की तरफ पलायन करते जा रहे हैं, कुछ एक जो बचे हैं, वो मात्र अपनी खेती के कारण, एक दिन, ये भी पलायन कर देंगे, जब क़स्बे तक का रास्ता सुगम हो जाएगा! क़स्बा करीब अठारह किलोमीटर दूर है वहाँ से! इस गाँव के साथ साथ, इस अठारह किलोमीटर के बीच में पड़ने वाले दो और गाँव भी, अब खत्म हुए जा रहे हैं, कारण वही, विस्थापन हुए जा रहा है! हमारा केंद्र यहां पर एक छोटा सा गाँव है, जो इन तीन में से एक है, क़स्बे से जो अधिक दूर है, वही! इसी गाँव में, एक परिवार रहा करता था, होती लाल का परिवार, परिवार में, होती लाल की धर्मपत्नी, पांच पुत्र और दो पुत्रियां थीं, होती लाल के छोटे भाई भी अपने परिवार के साथ, उस पुश्तैनी घर में रहा करते थे, उनके दो पुत्र और चार पुत्रियां थीं, होती लाल की ही एक पुत्री का नाम था सरिता और इसी सरिता को नाम दिया था तैतिल ने मृणा! आगे की कहानी में, मैं सरिता नहीं, मृणा ही लिखूंगा उसे...
अब ये कहानी आगे बढ़ती है..........
यौवन की दहलीज पर क़दम रख दिए थे मृणा ने, रूप में, रूपसी थी मृणा! जो देख ले, सो निहारता ही रह जाए! स्त्री-सौंदर्य की अप्रतिम सुंदरता! उसकी सखियाँ, छेड़ा करतीं उसे! कि, उसका हाथ तो किसी भागवान को ही जाएगा! और जो उसका हाथ थामेगा, वो तो जीवन भर, उसके सौंदर्य का दास हुए बिना, कदापि न रह सकेगा! और था भी ऐसा ही! उसको पाने के लिए, कोई भी, कुछ भी कर सकता था! कुछ भी! न जाने कौन होगा वो भागवान!
वो समय, संध्या से कुछ पहले का था, मृणा, अपनी सखियों के साथ, संध्या-गमन पश्चात वापिस आ रही थी, ठीक उसी नदी के किनारे से, जो नदी, आज भी ठीक वहीँ से बहती है! जहां से उस समय बहा करती थी! वो रुकी अपनी सखियों के साथ उस नदी के किनारे पर, जो ईंधन आदि एकत्रित किया था, वहीँ रख दिया था, जंगल में धूल-धाल हो जाया ही करती है, तो सखियों समेत, नदी के जल से, उस धूल-धाल को साफ़ करने के लिए, वे सब नदी में, घुटने घुटने जा खड़ी हुई थीं! ये उनका नित्य की ही नित्य-चर्या थी, एक नियम ही मान लीजिये! तब न लोग इतने थे, न भीड़-भाड़ ही इतनी थी! वे जंगल से आतीं, ईंधन आदि की व्यवस्था के बाद, गाँव जाने से पूर्व, यहां स्वच्छ हो जाया करती थीं! उस संध्या भी, यही सब दोहराया जा रहा था, परन्तु उस दिन, कोई ऐसा भी था, जो दूर कहीं से, देख रहा था, उन छह सखियों में से एक को, एक जो सबसे पृथक ही दीखती थी! यही थी वो मृणा! तो मित्रगण, एक नियम तो पहले से था क़ायम, अब एक नियम और बन गया! वो आगंतुक, नियत समय पर, जा पहुँचता उस स्थान पर, और निहारता रहता उस सौंदर्य को! ये नियम बन गया था उसका, हाँ, अब उस आगंतुक और उस रूपसी के मध्य, भौतिक-दूरी कम होने लगी थी! वो आगंतुक अब करीब, कुछ और करीब और फिर कुछ और करीब आ कर, निहारा करता था उसे! उसे भला कौन देखता! लेकिन वो, मात्र उसी रूपसी के सौंदर्य का दास हो, उस रूपसी को ही निहारता चला जाता! और जब वो वापिस चली जाती, वो वहीँ खड़ा रहता! प्रतीक्षा के वो असहनीय क्षण, आरम्भ हो जाया करते!
समय बीत चला! क्षणों से पल और पल से घंटे! घंटों से दिन और दिन से सप्ताह! सप्ताहों से पखवाड़े और पखवाड़ों से माह! कोई नियम नहीं टूटा! न उन्होंने आना ही छोड़ा, और न उसने ही आना छोड़ा!
एक रोज, मृणा, अपने मात्र एक सखी के संग ही लौट रही थी, उन्होंने वहीँ कुछ विश्राम किया और न जाने क्यों, शायद भाटे की अधिकता से, उन दोनों ने स्नान करने की सोची! दोनों ही जल में उतर गयीं, जल में क्रीड़ा करने लगीं! इस से अनभिज्ञ कि कोई उन्हें देख रहा है, देख रहा है, एक सर्प का रूप लेकर! वो सर्प, कुंडली मार, मात्र मृणा को अपने नेत्रों में बसाये देखे जा रहा था! जब जब मृणा स्थान बदलती, उस सर्प का भी सर उसी प्रकार से मुड़ जाया करता था! अचानक से, मृणा की सखी की निगाह उस सर्प पर पड़ी! वो घबरा गयी! चिल्ला पड़ी! और जल में चल, मृणा को जा बताया सबकुछ! सच में, वो सर्प, उन्हें ही देख रहा था! एकटक! टकटकी लगाये! एक पाषाण सी मूर्ति का सा रूप लिए!
"अब क्या करें सरिता?" पूछा उसकी सखी ने,
"सम्भवतः, ये नदिया पार जाना चाहता है!" बोली सरिता!
"लेकिन हमारे वस्त्र?" पूछा सखी ने,
"हाँ, वो उधर ही हैं, इसको जाने दो!" बोली सरिता!
काफी देर हुई, न सर्प ही हिला और न वे दोनों ही! दोनों की चिंताएं अब गाढ़ी होने लगीं, समय बीते जा रहा था औरवो सर्प, हटने का नाम न ले रहा था, वो तो वहीँ कुंडली मारे बैठा था! तब सरिता ने ही, कुछ करने की सोची, नदी में से उठाया एक पत्थर, और फेंक दिया सर्प की तरफ! सर्प का ध्यान नहीं चूका! उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा! तो, अब उन्होंने ही कुछ और करने की सोची, उन्होंने, स्थान बदला, जल में ही, वे आगे चलीं! तभी अजसिे, सर्प ने भांप लिया! उसने कुंडली खोली, और होता गया पीछे! पीछे, काफी पीछे! ये देख, वे दौड़ी दौड़ी आयीं! अपने वस्त्र उठाये, और चलीं ओट में! पहने वस्त्र, केश फटकारे, उठाया ईंधन और चल पड़ी तेज क़दमों से, गाँव की ओर! बीच रास्ते में, सर घुमा कर देखा मृणा की सखी ने पीछे! जब देखा तो निकली किल्ली मुंह से! झट से पीछे देखा मृणा ने भी! वो सर्प, चला आ रहा था उनके पीछे पीछे! जैसे उनका पीछा कर रहा हो! वे रुकीं, तो वो भी रुक गया! एक निश्चित दूरी बना कर! वे आगे बढ़तीं तो वो भी आगे बढ़ जाता! दोनों ही घबरा गयीं बहुत! किसी तरह से पहुंची गाँव और गाँव के बाहर तक, वो सर्प, आता दिखा था उन्हें! जब गाँव में प्रवेश किया तो जैसे लोप हो चुका था वो! लेकिन उस सर्प के इस अजब से व्यवहार ने, दोनों के ही होश हिला के रख दिए थे! सारी कहने कह सुनाई घर में! घर में सब हैरान! कल देखा जाएगा, ऐसा सोच, सभी ने माहौल हल्का किया और हिम्मत बंधाई मृणा की, उसकी सखी की!
अगला दिन,
संध्या से पूर्व.....
जब वे लौट रही थीं वापिस, तो मृणा और उसकी सखियाँ, जैसे वहां की ज़मीन का चप्पा चप्पा अपनी निगाहों से फांके जा रही थीं! क्या जो सर्प कल दिखा था, आज भी दिख सकता है? क्या कल की तरह, आज भी वो पीछा करेगा? यही सब देखने के लिए, मृणा के भाई भी आ चुके थे, लाठी-डंडे और गैंती-फवाती लेकर! आज पीछा किया तो उसको सर्प को, मरना ही होगा! मार-मूर कर, वहीँ दफन कर दिया जाएगा उसे!
सखियों ने हाथ-मुंह धोये, भाई सभी, दूसरे किनारे पर खड़े रहे, कि वहां से कोई इशारा बने, दिखे, तो चल पड़ें उस सर्प की ओर! अचानक ही, उन सखियों में मची भगदड़! किसी ने देखा था वो सर्प! कुछ इधर भागीं और कुछ उधर! जिसको जो जगह मिली, वो वहीँ भाग ली! नहीं भाग पायी तो वो बस, मृणा! उसने देखा नहीं था वो वर्प, इसीलिए नहीं भांप पायी! जब भाइयों ने देखा, तो वे भी झट से दौड़ लिए मृणा की तरफ! मृणा की जान खतरे में है, ये जानते हुए, लगा दी दौड़, मृणा की तरफ!
और वो सर्प!
वो सर्प फन फैलाये, जीभ लपलपाए, कुंडली मारे, खड़ा था, निहारता हुआ, मृणा को! मृणा ने जैसे ही पीछे देखा, वहीँ था वो सर्प! इस बार तो उनके नेत्र भी मिल गए थे! दूरी अधिक नहीं थी, बस कोई आठ या दस गज! इस से अधिक नहीं!
मृणा के भाई, दौड़ कर, पहुँच गए थे वहां, लाठी-डंडे लेकर! लेकिन जब सर्प को देखा, तो जैसे सांप ही सूंघ गया उन्हने! उस सर्प का आकार विशाल था! उसका रूप जैसे अद्वितीय था! श्याम-नील आभा थी उसकी, और वो सर्प, उस समय भी पीछे कुंडली मारे, बैठा था, न कोई भय ही था उसे, न कोई चिंता! जैसे, किसी सर्प को, मनुष्य के सामने आकर दीख जाया करती है! ऐसा कुछ भी नहीं था! वो उस समय भी, बस, मृणा को ही देखे जा रहा था! मृणा की निगाहें उस सर्प से लगीं थीं, सर्प के नेत्रों में जैसे कोई आकर्षण था! सर्प जैसे मूक भाषा में, समर्पण की अवस्था में बैठा था! मृणा के भाई, लाठी उठा कर, उस सर्प को, घेरने लगे, कहीं बच कर निकल न जाए, घेराबंदी करने लगे थे, लेकिन कमाल था! सर्प इस घेराबंदी से न तो घबरा ही रहा था और न ही भय से ग्रसित था! वो जीभ लपलपाता और देखे जाता मृणा को! उसके इस प्रकार देखने से, मृणा की देह में जैसे सर्प-मद की आसक्ति उपजने लगी! सर्प-मद मात्र स्त्री को ही महसूस हुआ करता है, पुरुषों को नहीं! ये अत्यंत ही विरल अवस्था है! इसी कारण से, स्त्रियां कभी सर्प-नाश नहीं किया करतीं अर्थात, सर्प को नहीं मारा करतीं! और सर्प भी, बहुत ही कम, स्त्रियों को दंश मारा करता है, बहुत ही कम, वो भी, अनजाने में या दब कर ही! नहीं तो नहीं दंश मारा करता! खैर, उसको घेर लिया गया था, अब वो, लाठी और डंडों की जद में था, उस पर कब वार हो जाए, कहा नहीं जा सकता था! अब पहली बार सर्प ने, सर घुमा कर, सभी को देखा, सभी को, जिसको भी देखता, वही जड़ सा हो जाता था! कहने के अर्थानुसार, जिस पर भी दृष्टि डालता वही काँप उठता था! सर्प क्रोध में हो और अपने प्राण बचाने के लिए तत्पर हो, तो उसके विष भी चौगुना प्रभावी हो जाता है! लेकिन उसने, कोई फुफकार नहीं भरी! कोई फुंकार भी नहीं भरी! अर्थात, वो क्रोध में नहीं था! वो तो बस, आगे चला, आगे और करीब आ गया था मृणा के! उसके करीब आया तो मृणा को कोई भय ही नहीं लगा! बड़ी ही अजीब बात थी! सर्प, मृणा की तरफ अपना पृष्ठ भाग कर, उन लाठी, डंडों वालो को देख रहा था, पीछे होता जा रहा था, करीब आने लगा था मृणा के, जैसे उस सर्प को मृणा पर अटूट विश्वास हो, कि मृणा उसे, कोई अहित नहीं पहुंचाएगी! उस सर्प के उस विश्वास ने, सच में, मृणा के भय का जैसे, नाश कर डाला था!
और जैसे ही मृणा के भाइयों ने, मृणा को वहां से हटने को कहा, मृणा के जैसे मानो, कान ही बंद हो गए! उसे नहीं सुनाई दे कुछ भी! जैसे, उसके भाई बस, होंठ हिलाये जाएँ! उस सर्प ने, जैसे आश्रय ले लिया था मृणा से! अपने प्राणों का आश्रय! और फिर इस प्रकार, मृणा के पीछे से होते हुए ही, वो सर्प, लपक पड़ा नदी की ओर! मृणा और उसके भाई, सभी देखते रहे गए! सर्प पानी में जा उतरा, मृणा को देखते हुए, और उसके बाद, नहीं आया नज़र किसी को भी! अब उसके भाइयों ने, झिड़का उसे! चार बातें कह सुनायीं! कि सुना नहीं, कहीं वो डस लेता तो, वो हटी नहीं, उसने ही बचा लिया उसे, वो सर्प, अभी भी ज़िंदा है, ना जाने क्या हो, कहीं काट ही न ले आदि आदि! और ये ताक़ीद भी करदी, कि मृणा अब नहीं जायेगी जंगल, जब तक, वो सर्प मार नहीं दिया जाता! वो सर्प, नदी पार कर, दूर जंगल में जा चुका था, बार बार रुकता, पलटता, देखता और चला जाता फिर! ऐसा उसने, कई बार किया! मृणा के भाई, दौड़े भी उस सर्प के पीछे पीछे, लेकिन बीहड़, जंगल में, कच्ची ज़मीन में तो, घोड़ा भी चाल नहीं काट सकता उसकी! उसकी गति यहां बहुत ही तेज हो जाया करती है! और इस प्रकार, सर्प चला गया, ले आये उसके भाई उसे घर, अब कह ही दिया था, कि वो नहीं निकलेगी घर से बाहर, जब तक कि, वो सर्प, मार नहीं दिया जाता, मार कर, दफन नहीं कर दिया जाता! मृणा, उस सर्प को कभी न भूली! कैसे वो, उसके पास चला आया था, कैसे विश्वास कर लिया था उसने उस पर! उसे तो रत्ती भर भी विश्वास नहीं हुआ था कि एक सर्प भी ऐसा विश्वास दिखा सकता है! बड़ी ही अजब बात हुई थी! इस बात की चर्चा, चल निकली! जिसके मुंह पर देखो, यही चर्चा थी! कि एक सर्प ने, कैसे विश्वास कर लिया था एक कन्या पर! अब जितने मुंह उतनी बातें! कोई कहे, दिव्य-सर्प है, कोई कहे, एक न एक दिन क्षति पहुंचा ही देगा, कोई कहें, कोई नाग कुमार तो नहीं, कोई कहे, ये चमत्कार से कम नहीं! खैर, पूरे सप्ताह तक, मृणा घर में ही क़ैद सी रही! सखियाँ आतीं, बतातीं कि वहां अब कोई सर्प नहीं! वैसा सर्प अब नहीं आता वहां, किसी ने नहीं देखा उसे! और अब, भय खाने की भी आवश्यकता नहीं!
