वर्ष २०१३ उत्तराखंड...
 
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वर्ष २०१३ उत्तराखंड की एक घटना!

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श्रीशः उपदंडक
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जुलाई के मध्य का दिन था वो, धूप में तेजी तो बहुत तेज थी, लेकिन कभी कभी अठखेलियां सी करती वो शीतल बयार, अपनी लटों को, हमसे छुआ ही देती थी! मेरे सामने जो नज़ारा था, वो बेहद ही आकर्षक और सौम्य था! कचनार के पेड़ों से ढका एक शांत सा स्थान! पेड़, फूलों से आच्छादित! फूल, जैसे किसी नव-यौवना के मादक-सौंदर्य में से घुले उस गुलाबी से रक्त से सुशोभित एवं फूले हुए से ओंष्ठ! उनकी स्निग्धता ऐसी, जैसे उसी नव-यौवना का वो हल्का दबा हुआ सा, चिबुक-स्थल! बयार बहती तो जैसे वो नव-यौवना अपने दोनों हाथ खोल कर, अल्हड़ सी, दौड़े चले जाती, ऐसे दौड़ती जैसे न कोई गंतव्य ही हो और न कोई ठहराव! तब, हम टकरा जाते, उसके दौड़ने के बीच में, उसके वस्त्रों को जकड़ते हुए से कांटे! वो तब रूकती, और धीरे से अपने अलमस्त से वस्त्र छुड़ा लेती, और दौड़ पड़ती आगे! उन पेड़ों की छैंय्या, जैसे एक मदहोशी की सी चादर उढ़ा रही थी हम पर! बीच बीच में, हमारी चादर भी, उठ उठ कर, उस बावरी बयार के साथ हो लेती! उसको रोकना पड़ता, बार बार! सामने एक पेड़ पर, एक सुंदर से पक्षी का जोड़ा बैठा था, उसका नर, जिसके सर पर एक कलगी थी, लाल से रंग की, अपनी सहचरी को साफ़ करता! बार बार! अपनी नन्हीं सी चोंच से, उसके मुख के आसपास के जैसे वो छोटे छोटे से पंख संवार रहा था! उसकी सहचरी, पूर्ण रूप से आश्वस्त हो, आँखें मूंदें इस प्रणय-बंधन को, चरमानंद की सीमा तक भोग रही हो जैसे! जब वो रुक जाता, तो अपनी चोंच से, उसको सहलाती, वो फिर से, अपनी थकावट भूल उस बंधन में बंध, आगे चलता चला जाता!
"बड़ा अलसाया सा दिन है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, ये हवा की वजह से है!" कहा मैंने,
"जोड़ जोड़ खुला पड़ा है जैसे!" बोले वो,
"इस हवा में यही होता है!" कहा मैंने,
उन्होंने एक जम्हाई ली, मुझे भी आ गयी एक जम्हाई!
"वो तितली देखो?" बोले वो,
मैंने देखा उधर, जंगली फूलों पर, एक बेहद ही सुंदर, रंग-बिरंगी तितली बैठी थी! बड़ा ही प्यार रंग था उस तितली का! चटख हरा, नीला और संतरी! इस प्राणीजगत की तो लगती ही नहीं थी!
"कैसी है?" पूछा उन्होंने,
"बड़ी ही शानदार! सुंदर!" कहा मैंने,
"अब ऐसे रंग, भला कौन सा चित्रकार भर सकता है!" बोले वो,
"सही कहा आपने, कोई नहीं!" कहा मैंने,
वो तितली, उड़ चली आगे, अपने सुंदर से पंख फड़फड़ाते हुए!
"चाय पियोगे?" पूछा उन्होंने,
"पी लूंगा!" कहा मैंने,
"आता हूँ अभी!" बोले वो,
"अरे राम रे मेरे!" बोले उठते हुए वो!
हवा ने तोड़ के रख दिया था हमारे बदन को, ऐसी बढ़िया हवा थी! वैसे भी पुरवाई बदन-तोड़ ही हुआ करती है! हालांकि मौसम ऐसा नहीं था, फिर भी, लगा कुछ ऐसा ही था! तो शर्मा जी, चले गए थे, चाय की कहने के लिए!
ये एक डेरा था, बाबा सिब्बा का डेरा, उत्तराखंड की एक बेहद ही शांत सी जगह में बना हुआ है, दूर दूर तक, हरे-भी पहाड़, प्रकृति की गोद में बसा हुआ है ये क्षेत्र! आसपास और भी कई डेरे हैं यहां, कुछ सात्विक भी, और कुछ उदासीन मत के जैसे भी! इस जगह एक प्राचीन मंदिर है माँ मनसा का! चूंकि, शहरी पहुँच से दूर है, और मंदिर छोटा भी है, अतः शांत एवं स्वच्छ है, अभी फिलहाल तो! इसका कुछ हिस्सा बाबा सिब्बा के क्षेत्र में आता है, और हम, इसी मंदिर के पीछे की एक प्राकृतिक सी बगिया में बैठे थे, डेरा नीचे ही हा, अधिक नीचे नहीं, बस ज़रा सा, एक रास्ता था, करीब दस फ़ीट का, बस, वो उतरो और चले जाओ नीचे! साधक भी कम ही आया करते हैं यहां, आगे यात्रा के लिए या रूप-कुण्ड जाने के लिए, कुछ जानकार अक्सर यहां रुक जाया करते हैं, अब दान में जो सम्भव हो, दे दिया जाता है, और तो कोई अतिरिक्त आय है नहीं, यही स्रोत है! कुछ धान, सब्जियां आदि इसी में हो जाया करती हैं, शहर जाने के लिए, कम से कम आठ घंटे ओ लगते हैं, लौट-फेर अगले दिन तक ही हो पाती है! सवारी का ही अभाव है, रास्ता साफ़ नहीं है, कहीं संकरा तो कहीं पथरीला है,  भू-स्खलन अक्सर इस रास्ते पर होना, आम सी बात है! हम भी बड़ी मुश्किल से ही यहां पहुंचे थे, काम तो था, वो ये कि मुझे बुलाया गया था यहां, बाबा चंदन ने, मैं उस समय इस डेरे से करीब चालीस किलोमीटर दूर था, खबर मिली तो चला आया था, बाबा चंदन बुज़ुर्ग बाबा हैं, आदरणीय हैं, उनका आदेश टालना, मेरे बुस्की बात नहीं! बस, यही एक कारण था!
उन दिनों मौसम साफ़ था, बारिश के आसार नहीं के बराबर थे, पहाड़ी नदियां अभी उफान पर नहीं थीं, अन्यथा, यहां फंस गए तो फंस ही गए! फिर बिना किसी बाहरी मदद के निकलना इतना सरल नहीं! ताल-तलैय्या बहुत हैं यहां! तो मछली इत्यादि की कोई कमी नहीं रहा करती यहां! पहाड़ी मछलियाँ वैसे ही बेहद पौष्टिक और रोग-हरणी हुआ करती हैं! जिनको हृदयाघात का खतरा हो, हृदय कमज़ोर हो, हाई-कोलेस्ट्रोल से झूझ रहे हों, उनके लिए ये मछलियाँ जीवन-दायनी साबित हुआ करती हैं! मात्र मछलियों में ही वो ओमेगा-एसिड मिलकरते हैं, जो हृदय को, नव-रूपांतरित कर दिया करते हैं! मछली का सेवन करने वाले, अत्यंत ही कम मिलेंगे जिन्हे हृदय-संबंधी कोई समस्या हो! यहां सुनहरी रोहू मिला करती है, ये बेहद ही पौष्टिक हुआ करती है! अक्सर अंग्रेजी दवाओं में उपयोग होने वाले कैप्सूलों का खोल इन्हीं मछलियों की चर्बी से बनाया जाता है! इनका तेल भी कम पौष्टिक नहीं, शरीर में ईंधन की तरह कार्य करता है! रोगों को दूर रखता है!
तभी शर्मा जी लौटे! आये, और बैठ गए नीचे!
"कह आये?" बोला मैंने,
"हाँ, ला रहा है!" बोले वो,
और उन्होंने ले ली टेक! लेट गए!
कुछ ही देर में, चाय आ गयी, हमने चाय पीनी शुरू कर दी, उस मौसम में, उस अलसाये मौसम में, चाय की चुस्कियां लेना, बड़ा ही अच्छा लग रहा था!
"आज आएंगे बाबा?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कहाँ से?" पूछा उन्होंने,
"कह रहे थे यहीं कहीं से!" कहा मैंने,
"कहीं पास से ही?'' पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कुछ बताया, क्या काम है?" पूछा उन्होंने,
"ना!" कहा मैंने,
"कहीं भेजा-भेजी न कर दें!" बोले वो,
"नहीं, मैं मना कर दूंगा!" कहा मैंने,
"हाँ, वैसे ही कमर में बल पड़ गए हैं!" बोले वो,
मैंने अपना खाली गिलास रखा एक तरफ, शर्मा जी ने भी रखा, फिर मेरे गिलास में फंसा दिया अपना गिलास, अब पत्ती बची थी उसमे!
"रात को तो ठंड थी यहां!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"आज कहा तो है मैंने सोमू को!" बोले वो,
"देसी-सत्तू लाएगा वो!" कहा मैंने,
"वो तो है ही!" बोले वो,
"चलो, वो भी ठीक!" कहा मैंने,
"और क्या यहां इस जंगल में आपको स्मिर्न-ऑफ वाइट-रम मिलेगी!" बोले वो, हँसते हुए!
मैं भी हंसने लगा!
हवा का एक तेज सा झोंका आया! चादर उड़ चली! शर्मा जी ने थामी वो पकड़ कर!
"हवा बावरी है आज तो!" बोले वो,
"हाँ, तेज है!" कहा मैंने,
"वो करौंदे हैं?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"जाने से पहले तोड़ लेंगे!" बोले वो,
"तोड़ लेना!" कहा मैंने,
"भुनी हुई हरी-मिर्च के साथ इन्हें भूनो तो क्या स्वाद आता है!" बोले वो,
"हाँ, वैसे भी ठंडा होता है ये! वात-नाशक होता है!" कहा मैंने,
"हाँ! दवा भी है!" बोले वो,


   
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(@vdmishra)
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बहुत समय के बाद संस्मरणों की बारिश हुई है 


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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तो हमने किसी तरह से शाम पकड़ी! शाम भी बड़ी ही सजीली-संवरी सी थी! लालिमा वाली धूप जब पेड़ों की कनखियों से देखती, तो ऐसा प्रतीत होता, जैसे कोई नई-नवेली दुल्हन, सारा दिन अपने श्रृंगार से त्रस्त रही हो, और अब जैसे अवसर ढूंढ रही हो, आभूषण उतारने के लिए! कहीं कोई देख न ले, इसीलिए कनखियों से देख लेती थी! ऐसी ही शाम थी वो! उस नयी-नवेली दुल्हन की आँखों से ढुलका वो कजरा अब जैसे काले से बादल बन, आकाश में मंडराने लगे थे! भौंहों पर छलक आये पसीने, उस शाम को जैसे ओंस से भिगो देने के लिए आतुर हो उठे थे! उस दुल्हन की, रात की 'वो' चिंता, जिस से उसका दिल, धुक-धुक कर, नीचे बैठा जा रहा था, वो शाम भी जैसे गहराई जा रही थी! आभूषण उतरें नहीं, ढुकता कजरा, भौंहों पर पसीने और दिल में धुक-धुक! इस शशोपंज में पड़ी वो दुल्हन, जहाँ थोड़ा कुम्हलाती वही सजग भी हो उठती थी! सजग, रात के कारण! हमारी ओस हम भी ऐसे ही बीते जा रही थी!
उस वक़्त, मैं आर शर्मा जी, एक कमरे में बैठे हुए थे, कमरे की छत इतनी नीचे थी, कि मैं, खड़ा हो अंगड़ाई भी न ले सकता था! अंगड़ाई के लिए भी या तो झुकना पड़ता था, या फिर लेटना पड़ता था!
बैठा था मैं नीचे बिछे एक गद्दे पर, अब वो नाम का ही गद्दा था, दो चटाईयां मिलाकर, ऊपर से एक खेस डाल लिया था, बिजली तो थी नहीं, पता नहीं कब आती, आती भी या नहीं! कमरे में तारों के सहारे और एक लकड़ी, जो घुसा दी गयी थी दीवार की एक झिरी में, लटका पड़ा था एक बल्ब! बेचारा, अपनी क़िस्मत को रो रहा था, रो रहा था, कि उस कमरे की सभी समन्वय वस्तुओं में सबसे पृथक था वो! और तो और, वो कांच की, एक पव्वे की शीशी से बनी, वो मिट्टी के तेल की, डिबिया भी मुंह चिढ़ा रही थी उसे! उसकी लौ बढ़ती, तो कांच पर, बल्ब के, जा पड़ती! अजिसे उसको हिकारने लग जाती! बल्ब बेचारा, एक एक घड़ी गिनता, कि कब उसकी जीवन-संचिनी-धारा उसमे प्रवाहित हो, और वो इस कलमुंही डिबिया को एक करारा सा जवाब दे! तब तक तो, बेचारा कटु-कटु उपहास का भागी बना ही हुआ था! पतंगे भी, उस दिनिया के इर्द-गिर्द आपस में, नाच नाच कर बतिया रहे थे, कि आज फलां जगह ये देखा, वो देखा, ये चखा, वो चखा! कल फिर जाऊॅंगा, यहां भी और वहां भी! पल भर का पता नहीं और पतंगे का कल! मैं तो हंस भी नहीं सकता!
"लो!" बोले शर्मा जी,
दे दिए थे मुझे, सीले से कुछ चने, बने हुए चने!
मैंने मुंह में डाले, चबाने लगा, क्या करते, चने ही चबा लो, जब तक सोमू आये, देसी-सत्तू लाये!
"कब तक कि कह गया था?" पूछा मैंने,
"मुंह अँधेरे तक आ जाएगा, यही बोला!" बोले वो,
"रे कहीं सुबह की तो ना बोली?" पूछा मैंने,
"अरे नहीं! पईसा ले गया!" बोले वो!
"आ जान दो फिर!" कहा मैंने,
और चनों की शामत आई! भिंच गए दांतों के नीचे! कोई कोई ऐसा ढीठ, कि हमें ही चबवा दे चना! उसे, बड़ी इज़्ज़त के साथ, बाहर प्रकृति में छोड़ दिया जाता!
"साथ में कुछ मंगवाया है?" पूछा मैंने,
"हाँ, कह रहा था जो मिलेगा ले आऊंगा!" बोले वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
अब अँधेरा बढ़ने लगा था, अँधेरा बढ़ा, तो झींगुरों की टोलियां, अपने अपने वाद्य-यंत्र लिए, हो गयीं मुस्तैद! अब मंझीरे भी कहाँ पीछे रहने वाले थे! वो भी आ डटे! और रात हुई फिर उनकी! अब उन्हें चाहे डाँट लो, फटकार दो, दो भद्दी-भद्दी गालियां! अब वो बस हंसेंगे और उड़ाएंगे हमारा मज़ाक! ये रात के प्रहरी हैं! रात के हमसफ़र! शुक्र है कि अभी बरसात नहीं थी, नहीं तो मेंढक, ऐसा गीत-गान सुनाते कि सारी रात तो जाती ही ऐसी, दिन भर कान भी टर्राते ही रहते!
"आ गया!" बोले शर्मा जी,
और चले बाहर!
