वर्ष २०१३ उत्तरांचल...
 
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वर्ष २०१३ उत्तरांचल के एक स्थान की घटना!

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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं? अरे तो फिर प्रतीक्षा किसकी?" पूछा मैंने,
कुछ न बोलें वो! कुछ भी न! बाहर देखें, जैसे मेरा कहा उन्हें सुनाई न दे! ऐसे दरकिनार करें! और यहां मुझे पतंगे दहकाएँ! पल पल!
"बाबा! रहम करो अब तो! बता दो! किसकी प्रतीक्षा? कैसी प्रतीक्षा?" पूछा मैंने,
"तापसी की!" बोले बाबा समरू!
हैं??????? ये क्या सुना मैंने अभी अभी? कहीं कान तो नहीं बजे थे? सुबह से तापसी ही तापसी सुन रहा हूँ मैं! कहीं कोई और शब्द तो नहीं कहा था? जो मेरी श्रवणेन्द्री ने त्रुटिपूर्ण रूप से ग्रहण किया?
"किसकी?" पूछा मैंने,
"तापसी की!" बोले दोनों!
हैं??????? फिर से वही? तापसी?
"किसकी बाबा?'' मैंने फिर से पूछा,
इस बार शर्मा जी ने भी मुर्गे की तरह से गर्दन आगे बढ़ा दी अपनी!
"सही सुना तुमने, जो मैंने कहा, तापसी!" बोले बाबा समरू!
या तो बाबा हो गया पागल या फिर मैं होने वाला हूँ आज! अब कोई कसर नहीं बची! अब तो पागल होऊं ही होऊं! तेईस बरस बाद लौटेगी वो! ये दोनों ही पागल हो गए हैं! जो एक बार चला गया, मानव, वो दुबारा कैसे लौटेगा?
लेकिन! लेकिन!! हाँ, लौट सकता है! देह में न सही, सूक्ष्म देह में! हाँ! यही अर्थ तो नहीं इनका?
"बाबा? क्या तापसी, सूक्ष्म-देह में लौटेगी?" पूछा मैंने,
"नहीं! जैसे गयी थी!" बोले वो,
"बाबा? कहीं फूंक-पत्ती का सेवन तो नहीं करते अधिक?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"कोई अन्य मद्य अधिक तो नहीं हो गया?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" मुस्कुराते हुए बोले संतोष बाबा!
"तो बाबा, वो कैसे लौटेगी?" पूछा मैंने!
"सदेह!" बोले वो,
"सदेह?" कहा मैंने,
"हाँ, सदेह!" बोले वो,
"ऐसा कैसे सम्भव है?" पूछा मैंने,
"क्यों सम्भव नहीं?" पूछा उन्होंने,
"जो एक बार चला गया, वो कैसे लौटेगा?" पूछा मैंने,
"कौन गया?" पूछा मैंने,
"तापसी?" कहा मैंने,
"कहाँ गयी?" पूछा उन्होंने,
"उसकी मृत्यु नहीं हुई?" पूछा मैंने,
"किसने कहा?'' बोले वो,
"क्या???????" मेरा मुंह फटा रह गया ये कहते हुए!
"किसने कहा तुमसे कि उसकी मृत्यु हुई?" पूछा उन्होंने,
मैं चुप! थूक भी निगला न जाए, मुंह से बाहर ही लार टपक आये! रुमाल से पोंछ लूँ बार बार!
"बताओ? किसने कहा? मुरी ने?" पूछा उन्होंने,
मैंने न में सर हिलाया! धीरे धीरे, जैसे काठ मारा हो, या अभी अभी विद्युतीय-आवेश से बाहर आया होऊं मैं!
"क्या मैंने?" पूछा उन्होंने,
न में सर हिला दिया मैंने फिर से!
"क्या बाबा समरू ने?" पूछा उन्होंने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर किसने? कहीं सुना? क्या बाली ने?" पूछा उन्होंने,
"नहीं!" कहा मैंने,
''तो कैसे हो गयी मृत्यु?" पूछा उन्होंने,
शर्मिंदगी से मैं तो लाल हो उठा! लेकिन गलती मेरी भी क्या? आमतौर पर कोई भी ऐसा ही तो सोचेगा? लेकिंन जो मैं सोच रहा था, हो उसका उलट ही रहा था! तापसी के इस चक्रव्यूह में मैं तो फंस के रह गया था!
"अपने आप धारणा बना ली?" बोले वो,
"जी" कहा मैंने,
"साजिश की हमने?" पूछा उन्होंने,
"नहीं" कहा मैंने,
"मुरी ने नहीं बोला था ना?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, यहीं बोला था!" कहा मैंने,
"वो बोल ही नहीं सकती!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"उसे भी तो प्रतीक्षा है! हमारी तरह! और अब, तुम भी शामिल हो गए! है या नहीं?" बोले वो,
"हाँ! हाँ बाबा!" कहा मैंने,
धन्य सा हो गया मैं तो ये सुनकर! शर्मिंदगी दूर जाती रही!
"हम नहीं चाहते थे कि किसी को भी पता चले!" बोले वो,
''समझ गया मैं!" कहा मैंने,
"बाबा?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
'एक बात पूछूँ?" बोला मैं,
"हाँ!" बोले वो,
"क्या कोई समय-सीमा है उसके लौटने की?" पूछा मैंने,
"नहीं, अफ़सोस! कोई होती!" बोले वो,
"नहीं समझा मैं!" बोला मैं,
"यही बोली थी वो, प्रतीक्षा करना, मैं लौटूंगी!" बोले वो,
"ऐसा बोला था?" पूछा मैंने,
"हाँ, ठीक ऐसा ही!" बोले वो,
"लेकिन? वो गयी कहाँ?" पूछा मैंने,
"समाधिलीन हो गयी!" बोले वो!
"क्या?" मैंने हैरत से पूछा,
"हाँ! समाधि ले ली उसने!" बोले वो!
"कहाँ?" पूछा मैंने,
अब चुप हुए वो!
न बाबा संतोष ही कुछ बोलें, और न बाबा समरू ही!
"बतायें बाबा?'' पूछा मैंने,
"तेईस बरस पहले की बात है ये!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"आज से तेईस!" बोले समरू बाबा!
''अच्छा बाबा!" बोला मैं,
"वो रात्रि का द्वितीय प्रहर था!" बोले वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, दूसरा प्रहर!" बोले वो,
"स्थान, वो जोगरा मंदिर?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"तो वो पाखरा का जल?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो, मुस्कुराते हुए!
"फिर बाबा?"
और तब, अचानक से..........!!!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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Topic starter  

"आकाश में तारे खिले हुए थे, अँधेरा, यूँ कहो कि अँधेरा था नहीं! हाथ को हाथ, सुझाई देता था! बड़ा ही पावन सा माहौल था वो, उस समय का! समस्त जंगल, जैसे जीवित हो, टकटकी लगाए, मूर्त रूप में, उस महातपस्विनी के स्वरुप को देखने, बाट जोह रहा हो! हम, मैं, मुरी, बाबा समरू और बाबा समंद, सभी एक ही स्थान पर बैठे थे, होम-अग्नि प्रज्ज्वलित थी!" बोले वो, तेईस बरस की उस रात को अपने मन में जीवित करते हुए!
"अच्छा बाबा! और स्थान? स्थान कौन सा था बाबा?" पूछा मैंने,
"स्थान?" पूछा बाबा ने,
"हाँ बाबा, स्थान?" कहा मैंने,
"स्थान वही, वही, मंदिर!" बोले वो,
"कौन सा मंदिर बाबा?'' पूछा,
"वही, जो उस रात, ध्वस्त हुआ था!" बोले वो!
"वो....??" मैे कहते हुए रुक गया! ओह....अब कुछ नहीं शेष वहां! कुछ भी नहीं, ऐसा कुछ भी ठोस प्रमाण नहीं जो ये पुष्टि करे कि वहां कोई मंदिर रहा होगा! कोई खंडहर नहीं, कोई अवशेष नहीं, कोई भग्नावशेष शेष नहीं! शेष तो बस भूमि! भूमि, जिस पर ऐसा कोई पाषाण नहीं, जिसने कभी उस देवी के प्रत्यक्ष दर्शन किये होंगे! इसे कहते हैं अभागापन! अभागापन या नसीब से बोदा होना! बोदा अर्थात खोखला होना! काश, पल भर हेतु भी वहाँ रहा होता मैं! इस लम्बे जीवन का लाभ क्या? पल भी ही दर्शन मिल जाते तो सच में जीवन ही धन्य हो जाता! ऐसी परम सात्विकता! ऐसी दुर्लभ सात्विकता! कौन नहीं दर्शन करना चाहेगा! कौन नहीं!
और वो मंदिर, वो स्थान तो ऐसा लगता था कि जैसे या तो आकाश ने ही उठा लिया हो उसे जड़ सहित या फिर, भूमि ने हो सोख लिया हो पूरा का पूरा! और जैसे, प्रत्येक कण, शेष कण, अवशोषित कर लिया गया हो शून्य द्वारा! यहां तो मेरे मस्तिष्क में, सम्भव, असम्भव और असंभव सम्भव कैसे हुआ, इसी उहापोह में पड़ा था! कुछ धारणाएं खंडित हुए जा रही थीं, कुछ नवनिर्मित हुए जा रही थीं! सच कहता हूँ, वैराग्य की सी स्थिति उत्पन्न हो गयी थी! न तो कुछ और हो सोचने में आता था, और जो जी में आता था, वो जाता नहीं था, मोम की भांति दिमाग की भूमि से चिपक जाता था! अब समझा जा सकता है, वैराग्य स्वयं ही उत्पन्न हुआ करता है, उत्पन्न कराया नहीं जा सकता! मैं सन्यासी बनूँगा, कहने मात्र से सन्यासी नहीं बना जा सकता! मैं ध्यान लगाउँगा, कहने मात्र से ध्यान नहीं लगाया जा सकता! मैं ये स्वयं करूँगा, नहीं किया जा सकता, जब तक मन का बल न हो! और मन, मन तो इस संसार में सबसे अधिक चपल है! सहस्त्र नेत्र हैं इसके! ये बिन देखे बाज आता नहीं, बिन त्रुटि किये सीखता नहीं, बिन कार्य किये आगे बढ़ता नहीं! कल्पनावाद यदि  घेर ले, तो शिथिल हो जाया करता है! फिर तो सभी वाद, नगण्य हो जाया करते हैं! नब्बे प्रतिशत तो, कल्पनावाद से ही पीड़ित हैं मन! कल्पनावाद और अकर्मण्यता, ये तो एक ही सिक्के के दो आपृष्ठ हैं, पहलू हैं! धन से तो कोई भी अमीर या संपन्न हो सकता है! कोई भी! परन्तु से मन से गरीबी नहीं हट सकती इतनी सरलता से, मन का अमीर या सम्पन्न होना कोई विरला ही करता है! ऐसी ही विरल, एक, ये तापसी थी! इसमें कोई संदेह नहीं! मुझे तो आचूल, चूल से ही उसका व्यक्तित्व झिंझोड़ कर रखा गया था! हाँ, तो ये भाव, ये भाव,  तो, ये, ये तो स्वयं ही जी में उत्पन्न हुआ करता है! प्रश्नों के उत्तर के लिए मन लालायित होना चाहिए, देह का कोई मूल नहीं इसमें, देह समान हुआ करती हैं, परन्तु मन नहीं! यही है वो विकट स्थिति, जो किसी को उचाट कर दिया करती है, और कई को हर्षोल्लासित! लेकिन मैं क्या बताऊँ? मैं तो उचाट भी था और हर्षोल्लासित भी! उचाट यूँ, कि एक मानव किस प्रकार दैवत्व धारण कर सकता है! और हर्षोल्लासित यूँ कि मैं इस प्रकरण को जान सका! सैंकड़ों प्रश्न, सैंकड़ों नव-धारणाएं! बरसात की बूंदों समान मेरे मन में छटक-छटक करने लगी थीं! क्या सोचूं? और क्या छोड़ दूँ? क्या याद रखूं? और क्या भूल जाऊं? ऐसी बावरेपन की सी स्थिति थी!
और ये बाबा! वो मुरी! तेईस बरस! तेईस बरस की प्रतीक्षा! सोच कर ही उदर में शूल उठ जाए! आँखों के सामने अँधेरा छा जाए! पाँव कांपने लगें! साँसे ही उखड़ जाएँ! कैसी कोई इस दीर्घ काल तक, प्रतीक्षा कर सकता है?
मैं, किसी प्रकार से, अपने मन में चलते, इस झंझावत से बाहर आने को कसमसाया! हालांकि इतना सरल नहीं होता बाहर आना, लेकिन मैंने प्रयास किया! और कुछ सफलता पायी!
"बाबा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"क्या वो सच में ही लौटेगी?" मैंने प्रश्न किया!
ज़रा गौर करें! कैसा बचकाना सा प्रश्न था! इसी ही कहते हैं, मन में लालच भर लाना! सो ही मेरे मन में ही भर आया! लालच, कि मैं स्वयं इन नेत्रों से उस महातपस्विनी के दर्शन करूँ! वाह रे मानुष! जब तक चमड़ी शेष है तेरी, तब तक लालच का मुल्लमा चढ़ा ही रहेगा! सांप को गिरगिट कहने से न तो गिरगिट ही सांप होगा और न सांप ही गिरगिट! अर्थात, मन से लालच निकलेगा नहीं! हाँ, रूप बदलता रहेगा! जैसे मेरे प्रश्न में लालच ने, उत्तर जाने के लिए, याचना का सा रूप बदला!
"हाँ, लौटेगी!" बोले वो,
"आपको विश्वास है?" पूछा मैंने,
कील ठुकवा रहा था मैं! और मज़बूती के लिए! हाँ पर हाँ सुनने का भी लालच था ये!
"हाँ!" बोले वो,
और कील ठुकी!
"ऐसा आपको विश्वास है या तापसी ने कहा था?" पूछा मैंने,
"दोनों ही! मुझे तो विश्वास है ही, और तापसी ने भी स्वयं ही कहा था!" बोले वो,
"ओह...क्षमा चाहूंगा!" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं!" बोले वो,
"हाँ, बाबा?" पूछते पूछते उछला मैं!