मृणा के भाइयों और माता-पिता को भी ऐसा कुछ पता चला, और इस तरह से मृणा को आज्ञा प्राप्त हो गयी, अपनी सखियों संग, संध्या-गमन की! दो दिन बीते, और फिर चार! और इस प्रकार, माह बीत गया! माह बीता तो सर्प का ध्यान भी मस्तिष्क से निकलता चला गया!
दो माह के बाद, आई नाग-पंचमी! उस दिन तो सम्पूर्ण भारत में, नाग देवता ही हुआ करते हैं! नाग ही नहीं, वरन कोई भी सर्प! लोग पूजा किया करते हैं, दूध पिलाया करते हैं! बदल में, आशा रखते हैं, कि उन्हें या उनके परिजनों को, संतानों को, कभी सर्प-भय न हो, कोई सर्प-दंश न हो! तो उस रोज, लोग नदी किनारे, मृद-पात्र भर कर, दूध से, ले जाया करते थे नदी किनारे! सर्पों को दुग्ध-पान करवाने! विज्ञान कहता है कि सर्प, दूध नहीं पीता, वो स्वभाव से मांसाहारी ही है, ये सही है, परन्तु, सर्प दूध पीता है, ये भी सत्य है! मैंने एक नहीं, अनगिनत बार ऐसा देखा है! पूरा डेढ़ लीटर दूध, एक बड़ा सा काला नाग, पी गया था, ये देखा है मैंने, वो बाक़ायदा, एक डकार सी भी लिया करता है! जब डकार सी लेता है, तब वो हंस रहा हो, मानव की तरह, ऐसी मुद्रा बनाता है! सर्पों के विषय में अभी भी, बहुत ही कम जाना गया है! कुछ विलक्षण-गुण वाले सर्प, आज भी हैं, बस लोगों की निगाह से बचे हैं!
हाँ, जब मृणा के परिवारगण आये उधर, तो रखा मृद-पात्र, अन्य लोगों ने भी, और हट गए थे वहां से, दूर जा बैठे थे! मित्रगण! सभी के पात्र खाली हुए, नहीं हुआ तो बस मृणा के परिवार का! अब यदि ऐसा हो, तो आशंकाएं जन्म लिया करती हैं! सैंकड़ों उलटे सीधे विचार लिपट जाया करते हैं! ऐसा ही हुआ, मृणा के भाइयों ने, चेष्टा तो की ही थी, एक सर्प को मारने की, तो ये, उसी का फल था! सर्प तो बहुत आये, लेकिन किसी ने भी, छूकर नहीं देखा उनके पात्र को!
अब इसका जो अर्थ निकाला जाए, निकाला गया! मृणा ने भी अधिक चिंता नहीं की, समय आगे बढ़ा, और ठीक एक दिन!
एक दिन.............
मृणा उस नदी किनारे ही विश्राम कर रही थी, शेष सखियाँ आसपास कुछ एकत्रित कर रही थीं, मृणा ने जो एकत्रित किया था, उसे बाँध रही थी! जब बाँध लिया तो चली हाथ-मुंह धोने, धोये हाथ-मुंह उसने और जब लौटने लगी, तो देखा सामने! सामने, वही सर्प बैठा था! उसी को देखता हुआ, निहारता हुआ, जीभ लपलपाता हुआ! पांच-छह महीनों के बाद वो लौटा था! भय नहीं लगा मृणा को! ज़रा सा भी नहीं! लेशमात्र भी नहीं! सधे क़दमों से, बढ़ चली सर्प की तरफ! सर्प भी, उस से नेत्र बांधे, निहारता चला जा रहा था, कोई क्रोध नहीं! कोई आवेश नहीं! मात्र सहजता! मात्र सहजता! और कुछ नहीं! न जाने कितनी देर तक, सर्प और उसमे, मूक-वार्तालाप सा हुआ! न जाने कितनी देर तलक!
"चल, चलें सरिता?" आई एक आवाज़, रखा किसी ने कंधे पर हाथ, पीछे मुड़कर देखा मृणा ने, उसकी सहेली थी वो, और जब सामने देखा, तो वो सर्प नहीं था वहाँ! कहाँ चला गया? इतना शीघ्र? ऐसा कैसे सम्भव है? क्या लोप हो गया या फिर, यहीं कहीं वास है उसका? नहीं समझ सकी मृणा! अपनी सखियों संग, लौटना पड़ा उसे, बार बार पीछे मुड़कर देखे वो! लेकिन वो सर्प, जैसे आया था, वैसे चला भी गया था!
घर पहुंची मृणा, लेकिन उस सर्प का ख्याल नहीं जाए! भला एक सर्प, क्यों इतना विश्वास करता ही उस पर? और फिर दूसरी बात, जब उसकी सहेली ने कंधे पर हाथ रखा था उसके, तब उसने नहीं देखा था वो सर्प! ऐसा, कैसे सम्भव है?
वो कैसा सर्प है?
कोई अलौकिक है?
कोई दिव्य?
क्या चाहता है वो उस से?
क्यों आता है उसके पास?
कहा था इन पांच-छह महीनों तक?
आज, अचानक कैसे?
ऐसे ऐसे, कई प्रश्न उसके मस्तिष्क-पटल पर जा चिपके! और उनके उत्तर, मिलें ही नहीं! बार बार, उस सर्प की श्याम-नील आभा सी चमके नेत्रों में! मृणा को, जैसे ही कुछ समय मिल पाता, वो उसी सर्प के विषय में, उत्सुक हो उठती! क्या और कैसे? ऐसे ऐसे, कई प्रश्न! और इसी तरह....................
सारी रात, गयी आँखों में! करवट बदले, तो नींद खुल जाए, नींद खुले तो मन जंगले में जा छलांग मारे, छलांग मारे तो सामने वही सर्प हो! वही सर्प हो, तो सम्मुख जा खड़ी हो! खड़ी हो, तो याद आये कि कैसे उस घेराबंदी के समय, अपना पृष्ठ-भाग किये उसकी तरफ, वो सभी को देख रहा था! जैसे, वो उसका अहित न होने देगी! एक सर्प भला, ऐसा यक़ीन कैसे कर सकता है? जिसकी न ज़ुबान है कुछ कहने को और न मुख ही वो, जो कह सके कुछ! कौन है वो? क्यों लगता है कि अपना सा ही कोई है?क्यों, न चाहते हुए भी, अभी तक इस वक़्त, रात के, जब कि रात, आधी हो चुकी है, स्याह अँधेरा ढक चुका है उसे, क्यों मन में, विचारों में बना हुआ है? अब, क्या कर रहा होगा? कहाँ होगा? कैसे अपने आपको सुरक्षित रखता होगा? सर्प के तो सौ बैरी? नींद ऐसी खुली कि फिर न आई! करवटें बदली गयीं, सिरहाने भी बदला गया, न बदले तो वो विचार! उठ गयी! खिड़की से झाँका बाहर, घोर अन्धकार! दीवार के आले में लगी डिबिया की लौ, फ़ड़फ़ड़ा रही थी! छर-छर की सी आवाज़ निकल रही थी बार बार! साथ सोतीं बहन और माँ, इत्मीनान से सो रही थीं, इस दीन-दुनिया से बेखबर! न आ रही थी नींद तो बस, उसे ही न आ रही थी! दरवाज़ा आधा भिड़ा था चल पड़ी बाहर के लिए! बाहर आई, तो दीवार के संग रखा, घड़ा पकड़ा, थोड़ा टेढ़ा किया, घड़े पर रखी, कटोरी उठायी, पानी लिया उसमे, और पानी पिया! जब पीनी पी रही थी, तो कुछ सुनाई दिया! चौंक पड़ी वो! कौन है वहां? कोई आवाज़ सी हुई थी, जैसे किसी ढोर में साँस छोड़ी हो, लेकिन कोई भी ढोर, ऐसी सांस, ऐसी लम्बी सांस नहीं छोड़ता, तो कौन है वहां? कटोरी रखी, घड़ा सीधा कर रखा, उठी, और चली बाहर की तरफ, बाहर, गाँव के श्वान, भोंक रहे थे, वे ही तो थे, जो इस बात का पता थे कि गाँव जीवित है! बस लोग ही सो रहे हैं! वो आगे चल पड़ी, क्या देखा? देखा, ओसारे में, डिबिया के नीचे, ठीक नीचे वही सर्प, बैठा है, कुंडली मारे! उसे ही निहारते हुए! मन जहाँ एक ओर प्रसन्न हुआ, वही डर भी भर आया! कहीं किसी ने देख लिया तो? कहीं मार ही न डाले? और ये, ये यहाँ कैसे आ गया? क्या रोज ही आता है? उसे, उस क्षण, डर न लगा उस सर्प से! अब डरना क्या? वो सर्प, दूर जंगल से आया था, किसलिए? डसने के लिए? नहीं! कोई और ही बात थी! कोई ऐसी बात, जिसे वो मूक सर्प, कह नहीं पाता था! बस, अपनी उपस्थिति से ही अपना मंतव्य स्पष्ट किया करता था! और! कितना साहसी है! कैसे आया होगा यहां तक! कैसे जाना होगा उसके घर का पता! कैसे भान हुआ होगा कि वो जाग गयी है!
पौ फटने में अभी देर थी, देर भले ही थी, लेकिन आकाश में सूर्य की सहचरियों ने, झाड़ू-बुहारी करना आरम्भ कर दिया था, संदेसा भेज दिया गया था मेघों को, कि अब वो, मार्ग दें, सूर्य-पथ पर कोई अवरोध न हो, इसीलिए! सूर्य की सहचरियों के प्रकाश से आकाश अब अपना, रात अपना तिमिरांश खोने लगे थे! तो हमारी वो मृणा चली बाहर की तरफ! एक ओट में, पेड़ों और पौधों की ओट में, झट से कुंडली खोले, वो सर्प भी पीछे हुए उसके, और आ गया सम्मुख मृणा के! नेत्र मिल गए एक दूसरे के!
"कौन हो तुम?" पूछा मृणा ने, धीमे से!
वो सर्प, क्या बोलता! बस, जीभ लपलपा दी!
"क्यों मेरा पीछा करते हो?" पूछा उसने उस से!
अपनी पूँछ, खींच अपने पास कर ली उस सर्प ने!
"क्या चाहते हो तुम?" पूछा उसने,
इतना पूछा, और सर्प, आगे बढ़ा, अपना चौड़ा फन, हल्का सा बंद किया! ये विश्वास था! एक मानस पर अटूट विश्वास! आगे किया और पास आ रुक गया! बस कोई, एक ही फुट!
"बताओ? कौन हो तुम?" पूछा उसने,
कुछ न कहे वो! बस, चुपचाप देखे उसे! सांस भी न छोड़े!
न जाने कैसे, हिम्मत जागी मृणा की! न जाने कैसे! अपना हाथ, आगे बढ़ा दिया उसने! आगे, उसके करीब! और वो सर्प! अपना फन आगे किये, रख दिया सर अपना उस मृणा के हाथ पर! शीतल! बर्फ सा! ऐसा ठंडा! अपना सर रगड़े वो उसके हाथ से! समर्पण! उच्चता भरा समर्पण! दो ध्रुव-विरोधी प्राणी! और विषैले प्राणी का समर्पण!
अपने दूसरे हाथ से उस सर सहलाये मृणा! और इस से, उस सर्प के शरीर में, वक्र पड़ें, वलय पड़ें! जान सी जाए उसकी! लेकिन, वो सर रगड़े! सर सहलवाये! तभी अंदर, खखारने की आवाज़ गूंजी, शायद, पिता जी उठने को थे!
हाथ हटाया अपना उसने! घबरा गयी वो!
"जाओ! जाओ अब!" बोली वो,
और वो सर्प! नहीं जाए! टकटकी लगाये, उसको निहारता जाए!
"जाओ! जाओ न!" बोली वो,
नहीं जाए! डटा ही रहे! कुंडली और मार ली!
सर पर हाथ फेरा, फन पर हाथ फेरा, कई बार!
"जाओ! जाओ! संध्या समय! जाओ!" बोली वो,
आगे बढ़ा वो, धीरे से, और रख दिया अपना फन, पाँव पर मृणा के उसने! मृणा ने, उठाया उसे, इस बार पकड़ कर!
"जाओ! जाओ!" बोली वो,
खखारने की फिर से आवाज़ गूंजी! बाल्टी के उठाने की आवाज़ गूंजी! आने वाले थे पिता जी, शायद सानी करने ढोरों की! बस कुछ ही क्षणों में आ धमकते! कहीं देख लेते, तो कहर ही टूट पड़ता! उस सर्प की जान पर बन आती!
"जाओ! जाओ, बिनती करती हूँ! जाओ, संध्या-समय! संध्या पर!" बोली, शब्द अपने आप निकले! अपने आप! रोक ही नहीं पायी! अपने से अधिक, उस सर्प की चिंता हो आई!
तब, वो सर्प, पीछे हटा! पीछे लौट पड़ा, रुका, और फिर से देखा उसे! वो लौट रहा था! जाते जाते, जैसे बार बार, पूछे जा रहा था कि संध्या-समय! संध्या के समय!
मुस्कुरा पड़ी मृणा!
इशारा किया वापिस जाने का!
और सर्प, उन पौधों के बीच से चलता हुआ, लौट गया!
वो तो लौट गया, नहीं लौट पायी मृणा!
अपने हाथ देखे!