और तभी बिजली आई!
वाह जी वाह! मदिरा आई, बिजली लायी!
अब पड़ी मेरी नज़र उस बल्ब पर! अब हुआ फूल कर कुप्पा! बेचारी डिबिया, बे-आबरू सी, नज़र ही न मिलाये! पतंगों की तो सराय ही बदली! मैं उठा! और फूंक मार कर, बुझा दी डिबिया! धुआं उड़ा और पता नहीं लहरा लहरा कर, क्या क्या गालियां दे गया होगा मुझे!
"इतनी देर कैसे लगा दी?" पूछा शर्मा जी ने,
"रास्ता बड़ा खराब है!" बोला वो,
और साइकिल से लटका एक झोला दे दिया शर्मा जी को!
"आ, इधर आ!" बोले शर्मा जी,
सोमू, वहीँ खड़ा, जेब से पैसे निकाल रहा था, बाकी बचे पैसे, सिक्के गिन रहा था!
"आ तो सही?" बोले शर्मा जी,
वो आया, और चला आया अंदर, बैठ गया!
"कितने लाया?" पूछा शर्मा जी ने,
"जितनी कही थी!" बोला वो,
"ठीक!" बोले वो,
"ये ले!" बोले वो,
उसको उसका सामान देते हुए, और एक हमारी तरफ से भी!
"इतना ही बहुत है!" बोला वो,
"रख ले यार!" बोले वो,
रख लिया सामान उसने, लौटने लगा,
"सीतल को भेजता हूँ!" बोला वो,
"ठीक है!" कहा उन्होंने,
अब सामना निकाल लिया हमने, सामान बढ़िया लाया था वो! गया भी काफी दूर था तो उसका अतिरिक्त हिस्सा, उसको दे दिया था हमने! साथ में, साबुत मच्छी लाया था, तली हुईं, अब और क्या चाहिए! इस से बढ़िया और क्या होता, उस जगह!
थोड़ी देर में, शीतल आ गयी, शीतल पत्नी है सोमू की, देहाती महिला है, लेकिन है समझदार, पानी का घड़ा ले आई थी, दो साफ़ किये हुए गिलास, एक तश्तरी, चाक़ू, नमक, दो टमाटर और दो नाशपाती, अब ये भी बढ़िया था! कभी नाशपाती इस्तेमाल करें दोस्तों मदिरा के संग! मजा दोगुना हो जाएगा! तो हमें सबकुछ साफ़ कर लिया, काट-पीट कर, बना ली एक बढ़िया सी सलाद!
हम खा-पी ही रहे थे कि सोमू आया हमारे पास, और पकौड़े दे गया, तेज हरी-मिर्च की चटनी के साथ, मिर्च के, बैंगन के, आलू के और गोभी के! ये तो और बढ़िया हुआ!
"सोमू?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोला वो,
"तूने नहीं ली?" पूछा मैंने,
"चल रही है!" बोला वो,
""अच्छा! और बाबा की कोई खबर?" पूछा मैंने,
"अभी तक तो आये नही!" बोला वो,
"और बाबा चंदन?" पूछा मैंने,
"वो भी नहीं!" बोला वो,
"कमाल है!" कहा मैंने,
"आ जाएंगे दोनों ही!" बोला वो,
"कब तक?" पूछा मैंने,
"अब नहीं तो कल दोपहर तक!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
''वो बीच में है न, सिल्लू?" बोला वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"वहां रुके होंगे!" बोला वो,
"ये हो सकता है!" कहा शर्मा जी ने,
"करो आप! ज़रूरत हो, तो बुला लेना!" बोला सोमू और लौट पड़ा!
"लो! हम यहां खोपरा चाट रहे हैं और वो दोनों आराम से छाछ फेंट रहे हैं!" बोले शर्मा जी,
मुझे हंसी आई बहुत!
"आ जाएंगे सुबह! मिल लेंगे!" कहा मैंने!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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कोई घंटा बीता, हम आनंद लेते जा रहे थे, हवा में अब ठंडक महसूस होने लगी थी! वादियों में, घाटियों में अक्सर ऐसा ही होता है, कब मौसम का मिजाज़ बदल जाए, कब पानी बरस जाए, कुछ नहीं कहा जा सकता! तो मौसम में अब ठंडक हो चली थी, मैंने उठ कर, कमरे का दरवाज़ा बंद किया, लकड़ी उसकी सीली हुई थी तो घरड़ की सी आवाज़ करता हुआ वो बंद हुआ, जैसे ही छोड़ा, फिर से वापिस होने लगा, तब एक बांस का सहारा दिया उसे और तब वो बंद हुआ! और तब, अछनका ही बिजली ने मारा झटका! मरा सा, टूटा सा, वो बल्ब झट से जाग उठा! वो जागा तो कमरे पर बड़ा एहसान किया उसने! हाँ, सबसे ज़्यादा पीड़ित तो वो बेचारी डिबिया हुई! दांत फाड़े जा रहा था उस डिबिया को देखते हुए वो! और वो पतंगे, अब पाला बदल, जा चढ़े थे बल्ब पर! बल्ब गरम था तो जो टकराता वो सीधा नीचे ही गिरता! नीचे ही दीवार पर, एक नर-छिपकली घात लगाये हुए बैठी थी! उसे तो आज भुना हुआ माल मिल रहा था! बार बार उनको भसक, बार बार जीभ से मुंह साफ़ करती थी वो! एक और मादा छिपकली, उस बल्ब के पास आ डटी थी, उसको भी शिकार करने में कोई दिक्कत नहीं थी! शिकार तो भरपूर था यहां! बस, शिकार करने वाला चाहिए था!
"आज फिर से ठंड पड़ती दीखै!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, अभी से ठंडक है!" कहा मैंने,
"आज तो कंबल मांग लूँगा मैं!" बोले वो,
"मांग लेना!" कहा मैंने,
बातें करते रहे हम, दरवाज़े पर दस्तक हुई, बांस गिरा और दरवाज़ा खुल गया, शीतल आई थी भोजन देने, तो हमने भोजन रख लिया, खाते-पीते रहे और भोजन भी कर लिया, बाद में लघु-शंका त्याग करने के बाद, कंबल ले आये शर्मा जी, मैंने खेस ही दोहरे कर लिए थे! रात में, आराम से सो गए हम फिर!
अलसायी सी सुबह!
जैसे दुल्हन, अलसा के झट से उठी हो! बाहर देखा हो, भोर की चमक, जैसे झरोखे से अंदर आ, समय का भान कर रही हो! अपने वक्ष पर, चादर समेटे, देखे इधर-उधर! कुछ झाईं से गुजरें रात की! कुछ निशान, जो अब नुमाया थे कलाइयों पर, कई ना-ना के बाद, बहुतेरी हाँ-हाँ ने, जैसे एक न चलने दी हो! आँखों में शरम से भरे, आँखें देख न सकें वो निशान, निशान, जो साफ़ बतला रहे थे रात का फ़साना! केश, उलझ से गए थे, अब हाथ  चले उनके संवारने के लिए! उठी हो, और चली हो आईने की तरफ, आइना, जो सिर्फ चेहरा ही दिखाए, उचक उचक के, गला देखे, उंगलियां फिराएं, कंघा उठाये, और केश संवारे, गरदन पर, कुछ लाल से निशान दिखें, तब, मुंह में कंघा दबाये, उन निशानों पर ऊँगली फेरे! और आइना, सबकुछ जानते हुए भी, अनजान सा बना रहे! बस, मुस्कुराये! और दुल्हन, आइना ऐसे देखे, जैसे वो अकेली हो! लेकिन अकेली कहाँ थी वो! वो बैरी आइना, सबकुछ देखे! बस बोले ही तो नहीं! और वो आइना भी ऐसे देखे, कि जैसे कोई देखता न हो उसे! कोई, और, कहीं और से, दरवाज़े से, खिड़की की दरार से, और तो और, उस झरोखे से, जिस से भोर की चमक अंदर आ रही थी! बाहर जैसे, मवेशी रम्भा रहे हों, बकरियां, अपने चारे के लिए राह तक रही हों, अपनी आवाज़ में, बुला रही हों! बाहर, तो ज़िंदगी, रोज़मर्रा की तरह से आगे बढ़ चली थी! ऐसी ही सुबह! कुछ ऐसी ही थी हमारी वो सुबह!
मेरी आँख खुल गयी थी, बाहर तो पक्षी अपने अपने कार्य में तल्लीन हो चले थे! सूर्य के आगमन का स्वागत जो करना था उन्हें! मैंने बैठे हुए, एक अंगड़ाई ली, और जम्हाई भी! बदन खुला तो शर्मा जी को देखा, कंबल में दुल्लर हुए पड़े थे, घुटने, पेट में घुसेड़ लिए थे अपने!
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हूँ?" बोले वो,
"उठो यार?" कहा मैंने,
"हूँ!" बोले वो,
"उठो, सुबह हो गयी!" कहा मैंने,
"कितने बज गए?" पूछा उन्होंने,
"छह!" कहा मैंने,
"बड़ी जल्दी?" बोले वो,
"उठ जाओ?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और आँखें, फिर से बंद, एक बार, खोलकर,
"अरे?" बोला मैं,
"उठो यार?" कहा मैंने,
"छह ही तो बजे हैं?" बोले वो,
"हाँ, बाहर तो देखो?" कहा मैंने,
"क्या हुआ बाहर?" पूछा उन्होंने,
"अब उठोगे तो जानोगे?" बोला मैं,
तब ली अंगड़ाई उन्होंने, और 'राम-नाम' लेते हुए, उठ बैठे! ली एक बड़ी सी जम्हाई, सिरहाने रखा, चश्मा उठाया, साफ़ किया उसे, और चढ़ा लिया नाक पर!
"चलो, जंगल चलते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
उठे, और वो और मैं, चले बाहर, चेहरा धोया, कुल्ला किया, अपने अपने अंगोछे रखे साथ में, और जूते पहन, चल दिए वहां से! जंगल गए, फ़ारिग हुए, कुल्ला-दातुन की, जंगली मेथी के पौधे थे वहां, इसकी दातुन की जाए तो बेहद फायदेमंद रहती है! दांतों का रोग नहीं हो सकता, हिलते हुए दांत भी, जम जाते हैं, पान-गुटखे के निशान भी साफ़ कर देती है ये! कुछ जानवर, जैसे कि रीछ, बिज्जू, लंगूर, नेवले अक्सर इसको चबाते रहते हैं! वो जानते हैं इसके गुण, यही बात है!
हम एक बढ़िया सी जगह आ बैठे थे, सामने ही एक बरसाती नदी थी, पानी कम था उसमे, सूरज की चमक, ऐसी लग रही थी कि जैसे नदी में कांच बिछा हो! पत्थर, गोल-गोल पत्थर, बड़े ही सुंदर लग रहे थे! दूर दूर तक, बस हरियाली ही हरियाली! शंकुधारी पेड़ और वनस्पतियाँ! क़िस्म क़िस्म के परिंदे, ऐसे खूबसूरत कि जैसे यहां के हों ही नहीं! फूल, शानदार! काले, सफेद, नीले, पीले, हरे! छोटे-बड़े! सुगंध वाले, बिना सुगंध वाले! जंगली अदरक के संतरी फूल! लहरदार! अब जहाँ फूल, कलियाँ वहीँ बर्रे, भौंरे, तितलियाँ, मधु-मक्खियाँ आदि आदि! जी ही न करे वहाँ से हटने का! कैसा अनुपम दृश्य!
"वो कोई मंदिर है न?" बोले शर्मा जी,
इशारा करते हुए, ठीक सामने एक छोटी सी पहाड़ी के लिए!
"हाँ!" कहा मैंने,
"कमाल है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"इतनी ऊपर!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"हम तो एक बार जाएँ तो सुबह ही वापिस आएं!" बोले वो,
"हाँ! इतनी ऊपर कैसे चढ़ेगा कोई!" कहा मैंने,
"ये लोग तो चढ़ जाते हैं!" बोले वो,
"इनको आदत है!" कहा मैंने,
"हाँ! हमारी तो टांगें ही गिनतियाँ गिनने लगें!" बोले वो,
मैं हंस पड़ा उनकी इस बात पर!
"ऐसी ही जगह डाला जाए एक झोंपड़ा! एक दो रखो मवेशी! गाय, बकरियां, उगा लो सब्जियां, फल के पेड़ और लताएँ! और आराम से, चैन से रहो! भाड़ में जाए शहर! भाड़ में जाए दुनिया! रात को डिबिया पजारो! भुना-उबला खाओ, ताज़ा खाओ! और लम्बे पाँव पसार, सो जाओ!" बोले वो,
"सही बात है! लेकिन देखो, हम लोगों को तो ऐसा भी नसीब नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ! नहीं है नसीब!" बोले वो,
तभी कुछ तोते आ बैठे पेड़ पर, पूरा आसमान सर पर उठा लिया उन्होंने तो! आखिर में उड़ाने ही पड़े वो हमें! सर भनभना दिया था उनकी तेज आवाज़ों ने! पूरा टोला था उनका! कहीं से फलों की दावत या तो उड़ा कर आ रहे थे या कहीं छापा मारने की योजना थी उनकी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुछ समय बीता! और तोतों का स्थान अब कौवों ने ले लिया! अब वे शुरू हो गए थे! कहिर, वे एक साथ तो नहीं चिल्लाते थे, तोतों ने तो ऐसा हल्ला-गुल्ला मचाया था कि जैसे हम उनके जंगल में, अनाधिकृत रूप से घुस गए हों और वो, दूसरे सभी वन-जीवों को हमारा पता बता रहे हों! कि दो शहरी प्राणी, घुस आये हैं, सम्भल के रहें! इनकी चेष्टा और चेतना, कब जाग जाए, पता नही होता! अव्वल दर्ज़े के धूर्त और कपटी हैं! उस समय तो लक्क्ड़बग्घा भी चैन से एक आद झपकी ले लेता होगा कि चलो, ये धूर्त और कपटी का ख़िताब, कम से कम उसके सर से उतरा तो, अब कुछ समय के लिए ही सही! वो कौवे किसी फ़िराक में थे! शायद कुछ दिखा था उन्हें या फिर, उनकी महफ़िल जमा हुई थी, किसी असामान्य स्थिति को लेकर, जो शायद हाल में ही हुई होगी! या तो किसी ने उनमे से किसी का घोंसला हटा डाला था या चेष्टा की थी! अब कौवा-समाज बड़ा ही सुचारू रूप से कार्य किया करता है! काफी सुदृढ़ है इनका ये काक-समाज! हमारे मोबाइल और दूसरे फ़ोन भले ही कितने तेज हों, जब तक हम सूचित करते हैं तब तक तो इनकी एक ख़बर पूरे जंगल क्षेत्र में 'फ़्लैश' या सम्प्रेषित हो जाती है! ऐसा किसी और पक्षी-समाज में बहुत ही कम देखा जाता है! इनमे, बुज़ुर्ग कौवे सरपंच हुआ करते हैं! और एक मुखिया! अब उसने जो फैसला दिया, समझो लक़ीर ही खिंच गयी! हमला करो! नज़र रखो! सूचित करो! चौकसी बढ़ा दो! ऐसे ऐसे फैंसले, त्वरित रूप से ले लिए जाते हैं! इसीलिए कौवा, किसी दूसरे कौवे का भोजन नहीं छीना करता! जैसे हम इंसान किया करते हैं! बल्कि वो तो, साथ दिया करते हैं कि आराम से खाओ, हम देख रहे हैं! जब तक पहला हटेगा नहीं, दूसरा चोंच भी नहीं मारेगा उस खाने में!  तो यहां, एक एक करके कौवे इकट्ठा हो रहे थे, कोई आपदा या विपदा आन पड़ी थी! वो कांव-कांव करते और, दूसरे कौवे भी आने लगते! अब हमारा वो स्थान छोड़ना ही उचित था! इतने सारे कौवे तो शेर को भी भगा दें, अगर अपनी आई पर आ जाएँ तो!
