वर्ष २०१३ उत्तरांचल...
 
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वर्ष २०१३ उत्तरांचल के एक स्थान की घटना!

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श्रीशः उपदंडक
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  भादों बीता ही था! हालांकि मौसम में, गरमी की मौजूदगी तो ज़रूर थी, लेकिन उत्तरांचल के वादियों में यही गरमी, जब पहाड़ों से हो कर लौटती है तो शीतल हो जाया करता है! हम जहाँ थे, उसका मार्ग, जोशीमठ से हो कर जाता है, यहां, आँखें ही, डेरे हैं, बसेरे हैं, पड़ाव-स्थल हैं, जहाँ, कभी-कभार ही, कोई कोई ही आता है! उस दिन, सुबह के सात बजे होंगे, सूरज बस निकलने ही वाले थे, क्षितिज पर तो उदय हो चुके थे, परन्तु पहाड़ों के घूंघट में छिपे थे, वहीँ से निकलना शेष था उनका! यहां का माहौल कुछ ऐसा ही, कि देह में जहाँ प्राणों का संचार हो उठता है वहीँ आत्मा भी प्रसन्न हो, दूर दूर तक घूमने चली जाती है! आल्हादित सी हो कर! रंग बिरंगे फूल, शांत, बड़े बड़े से, हरे-भरे पेड़, जंगली फल, बेलें, घास और वानस्पतिक औषधियां, कुछ ज्ञात और कुछ अज्ञात! दूर-दराज के क्षेत्रों में, कुछ कम ही आबादी वाले गाँव भी बसे हैं, सरल हृदय हैं ये ग्रामवासी, सदैव मदद को तैयार! और बदले में, कुछ भी अपेक्षित नहीं! मदद करेंगे और मसुकुरा जाएंगे! सरलता से, विश्वास कर लिया करते हैं! जहां प्रकृति ने, कूट कूट कर यहां का सौंदर्य-पात्र अपनी छटा से भरा है, वहीँ इसके वासी भी ऐसे ही हैं! मेहनतक़श और ईमानदार! हमें बताया गया था कि उस स्थान पर, कुछ जाने-पहचानी सी, कुछ अज्ञात कंदराएँ हैं, वहां क्या रहस्य छिपे हैं, शायद ही कोई जान पाये! ऐसे ही एक स्थान पर, हम भी आये हुए थे, जिनके साथ आये थे, उनका नाम कन्हैय्या है, वे कोई औघड़ नहीं हैं, परन्तु संबंध उनके सभी से हैं! उनके परिवार में, उनके चाचा जी, औघड़ हैं, अक्सर, हरिद्वार के पास ही उनका डेरा लगता है! हमारे पास भी कुछ समय था, जोशीमठ के पास ही आये हुए थे हम, वहीँ कन्हैय्या से मुलाक़ात हुई और हम उनके साथ ही हो लिए! दुर्गम-स्थल जाने की एक लालसा अपने आप ही उठ जाती है अक्सर! बस, यही बात थी! कुछ दिन यहां रुकते, प्रकृति का आनंद लेते, रसपान करते उसके सौंदर्य का, और फिर से, वापिस, उसी शहरी, नीरस ज़िंदगी की राह पर लौट आते!
उधर, एक हरे-भरे से स्थान पर, मैं और शर्मा जी बैठे हुए थे, शर्मा जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं था पिछले दिन से, पेट से परेशान थे वो, और वैसे भी, उनको पेट की समस्या, यदा-कदा लगी ही रहती है, दर्द तो नहीं था, हाँ, हाजत सी महसूस किया करते थे वो उस समय! ये शायद, अपच के कारण था, मैंने उसके लिए, हल्का-खाना ही खाना ही उचित बताया था, चावल मिल जाएँ, दही आदि, इसी से लाभ मिल रहा था उन्हें वैसे तो!
तो हम, ऐसे ही एक पेड़ के नीचे बैठे थे, देखने में तो काठगूलर का सा पेड़ लगता था, लेकिन था नहीं, उसका नाम नहीं जानता था मैं, उस पर जो फल लगे थे, वो कदम्ब के पेड़ के से फल थे, लेकिन ये बड़े और अधिक पीले रंग के थे, कोई पक्षी भी नहीं चोंच मार रहा था उनमे, तो ये तो पक्का था, कि वो फल, खाने लायक नहीं हैं, अब कोई औषधि हो तो हो!