लाल से हुए थे हाथ! स्निग्ध से! सुगंध भर उठी थी हाथों में! पारिजात के फूलों जैसी सुगंध! और तो और, जहां से वो सर्प गया था वापिस, जिस मार्ग से, पारिजात के कुछ फूल भी पड़े थे! पूरा घर जैसे उस सुगंध से भर चला था! सर्प चला गया, और लौटी वापिस फिर मृणा!
पिता जी बाहर ही मिले, नमस्कार हुई उनसे!
"आज जल्दी उठ गयी बेटी?" पूछा पिता जी ने,
"हाँ पिता जी!" कहा उसने,
"अच्छा! ले, ये साफ़ कर दे, मैं आता हूँ अभी!" बोले पिता जी, वो बाल्टी देते हुए उसे!
"जी!" बोली मृणा,
और ले चली बाल्टी को, साफ़ करने, बाल्टी साफ़ की, और रख दी उधर ही, हाथ-मुंह धोये, पोंछे और चली गयी अंदर! अंदर गयी, तो जा लेटी! लेकिन वो तो लेट गयी, नहीं लेटे वो वो खड़े विचार! वो सर्प, जो अभी भी उसके विचारों में, कुंडली मारे बैठा था!
सोचे जाए, और मुस्कुराये जाए!
पौ फ़टी! और सुबह की उलग-पुलग हुई शुरू!
उस दिन तो कमाल हुआ एक! कमाल ले, कि ढोरों ने, दूध बहुत दिया! अचानक से ही दूध बढ़ गया था! अचानक से ही!
उसी दिन, होती लाल को इजाफा भी हुआ, किसी भूमि की खरीद से! जो नहीं सोचा था, वही हुआ! इजाफा और वो भी दोगुना!
और उस दिन, सभी को जैसे ऐसा ही महसूस हुआ! किसी न किसी रूप में, सभी को जैसे खुशियाँ बांटी थीं उनके भाग्य ने! कैसे हुआ, क्यों हुआ, अब कौन चाहता है जानना, सो, उन्होंने भी नहीं जाना! क्या फायदा उस से!
उसी शाम!
वही नदी!
वही किनारा!
वही सखियाँ!
लेकिन उस संध्या, अकेली ही बैठी थी मृणा, कुछ ढूंढ रही थीं उसकी आँखें! कभी सामने, और कभी दायें, कभी बाएं! कुछ पल, बड़ी ही बेसब्री के से बीते! और जब पीछे देखा उसने, तो एक पत्थर के पास, वो नज़र आया! चौंक सी पड़ी वो! उठी, और चली उधर! सखियाँ अपने अपने काम में थीं व्यस्त! किसी ने ध्यान न दिया! तो मृणा, चली पीछे, पेड़ों के पार, वो चली, तो सर्प भी पीछे चला! जैसे, उसको बुलाने आया हो! मृणा भी चलती रही! और जब सर्प रुका एक जगह, तो पारिजात के पौधे लगे मिले उसे उधर! सुगंध ही सुगंध! उन्हीं पौधों के बीच में, रखे एक पत्थर, पर, आ बैठा था वो सर्प!
आगे बढ़ी वो!
फांसला कम हुआ उनके बीच!
वो सर्प को देखे, और सर्प, उसे निहारे!
"यहां रहते हो? ये वास है तुम्हारा?" पूछा मृणा ने!
उसने क्या पूछा!
बरसात सी होने लगी पुष्पों की!
मृणा के कंधों पर, सर पर, वक्ष पर, फूलों ने, आ, पनाह ली!
सब देखा मृणा ने, फूल चुन लिए कांधों से, वक्ष से!
"कौन हो तुम?" पूछा उस सर्प से!
वो कुछ न बोले!
"बताओ? कौन हो तुम?" पूछा मृणा ने!
भान तो पहले से ही था मृणा को! भान, कि ये सर्प, कोई साधारण सर्प नही है! कोई भी साधारण सर्प ऐसा नहीं होता, ऐसा सम्भव ही नहीं उसके लिए! और ये, ये तो न जाने कितने दिनों से उस पर निगाह रखे हुए हैं! क्रम एवं नियम से, निहारता रहता है उसे! कभी एक फुफकार भी नहीं छोड़ी! काटने या डसने की तो बात ही छोडो! और फिर ये पुष्प-वर्षा! भला, किस सर्प के लिए सम्भव है? किसी साधारण सर्प के लिए तो सम्भव ही नहीं! ये कौन है? कोई देव? यकोई श्रापित मनीषी? या कोई अन्य? कौन है ये?
"बताओ? कौन हो तुम?" पूछा मृणा ने उस से!
वो सर्प, बस, एक जगह ही खड़ा हो, उसको निहारे! अपनी जिव्हा निकाले बाहर, और जैसे गंध ले आसपास की! या फिर, मृणा की!
"बताओ? बताओ मुझे?" पूछा उसने फिर से!
ना! कोई हरकत नहीं! बस, जस का तस!
"ऐसा नहीं करो! मेरे घर तक आये थे न? आये थे न? बताओ? कौन हो तुम?" पूछा मृणा ने! आवाज़ में, स्नेह और चंचलता! उच्चश्रृंखलता! आवेश, भले ही, दबा सा हुआ!
"क्यों मेरे पीछे आते हो तुम?" बोली वो, प्रश्न भी ऐसा, जिस से, खुद का ही चेहरा, लाल हो गया, लाज के कारण!
वो सर्प! क्या बोले! वो सम्मुख थी, तो देखता जाता! कोई हरकत ही न करता!
"नहीं बताओगे?" बोली मृणा!
नहीं! कैसे बताये वो मृणा?
"नहीं बताओगे न? है न?" बोली फिर से!
नहीं बता सकता वो सर्प मृणा!
"नहीं? नहीं?" इस बार, आवेश में बोली वो! आवेश, पल भर का! जो, आ बैठा था अँखियों में!
कुछ नहीं किया सर्प ने! बस, निहारता ही जाता!
"ठीक है! मत बताओ! मत बताओ, लेकिन, अब नहीं आना मेरे पीछे, नहीं आना, बिलकुल नहीं आना, मैं नही चाहती कि तुम आओ, तुम बताते ही नहीं?" बोली वो,
और गुस्से से भर कर, लौट चली!
जैसे ही पलटी वो, कुंडली खोल मारी उसने! और सरपट दौड़ कर, आ गया सामने! जैसे, क्षमाप्रार्थी हो! जैसे, उस से कोई भूल हो गयी हो, जैसे उसका बस न चला हो!
"अब क्यों मार्ग रोकते हो मेरा? हूँ? जाओ, जाओ तुम?" बोली वो,
अब जैसे, सर्प ने सुनीं!
आगे बढ़ा, फन बंद किया,
और रख दिया उसके पाँव के ऊपर!
ये देख, मृणा का मृदु-ह्रदय पिघल गया!
क्यों डांटा उसे? क्यों उलाहना दी उसे?
क्यों नहीं समझी कि, वो बोल नहीं सकता! मूक है वो! मूक! क्या बोलेगा! फिर भी, उसने भांपा मृणा का गुस्सा, आगे आया और रख दिया अपना फन, उसके पाँव पर! कोई और होता, तो अब तक, गश खा, चारों खाने चित्त हो जाता! होश ही उड़ जाते! बदन ऐसे काँपता कि रस्सी भी सांप दिखने लगती!
लेकिन मृणा!
मृणा, झुकी, बैठ गयी नीचे! फन उठाया उसका हाथों से पकड़ कर! सर्प के नेत्रों की पुतलियाँ सिकुड़ सी गयीं थीं! वो जैसे, अपनी भूल का सुधार करना चाहता था! फन बंद कर लिया अपना! एक हाथ में, पूरा फन टिका दिया! इस से बड़ा, और समर्पण क्या होता! क्या होता!
है न मृणा?
क्यों मित्रगण, है न?
एक विषधर! एक भुजंग! जिसे देख, गजराज भी रुक जाए! मार्ग बदल ले! वैसा विशाल भुजंग, मृणा के हाथों में, अपना फन बंद किये, शांत बैठा था! देह, शिथिल हो चुकी थी उसकी! मृणा ने, उसको उठाया, और अपने नेत्रों के सम्मुख लायी! न चाहते हुए भी, होंठों की किनारियां फ़ैल गयीं!
तभी, सखियों की आवाज़ आने लगी! सभी 'मृणा! मृणा!' पुकार रही थीं! ज़ाहिर था, उसी की खोज लगी थी! कि कहाँ गयी मृणा! रखा सर्प को नीचे, फिराया हाथ सर पर उसके! मुस्कुराई!
''अब कल आउंगी! संध्या-समय! कल!" बोली वो,
और उठ गयी वो! चली आगे, पीछे देखने की भी फुर्सत न थी उसके पास, सखियाँ आने लगी थीं पास में! वो जैसे ही मुड़ी!
"मृणा!" आई एक खूबसूरत आवाज़!
समय को विराम लग गया!
सखियाँ, जस की तस, जम सी गयीं!
मृणा!
पलट कर देखा, देखा उधर! कोई खड़ा था! कोई, बहुत सुंदर! सुंदर, जैसे देवता! गौर-वर्ण! चौड़े कंधे! ऊँचा ललाट! घुंघराले केश! श्याम केश! लाल रंग के वस्त्र पहने! मुस्कुराते हुए! इस से पहले कि मृणा खोती अपने होश, लपक कर पकड़ लिया मृणा को उसने! मृणा, झूल गयी उसकी मज़बूत भुजाओं में!
"मृणा!" एक बार फिर से आवाज़ गूंजी!
आँखें खुलीं मृणा की! वो झट से खड़ी हुई, अलग हो गयी उस से! आसपास देखा, सारी प्रकृति जैसे उन्हीं को देखने के लिए प्रतीक्षारत हो! पीले, बड़े बड़े कनेर के फूल, पेड़ों पर हिल रहे थे! गुलाबी कनेर, हवा के झोंकों से, हिल कर, अभिवादन कर रहे थे जैसे मृणा का! सफेद कनेर के बड़े बड़े फूल, उसके काँधे और सर को छू जैसे, मृणा के सौंदर्य का रसपान करने लगे थे!
हिमाच्छादित पर्वतों की चोटियां जैसे, कनखियों से उन्हें ही देख रही थीं! साफ़, नीला आसमान, जैसे, पलकें बिछाये बैठा था! सुनहरी सी हरी घास, लहराने लगी थी! सर्प-केतकी, सर्प-व्युषा, सर्प-फलिका आदि की झाड़ियाँ, अपने अपने बसंत के शिखर पर चढ़ी थीं! सर्प-व्युषा की नीली बड़ी बड़ी, मोटी मोटी फांकों के बीच से, नीले रंग के घंटीनुमा फूल निकले थे! चटख नीला रंग था उनका! सर्प-फलिका की बेलों पर, संतरी और पीले रंग के मिश्रित फूल लगे थे! बड़े बड़े फूल! जिनके शंकुओं से, ओंस की बूँदें टपक रही थीं! सर्प-केतकी के पौधे से, बाहर झांकते गहरे नीले फूल, उस जगह में लगातार दिव्यता बढ़ाये जा रहे थे!
ये कौन सा स्थान है?
वो कहाँ है? और ये? ये देव सरीखा, कौन है?
"मृणा! वो सर्प, मैं ही हूँ!" बोला वो,
और मृणा?
झूल गयी! झूल गयी एक झूला! एक ख़ुशी का और एक यथार्थ का! नहीं! ये सच नहीं हो सकता! नहीं? ये सच, हो भी सकता है! नहीं नहीं! ये नहीं हो सकता सच! नहीं! ये ही सच है! झूले के झोल, भंवर तक पहुंचे! झूले की भंवर, वो हुआ करती है मित्रगण, जब झूला अपना दोलन समाप्त कर, घूमने लग जाता है!
"मैं, ब्रह्म-पौषिच् श्रेणी का हूँ मृणा! आद्य-सृष्टि के प्रथम-चरण में रचनिकृत हुए हैं हम! मृणा, मैं असत्य-भाषी नहीं हूँ, सत्य-भाषी हूँ! मैं, तुम्हारे सौंदर्य से अभिभूत हुआ हूँ! मैंने, इस समस्त संसार में, ऐसा सौंदर्य कहीं नहीं देखा! तुम अप्रतिम हो मृणा! मेरा अहो-भाग्य, मैं समक्ष देख पाया तुम्हें! सर्प बना मैं मृणा! ये मानस, प्राणी सर्प से भयभीत हुआ करते हैं, तुम नहीं हुईं! मैं कदाचित, सम्मुख ही नहीं आता, यदि तुमने मुझे स्पर्श न किया होता! मैं, ऋणी हूँ तुम्हारा मृणा! और मैं, तुमसे प्रेम करता हूँ, उसी क्षण से, जिस क्षण से, भ्रमणशील होते हुए, गमनशील होते हुए, तुम्हें, प्रथमदृष्टया देखा था!" बोला वो, बोलता गया था!
मृणा!
कुछ समझी! कुछ नहीं! जो समझी, वो क्या था, नहीं समझी, जो नहीं समझी, वो ये, कि समझना ही नहीं चाहा, इस समझ से कुछ नहीं समझ सकी वो!
"मृणा, ये इक्त-पौषिच् लोक है! यही मेरा आवास है! इस क्षण तक, कोई मानव यहां नहीं आ पाया है! तुम पहली हो मृणा! सर्वप्रथम!" बोला वो,
मृणा, आँखें नीचे किये, सब सुने जाए, न कोई प्रश्न ही करे, न मन में ही प्रश्न आये! अब प्रश्न तो तब आये, जब प्रश्न को थाह मिले, थाह तो यहां थी ही नहीं! जो था, वो अथाह ही था!
"मृणा! तुम्हारे मन की नहीं जानता मैं! जो मेरे जी में था, स्पष्ट बता दिया! शेष आपकी राजी! हाँ, मेरे अनाधिकार के लिए, मैं क्षमाप्रार्थी हूँ, और ऋणी भी कि, कुछ क्षण तुमने, मुझे प्रदान किये!" बोला वो,
मृणा, क्या कहे!
कैसे कहे! हाँ, ध्यान बंटाने के लिए, आसपास देखा!
"प्रस्थान करें?" पूछा उसने,
नहीं सुन पायी वो!
आसपास देखने में मग्न सी हो गयी थी!
सरल ही तो है! मानव मन, तो बस कारण ही ढूंढने में प्रयासरत रहता है! कारण मिल जाए तो फिर मीन-मेख आरम्भ होता है! मीन-मेख आरम्भ, तो आक्षेप और पटाक्षेप! फिर अंतर, भेद और पता नहीं क्या क्या! जब तक 'वाद' की कोई शाखा उसे अपना जामा नहीं पहना देती, ये निरंतर ज़ारी ही रहता है!