"क्या?'' बोले वो,
"ये समाधि, कहाँ ली थी तापसी ने?" पूछा मैंने,
"भूमि में!" बोले वो,
"भूमि?" पूछा मैंने,
"हाँ, भूमि में!" बोले वो,
"उस मंदिर की?" पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"कोई कूप खोदकर?'' पूछा मैंने,
"स्वयं ही कूप बना था!" बोले वो,
''स्वयं ही??" पूछा मैंने,
ओहो! अपनी उंगलियां चबा जाता तो भी रक्त की एक बूँद न टपकती! ऐसे जम सा गया था रक्त मेरा! जैसे उँगलियों का दम घुट गया हो! नीले रंग की पड़ने लगी हों वो!
"हाँ, स्वयं ही!" कहा उन्होंने,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"उसके स्पर्श मात्र से ही!" बोले वो,
"हैं??" पूछा मैंने,
"हाँ, स्पर्श मात्र से ही, भूमि ने मार्ग दे दिया था!" बोले वो,
अब क्या बोलूं मैं?
क्या प्रश्न करूँ?
कुन्द पड़ गया मस्तिष्क!
"ऐसा संभव है?" पूछा मैंने,
"क्यों नहीं?" बोले वो,
"कैसे बाबा?" पूछा मैंने, मिमियाती सी आवाज़ में!
''सितार से बजने लगे थे, या हमे ही सुनाई देने लगे थे, सितार या वीणा-वाद्य? पता नहीं! परन्तु मुझे संगीत की सी धुन साफ़ साफ़ सुनाई दी थी! ऐसा, कम से कम, मुझे तो लगा था!" बोले बाबा संतोष!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"ये द्वितीय प्रहर था?" पूछा मैंने,
"नहीं, चतुर्थ!" बोले वो,
"ओह...चतुर्थ प्रहर चुना था उसने!" कहा मैंने,
"हाँ, भोर से पहले का!" बोले वो,
''समझ गया!" कहा मैंने,
"ब्रह्म-वेला!" बोले वो,
"हाँ, ब्रह्म-वेला!" कहा मैंने,
"प्रयोजन बताया था?" पूछा मैंने,
"कैसा प्रयोजन?'' पूछा उन्होंने,
"समाधिलीन होने का?'' कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"वो क्या?" पूछा मैंने,
"शेष, अशेष न रहे!" बोले वो,
"अशेष?" पूछा मैंने,
"हाँ, अशेष!" बोले वो,
"ये तो परम गूढ़ रहस्य है?" पूछा मैंने,
"निःसंदेह!" बोले वो,
"परन्तु, उसके लिए अशेष क्या?'' पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोले वो,
"मैं जान गया!" कहा मैंने,
"क्या?" अब वे दोनों ही जैसे झटका खा गए!
"समायोजन!" कहा मैंने,
"समायोजन?" बोले बाबा समरु,
"हाँ, समायोजन!" कहा मैंने,
"इसका, यहां क्या अर्थ हुआ?" पूछा उन्होंने,
"उसका प्रयोजन, दैविक रहा होगा! दैव-सान्धिक!" कहा मैंने,
"संभव है ये!" बोले दोनों ही!
"वो तापसी, गूढ़ रहस्यों के परम ज्ञाता थी!" कहा मैंने,
"हाँ, थी!" बोले वो,
"उसने, उस सीमा को भी लांघ दिया था, जहाँ प्रकृति द्वारा गढ़े अपने ही नियम विलोमता को प्राप्त हो जाया करते हैं!" कहा मैंने,
"निःसंदेह!" बोले वो,
"उसने ध्यानावस्था में वो उच्च एवं परम ज्ञान प्राप्त किया होगा, जो एक जन्म तो तो क़तई सम्भव नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ, सम्भव है!" कहा उन्होंने,
"तो ये समायोजन?" बोले वो,
"पारस्परिक सामंजस्य!!" कहा मैंने,
''अर्थात?" पूछा उन्होंने,
"वो इस जगत को बताना चाहती थी कुछ!" कहा मैंने,
''वो कैसे?" पूछा उन्होंने,
"अशेष को दूर कर या उसे ग्रहण कर! प्राप्त कर!" कहा मैंने,
"हे ईश्वर!" बोले बाबा समरु, हाथ जोड़ते हुए!
"उसे उसके गुरु श्री ने ज्ञान दिया! मैं अब इसे मार्ग कहूँगा!" कहा मैंने,
"मार्ग?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, मार्ग!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोले वो,
"ज्ञान तो पारलौकिक था उसका!" कहा मैंने,
"हाँ, कोई संदेह नहीं!" बोले वो,
"और कोई पारभौमिक सत्ता निरंतर ये ज्ञान दिया करती होगी!" कहा मैंने,
"हे ईश्वर!" बोले वो,
"स्मरण रहे! मनीषी कह गए हैं, ज्ञान मनुष्य को नहीं, मनुष्य ज्ञान को ढूंढता है!" कहा मैंने,
''अकाट्य!" बोले वो,
"यहां ये ज्ञान, इसका अर्थ, पारिभाषिक है!" कहा मैंने,
"वो कैसे?" पूछा उन्होंने,
"ये ज्ञान, ज्ञान नहीं, ये वही असीम, अनंत सत्ता है, जिसे हम ईश्वर कहते हैं!" कहा मैंने,
"ओह! हे तापसी! देवी! हम धन्य हुए!" बोले बाबा समरू!
"अब समझ आता है, कैसी समाधि!" कहा मैंने,
"हाँ, स्पष्ट हुआ!" बोले वो,
''और क्या अशेष!" कहा मैंने,
"ये पारिभाषित कीजिये?" बोले वो,
"इस स्थूल देह के कुछ अकाट्य नियम हैं! हम प्रकृति से निरंतर जुड़े रहते हैं! उसमे बदलाव, हम में भी बदलाव लाता है!" कहा मैंने,
"ये तो सत्य है!" बोले वो,
"परन्तु, ये एक लौकिक सत्ता है!" कहा मैंने,
"हाँ, है!" बोले वो,
''वो सत्ता, जिसे प्रत्येक प्राणी देखता है, दर्शन करता है!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"इसे, हमारे लौकिक अर्थात, स्थूल देह के चक्षु ग्रहण करते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"परन्तु!" कहा मैंने,
"क्या परन्तु?" बोले वो,
"एक और सत्ता है, इसके पार! एक पारभौम सत्ता! जिसे हम पारलौकिक सत्ता कहते हैं! कोई भी लौकिक चक्षु इसे नहीं देख सकता! है या नहीं?" पूछा मैंने,
"हाँ, नहीं देख सकता!" बोले वो,
"उसके लिए हमें, दिव्य-चक्षु चाहियें!" कहा मैंने,
"निःसंदेह!"" कहा मैंने,
"अब एक अकाट्य नियम! सभी उत्तर यहीं हैं, ढूंढने वाला चाहिए बस! नियम ये, कि परिवर्तन इस संसार का अकाट्य नियम है!" कहा मैंने,
"हाँ, ये जगत-सत्य है!" बोले वो,
"तो ये परिवर्तन? आखिर है क्या?'' पूछा मैंने,
"क्या? ये तो अत्यंत ही गूढ़ सा रहस्य प्रतीत होता है!" बोले वो,
"हाँ, है, गूढ़ नहीं, सरल! बस, हमने ही इसे गूढ़ का नाम दे दिया है!" कहा मैंने,
"जैसे?" बोले वो,
"उदाहरण! आपने आम का पौधा रोपा! अब, आपको ये भान है, किस इसमें से आम ही निकलेगा! आप आम को देख तो सकते हैं, मूर्त रूप से, लेकिन उसके स्वाद का भान बिन चखे न जान सकेंगे! है या नहीं?" पूछा मैंने,
"हाँ, नहीं जान सकेंगे!" कहा उन्होंने,
"आप एक परिपाटी पर चलते हैं, कि आम का स्वाद मीठा ही होगा! है न?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"और यदि आप, अपनी घ्राणेन्द्री को इतना विकसित कर लो कि मात्र सुगंध से ही आप उसका स्वाद जान सकें, या अपनी चक्षु-इंद्री को इतना विकसित कर लो कि देखने मात्र से ही आप ये जान सको कि वो फल मीठा होगा या नहीं, तो क्या कहेंगे इसे? गूढ़?" कहा मैंने,
अब चुप वे दोनों! चुप, जैसे कोई शिक्षक, कक्षा में, पाठ पढ़ा रहा हो! और वे, सतत हो, एक एक शब्द सुन रहे हों!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"और यही सबकुछ किया उस तापसी ने! अपने ध्यान से, उसने शीर्षावस्था प्राप्त कर ली!" कहा मैंने,
"ये तो सत्य है!" बोले वो,
"मैंने देखा नहीं तापसी को कभी, परन्तु अब, आंकलन कर सकता हूँ उस महातपस्वनी का! जान सकता हूँ उसका सामर्थ्य!" कहा मैंने,
"हमने तो स्वयं देखा है!" बोले वो,
"आप परम भाग्यशाली हैं! कि ऐसी प्रबल महातापसी को आपने समक्ष, प्रत्यक्ष रूप में देखा! आप भाग्यशाली हैं बाबा!" कहा मैंने,
"हाँ, हम नहीं भूल सकते!" बोले वो,
"बाबा, कल मैं एक बार फिर से वही जाऊँगा!" कहा मैंने,
"कहाँ?" पूछा उन्होंने,
"उसी स्थान पर!" कहा मैंने,
"उस मंदिर के स्थान पर?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, पुनः एक बार!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोले वो,
"वो जगह आप मुझे दिखा सकते हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ, क्यों नहीं?" बोले वो,
"तो आप भी चलिए बाबा!" कहा मैंने,
"हाँ, हाँ मैं चलूँगा संग तुम्हारे!" बोले बाबा संतोष!
"धन्यवाद बाबा!" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं, कल, उम्मीद है मौसम भी खुल जाएगा!" बोले वो,
"हाँ, खुल जाए तो बहुत ही बढ़िया!" कहा मैंने,
"आप परिवर्तन के विषय में कुछ कह रहे थे, परिवर्तन का नियम!" बोले बाबा,
"हाँ, जहाँ तक जाना, उतना ही बता सका!" कहा मैंने,
"और पारिभाषित कीजिये!" बोले वो,
"इस संसार में, परिवर्तन, क्षण, प्रतिक्षण होता है! ये ब्रह्माण्ड न तो ऐसा था, जैसा आज है, और न कल ऐसा ही रहेगा, जैसा आज है! ये परिवर्तन लौकिक रूप से घटित होता है! सुबह, सुबह से दोपहर, दोपहर से फिर संध्या, संध्या से फिर रात्रि! ये परिवर्तन है, और प्रकृति का अकाट्य नियम!" कहा मैंने,
"सो तो है!" बोले वो,
"समय! लौकिक स्तर पर अलग, ब्रह्मांडीय स्तर पर अलग होता है! हालांकि दोनों ही एक दूसरे में गुंथे हुए हैं! और यही तो इस प्रकृति का खेल है! हमारा सौ वर्ष का जीवन, ब्रह्माण्ड के समय में, मात्र एक क्षण का सौवां हिस्सा भी नहीं! ब्रह्माण्ड में समय स्थूल भी होता है और सूक्ष्म भी! स्थूल समय में ही, दैव, दैव से शैव और शैव से जैव की रचना होती है! तो फिर सूक्ष्म में क्या होता है? कोई रचना नहीं होती? क्या वो रचना से परे है? नहीं! इसका उत्तर है, नहीं! वो रचना से परे नहीं! उसी सूक्ष्म के किसी बिंदु से ही स्थूल का निर्माण होता है! ये निर्माण कैसे होता है, यही तत्व-ज्ञान का मूल विषय है! तत्व-ज्ञान के सोलह भाग हैं! ये सभी एक दूसरे से जुड़े हुए, बंधे हुए, एक ही समान और एक रुपीय हैं! बौद्धिक स्तर में कोई बराबर नहीं, सभी के बौद्धिक स्तर अलग अलग हुआ करते हैं! एक ही पिता की संतान, एक ही वीर्य, रज, कोख से जनमे, दो शिशु, जो एक ही समय पर जन्म लेते हैं, उनका भी बौद्धिक स्तर समान नहीं होता! एक उच्च राजसिक सेवाधिपति होता है, और एक, आततायी भी हो सकता है!" कहा मैंने,
"सत्य है!" बोले वो,
"जानते हैं कारण क्या है?" पूछा मैंने,
"कर्म?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
'फिर?" बोले वो,
"प्रत्येक तत्व में उच्च, नीच, परमोच्च, निम्नोच्च अंश विद्यमान रहा करता है! उदाहरण हेतु, शिशु, किशोरावस्था, यौवनावस्था, अधेड़, वृद्ध एवं व्योवृद्धावस्था!" कहा मैंने,
"हाँ, समझ गया! हाँ!" बोले वो,
"समय, शनैः शनैः लघु, और लघु और लघु होते हुए लघुत्तम हुए जाता है, परन्तु, समय का ह्रास सम्भव नहीं! ये आदि में भी था, अनंत तक रहेगा!" कहा मैंने!
"हाँ, सत्य है!" बोले वो,
"युग आये, युग गए, युग आएंगे, युग जाएंगे! धारणाएं, बदलीं, बदलती रही हैं, बदलती रहेंगी! आज की हाँ, कल की न होंगी, कल ही आशंकाएं आज जीवनोपार्जन करती हैं!" कहा मैंने,
"अत्यंत ही गूढ़तम!" बोले वो,
"परन्तु, अवयव, तत्व-संज्ञा एवं गुण-धर्म, इनका नाश कभी नहीं होता! रूप परिवर्तित हो सकता है, परन्तु प्रकृति नहीं! जैसे भेड़िये को बकरी की खाल पहनाने से वो बकरी नहीं बन जाता! उसी प्रकार,, हमें आमूल परिवर्तन यदि चाहिए, तो मन की प्रकृति, संज्ञक एवं गुण-धर्म को ही परिवर्तित करना होगा! स्मरण रहे! रेत चाहे, यमुना की हो, चाहे, नर्मदा की चाहे पतित-पावनि श्री गंगा जी की, होगी किरकिरी ही!" कहा मैंने,
"परम सत्य!" बोले वो,
"कहने का तातपर्य है कि तापसी ने, विजय प्राप्त की! विजय! विजय उस पर, जो सदैव ही हार काने की इच्छुक रहा करती है! भावना! भावना लालच की! भावना, दीर्घायु होने की! भावना लाभ की! सब पर विजय प्राप्त की उसने!