"अब कैसा है पेट?" पूछा मैंने,
"कल से तो ठीक है!" बोले वो,
"कुछ गड़बड़ कर गया है?'' पूछा मैंने,
"हाँ, शायद वो, मछली, शायद!" बोले वो,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
"उसमे मिर्चें ही जानलेवा थीं!" बोले वो,
"हाँ, यही कारण है फिर!" कहा मैंने,
"या फिर वो दूध, गाय का, ताज़ा!" बोले वो,
"कुछ भी हो सकता है! अब ख्याल रखो, हो जाओगे ठीक!" कहा मैंने,
"हाँ, परहेज से ही बात बने!" बोले वो,
"हाँ, परहेज से अच्छा और क्या!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"चलें?" पूछा मैंने,
"हाँ चलो, हाजत भी है!" बोले वो,
"चलो फिर!" कहा मैंने,
और हम चल पड़े वापिस, जिस जगह हम ठहरे थे, वहां झोंपड़ियां थीं, पक्के के नाम पर, पत्थरों से बने कुछ कक्ष से थे, ये ऐसे थे, कि गरमी में कहीं और रख लो, सर्दी में कहीं और! वो जगह, बाढ़ से तो सुरक्षित थी, बाढ़ भी, झाड़ियों और कुछ लोहे की तारों से ही बनी थी, बीच में एक हौदी बनी थी, नहाने-धोने के लिए, कुल मिलाकर, वहां कोई चौदह-पंद्रह लोग थे! लेकिन अभी, आज दोपहर में, हमें आगे जाना था एक जगह, जहां, कन्हैय्या ले जा रहा था हमें, शर्मा जी तो चले गए थे हाजत से फारिग होने, और मैं, ऐसे  ही एक कक्ष में आ बिठा था! नीचे ही बिस्तर लगा था, सो वहीँ बैठ गया! दीवारों में, जगह जगह खूंटियां लगी थीं, कुछ डोरे से बंधे थे उन पर! एक डिबिया थी, रखी हुई, रात में बस इसी का आसरा था! बिजली नहीं थी यहां!
तभी कन्हैय्या आ गया वहाँ, नमस्कार हुई उस से!
''आ भाई कन्हैय्या!" कहा मैंने,
"कहाँ गए बड़े साहब?'' पूछा उसने,
"उनका पेट खराब है कल से, गए हैं फारिग होने!" कहा मैंने,
''अच्छा? अभी दिलवाता हूँ दवा!" बोला वो,
"देसी?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, वही मिलती है यहां तो!" बोला वो,
"और वही ठीक भी है!" कहा मैंने,
"बैठो, मैं लाया!" बोला वो, उठा, और चला गया लेने! यहां ऐसी जगहों पर, अक्सर, बुखार, पेट खराब होने, मोच, दर्द आदि के देसी दवा मिल ही जाया करती है! यहां देसी दवा का ही रिवाज है, यूँ समझिए आप!
आया दस मिनट में, चार पुड़िया ले आया था, अखबार के कागज़ से बना कर!
"बैठ!" कहा मैंने,
"ये रख लो, उन्हें दे देना, मैं पानी भिजवा दूंगा गुनगुना" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
उसने दीं और मैंने रख लीं, वो चला गया फिर, तो मैंने एक पुड़िया खोल के देखी, पीली सी दवाई थी, चूर्ण सा, सूंघ कर देखा तो कुछ पता चला, इसमें गोठरा और बसबैन्जी के फूलों का चूर्ण था! ये माक़ूल दवा है! ये इनका पहाड़ी नाम है, यहां क्या कहते हैं, पता नहीं मुझे! यहां के अलावा और कहीं देखीं भी नहीं मैंने ये झाड़ियाँ! रख ली मैंने, कुछ ही देर में, एक लड़का आया, पानी दे गया गुनगुना, मैंने रख लिया पानी अपने पास ही, और कुछ ही देर में, थके-मांदे से, शर्मा ही भी आ गए!
''आओ!" कहा मैंने,
"कैसा है पेट?'' पूछा मैंने,
''ठीक नहीं है!" बोले वो,
"ये लो, दवा!" कहा मैंने,
"दवा?'' बोले वो, लेते हुए,
"हाँ, कन्हैय्या दे गया है, फंकी मार लो इसको, हर तीन तीन घंटे के बाद एक एक फंकी!" कहा मैंने,
''अच्छा, ठीक!" बोले वो,
और मार ली, एक पुड़िया की फंकी, पी लिया पानी!
''चाय तो पियोगे नहीं?" पूछा मैंने,
"पी ही लूंगा!" बोले वो,
''आने वाली होगी!" कहा मैंने,
तो जी, चाय आई, हमने पी, चाय के साथ, कुछ नमकीन आया था, मैंने ही लिया वो, उसके बाद, वे लेट गए!
दवा ने तो माक़ूल काम किया! दो ही पुड़िया में, पेट जैसे सामान्य हो गया उनका! न कोई हाजत, न कोई दर्द!