"मृणा!" आवाज़ आई,
और मृणा, उस ही जगह! जहाँ, वो पहले से ही थी! सखियों की आवाज़ें आने लगी थीं! पलट के देखा, कोई नहीं! न ही वो सर्प! और न ही वो, क्या था वो? क्या नाम? नाम तो पूछा ही नहीं, खैर, नहीं था वो भी वहां! दबे से पांवों से, चल पड़ी नीचे, सखियों ने देखा, तो आने लगी पास उनके!
मित्रगण!
छूट चली थी! मृणा, छूट चली थी अपने आप से भी, इस दीन-दुनिया से भी! इस घटना के बाद से तो, मृणा, मृणा न रही, तृणा ही शेष रह गयी थी! तृणा, जिसको मात्र एक चिंगारी चाहिए थी और वो, भभक कर, राख हो जाती! क्या मोल एक तृणा का! कोई मोल नहीं! मोल बस तब तक, जब तक चिंगारी से दूर रहे! और चिंगारी, तो सम्भवतः अब लगने को ही थी! इस प्रकार अगन और जल का जन्मजात बैर है, वैसे ही तृणा का और अगन का! वहां अगन हार जाया करती है जल से, यहां तृणा का अस्तित्व ही समाप्त हो जाया करता है! क्या मृणा, बचाये रख सकती है अपना अस्तित्व अब? बड़ा ही वक्राक्षिक प्रश्न है और उत्तर और भी अधिक न्यूनाक्षिक! क्यों फंस जाता है मानव का सरल मन, एक विरल मन से? क्यों नदिया की सतत बहती धारा, उस मध्य में बने, द्वीप के चक्कर काटा करती है, जो द्वीप, स्वयं ही तो बना था और कब, किस क्षण बह जाए, रह जाए न कोई अस्तित्त्व ही, न कोई चिन्ह ही, क्यों उस द्वीप के, सतत चक्कर काटा करती है वो जल-धारा? क्यों बरगद का वृक्ष, प्रेम कर बैठता है उस गेंदे के पौधे से, जिसका जीवन मात्र एक ही ऋतु तक सीमित है? क्यों सागर, अपनी एक एक लहर का पूरा हिसाब रखा करता है? सागर को जल से उत्पन्न हुई उस लहर से क्या लेना? जो किनारे पर आ कर, लेट जायेगी, हमेशा हमेशा के लिए! भूल जायेगी क्यों, उस सागर को, जिसने अपने पालने में पाला था था! शिशु से विकराल किया था जिसे? ऐसा क्यों होता आया है? क्या कारण है? अब कुछ कारण तो होगा ही? नहीं क्या? क्या कुछ शेष नहीं रहता? हम क्यों उस शेष से सीख नहीं लिया करते? क्यों? क्यों आँखें फेर लिया करते हैं? क्यों किसी सूखी हुई नदिया के ऊपर, उसके रेत को पांवों तले रौंदा करते हैं, जानते हुए भी कि नदिया जिस दिन अपने आवेग में आई, तो क्या शेष रह जाएगा हमारा! क्यों हम, आकाश को एक सीमित दृष्टि से ही देखा करते हैं? क्यों अपनी खिड़की से, बाहर दीखते आकाश को ही, समूल मान लेते हैं? क्यों भूमि की गहराई का अनुमान हम, मात्र एक कुआँ देख कर ही लगाते हैं?
अब मैं इसे क्या कहूँ? मृणा का भाग्य? अथवा दुर्भाग्य? अथवा, और सटीक लिखूं तो, स्पष्ट करूँ तो, नियति का खेल? नहीं! नियति का खेल तो है ही नहीं ये! नियति, मान लिया अभी दूर कहीं, उस नदी किनारे खड़ी है, अवलोकन कर रही है कि उसकी क्या भूमिका होने वाली है, आगे, इस प्रकरण में! लेकिन फिर भी, नियति का बनना और बिगड़ना, और बिगाड़ना, संवारना अब किसके हाथों में है? मात्र इस मृणा के हाथों में नहीं क्या? इस से अधिक नहीं लिखूंगा इस विषय में, मैंने स्वयं को जहाँ तटस्थ रखा है, वहीँ मैं इस शेष, परिशेष, अयवशेष और पराशेष से भी दूर रखा है! मैं तो मात्र एक माध्यम हूँ, इस गाथा को आप तक पहुंचाने का, इस से अधिक मेरा न कोई महत्व ही है, और न कोई औचित्य ही शेष रहता!
हाँ! तो मैंने लिखा कि वो छूट चली थी अब, अब स्वयं से ही! अब स्वयं से छूटना बड़ा ही असम्भव सा कार्य है! परन्तु, मात्र प्रेमानुभूति ही वो विशेष भाव है, जिसे, क्षण भी नहीं लगता किसी को, किसी से, छुड़ाने में! तो यहां, मैं देख रहा हूँ! देख रहा हूँ कुछ बदलाव! कुछ ऐसे बदलाव, जो अपने संग ले ही आती है ये प्रेमानुभूति! उदाहरण के लिए, जहां नेत्र देखते हैं, वहां कुछ दीखता नहीं! जहाँ मन भागता है, वहां मस्तिष्क नहीं भागता! जी में कुछ और होता है माटी में लिखने को, और लिखा कुछ और ही जाता है! यूँ तो भूख लगती है, प्यास भी जगती है, लेकिन अब ये भूख-प्यास, अपना रूप सा बदल लिया करती हैं! अब भूख भोजन की नहीं लगती, न प्यास ही जल की! और फिर, जल खान बुझाता है प्यास! वो तो जैसे और रोंपे जाता है वो अंकुर, जो बस, अभी, उस प्रेम के धरातल से, धड़कनों की खाद से पोषित हो, सशक्त हुआ जाता है, पल, पल!
हाँ, तो सखियों के संग, मृणा घर आई, कौन आई? मृणा? नहीं! मात्र मृणा की देह! हाँ, यही लिखूंगा मैं! तो घर लौटी, मात्र मृणा की देह! और मृणा का अन्तःकरण कहाँ शेष रहा गया? कहाँ? उस जगह! किस जगह? जहां वो लोक था! जहां, प्रेम-स्वीकारोक्ति की थी उस, उस...नाम तो बताया नहीं था, तो आगे लिखना ही उचित होगा! हाँ, तो जी अब वहीँ रह गया था मृणा का! कौन कहता है कि, आँखें सम्मुख रखें तो मात्र सामने का ही दिखे? नहीं तो? मृणा के नेत्रों ने तो पीछे का आज, सारा रास्ता ही देखा था! जैसे, नाप लिया था सम्पूर्ण वो मार्ग! माना पाँव शिथिल थे उसके! माना, देह में जान नहीं शेष थी! माना, जो सखियाँ कहे जा रही थीं उसे नहीं सुनाई दे रहा था, लेकिन, वो पीछे अवश्य ही देखे जा रही थी! और पीछे, कुछ था भी नहीं! तो इसी उहापोह में, घर लौट आई मृणा!
घर आई, तो सीधा, बाहर बिछी एक चारपाई पर जा बैठी वो! माँ से कुछ बातें हुईं, तो टाल-मटोल सी कर दी! अभी आई थी जंगल से, तो थकी हुई थी, बता दिया माँ को! माँ ने भी ज़्यादा कुछ कहा नहीं! बैठे बैठे न बनी, तो लेट गयी! जब लेटी तो आँखें बंद हुईं उसकी! और जो आँखें बंद हुईं, तो जा पहुंची, उसी इक्त-लोक!
"मृणा!" आई आवाज़!
स्वप्न उसका था, तो मुख्य वही थी! लरजा गयी मृणा!
"मैं तुम्हारा ही स्मरण कर रहा था मृणा!" बोला वो, समीप आते हुए,
मृणा कुछ न बोली, देख ही नहीं पायी वो उसे!
"मृणा!" फिर से बोला वो,
अब भी कुछ न बोली वो!
"मृणा! मेरा प्रेम, स्वीकार है तुम्हें?" पूछ लिया था उसने!
ये कैसा प्रश्न!
चित्त भी मेरी और पट्ट भी मेरी!
हाँ में भी हाँ, और ना में भी हाँ!
"कोई बात नहीं मृणा!" बोला वो,
और, और समीप हो आया!
"मुझे ऐसी, कोई शीघ्रता नहीं!" बोला वो,
तभी, मृणा की आँखें खुल गयीं! माँ ने पकड़ कर हिलाया था उसे! अब चूल्हा चढ़ाने का समय हो चला था, इसीलिए! वो उठी, और चली हाथ-मुंह धोने, आई वहाँ से, और फिर रोज़मर्रा के कामों में हो गयी व्यस्त! बोली किसी से भी नहीं कुछ!
रात घिरी!
दूसरा प्रहर लगा!
नींद नहीं आई मृणा को!
कभी इस टांग पर ये टांग, और कभी उस टांग पर ये टांग!
कभी इस करवट और कभी, उस करवट!
कभी आँखें बंद, और कभी खुली!
कभी बंद हों, खुलें नहीं, और कभी खुली हों तो बंद न हों!
कशमकश! शशोपंज!
आँखें, कभी चाह कर भी बंद न हों, और कभी न चाहते हुए भी खुल जाएँ! ये क्या हो रहा था उसके साथ? ऐसी स्थिति तो कदापि नहीं बीती थी उसके साथ! मीठा, मीठा नहीं, नमक में ही नमक नहीं! ये हुआ क्या था? नींद आये नहीं, आये नहीं, तो लायी कैसे जाए, आँखें बंद न हों, हो भी जाएँ तो खुल जाएँ बार बार! जैसे डिबिया की लौ फ़ड़फ़ड़ा रही थी, आले में रखी, ठीक वैसे ही, टिमटिमा रही थी मृणा अपने बिस्तर पर! आज रात तो, चादर की सिलवटें भी, चुभ नहीं रही थीं! पता ही नहीं चल रहा था!
तीसरा प्रहर!
नहीं बनी बात!
आखिर में, हार गयी! उठना पड़ा उसे! लेकिन अभी तो, प्रहर, तीसरा ही था, रात तो अभी भी, घूंघट ओढ़े खड़ी थी! घूंघट, असमय हट जाए, ऐसा भी सम्भव न था! निकल आई कमरे से बाहर! घड़े से लिया पानी, पिया पानी, रखी कटोरी वापिस, और आहिस्ता से, ताकि पायज़ेबों की आवाज़, सुरागरसी न कर दे, आराम और आहिस्ता से चली आगे! निकल आई ओसारे से बाहर!
यहां कुछ ठंडक थी!
कुछ राहत थी यहां!
हालांकि, घूप्पा अंधियारा पाँव पसारे पड़ा था, लेकिन अब कोई अँधेरा कुछ नहीं कर सकता था! कभी कभी अँधेरा, जी को पसंद आने लगता है, बस, ये वही कभी कभी में से, पहला था उस रात!
वो जा बैठी, एक छोटे से खटोले पर! बैठी, तो मन न किया, लेट गयी, घुटने मोड़! आकाश को देखा, शांत! खामोश! तारों से सजा आकाश! और उनसे सजे, वो चन्द्रमा!
चन्द्रमा!
जैसे आज, मंद मंद मुस्कुरा रहे थे!
जैसे, आज चोरी पकड़ी गयी थी मृणा की!
वे अपने सम्मुख आती बदलियों को, झिड़क कर, जल्दी से भगा देते!
और फिर, देखने लग जाते मृणा को!
वे शब्द!
वे सभी शब्द!
गूंजने लगे, एक एक करके उसके कानों में!
नेत्र, बंद हो गए! तर्जनी ऊँगली, सीधे हाथ की, दांतों के मध्य आ गयी!
इस से एक लाभ हुआ!
लाभ ये, कि अब चन्द्रमा उसके उन, लरजते होंठों को नहीं देख पा रहे थे!
लेकिन! लेकिन!
पल पल तेज होती धड़कनों को वो कैसे छिपाती?
पकड़ी गयी! चन्द्रमा ने फिर से, एक झिलकती हुई हंसी, हंसी!
हाय रे ये प्रेम! प्रेम के रंग! प्रेम की घटाएं! घटाओं की छाँव, अन्धकार से अधिक स्याह! और उनसे छँटती धूप, जीया जलाने वाली! न छाँव ही रास आये और न धूप ही आये रास! प्रेम का त्रास! जी में, एक विश्वास! एक विश्वास, परन्तु कांच से मुलायम, संभाल संभाल, जीया दुखे! न दिन का ही पता और न रात का ही पता! कब दिन ढल जाए और कब सवेरा आ पहुंचे! कटने को वक़्त ऐसा कटे कि माह, दिन लगने लगें और न कटे तो एक एक पल, साल बराबर हो गुज़रे! हाय रे प्रेम के रंग! रंग का गाढ़ापन! स्वयं को दिखे नहीं और दुनिया को बस यही दिखे! हाय रे इसकी रंगत! ऐसे चढ़े जैसे मेहँदी की रंगत! मेहँदी तो फिर भी, दिन-बा-दिन फीकी पड़े, ये और सुर्ख़, चटख हुए जाए! कैसे छिपायी जाए, कब तक छिपायी जाए! अपना ही जिया, पता देता फिरे! बताता फिरे! न छिपाए ही बने, न दिखाए ही बने! हाय रे प्रेम के रंग! न लेटे ही चैन और न बैठे ही चैन! पलक बंद करें तो खुद से जाएँ, पलक खोल दें तो दुनिया से जाएँ! करवटों में आती कुछ अंगड़ाइयां के चिन्ह! देह में आते कुछ बदलाव! अंग, अंग से बात करे! नज़र जाए तो उपहास की सी हंसी हँसे! कुछ अंगों पर यौवन चढ़े! खुमारी चढ़े! होंठ जैसे, छिपाए ही नहीं वो अंदरूनी हंसी! आँखें, सरासर, चोरी सी ही पकड़वाएं! कभी बदन हल्का हो और कभी ऐसा भारी, कि हिले भी नहीं! हाय रे प्रेम के रंग!पेड़ों का एक एक पत्ता, सब जानता सा लगे! एक एक फूल जैसे, सब जाने! एक अजीब सी भाषा निकले देह से! जिसे, सब तो पढ़ें, खुद से पढ़ी ना जाए, न पढ़ी जाए या पढ़ना न चाहें! जीया, पल में यहां और पल में कहाँ! हाय रे प्रेम तेरे रंग!
तीसरा प्रहर!
दूसरे प्रहर ने, समझाते समझाते विदा ली! बहुत समझाया, लेकिन अब पत्थर पर क्या फ़र्क़ पड़े! इस कान सुने और दूजे कान निकले! चाह कर भी नहीं, अपने आप ही! आँखें, दूर आकाश में कहीं जा टिकें! चन्द्रमा जैसे सब देखे! देखे सबकुछ और जैसे, पढ़े भी सबकुछ, समझा भी दे सबकुछ! और आये, कुछ भी समझ नहीं! या फिर, समझा ही न जाए!