"सत्य! सत्य!" बोले वो,
"क्या ये इतना सरल है?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"जब तक मैं शेष है, तब तक हम नहीं हो सकता!" बोले वो,
"वाह! हम, अर्थात हम, मैं और वो! वाह!" कहा मैंने,
"हाँ, नाश करना होता है, नाश, पूर्ण नाश इस मैं का!" कहा उन्होंने,
"ये अकाट्य सत्य है!" कहा मैंने,
"हाँ, यही सत्य है!" कहा उन्होंने,
"एक अत्यंत ही लघु शब्द है!" कहा मैंने,
"वो क्या?'' पूछा उन्होंने,
"सेवा!" कहा मैंने,
"हाँ, लघु है!" बोले वो,
''और इसका अर्थ?" पूछा मैंने,
"अत्यंत ही दीर्घ!" कहा मैंने,
"सेवा आप करते हो?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोले वो,
"तो कौन?" पूछा मैंने,
"आपकी भावना!" बोले वो,
"हाँ! भावना! देह तो कहीं नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ, कहीं नहीं!" कहा उन्होंने,
"क्या ईश की सेवा संभव है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"सत्य! नहीं है सम्भव!" कहा मैंने,
"तो सेवा किसकी?" पूछा मैंने,
"स्वयं की!" बोले वो,
"बिलकुल सही! स्वयं की!" कहा मैंने,
"स्वयं की सेवा कैसे होती है?" पूछा मैंने,
"ज्ञानोपार्जन से!" बोले वो,
"हाँ, और फिर खुलते हैं बौद्धिक-कपाट!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तब ये संसार, संसार न हो कर, जीते जी स्वर्ग समान लगने लगता है! तब कोई इच्छा शेष नहीं रहती! न कोई भावना ही! तब, कर्तव्य-बोध शेष रह जाता है! जिसका पालन, ये देह, आपसे, मुझसे बिन पूछे भी करती है! जैसे श्वास, हृदय-स्पंदन आदि आदि!" कहा मैंने,
"हाँ, यही तो सत्य है इस संसार का!" बोले वो!
''और तब, हम, इस लोक में, लौकिक-सेवा करते हैं!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कितना हास्यास्पद है न! कितना ही अजीब!" कहा मैंने,
"वो क्या?" पूछा उन्होंने,
"कि हम, हम पढ़े-लिखे मानव! पढ़े-लिखे, धन-धान्य से सम्पन्न मनुष्य, ये भी नहीं जानते कि कर्तव्य क्या है और सेवा क्या?" पूछा मैंने,
''वो कैसे?'' पूछा उन्होंने,
"बताता हूँ!" कहा मैंने,
अब मैंने जगह बदली, एक जगह बैठे बैठे थक चला था मैं, दूसरी जगह बैठा तो आराम सा पड़ा!
"बताइये!" बोले वो,
"माँ-बाप की सेवा? सेवा है या कर्तव्य?'' पूछा मैंने,
मेरा ये प्रश्न सुन, खुद ही सकते में पड़ गए बाबा लोग!
"बताइये?" पूछा मैंने,
"ये सेवा नहीं, कर्तव्य है!" बोले वो,
"बिलकुल ठीक!" कहा मैंने,
"अब यदि, ये कर्तव्य है, तो माँ-बाप की सेवा कैसे हो?" पूछा मैंने,
"प्रत्येक पुत्र का ये अहम कर्तव्य होता है, पुत्र क्यों, पुत्री भी, कि उसके कारण, उसके माँ-बाप पर, कोई आक्षेप न लगे! क्योकि, व्यक्ति को प्रथम संस्कार उसके माँ-बाप से ही मिला करते हैं! अब, पुत्र एवं पुत्री, माँ-बाप का नाम रौशन करे, कुलदीपक की भूमिका निभाये, जो गाड़ी, उनके माँ-बाप यहां तक ढो लाये, वो खंडित न हो, बल्कि, आगे बढ़े! निर्बाध रूप से! पुत्र एवं पुत्री, संतान के कारण, उनके संस्कारों के कारण उनके माँ-बाप का नाम चमके, यही सब से बड़ी सेवा है माँ-बाप की!" बोले वो,
"बिलकुल ठीक बाबा बिलकुल ठीक! यही उनकी सबसे बड़ी सेवा है!" कहा मैंने,
"हाँ, यही सेवा है!" बोले वो,
"रोगी को निदान देना, निर्धन की मदद करना, भूखे को भोजन कराना, पीड़ित की पीड़ा का निदान करना, असहाय की मदद करना, निर्बल को सरंक्षण देना, जीव-मात्र पर दया करना आदि यही सब एक मनुष्य के कर्तव्य हैं! जो मनुष्य, जानबूझकर, अपने कर्तव्य से विमुख होता है, जाने, अनजाने, तो ईश उस से उसी प्रकार विमुख हो जाता है! ये सरल सी परिभाषा है! इसी प्रकार, सेवा और कर्त्वय, इन दोनों में ही एक दीर्घ अंतर है! अफ़सोस, हम जानते ही नहीं, अनभिज्ञ हैं, अथवा, जानना ही नहीं चाहते!" कहा मैंने,
"जानना ही नहीं चाहते!" बोले बाबा!
"खैर बाबा, अब रात बहुत हो गयी! अब सुबह मिलता हूँ आपसे पुनः!" कहा मैंने,
"हाँ, हाँ अवश्य!" बोले वो,
और हम, उन्हें हाथ जोड़, आ गए बाहर! अभी भोजन भी करना था, हालांकि अब भूख नहीं थी! कल उस स्थान पर जाना था, तो भूख-प्यास सब साथ छोड़ गयी थी! फिर भी बाली आ गया था, भोजन का प्रबंध किया उसने, और हमने भोजन किया, चादर ओढ़, इसके बाद फन्ना के सो गए! रात बारिश हुई, नहीं हुई, रुकी, नहीं रुकी कुछ पता नहीं चला!
सुबह उठे, तो मौसम साफ़ सा हा, बारिश नहीं थी, हाँ, बादल ज़रूर बने हुए थे, हर तरफ बारिश की मार देखी जा सकती थी! पेड़-पौधे हरियाली से सराबोर हो चुके थे, कीचड़ भी बढ़िया मात्रा में हँसे जा रही थी! बारिश न पड़े अब तो बढ़िया हो, यही आस बांधे थे हम! खैर, नहाये-धोये, फारिग हुए और फिर चाय-नाश्ता किया! करीब नौ बजे मैं बाबा के पास गया, बाबा संतोष मिले, उनसे बातें हुईं, और इस प्रकार, करीब साढ़े ग्यारह बजे जाना तय हो गया हमारा!
ग्यारह बजे तक मौसम और साफ़ हो चुका था, धूप खिल चुकी थी, हाँ, नमी बहुत थी, यही परेशानी का सबब थी! खैर, अब सर दिया ओखली में तो मूसल से क्या डर! अब बजे तो बजे मूसल मूसलाधार!
ठीक साढ़े ग्यारह बजे, बाबा समरू, बाबा संतोष, बाली, कान्हू मैं और शर्मा जी, हम निकल पड़े! रास्ता था तो खराब ही लेकिन इतना भी नहीं कि आवागमन न हो सके! हम आराम आराम से निकलते चले गए! बस इतना हुआ, कि डेढ़ घंटे की जगह सवा दो घंटे लग गए! लेकिन हम पहुँच गए उधर! सड़क किनारे, वो दोनों बाबा उस जगह को घूरते रहे! जानता था, वो समय फिर से आ खड़ा हुआ है उनके सामने! वही समय!
मैं गया उनके पास, बाबा संतोष के कंधे पर हाथ रखा, जैसे उन्हें पता ही न चला! वो कुछ बुदबुदा रहे थे, कुछ मंत्र से, मन ही मन, बस, उनके होंठ, कभी कभार हिल जाते, मूंछें कभी ऊपर नीचे हो जातीं! मैंने रोका नहीं उन्हें! मैं ये स्थिति भांप सकता था, उनकी जगह मैं भी होता तो शायद ऐसा ही करता!
और फिर वे रुके, हाथ जोड़े उन्होंने!
"बाबा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"यही स्थान है न वो?" पूछा मैंने,
"हाँ, यही स्थान है वो!" बोले वो,
"आगे चलें?" पूछा मैंने,
"हाँ, चलते हैं!" बोले वो,
और वो आगे चलने लगे, हम भी उनके पीछे पीछे चलने लगे! कान्हू ने बाबा समरू की लाठी को सहारा दिया, और उनका हाथ पकड़, ले चला आगे आगे!
"ये, ये जो जगह है न?" बोले बाबा संतोष,
"जी बाबा?" कहा मैंने,
"यहाँ, यहां पहले, कुरगा(जंगली कदम्ब) के वृक्ष थे, बड़े बड़े!" बोले वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, बहुत से थे, आठ या दस होंगे!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
''अब एक भी नहीं!" कहा उन्होंने,
"हैं, लेकिन छोटे हैं अभी, दूसरी तरफ!" कहा मैंने,
"पहले, यहीं थे! और वो, वो जो टीला है ना?" बोले वो,
"हाँ?" मैंने देखते हुए कहा,
"वहां, वहां एक बड़ा सा कक्ष था, बड़ा सा, पत्थर का!" बोले वो,
''अच्छा! अच्छा!" कहा मैंने,
"हम सब, वहीँ ठहरा करते थे!" बोले वो,
"अच्छा बाबा!" कहा मैंने,
"आज, एक पत्थर भी नहीं वहां!" बोले वो,
"हाँ बाबा, अब कुछ नहीं है शेष!" बोला मैं,
"सब लील गयी ये भूमि!" बोले वो,
"अच्छा बाबा!" कहा मैंने,
"और उधर, वो, उधर देख रहे हो?" बोले वो,
"हाँ, गड्ढे से बने हैं जहां?" पूछा मैंने,
"हाँ, वहां जोहड़ थी!" बोले वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"बारहों मासी, पानी ठहरा करता था, साफ़!" बोले वो,
''अच्छा बाबा!" कहा मैंने,
"अब, बरसात में भी नहीं ठहरता!" बोले वो,
"हाँ, देख रहा हूँ!" कहा मैंने,
"हाँ, नहीं ठहरता अब!" बोले वो,
"जाता कहाँ है पानी फिर?" पूछा मैंने,
"नाले में!" बोले वो,
"अच्छा, नाला होगा यहीं?" कहा मैंने,
"हाँ, पास में ही है!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
''आओ, आगे आओ!" बोले वो,
"हाँ, आगे चलिए!" कहा मैंने,
और हम आगे चले, बूढ़े पांवों को तकलीफ हो रही थी! मुझे दुःख हो रहा था, लेकिन उनके तन में जैसे यौवन उतर आया हो, ऐसा जोश था!
"वो, उधर! देखो!" बोले वो,
"हाँ, हाँ बाबा?" कहा मैंने,
"उधर ही, सब, भोजन किया करते थे, सभी!" बोले वो,
जानता था, जानता था कि भूतकाल का वो खाका, उनकी आँखों में, मस्तिष्क से होता हुआ, बाहर आ गया है! सब ठीक वैसा का वैसा ही! उन्हें, एक एक स्थान ज्ञात था! एक एक वृक्ष! एक एक कोना! तेईस बरस बाद भी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तेईस बरस बाद भी, यादें ताज़ा थीं उनकी! जैसे, उनके लिए, कल की ही बात हो! ऐसे ही बाबा समरु, वृद्ध की आँखों में, भले ही उम्र की थकान थी, परन्तु अभी भी, वो समय याद था उन्हें! झुर्रियों से ढकी हुई उन आँखों में, तेईस बरस पुरानी वो रात, आज फिर से ज़िंदा हो चली थी!
"वो देख रहे हो?" कांपते हाथ से, बाबा संतोष ने इशारा किया एक तरफ!
"हाँ, वो टीला, पहाड़ी?" पूछा मैंने,
"हाँ, वही!" बोले वो,
"हाँ बाबा, देख रहा हूँ!" कहा मैंने,
"यहां था वो मंदिर!" बोले वो,
"अच्छा बाबा!" कहा मैंने,
"उसके साथ, वहां? देखो? वहाँ, वहाँ एक और छोटा मंदिर था!" बोले वो,
"अच्छा बाबा!" कहा मैंने,
"इसी में एक मूर्ति हुआ करती थी!" बोले वो,
"किसकी मूर्ति बाबा?" पूछा मैंने,
"माँ दुर्गा की!" बोले वो,
"अच्छा बाबा!" कहा मैंने,
"मूर्ति क्या थी, एक पिंडी की तरह थी! आँखे बना दी गयीं थीं, बड़ी बड़ी आँखें, मुझे आज भी देवी का वो स्वरुप स्पष्ट रूप से याद है!" बोले वो,
"वो मंदिर, बनवाया किसने होगा?" पूछा मैंने,
"पता नहीं, इतिहास नहीं मालूम उसका!" बोले वो,
"अच्छा, प्राचीन रहा होगा?" पूछा मैंने,
"हाँ, प्राचीन मंदिर था वो!" बोले वो,
"अच्छा बाबा!" कहा मैंने,
आगे जाकर, बाबा समरु एक पत्थर पर जा बैठे, सहारा दिया कान्हू ने, अब चढ़ाई थी हल्की सी, बाबा समरु न चढ़ सकते थे! चढ़ते तो उतरने में अवश्य ही दिक्कत होती! तब, बाबा के साथ बाली ठहर गया था, और हम, आगे बढ़ चले थे!
हम ऊपर की तरफ चढ़े, बाबा संतोष का हाथ, कान्हू ने पकड़ा हुआ था, मिट्टी धसक जाती थी बार बार, सावधानी से चढ़ रहे थे हम! संतोष बाबा की हिम्मत देख, मै चकित था! इस आयु में भी, उन्होंने ऊपर चढ़ना ज़ारी रखा था, मुझे उनको देख प्रसन्नता हुई कि इस उम्र में भी क्या जीवट है बाबा का!
चढ़ाई कोई ज़्यादा नहीं थी! कुछ दो सौ मीटर, बीच बीच में ज़मीन समतल हो जाती थी, आराम मिलने लगता था, पानी संग लेते आये थे, तो पानी भी पीते जा रहे थे, बाबा ने अब तक, बस एक बार ही पानी पिया था!
आगे गए, तो रोका बाबा ने, हम रुक गए! वहीँ!