"यहां से उठना ही ठीक है!" कहा मैंने,
"हाँ! कहीं उन्हें गुस्सा आया तो ज़बरन ही भगा देंगे!" बोले वो,
"आओ, कहीं और बैठते हैं!" कहा मैंने,
और हम उठ गए वहां से, जब उठे, तो सारे कौवे चुप! हमें ही देखने लगे! हमने तो सम्मान दिया उन्हें और चल दिए वापसी की राह पर, पीछे नहीं देखा पलट कर भी!
पानी के छोटे छोटे तालाब से बन गए थे वहां, जल-पक्षी उनमे जल-क्रीड़ा कर रहे थे, कीड़े-मकौड़े और छोटी मछलियों का शिकार कर रहे थे, दोनों की ही जान का सवाल था, एक की जान, जान से जाती और दूसरे की जान न जाए इसीलिए पहले वाले की जान लेना ज़रूरी था! यही है प्रकृति का ये कभी न खत्म और रुकने वाला चक्र! एक जाता है, एक आता है! किसी की जान जाती है कोई नयी जान पैदा होती है!
तभी बाएं से, एक अजीब सी आवाज़ आई! 'भुर्र-भुर्र' की सी! हमारे सर घूम गए उधर की तरफ! पत्थर के ऊपर, एक बड़ा, बहुत बड़ा टोड-मेंढक बैठा था! कैसा विशाल था वो! कम से कम बारह-चौदह इंच का तो रहा होगा! उसके हाथ ऐसे, जैसे किसी बालक के होते हैं! देह ऐसी मांसल की लगे, अभी कहीं फट ही ना जाए! वही ऐसे अजीब सी आवाज़ निकला रहा था! सच कहता हूँ, किसी चलते हुए आदमी पर, पीछे से जा कूदे तो पछाड़ सी खा जाए आदमी! मुंह से चीख और निकल आये! पंजे, घुसा ही दे अपने!
"ये कैसा मेंढक है बहन**!" बोले शर्मा जी,
"काफी बड़ा है!" कहा मैंने,
"मेंढकों में शायद दैत्य प्रजाति का है!" बोले वो, और हंस पड़े,
मुझे भी हंसी आ गयी! लेकिन बात तो सही ही कही थी उन्होंने! जब वो सांस लेता था तो उसको गरदन ऐसे फूल जाती थी कि अब उछला और अब उछला! बाल-बच्चा, कन्या-महिला तो उसको देख, चीख ही मार दे!
"इसके पास तो कोई मछली या पक्षी भी नहीं फटकता होगा!" बोले शर्मा जी!
"हाँ, उन्हें ही घायल कर दे ये तो!" बोला मैं,
"ख़ुराक पूरी मिल रही होगी इसे! तभी पहलवान हो गया है!" बोले वो,
"हाँ! यही बात है!" कहा मैंने,
"आँखें तो देखो! कैसी अठन्नी-अठन्नी भर की आँखें हैं!" बोले वो,
"हाँ, डरावनी भी हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
उस मेंढक ने फिर से आवाज़ निकाली!
"अपनी मेमसाहिब को ढूंढ रहा है शायद!" बोले वो,
"हाँ, चलो! कहीं हमसे ही पंगा न ले ले!" कहा मैंने,
"हाँ, चलो!" बोले वो,
और हम, उस मेंढक को छोड़, आगे बढ़ चले! रास्ते में एक पेड़ दिखा, बड़ा सा पेड़, कचनार का था, गुलाबी कचनार का, वहीँ आ बैठे!
"आज आ जाएँ बाबा, तो चलें यहां से!" बोले वो,
"हाँ, आज तो आएंगे ही!" कहा मैंने,
सामने से, कुछ महिलाएं आ रही थीं, कुछ चारा आदि लिए हुए, पहाड़ी-संस्कृति की झलक थी उनके परिवेश में! रंग-बिरंगे कपड़े! हँसते हुए! हमें देख कर, सर नीचे कर लेती थीं, हमने भी अपने सर घुमा लिए, और वे चलती चली गयीं एक एक करके!
उड़े नेवले के छोटे छोटे, प्यारे प्यारे बच्चे घूम रहे थे! बहुत सुंदर लग रहे थे! सुतवां से शरीर, हल्के से काले बार, छोटे छोटे हाथ-पाँव, पंजे और बालों से भरी दुम! मौज-मस्ती कर रहे थे! उनके माता-पिता शायद, भोजन लेने गए थे उनके लिए! आसपास ही उनका बिल रहा होगा! नेवले भी सामाजिक प्राणी हैं, इनके कई गुट हो सकते हैं, हाँ, जवान, नर नेवले को, बाहर कर दिया जाता है, जब तक वो अपने लिए अपनी मेमसाहिब नहीं चुन लाता, कोई प्रवेश नहीं मिलता! जीवनभर, एक जोड़े की तरह से ही रहते हैं ये नेवले! नेवले की कम-क्रीड़ा अत्यंत ही दुर्लभ है देखना! मुनि वात्स्यायन नहीं देख पाये होंगे किसी नेवले की काम-क्रीड़ा, नहीं तो आज आसन चौरासी न होकर, एक सौ छत्तीस होते! क़ैद में, नेवला कभी रमण नहीं किया करता, हाँ, बस तब, जब तक उसको दवा दी जाती है! नेवले का वीर्य, यदि बहार गिर जाए तो हवा के सम्पर्क में आते ही, कांच की बूँद जैसा चमक उठता है! और लोप हो जाता है कुछ ही क्षणों में! तंत्र में नेवले के विषय में, एक पूरा ही अध्याय है! ये तंत्र में एक अहम भूमिका निभाता है!
नेवले की विष्ठा, चांदी के ताबीज़ में भर कर, शनिवार को धारण की जाए, तो रतौंधी का नाश कर देता है! मंगलवार को की जाए धारण तो पौरुष भरता है शरीर में, शरीर पुष्ट हो जाता है! सोमवार को यदि स्त्री धारण करे तो उसको स्पर्श करने वाला, रामणिक रूप में, पुरुष, उस स्त्री का जीवनभर दास बना रहता है! जो बहनें दाम्पत्य में सुखी जीवन चाहती हैं, वे ये प्रयोग कर सकती हैं! नेवले की विष्ठा में दुर्गन्ध नहीं होती, ये चिपचिपी भी नहीं होती! बुधवार को स्त्री या पुरुष धारण करे तो घर में धन-धान्य की कमी नहीं रहती! वीरवार को धारण करें, तो दुःस्वप्न नहीं आते! शुक्रवार को धारण करें, सूर्यास्त पश्चात एक वर्ष के लिए तो पितृ-दोष नहीं रहता! पितरों को कोई कष्ट नहीं पहुँचता! रविवार को धारण करें तो विद्यार्थियों के लिए अचूक स्मृति प्रदान किया करती है! नेवले के मूत्र से भीगी हुई मिट्टी से लेप किया जाए तो आरोग्य प्रदान किया करती है! नेवले का झूठा कोई भी पदार्थ, भोज्य-पदार्थ यदि भूमि में गाड़ दिया जाए तो सम्पत्ति का अचानक लाभ प्राप्त होता रहता है! अब एक विशेष बात, ऐसा नेवला, पाला हुआ, क़ैद में रखा हुआ, अनुसंधान-क्षेत्र में बंदी, नहीं होना चाहिए! अन्यथा कोई भी प्रयोग कार्य नहीं करेगा!
तो हम, वहाँ करीब एक घंटा और बैठे! और फिर वापिस हुए, मेरी तो आँख लगने लगी थी! ऐसा शांत वातावरण था, ऊपर से पक्षियों का चहचहाना, ऐसा मधुर लग रहा था जैसे, शरीर में कोई मादक-द्रव्य सा भर दिया गया हो!
"आओ यार! नींद ही आने लगी!" कहा मैंने,
"हाँ चलो!" बोले वो,
"कहीं यहीं न सो जाएँ!" कहा मैंने,
"हाँ, हवा में आलस भरा है बहुत!" बोले वो, उबासी लेते हुए!
"हाँ! चलो!" कहा मैंने, उठाया अपना अंगोछा और चल दिए वापिस वहां से! आसपास का दृश्य देखते हुए! शांद्र, लहलहाते पेड़ और पौधे! प्रकृति की अद्भुत छटा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम आ गए वापिस, स्नानादि से निवृत हुए, और फिर चाय आ गयी, दूध की पूछी थी, लेकिन चाय ही ली हमने, बकरी के दूध की चाय थी, बढ़िया बनी थी! जिस बकरी का दूध इस्तेमाल हुआ था, वो बड़ी ही प्यारी बकरी थी! नाम था उसका गौमा! चितकबरी सी! तंदुरुस्त, पीली सी आँखों वाली! जब गौर से देखती तो पता चल जाता था कि क्या कहना चाहती है! उसको मैं चारा खिलाता, उसे सर पर हाथ फेरता, उसकी दुम सहलाता! मुझे तो अपने थन पर ही हाथ फिराने देती थी, नहीं तो बकरी फौरन ही गुस्सा हो जाती है! हाथ तो लगाने ही न दे! मैं उसके पास से हटता तो 'मैं-मैं' चिल्लाती वो! उस बेज़ुबान का प्यार देख, मैं हैरान था! कैसे उसने, एक अनजाने इंसान पर, फौरन ही यक़ीन कर लिया था! मुझे भी कुछ नरम और बढ़िया घास या पत्तियां मिलतीं, तो मैं ले आता था उसके लिए! चाव से खाती वो उन्हें! उसके दो छौने भी थे! बड़े ही शैतान! मुझे धकियाते थे, वहां से जाने को कहते थे! अपनी माँ की खूब देखभाल कर रहे थे अभी से! एक बकरा था और एक बकरी! खैर, चाय पी ली थी, और फिर किया थोड़ा आराम! सोमू आ गया था, तो उस से बातें करते रहे! साढ़े ग्यारह बजे करीब, भोजन भी कर लिया! और फिर से आराम!
दोपहर करीब, दो बजे से पहले, बाबा सिब्बा और बाबा चंदन, आ गए थे! साथ में दो प्रौढ़ महिलाएं और एक कोई तीस बरस की स्त्री थी उनके, मुझे सोमू ने ख़बर दी थी, देखा तो मैंने भी नहीं था उनमे से किसी को भी अभी तक, चाय-पानी किया जा रहा था उनका, वो मुख्य-बैठक में ठहरे थे, बैठक तो नाम की ही थी, वो कक्ष ही था, लकड़ी से बनी छत, जिस पर पटिया डाली गयीं थीं, छत पर जाने के लिए एक जीना, जिस पर चढ़ने से डर सा लगता था! कुल छह कमरे थे वहाँ, एक मांदिया थी, जो ढोर-मवेशी आदि के लिए थी! हम सबसे अलग वाले कमरे में ठहरे थे!
करीब डेढ़ घंटा हुआ, और मैं उठा, बाहर आया तो हाथ-मुंह धोये, कुल्ला किया, शर्मा जी भी आ गए, उन्होंने भी हाथ-मुंह धोये और कुल्ला आदि किया! पोंछा चेहरा और हाथ अपने, लटका दिया अंगोछा, वहीँ एक डोरी पर, डोरी, प्लास्टिक वाली, जिसमे अब तीन गांठें पड़ चुकी थीं! उम्र-दराज़ हो चली थी वो! और अभी तक, उसकी सेवानिवृति की कोई तिथि नहीं निर्धारित हुई थी!
"आओ, चलें!" कहा मैंने,
"हाँ चलो!" बोले वो,
और हम चल पड़े, बाबा की बैठक के लिए! थोड़ा सा ही दूर थी वो, बीच में, एक जगह, वृताकार से स्थान में, ग्वार-पाठे के पौधे लगे हुए थे, केतकी के भी, कुछ गेंदे, रात की रानी, बेला, चमेली, सदाबहार और मॉर्निंग-ग्लोरी के पौधे लगे थे, फूल खिले थे और उस जगह में, जान डाले हुए थे वो पौधे! बेला के फूलों को तो तितलियों ने, तंग कर रखा था! एक हटती तो दूसरी आ जाती! गेंदे के फूल बेचारे पता नहीं कितनी बार सर हिलाते थे! उनके सरों पर, दरअसल भंवरे बैठ जाते थे! पूरी जोर-आजमाइश सी करते थे वो भंवरे! मैं यही सब देखते हुए, आगे बढ़ गया शर्मा जी के साथ!
अब सामने ही बैठक थी, चढ़े वो तीन सीढ़ियां, और झाँका अंदर, बाबा सिब्बा से आँखें मिलीं! वो मुस्कुराये, उचक कर, बाबा चंदन ने भी देखा, मुस्कुराये, मिल गयी स्वीकृति! जूते उतार, हम अंदर चल पड़े! दोनों बाबाओं के पाँव पड़े हम! नमस्कार हुई उनसे, महिलायें पीछे खिसकीं और वो जवान से महिला उठ कर, बाहर चली गयी, मैं उसका चेहरा नहीं देख सका था, हाँ, जो महिलाएं यहां बैठी थीं, उनके टीके नाक से शुरू होकर, माथे से ऊपर तक चले जाते थे! माथे से ही, दो रेखाएं जो एक कनपटी से शुरू हो, दूसरी कनपटी पर खत्म होती थीं, त्रिपुण्ड सा भान कराती थीं!
"ब्रह्म ब्रह्म ब्रह्मेश्वर!" एक महिला बोली!
मैंने देखा उसको, वो करीब पचास बरस की रही होगी, चेहरा कड़ा और स्वभाव क्रोधी होगा, स्पष्ट रूप से दीखता था! हाँ, बगल में बैठी दूसरी महिला, वो शांत लग रही थी, और ये साफ़ था, कि उस समय वो वहां नहीं थी, किसी सोच में डूबी थी या फिर कहीं और विचरण कर रही थी!
"कैसे हो बेटा?" पूछा बाबा चंदन ने,
"आशीर्वाद है आपका!" कहा मैंने,
"कब आये?" पूछा उन्होंने,
"परसों!" कहा मैंने,
"अच्छा, और श्री महाराज कैसे हैं?" पूछा उन्होंने,
"वे भी कुशल से हैं!" कहा मैंने,
"और शर्मा जी, आप कैसे हैं!" पूछा बाबा ने,
"एकदम बढ़िया!" बोले वो,
"अच्छी बात है! घर एम सब कुशल-मंगल?" पूछा बाबा ने,
"आपका आशीर्वाद है!" बोले शर्मा जी,
"बाबा?" बोला मैं,
"हाँ, बोलो?" बोले बाबा चंदन,
"आपने याद किया था!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"बताइये, मेरे लायक सेवा बताइये!" कहा मैंने,
"मत्ती?" बोले बाबा चंदन,
"जी?" वो शांत सी स्त्री बोली, चौंक कर!