एक और करवट बदली उसने! खटोले ने आवाज़ कर, अपनी कमज़ोरी को ज़ाहिर किया, लेकिन सुनी नहीं बेचारे की व्यथा! देह तो उसकी, भारी हो, खटोले में समायी थी! हना, जीया नहीं था उसका उधर! वो कहीं और जा निकला था! और जहां जा निकला था, वो एक बेहद ही खूबसूरत जगह थी!
वहाँ एक नदिया थी! नदिया में पड़े बड़े बड़े सफेद से पत्थर, पानी में अपना अक्स देखने का प्रयास कर रहे थे! और पानी, किसी मृणा की तेज होती साँसों की तरह से, आगे बढ़े जा रहा था! कल-कल की मधुर आवाज़, इस संसार का शायद, उस समय, सबसे मधुर संगीत-स्वर का एक टुकड़ा रहा था! दूर, पीछे, नदी के, एक पहाड़ी थी, पहाड़ी की चोटी से, बर्फ ऐसे चिपकी थी, कि जैसे छूटी तो पानी बन, बह जायेगी नदी में!
नदिया से बनी एक छोटी सी जल-धारा में, अपना एक हाथ डाल, उँगलियों से प्रयास किये जा रही थी वो, जल को पकड़ने का! जल और प्रेम, एक जैसे ही तो हैं! जिनकी कोई थाह नहीं, निर्मलता में कोई सानी नहीं उनका! निश्छल चले जाना, दोनों का ही गुण है! हाँ, प्रेम कभी-कभार, परीक्षा लिया करता है! ये भी गुण ही है प्रेम का! पता नहीं, क्यों लेता है परीक्षा, पता ही नहीं! जितना छोटा नाम है इसका, जल की तरह, अर्थ उतना ही विशाल है! दोनों का ही! जल, भले ही एक बौछार का ही हो, शीतलता प्रदान किया करता है, ठीक वैसे ही, प्रेम भी! एक ऐसा सुख दिया करता है, जो, इस संसार का तो प्रतीत हुआ ही नहीं करता! प्रेम में पड़े व्यक्ति को, संसार में अपने अस्तित्व का बोध करा देता है ये प्रेम, अपने को, सबसे बड़ा भागवान समझने लगता है वो प्रेम से बिंधा व्यक्ति! यही तो हुआ था! हमारी मृणा को ठीक यही हुआ था! एक तृणा ने, क्या स्वप्न लिया था! स्वप्न भी ऐसा, जिसकी कोई थाह ही नहीं!
उसके हाथ की उन उँगलियों के मध्य से, जल शाखाएं बना, बहे जा रहा था! शेष कुछ रहता था तो उसकी शीतलता! जिसे, गरम सी देह, सोख ले रही थी उस मृणा की!
"मृणा!" आई आवाज़!
एक जानी-पहचानी सी! एक आवाज़, जो एक ही दिन में, अपनी सी हो चली थी! आवाज़ सुनते ही, झट से हाथ बाहर निकल आया! दोनों घुटनों के मध्य आ गया, छिपा लिया गया! और हृदय, हृदय ने तो जैसे, गति के अश्व हो हाँक ही दिया!
वो धीरे धीरे, खड़ी हुई, लेकिन पीछे नहीं घूमी! कुछ देर ऐसे ही, ज़मीन में धंसी हुई, शून्य की भुजाओं में जैसे जकड़ी हो, खड़ी रही! कुछ पल और, और फिर कोई आवाज़ नहीं! जी किया पीछे जा घूमे! देखे तो सही! लेकिन लाज का आँचल, कैसे छोड़ दे! कहीं हृदय ही न रुक जाए! कहीं मूर्छा ही न आ जाए! कहीं, गिर ही न पड़े!
बड़ा असहनीय सा समय गुज़र रहा था! वे पल तो जैसे, सदियों समान लगने लगे थे! क्या करे? देख ले पीछे? अब आवाज़ क्यों नहीं आ रही? कहाँ है वो? क्या चला गया? क्यों? क्यों चला गया वो? क्या देख ले पीछे?
और झट से, एक झटके से, सर घूमा!
आँखों ने, पल भर में ही, क्षितिज तक, वो भूमि नाप डाली! लेकिन वहाँ तो कोई न था! मृणा के गालों पर, सफेद पत्थरों की चमक पड़ रही थी, कभी-कभार, जल की कांच जैसी चमक, पड़ जाती थी! आँखों में पड़ती तो आँखें चमक जातीं! एक संग-ए-मरमर की मूरत में जड़े, दो, नील-मणि रत्न जैसे!
दाए देखा, बाएं देखा, सामने दोबार देखा, तिवारा देखा, शायद छूट न गया हो दृष्टि से, चौबारा भी देखा! लेकिन नहीं! कहीं नहीं था वो! जैसे, रुके हुए जल में भंवर बन गयी हो! और तोड़ने को चला हो सारे किनारे अब वो! जैसे, कहीं पर क़ैद वायु अब प्रचंड रूप से, दौड़ने ही वाली हो आगे, जैसे, खौलता हुआ जल, खूब खौलने के बाद, वाष्पीकृत होने से मना कर दे, ऐसे भाव आँखों में भर आये!
वो वहीँ बैठ गयी! वायु चली, तो एक काँधे से, पल्लू जा सरका उसका! होश रहा नहीं था, गरदन की गोरी त्वचा, और गोरी हो उठी, उन पत्थरों की तेज चमक, जा लिपटी थी उसकी त्वचा से! पल्लू का ढुलका कोना, फर्र-फर्र की सी आवाज़ करता, फड़क उठता था वायु-प्रवाह के कारण! उस नदिया की उस छोटी से जल-धारा में, लहरें बन जाती थीं! किनारों तक आने से पहले, एक मधुर सा शोर मचाने लगती थीं! फिर, आवाज़ दे, बार बार उसका ध्यान बंटाने में लग जातीं!
अब, हर तरफ देखा उसने! लाज, उतार कर, आँचल में छिपा ली थी, भले ही कुछ क्षणों के लिए! अब आँखों ने, ढूंढना शुरू किया! ढूंढना, जिसे ढूंढ रही थी वो! बेचैन सी हो उठी! आकाश को देखे, ज़मीन को देखे, उस प्रकृति के सुंदरता को देखे! लेकिन कौन उस से सुंदर! कौन उस सा जीवंत! लेकिन है कहाँ? कहीं कोई धोखा तो नहीं हुआ उसे? कहीं कान तो न बज उठे थे पल भर के लिए उसके?
आँखें बंद कर लीं उसने! बैठी रही, और तब, किसी ने स्पर्श किया, उसके पल्लू को, काँधे पर रखा, आहिस्ता से, सुगंध फूट पड़ी थी! सर उठाया उसने, मिलीं आँखें, आँखें ही उठीं, वो नहीं उठ पायी! और आँखें, तो जैसे जा चिपकीं उसकी आँखों से!
"मुझे ढूंढ रही थीं, मृणा!" बोला वो,
हाँ! हाँ! अंदर से जीया चीख कर बोला! लेकिन स्वर, जिव्हा से न बंध पाये, होंठ, सूखे ही रह गए उसके, न दे सकी इसका कोई उत्तर!
"मैं तो सदैव तुम्हारे ही संग हूँ मृणा!" बोला वो, सर पर हाथ रखते हुए उसके!
एक और स्पर्श! ये कैसा अजब सा स्पर्श है? देह में, ये कैसा बदलाव है? ये कैसी तरंग है, तो नख-शिख को, उद्वेलित करे जा रही है?
"मृणा!" बोला वो,
और इस बार, थोड़ा हट गया वहां से, उसे देखते हुए! मुस्कुराया और बढ़ा दिया अपना हाथ आगे! मांग रहा था अपने हाथ में उसका हाथ!
क्या करे मृणा!
बढ़ा दे हाथ?
हाय री देह! हाय! आज जान लिया, तो अपनी तो है ही नहीं? देख, अकिसे आवेशित होने लगी है! देख, कैसे भुजा, आगे बढ़ने को तैयार है! देख, उंगलियां, हाथ की, कैसे ताप खाने लगी हैं! देख, देख तो सही! कहीं विद्रोह ही न कर दे देह उसकी! कैसी विकट स्थिति! कैसा विकट सा आकर्षण!
विद्रोह! बस, कुछ एक पल! बस!
और इस से पहले, कि विद्रोह होता, लाज कहीं जा छिपती, अपने होंठों पर हाथ धरे, और चेहरे की रंगत, और लाल हो जाती, बढ़ा दिया हाथ आगे!
पकड़ लिया हाथ उसका! थाम लिया अपने मज़बूत हाथ में! खींच लिया उसे, उठा लिया एक काग़ज़ की तरह! आँखें भी न मिल सकीं अब तो मृणा की उस से! लाज ने, बेड़ियां दिखा दीं थीं!
लेकिन, अगले ही पल, अंकपाश में, जा समायी थी मृणा!
नेत्र बंद!
धड़कता दिल!
उफनती सासें,
लहू का ज़ोर!
ये सब, एक क्षण में हो गया था, मात्र एक क्षण में ही!
उसके अंक-पाश में क़ैद मृणा! मज़बूत भुजाओं में क़ैद! लेकिन इस क़ैद में भी एक आनंद सा था! एक सुखानुभूति सी! जिसे, शायद, शब्दों में नहीं लिखा जा सकता, शब्द तो मात्र इंगित कर सकते हैं! तो वैसा ही सुख उसे महसूस हो रहा था! देह भले ही, उसकी विजातीय थी, उस मृणा के लिए, लेकिन इसमें भी सुख उसका अपना ही था! यही लगा था उसे तो उस पल!
"मृणा?" बोला वो,
मृणा के सर पर, अपनी चिबुक रखते हुए! उसके स्पंदन, सर पर महसूस किये थे उस पल मृणा ने!
"मृणा?" फिर से बोला वो,
मृणा, कम्पन्न से जूझ जाती! उसका रोम रोम सिहर पड़ता, ओंस सी जमने लगती रोएँ रोएँ पर उसके! उसका एक एक शब्द, यही हाल करता उसका! खैर, मृणा ने अभी भी कोई उत्तर नहीं दिया था!
"मृणा?" पूछा एक बार फिर से उसने, अपनी भुजाओं की जकड़ में लेते हुए मृणा को! मृणा कैसे बोले कुछ! कुछ तरंगें, जैसे उसके होंठ सुखा दे रही थीं! उसका दिल, जैसे कभी खड़ा हो और कभी बैठ बैठ जाए!
"मृणा!" बोला फिर से, पूछा उसने!
नहीं बोली वो कुछ भी!
तो हल्का सा हंस दिया वो!
"मृणा?" बोला फिर से!
नहीं बोली वो इस बार भी!
"अच्छा! नहीं बोलोगी?" बोला वो,
और नहीं बोली!
इस बार भी नहीं!
"ठीक है मृणा! तुम्हारी जैसी इच्छा!" बोला वो,
और खोल दिए अपने हाथ! पहले पहला, और फिर जैसे ही दूसरा खोलने लगा वो, कि पकड़ लिया! नहीं हटाने दिया उसे वो दूसरा हाथ! मृणा के नरम हाथ ने, एक पाषाण सी मज़बूत भुजा को पकड़ लिया था! अब उसने, पहले भुजा भी उसके गिर्द डाल सी, और ले लिया अपने पाश में!
"मृणा?" बोला इस बार, फिर से!
"हूँ?" अबकी बोली वो!
और जो बोली, तो पकड़, ज़रा सी मज़बूत, और हुई!
"मेरा प्रेम, स्वीकार है न तुम्हें?" पूछा उसने,
अब फिर से वही प्रश्न!
दुविधा में डालने वाला प्रश्न!
हाँ में भी हाँ और ना में भी हाँ!
"बताओ मृणा?" पूछा उसने!
चुप! चुप ही रही!
"मृणा! दया करो! मुझ पर, दया करो मृणा!" बोला वो,
और मृणा पर दया कौन करे? कैसे कह दे!
"बताओ न मृणा?" पूछा उसने फिर से!
"क्या?" पूछा मृणा ने, धीमे से कह कर,
"मेरा प्रेम! स्वीकार है न तुम्हें?" पूछा उसने,
"हाँ!" बोला पड़ी, लेकिन नेत्र बंद हुए!
साँसें ही न बंद हो जातीं, इसीलिए, पलट कर, सीने से चिपक गयी वो! चेहरा छिपा लिया उसने अपना, उसके वक्ष में! और वो! जैसे संसार का सबसे भाग्यवान प्राणी हो वो! जैसे, उसे और कुछ न चाहिए था! कुछ भी नहीं!
"मृणा! मैं ऋणी हूँ तुम्हारा! तुम्हारे प्रेम का! सदैव रहूंगा, वचन देता हूँ!" बोला वो,
कुछ न बोली! सिमटी ही रही! हिली भी नहीं!
"अपना नाम नही बताया आपने?" बोली धीमे से वो!
हंसा वो, एक खनकती सी हंसी!
"अब मुझ से न कहो! तुमने कभी, पूछा ही नहीं!" बोला वो,
अब चुप!
बात तो, सही ही कही थी उसने!
"बता देता हूँ, जानता हूँ, नहीं पूछोगी तुम! मेरा नाम तैतिल है!" बोला वो,
तैतिल! तैतिल!
गूँज उठा वो नाम, उस मृणा के अन्तःमन में!
हर कोने में, हर रोएँ रोएँ में!
"नाम नहीं पुकारोगी मेरा?" पूछा उसने, समीप आ कर!
पुकारे! वो पुकारे! नहीं नहीं! ऐसा कैसे हो सकता है! कैसे पुकारेगी वो नाम! ये तो असम्भव ही है! नहीं, वो नहीं पुकार सकती!
अचानक से, जैसे कुछ आवाज़ हुई! और आँखें, खुल गयीं उसकी! पहले ऊपर देखा, वो उजाला? दिन का उजाला? कहाँ गया? ये रात? ये रात कैसे आ गयी? वो तो कहाँ थी, अब कहाँ है? आसपास देखा! ये तो रात है, मस्तिष्क की जैसे, गति अब तीव्र हुई! कुछ बीते हुए पल, फिर से ज़िंदा हुए!
ओह! वो तो नींद ना आने से, यहां आ लेटी थी! हाँ! अब याद आ गया उसे! आ गया याद! वो नाम भी याद आया उसे, और याद आते ही, झट से बैठ गयी!
क्या वो स्वप्न था?
स्वप्न में ही, नाम बताया था उसने?
तैतिल नाम था उसका!
हाँ! तैतिल!
यही तो बताया था नाम!