"वो देख रहे हो?" बोले वो,
"हाँ, वो तो एक समतल सा बड़ा पत्थर है!" कहा मैंने,
"हाँ, यहीं बाबा समंद बैठा करते थे!" बोले वो,
"अच्छा! ध्यानावस्था में?" पूछा मैंने,
"हाँ, ध्यानावस्था में!" बोले वो,
"तो यहीं कोई कुटिया आदि भी होगी?" पूछा मैंने,
"नहीं, कोई नहीं, मंदिर में ही आवास था!" बोले वो,
"अच्छा! और भोजन आदि की व्यवस्था?" पूछा मैंने,
"वो हमारे ज़िम्मे था!" बोले वो,
''अच्छा! समझा!" कहा मैंने,
"अब रुको ज़रा, उधर चलो, मै बैठूंगा!" बोले वो,
"हाँ बाबा! बैठ जाओ! आओ!" कहा मैंने,
कान्हू, हाथ थामे, उन्हें ले चला एक जगह, पत्थर था बड़ा सा, वहीँ बिठा दिया! शर्मा जी,. आसपास का अवलोकन करने में जुटे थे थे, और मेरी नज़रें, उस स्थान को ढूंढ रही थीं, जिसे बाबा ये कहें कि ये रहा वो समाधि-स्थल! बेचैनी बढ़ती जा रही थी! वो स्थल अवश्य ही यहीं कहीं था! लेकिन कहाँ? यहां तो, जंगल ही जंगल था! तो क्या वो स्थल, जंगल में था? यदि था, तो कहाँ?
अब मै बैठा बाबा के समीप ही! एक बार फिर से दो घूँट पानी पिया! और बोतल शर्मा जी को दे दी!
"बाबा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"कुछ पूछ सकता हूँ?" पूछा मैंने,
"क्यों नहीं!" बोले वो,
"वो समाधि-स्थल यहीं है, आसपास?" पूछा मैंने,
"ले जा रहा हूँ वहीँ!" बोले वो, मुस्कुराते हुए!
"अच्छा, क्या समीप ही है?" पूछा मैंने,
"बस थड़ा सा आगे!" बोले वो,
"जंगल में?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"ओह..मैंने सोचा, कि शायद जंगल में!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"अच्छा बाबा!" कहा मैंने,
कुछ देर और आराम किया उन्होंने, और फिर उठे, कपड़े झाड़े, मैंने भी झाड़े, और हम आगे बढ़ चले फिर, हम अब नीचे की तरफ चलने लगे, यहां बड़े बड़े पत्थर पड़े थे, लेकिन एक भी उस मंदिर का नहीं था! बड़ी ही हैरत की बात थी ये! मंदिर लोप हुआ, ध्वस्त हुआ और पीछे कोई नामोनिशान तक नहीं छोड़ गया! ये भी कोई दैविक घटना ही प्रतीत होती थी! नहीं तो भूकम्प कैसा भी हो, कुछ निशान तो छोड़ ही जाता है, हाँ, खेड़ा-पलट हो तो एक अलग बात है! खेड़ा-पलट कोई मामूली घटना नहीं! ये एक बड़े स्तर पर हुआ करती है! खेड़ा-पलट जब होता है, तो नदियां अपना स्थान बदल लेती हैं! भूखंड बदल जाते हैं! सबसे अधिक खेड़ा-पलट की घटनाएँ, बुंदेलखंड क्षेत्र में हुई हैं, और ये, आगे तक चलती हुई मध्य-प्रदेश के अंदरूनी क्षेत्र तक चली गयी है! आज का मथुरा, अयोध्या आदि प्राचीन शहर, आज मूलतः वे शहर नहीं हैं! इन सभी में खेड़ा-पलट हुआ है! दिल्ली के पास, स्थित लोनी शहर(उत्तर प्रदेश) सबसे नवीन है! ये शहर एक समय पर, पहाड़ी पर बसा था, आज मैदानी भाग है! इसके नीचे आज भी, महाभारत कालीन नगर के अवशेष शेष हैं! ये एक प्राकृतिक घटना है!
खैर साहब!
हम नीचे नीचे चलते रहे, कुछ पानी जमा था आसपास, लेकिन पत्थरों से रास्ता बन जाता था! पानी ठहरा नहीं था, बस कहीं कहीं जम गया था कुछ गड्ढों में!
"बाबा? और आगे?" पूछा मैंने,
"हाँ, थोड़ा सा और!" बोले वो,
"जी बाबा!" कहा मैंने,
हम और आगे चल दिए!
अचानक से, सुंगंध आने लगी! सुगंध, जैसे धूपबत्ती जल रही हो, जास्मीन की सुगंध सी! ये सुगंध आ कहाँ से रही थी? क्या पौधे थे उसके वहां? या कोई अन्य वनस्पति? सुगंध ऐसी थी, कि मै ठहर गया! विस्मित सा हो गया! शर्मा जी भी विस्मित से हो गए थे, मै आसपास की वनस्पतियों का अवलोकन करने लगा था, कुछ नया नहीं था, वही, वही जंगल था, वही लताएँ, वही पौधे, वहीँ झाड़ियाँ और वही उरुकरा के जंगली फूल! ये फूल तो गंधहीन होते हैं! तो फिर?
"बाबा?" कहा मैंने,
'सुगंध?" बोले वो, मुस्कुराते हुए!
"हाँ बाबा!" कहा मैंने,
"वहां! वहां देखो!" बोले वो,
और मैंने जैसे ही देखा!!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सामने देखा! एक स्थान सा! अधिक बड़ा नहीं! छोटा सा ही! वहाँ, जास्मीन ही जास्मीन! पौधे लगे थे! आज हवा का रुख हमारी ओर रहा होगा, इसीलिए सुगंध ही सुगंध! ये तो ऐसे लगे थे यहां, जैसे कोई खरपतवार! पता नही कितने पौधे रहे होंगे! बहुत सारे थे वो! मैं तो गिन भी न सकता था!
"ये सब?" पूछा मैंने,
"अपने आप हुए!" बोले वो,
"अपने आप?" पूछा मैंने,
"हाँ, अपने आप!" बोले वो,
"शायद कलम बन गयी हो?" पूछा मैंने,
"हाँ, पहाड़ी क्षेत्र तो है ही, क्या देर लगती है!" बोले वो,
"हाँ, फुटैर ही है ये!" कहा मैंने,
"और वैसे भी, माँ दुर्गा को तो यही पसंद हैं!" बोले वो,
"निःसंदेह! जैसे श्री अघोरी नाथ जी को पारिजात, ठीक वैसे ही श्री महा दुर्गे को ये जास्मीन!" कहा मैंने,
"हाँ, श्री दुर्गे के गले में जो माल हैं, वो इसी के हैं!" बोले वो,
"जी, जी हाँ!" कहा मैंने,
"आओ, यहां से आओ!" बोले वो,
पूरा माहौल उन जास्मीन के फूलों की सुगंध से नहाया हुआ था! जैसे इत्र छिड़का गया हो जगह जगह! फूल भी बिंदा बराबर के! बड़े बड़े! ऐसे बड़े फूल तो शायद ही कहीं देखे हों मैंने! हाँ, पंढरपुर में अवश्य ही देखे थे मैंने ये फूल! ऐसे ही बड़े बड़े! उसके अलावा, अब यहां देख रहा था!
"आओ, इधर से!" बोले वो,
"हाँ, बाबा!" कहा मैंने,
थोड़ा ही आगे गए हम, कि एक पावन सी जगह दिखी! यहाँ दीये लगे थे, हालांकि अभी तो बुझे हुए थे, लेकिन लगता था कि यहां लगातार या तो कोई साधना करता आ रहा है या फिर, नित्य रूप से, नियमानुसार पूजन होता आ रहा है!
"ये जगह?" पूछा मैंने,
"हम!" बोले वो,
"हम, यानि, आप और बाबा समरु?" कहा मैंने,
"मुरी भी!" बोले वो,
''अच्छा! आप तीनों ही!" कहा मैंने,
"हाँ, और कोई नहीं, अब तुम!" बोले वो,
"जी बाबा!" कहा मैंने,
"यहां आते हैं हम, प्रत्येक पूनम की रात्रि!" बोले वो,
"अच्छा! समझा अब!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तो क्या यही है वो स्थान?" पूछा मैंने,
"थोड़ा आगे, पीछे की तरफ!" बोले वो,
"ओह! दिखाइए बाबा!" कहा मैंने,
"आओ!" बोले वो,
और मैं, जैसे पाँव में फिरकी लग गयी हो, ऐसे मुस्तैद हो गया!
"चलो बाबा!" कहा मैंने,
हम चले, आगे की तरफ, दो मोड़ काटे, और एक जगह आये! यहां वनश्री की बेले लगी थीं! गिलोय जैसे पात होता है इनका! छोटा, रंग में एकदम हरी! डंठल ऐसा मज़बूत कि रस्सी बन जाए इसकी!
"वो, वो देखो!" बोले वो,
"वहाँ?" कहा मैंने,
"हाँ, वहाँ!" बोले वो,
मैं दौड़ कर गया वहां! यहां तो मंदिर सरीखा माहौल था! पावन सा माहौल!
"यही है वो स्थान!" बोले बाबा!
"यही?" पूछा मैंने,'
"हाँ, इसी भूमि में समाधिलीन है तापसी!" बोले वो,
"कहाँ बाबा?'' मैंने पूछा, पूछा, हैरत से! अचरज से! जैसे, मैं इस धरा पर न होऊं! जैसे, किसी देव-भूमि पर खड़ा होऊं! ऐसा स्थान! ऐसा, देव स्थान!
"ये सामने का पत्थर है न?" बोले वो,
"जी बाबा? कहा मैंने,
"इसे चौखट समझो!" बोले वो,
"ओह! तो इतना धसक गया ये?" पूछा मैंने,
"हाँ, धसक गया!" बोले वो,
"तो यहीं समाधि ली थी तापसी ने!" कहा मैंने,
"हाँ, ठीक यहीं!" बोले वो!
समाधि-स्थल समक्ष था मेरे! परन्तु! परंन्तु अब कुछ प्रश्न मेरे मस्तिष्क में कुलबुलाने लगे थे! इन्हे बिना जाने, यूँ समझिए कि वहाँ से लौटना ही सम्भव न था! कितनी सरलता सी थी! ये एक स्थान है, आज से तेईस बरस पहले, एक तापसी ने समाधि ली थी यहां, लौटने को कहा था उसने! बस! कथा का अंत! लेकिन नहीं! नहीं! इसकी सारगर्भिता एकदम अलग थी! पहला प्रश्न! अब मैं पूछने वाला था!
"बाबा?' कहा मैंने,
"हाँ, पूछिए, जानता हूँ!" बोले वो,
"तापसी का उद्देश्य का था यहां आने का?" पूछा मैंने,
"अच्छा प्रश्न है, समूल ही उत्तर है इसमें" बोले वो,
"बताइये बाबा?" कहा मैंने,
"बताता हूँ!" बोले वो,
"हाँ बाबा! यदि ध्यान ही करना होता, तो वो कहीं भी लगाया जा सकता था, इधर, इस बीहड़ में किसलिए?" पूछा मैंने.
"हाँ, सच बात है! ध्यान तो कहीं भी लगाया जा सकता है!" बोले वो,
"तो यहां आने का कारण?" पूछा मैंने,
"कारण! बाबा समंद!" बोले वो,
"बाबा समंद तो ले कर आये होंगे उसे?" कहा मैंने,
"हाँ, वही लाये थे!" बोले वो,
"तो यहीं क्यों?" पूछा मैंने,
"जानना ही चाहते हो?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, जानना आवश्यक है!" कहा मैंने.
"बाबा समंद ही लाये थे, लाये थे चूँकि वो सिद्धि-प्राप्त थे!" बोले वो,
"सिद्धि-प्राप्त?" मेरे होश उड़े!
"हाँ, सिद्धि-प्राप्त!" बोले वो,
"कैसी सिद्धि?" पूछा मैंने,
"गम्यमान-सिद्धि!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ, गम्यमान-सिद्धि प्राप्त थे वो!" बोले वो,
"क्या इस सिद्धि के ग्यानी थे वो?" पूछा मैंने,
"हाँ, यूँ मानो, सिद्धहस्त!" बोले वो,
मेरे प्रश्न ने, मेरे ही चेहरे पर तमाचा जड़ा खींच कर!
"नहीं यक़ीन?" पूछा उन्होंने,
"है यक़ीन!" कहा मैंने,
"बाबा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"यदि गम्यमान सिद्धि-प्राप्त थे वो, तो यहीं क्यों आये?" पूछा मैंने,
"तापसी को सिद्ध करवाने!" बोले वो,
"तो क्या तापसी सिद्ध हुई?" पूछा मैंने,
"हाँ हुई!" बोले वो,
"यहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"पाखरा! जोगरा मंदिर!" बोले वो,
"उस मंदिर?" पूछा मैंने, इशारा करते हुए!
"हाँ, उस मंदिर!" बोले वो,
"सच में?'' कहा मैंने,
"हाँ, सच में!" बोले वो,
"वो तापसी, गम्यमान-सिद्धि की ज्ञाता थी?" पूछा मैंने,
"हाँ, थी!" बोले वो,
गम्यमान सिद्धि! समाधि की उच्चावस्था! देह यहीं और सूक्ष्म शरीर कहीं और विचरण करे! क्या भूत! क्या वर्तमान और क्या भविष्य! यही है गम्यमान-सिद्धि! भगवान गौतम बुद्ध को, अपने चालीस पूर्व-जन्म ज्ञात थे! एक एक पारिमता पूर्ण की उन्होंने एक एक जन्म में! तब जाकर, निर्वाण-सिद्ध हुए वो! यही चालीस जन्म की कथाएँ, जातक-कथाएँ हैं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बाबा?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"मुहाना कहाँ है?" पूछा मैंने,
"मुहाना?" बोले वो,
"हाँ, प्रवेश-द्वार?" कहा मैंने,
"उधर, उधर है!" बोले वो,
"दिखाओ?" कहा मैंने,
"आओ!" बोले वो,
अब मैं चला उनके साथ, धीरे धीरे, पत्थरों और झाड़ियों से बचते हुए रास्ते बनाया हमने! और फिर एक सघन से जगह पर आ गए हम! यहां तो वनस्पति ही वनस्पति थीं! जंगल का एक सघन सा टुकड़ा मान लीजिये आप!