"जा, गुंजन को बुला?" बोले वो,
"अच्छा जी!" बोली वो स्त्री,
और अपने एक घुटने पर हाथ रख, चल पड़ी बाहर, उस स्त्री के पाँव में कोई विकार था, इसीलिए उसको सहारा लेना पड़ता था अपने हाथ का, मुझे बहुत दुःख होता है किसी अपंग को देख कर, मुझ से देखा ही नहीं जाता वो, उसकी दशा को, खुद पर ही महसूस करने लग जाता हूँ मैं, बड़ा ही दुखदायी होता है ऐसा करना ही, सोचना ही, तो सोचिये, जिस पर गुजर रही है, उसका क्या हाल होता होगा! मैं सदैव, अपंगों का, नेत्रहीनों का, मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों का आदर किया करता हूँ, उनकी हरसम्भव मदद हो, यही प्रयास किया करता हूँ! जानता हूँ, कोई किसी का दुःख वहन नहीं करता! कोई भी नहीं! यहां तक कि अपनी स्वयं की संतान भी नहीं! लेकिन मदद के लिए बढ़ाया गया हाथ, कोई देखे न देखे, वो कभी न पलक मारने वाला तो देखता ही है! बस! और क्या चाहिए!
वो स्त्री, ले आई थी उस महिला को!
"गुंजन, आ बैठ!" बोले बाबा,
बैठ गयी, नीचे ही, आँखें नीचे किये हुए, मैंने उसको नज़रों में भरा, वो सुंदर थी, बहुत सुंदर, नैन-नक़्श, तीखे और नश्तरी थे, रंग गोरा और देह भी पुष्ट थी, गले की हाँसुल-अस्थियां, नज़र नहीं आ रही थीं, गरदन, चौड़ी और भारी थी, कंधे भी मज़बूत थे उसके, केश काले और माथे, कनपटियों पर, सुनहरी आभा थी उनमे! कद में, करीब पांच फ़ीट तीन या चार इंच होगी, उसके हाथ, कलाइयां, मांसल और पुष्ट थे, कुल मिलाकर, तंदुरुस्त थी उसकी सम्पूर्ण देह! उसने, उस समय, काली सलवार और काला ही सूट पहना था, कोई भड़काऊ भी नहीं था, सूती और सभ्रांत कपड़े थे, काले रंग के वस्त्रों के कारण उसका रंग और निखर कर बाहर आ रहा था! मुझे तो अच्छी लगी वो गुंजन, जैसा नाम था, वैसी नहीं लगी, वो तो शांतचित्त सी, गंभीर, खोयी खोयी सी लगी, अपने सीधे हाथ के अंगूठे से, बाएं हाथ के अंजुल में, कुरेद रही थी!
"ये है गुंजन!" बोले बाबा,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"सत्ताईस बरस में चल रही है!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"ब्याह हुआ नहीं अभी तक!" बोले वो,
"हुआ नहीं? नहीं समझा मैं?" पूछा मैंने,
"समझाता हूँ!" बोले वो,
बाबा ने टेक ली, पीछे दीवार की, पाँव सीधे किये अपने!
"क्या ये लड़की, आपको, पागल दिखती है?" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"पागल?" मेरे मुंह से निकला!
"हाँ, पागल!" बोले वो,
"मैं, समझा नहीं?" कहा मैंने,
"ओहो! अरे ये तो इलाज भी करवा के आई है! पागलखाने की नौबत आ गयी थी! इसको अमर ही डालते अगर मेरे पास तक नहीं आती तो!" बोले वो,
और वो गुंजन, एकदम से गंभीर हो गयी! जैसे अंदर ही अंदर, कांपने लगी हो, मुझे तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा था, किस मायने में पागल? कैसे कह रहे हैं बाबा इस गुंजन को पागल?
"नहीं आ रहा यक़ीन?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"एक काम करो! ओ गुंजन?" बोले बाबा उस लड़की से,
लड़की ने ऊपर, चेहरा ही न उठाया अपना, वो जैसे डर रही थी, बहुत ही ज़्यादा!
"एक काम करो, इसे बाहर ले जाओ, ज़रा बातें करो इस से, फिर समझ जाओगे!" बोले वो,
क्या समझ जाऊँगा? अब, बाहर क्यों? यहीं क्यों नहीं?
"ये यहां बातें नहीं करेगी, मेरे सामने नहीं करती!" बोले वो,
अच्छा! समझा, शायद, डरती है बाबा से, शायद, डांट-झाड़ पड़ी हो बाबा से उसको कभी! ऐसा हो सकता है! तो मैंने सोचा, कि चलो, देखते हैं, इस से बातें कर कर! देखते हैं, क्या पता चलता है! कैसे है ये पागल? क्यों बाबा इसे पागल कह रहे हैं!
मैं खड़ा हुआ,
"आओ गुंजन!" कहा मैंने,
गुंजन, न हुई खड़ी!
"जा! गुंजन? जा बेटी?" बोले बाबा, सिब्बा!
गुंजन, सर नीचे किये ही, उठी, हो गयी खड़ी, कपड़े ठीक किया अपने उसने, चुनरी ठीक की, कन्धों से, गले तक खींची!
"आओ!" कहा मैंने,
और मैं ये कह, आगे चल पड़ा, वो, सर नीचे किये, आ गयी बाहर तक, मैंने जूते पहने, और उसने अपनी चप्पलें, हो गयी खड़ी,
"आओ गुंजन!" कहा मैंने,
शर्मा जी भी उठ आये थे, मुझे बताया उन्होंने कि वो कमरे में जा रहे हैं, वहीँ मिलेंगे वापसी में, मैंने भी हाँ ही कही, और मैं सीढ़ियां उतर नीचे आ गया, पीछे देखा, वो भी उतर रही थी सीढ़ियां, मैं चल पड़ा आगे, मुझे बाहर जाना था, कहीं बैठता उसके साथ तो थोड़ा खुल जाती, और मैं जायज़ा भी ले लेता कि भला वो पागल कैसे है!
मैं चला आया भार, वो अपने दोनों हाथ बांधे, चली आ रही थी, सर नीचे किये, मैंने अभी तक, उसका चेहरा भी न देखा था ठीक तरह से, चेहरा उठाती ही नहीं थी वो!
मैं आगे आगे, और वो पीछे पीछे! थोड़ा दूर आ गया मैं, सुबह जहां बैठे थे, वहां तक ले आया, वो आती रही, मैंने रुमाल बिछाया, और बैठ गया, उतार दिए जूते अपने, और रख दिए एक तरफ! वो आई, और वहीँ खड़ी हो गयी,
"आओ?" कहा मैंने,
उसने चप्पलें उतारीं और आ गयी उधर, थोड़ा दूर खड़ी हो गयी, चेहरा घुमा कर,
"इधर तो बैठो?" कहा मैंने,
वी बैठी, मेरी तरफ कमर करते हुए,
"सामने देखो, मुझे, मेरी तरफ हो जाओ!" बोला मैं,
सुना तो उसने, लेकिन हुई नहीं!
"ऐसे कैसे बात बनेगी? सामने हो कर बैठो?" कहा मैंने,
नहीं बैठी, हिली भी नहीं!
"तुम बैठोगी या चलें वापिस फिर?" कहा मैंने,
अब भी कोई जवाब नहीं!
टाले जाए मेरे सवाल!
अब मुझे उठी खीझ!
"गुंजन?" मैं ज़रा तेज बोला!
"हूँ" बोली वो,
चलो, हूँ तो बोली कम से कम!
"सामने तो हो जाओ?" कहा मैंने,
अब वो पलटी! और चेहरा नीचे किये हुए ही, बैठ गयी!
"आँखें तो मिलाओ?" कहा मैंने,
और तब! तब उसने अपना चेहरा उठाया धीरे धीरे ऊपर!
वो आँखें!
भूरी-हरी सी आँखें! गोल-गोल, बड़ी बड़ी सी आँखें!
चेहरे पर कोई भाव नहीं! सबकुछ उन आँखों में समाया हुआ!
एक बार को तो मैंने भी थूक गटक लिया था! कोई दिन में ऐसे देख ले उसे तो सच कहता हूँ, बुखार मार जाए उसे! भूल न पाये कभी! ऐसी आँखें थीं उसकी! अपलक, मुझे ही देखे जाए वो! लगे जैसे कि उसमे, कोई और है अंदर, जो आँखों के रास्ते उसकी, बाहर झाँक रहा है! लेकिन बेहद सुंदर आँखें थीं उसकी! जैसे किसी चित्रकार ने बड़ी ही मेहनत से बनाई हों! उसकी पलकें, ऐसी सुंदर थीं, जैसे रजनीगंधा के फूलों की फलक हुआ करती है! गोल गोल, घूमी हुईं! आँखों पर उसकी, उन पलकों की गोलाइयाँ ही टकराती थीं! ऐसे घुमावदार पलकों के बाल थे उसके! उसकी सुंदर भौंहें! चेहरे पर सुंदरता का जैसे ताज पहना रही हों! पूरे घुमाव वाली, जैसे चंद्राकार कोई तलवार! उसके सुर्ख़ लाल होंठ! जैसे सुबह की ओंस में, गुलाब की कोई जवान सी कली भीग जाया करती है, ठीक ऐसा रंग! ऐसे ही स्निग्ध! उसकी सुंदर सी नाक! एक समान ही नथुने! नथुनों पर, रक्त से, जैसे अंदर से, ही, कोई महीन सी लकीरें खींची हों! जो नाक को, उसके उन नथुनों से अलग कर रही थीं! उसके एक नथुने में पड़ी वो लौंग, सोने की, चमक रही थी, छोटी सी, लेकिन उसकी नाक को ख़ास बना रही थी! उसे ऊपर के होंठों में पड़ा, वो गड्ढा, जैसे सेमल के फूल में जब फलक पड़ती है तो वो चिर जाता है, ठीक ऐसा ही गड्ढा बना जाया करता है! ठीक वैसा ही गड्ढा! उसके दोनों होंठों के किनारे, जैसे चम्पा के फूल में, हल्का सा पीला रंग जब सफेदी से अलग होता है वैसे ही किनारे! फ़लकदार चिबुक! जैसे कि पानी की एक बूँद भी उस पर गिरे, तो भी नीचे न गिरने पाये! ऐसी चिबुक! उसमे, स्त्री-सौंदर्य कूट कूट के भरा था! मैं उसके सौंदर्य-पाश से बाहर आया! और देखा आसपास! फिर से नज़रें उसकी आँखों से टिका दीं, वो अभी तक मुझे ही देख रही थी!
"गुंजन नाम है तुम्हारा?" पूछा मैंने,
मैंने जानबूझकर पूछा था ये सवाल!
उसने सर हिलाकर, न जतलाया!
"नहीं?" पूछा मैंने,
उसने फिर से न में सर हिलाया!
"फिर क्या नाम है?" पूछा मैंने,
"गोमती!" बोली वो,
"बड़ा ही अच्छा नाम है!" कहा मैंने,
वो शांत सी बैठी रही! अपलक देखती रही मुझे ही!
"तो फिर ये गुंजन?'' पूछा मैंने,
उसने सर फिर से हिलाया न में! लेकिन बोली कुछ नहीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बाबा ने रखा!" बोली तपाक से वो!
आवाज़ थोड़ी भारी सी थी उसकी, उसमे ठहराव सा था, शायद ये उसकी परिस्थितियों के कारणस्वरूप हुई हो, इसमें कोई नयी बात नहीं थी!
"तुम बाबा के पास कब से हो?" पूछा मैंने,
"एक साल से!" बोली वो,
अब सहज हो गयी थी वो! और ये मेरे लिए अच्छी बात थी!
"गाँव कहाँ है तुम्हारा?" पूछा मैंने,
"उधर!" बोली वो, इशारा करते हुए, जंगल की तरफ!
अजीब सा जवाब था उसका, खैर, कोई बात नहीं! उसका गाँव था तो!
"घर में कौन कौन हैं?" पूछा मैंने,
उसके अनुसार, एक बहन, जिसका ब्याह हो गया है, एक भाई, जो शहर में नौकरी करता है, पिता जो कि खेती-बाड़ी कर लेते हैं अपने भाई के संग, माँ है नहीं, दो बरस हुए, गुजर गयी माँ उसकी,
"घर नहीं जातीं?" पूछा मैंने,
"ना!" बोली वो,
"याद नहीं आती?" पूछा मैंने,
"आती है!" बोली वो,
"तो जातीं क्यों नहीं?" पूछा मैंने,
"कोई नहीं चाहता!" बोली वो,
कोई, यानि कोई भी घर का सदस्य, उसको जैसे छोड़ दिया गया हो उसके हाल पर, अब समझ सकता था मैं, कि क्या हालात रहे होंगे उसके साथ, घरवालों के साथ, जो ऐसा हुआ,
"तैतिल!" वो अचानक से बोली!
और आँखें बंद कर लीं अपनी! जैसे कहीं खो गयी हो! हल्की हल्की से मुस्कराहट आई होंठों पर उसके! मैं उसको, ध्यान से देखे जा रहा था! ये बड़ा ही अजीब सा था! बड़ा ही अजीब!
उसने तैतिल कहा था! अब ये तैतिल क्या है, पता नहीं, ज्योतिष में तो एक करण के भाग को कहते हैं, लेकिन उसका, इस लड़की से क्या संबंध?
"मृणा!" उसने फिर से एक नया शब्द बोला!
तैतिल और मृणा!
अब ये क्या हो सकता था? मैं तो जैसे, डूब ही गया था उस सवाल में! अंदर ही अंदर जवाब ढूँढूँ, और आँखों से, उसके हाव-भाव देखूं! उन पर, ध्यान रखूं!
अचानक से, आँखें खोलीं उसने! मुझे घूर के देखा! फिर मुस्कुरा गयी!
"गोमती नाम है मेरा!" बोली वो,
"हाँ, बताया तुमने!" कहा मैंने,
"कब? कब बताया मैंने?" बोली वो,
मैं बड़ा हैरान! ये सब क्या है? कहीं विस्मृति-दोष तो नहीं इसे? अभी बताया और अभी, याद भी नहीं! ऐसा कैसे सम्भव है?
"अभी तो बताया?" कहा मैंने,
"और तुम कौन हो?" पूछा उसने मुझसे, इस बार गुस्से से!
"मैं याद नहीं तुम्हें?" पूछा मैंने,
"कौन हो तुम?" उसने चीख के पूछा,
पीछे हट गयी थी थोड़ा, जैसे अभी मुझ पर चांटे बरसाएगी वो!
"बाबा सिब्बा? मत्ती?" कहा मैंने,
"अच्छा अच्छा! हाँ, समझ गयी!" बोली वो,
और अब खिसक कर आगे आ गयी!
"गोमती?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"अभी तुमने दो नाम लिए थे, कौन हैं वो?" पूछा मैंने,
"कौन से नाम?" पूछा उसने,
"तैतिल और मृणा!" कहा मैंने,
"क्या? मैंने कब लिए थे ये नाम?" पूछा उसने,
ओहो! ये तो मेरा ही पहला क़दम लगता है पागलपन की तरफ! इसे सच में ही कोई मानसिक-रोग है! यही निश्चित किया मैंने! यही कारण था, जो स्पष्ट था!
"वहां, एक सांप है!": बोली इशारा करके, एक पत्थर की तरफ!