वो उठी, आसपास देखा, लेकिन नाम, जैसे चिपक गया था उसके मन पर! बार बार उछलता था, खरोंचने लगता था उसके हृदय का धरातल! खुरच खुरच कर, एक ही नाम अब लिखे जा रहा था! तैतिल! बस तैतिल! और कुछ नहीं!
चौथा प्रहर.........
पाव गटणे में अब कुछ ही समय शेष था, आँखों में नींद थी नहीं! उनींदा भी नहीं थी वो! हाँ, देह से एक अलौकिक सी सुगंध, अभी तक आ रही थी! वो उठी, वापिस चली, घड़े तक आई, कटोरी ली, लिया पानी, पिया पानी, रखी कटोरी वापिस, और चली गयी कमरे में अपने! डिबिया की लौ, अब शांत थी! अब नहीं फड़क रही थी! बहुत जल चुकी थी वो! बहुत!
आ लेटी बिस्तर पर अपने, ली करवट, और आँखें कीं बंद! आँखें बंद, तो वही सबकुछ घूमे! आँखों के अंदर, उजाला चमके, बाहर अँधेरा था अभी! आँखों के अंदर, प्रकृति की अनुपम सुंदरता थी मौजूद तो बाहर वही अलसायापन!
ज़द्दोज़हद के बाद, उसकी नींद आई! सो गयी वो! मृणा, सो गयी थी! तृणा को, राख होने से, कुछ राहत मिल गयी थी! कुछ समय शेष था अभी भी! तब तक तृणा, चैन से सो सकती थी, रह सकती थी! कुछ सुन सकती थी, कुछ कह सकती थी!
और, कुछ ही देर बाद..............
उस सुबह कुछ विलम्ब से उठना हो पाया उसका, स्नान-ध्यान से निवृत हो, अपने दैनिक-कलापों में व्यस्त हो गयी, उस रोज तो कहीं मन न लगे उसका! यूँ कहो, कि बस देह यहां, और जी कहीं और! उसको, प्रतीक्षा थी तो बस संध्या की, संध्या-समय ही मिलन होता! पर क्या करे! संध्या तो जैसे आज पकड़े नहीं पकड़े जा रही थी! दोपहर ही बड़ी मुश्किल से हाथ लग पायी थी! उस रोज तो ऐसा लगा कि जैसे आकाश में सूर्य अपने पथ से हट गया हैं, या फिर, कोई अन्य ही मार्ग पकड़ लिया है उन्होंने! या फिर, अवश्य ही सूर्य-सारथि सुस्त हो चले हैं उनके! अथवा, अश्व ही साथ नहीं दे रहे उनके! बार बार आकाश पर नज़र जाए, समय-सूचक चिन्ह सभी, जैसे आज तो शिथिल ही पड़ गए थे! मध्यान्ह पश्चात का समय तो और काटे नहीं कट रहा था! उस समय अपने कक्ष में लेटी थी वो, अभी अभी कुछ धान, फटकारे थे उसने, उसके बाद, कुछ आराम करने के लिए, बिस्तर पर चली आई थी! परन्तु, अब ये बिस्तर, इतना आरामदायक कहाँ बचा था! वो तो जैसे एक मद सा चढ़ा देता था देह में! नेत्र अवश्य ही बंद हो जाते परन्तु दैहिक-क्रियाएँ दोगुने रूप से सक्रिय हो उठती थीं! मस्तिष्क वो द्रुत गति से आगे आगे चलता था! सोच उस से होड़ लगाती सी प्रतीत होती! मस्तिष्क के श्वेत-पटल पर, एक ही रंग चढ़ा था बस, प्रेम का गाढ़ा रंग! जब भी कानों में स्वर सुनाई देता, या नाम उसका, यूँ समझो जैसे देह साथ ही छोड़ने का, हठ सा पकड़ लेती थी! अब करवटों का तो कोई हिसाब ही न बचा था! कितनी बदली गयीं, कितनी बदली जानी थीं, अब कोई हिसाब नहीं था! अब तो असमंजस भी शेष न था! कम स एकम वही रहता तो कुछ समय अवश्य ही कट जाता! अब तो एक सुलगन सी थी! एक ऐसी सुलगन जो बस, उसके सम्मुख होने से ही सहज होती! और यही सुलगन, अब समय काटे नहीं कटने दे रही थी!
चलिए जी!
किसी तरह से वो समय आन पहुंचा!
समय, जब जंगल जाना था सखियों ने, तो सभी सखियाँ एकत्रित हुईं और चल पड़ीं जंगल की ओर! वे नदी पहुंची, नदी के किनारों से ही ईंधन किया इकट्ठा, कुछ खेत भी थे, तो सभी अपने अपने यहां से, शाक-सब्जी आदि भी एकत्रित करने लगती थीं! ये सब करने के पश्चात, वे सभी, कुछ आराम करने के लिए, उस किनारे तक आ पहुंचती थीं, जहां से एक मार्ग उनके गाँव के लिए भी जाता था! तो सब, वही एकत्रित हुईं! और मृणा, मृणा चल पड़ी, उस पेड़ के पास, उसी पेड़ के पास, जहाँ से ये प्रकरण आरम्भ हुआ था! सखियों को पीछे छोड़, वो आई वहां! पेड़ के नीचे पारिजात के पुष्प लगे थे! अन्य सुंदर पुष्प भी, एक छोटी से बगिया समान था ये सब! और तब, तब वो प्रत्यक्ष हुआ!
मित्रगण! ये नित्य-नियम बन गया था, वो संध्या-समय वहाँ आती, उस से मिलती, और लौट जाती, स्वप्न में मिलन होता, वास्तविकता की तरह! ये सिलसिला चलता रहा, चलता ही रहा! होती लाल के घर-परिवार में जैसे, लक्ष्मी जे ने वास ही कर लिया था! वे समृद्ध और समृद्ध होते चले गए! कालांतर में, भूमि खरीदी गयी, बड़े भाइयों का विवाह भी हुआ, पिता न व्यवसाय न केवल फ्ला-फूला, बल्कि यूँ कहें, कि चहुँ-दिश तूती सी बोलने लगी! लेकिन मित्रगण! कहते हैं न, कि राह कैसी भी हो, सरल नहीं होती! इस राह पर भी, अब एक अवरोध आने वाला था, एक ऐसा अवरोध जिसने इस घटना का न केवल रुख़ ही मोड़ दिया, बल्कि, ये एक ऐसी प्रेम-कथा बन गयी, जिसकी बानगी, बहुत ही कम देखने को मिला करती है!
आग, मुश्क़ एवं प्रेम, और धन ये कभी नहीं छिप सकते! इनको नहीं छिपाया जा सकता! धन, दबाया जा सकता है, छिपाया जा सकता है, परन्तु अधिक समय तक तो नहीं, उसके प्रभावों को तो नहीं, उस से आई समृद्धि को तो नहीं! ये दुनिया तो अपना हिसाब रखे या नहीं, आपका अवश्य ही रखेगी! कुछ एस यही होने वाला था, कुछ ऐसा, जिसकी कल्पना किसी ने भी नहीं की थी! कोई कर भी नहीं सकता था! और किसी के बस में भी नहीं थी! सच ही पूछा जाए तो! कहा जाए यही थी होनी और यही चुना था उस होनी ने!
उस रोज, गाँव में तीज थी! तीज के पावन मौके पर, सभी घरों में पकवान बनाये जा रहे थे, होती लाल ने तो बाक़ायदा पंगत बिठायी थी, घर में बड़ा ही रौनक वाला माहौल था, मृणा की सखियों तक को होश नहीं था! मृणा को तो छोड़िये ही! मृणा अपनी माँ के संग जुटी थी! ये पंगत लगातार चली! सुबह से साँझ तक! उसी पंगत में, संध्या-समय से पहले, एक बाबा भी आया था, बाबा लोहकू! ये फक्क्ड़ बाबा था, कहाँ से आये, कहाँ को जाए! जब उसके सामने से गुजरी वो मृणा, तो टूक छूट गया हाथों से उसके! ऐसा नहीं था कि वो उसके सौंदर्य से मोहित हो गया था, या अचम्भित हो गया था, नहीं! वो सकते में आ गया था उस ऊर्जा-चक्र को देख कर, जो निरंतर बंधा हुआ था मृणा से! ऐसा ही होता है! जब भी कभी, मानस ऐसी ही किसी दिव्य-सत्ता के समक्ष होता है, अथवा, वो अंश ग्रहण करता है तब, ये दिव्यता, ये दिव्य-अंश, ये ऊर्जा-चक्र, निरंतर उसकी देह से प्रस्फुटित होता रहता है! यही हुआ था, और यही देखा था उसने! छोड़ दिया भोजन! जितना खा सका, खाया था! अब भूख नहीं थी, भूख थी, तो अब कुछ और! उसने गौर से देखा उस मृणा को! कई बार! और उठ गया, बाहर आ, कुछ जानकारी एकत्रित की, कौन है, क्या नाम है, किसकी पुत्री है, आदि आदि! और चल पड़ा, चल पड़ा वापिस, एक स्थान के लिए! उस स्थान के लिए, जहां एक महा-प्रबल बाबा का वास था! जहाँ रहता था, वो बाबा नोमा अम्फू! लोहकू जानता था, कि यदि, कोई टक्कर ले सकता है, सिद्धि-बल प्राप्त कर सकता है उस मृणा से, तो बस यही! यही है वो बाबा!
यहां से, अवरोध उत्पन्न हुआ!
यहां से, ये कथा, अब प्रेम-कथा नहीं, ये अब, द्वन्द-कथा बनने वाली थी! हालांकि, मृणा, पूर्ण रूप से सुरक्षित थी उस तैतिल के सरंक्षण में, परन्तु, कुछ होना शेष था अभी!
दो दिवसोपरांत.................
"अच्छा! किसका सोजा लगा तुझे?" पूछा बाबा अम्फू ने!
"नहीं जान सका! कुहड़ चला नहीं!" बोला लोहकू!
"अच्छा! कुहड़ नहीं चला! अच्छा!!" बोला वो,
खड़ा हुआ, धूनी को देखा, भस्म उठायी, और हवा में फेंक के मारी ऊपर! उखाड़ा चिमटा अपना! और ले चला बाहर लोहकू को संग अपने!
"एक काम कर?" बोला अम्फू,
"क्या?" बोला वो,
"यहां से आज ही निकल, और केशि को बुला ला!" बोला बाबा अम्फू!
"ठीक!" कहा लोहकू ने,
अब तक, दो मृद-पात्रों में, मद्य-पेय परोसा जा चुका था! एक ही झटके में दोनों पात्र खाली कर दिए गए! चमक उठे थे उस बाबा अम्फू के नेत्र! जैसे, बरसों से कुछ खोज रहा हो वो, और आज, अचानक से मिल ही गया हो उसे! प्रसन्नता उसकी, चौड़ी हुई आँखों से झलकती थी!
"चल केशि!" चीखा बाबा अम्फू!
और, ले लिया एक और पात्र, भरवा लिया था!
"सुन?" बोला अम्फू,
"हाँ?" कहा लोहकू ने,
"तुझे भी मिलेगा! मिलेगा प्रसाद!" बोला वो,
लोहकू खुश!
"तू भी चल साथ!" बोला अम्फू!
"हाँ!" कहा उसने,
"हे? पीरू?" बोला वो,
पीरु आया दौड़ा दौड़ा!
"जी!" बोला वो,
"सुन पीरु! तैयार होज्जा!!" बोला बाबा अम्फू!
"कहाँ?" नशे में उन्मत्त, हाथ हिला कर पूछा उसने!
"पहाड़! पहाड़!" बोला अम्फू! हाथ मारते हुए सीने में!
"पहाड़?" बोला पीरु!
"हाँ! हां! पीरु! पहाड़!" बोला अम्फू!
तो मित्रगण!
बाबा अम्फू ने जैसे अब ठान ही ली थी! कि, अब वो लघु-मार्ग अपनाएंगे! उस दिव्य-अंश का क्या रहस्य है, ये जानना आवश्यक था! उन्होंने, केशि को बुला भेजा था, केशि, उनकी सबसे अधिक प्रिय साधिका थी, वो भी प्रबल साधिका थी! बाबा अम्फू ने उसको भी कई साधनाओं में पारंगत किया था! वे चाहते थे कि केशि को भी कुछ न कुछ मिलना ही चाहिए! आप सोच रहे होंगे कि ऐसा कैसे होता है? एक ने सिद्धि हांसिल की है, उस से वो सिद्धि कैसे छीनी जायेगी? सिद्धि छीनी नहीं जाती, दरअसल, सिद्धि वाला साधक, मदद किया करता है सिद्धि प्राप्त करने के मार्ग में! हाँ, बाद में, समकक्ष होते ही, अन्य सिद्धियों की मदद से, उस पहले सिद्धि-प्राप्त साधक को, 'बाँध' दिया जा सकता है, ये सम्भव है! ये अत्यंत ही गूढ़ विषय है! ऐसा होता आया है और हो भी रहा है! इसी कारण से, दो भिन्न भिन्न मत, एक दूसरे के विरोधी हो जाया करते हैं! यही एक मूल कारण है!
दिन बीते..........
और केशि, अपनी सहचरियों के संग आ पहुंची! बाबा अम्फू ने अब सारी कहने कह सुनाई! केशि के तो केश चमकने लगे ये सुन कर! वो दिव्य-अंश किसका है! कौन यही वो! कोई यक्ष! गान्धर्व! कोई नाग! कोई उपदेव! कोई वनदेव कुमार! कोई अप्सरा या कोई शातङ्गिका! कौन है ये! बस, अब चैन नहीं! केशि को जैसे, ज्वर ने ही पीड़ित कर दिया था! क्यों न वो अंश, हर लिया जाए! फिर क्या था! ऐसी महासिद्धि उनके हाथ लग जाती! और आगे का मार्ग, प्रशस्त होता चला जाता! ऐसी काली योजना बनाने वाले थे ये काली-प्रवृति के लोग!
और उधर! इस काली-घटा से बेखबर, मृणा, गोते लगा रही थी प्रेम-सरिता में उस तैतिल के! तैतिल, इस से बेखबर नहीं था! परन्तु, वो जानता था दमखम अपना भी और बाबा अम्फू का भी! जनता था कि बाबा अम्फू क्या से क्या कर सकता है! और ये भी, कि तैतिल ने आगे क्या निर्णय लेना है! सबसे पहली प्राथमिकता उसकी यही थी, कि मृणा को इस सबसे दूर ही रखा जाए! उसे, लेशमात्र भी कष्ट न पहुंचे, न ही उसके परिवार को! ये सरंक्षण था, सरंक्षण उस ब्रह्म-पिशाच तैतिल का! उसने रत्ती भर भी आभास न होने दिया मृणा को! और यही वो चाहता भी था!