"ये, ये है!" बोले वो,
"परन्तु यहां तो कोई चिन्ह नहीं?" कहा मैंने,
''सब लील गयी भूमि!" बोले वो,
"ये जगह भी?" पूछा मैंने,
"हाँ, हमने सभी ने, दूर भाग कर, सब देखा था!" बोले वो,
"भाग कर?" पूछा मैंने,
"हाँ, भाग कर!" बोले वो,
"भाग कर क्यों बाबा?" पूछा मैंने,
"जैसे भूमि के अंदर विस्फोट हुआ हो, ऐसा हुआ था!" बोले वो,
"कारण? कोई तो कारण रहा होगा?'' पूछा मैंने,
"रहा होगा, लेकिन, खेद! हमें नहीं पता, न जान ही सके!" बोले वो,
"ओह...और बाबा समंद?'' पूछा मैंने,
"कुछ न बोले!" बोले वो,
"कुछ न बोले? अर्थात?" पूछा मैंने,
"हाँ, उन्होंने जैसे मौन धारण कर लिया था!" बोले वो!
"कैसा मौन?" पूछा मैंने,
"उस समाधि के पश्चात, मौन धारण कर लिया था उन्होंने!" बोले वो,
इसका क्या अर्थ हुआ?
क्या वही?
वही जो मैं सोच रहा था अब?
कोई चूक? भूल?
हाँ...अवश्य ही! अवश्य ही!
"बाबा?" कहा मैंने,
"बोलिए?" बोले वो,
"मेरे मन में आशंकाएं उभर रही हैं!" कहा मैंने,
"कैसी आशंकाएं?" पूछा उन्होंने,
"ज़रा ये बताएं?" कहा मैंने,
"पूछो?" बोले वो,
"उस रात कौन कौन था हाँ?" पूछा मैंने,
"मै, बाबा समंद, मुरी, बाबा संतोष और वो तापसी स्वयं!" बोले वो,
"पांच लोग?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"और कोई नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं, और कोई नहीं!" बोले वो!
"चतुर्थ प्रहर था?" पूछा मैंने,
"हाँ, आरम्भ ही हुआ था!" बोले वो,
"अच्छा, और उस समय, ऋतुस्नानपूर्णि के समय, कौन था उसके साथ?" पूछा मैंने,
"मुरी!" बोले वो,
"मुरी?" पूछा मैंने,
"हाँ, वही थी!" बोले वो,
दिमाग में बजा घंटा! हथौड़ा बजा! अब समझा! अब समझ गया कि क्यों कहा था मुरी ने, कि शेष बातें, बाबा लोग बताएंगे और फिर, हमें, फिर से लौटना होगा मुरी के पास! क्योंकि, आगे की गुप्त बातें, मात्र वही जानती है!
"बस बाबा!" कहा मैंने,
"हुआ क्या?' बोले वो,
"आपको ही ज्ञात नहीं! कुछ ज्ञात नहीं!" कहा मैंने,
"वो भला क्या?' पूछा उन्होंने,
"मै जान गया हूँ!" कहा मैंने,
"वो क्या?'' पूछा उन्होंने,
"अंदेशा ही है अभी! अंदेशा, और ये भी, कि बाबा समंद ने मौन क्यों धारण किया था! अब जान गया हूँ मै!" बोला मै!
"बताओ तो?" बोले, थोड़े खिन्न से होकर!
"आपकी प्रतीक्षा, पूर्ण नहीं होगी, आशंका है!" कहा मैंने,
"क्या????" बोले वो,
"हाँ, आशंका है!" कहा मैंने,
"ऐसा...ऐसा क्यों बोल रहे हो?" बोले वो, झुँझला कर!
"बताऊंगा! आज ही बताऊंगा! आप लौट जाओ बाबा! वापिस! मै चलता हूँ!" कहा मैंने,
"कहाँ जा रहे हो?" पूछा उन्होंने,
"इस कड़ी का अंतिम सिर ढूंढने बाबा!" कहा मैंने,
"मुझे समझाओ तो?'' चीख कर बोले वो!
"समझ जाओगे!" कहा मैंने,
मै लपक कर गया शर्मा जी के पास! वो भी हैरत में पड़ गए थे!
"आओ शर्मा जी!" कहा मैंने,
"कहाँ?" बोले वो,
"ये कहानी आज ही खत्म होगी!" कहा मैंने,
"कहानी?" बोले वो,
"हाँ, कहानी!" कहा मैंने,
"नहीं समझा मै!" बोले वो,
''समझ जाओगे!" कहा मैंने,
"समझाओ?" बोले वो,
अब तक बाबा भी आ गए थे हमारे पास ही! कभी मुझे देखते, कभी उस स्थान को! वे, ऐसे हो रखे थे, जैसे कोई कटा पेड़!
"सुनो? सुनो ज़रा!" मेरे कंधे पर हाथ रख कर बोले वो,
"बोलो बाबा?" कहा मैंने,
"क्या बात है? उखड़ क्यों रहे हो?" बोले वो,
"नहीं उखड़ रहा!" कहा मैंने,
"फिर क्या अनाप-शनाप बक रहे हो?" बोले वो, गुस्से से!
"गलती आपकी नहीं बाबा!" कहा मैंने,
"बात क्या है?" बोले वो,
"बताऊंगा! बस, मिल आउं!" कहा मैंने,
"किस से? मुरी से?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" बोला मै,
"क्या ऐसा कुछ है, कि मुरी जानती है, और हम नहीं?" बोले वो,
"हाँ, मुरी जानती है! आप नहीं!" कहा मैंने,
"ऐसा है क्या?" बोले वो,
"यही तो पता करने जा रहा हूँ!" कहा मैंने,
"खुल कर बोलो?" बोले वो,
"बोलूंगा! आओ! आओ शर्मा जी!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
"सुनो?" बोले बाबा,
"जी?" कहा मैंने,
"मै भी चलता हूँ!" बोले वो,
"नहीं! आप यहीं रुकिए, आते हैं हम!" कहा मैंने,
और हम, दौड़ लिए वहां से! मेरी आशंका, क्या रूप लेती है, बस, यही देखना था!


   
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अब हम वहां से तीर हुए! निशाना सामने था हमारा! कभी दौड़ते-भागते! कभी रुक जाते! कभी सुस्ताते! कभी रुक जाते और फिर से दौड़ते! मेरी आशंका की बारिश, मेरी नैय्या को गहरे पानी में डुबो देने को आमादा थी! पानी, जैसे उसे लील लेने को आतुर था! मै तो जैसे व्युत्पात एवं निर्वात के मध्य भारहीन हुए, झूले खा रहा था! जिस ओर नैय्या झुकती, उसी ओर लड़खड़ा जाता था! तेईस बरस पहले की वो घटना मुझे जैसे पल भर पहले की लगने लगी थी! हुआ क्या था? सबसे अंतिम मिलने वाली उस से सिर्फ मुरी ही थी! मुरी को पता था, उसको भान था कि उस तपस्विनी के साथ हुआ क्या था! आशंका के साथी कौवे, मेरे प्रश्न लगातार उड़ रहे थे मेरे सर पर! उनका क्रंदन जैसे मारे ही जा रहा था मुझे! मेरा ध्यान, बरबस उस अपशकुनों पर दौड़े चला जाता था! पहला ये, कि बाबा समंद ने आखिर मौन क्यों धारण किया? इसका अर्थ क्या हुआ? इसका अर्थ हुआ, जो मुझे समझ आता था कि बाबा समंद को मालूम था कि वहाँ हुआ क्या था! तो ये मुरी? मुरी भी जानती थी? शायद जानती हो! हाँ, जानती ही होगी! याद है न? उसने क्या कहा था? कहा था, बस, अब ये समाप्त होना चाहिए! यही कहा था! हाँ, यही कहा था! तब मुझे ये समझ नहीं आया था, मै इसे किसी और भी समझ में समझ बैठा था! लेकिन ये, मेरी समझ का फेर था! इन दोनों बाबाओं को तो कुछ मालूम ही न था! ये अनभिज्ञ ही थे! इनको दूर ही रखा गया था! खेल तो शुरू हुआ था बाबा समंद और इस मुरी के बीच! तो क्या मै बाबा समंद पर पुनः विचार करूँ? क्या इस मुरी और बाबा समंद के बीच कोई संबंध था? कोई अनुचित संबंध? यदि ऐसा ही समझा जाए, तो ये प्रकरण समझ आता था! और पहले, एक एक करके, टूटती चली जाती! सुलझ जाती आराम से! और इसके लिए, मुझे बाबा समंद ही वो चूल लगे जिन्होंने ये वीभत्स खेल खेला! यदि मै बाबा समंद के विषय में ऐसा सोचूं तो! लेकिन सच्चाई तो मुरी ही जानती थी! और इसीलिए मै, मुरी की तरफ बढ़े चला जा रहा था! दूसरा अपशकुन ये, कि वो विस्फोट क्यों हुआ था? विस्फोट, कब हुआ था? कितने विलम्ब पश्चात? क्या साथ ही साथ? या, कुछ विलम्ब पश्चात? इस आशंका को, कुछ खरोच लगती थी, खरोंच ये, कि बाबा समरू ने कहा था, कि भूमि ने स्वतः ही मार्ग दिया था तापसी को, समाधि के लिए! चलो मान लेता हूँ! मान लेता हूँ कि वो सामर्थ्यवान थी! और यदि वो थी, तो उसको समाधि की आवश्यकता ही क्या थी? वो तो इस समाधि, समाध एवं, सुमाध आदि से तो बहुत ऊंची थी?
कुछ यही प्रश्न थे, कुछ ऐसे ही, जो कुलबुला रहे थे मेरे मन में! इनका जवाब मिलना बेहद ज़रूरी था! साथ ही साथ, अपने भावो पर भी काबू करना था! नहीं तो, इस समय, ये मुरी, मेरे क्रोध का भाजन हो जाने वाली थी! असत्यभाषी! जिसने अभी तक, इन दोनों बाबाओं को सिर्फ छला था! छलती आ रही थी! सच्चाई कभी न सामने लायी थी, पता नहीं, किस समय का इंतज़ार था उसे!
"इतने गंभीर क्यों हो?" पूछा शर्मा जी ने,
"विषय ही ऐसा है!" कहा मैंने,
"क्या लग रहा है?" बोले वो,
"षड्यंत्र!" कहा मैंने,
''षड्यंत्र?" बोले वो, चौंकते हुए!
"हाँ!" कहा मैंने,
"कैसा षड्यंत्र?" पूछा उन्होंने,
"उस तापसी के साथ!" कहा मैंने,
"तापसी के साथ?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ये क्या कह रहे हो?" बोले वो,
"आशंका है मुझे!" कहा मैंने,
"आशंका कैसी?" पूछा उन्होंने,
"उसकी हत्या हुई है!" कहा मैंने,
"क्या?????" ज़ोर से पूछा उन्होंने,
"हाँ, निःसंदेह हत्या ही हुई है!" कहा मैंने,
"ये क्या कह रहे हो आप?" बोले वो,
"संदेह से दूर भी नहीं हूँ!" कहा मैंने,
"रुको, रुको!" बोले वो,
"हाँ, बोलो?" कहा मैंने,
"हत्या कब हुई?" बोले वो,
"उसी रात्रि, चतुर्थ प्रहर में!" कहा मैंने,
"पक्का कैसे कह सकते हो?" पूछा उन्होंने,
"कह सकता हूँ!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोले वो,
"बस ये जान लूँ, कि समाधि के उस स्थान तक, क्या ये मुरी थी मौजूद?'' कहा मैंने,
"ये तो अटकल हुई?" बोले वो,
"हाँ, अभी तक तो!" कहा मैंने,
''और यदि हत्या न हुई हो तो?'' पूछा उन्होंने,
"तब तो मेरे जीवन का सबसे बड़ा, अधूरा एवं गूढ़ रहस्य है ये!" कहा मैंने,
"तो तैयार हो जाओ!" बोले वो,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"हत्या नहीं हुई!" बोले वो,
"आप कैसे कह सकते हो?" कहा मैंने,
"हत्या से, किसको सबसे अधिक लाभ?" बोले वो,
"बाबा समंद को! उस मुरी को!" कहा मैंने,
"क्या लाभ?" बोले वो,
"बाबा समंद शायद न चाहते हों कि तापसी, इस प्रकार से, आगे चली जाए!" बोला मै,
"इसे मै अटकल कहूँ तो?" बोले वो,
"कह सकते हो, फिलहाल तो है भी!" कहा मैंने,
"आप ने कुछ गौर किया?'' पूछा उन्होंने,
"कैसा गौर?" पूछा मैंने,
"मुरी ने, अभी तक ये किसी को नहीं बताया, तो आपको क्यों बताएगी?" बोले वो,
"सम्भव है, अपराध-बोध?" कहा मैंने,
"सम्भव है!" कहा उन्होंने,
"इसीलिए कहा मैंने!" कहा मैंने,
''समझ गया!" बोले वो,
"तो ये मुरी!" कहा मैंने,
"हाँ, चलो!" बोले वो,
और हम चल पड़े आगे के लिए!
"यदि ऐसा ही है, तो ये सबसे बड़ा धोखा है!" बोले वो,
"सो तो है ही!" कहा मैंने,
"एक मिनट!!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"वो जोगरा मंदिर का धन?" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"उसका पता, मुरी ने दिया होगा!" कहा उन्होंने,
"ये कही न बात!" कहा मैंने,
"यदि ऐसा ही है, तो आप सही हैं!" कहा उन्होंने,
"यही जानना चाहता हूँ!" कहा मैंने,
"हाँ, यही ज़रूरी है सबसे!" बोले वो,
"चलो फिर, आज मुरी से सब जान ही लेते हैं!" कहा मैंने,
और हम, तेज पांवों से चलते हुए, बढ़ चले मुरी के स्थान के लिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो हम, पहुँच गए उधर! अब चले अंदर की तरफ! महिलायें, दो चार जो वहां थीं, एक साथ गुट बना कर खड़ी हो गयीं! कोई पुरुष था नहीं वहां! मै आगे गया, उन महिलाओं के पास, और एक से बात की, अधेड़ उम्र की महिला था वो!
"मुरी है क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ, अंदर हैं!" बोली वो,
"बताएंगी कहाँ?" पूछा मैंने,
अब उसने दिशा बताई और फिर एक महिला को ही आगे भेज दिया, हम उसके पीछे पीछे चल दिए! वो हमे ले आई एक कमरे तक, और इशारा कर दिया अंदर जाने का! और वो महिला, लौट गयी वापिस फिर!
मैंने तब दरवाज़ा खटखटाया! आहिस्ता से, दीमक ने चाट रखा था सारा, ज़्यादा खटखटाता तो सारा निकल ही आता बाहर!