"अच्छा? कैसा?" पूछा मैंने,
"पीले रंग का!" बोली वो,
"कितना बड़ा?" पूछा मैंने,
"मेरे बराबर!" बोली वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"लेकिन मुझे तो दिख नहीं रहा?" कहा मैंने,
"मुझे तो दीखते हैं सांप!" बोली वो,
"अच्छा? देखते हैं!" कहा मैंने,
"जाओ, देख लो!" बोली वो,
मैं उठा, जूते पहने, और चल पड़ा उधर! जैसे ही पत्थर के पीछे गया! वहां सच में ही एक सांप था! पीले रंग का! गेंहुअन सांप था वो! मोटा और भारी, कम से कम पांच फ़ीट का! इतना मोटा और बड़ा, गेंहुअन सांप, मैंने कभी नहीं देखा था!
अब मेरे होश उड़े!
ऐसा कैसे?
कैसे दिखा इसको?
क्या पता, देख लिया हो जाते हुए?
हो सकता है ऐसा ही हो!
मैं वापिस आया, बैठा, जूते उतारे!
"तुमने देख लिया होगा?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"उधर देखो!" बोली वो,
पीछे इशारा किया था उसने, मैंने वहीँ देखा, पत्थर पड़े थे वहाँ!
"वहाँ क्या है?" पूछा मैंने,
"नाग!" बोली वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ! बहुत बड़ा!" बोली वो,
मैं फिर से उठा! पहने जूते, और चला उधर!
मेरे होश उड़े! आँखें, एक होते होते बचीं!
सच में, वहां एक बड़ा नाग था! कुंडली मारे बैठा था वो! अब तो खोपड़ा हुआ भिन्नौट! ये क्या है? इसे कैसे दीख रहे हैं ये सांप?
लौटा वापिस! बैठा,
"है न?" पूछा उसने,
"हाँ, है!" कहा मैंने,
"यहां बहुत सारे हैं! हर तरफ! हर तरफ!" बोली वो,
मैंने तो तीन सौ साठ अंशों तक आँखें घुमा डालीं! उसका मतलब था, हर तरफ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये लड़की या तो किसी की चपेट में थी या फिर, कोई इसके साथ था, हर पल, हर जगह! लेकिन, चपेट थी, तो वो क्या थी? कोई साथ में था, तो वो कौन था? इसको, पत्थरों के पीछे बैठे सर्प, कैसे दिखाई दे रहे थे? फिर एक और बात, अगर कोई चपेट होती या कोई अगर साथ होता, तो अवश्य ही बाबा चंदन को भान हो जाता, ऐसा भी नहीं हुआ? अब इस से आगे की कहानी मुझे बाबा चंदन ही बता सकते थे, ये उनके पास, एक वर्ष से थी, तो वो अवश्य ही कुछ जानते होंगे, जो मुझे अभी तक नहीं पता था! और ये गुंजन, एक तरफ को सर घुमा, देखे जा रही थी, उस तरफ ही, जहां उसने अपना गाँव होना बताया था!
"गोमती?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
लेकिन मुझे नहीं देखा उसने, वो घूरती ही रही उधर, जंगल में, पहाड़ियों को, या फिर उनके पार ही!
"वापिस चलें?" पूछा मैंने,
"और प्रश्न नहीं करने?" पूछा उसने,
अब अपना सर घुमाते हुए, मुझ से नज़रें मिलाते हुए! इस बार, चेहरे पर, भाव थे उसके, एक अलग से, विजयी होने के भाव, जैसे वो मुझे भौंचक्का कर, जैसे विजयी हुई हो!
"करने हैं प्रश्न, कई हैं!" बोला मैंने,
"तो पूछो?" बोली वो,
"सच बताओगी?' कहा मैंने,
"झूठ नहीं बोलती!" बोली वो,
"फिर भी, सच ही सुनना चाहता हूँ!" कहा मैंने,
"सच ही बोल रही हूँ!" बोली वो,
"एक बात बताओ?" कहा मैंने,
"पूछो?" बोली वो,
"तुम्हें ये सर्प कब से दिख रहे हैं?" पूछा मैंने,
"दो वर्षों से!" बोली वो,
"और दो वर्ष पहले, तुम कहाँ थीं?" पूछा मैंने,
"अपने गाँव में!" बोली वो,
"तो क्या ऐसा कुछ हुआ था जिसके बाद से, ये सर्प दिखने लगे तुम्हें?" पूछा मैंने,
"हम्म, मुझे बुखार हुआ था, नौ दिन तक!" बोली वो,
"बुखार कैसे हुआ था?" पूछा मैंने,
दरअसल मैं कुछ कारण जानना चाहता था, कि, शायद, कुछ पता चल सके! अब उसका उत्तर ही मुझे ये समझाये!
"वो तो पता नहीं!" बोली वो,
नहीं पता चल सका कुछ, उसने उत्तर ही ऐसा दिया था!
"ये तैतिल और मृणा कौन हैं?" पूछा मैंने,
वो तो जैसे, इस सवाल से भड़क गयी! चेहरा तमतमा गया उसका! पीछे खिसक गयी वो! मुझे देखती रही, नथुने फुलाये हुए! और फिर से, चेहरा घुमा लिया अपना! जहां पहले देख रही थी, वहीँ देखने लगी!
"गोमती?" कहा मैंने, कुछ धीमे से!
कोई जवाब नहीं दिया उसने, बस सुनती ही रही, मैंने दो या तीन बार उसे, उसके नाम से बुलाया था!
"तुम्हें, नहीं मालूम?" पूछा मैंने,
अब सामने देखा मुझे उसने, नथुने सामान्य हो गए थे अब उसके! अर्थात, अब गुस्से में नहीं थी वो!
"नहीं!" बोली वो,
"तो तुमने कैसे नाम लिया था इनका?" पूछा मैंने,
"कब लिया था?" पूछा उसने,
"कुछ देर पहले ही तो?" कहा मैंने,
"कहीं कुछ और तो नहीं सुना?'' पूछा उसने,
"नहीं, यही नाम थे! कुछ और नहीं!" कहा मैंने,
"एक बात बताऊँ?" बोली वो,
"हाँ, क्यों नहीं!" कहा मैंने,
"मुझे नहीं पता ये कौन हैं, कोई हैं ही या नहीं, हाँ, अब बताती हूँ, मुझे ये नाम सिर्फ, ऐसे ही सुनने को मिलते हैं कि मैंने ये नाम लिए, अब कब लिए, ये मुझे भी नहीं पता, मैं नहीं जानती ये कौन से नाम हैं!" बोली वो,
वो सच कह रही थी, मुझे नहीं लगा कि उसने जो भी कुछ कहा था, या कुबूला था, वो झूठ कहा था, उसके भाव ऐसे नहीं थे, झूठ बोलने में, इंसान के भाव कुछ अलग ही हो जाया करते हैं, जो कि यहां हरगिज़ नहीं बदले थे, मुझे यक़ीन करना ही था उस पर!
कुछ देर हम ऐसे ही बैठे रहे, मैं किसी भी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया! हाँ, इतना तो ज़रूर कि, कुछ ऐसा ज़रूर हो रहा था जिसके बारे में गोमती को कुछ पता नहीं था, हाँ, मैं उसको अब पागल नहीं कह सकता था, उसके कुछ हाव-भाव अलग से ज़रूर होते थे, कुछ विस्मृति-दोष भी था और इस से उसको पागल क़रार देना, खुद का पागलपन ही ज़ाहिर करता!
"आओ, चलते हैं वापिस गोमती?" कहा मैंने,
"अभी रुको! वहां तक चलो ना? वहां नदी है एक!" बोली वो,
"तुम्हें कैसे पता?" पूछा मैंने,
"अब ये न पूछो! चलो ना?" बोली वो,
ज़िद सी पकड़ ली उसने, बार बार ज़िद करे जाने की, चलो, कुछ पता चले, यही सोच कर, मैंने भी हाँ कर दी, उठा, जूते पहने और चल पड़ा उसके साथ साथ! वो मेरे से क़दम मिला कर चलने लगी थी, हालांकि मैं कुछ तेज चला करता हूँ, लेकिन, उसे कोई परेशानी नहीं हुई!
और इस तरह, नदी तक आ गए हम! पानी कम ही था उसमे, और जो था भी, तो अब गंदला हो चुका था, कहीं कहीं साफ़ पानी ज़रूर था, वहीँ कुछ जल-पक्षी डेरा जमाये हुए बैठे थे!
"ऐसी एक नदी है गाँव में मेरे!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उसमे पानी रहता है!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"गाँव से कितना दूर?" पूछा मैंने,
"ज़्यादा दूर नहीं है!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"बहुत चौड़ी नदी है वो!" बोली वो, हाथों से इशारा करते हुए!
"अच्छा!" कहा मैंने,
"यहां बैठ जाओ!" बोली वो
और बैठ गयी नीचे, मैं भी साथ ही बैठ गया उसके, पीछे पेड़ थे, छाँव आ रही थी उनकी, हवा शांत थी, कुछ कुछ छोटी छोटी से लहरें, पानी में तरंग सी बना देती थीं हवा के चलने से!
"वहाँ, वहाँ है मेरा गाँव!" बोली वो, इशारा करते हुए, नदी के पार, पहाड़ियों के पार!
"कितनी दूर है?" पूछा मैंने,
"बहुत दूर!" बोली वो,
"याद आती है गाँव की?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"जाना चाहोगी?" पूछा मैंने,
"कोई नहीं ले जाता!" बोली वो,
"मैं ले जाऊं तो चलोगी?" पूछा मैंने,
अब उसने देखा मुझे, एक अनजाने से भाव से! मेरी भौंह में अटका, एक फूस का छोटा सा टुकड़ा हटा दिया उसने, अब वो सहज होने लगी थी मेरे साथ, मैं यही तो चाहता था, तभी उसकी कुछ मदद सम्भव भी थी! वो कुछ बताये, कुछ सुनाये, तो मैं जान सकता था उसकी कुछ कहानी, जिस से, शायद वो खुद ही अनजान थी अभी तक!
"गाँव में कोई नहीं पहचानेगा!" बोली वो, मुस्कुराते हुए!
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"बुरा नहीं लगेगा?" पूछा उसने,
"वो क्यों लगेगा?" पूछा मैंने,
"कोई बात नहीं करेगा!" बोली वो,
"ना करे!" कहा मैंने,
"तब भी बुरा नहीं लगेगा?" पूछा उसने,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
अब वो हंस पड़ी! खिलखिला कर हंसी! पहली बार उसको, ऐसे हँसते हुए देखा मैंने, मुझे भी हंसना पड़ा उसके साथ, जबकि कोई बात थी ही नहीं हंसने की!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हँसते हँसते वो, फिर से संजीदा हो गयी! मेरे होंठ भी सिकुड़ गए! मुझे बार बार यही लग रहा था की वो एक नहीं, दो नहीं बल्कि तीन तीन जीवन एक साथ जिए जा रही है! एक, उसका खुद का, जिसमे उसके पास उसकी देह थी! दूसरा, वो, जिसमे वो कुछ भी कहे जाती थी, बिना किसी डर के, बिना किसी प्रभाव के और बिना कोई चिंता किये! और तीसरा, जिसे शायद वो स्वयं ही नहीं जानती थी, ये तीसरा जीवन ही उसको, एक सरल से शब्द से जोड़ देता था, जिसमे पागल कहा जाता है! कहना तो बहुत सरल है, परन्तु पारिभाषित करना उसे, उतना ही कठिन! पागलपन के क्या मायने हों? इसके मायने तो आज का उच्च-आधुनिक-विज्ञान भी तय नहीं कर पाया है! ऐसे बहुत से सूक्ष्म रहस्य अभी भी विद्यमान हैं, जो इस विज्ञान के क्षेत्र से बाहर हैं! और फिर, विज्ञान है क्या? विज्ञान कारण का द्योतक है, अर्थात किसी कार्य का क्या कारण है, यही पारिभाषित करना ही विज्ञान की कसौटी है! क्या नयी खोजें हुई हैं? सोचें और ग़ौर करें, तो कुछ नहीं! वे खोजें तो इस प्रकृति में सदैव से ही विद्यमान रही हैं, बस, उनको ढूंढ लिया गया है! ऐसे तो न जाने, कितनी ही खोज-भंडार अभी भी हमारी आँखों से ओझल ही हैं! सागर का जल, पीने योग्य नहीं, परन्तु सागर से उत्पन्न मेघों के जल से शुद्ध भी कुछ नहीं! उसमे कहाँ खारापन? मीठा जल, खारा जल सभी का वाष्पीकरण हुआ करता है, परन्तु मेह में सभी जल, शुद्ध क्यों? क्यों ओंस का जल, सबसे शुद्ध है? क्या कारण है? ऐसे बहुत से कारण हैं जिनका स्पष्टीकरण अभी विज्ञान के पास नहीं! हमने, खूब मेहनत और लगन से क्या क्या बढ़िया दवाएं बना लीं! एक एक दुःसाध्य बीमारी का नाश करते चले गए! परन्तु हुआ क्या? एक नष्ट हुई, उसका दूसरा परिशुद्ध रूप सामने आता चला गया! इसका कारण? प्रकृति में धन एवं ऋण, ये समान अवस्था में विद्यमान हों, तभी सृष्टि थमी रह सकती है! क्या रक्त, लाल ही होता है? या प्रकाश के उन कणों को, सोखते ही लाल दीख पड़ता है! और फिर स्वयं प्रकृति के नियम भी बदलते रहे हैं! ये समय, काल-विशेष एवं स्थान-विशेष के कारण बदल जाया करते हैं! जैसे कि गुरुत्वबल!
तो मैं कैसे इस गोमती को पागल कह दूँ? मेरे पास अभी तक ऐसा कोई ठोस प्रमाण नहीं था, हाँ, कुछ व्यवहारिक त्रुटियाँ थीं, लेकिन उनका स्पष्टीकरण सरल था, समझा जा सकता था! तो मैं उसके साथ, उस नदी किनारे बैठा हुआ था, साढ़े चार का समय हो चला था और अब धूप अपनी जवानी त्याग, प्रौढ़ावस्था की तरफ बढ़ रही थी!
"चले गोमती?" कहा मैंने,
"थक गए?" पूछा उसने,
"नहीं तो!" कहा मैंने,
"वहां जी घुटता है मेरा!" बोली वो,
स्पष्ट बोली थी वो! मैंने जब उसको देखा था वहाँ, तो वो मुझे असहज ही लगी थी! जैसे, ज़बरन उसे साथ में रखा जा रहा हो, उसका तो जैसे, जीवन, नज़र-बंद कर दिया गया था! वो बाबा के भय से डरती थी, और फिर वो, क्रोधी स्वभाव वाली महिला, वो देखने मात्र से ही मुझे तो क्रूर सी लगती थी!
"ये मत्ती और दूसरी महिला कौन हैं?" पूछा मैंने,
"ये इलाहबाद की हैं, बाबा की जान-पहचान वाली!" बोली वो,
"देखने में तो मुझे स्वांगी सी लगती हैं!" कहा मैंने,
उसने चौंक के मुझे देखा! शायद ये देख कर, कि मैंने कितनी सरलता से अपनी राय दे दी थी उनके विषय में! कैसे विरोध जता दिया था!