मित्रगण!
ब्रह्म-पिशाच बहुत ही शक्तिशाली, यूँ कहें, परम शक्तिशाली हुआ करते हैं! युद्ध-कला में निपुण, तंत्र-ज्ञान में पारंगत! ये उनकी नैसर्गिकता जानिये! जहां वे वास करें, वहां अन्य को वास करने की सोचे भी नहीं! सुमाक्षों संग, ये मित्रवत हुआ करते हैं, सुमाक्ष एक और अस्तित्व है इनके समान ही, परन्तु उनका वास भूमि पर होता है! कई कई जगह ये लोक-देव, उप-देव आदि नाम से पूज्य भी हैं! हिमाचल की कंदराओं में कहते हैं, आज भी सुमाक्षों का वास है! मैंने देखे नहीं, जाना बहुत ही कम है! कहीं वृत्तांत भी सुलभ नहीं इनका! हाँ, तो वो तैतिल, जानता था कि आगे होना क्या है! उसको, उस से भिड़ना था, जो बना ही भिड़ने के लिए था! बाबा अम्फू! ऐसी कई भिड़तों में विजयी हुआ था, अतः, विजय का स्वाद कैसा होता है, अभी तक याद था उसे! इसी लिए, वो सहर्ष तैयार था! हो भी गया था तैयार, बिन जाने, सोचे, समझे, कि इस बार भिड़ंत है किस से!
वो, पंचमी का दिवस था! बाबा अम्फू ने, ग्यारह बलि-कर्म से पूजा अपनी ईष्टा को! आशीर्वाद चाहा उसने! और, अपने टोले समेत, उसी शाम निकल पड़ा वो! उस गाँव के लिए, जहां ये दिव्य-अंश, किसी के साथ लिप्त था! विकाल के से त्वरित एवं लघु क्षणांश में ही उसने निश्चय कर लिया था कि अब आगे करना क्या है! उसके साथ, केशि, जिसे वो कलाकेशि कहा करता था, लिया संग! लोहकू, पीरु, पुत्तन और तम्मी जैसे साधकों के संग कर गया कूच! ये सभी साधक, अपने अपने क्षेत्र के धींगरा थे! साथ उसके, चार सहायक भी थे, जो जी और जान से, मर मिटने को तैयार थे बाबा अम्फू के एक इशारे पर!
उस शाम चला, वो टोला, रात में एक जगह विश्राम किया, सुबह फिर चला, शाम को, कहीं जा रुका, रात रुका, और सुबह फिर चला! और दोपहर तक, आ पहुंचा गाँव की सरहद तक! दूर से देखा गाँव! कलाली सेमुंह पर, मुस्कान फ़ैल आई! यही तो था वो स्थान! यही था, जहां से बाबा अम्फू, अब कुछ और ही रूप लेने वाला था!
संध्या समय, डाल दिया डेरा! कहाँ, नदी किनारे! और तब, बनी आगे की योजना! वे सभी, अपनी अपनी राय देते, सुना जाता, और फिर जो उचित लगता, गाँठ में बाँध लिया जाता!
"अगर वो, छेमक हुआ?" बोला पीरु,
"तो बांधेंगे!" बोली केशि!
"इतना सरल है?" पूछा पीरु ने,
"क्यों नहीं!" बोली वो,
"और जो, धम्मा हुआ?" पूछा उसने,
"तो पकड़ लेंगे!" बोला लोहकू!
"अच्छा!" बोला वो,
अपना रात्रि-पूजन निबटा, आया वापिस बाबा अम्फू उधर! आ बैठा, माँगा मद्य-पेय, मिला, पिया, पोंछा मुंह, रखा त्रिशूल, संभाला चोगा और ले ली थाली, जिसमे भोजन था रखा हुआ!
"पीरु?" बोला वो,
"हूँ!" बोला पीरु,
"कल जा! सुफर कर, सोजा लागी, छायी ला!" बोला अम्फू!
"हूँ!" बोला वो,
अर्थात, कल जा वहीँ, आसपास देख, गौर कर, कुछ लगे, पकड़ ले, ले आ संग!
"और?" बोला वो, चबाते हुए कुछ,
"हूँ?" बोला वो,
"काछी मांजू!" बोला वो,
"हूँ!" बोला वो,
कौन है वो, कहीं कोई खिलाड़न तो नहीं, पता कर!
"केशि?" बोला वो,
"हाँ?" बोली वो,
"रिमटा हो लई तैयार!" बोला वो,
अर्थात! तू तैयार रह! अपने साजोसामान के साथ!
"हाँ!" बोली वो,
"तम्मी?" बोला वो,
आगे खिसक आया तम्मी, उकडू बैठ बैठे ही!
"हल्टू ओज्जा!" बोला वो,
अर्थात, तू पीछे रहना! नज़र रखना!
"हाँ!" बोला वो,
उसने कर लिया भोजन! सरका दी थाली आगे!
हाथ धुलवाए उसके पीरु ने, दिया कपड़ा एक, पोंछे दांत और मुंह उसने!
"अल्यो?' बोला वो,
अर्थात, आ ज़रा!
पीरु हुआ खड़ा, और चल पड़ा उसके साथ!
"आधन देखी! सुलचा पौड़ी!" बोला वो,
अर्थात!
वो जगह अब दूर नहीं है! रात में ध्यान देना!
"हाँ!" बोला वो,
अब साधारण भाषा में लिखूंगा उनका वार्तालाप!
"हो सकता है, कल ही हो जाए!" बोला अम्फू!
"इस से बढ़िया क्या!" बोला पीरु!
"केशि मेरे साथ ही रहेगी!" बोला वो,
"कोई बात नहीं!" कहा उसने,
"तम्मी पर नज़र रखना!" बोला वो,
"हाँ!" कहा उसने,
"कच्चा है अभी!" बोला वो,
"मालूम है!" बोला वो,
"आ, चल अब!" बोला अम्फू!
"हाँ!" कहा उसने,
और दोनों, लौट पड़े वापिस, अपनी जगह, जहां अब ठहरे थे!
वाह! क्या चाल खेली थी बाबा अम्फू ने! बाबा अम्फू कच्ची गोटियां चबाने वाला नहीं था! उसने पीरु को भेजा था कि वो जाए और पता करे! जाए, तो कुछ अन्न आदि लेकर आये उस मृणा के घर से! अब ये भारत देश है! अन्ना आदि के लिए कोई मना नहीं किया करता! संस्कृति ही ऐसी है हमारी! तो, वो अन्न आता और उस अन्न से, बाबा अम्फू ये जान जाता कि वहां किसका सोजा अर्थात, प्रभाव है! कौन है वो! और तब, तब तैयारी करता वो बाबा नोमा अम्फू!
और ठीक, ऐसा ही हुआ अगले रोज!
अगले रोज, पीरु, चल पड़ा अपना झोला टांग और चिमटा उठा, संग अपने साथियों को ले! थोड़ी मालूमात की, कुछ बढ़ाई आदि होती लाल की, जो अब, सेठ जैसा रुतबा हांसिल कर चुके थे! पूरा परिवार, हंस-खेल रहा था! कौन नहीं जानता था उस परिवार को! नाम लो, और कोई भी छोड़ कर आता घर तक!
मध्यान्ह पूर्व का समय! और होती लाल का घर! जा खड़ा हुआ पीरु घर के सामने, फैलाया पाना झोला और निकला कटोरा! माँगा अन्न! दिया गया अन्न! मृणा की माँ ने दिया वो अन्न! बस! एक चौड़ी सी मुस्कान फ़ैल आई पीरु के होंठों पर! दाढ़ी को अंटे देता, लौट पड़ा तेज क़दमों से वापिस! उसे सोजा मिल गया था! अन्न का वो कटोरा! जिसे, जस का तस, अपने झोले में छिपा लिया था उसने!
मध्यान्ह के समय, लौट आये सब! पीरु, सबसे पहले, जा पहुंचा बाबा अम्फू के पास! बाबा अम्फू के नेत्र चौड़े हुए! एक खेल खेला जाना था, उसकी चमक आँखों से बाहर आ पड़ी थी उस समय! बाबा अम्फू खड़ा हुआ! पीरु ने मुस्कुराते हुए, वो कटोरा, अन्न से भरा थमा दिया उसके हाथों में! अम्फू, ऐसा खुश! ऐसा खुश के जैसे, अब कोई विलम्ब ही नहीं! जैसे, कुंजी लग गयी हो उसके हाथ!
बाबा अम्फू ने, तीन घंटे भीषण शक्ति-संचार किया उसी वक़्त से! आसपास, धूणियां रमा कर, बीच माँ बैठा अम्फू! और जब तक, शक्ति-संचरण नहीं हो गया, बदन का लहू, आँखों तक नहीं पहुँच गया, नहीं उठा! और जब उठा! तो चारों ओर चिमटे खड़खड़ा गए!
रात्रि-समय.........
करीब ग्यारह के आसपास,
बाबा अम्फू और केशि, दोनों ही निकल पड़े, एक स्थल के लिए, जो दिन में ही चुन लिया था उन्होंने! वहीँ जा पहुंचे, सभी चेले-चपाटों ने, सारी तैयारी कर ही दी थी! अलख, उठा ली! भ्म् भ्म् अखंडेश्वर की अलख उठा ली गयी! मित्रगण! अलख के भी प्रकार हैं! किस समय कौन सी अलख उठानी है, ये साध्य पर निर्भर करता है! अखण्ड़ेशवर भी एक ऐसी ही अलख है! ये अलख, अब निरंतर जलनी थी, ईंधन झोंकते रहना था इसमें! तम्मी और दूसरे चेलों की अब यही जिमेवारी और मुख्य कार्य था! ये अलख अब तब ही शनत होती, जब साध्य को प्राप्त कर लिया जाता! ऐसा विकट और बली था बाबा अम्फू!
बारह बजे..........
अलख भयानक रूप ले चुकी थी तब! और तब, मात्र दो ही थे वहाँ, एक केशि, और स्वयं वहां बाबा अम्फू! अब बाबा अम्फू ने निकाला वो कटोरा!, हर्लोमणिक-यंत्र में स्थापित कर दिया उसे! और किया मंत्रोच्चार! केशि, अलख संभाले और बाबा, सोजा छांटें!
आधा घंटा!
एक घंटा!
डेढ़ और फिर दो!
और उठ पड़ा बाबा अम्फू!
अट्ठहास लगाता हुआ! नाचता हुआ! खुश होता हुआ! केशि, उसके संग हँसे! भेद दिया था सोजा उसने! एक ही बार में! मित्रगण! मैं यहां सच में ही, इस बाबा अम्फू से बहुत प्रभावित हुआ था! साधकों को तो, माह, वर्ष और कई वर्ष तक लग जाते हैं ये भेदने में! लेकिन बाबा अम्फू ने दिखा दिया था, कि वो, महाप्रबल ऐसे ही नहीं था! उसके पास, अवश्य ही दमखम था! बल था! तंत्र-बल का महाज्ञाता था वो!
"केशि! केशि!" बोला वो, और किया स्थान ग्रहण!
"क्या पाया?" पूछा केशि ने!
"विलोमता!" बोला वो,
हंस पड़ी केशि!
हंसी जैसे विजयी हुई हो!
"कौन है ये?" पूछा उसने,
"तैतिल!" बोला वो,
"तैतिल? ये कौन?'' पूछा केशि ने!
"सुन! सुन!" बोला वो,
आकाश की तरफ हाथ उठाये! और अपनी जंघाओं से पीट मारे!
"ब्रह्म-पिशाच!" बोला वो!
चेहरे का रंग उड़ गया फौरन ही केशि का!
हृदय के जैसे कि कई टुकड़े हो गए हों भय से!
एक पिशाच ही दाबे में नहीं आता सरलता से, और ये तो, ब्रह्म-पिशाच?
"केशि!" बोला वो,
रख लिया कटोरा अंदर झोले के!
"केशि?" बोला वो,
मारे ख़ुशी के, बोल भी न पा रहा था अम्फू!
"बोलो?" बोली, फीकी सी आवाज़ में!
"हे?" चीखा वो!
केशि चुप्प!
"हे केशि? भय?" बोला वो,
केशि, चुप्प, जैसे सांप सूंघ गया हो!
"ये नोमा बाबा अम्फू! नगनिया का! क्या करता है केशि! देखती जा!" बोला वो,
"ये इतना सरल यही?" पूछा केशि ने,
"सरल होता तो नोमा क्यों आता!" बोला अट्ठहास लगाते हुए वो!
"बताओ?" बोली वो,
"सुन केशि! जो चाहता था नोमा! वही मिला!" बोला वो,
और दहाड़ा फिर!
अपनी ईष्टा का नाम ले लेकर, बहुत दहाड़ा अम्फू!
"याद है केशि?" बोला वो,
"क्या?" पूछा केशि ने,
दरअसल, केशि को जैसे भान हो चला था, कि आगे क्या होने वाला है!
"क्या?" पूछा दुबारा!
"तुझे, वो नीलमणि याद है?" बोला वो,
"हाँ! याद है!" बोली वो,
"क्या हुआ था, याद है?" पूछा उसने,
"हाँ!" बोली वो,
"खुद आया था न?" बोला वो,
"हाँ!" बोली वो,
"तो ये भी आएगा! पाँव पड़ता हुआ!" बोला वो,
"नीलमणि में और इसमें, कुछ अंतर नहीं दीखता?" पूछा केशि ने!
उठाया बाबा अम्फू ने अपना त्रिशूल!
लहराया सामने तीन बार!
चीखा नाम लेकर अपनी ईष्टा का!
"अंतर? अंतर तो भीरु देखा करते हैं केशि! ये अम्फू है!" बोला वो,
और गाड़ दिया त्रिशूल भूमि में! पत्थरों से चिंग़ार निकालते हुए त्रिशूल गड़ गया था रेत में नदी के! अलख में ईंधन झोंका अम्फू ने!
"जा! तैयार हो जा!" बोला वो,
और हो गया खड़ा! दी आवाज़, तम्मी को! पीरु को, चीख कर!
अब बाबा और देर करने के पक्ष में नहीं था! उसे तो वही चाहिए था, शीघ्रातिशीघ्र जिसके लिए वो यहां तक आया था! बाबा कहीं सठिया गया हो, ऐसा भी नहीं था, उसकी उम्र यही करीब पैंतालीस के आसपास थी! इस उम्र तक, उसने सच में ही बड़ी बड़ी सिद्धियां अपने नाम कर ली थीं! डंका बजता था उसके नाम का! भय का, नेपाल तक पहुँच थी उसकी! उस समय ऐसा कोई नहीं था जो बाबा अम्फू के नाम से परिचित न हो, इस क्षेत्र में! उसने विवाह नहीं किया था, विवाह अड़चन थी उसके लिए और उसे, कोई भी अड़चन कभी ही पसंद नहीं थी! उसने बड़ी बड़ी अड़चनें हटा दी थीं अपने मार्ग से! वो हर कार्य अपनी समझ-बूझ से ही करता था! न किसी की सुनता ही था और न कोई सलाह ही लेता था! हाँ, विचार अवश्य ही सुना करता था लेकिन, करता अपने मन की ही था! और इस बार भी, अपने मन की ही करने जा रहा था!