"आ जाओ?" आई आवाज़,
हमने उतारे जूते, और चले फिर अंदर की तरफ! सामने तख्त पर, शायद साग छाज रही थी मुरी, हमें देखा तो हल्का सा मुस्कुराई वो, हमने नमस्कार की उसे! जी तो नहीं कर रहा था, लेकिन व्यक्ति को अपने संस्कार कभी नहीं छोड़ने चाहियें, इसीलिए मैंने नमस्कार की उसे!
"आ जाओ, बैठो!" बोली वो,
हम बैठ गये, उसने साग रखा एक तरफ, और उठ कर, चली गयी दूसरे कमरे में! मैंने वो साग देखा, साग नहीं था, कुछ बथुआ सा था वो, शायद वहीँ के देहात में मिलता हो ये!
वो आई वापिस, पानी लायी थी, हमने पानी के गिलास पकड़े, और फिर पानी पिया, गिलास रख दिए नीचे ही, तख्त के!
"मालूम किया बाबा से?" पूछा उसने, फिर से वो साग उठाते हुए,
मै कुछ न बोला, बस उसके भाव देखता रहा, या तो वो मूर्ख थी, या अत्यंत ही शातिर अथवा, मै ही गलत था!
"मालूम किया?" पूछा उसने  फिर से,
"मुरी?" बोला मै,
"हाँ?" बोली वो, मुझे बिना देखे!
"उस चतुर्थ प्रहर में तुम साथ ही थीं तापसी के?" पूछा मैंने,
"हाँ, साथ ही थी!" बोली अब, मुझे देखते हुए!
"वो सकुशल थी?" पूछा मैंने,
''सकुशल? मतलब?" पूछा उनसे,
"उसकी तबीयत ठीक थी?" पूछा मैंने,
"हाँ? क्यों?" पूछा उसने,
"बाबा समंद कहाँ थे?" पूछा मैंने,
"पूजन में थे" बोली वो,
"तुम अकेली थीं उसके साथ?" पूछा मैंने,
"हाँ? कोई और क्यों होता?" पूछा उसने,
"मुझे क्यों लगता है कि तुम्हारे कुछ अनैतिक संबंध थे बाबा समंद के साथ?" पूछा मैंने,
"क्या???" उसने साग रखते हुए कहा,
"हाँ? क्यों की तुमने हत्या उस तापसी की?" पूछा मैंने,
"दिमाग सही है तुम्हारा? कौन कहता है तापसी की हत्या हुई?" बोली वो,
"मुझे लगता है ऐसा" कहा मैंने,
"क्यों लगता है ऐसा?" पूछा मैंने,
"बाबा समंद ने मौन क्यों धारण किया?" पूछा मैंने,
"मुझे क्या पता?'' बोली वो,
"सच में नहीं पता?" पूछा मैंने,
"नहीं, नहीं पता!" बोली वो,
"रुको, जब समाधि लेने वाली थी तापसी, तब तुम उसके साथ थीं?" पूछा मैंने,
"उस कक्ष में जाने के अनुमति किसी को नहीं थी!" बोली वो,
"किसी को भी?" पूछा मैंने,
"हाँ, किसी को भी!" बोली वो,
"तो उस समय कक्ष में कौन था, उस अंतिम समय में?" पूछा मैंने,
"बाबा समंद!" बोली वो,
"बाबा समंद?" पूछा मैंने,
"हाँ, वही थे" बोली वो,
"क्या उस अंतिम समय में, तुमने देखा था उसे?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"तो, तुम्हें कैसे पता कि उसने समाधि ली थी?" पूछा मैंने,
"बाबा समंद ने बताया" बोली वो,
बड़ी ही अजीब सी स्थिति थी ये तो! किस पर यक़ीन करूँ? ये मुरी, यदि सच कह रही है, तो...और यदि मेरा ही शक बाबा समंद पर गलत है तो.....क्या करूँ? अब एक और सवाल, क्या सच में ही समाधि ली थी? कौन बताये? बाबा समंद हैं नहीं जो उनसे मालूमात की जाए! और ये तीन, अनभिज्ञ ही हैं!
हे भगवान!
ये कैसा विकट यक्ष-प्रश्न मेरे सामने खड़ा है! इसका उत्तर क्या है? कहाँ से धुंध लाऊँ इसका उत्तर? कौन देगा इसका उत्तर?
"मुरी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"बाबा समंद ने पिता की तरह से पाला था तापसी को, क्या कोई मनमुटाव था उनके बीच? कोई बहस या मतभेद?" पूछा मैंने,
"नहीं, बाबा समंद तो टूट कर प्रेम करते थे उसे! प्राण बसते थे बाबा समंद के तापसी में! जब तक तापसी को भोजन न करा देते, न देख लेते, स्वयं ही ठूंठ समान हो जाया करते थे! कोई मतभेद नहीं था, और तापसी, तापसी के लिए तो बाबा समंद का एक एक शब्द आशीष था, आशीर्वाद, एक आदेश!" बोली वो!
ये अटकल भी हुई राख!
"क्या इन बाबाओं में से किसी से मतभेद था?" पूछा मैंने,
"नहीं, कोई मतभेद नहीं!" बोली वो,
"कोई और?" पूछा मैंने,
"कोई था ही नहीं!" बोली वो,
"अच्छा.....अच्छा......." कहा मैंने,
"अरे वो तो ऐसी थी, कि बनैले पशु भी उसके नेत्रों की करुणा देख, अपनी पाश्विक प्रविृति ही भूल जाएँ!" बोली वो,
"हम्म्म" कहा मैंने,
"तो किसी से कैसा मतभेद?" बोली वो,
"एक बात और मुरी?" कहा मैंने,
"हाँ, पूछिए!" बोली वो,
"बाबा समंद, यहां क्यों लाये थे उसको?" पूछा मैंने,
"ये सवाल मैंने भी पूछा था!" बोली वो,
"किस से?" पूछा मैंने,
"स्वयं तापसी से!" बोली वो,
"हैं? क्या उत्तर दिया उसने?" पूछा मैंने,
"बताती हूँ, रुको!" बोली वो, गिलास उठाये और चली गयी कक्ष में!
मैंने शर्मा जी को देखा, वे मुस्कुराये, कुछ रहस्य वाली हंसी!
"सच कह रही है! एक शब्द भी झूठ नहीं!" बोले वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो आ गयी कुछ ही देर में! चाय ले आई थी, चाय बनाने ही गयी थी! दी हमें, स्टील के गिलास में गरम गरम चाय! मैंने चुस्की ली, और उस चुस्की के साथ ही, बरी कर दिया मैंने मुरी को! क्या सोचा था मैंने इस बेचारी के बारे में! ये गरीब ज़रूर है, परन्तु ईमान की धनी है! शायद मै भी छोटा ही पड़ता हूँ उसके सामने! उसके चीथड़े से कपड़े, पुराने ज़रूर हों, परन्तु तन को ढकते हैं पूर्ण रूप से! एक बार को तो, मै शर्मिंदा ही हो गया! जी तो किया, पाँव पकड़ लूँ उसके! क्षमा मांग लूँ इस मुरी से! ये भी जानता हूँ, क्षमा, क्षण में मिल जायेगी! इसीलिए नहीं, दबे रहने दो शर्मिंदगी में! ऐसी सोच पाली ही क्यों मैंने, अब भुगतो सजा उसकी! गलती की है, तो भुगतना ही पड़ेगा!
"बाबा ने क्या बताया आपको?" बोली वो,
"मुरी? मुझे आप न कहो, छोटा हूँ बहुत आपसे!" कहा मैंने,
मुस्कुरा गयी वो!
"मेरी बड़ी बहन की तरह हो आप! आपके चरणों में स्थान है मेरा!" कहा मैंने,
तब, एक बड़ी बहन की तरह, मेरे सर पर, हाथ फेरा उसने! सच कहता हूँ, यही है मानवीयता! यही है प्रेम, स्नेह एवं आदर! उस पल जो सुखानुभूति मुझे प्राप्त हुई, शब्दों से परे है!
"मुरी?" कहा मैंने,
"हाँ, बोलो?" बोली वो,
"क्या लगता है?" पूछा मैंने,
"किस बारे में?" पूछा उसने,
"यही कि, क्या, तापसी ने कहा था कि वो वापिस लौटेगी?" पूछा मैंने,
"हाँ, कहा था!" बोली वो,
"क्यों मेरी साँसे तोड़ने में लगी हो मुरी?" बोला मै,
"वो कैसे?" पूछा उसने,
"तेईस बरस, एक चौथाई उम्र, कोई लौटेगा क्या?" पूछा मैंने,
''यक़ीन नहीं?" बोली वो,
"नहीं मुरी, एक से सौ तक यक़ीन नहीं!" कहा मैंने,
"जानती हूँ!" बोली वो,
"तब भी प्रतीक्षा?'' कहा मैंने,
"हाँ, चूँकि, वो लौटेगी!" बोली वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"कभी भी! पूनम की रात!" बोली वो,
"क्यों हवा से पता पूछ, आगे बढ़ रही हो?" कहा मैंने,
"आगे?" बोली वो,
"हाँ, प्रतीक्षा, प्रतीक्षा का क्षण, प्रतिक्षण, आगे, और आगे!" कहा मैंने,
"आपके अनुस......." बोली वो तो मैंने रोका!
"नहीं! आप नहीं!" कहा मैंने,
''अच्छा!! तुम्हारे अनुसार, ये सब व्यर्थ है?" बोली वो,
"हाँ, व्यर्थ! वो नहीं लौटेगी!" कहा मैंने,
"सच में?" पूछा उसने, मुस्कुराते हुए!
"हाँ, सच में, परछाईं साथ तो चलती है, लेकिन बोलती नहीं!: कहा मैंने,
"और कुछ?" बोली वो,
"हाँ, और अँधेरे में वो, अँधेरे के संग हो जाती है, आपके संग नहीं!" बोला मै,
"कह लिए?" बोली वो,
"हाँ, अब आप कहिये?" कहा मैंने,
"एक बात बताओ?" बोली वो,
"पूछो?" कहा मैंने,
"गोपनि जानते हो न?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"परतख?" बोली वो,
"आपका मतलब प्रत्यक्ष?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"हाँ, जानता हूँ!" कहा मैंने,
''और जो परतख काम ही न करे?" बोली वो,
"यदि कोई है, वही है, तो काम शत-प्रतिशत करेगा!" कहा मैंने,
"पक्का?" पूछा उसने,
"पक्का!" कहा मैंने,
"तो तैयार हो?" बोली वो,
"हाज़िरी के लिए?" बोला मै,
"हाँ!" बोली वो,
"हाँ, तैयार हूँ!" कहा मैंने,
"चलो फिर!" बोली वो,
"चलो?" बोला मै,
"हाँ? चलो?" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"जोगरा!" बोली वो,
"जोगरा? क्यों?" पूछा मैंने,
"चलो तो सही?" बोली वो,
"बताओ तो सही?" कहा मैंने,
"गोपनि जानते हो न?' बोली वो,
"अरे हाँ जी!" कहा मैंने,
''आओ फिर!" बोली वो,
"क्या लाभ?" पूछा मैंने,
"देखना है?" बोली वो,
"देखना है? क्या?" पूछा मैंने,
"यथार्थ?" बोली वो,
"यथार्थ? समझा नहीं?" कहा मैंने,
"तापसी को देखना है?" बोली वो,
झटका!
कहीं गिर ही न जाता मै!
मूर्छित! कहीं मूर्छित ही आना हो जाता!
"क्या कह रही हो?" बोला मै,
"देखना है?" बोली वो!
"हाँ? देखना है????" कहा मैंने,
''आओ फिर!" बोली वो,
"जोगरा?" पूछा मैंने,
"हाँ, असली जोगरा!" बोली वो,
"असली??" आता मुझे चक्कर तभी!
"हाँ! असली!" बोली वो!
हे भगवान! मै कहाँ आ गया! कहाँ? ये क्या हाल हुआ मेरा???
"असली जोगरा?" पूछा मैंने,
"हाँ, असली!" बोली वो,
"कैसा असली?" पूछा,
''वहीँ तो वास था!" बोली वो,
"तापसी का?" पूछा मैंने,
"ना!" बोली वो,
"न???? तो??? तो फिर??" पूछा मैंने,
वो मुस्कुराई!!!
और फिर.....!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कहानी में नया मोड़! नया मोड़ और फिर एक नया जोड़! अब ये जोगरा भी असली नकली! पता नहीं अभी क्या क्या असली था और क्या क्या नकली! खैर, हाज़िर-मंत्र का जाप करना था, पता करना था किसी के बारे में! अब क्या मिले और क्या नहीं, ये तो वहीँ पता चले!
"आती हूँ मैं!" बोली वो,
और वो चली गयी, शायद वस्त्रादि बदलने हों उसे!
"ये रहस्य तो गहराता ही जा रहा है!" बोले शर्मा जी,
"पता नहीं और कहाँ जा कर थमेगा!" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं, हाज़िर ही देख लो!" बोले वो,
"हाँ, ये भी आजमा लेते हैं!" कहा मैंने,
"तो वो जो मंदिर था, वो जोगरा का मंदिर, क्या वो असली नहीं?" पूछा उन्होंने,
"मुरी के हिसाब से तो नहीं!" कहा मैंने,
"पता नहीं कौन असली है और कौन नकली!" बोले वो,
"हाँ, सब गड्ड-मड्ड है यहां तो!" कहा मैंने,
"अरे?" बोले वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"कमाल है!" बोले वो,
"हुआ क्या?" पूछा मैंने,
"सुलझ गयी पहेली!" बोले वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"बेकार में ही सर धुन रहे हैं हम!" बोले वो,
"ऐसा क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"इस पहेली का सीधा सीधा संबंध किस से हैं?" पूछा उन्होंने,
"तापसी से?" कहा मैंने,
''और तापसी का?'' पूछा उन्होंने,
"बाबा समंद से?" कहा मैंने,
"तो उत्तर कहाँ है?" बोले वो,
"कैसा उत्तर?" पूछा मैंने,
"बताता हूँ, आप यही जानना चाहते हो न की तापसी के संग क्या हुआ?'' पूछा उन्होंने,
"हाँ, सिर्फ यही!" कहा मैंने,
"तो इसका उत्तर छिपा है बाबा समंद की मृत्यु में!" बोले वो,
हथौड़ा बजा!
घनघना के सर पे ज़ोर से!
"अरे हाँ! हाँ!" कहा मैंने,
"समझ गए?' बोले वो,
"हाँ समझ गया!" कहा मैंने,
मैं तो उठ ही गया वहाँ से! और शर्मा जी भी!