"तुम्हें पसंद नहीं न वो महिलाएं?: पूछा मैंने,
"बिलकुल नहीं!" बोले वो,
"ठीक है, अब नहीं होने दूंगा तुम्हें परेशान!" कहा मैंने,
"बाबा नहीं मानेंगे!" बोली वो,
"कैसे नहीं मानेंगे!" कहा मैंने,
"कैसे मानेंगे?" पूछा उसने,
"मानना ही होगा!" कहा मैंने,
"बाबा के डेरे में एक है, लालिया नाम का, बहुत ही गंदा और ज़ाहिल इंसान है वो!" बोली वो,
उसका इशारा मैं समझ गया था! ये बेचारी अबला थी, अकेली, कोई संग में नहीं, कोई हिमायत में नहीं, उसको देखता होगा ये लालिया, एक सरल सा शिकार समझ कर! ऐसा तो होता रहा है, न जाने कितनी ही बेचारी शोषित होकर, कुछ नहीं कह पातीं, कहें भी किस से? कौन करेगा यक़ीन! और फिर वो जाएंगी भी कहाँ? यहां तो न इस गोमती को उसके घर के लोग रखते थे और न वो यहां ही सुरक्षित थी! मुझ पर यक़ीन करती जा रही थी, यही कुछ कम नहीं था मेरे लिए तो!
"कोई गलत हरकत की उसने?" पूछा मैंने,
"कई बार" बोली वो,
"बस बस!" कहा मैंने,
खून खौल उठा मेरा! साला, सामने होता मेरे तो ऐसा हाल करता उसका कि ज़िंदगी भर, किसी स्त्री की तरफ देखता भी नहीं, उसकी अपनी स्त्री ही रोज उसे दुत्कार देती!
"अब चिंता न करो तुम!" कहा मैंने,
कुछ न बोली, एक पेड़ को देखने लगी!
"कहाँ है ये लालिया?" पूछा मैंने,
"बाबा चंदन के डेरे पर!" बोली वो,
"कभी बाबा से नहीं बताया?" पूछा मैंने,
"बताया था" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं हुआ, लालिया ने माफ़ी मांग ली थी!" बोली वो,
एक बात जो अब मैंने गौर की थी वो ये, कि अब वो सामान्य हो चली थी! वो शायद किसी से बातें नहीं किया करती थी, फलस्वरूप उसके मन में भय अपने कांटे बोये जा रहा था, स्त्री को अपनी सुरक्षा की सबसे अधिक चिंता होती है, ये उसके कारण ही था, इस गोमती के साथ!
"आओ, चलें?" बोला मैं,
"चलो!" बोली वो,
अपने कपड़े झाड़े उसने, और चल पड़ी साथ साथ मेरे! हम बातें करते हुए, आगे बढ़ते रहे, और करीब आधे घंटे के बाद, हम उस स्थान में आ गए!
"आओ, मेरे साथ आओ!" बोला मैं,
वो चौंकी ज़रूर, लेकिन चल पड़ी साथ मेरे!
मैं ले आया कमरे में उसको, तभी एक महिला ने देख लिया उसे, तेज क़दमों से, चली आई मेरे कमरे के बाहर! मैंने गोमती को अंदर बिठा लिया था तब तक! मैं आया बाहर फिर,
"हाँ? क्या बात है?" पूछा उस महिला से मैंने,
"वो लड़की, भेज दो उसको!" बोली वो,
"भेज दूंगा, तुम जाओ!" कहा मैंने,
"बाबा पूछेंगे?" बोली वो,
"कह देना, मेरे साथ है!" कहा मैंने,
"नहीं मानेंगे!" बोली उस गोमती को देखते हुए,
"अरे जा ना? बोल दियो?" कहा मैंने,
"गोमती?" आवाज़ दी उस महिला ने,
"तूने सुना नहीं? चल? जा यहां से? मैं ले आऊंगा! जा अब?" कहा मैंने,
बड़े ही अजीब तरीके से, लौटी वो!
मैं अंदर आ गया, जूते उतारे और पानी पिया!
"पानी?" पूछा गोमती से,
"अभी नहीं!" बोली वो,
तभी वो एक दूसरी महिला को ले आई! चढ़ आयीं दरवाज़े तक!
"गुंजन? आ? चल?" बोली दूसरी वाली तब!
"क्या है?" पूछा मैंने,
"इसको भेजो?" बोली वो,
"तू जा? चल? मैं छोड़ आऊंगा!" कहा मैंने,
न गयीं! वहीँ खड़ी रही! गोमती को देखती रहीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब वे औरतें बनावें मुंह और मुझे आवे गुस्सा! एक बार बर्दाश्त किया, दो बार, फिर तो हद ही हो गयी! जाते जाते कुछ टेढ़ा-मेढ़ा मुंह बना, कुछ बकते हुए, वो कुछ अनाप-शनाप बोलने लगीं! अब आया मुझे थोड़ा गुस्सा!
"ए? ए चिलम?" बोला मैं चीख कर,
दोनों ने देखा मुझे पलट कर!
"रुको ज़रा!" कहा मैंने,
जूते पहने और चला बाहर,
"सुनो तुम दोनों, अब अगर, मैंने, तुम में से, किसी को भी इस लड़की का नाम लेते हुए, या इसके पास फटकते हुए भी देख लिया, तो ये सो सर पर, धनुष बनाया है न, ये पाँव में आ जाएगा, और सुन लो, अब, मेरे रहते हुए, इसका नाम भी मत लेना, नहीं तो ऐसा सबक सिखाऊंगा, कि रही-सही ज़िंदगी, खड़े-खड़े ही गुजर जायेगी, समझीं? अब यहां से बिना पीछे देखे, कुत्ते की तरह से भाग लो, रही बात बाबा की, तो कह दो, मैं नहीं भेज रहा उसे, बाकी बात मैं कर लूंगा! अब चेहरा करो सामने और हो जाओ यहां से फौरन रवाना!" कहा मैंने,
मेरी बात का सर हुआ उन पर, वे घबरा गयीं! मुझे तो पहले से ही वो निहायत ही, बद्तमीज़ और बे-सर-पैर वाली औरतें लग रही थीं, ऐसी औरतें, जो समाज में, औरतों की दुर्दशा का मुख्य कारण हुआ करती है! वो अब, ऐसे भागीं जैसे उन्होंने कोई डरावना दृश्य देख लिया हो!
लेकिन मैं, यहां भी नहीं रुका, मैं उनके पीछे पीछे चल पड़ा, मैं बात ही साफ़ करना चाहता था, इसीलिए सीधा, बाबा के पास चला आया! उनसे नमस्कार हुई और मैं, बिना बैठे ही उनसे बातें करने लगा!
"इन ढांढ़ों से बोलो, कि अब ये उस लड़की के पास भी न फटकें, और मेरे आड़े तो आएं ही नहीं, नहीं तो इनकी ज़ुबान खींच कर, इनके गले से बाँध दूंगा!" कहा मैंने,
बाबा ने फौरन ही मामला भांप लिया! वे जान गए थे कि मामला क्या हो सकता है! उन्होंने कोई ख़ास बात नहीं की, बल्कि उन औरतों को, जस का तस समझा दिया! ये मुझे पहले से ही पता था कि बाबा मान ही जाएंगे! सबसे बड़ी बात तो ये थी कि वो लड़की मेरे यहां थी, इसीलिए वे सब समझ गए थे!
"हाँ? सुन लिया? अब दूर रहना उस से, मेरे सामने आना मत और नज़रें मिलाने की बात तो दूर रही!" कहा मैंने,
वे औरतें, सच में ही घबरा गयी थीं! पासा उलट गया था, उनकी उम्मीद के हिसाब से, सबकुछ उल्टा ही हुआ था! अब उन पर, एक हिक़ारत की नज़र भरते हुए, मैं वापिस लौट आया!
वापिस आया तो गोमती थोड़ी चिंता में लग रही थी, लेकिन उस से बातें कर, उसका जी भी हल्का कर दिया और समझा ही दिया था उसे कि अब वो चिंता न करे, वो औरतें अब कुछ नहीं कहने वालीं उस से!
अब शर्मा जी को सारी बात सिलसिलेवार बतायी मैंने, अब तक क्या हुआ था इस गोमती के साथ, सब बता दिया, उन्होंने गौर से सुना और गोमती को ये ढांढस बंधाया कि अब चिंता करने की कोई बात नहीं है! न बाबा ही कुछ कहेंगे और न ही वे औरतें ही कुछ, उसे! रही बात लालिया की, तो वो अगर सामने आ गया, तो बिन पिटे रहे नहीं अब वो! ये सुन कर, गोमती का जी हल्का हुआ, अब उसे लग रहा था कि चलो कोई तो साथ है, कोई तो ऐसा है जिसने उसकी बात सुनी, उसी के ही तरीके से!
मैं गोमती के सतह करीब दो घंटे रहा, मुझे इन दो घंटों में, गाँव की एक सीधी-सादी, भोली लड़की का पता चला, वो सच में ही इस, आज की इस दुनिया से अनजान थी, वही कुछ जानती थी, जो शायद सखियों ने, माँ ने बताया था, इस से अधिक कुछ नहीं, उसे खुद ये नहीं पता था कि कोई पुरुष उसको किस दृष्टि से देख रहा है, और इसी वजह से उसको अपनी सुरक्षा का जो भान रहा करता था वो, बाद में आता था! मैंने गोमती के साथ ही भोजन किया, उसको भोजन करवाया, वो हंसी-ख़ुशी भोजन करती गयी! मैंने उसका विश्वास लगभग जीत ही लिया था! और ये, एक बहुत ही बड़ी बात थी! करीब पांच बजे, मैं गोमती को फिर से नदी की तरफ ले गया! हो न हो, वो नदी अवश्य ही उस पर कुछ प्रभाव डालती थी, और अब ये तो तय था कि उसकी उस कहानी का सिर उसके गाँव में ही था, गाँव में, उस नदी के पास! वो मेरे साथ ही बैठी थी, मैं छोटे छोटे पत्थर ले, उन्हें सामने फेंक रहा था, एक एक करके! उनके गिरने की आवाज़ बड़ी ही प्यारी लगती थी उस वक़्त!
"गोमती?'' कहा मैंने,
"हूँ?" बोली वो,
"गाँव में, तुम्हारे, एक, ऐसी ही नदी है?'' पूछा मैंने,
"हाँ, बड़ी है बहुत!" बोली वो,
"लोग उसमे नहाते-धोते भी हैं?'' पूछा मैंने,
"हाँ, हाँ!" बोली वो,
"अच्छा! इसका मतलब गाँव के लिए बेहद ज़रूरी है वो!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"क्या कभी ऐसा कुछ हुआ, उधर, जो तुम्हें अजीब लगता हो?" पूछा मैंने,
सीधा ही सवाल कर दिया था मैंने, देखें, क्या जवाब मिलता है!
''मुझे तो नहीं!" बोली वो,
"फिर किसे?'' पूछा मैंने,
"मेरी एक सहेली है, रुपी! उसे!" बोली वो,
मेरा तो बदन झन्नाया! न जाने क्यों, मुझे ऐसे ही किसी जवाब का इंतज़ार था! मुझे लग रहा था कि हो न हो, इस कहानी का संबंध, अवश्य ही उस नदी से है!
"क्या महसूस हुआ उसे?'' पूछा मैंने,
"उसे एक जगह, वहां, डर लगता था, बहुत!" बोली वो,
"कैसा डर?'' पूछा मैंने,
"जैसे कोई है वहां!" बोली वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"मुझे तो नहीं पता!" बोली वो,
"उसने कुछ बताया?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"वो क्या?'' पूछा मैंने,
"वो कहती थी, कोई है जो देखता रहता है हमें उधर!" बोली वो,
"तुमने कभी महसूस नहीं किया?" पूछा मैंने,
"नहीं!" कहा उसने,
"तो वो, वहाँ नहीं जाती थी?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"तुम, जाती थीं?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"क्या करने?" पूछा मैंने,
"देखने!" बोली वो,
"क्या देखने?" पूछा मैंने,
उसने मुझे देखा, हल्की सी मुस्कुराते हुए, फिर सामने देखने लगी, चुप हो गयी! मुझे उत्कंठा हुई! कुछ न कुछ तो है ज़रूर! ज़रूर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बताओ? क्या देखने?" पूछा मैंने,
नहीं बोले कुछ! मेरा तो गला सूखे! मुझे तो जैसे, ज़मीन में कहीं पानी का पता तो चला, लेकिन अब निशानदेही न हो! ऐसा हाल था मेरा!
"बताओ गोमती?" कहा मैंने,
"क्या?' बोली वो, पत्थर फेंकते हुए सामने!
"क्या देखने गयी थीं तुम वहाँ?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं! रहने दो!" बोली वो,
"नहीं गोमती! बताना होगा!" कहा मैंने,
"क्या करोगे?" पूछा उसने,
"तुम मुझ से कुछ छिपा रही हो न?" कहा मैंने,
"नहीं तो?" बोली वो, पत्थर फेंकते हुए,
"मुझे यही लग रहा है!" कहा मैंने,
उसने देखा मुझे, शांत भाव से, मुझे निहारा उसने, मेरी कमीज़ का, उड़सा हुआ कॉलर ठीक करते हुए देखा मुझे!
"कुछ न छिपाओ गोमती!" कहा मैंने,
कुछ नहीं बोली वो! पत्थर फेंकती रही सामने!
"छिपा रही हो न?" पूछा मैंने,
मैं तो जैसे, उसके पीछे ही पड़ गया था! बार बार एक ही सवाल से उसको कुरेद रहा था, ताकि, वो उफने और सच्चाई का कुछ अंश ज़ुबान के सहारे, होंठों तक चला आये!
"बताओ?" कहा मैंने,
"नहीं छिपा रही कुछ भी!" हँसते हुए बोली वो,
"मत बताओ! मत बताओ, रहो वैसी औरतों के साथ, रहो बाबा के आसरे पर, झेलो उस लालिया जैसे ज़ाहिल इंसानों की हरकतें! अब तुम्हारी मर्ज़ी!" कहा मैंने,
अब मैंने तेरह का नहीं, दहले का दांव खेला था, भले ही ईंट का दहला था, छह अंक तो ले ही आता, छह दूनी बारह! उसने गौर से मुझे देखा! मेरी तरफ घूमी! मैंने नज़रें हटा रखी थीं, हाँ, कनखियों से देख रहा था कि उसकी नज़रें थीं मुझ ही पर!
"मुझ पर यक़ीन है?" अचानक से पूछा उसने,
बड़ा ही ज़हीन सा सवाल पूछा था! कुरेदता हुआ!
"हाँ, क्यों नहीं गोमती?" कहा मैंने,
"मानोगे जो बताउंगी? करोगे यक़ीन?" बोली वो,
"हाँ? क्यों नहीं?" बोला मैं,
"लेकिन, किसी ने नहीं किया यक़ीन!" बोली वो,
"मुझे बताओ तो? मैं करूंगा यक़ीन!" कहा मैंने,
"मेरे सर पर हाथ रखो? खाओ क़सम?" बोली वो,
मैंने सर पर हाथ रखा उसके, खायी क़सम! उस वक़्त तो मैं कुछ भी कर सकता था, ये मामला आखिर है क्या, अब उसकी पहली परत उठने वाली थी! मुझे जैसे, अब निजात सी मिलने वाले थी, उस बोझ से, जिसे मैं, कंधे पर उठा ढोये जा रहा था, अब जैसे सांस आने को थी!
"एक बात और!" बोली वो,
"वो क्या? कोई शर्त?" पूछा मैंने,
"नहीं, बस ये, कि जितना मैं जानती हूँ, उतना ही बताउंगी, बता सकती हूँ!" बोली वो,
उसके इन शब्दों से मैं ये तो जान गया कि वो दिमाग़ से बेहद ज़हीन है! और शायद, उसको अभी तक समझा ही नहीं गया है, या फिर किसी ने उसकी कहानी पर यक़ीन ही नहीं किया आज तक! सिर्फ झूठ ही क़रार दिया होगा! इसीलिए, वो किनारा करती गयी होगी, इसीलिए, नहीं बात करती होगी किसी से भी! ये कारण मुझे उचित सा जान पड़ा!