वो जो नीलमणि का उल्लेख आया था, उसके बारे में कहते हैं कि अम्फू ने, एक नाग कुमार से छीन लिया था, या उसे विवश कर दिया था वो देने को! अब इस से बाबा का दमखम झलकता था! लेकिन, तैराक, हर डुबकी और चुब्बक के साथ, कमज़ोर ही पड़ता जाता है! शायद ये नहीं जानता था बाबा अम्फू!
खैर, उस रात, बाबा ने, सुबह तक कई क्रियाएँ कीं, कई संचरण किये, कई विद्याएँ साधी! केशि को भेज दिया था उसने, आराम करने के लिए! और खुद, लगा ही हुआ था अभी तक, कुछ न कुछ प्रपंच भिड़ाने में! अलख, का पेट भरता रहा था वो सारी रात! और उसके बाद, पुत्तन और लोहकू ने, अलख पाल ली थी!
मध्यान्ह से कुछ ही देर बाद, जानकारी मिल गयी थी बाबा को, कि वो मृणा, कब जाती है जंगल, जहां उसका मिलान होता है नित्य ही उस तैतिल से! अब वो जगह, बस, थोड़ी ही दूर थी, नदी के साथ साथ चलते जाओ, और कोई आधा कोस बाद, वो जगह पड़ती थी! और बाबा हुआ तैयार! कर ली सब तैयारी! केशि को लिया संग, पुत्तन भी, बाकी वहीँ रह गए, उनको दो घंटे बाद आना था उस जगह पर! जगह, सब, दिन में देख ही चुके थे!
शाम चार बजे के आसपास......
हुआ तैयार बाबा अम्फू! लिया संग अपने उस केशि को! सामान रखा झोले में, और झोला टांग लिया कंधे पर! हाथ में त्रिशूल, और कंधे से टिका, उसका चिमटा, ले कर अपनी इष्टा का नाम, चल पड़ा बाबा उधर के लिए!
"केशि!" बोला वो,
"हाँ!" बोली वो,
"तू भय खा रही थी कल?" पूछा उसने,
:नहीं!" बोली वो,
"फिर?" पूछा उसने,
"नहीं तो!" बोली वो,
"मुझ पर भरोसा रख!" बोला वो,
"है!" बोली केशि!
केशि, उम्र में आधी ही थी उस से, कोई बाइस, तेईस की रही होगी बस! केशि के पिता, असम में, कामाख्या के पास, किसी डेरे में रहते थे, वे भी प्रबल साधक थे, बाप की राह पर ही बेटी भी निकली और केशि को, बाबा जंच गया! बाबा ने वो हांसिल कर लिया था जिसे हांसिल करना, इतना सरल नहीं था! अब वो बाबा के सम्पर्क में आई, तो बाबा ने उसको धो-मांज दिया, कर दिया तैयार! सीखा दिया कुछ कलाप! और केशि, दिन दूनी, रात चौगुनी, आगे की सीढ़ियां लांघती रही! केशि को अट्ठालिक-वेताल भी सिद्ध था! और सब, इस बाबा के मार्गदर्शन में हुआ था!
तो उस जगह पहुंचे वो, रुक गए एक पेड़ के नीच! रख दिया सामान वहीँ! गाड़ दिया त्रिशूल वहाँ और, टांग दिया चिमटा उसी पर!
"केशि?" बोला वो,
"हाँ?" बोली वो,
"इधर आ?'' बोला बाबा,
केशि चली उसके पास, देखने लगी सामने!
"वो पेड़ दीखता है न?" बोला वो,
"हाँ, वो, बड़ा वाला!" बोली वो,
"हाँ! वही!" बोला वो,
"हाँ?" कहा उसने,
"बस, वही है वो स्थान!" कहा उसने,
"अच्छा!" बोली वो,
"सुन, मै जाऊँगा वहां पहले, तू यहीं रहना!" बोला वो,
"ठीक!" बोली केशि!
"अब, आती होगी वो!" बोला बाबा,
"अच्छा!" बोली वो!
"आजा, बैठ जा!" बोला बाबा!
केशि बैठ गयी संग!
"तरमा निकाल ले!" बोला वो,
तरमा, मायने चरस, सुलपे में, चरस भर ले, उसका मतलब था!
"अच्छा!" बोली वो,
निकाला झोले में से अंटर-बंटर और भर ली चरस! तम्बाकू के साथ!
"सुलगा ले!" बोला वो,
तब केशि ने सुलगा भी ली तरमा!
"लो!" बोली वो,
"खेंच खेंच!" बोला वो,
मारे दो-चार जम कर कश और दे दिया सुलपा बाबा को!
अब बाबा ने किया का पैंतीस उसका!
तीन चार बार में ही, सुलपे का दम निकल गया! ऐसा पिबैय्या था बाबा!
आधा घंटा बीता,
फिर एक!
और सामने से, आती दिखीं कुछ लड़कियां, बाबा उठ खड़ा हुआ! गौर से देखा!
"केशि!" बोला वो,
"हूँ?" बोली केशि!
"अप्सरा! देख! अप्सरा!" बोला मृणा को देखते हुए वो!
सच में, रूप निखरा हुआ था मृणा का! और इसका कारण, वही, तैतिल था!
केशि भी निहारती रह गयी उसे!
"क्या खूब!" बोला बाबा,
केशि अब कुछ न बोली!
"ध्यान रखता है वो!" बोला वो,
"हाँ!" बोली केशि!
"मजा आएगा! बहुत मजा आएगा!" बोला दाढ़ी खींचता हुआ बाबा!
"क्या?" बोली केशि!
"इस से लड़ने में मजा आएगा!" बोला वो,
''अच्छा!" बोली केशि, हँसते हुए!
"पीछे हो जा!" बोला वो,
और दोनों ही, पीछे हो गए, एक पेड़ के!
"अब देख खेल!" बोला वो,
केशि, वहीँ देखती रही थी!
"ला, त्रिशूल ला!" बोला वो,
केशि ने उखाड़ा त्रिशूल चिमटा लिया हाथ में, और बाबा को दे दिया त्रिशूल!
"अब देख!" बोला वो,
थोड़ा पीछे हुआ!
नीचे बैठा, ज़मीन पर थूका, ऊँगली से मला उसे!
"ओ! ओ मृणा!" बोला उस मिट्टी को उठाते हुए!
उसने जैसे ही मिट्टी को मला, और बोला उसका नाम, मृणा, जो चल कर आ रही थी सखियों के संग, चुप सी खड़ी हो गयी! देखने लगी पीछे, जैसे किसी ने आवाज़ दी हो उसे, पल भर के लिए देखा, कोई नहीं था! बाबा हंसा! मारा एक दबा हुआ ठहाका! हंसी, रोक नहीं पाया अपनी! उधर, जब मृणा को कोई दिखा नहीं, तो सखियों ने आवाज़ दे कर आगे बुलाया, पूछा उस से, उसने बता दिया और चलने लगी आगे!
"मृणा!" फिर से दी आवाज़!
और फिर से, पीछे मुड़कर देखा उसने!
कोई भी नहीं! हैरत में पड़ी वो! आसपास भी देखा, सखियों से भी पूछा, उन्होंने भी कंधे उचका दिए! कि उनमे से किसी को, कोई भी आवाज़ नहीं आई, किसी ने भी नहीं सुनी! फिर से आगे चल पड़ीं वो!
"संग नहीं है!" बोला बाबा,
''अच्छा!" बोली केशि!
क्या खूब दांव चला था बाबा ने! जांच लिया था कि उसके संग नहीं है वो अभी! और जिस विद्या से उसने ऐसा किया था, वो भ्रामरी-विद्या है! भुवनेश्वरी-विद्या भी ऐसा ही किया करती है! इसमें, जिस पर कोई तंत्र-प्रयोग किया जाता है, उसे, ऐसा लगता है, कि शायद किसी ने आवाज़ दी हो! सोये हुए हो, तो लगेगा, किसी ने छुआ है! पानी में हो, तो लगेगा, कोई खींच रहा है! अकेला हो तो भय खाने लगेगा! जिस समय ऐसा होगा, तब तेज दुर्गन्ध का आभास होगा! लोग इसे अक्सर, प्रेत लगना, भूत लड़ना या चुड़ैल-पासंग कहते है! ये दरअसल वो नहीं है! हाँ, यदि वाममुखी-कौड़ी, काली कौड़ी होती है, चौबीस फलक होते हैं इसमें, इसको यदि किसी ग्रहण काल में सिद्ध कर लिया जाए, तो ये विद्याएँ, उस पर असर नहीं करेंगी! अक्सर, औघड़, जोगन, कापालिक आदि आपने देखे होंगे ऐसी कौड़ियां पहने हुए! उद्देश्य यही है इसका!
तो बाबा ने, भ्रामरी-विद्या का प्रयोग किया था! वो बेचारी, क्या जाने कि क्या हुआ था उसके संग, उसके कान बजे, या फिर कोई धोखा हुआ, ऐसा समझ, दरकिनार कर दिया था! और करती भी क्या!
बाबा और केशि, उसको जाते हुए देखते रहे! नज़रों में रखा हुआ था उसे, करीब एक घंटे के बाद, वो मृणा, अलग हुई उन सखियों से, और बाबा ने ली झट से सुध इसकी! वो खड़ा हुआ!
"तू यहीं ठहर! मैं आता हूँ!" बोला वो,
और चुपके चुपके, अपनी राह हो लिया! आहिस्ता आहिस्ता आगे बढ़ता चला गया! मृणा, जा रही थी, वो, उसके बाएं से होता हुआ चल रहा था! हाथ में खंजर था उसके, खंजर से, टहनी, झाड़ी आदि, काट देता था, और बढ़ता चला जाता था! एक जगह जाकर, मृणा रुक गयी! और तब, बाबा ने ओट ली एक पेड़ की! साथ में ही एक बड़ा सा पत्थर भी था, ओट के लिए उचित जगह थी वो!
बैठ गया छिप कर, फांसला, कुल तीस फ़ीट का ही होगा या कुछ ज़्यादा, वो, आँखें खोल सब देखे जा रहा था! वो कब आएगा, इंतज़ार में था! उसने फौरन ही, तेमाक्ष-विद्या का संधान किया! नेत्र पोषित किये और खोल लिए नेत्र! अब कोई भी आता, तो देख सकता था वो! कोई भी अशरीरी! या दिव्य-देहधारी!
कुछ पल बीते!
अम्फू ने, नज़रें सामने ही रखीं!
न बर्रों की चिंता और न ही कीड़ों की, चढ़ते, तो हटा देता हाथ से अपने! साँसें रोके, सब देख रहा था बाबा, वहां बैठे बैठे!
"अम्फू!" आवाज़ गूंजी एक!
अम्फू हैरत में!
आगे देखे, पीछे देखे! दायें और बाएं! ऊपर भी! लेकिन कोई नहीं!
"अम्फू!" फिर से गूंजी आवाज़!
"कौन है?" बोला वो,
"लौट जा वापिस!" आई आवाज़!
"तू है कौन?" बोला वो,
"लौट जा अम्फू!" बोला वो,
"सामने तो आ मेरे?" बोला अम्फू!
"लौट जा!" आई आवाज़!
"हे? सामने आ? कौन है?" बोला वो,
"इसी क्षण लौट जा अम्फू!" बोला कोई!
"और न लौटूं तो?" बोला वो,
बस इतना बोला!
इतना बोला और आँखों के सामने अँधेरा आ गया!
नेत्र-ज्योति चली गयी थी!
कुछ न दिख रहा था, न ही दीख रहा था!
खूब आँखें रगड़ लीं उसने! खूब!
"जा! लौट जा वापिस!" आई आवाज़!
"मुझे डराता है?" बोला वो,
और हाथ में पकड़ा खंजर किया मुंह की तरफ उसने! निकले जिव्हा बाहर, पढ़ा एक मंत्र और जिव्हा बींध डाली खंजर की नोंक से! रक्त बह निकला! रक्त लिया उँगलियों पर, और लगा लिया आँखों में! झट से नेत्र-ज्योति लौट आई!
"अम्फू हूँ मैं! अम्फू!" बोला वो,
"इसे अंतिम चेतावनी ही मान!" बोला कोई!
और लगा धक्का उसे! जा गिरा पीछे पछाड़ खाता हुआ! हुआ खड़ा, बैठा नीचे फिर, और थूका भूमि पर! पढ़ा मंत्र!
और उठा ली वो मिट्टी!
मारी फेंक कर सामने!
"आ? सामने आ?" बोला वो,
अब आवाज़ बंद!
अब न आई कोई आवाज़!
"डर गया?" बोला अम्फू!
"नहीं!" आई आवाज़!
रंग, फक्क बाबा का! केहुड़ी भी कट गयी? लेकिन कैसे?
"जा! अब नहीं आना! और सुन ले, लौट के नहीं आना! तब, जीवित न जाएगा!" बोला कोई!
जो तैयारी की थी, सब कट गयी थी! यूँ मानो, रिक्त सा था उस समय वो!
दांत पीस लिए उसने! गुस्से में फफक पड़ा! और पाँव, पटकता हुआ, लौट पड़ा पीछे! आया केशि के पास! केशि भांप गयी कि कुछ गड़बड़ हुई है!
"चल?" बोला बाबा,
"क्या हुआ?" पूछा केशि ने,
"कुछ नहीं!" गुस्से से बोला वो,
"बताओ तो?" पूछा केशि ने!
"तुझ से कहा ना? चल?" बोला वो,
केशि उठ गयी, उठा लिया सामान और चल पड़ी वापिस संग उसके!
"वो दिखा?'' पूछा उसने,
"नहीं!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा उसने,
"बता दूंगा!" बोला वो,
"कठिन है?" पूछा केशि ने,
"हाँ, लेकिन, अब जान गया हूँ!" बोला वो,
"कठिन है, तो दोबारा विचार कर लो?" बोली केशि,
"चुप कर?" बोला वो, उसके केश खींचता हुआ!
केशि चुप! चलती रही वापिस! औरलॉट आये, आते ही, अपना सामान निकाला उसने, और चल पड़ा, जंगल की तरफ! अंदर कहीं! सभी हैरान थे कि हुआ क्या! केशि को घेर लिया सभी ने! पूछम-पाछ होने लगी!