"अब अपने सवाल जोड़ो बाबा समंद से, सारे रहस्य सुलझ जाएंगे!" बोले वो!
"ये दिमाग में पहले क्यों नहीं आया?" पूछा मैंने,
"समय नहीं था शायद!" बोले वो,
"हाँ, यही बात है!" कहा मैंने,
आई मुरी! वस्त्र बदल आई थी! साधिका का सा वेश था अब उसका! पीले रंग के वस्त्र पहने थे उसने! मैं दौड़ कर गया उसके पास!
"मुरी? मुरी?" कहा मैंने,
"हाँ? क्या हुआ?" पूछा उसने!
"बैठो ज़रा! बैठो!" कहा मैंने,
वो बैठ गयी! और मैं संग बैठ गया उसके!
"मुरी, ये बताओ मुझे?" कहा मैंने,
"क्या? पूछो?" कहा उसने,
"बाबा ने उसी रात से मौन धारण किया था ना?" पूछा मैंने,
"हाँ, उसी रात से" बोली वो,
"अच्छा, एक बात और मुरी?" कहा मैंने,
"पूछो?" बोली वो,
"समाधि लेने के पश्चात, उस तापसी के, बाबा समंद कितना जिए थे?" पूछा मैंने,
"एक माह, बस इतना ही" बोली वो!
अब आया सूत्र पकड़ में! अब आया अंतिम छोर!
"उन्होंने भोजन त्याग दिया था?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"मात्र जल?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"मृत्यु-पूर्व समाधिलीन थे?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"किसने जाना की मृत्यु हो गयी उनकी?" पूछा मैंने,
"बाबा समरु ने!" बोली वो,
"बस मुरी!" कहा मैंने,
"क्या हुआ?' पूछा उसने!
"बस, अब जान गया मैं!" बोला मैं,
"क्या जान गए?" पूछा उसने!
"एक दुःख की खबर है!" कहा मैंने,
"कैसा दुःख?" बोली वो,
"यही, कि तापसी, अब कभी न लौटेगी!" कहा मैंने,
"ये क्या कह रहे हो तुम? उसने वचन दिया था?" बोली वो,
"गुरु-आस्था पर!" कहा मैंने,
"गुरु आस्था?" बोली,
"हाँ, गुरु-आस्था पर!" कहा मैंने,
"क्या कह रहे हो?" बोली वो,
"तापसी के संग जो हुआ था उस रात, उसे मात्र एक ही व्यक्ति जानता था! मात्र एक!" कहा मैंने,
"कौन?" पूछा उसने,
"बाबा समंद!" कहा मैंने,
"नहीं समझी मैं?" बोली वो,
"कोई चूक हुई मुरी! कोई चूक!" कहा मैंने,
"चूक?" बोली वो,
"हाँ, कोई बहुत बड़ी चूक!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोली वो,
''बाबा ने मौन इसीलिए धारण किया!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"हाँ, शायद, अपराध-बोध!" कहा मैंने,
''वो ऐसा क्यों करेंगे?" पूछा उसने,
''अब इस विषय में मुझे ज्ञात नहीं, मेरा विषय कभी नहीं रहा ये, हाँ, इतना कह सकता हूँ कि अब वो तापसी, कभी नहीं लौटेगी!" कहा मैंने,
"तुम्हारा कहना, मान लूँ मैं?" बोली वो,
"क्यों नहीं?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"नहीं! वो तो आज भी जीवित है!" बोली वो,
"कल्पनाओं में?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
''तो?" कहा मैंने,
"असलियत में!" बोली वो,
"क्या कह रही हो? पगला गयी हो क्या?" कहा मैंने,
"नहीं मानते?" बोली वो,
"नहीं, नहीं मानता, मान ही नहीं सकता!" कहा मैंने,
''और जो देख लो?" बोली वो,
''दे.........................ख????" मेरे होश उड़े!
"हाँ, देख!" बोली वो,
"तुम विक्षिप्त हो गयी हो! तुम तीनों! तुम कुछ और सोच ही नहीं सकते! अपनी ही सोच में क़ैद हो तुम! कूप-मंडूक की तरह!" कहा मैंने,
और ये बोलते हे अब मैं हंसा! कैसे मूर्ख लोग हैं वो! असलियत से वाक़िफ़ नहीं! अँधेरे में कल्पना कर, तापसी को देख रहे हैं!
"नहीं मानते?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"ठीक! आओ फिर!" बोली वो,
"कहाँ?" कहा मैंने,
''समाधि-स्थल!" बोली वो,
"वहीँ से तो आ रहा हूँ?" कहा मैंने,
"बाबाओं के समाधि-स्थल से?" पूछा उसने,
"क्या मतलब?" पूछा मैंने,
"हाँ? उन्हीं के समाधि-स्थल से न? उनके बताये हुए?" पूछा मैंने,
"ये क्या कह रही हो?" बोला मैं,
"सुनो? वहीँ से न?" बोली वो,
"हाँ, वहीँ से!" कहा मैंने,
''आओ, देर न करो अब!" बोली वो,
और पाँव पटकते हुए, तेजी से बाहर निकली वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम भी लपके तभी के तभी बाहर जाने को! मुरी बाहर ही खड़ी हुई थी, हमारा ही इंतज़ार कर रही थी! हमने झट से अपने जूते पहने और हो लिए संग उसके! मुरी के चलने की रफ़्तार बड़ी ही अच्छी थी! हमें लम्बे लम्बे डिग भरने पड़ते थे! हम आ गए बाहर! और मुरी जैसे हमें हांकते हुए आगे बढ़ती रही!
"वहीँ जाना है?" पूछा मैंने,
"हाँ, वहीँ पर!" बोली वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"वो दोनों वहीँ हैं?" पूछा उसने,
"हाँ, दोनों ही हैं!" कहा मैंने,
"और कोई?" पूछा उसने,
"एक है, लकड़ी वाला, सामान लाता है, कान्हा और एक वही बाली!" कहा मैंने,
''अच्छा, ठीक!" बोली वो,
"मुरी?" कहा मैंने,
"पूछो?" बोली वो,
"बाबा समंद कहाँ पूर्ण हुए थे?" पूछा मैंने,
"जोगरा में!" बोली वो,
"एक माह के भीतर?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"क्या हुआ होगा? कभी सोचा?" पूछा मैंने,
''सभी ने सोचा, शायद पुत्री-वियोग होगा!" बोली वो,
"ऐसा सिद्ध मानव और वियोगावस्था?" पूछा मैंने,
"हमें तो यही लगा?'' बोली वो,
"नहीं मुरी!" कहा मैंने,
रुक गयी मुरी! मुझे देखा!
"इसमें भी कुछ रहस्य है?" पूछा उसने,
"हाँ, है!" कहा मैंने,
''वो भला क्या?" पूछा उसने,
"समाधि उस तापसी के लिए नयी तो नहीं थी?" कहा मैंने,
"हाँ? नहीं थी?" बोली वो,
"कभी पहले वियोग हुआ?'' पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"तब भी नहीं समझीं?" कहा मैंने,
"तुम्हारे अनुसार, बाबा से चूक हुई?" बोली वो,
"हाँ, अब या तो ये चूक थी, या फिर जानबूझकर किया उन्होंने!" कहा मैंने,
''जानबूझकर?" हैरत से पूछा उसने,
"हाँ, जानबूझकर!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोली वो,
"बाबा कोई नए नहीं थे, उम्र गुजार दी थी इसी क्षेत्र में! मैं इसे चूक कैसे मान लूँ?" कहा मैंने,
"हाँ, बात तो सही है!" बोली वो, लेकिन घबराई हुई सी,
"चूक की गुंजाइश मुझे नज़र नहीं आती मुरी!" कहा मैंने,
"मान लेती हूँ" बोली वो,
"मानना ही होगा!" कहा मैंने,
"लेकिन?" बोली वो,
"क्या लेकिन?" पूछा मैंने,
"जानबूझकर वो ऐसा क्यों करेंगे? ये जान लूँ, उसके बाद मान लूँगी!" बोली वो,
"यही तो मैं भी अटका हूँ मुरी!" कहा मैंने,
"एक बात बताओ?" बोली वो,
"पूछो?" कहा मैंने,
"बाबा को क्या लाभ?" पूछा उसने,
"हाँ, क्या लाभ? यही पता चल जाए तो पहेली ही न सुलझ जाये ये!" कहा मैंने,
"आज ही सुलझ जायेगी!" बोली वो,
''हे ईश्वर! ऐसा ही हो!" कहा मैंने,
हम आधे रास्ते तक चले आये! एक जगह रुके, पानी पिया और कुछ देर सुस्ताने के बाद आगे बढ़े हम! अब बस थोड़ी दूर ही था वो स्थल!
"मुरी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
:हमे जोगरा भी जाना होगा!" कहा मैंने,
"कब?" पूछा उसने,
"जब आप कहो?" कहा मैंने,
"अच्छा, चलेंगे आज ही!" बोली वो,
"हाँ, एक बात और?" कहा मैंने,
"वो क्या?" पूछा उसने,
"बाबा की अंत्येष्टि कहाँ हुई थी?" पूछा मैंने,
"जोगरा" बोली वो,
"क्या कोई पुत्र आया था उनका?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"खबर की थी?" पूछा मैंने,
"बाबा ने कहा था कि कर दी" बोली वो,
"फिर भी कोई नहीं आया?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"कोई भी नहीं?" पूछा मैंने,
"कोई ही नहीं" बोली वो,
"बाद में भी?" पूछा मैंने,
"उनकी पत्नी का भाई, साला आया था" बोली वो,
''साला?" बोला मैं,
"हाँ, भस्मी लेने" बोली वो,
"ये भी समझ नहीं आया!" कहा मैंने,
"खैर, हमने दे दी थी!" बोली वो,
"हम्म" कहा मैंने,
"बाबा ने स्वयं ही मना किया हो?" कहा मैंने,
"हो सकता है" बोली वो,
"बाबा का व्यवहार कैसा था?" पूछा मैंने,
"मिलनसार थे, शांत" बोली वो,
"हम्म!" कहा मैंने,
"कोई दोष नहीं था" बोली वो,
''समझ गया!" कहा मैंने,
'अच्छा, एक बात और, ये विशेष है!" कहा मैंने,
"वो क्या?" पूछा उसने,
"क्या तापसी ने स्वयं कहा था कि वो लौटेगी?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"किस से कहा था?" पूछा मैंने,
"उस रात, समाधि से पूर्व!" बोली वो,
"किस से?" पूछा मैंने,
''सभी से" बोली वो,
"बाबा समंद थे वहां?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
अब मैं उछल पड़ा! उछला जैसे तेज सैलाब, आ टूटा हो!
"मुरी? तब बाबा कहाँ थे?" पूछा मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए!
"मंदिर में!" बोली वो,
"कौन से मंदिर?" पूछा मैंने,
"वहीँ, समाधि के समीप वाले!" बोली वो,
"पूजन के लिए?'' पूछा मैंने,
"ये नहीं पता!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"मैं उबटन का लेप कर रही थी तापसी को!" बोली वो,
"लेप?'' पूछा मैंने,
"हाँ, प्रत्येक समाधि में ऐसा ही तो होता है?" बोली वो,
"क्या उसी रोज या पहले भी?" पूछा मैंने,
"पहले भी!" बोली वो,
मामला अब जहां आ खड़ा हुआ था, अंत निकट था उसका! परन्तु, ये और कितना गहरा था, भान ही नहीं हो पा रहा था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और इस तरह हम बातें करते करते, सवाल जवाब करते करते आ गए समीप उस स्थान के! मुरी के चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान तैर आई! मैं इस मुस्कान को बयान नहीं कर सकता! क्या ये किसी ख़ुशी को व्यक्त करती थी? पता नहीं! क्या कुछ छिपा था इस मुस्कान में? पता नहीं! क्या और कुछ मतलब था इसका? वो भी नहीं पता! पता ही नहीं चला मुझे! या तो मैं ही भटक गया था या फिर मेरा ध्यान ही नहीं गया था उसकी उस मुस्कान को पढ़ने में!
"यही जगह है न मुरी?" पूछा मैंने,
"कैसे भूल सकती हूँ!" बोली वो,
"यही था वो मंदिर?" पूछा मैंने,
"ठीक यहीं!" बोली वो,
"समाधि भी यहीं ली थी?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"वो पहाड़ी से नीचे की तरफ?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"बाबा समंद, यहीं थे?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
''आप सभी भी?" बोला मैं,
"हाँ!" बोली वो,
''आओ मुरी!" कहा मैंने,
और हम नीचे उतरे तब! झाड़ियाँ पार करते हुए, आहिस्ता से!
"कितने बरस बाद आई हो?" पूछा मैंने,
"प्रत्येक पूनम की रात आती हूँ!" बोली वो,
''आज भी?" पूछा मैंने,
"हाँ, आज भी!" बोली वो,
"इस पूनम की रात का क्या रहस्य है मुरी?" पूछा मैंने,
''वो रात, पूनम की ही होगी!" बोली वो,
"उसके लौटने की?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"ऐसा उसने बोला?" पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
''एक मिनट! तो वो रात भी पूनम की ही थी?" पूछा मैंने,
"किस रात लौटेगी, ये नहीं बताया?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
धम्म! जैसे मैं गिरा पहाड़ से! सीधे ही खायी में!
"नहीं मुरी! नहीं!" कहा मैंने,
"क्या नहीं?" पूछा उसने,
"नहीं मुरी! ओह!" कहा मैंने,
"क्या नहीं???" बोली वो,
"वो नहीं लौटेगी! कभी नहीं लौटेगी मुरी!" कहा मैंने,
"ये क्या कह रहे हो?" बोली वो,
''सच कह रहा हूँ!" बोला मैं,
"नहीं, नहीं!" बोली वो,
"इसीलिए बाबा ने मौन धारण किया!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"ताकि कोई कुछ न पूछे उनसे!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"ये समाधि उसकी, उस पार के लिए थी, चली गयी!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"हाँ, बाबा का यही उद्देश्य था!" कहा मैंने,
"क्या?' बोली वो,
"इसी उद्देश्य से लाये थे वो उसको यहां!" कहा मैंने,
"मैं नहीं मानती!" बोली वो,
"मत मानो!" कहा मैंने,
"तो उसने क्यों कहा ऐसा?" पूछा उसने,
अब मैं चुप! इसका उत्तर नहीं था मेरे पास!