"हमारे गाँव में एक नदी है, बहुत बड़ी, वैसे तो बरसाती है, लेकिन पानी हर साल, ज़्यादातर, बना ही रहता है उसमे, कभी नहीं सूखती वो, और हाँ, एक बता और, हमारे गाँव में, कभी बाढ़ नहीं आई आज तक! मैंने नहीं सुना आज तक किसी से भी!" बोली वो,
"ये अच्छी शुरुआत है गोमती! तुम्हारा धन्यवाद! मुझ पर यक़ीन करने के लिए! हाँ? तो बाढ़ कभी नहीं आई आज तक! अच्छा!" कहा मैंने,
"उस नदी के परली पार, जंगल है, कुछ पुराने से मंदिर हैं, कोई जाता नहीं, अब झाड़ियाँ, पेड़, कंटीले पेड़ आदि हैं उधर, वहां पहाड़ी है, कोई नहीं जाता, जंगली विडाल आदि रहते हैं वहां, रात तो क्या, दिन में भी कोई नहीं जाता वहां!" बोली वो,
"उस परली पार? है न?" कहा मैंने,
"हाँ, परली पार!" बोली वो, अपनी ऊँगली से इशारा करते हुए, सामने को झटकते हुए, कि परली पार!
"अच्छा, तो परली पार कोई गाँव आदि नहीं है?" पूछा मैंने,
"नहीं, कोई नहीं, दूर दूर तक कुछ नहीं, बस जंगल ही जंगल, आगे एक और नदी आती है, लेकिन वो नीचे है, घाटी में!" बोली वो,
"अच्छा, नीचे है वो बहुत!" कहा मैंने,
"हमारे गाँव में, मुश्किल से  चार सौ या पांच सौ लोग होंगे, खेती करते हैं धान की, कुछ लोग, शहर चले जाते हैं, कुछ धार्मिक-स्थान पर जाते हैं, मेहनत-मजूरी करने, मेरे बाबा भी खेती ही करते हैं, कोई और बड़ा नहीं है, एक भाई है जो देहरादून के पास, एक फैक्ट्री में काम करता है, वो वहीँ रहता है अपने परिवार के साथ, घर से कोई लेना-देना नहीं है उसे, चाचा हैं, एक लड़का है, वो खेती में मदद करता है, एक बेटी ब्याह दी है उन्होंने!" बोली वो,
वो मुझे अपने परिवार के बारे में बता रही थी, मैं एक एक शब्द, गौर से सुने जा रहा था, उनको रखे जा रहा था अपने दिमाग़ के भंडारगृह में, न जाने कब काम पड़ जाए किसी का!
"अच्छा गोमती!" कहा मैंने,
"एक बार की बात है, दिन के कोई चार बजे होंगे, उस दिन आकाश में बादल छाये थे, मैं अपनी सहेली, रुपी के संग, वापिस आ रही थी गाँव के लिए, हम कुछ सामान लेने गए थे जंगल, बारिश हो जाती तो पानी बढ़ जाता नदी का, और हम, अटक जाते, इसीलिए हम दौड़े दौड़े आ रहे थे, बिजली कड़कने लगी थी!" बोली वो,
"अच्छा, बारिश होने ही वाली थी! अछा, फिर?" पूछा मैंने,
"हम खूब भागे, लेकिन बारिश पड़ने ही लगी, क्या करते, बारिश बहुत तेज थी, सामने कुछ दिखे नहीं! हम वहीँ रुक गए, एक बड़े से पेड़ के नीचे, वो पेड़ आज भी है, बहुत बड़ा पेड़ है वो!" बोली वो, आँखें बंद करके!
मैंने इंतज़ार किया, उसके आँखें खोलने का!
उसने तब आँखें खोलीं!
"अच्छा, तो तुम भीग गयीं दोनों?" पूछा मैंने,
"हाँ, भीग गयी थीं, लेकिन अब करते भी क्या, पानी भरने ही लगा था नदी में, हम किनारे पर थे, थोड़ी थोड़ी देर में, पीछे होने लगते थे, पानी बढ़े जा रहा था!" बोली वो,
"ओह! एक तो जंगल, अकेली तुम दोनों, बारिश का क़हर, नदी में पानी बढ़े जा रहे था, साँझ का वक़्त, बड़ा बुरा हाल हुआ होगा, गोमती?" बोला मैं,
:हाँ, हम घबरा गयी थीं, रो पड़ीं, लेकिन रोने से भी फ़ायदा क्या था? कोई नहीं आता मदद को, न वहां से, और न यहां से, सबसे बड़ी बात, वहाँ जंगली जानवर बहुत हैं, कोई हथियार नहीं, आंच जलाने के लिए, ईंधन तो था लेकिन वो भी गीला था, और फिर, दियासिलाई नहीं!" बोली वो,
"ओह!" कहा मैंने,
मैं तो बेचैन सा हो गया था उनकी इस हालत पर, बेचारी, कैसे कर रही होंगी दोनों वहाँ, जंगल में, उस पेड़ के नीचे!
वो चुप हो गयी, एक बड़ा सा पत्थर सामने फेंक मारा! पत्थर लुढ़कता हुआ, सामने चलता चला गया, जब तक किसी बड़े पत्थर से नहीं टकरा कर, रुक गया!
"फिर गोमती?" पूछा मैंने,
"फिर?" बोली वो,
"हाँ! फिर? फिर क्या हुआ?" पूछा मैंने,
वो शांत सी हो गयी, अपने होंठ बंद कर लिए! और आँखें चौड़ा कर, मुझे देखने लगी! जैसे, पहली बार ही देखा हो मुझे उसने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुछ पल, मैं उसके वही, दीदे देखता रहा, जिनमें अभी कुछ पल पहले, सहजता सी भरी थी! अब वो सहजता, लगभग लोप हो चली थी! उसके दीदों में, जैसे अलख की चौंध और ताप का सा मिश्रण भर गया था! मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, वो उस समय, गोमती नहीं थी! मैंने क्यों लिखा ऐसा? ऐसा कि उसके दीदों में उस वक़्त अलख की चौंध और ताप का मिश्रण था? हाँ! लिखा! क्योंकि मैं जानता था कि ये मिश्रण कैसा हुआ करता है! वो लगातार मुझे घूरे जा रही थी, बिना दृष्टि तोड़े! बिना पलकें झपकाये! अपने होंठों के बीच से, उसने कुछ कहने की कोशिश सी की, मैंने सुनने की कोशिश की, उसके स्वर में, आवाज़ नहीं थी, साँसों की फुसफुसाहट थी! जैसे सांप की हिस्स-हिस्स सी! फिर भी मैंने जो सुना! जो भी सुना! वो न सिर्फ हैरतअंगेज़ था बल्कि रूह कंपा देने वाला भी था! उसने जो कुछ बोला था, उसका अर्थ मुझे कुछ समझ आया और कुछ नहीं! वो पुरानी सी हिंदी थी, पहाड़ी सी भाषा, कुछ पुराने से शब्द! उसकी वो हिस-हिसाहट मैं कभी नहीं भूल सका हूँ!
"सैंथी ज़ोर भरे, अम्फू कलकलाये!"
ये फुसफुसाया था उसने! मैंने एक बार नहीं, दो बार नहीं, कम से कम बीसियों बार ये सुना था! इसका मतलब क्या निकलता था, मुझे समझ नहीं आया! हाँ, जो सोचने-समझने की कोशिश की वो ये, कि इसमें दो 'व्यक्तिवाचक' संज्ञाएँ हैं! पहली, सैंथी और दूसरी, अम्फू! तंत्र में सैंथी शब्द का प्रयोग अब लगभग लुप्तप्रायः है! कहीं प्रयोग में नहीं लाया जाता! मेरे जीवन में, मैंने कहीं प्रयोग नहीं किया, हाँ, इसका अर्थ बता देता हूँ! सैंथी का अर्थ होता है, एक मिश्रण! जो दो, या दो से अधिक तत्वों को मिलाकर बनाया जाता है, एक यौगिक अथवा युग्म! अक्सर, सैंथी शब्द का इस्तेमाल, नेपाल के देहातों में, तिब्बत के कुछ पुराने गाँवों में, मदिरा के लिए होता आया है! अब रहा ये अम्फू! अम्फू, शब्द, ये नाम है, आम्फ़ा शब्द से निकला प्रतीत होता है, इसका अर्थ है, नया! नवीन! और कलकलाना, इसका अर्थ हुआ, ढिठाई भरी हंसी हंसना! जैसे किसी शत्रु को पकड़ कर, जकड़ कर, उसको अशक्त कर, उस पर प्रहार करना और हँसते जाना! ये कोरी कायरता और हैवानियत हुआ करती है! तो कुल मिलाकर, अर्थ क्या निकला? सैंथी ज़ोर भरे, अर्थात, या तो मदिरा-उन्माद या फिर, उसकी कुछ ज़ोरदार तैयारी!
खैर!
मैं भी टकटकी लगाये उसी को देखे जा रहा था! अचानक से वो उठी, उसने अपना वक्ष सामने की ओर निकालते हुए, ज़ोर सा लगाया, जैसे उसके अंदर से कुछ निकल रहा हो, मुंह के रास्ते! सर को दो-तीन बार झटका! और लटका लिया सर, लेकिन वक्ष अभी तक सामने ही था उसके! बाहर को निकाला हुआ, मैं, लगभग, सुन्न सा, उसको देखे जा रहा था! कि क्या प्रतिक्रिया होती है उसकी, या, और क्या होता है उसके साथ! समय ठहर गया था मेरे लिए तो उस जगह! हैरत की बात ये, न कोई पक्षी ही चहचहा रहा था और न कुछ अन्य ही! और वो, जैसे, पत्थर सी बन गयी थी! कुछ पल बीते! वो थोड़ा सा और झुकी! एक लम्बी और गहरी सांस भरी उसने!
"गोमती?" कहा मैंने, धीरे से,
उसने शायद सुना ही नहीं!
"गोमती?" मैंने फिर से कहा,
उसने सर हिलाया, दो बार!
"गो...म...!!" मैंने अपने शब्द पूरे भी नहीं किये कि उसने मुझे देखा! पल भरके लिए तो मैं जैसे उछल ही पड़ा! मेरी तो आँखें ही बाहर निकलने को हो गयीं! मैं जैसे ज़मीन में धसकने लगा था! मेरी साँसें, रुकने हो हो चली थीं उस समय!
उसके पूरे चेहरे पर, नीचे गरदन तक, भस्म लिपि थी! माथे पर एक चौड़ा सा त्रिपुण्ड था! गाढ़ा- चौड़ा काजल आँखों में लगा था! ठुड्डी पर, पीले रंग की दो रेखाएं कढ़ी थीं! भौंहें, लाल रंग से लिपि थीं! और आँखें, बाहर निकलने को तैयार! लाल-पीली आँखें! जबड़ा, भींचा हुआ! दांतों के आपस में रगड़ने की आवाज़ आये!
मैं धीरे से उठा, उसने मुझे उठते हुए देखा, मैंने थोड़ा सा फांसला बना लिया था, मुझे नहीं पता था कि आगे क्या होने वाला है! वो क्या करेगी! मैं अभी तक, उसके उस भयानक रूप में ही उलझा था! वो कैसे बदल गया था पल भर में ही?
बड़े से बड़े जीवट वाला भी चौ-खाने चित्त हो जाता उसके उस रूप को देख कर! मारे भी के भाग छूटता! कहाँ रुकता, पता नहीं!
तभी, वो भी उठी! सर को, दो-तीन बार झटके दिए! मुझे घूरा, और बढ़ी मेरे पास आगे आने के लिए! मैं तैयार नहीं था, मैं तो अभी तक समझ ही नहीं पा रहा था कि ऐसा कैसे सम्भव है? क्या बाबा को भी ये सब देखने को मिला था? क्या उन्होंने देखा था ऐसा रूप गोमती का? अगर हाँ, तो मुझे बताया क्यों नहीं उन्होंने?
वो खड़ी हुई और आ गयी मेरे पास, अचानक ही, मुझे धक्का दिया, मैं पीछे फिसल गया और जब संतुलन बनाया तो वो नदी की तरफ भागे जा रही थी! मैं भी भागा उसके पीछे! मैं दौड़ा हुआ आया नदी तक, वहाँ हुआ खड़ा, आसपास देखा, कहीं भी नहीं थी वो! अचानक से, इतनी जल्दी, कहाँ गायब हो गयी वो?
मैं सर घुमा घुमा कर, आसपास देखता रहा! नहीं दिखाई दी मुझे कहीं भी! मेरी भी साँसें फूलने लगी थीं तब! नदी में पानी इतना था नहीं कि वो कूद जाती उसमे, या छिप जाती, तो फिर कहाँ गयी?
"गोमती?" चिल्लाया मैं!
मेरी ही आवाज़, लौटी वापिस!
"गोमती?" मैं फिर से चिल्लाया!
इस बार भी आवाज़ लौटी!
पांवों के निशान यहां पड़ते नही, पत्थर ही पत्थर हैं, आसपास फिर से देखा, कहीं नहीं थी वो! मैं थोड़ा
 पीछे आया! रुका!
"कहाँ हो गोमती?" मैं चिल्लाया,
मेरे शब्द, 'कहाँ हो' दूर जंगल में जा घुसे और गोमती, लौट आया वापिस!
"गोमती?" मैं फिर से चिल्लाया!
कोई उत्तर नहीं!
मैं आगे गया फिर,
बाएं हुआ,
"गोमती?" फिर से चिल्लाया मैं!
दायें, बाएं, सामने, कहीं नहीं! मैंने पीछे पलटा! जैसे ही पलटा, वो पीछे किनारे पर बैठी थी! मुझे ही देखे जा रही थी! मैं दौड़ पड़ा उसकी तरफ!
आया उसके पास! रुका!
अब पहले जैसी ही थी वो! कोई भस्म नहीं! कोई काजल नहीं! साफ़ थी एकदम! जैसे कुछ हुआ ही नहीं था, ऐसे शांत भी थी!
बड़ी हिम्मत जुटाकर, मैं बैठा उसके साथ!
साँसें की नियंत्रित अपनी!
"कहाँ गयी थीं?" पूछा मैंने,
"पेड़ के पास?" बोली वो,
"कौन से पेड़ के पास?" पूछा मैंने,
"अपने गाँव वाले?" बोली वो,
क्या??
ये क्या सुना मैंने,
"गोमती, सच बताओ?" कहा मैंने,
"हाँ हाँ? ये देखो?" बोली वो,
उसके हाथ में एक पत्ता था, सूखा हुआ, सेमल का पत्ता! मैं हैरान था! यहां सेमल का पेड़ नहीं देखा था मैंने, फिर कहाँ से आया उसके हाथ में वो पत्ता?
"क्या करने गयी थीं?" पूछा मैंने,
"बुलाया था?" बोली वो,
बुलाया था?
"किसने?" पूछा मैंने,
"तैतिल ने!" बोली वो,
तैति..............................ल???