''आओ, आओ नीचे, बाबा से बात करती हूँ!" बोली वो,
"हाँ चलो मुरी!" कहा मैंने,
तेज क़दमों से हम नीचे चले! और आ गए बाबा  के पास! ये बाबा समरू थे, मुरी को देख, मुस्कुराये वो, मुरी ने प्रणाम किया और उन्होंने स्वीकार किया! कुछ बातें हुईं उनके बीचे!
"मुझे भी ले चलो!" बोले वो,
''आओ बाबा!" बोले शर्मा जी,
और सहारा दे, धीरे धीरे उनको ऊपर की तरफ लाने लगे हम!
बाबा संतोष वहीँ मिले, मुरी को देखा! चेहरे के भाव बदले उनके! इस बार, दोनों के भाव भांप गया मैं! अवश्य ही कुछ था उन भावों में! कुछ मौन सा वार्तालाप हुआ था, पल भर के लिए! अब हम सब वहीँ इकठ्ठा हो गए! उनकी आपस में बातें होने लगीं! मेरे सवाल ही उछाले जाने लगे! रह रह कर, सब मुझे, देख लेते! जैसे सारा दोषारोपण मेरे माथे बाँधा जा रहा हो!
"मुरी?" बोले बाबा समरू!
"हाँ बाबा?' बोली वो,
"इनकी बात सुनी?" बोले वो,
"हाँ!" बोली वो,
"क्या अर्थ है?" पूछा उन्होंने,
"इनके प्रश्न अपनी जगह सटीक हैं!" बोली वो,
आह! मुझे तस्सली हुई ये सुनकर! मैं धूल में लाठी नहीं भांज रहा था! मेरे पास कुछ ठोस आधार था, इसीलिए अड़ा हुआ था!
"इनके अनुसार, कुछ ऐसा है, जो हम नहीं जानते, अनभिज्ञ हैं हम!" बोले वो,
"ये सत्य भी हो सकता है!" बोली वो,
"मैं नहीं मानता ऐसा?" बोले संतोष बाबा!
"ये तो मानते हैं!" बोली वो,
"इनके अनुसार मुरी, तापसी की हत्या हुई!" बोले वो,
"नहीं! अब नहीं मानते ये ऐसा!" बोली वो,
"सच?" पूछा मुझ से!
"हाँ, नहीं मानता ऐसा!" कहा मैंने,
"अच्छा हुआ!" बोले वो,
"परन्तु, कुछ और भी संदेह, जस के तस हैं!" कहा मैंने,
"जानता हूँ!" बोले बाबा समरू!
"जानते हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"बाबा की मृत्यु!" बोले वो,
"हाँ!!" कहा मैंने,
''एक माह की भीतर ही क्यों हुई?" यही न?'' बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
''और ये कि, तापसी लौटी क्यों नहीं? जैसा उसने कहा था?" बोले वो,
'हाँ, यही सबसे बड़ा संदेह है!" कहा मैंने,
"और ये, कि वो झूठ क्यों बोलेगी?" बोले वो,
"हाँ ये भी!" कहा मैंने,
"सभी उत्तर यहीं हैं!" बोले वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"यहां, इसी स्थान पर!" बोले वो,
"उसी मंदिर की तरह?" कहा मैंने,
"नहीं, उस स्थल की तरह!" बोले वो,
"कैसे भला?" पूछा मैंने,
"बताता हूँ अभी!" कहा उन्होंने,
"जी बताइये!" कहा मैंने,
अब वो एक जगह पर, बैठने को चले, हम भी साथ ही चले,एक बड़े से समतल पत्थर पर पहले टेक ली, धोती ठीक की, टखना रगड़ा अपना, और फिर बैठ गए! हम सभी वहीँ खड़े रह गए आसपास!
"आज से तेईस बरस पहले की बात है ये, सुन लेना, दुबारा नहीं बता पाउँगा!" बोले बाबा,
"जी बाबा!" कहा मैंने,
"बाबा समंद एक तापसी को लाये थे यहां!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
''वो तापसी, आयु में कम ही लगती थी, नहीं विश्वास होता था कि वो समाधू-प्राक् में, इतनी पारंगत है! कम से कम न तो मैंने, और न इन्होने ही, कभी ऐसी महाप्रबल तपस्विनी देखी ही थी!" बोले वो,
"हाँ, कभी नहीं! आज तक भी नहीं!" बोले बाबा संतोष!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"और बाबा समंद! बाबा समंद तो जैसे अपना सर्वस्व उस तापसी को सुपुर्द कर चुके थे! उन्होंने अपना तपोबल, योगबल एवं ध्यानबल, सब जस का तस, उस तापसी को सौंप दिया था! उनकी सगी पुत्री नहीं थी वो! परन्तु सगी से भी अधिक थी उनके लिए! तापसी में प्राण बसा करते थे बाबा के!" बोले बाबा समरु!
"जी बाबा!" कहा मैंने,
"आपका संदेह! संदेह उचित है! जानता हूँ! परन्तु मैं उसे हत्या जैसा निम्न-कोटि का शब्द नहीं कहूँगा!" बोले वो,
''फिर बाबा?" पूछा मैंने, अचरज हुआ मुझे, क्या बाबा समरू को भान था?
"क्या हो आप एक यात्रा पर निकलो! एक पड़ाव पूर्ण करो! दूसरे पर जा पहुँचो! फिर आगे बढ़ो! अगला पड़ाव, आगे पार! क्या आप, किसी पड़ाव पर रुक जाओगे?" पूछा उन्होंने,
"नहीं बाबा! यात्रा के अंत तक तो नहीं!" कहा मैंने,
"यही किया उस तापसी ने!" बोले वो,
"नहीं रुकी वो!" कहा मैंने अब, सब समझ आने लगा था मुझे अब!
"हाँ! वो निरंतर आगे बढ़ती रही!" कहा उन्होंने,
"यही उचित था! उचित है!" कहा मैंने,
"तो, ये संसार, ये लौकिक जगत, उसका, एक ऐसा ही पड़ाव था!" बोले वो,
"और यही उसने पूर्ण किया!" कहा मैंने,
"हाँ, अब ये संसार उसके लायक न बचा था!" बोले वो,
"बस बाबा! बस! अब न सुन पाउँगा! अब न सुन पाउँगा!" कहा मैंने, आवाज़ मद्धम पड़ने लगी थी मेरी, मैं हट गया था वहां से, एक पेड़ के सहारे जा खड़ा हुआ! पीछे मुड़कर देखा! कैसा अनुपम स्थल है ये! जिसने, गोद में धारण किया उस तापसी को! इस पावनि को! उस देवी को! उस महातपस्वनि को! धन्य है ये धरा! धन्य हैं ये लोग! घन्य हुआ जीवन कि उस महातपस्वनि के बारे में जाने को मिला! कोई चूक नहीं हुई थी! कोई चूक नहीं! वो मंदिर ध्वस्त हुआ! हाँ हुआ! करना पड़ा! करना! बाबा समंद को! अपने तपोबल से! योगबल से! ताकि, विचलित न हो, कभी कोई विचलित न करे, न जाने उसके बारे में कभी! उस मंदिर का नामोनिशान भी न बचा! यही तो चाहा था बाबा समंद ने! और तो और, प्राण भी न त्यागे इधर! इधर इस स्थल पर! कभी न आये होंगे वापिस इधर! हाँ, अब वियोग हुआ उन्हें? नहीं! कोई वियोग नहीं! उन्होंने भी समाधि ही ली! अब कुछ शेष न बचा था उनके पास! पूर्णत्व, बिना तापसी के, पूर्णत्व नहीं था, नहीं होता! वाह बाबा! आपको सहस्त्र बार नमन! आपने, अपने आप को ही, परमात्मा को गिरवी रख दिया! ताकि, आगे बढ़ सके उनकी पुत्री! तापसी! उनके, जीते जी! और यही हुआ! यही तो हुआ! सब समझ आ गया! तेईस बरस पुराना वो तानाबाना आज खुल गया! वो मंशा और इच्छा, सब समझ आ गए आज!
तापसी नहीं लौटेगी! ये तो तय है! लेकिन ये बाबा? मुरी? ये कैसा विश्वास? बस, ये एक अंतिम प्रश्न था मेरे मस्तिष्क में शेष! मैं लौटा! तेज क़दमों से! आया उनके पास!
"बाबा? वो तापसी........?" पूर्ण नहीं होने दिया मेरा वाक्य! काट दिया बाबा समरु ने!
"नहीं लौटेगी!" बोले वो,
मैंने तभी सभी के चेहरे देखे! एक असीम सी शान्ति! एक देवत्व-पूर्ण शान्ति! एक भाव का, शान्ति के भाव का ठहराव!
"हाँ! वो कभी न लौटेगी!" बोले वो,
''तो ये पूनम की रात?" पूछा मैंने,
"कोई त्रुटि तो नहीं? कोई त्रुटि? जो हमसे हुई हो? उस देवी के साहचर्य के दौरान? कोई अनजाने में त्रुटि? नहीं हुई? नहीं हुई हमसे! वो नहीं लौटेगी! लौटी, तो त्रुटि अवश्य होगी हमारी! अवश्य! अवश्य ही!" बोले वो,
हे मेरे ईश्वर??
हे मेरे इश्वर?
क्या इस संसार में? आज भी?? ऐसे मानस शेष हैं? ऐसे? बाबा समरू जैसे? बाबा संतोष जैसे? इस मुरी जैसे?
ओह! मैं कैसे, कैसे अपने आप को एक मनुष्य कह सकता हूँ? कैसे? भला कैसे?
ऐसा विश्वास? ऐसा, दृढ विश्वास?
जो है ही नहीं, वो है? जो है, वो है ही नहीं? ये कैसा विश्वास?
भला कैसे, भला कैसे न ईश-प्राप्ति होगी इन्हें? भला कैसे नहीं? अरे! ये तो अत्यंत ही निकट हैं उस से! अत्यंत ही निकट!
मेरे तो चक्षु अब, दृष्टिहीन हो गए!
मुख, जिव्हाहीन हो गया!
मस्तिष्क, बालू की भांति सूखा हो चला था!
देह में कम्पन्न होने लगी थी!
''अब समझ गए आप?" बोले बाबा संतोष!
सर उठाकर देखा मैंने उन्हें! उनके मुस्कुराते हुए चेहरे को! और सर हिलाकर, हाँ कह दी!
''एक रात में लोप! समझे?'' बोले वो,
"हाँ, समझा!" कहा मैंने,
"तापसी?" बोले वो,
"देवी तापसी!" कहा मैंने,
"बाबा समंद!" बोले वो,
"प्रणाम उन्हें!" कहा मैंने,
"स्थल, नहीं देखोगे?" बोली मुरी.
"अवश्य ही" कहा मैंने,
''ले जाओ मुरी!" बोले बाबा समरू!
"हां बाबा!" बोली वो,
मुरी चली, और पीछे पीछे हम! इस बार, उस जगह के लिए नहीं, जो उक्त रूप से दिखाई गयी थी मुझे!
"मुरी?" बोला मैं,
"हाँ?" बोली वो,
'वो जगह तो उधर है न?" पूछा मैंने,
"नहीं! उधर!" बोली वो,
"मुझे तो वही दिखाई गयी थी?" कहा मैंने,
"ताकि मुझे बुलाओ!" बोली वो,
'आपको?" कहा मैंने,
"हाँ, वहां मात्र मैं ही जा सकती हूँ!" बोली वो,
"ओह...समझा अब!" कहा मैंने,
और ले आयी एक स्थान पर! कैसा सुंदर स्थान है वो! गैंदे के फूल! जास्मीन के फूल! पीले यमकरदनी के फूल! चादर सी बिछी थी फूलों की!
"वो देख रहे हो?" पूछा उसने,
'वो मंदिर है क्या?" पूछा मैंने,
'हाँ, मंदिर है!" बोली वो,
"बाद में बनवाया?" पूछा मैंने,
"यही शेष रहा!" बोली वो,
"ओह...." कहा मैंने,
"क्या देवी तापसी ने यहीं समाधि ली थी?" पूछा मैंने,
और तोते चिल्लाये! न जाने, कहाँ से इकट्ठे हो गए थे सारे के सारे!
"उस समय भी यही होते थे यहां!" बोली वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, सैंकड़ों!" बोली वो,
"वाह!" कहा मैंने,
मैंने प्रणाम किया उस स्थल को! अपने आपको, जुड़ा सा पाया उस स्थल से! जैसे, मैं भी कभी, यहीं, आया होऊं, तेईस बरस पहले!
मित्रगण!
वो अंतिम बार ही था, कि मैं वहां था! उसके बाद, कभी न लौट सका उधर! कोई सम्पर्क नहीं! कोई सूत्र नहीं! पता नहीं कोई जीवित है भी या नहीं उधर! हाँ, न भूला तो उस देवी तापसी को! जो मेरे मन में हमेशा के लिए अमर हो गयी! कुछ टुकड़े जोड़ जोड़ कर, ये गाथा लिखी, आपको बताने के लिए! ताकि आप भी, तेईस जमा दो वर्ष और, पच्चीस बरस पहले की उस महातपस्विनी तापसी के विषय में जान सकें! यही लालच था मेरा!
तापसी ने दिखा दिया, सतत लीनता यदि हो, तो क्या नहीं प्राप्त किया जा सकता! इस संसार को तो नगण्य ही जानिये! अपने आपको, ऐसा बना लो, ऐसा, कि ईश्वर का ध्यान स्वयं आप पर चला जाए! तब उस से मांगने की आवश्यकता ही क्या? उसने तो उपकार कर ही दिया, इस संसार में आपको लाकर! अब आपकी बागडोर, आपके हाथों में है! वो कुछ मदद न करेगा! मात्र देखेगा! मात्र यही बस! तो क्यों न, ऐसे कर्म किये जाएँ कि जिस से, कर्मबल बढ़े! कर्मबल से बढ़कर, कोई बल नहीं! इस से अधिक वजनी कोई बल नहीं!
हाँ!
तापसी! तापसी से, यही सीखा मैंने! वो भी तो, साधारण सी मानव ही तो थी! मेरी तरह, आपकी तरह! परन्तु उसका बल! उसका बल अतुलनीय था! जिसकी कोई थाह नहीं! कोई पहुंच नहीं! क्या मेरी ही बिसात! नाम लेते भी, शर्मिंदगी सी होती है महसूस!
जय देवी तापसी!
जय बाबा समंद!
साधुवाद!


   
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