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो जो कुछ भी कह रही थी, नहीं लगता था कि बनावट है! उसके शब्दों में, भावों में, सच्चाई झलक रही थी! हो सकता है, ऐसी कोई शक्ति उसके साथ लगातार मौजूद रही हो, जिसका भान हमें तो क़तई न पता चला था! और जब भी वो, इस शक्ति के आवेश में आया करती थी, तभी वो कथित रूप से 'पागल' कही जाती थी! लेकिन अब प्रश्न ये, कि ये तैतिल आखिर है कौन? और उस शाम, बारिश के समय, आखिर हुआ क्या था? इस रहस्य का पर्दा, यहीं से ही उठना था!
"गोमती?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"तुम्हें क्यों बुलाया था तैतिल ने?" पूछा मैंने,
"पता नहीं? हमेशा ही बुलाते हैं वो?" बोली वो,
बुलाते? इसका क्या अर्थ लूँ? क्या ये श्रद्धा रखती है किसी तैतिल नाम की शक्ति या या किसी और से? फिलहाल में तो, यही अर्थ लेना ही सार्थक प्रतीत होता था!
"कौन है ये तैतिल?" पूछा मैंने,
"तैतिल?" बोली वो,
"हाँ, कौन है?' पूछा मैंने,
"पता नहीं, अचानक से आये थे पीछे से, हमारी मदद करने!" बोली वो!
अब हुए मेरे कान लाल! लगा, पर्दे ही फट जाएंगे कानों के मेरे तो! देह का सारा खून जैसे मेरे चेहरे पर ही समा गया! मदद करने? उनकी? तैतिल आया था? स्वयं? कौन है? कौन है ये तैतिल? इस सवाल ने जैसे मेरे शरीर में, भाले भोंक भोंक कर, छेद बना दिए अनेक! हर छेद में से, यही सवाल झांके बार बार!
"गोमती? कौन है ये तैतिल?" पूछा मैंने,
"बताया न? पता नहीं?" बोली वो,
"तो मदद कैसे की उसने?" पूछा मैंने,
"हाँ! बताती हूँ!" बोली वो,
"हाँ, बताओ?' कहा मैंने,
उसने तब, टांगें खोल लीं अपनी, सीधी कर लीं सामने की तरफ! एक पाँव, दूसरे पाँव पर रख लिया, एक हाथ से, भूमि पर टेक ले ली, और दूसरे हाथ को, अपनी जंघा पर रख लिया!
"उस शाम बाहर बारिश पड़ रही थी!" बोली वो,
:हाँ, बताया तुमने!" कहा मैंने,
"पानी लगातार बढ़ता जा रहा था!" बोली वो,
"हाँ, अच्छा!" कहा मैंने,
"हम भीग चुके थे पूरी तरह, हमारा ईंधन भी भीग चुका था, हम अकेले थे जंगल में, दोनों ही, बिजली कड़कती तो हम चिपक जाते थे एक दूसरे से, उस कड़कती बिजली के उजाले में, सारा जंगल भुतहा सा लगता था, पानी का रंग, एकदम काला सा लगने लगता था, जो सफेद चमकता था, तो वो, बस पानी में बन रहा झाग!" बोली वो,
"अच्छा! फिर?" पूछा मैंने,
"साँझ के छह बजे होंगे, लेकिन लगता था जैसे आधी रात का समय हो चुका है!" बोली वो,
"अच्छा, अँधेरा छा गया होगा!" कहा मैंने,
"हाँ, घुप्प सा अँधेरा!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हम वहीँ बैठे रहे, कभी उठ जाते, तो कभी बैठ जाते, ओट कोई थी नहीं, पेड़ पर, चढ़ नहीं सकते थे, हालत बहुत खराब थी, और हमने तब, अपने आपको, भगवान के हाथों में छोड़ दिया, अब जो हो, वही देखेगा, हमसे कुछ किया नहीं जाता, करता तो वही बस भगवान!" बोली वो,
"हाँ, और किया भी क्या जा सकता था?" कहा मैंने,
"तो हम दोनों, आपस में बातें करते, दबे मुंह, कोई जानवर न आ जाए, इसीलिए फुसफुसा लेते थे हम, कंपकंपी छूटने लगी थी हमारी तब, घर में सब परेशान होंगे, ये भी पता था, लेकिन हम कर कुछ नहीं सकते थे!" बोली वो,
"हाँ, कोई तरीका नहीं था!" कहा मैंने,
"ऐसे ही दो घंटे बीत गए, आसमान में बादल बने हुए थे और पानी भी खूब बरस रहा था, किनारे पर, अब पानी ही पानी था, सुबह तक बारिश पड़ती, तो शायद हम ही डूबकर, मर जाते!" बोली वो,
"इतना पानी?" पूछा मैंने,
"हाँ, पहाड़ों से सीधा नदी में जो आता है?' बोली वो,
"अरे हाँ, मैंने बारिश के बारे में ही सोचा था, हाँ सही बात है, पहाड़ों का पानी!" कहा मैंने,
"शायद तब आदि रात से पहले का वक़्त होगा कि!" बोली वो,
मैं चौंका! क्या कि??
"क्या हुआ था?" पूछा मैंने, और जोश जोश में, उकडू बैठ गया!
"हमें कुछ आवाज़ें आयीं!" बोली वो,
"कैसी आवाज़ें?" पूछा मैंने,
"हम डर गए थे, कहीं कोई विडाल आदि न हो!" बोली वो,
"हाँ, हो सकता है!" कहा मैंने,
"तो हम, चिपक गए एक दूसरे से, ईंधन, सामने रख लिया हमने, ताकि कोई देख न सके हमें!" बोली वो,
"अच्छा, हाँ! अच्छा किया!" कहा मैंने,
"लेकिन कोई नहीं था वहां!" बोली वो,
"अच्छा, जंगल के, पेड़ पौधों की आवाज़ें ही होंगी, हैं न?" कहा मैंने,
"हाँ, वैसी ही!" बोली वो,
"फिर गोमती?" पूछा मैंने,
"फिर हम बैठे रहे चुपचाप!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"करीब एक घंटे के बाद, एक आवाज़ आई!" बोली वो,
"कैसी आवाज़?" पूछा मैंने,
अब सांस फूला मेरा तो!
भला कैसी आवाज़ आई उन्हें?
कोई जानवर था क्या?
"कैसी आवाज़?" पूछा मैंने,
"मत डरो!" बोली वो,
हैं? 'मत डरो?' ये किस से बोला उसने? क्या, मुझसे?
"नहीं समझा मैं गोमती?" मैंने सर हिलाकर पूछा,
"अरे! हमें आवाज़ आई थी ये!" बोली वो,
हैं? ये क्या सुना मैंने? भयानक, खतरनाक जंगल में, ऐसा कौन था जो ये कह रहा था कि मत डरो? कौन था वो? कोई इंसान? कोई प्रेत? लेकिन प्रेत बरसात में आवागमन नहीं किया करते, अधिकाँश, तो फिर कौन था वो?
"फिर?" पूछा मैंने,
"हम घबरा गए! उस आवाज़ के आने से!" बोली वो,
"लाजमी है घबरा जाना!" कहा मैंने,
"हमने आसपास देखा, कोई नहीं था! कोई भी नहीं!" बोली वो,
"अरे? फिर?" पूछा मैंने,
"गोमती! रुपी! पुत्रियों! नहीं डरो! आता हूँ मैं!" आई फिर से आवाज़!
"ओह! तो क्या कोई दिखा?" पूछा मैंने जोश में!
"हमने मारीं चीखें तब! लेकिन सुनने वाला तो कोई नहीं था?" बोली वो,
"एक मिनट! एक मिनट गोमती! उस आवाज़ ने कहा था, 'पुत्रियों!' है न?" पूछा मैंने,
"हाँ! पुत्रियों! नहीं डरो! मैं आता हूँ!" ये आई थी आवाज़!
"तो कोई आया क्या?" मैंने पूछा, मेरा पसीना, माथे का, टप-टप, टपकने लगा था मेरे घुटनों पर! जबकि गर्मी, इतनी नहीं थी उस समय!
"हाँ! आया था, आया था कोई!" बोली वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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शान्ति! सन्नाटा! घोर सन्नाटा! मैं, उसके होंठों के हिलने का इंतज़ार करूँ! प्यासा होऊं इतना कि उठा भी न जाए और जल, सामने ही रखा हो! कैसी हालत! सोचिये ज़रा! सोचिये, वो कहानी, जिसे सुनने के लिए मैं बेताब था! मेरे लिए तो अब, एक बर्रे के फड़फड़ाते से पंख, तूफ़ान के थपेड़े से लग रहे थे! हवा भी ऐसी लग रही थी, कि मुझे तो गोदी में भर, उड़ा ले जायेगी जंगलों के पार कहीं! न हुई वो चुप्पी बर्दाश्त!
"कौन आया था गोमती?" मैंने याचनाभरा सा स्वर निकाला गले से, सुनने में ये प्रश्न नहीं लगता था, गिड़गिड़ाहट सी लगती थी! मेरी आवाज़ में, मिमियानापन, साफ़ झलकता था! एक मज़बूरी सी, जो ऊंचाई पर फंसे किसी बिल्ली के बच्चे सरीखी जैसी होती है!
उसने मुझे देखा, फिर ज़मीन को देखा! फिर आकाश को देखा, एक जंघा, दूसरी जंघा पर रख ली, एक हाथ की उँगलियों से, घास नोंचने लगी! उस घास के नुंचने से, मुझे पीड़ा का सा अनुभव हुआ, मुझे लगा मेरे दिल की सतह को, खुरच रही हो उसके हाथ की वो उंगलियां जो मेरे सवालों की बन गयी थीं तब!
"बताओ गोमती? कौन आया था?'' पूछा मैंने,
फिर से मिमियाती हुई आवाज़! फिर से एक सर नवाकर गुज़ारिश! फिर से एक याचना और फिर भी, उत्तररूपी भिक्षा से वंचित! किसकी होगी ऐसी विवशता!
"कौन आया था गोमती?" अबकी बार, मैंने उसका एक हाथ पकड़ कर पूछा, उसने मेरा हाथ देखा, और अपना हाथ, दोसरा, रख दिया मेरे हाथ पर, मुझे कुछ राहत सी मिली, आशा बंधी कि अब मेरे प्रश्न का उत्तर मिलने ही वाला है!
मैं नीचे आँखें कर, ज़मीन को देख रहा था, ज़मीन में कुछ पत्थर थे, छोटे-छोटे से, गोल-गोल! वक़्त की लातें खा-खा कर अब गोल हो चुके थे!
"बारिश बहुत तेज होने लगी थी!" बोली वो, अचानक से!
मैंने झट से उन पत्थरों के अतित्व से नाता तोडा और लगा दिए कान उसकी आवाज़ पर, टिका दी निगाहें उसके होंठों पे!
"अच्छा!" कहा मैंने,
मेरी थमी हुई गाड़ी फिर से पटरी पर दौड़ने लगी थी! मैंने उसके हतः को, अपने हाथ में फंसा लिया था, उसके पसीने से भीगे हाथ को, मैं भी महसूस कर रहा था! उसने जैसे अपना हाथ, मुझे ही सौंप सा दिया था!
"और अचानक से, पीछे से एक आवाज़ गूंजी! 'मैं आ गया हूँ!' हमने एक झटके से पीछे देखा पलट कर!" बोली वो,
"फिर? फिर? फिर गोमती? गोमती? फिर?" मैंने तो फिर फिर की फिरकी ही चला दी! फिर फिर के फिर से लौट आये!
उसने पल भर के लिए आँखें मूँद लीं!
उसने आँखें मूंदीं और मेरा संसार अँधेरे में डूबा!
उसने आँखें खोलीं!
और मेरे संसार में सूर्योदय हुआ!
"हम दोनों मारे भय के, खड़े हो गए! वो, ऊपर, एक बड़े से पत्थर पर खड़ा था, बड़ा ही विशाल सा शरीर था उसका!" बोली वो,
"कैसा था? कैसा रूप था? कैसा कद था? क्या वस्त्र थे?" मैंने झड़ी लगा दी सवालों की!
"कैसा था वो गोमती?" पूछा मैंने,
"विशाल देह वाला! बहुत विशाल देह थी उसकी!" बोली वो,
"कैसा रूप था उसका?" पूछा मैंने,
मेरे चेहरे के पास से, एक भंवरा गुजरा, मैंने झटके से हटा दिया उसे, बिन देखे ही! काट लेता तो काट लेता! देखा जाता! यहां क्या कम डंक लगा रहा था?
"हाँ गोमती? कैसा रूप था उसका?" पूछा मैंने,
"उसने एक लाल रंग का कमरबंद पहना था, नीच तक का, उस पर, सोने की सी आभा थी, एक बात और, वहां अँधेरा था, एल्किन उसका रूप चमक रहा था, जैसे, उसने सारा प्रकाश सोख लिया हो!" बोली वो,
"और चेहरा?" पूछा मैंने,
"उसकी मूंछें थीं, भारी भारी, और केश लम्बे थे, काले रंग के, घुंघराले, चौड़ी चौड़ी आँखें, हाथों में कंगन! बहुत सुंदर था वो! बहुत सुंदर!" बोली वो, नेत्र बंद करते हुए अपने!
अब मैं हैरान!
ये कौन था?
कोई यक्ष कुमार?
कोई गान्धर्व कुमार?
या कोई ब्रह्म-राक्षस?
कौन था ये?
क्यों आया था मदद के लिए?
क्या वहीँ वास है उसका?
क्या कहीं आवागमन पर था?
और फिर पुत्री? नहीं समझ आया मुझे! दिमाग की नसें फटने लगीं तब ही! ये कौन हो सकता है?
"क्या, ये ही तैतिल है?" पूछा मैंने उस से!
"हाँ!" बोली वो,
"वो कौन है?" पूछा मैंने,
"तैतिल!" बोली वो!
"वो तो ठीक है, लेकिन कुछ बताया नहीं उसने अपने बारे में?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"अच्छा? फिर क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"उसने कहा कि वो आएं उसके साथ, घबराएं नहीं! आएं!" बोली वो,
"तो, तुम चलीं?'' पूछा मैंने,
"हाँ, विश्वास सा होने लगा था!" बोली वो,
"अच्छा! फिर?" पूछा मैंने,
"उसने, हमें उठा लिया, हमें लगा कि कंधों पर बिठा लिया, एक ही पल में! लेकिन हम तो जैसे, हवा में चल रहे थे! पानी नीचे बह रहा था! " बोली वो,
"अरे? फिर?" पूछा मैंने,
"फिर वो पानी पर चलता हुआ, दूसरे किनारे तक ले आया हमें!" बोली वो,
"कमाल है!" कहा मैंने,
"हाँ, हम स्तब्ध थीं!" बोली वो,
"हम भी होते!" कहा मैंने,
"फिर उसने कहा कि आराम से जाएँ वो, कोई कष्ट नहीं होगा!" बोली वो,
"अच्छा?" कहा मैंने, विस्मय से!
"हाँ! और फिर........." बोली वो और हुई चुप!
"फिर?" पूछा मैंने,
"फिर वो, हवा में चलता हुआ, बीच नदी में, लोप हो गया हो जैसे!" बोली वो,
ये मैं क्या सुन रहा था?
ये क्या हुआ था? कौन था वो?
मैं तो जैसे सकते में था उस वक़्त!
कुछ बोल ही नहीं सका!
मेरे दिमाग में, सारी कल्पना, साकार हो उठी थी! जैसे, सबकुछ मेरे सामने घटा था!
वो बारिश! वो अँधेरा! वो जो भी था वो!
लेकिन?????


   
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