"बड़े काम की दवा है!" बोले वो,
"रखवा लो!" कहा मैंने,
''अरे कहाँ!" बोले वो,
"रास्ते के लिए?" कहा मैंने,
"हाँ, ये रखवा लूंगा!" बोले वो,
"देख लो आप, दवा का कमाल!" कहा मैंने,
"अब यहां हर चीज़ तो शुद्ध है! दवा तो कम करेगी ही! जंगली वैसे है!" कहा उन्होंने,
"हाँ, अच्छा एक बात बताओ?'' पूछा मैंने,
"पूछो?'' बोले वो,
"तबीयत ठीक न हो, तो रुक जाएँ आज?" पूछा मैंने,
"हाँ, देख लेते हैं आज!" बोले वो,
"ठीक है फिर, कल निकलते हैं!" कहा मैंने,
वो दिन काटा जी हमने, रात भी काट ली, उस दिन भी कोई हाजत की तकलीफ नहीं, और रात में भी न हुई! सुबह, सब बढ़िया ही था, कन्हैय्या से कह ही दिया था की दवा रख ले, दो तीन दिन की! बस, उस सुबह, चाय-नाश्ता भी किया शर्मा जी ने, दस बजे करीब, भोजन ही कर लिया और इस तरह, करीब ग्यारह बजे, हम कन्हैय्या के साथ, वहां से आगे के लिए निकल पड़े!


   
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श्रीशः उपदंडक
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शर्मा जी का पेट अब सही था, दवा ने काम भी अच्छा ही किया था, नहीं तो आज फिर से यहीं रुकना पड़ सकता था, लेकिन उस देसी दवा ने कमाल कर दिया था! अब जाना तो यहां से पैदल ही था, रास्ता भी कुछ ऐसा ही था, आराम आराम से चलते हुए, सुस्ताते हुए, रुकते-रुकाते, आगे बढ़ते जाना था! हम करीब एक घंटे से धीरे धीरे आगे बढ़ते जा रहे थे, पानी ले आये थे साथ में, वैसे पानी की यहां कोई कमी नहीं थी, पानी की बहुतायत थी यहां, पहाड़ी पानी हर जगह उपलब्ध था! इसी तरह चलते चलते हम एक जगह आ कर रुक गए! साथ में जो लाये थे खाने के लिए, सो खाया तब, हल्का-फुल्का खाना था, चावल से बना हुआ, और फिर कुछ देर आराम किया!
"कन्हैय्या?'' कहा मैंने,
"हाँ जी?'' बोला वो,
"जहां हम जा रहे हैं, वो कैसी जगह है?'' पूछा मैंने,
"छोटी सी जगह है, पास में दो गाँव पड़ते हैं, छोटे छोटे, वहां के लोग अक्सर खच्चर आदि का काम करते हैं, और तो कोई काम-धंधा है नहीं वहां!" बोला वो,
"तो किसी गाँव में जा रहे हैं हम?'' पूछा मैंने,
"नहीं जी, गाँव के पास ही एक जगह है, धूनी बाबा की जगह है वो!" बोला वो,
"वहीँ रहते हैं ये धूनी बाबा?" पूछा मैंने,
"बाबा तो पूरे हो गए इसी साल, अब उनके भाई हैं वहाँ! संतोष जी!" बोला वो,
"अच्छा! ऐसा बीहड़ सा तो नहीं है?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, आबादी तो है वहां!" बोला वो,
"अच्छा! और जगह बड़ी है?'' पूछा मैंने,
"बड़ी भी नहीं है, बस यूँ समझो, कि पड़ाव है, ऊपर जाने वालों के लिए!" बोला वो,
"ऊपर?" पूछा शर्मा जी ने,
"पहाड़ों के लिए!" बोला हँसते हुए!
"अच्छा! ये पहाड़ी बाबा, नीचे तो कम ही आते हैं, मैंने देखा है!" कहा मैंने,
"हाँ जी, कम ही, कोई तीज-त्यौहार हो तो!" बोले वो,
"हाँ! सही कहा!" बोला मैं,
आसपास का माहौल बड़ा ही प्यारा था! देखने पर लगता था, कि जैसे मेघ नीचे चले आये हैं, अपनी प्रेयसि धरा से मिलने, जिसने पूर्ण श्रृंगार किया हुआ है! हर तरफ प्रकृति का साजो-श्रृंगार बिखरा पड़ा था! स्वर्ग के हों जैसे, ऐसे पक्षी, तितलियाँ, रंग-बिरंगे कीट आदि हर तरफ जैसे भयहीन घूम रहे थे! पक्षियों का वो शोर, ऐसा मधुर लगता था कि हमारा कोई भी वाद्य, उसका मुक़ाबला करने की सोच भी न सके! ऐसा कोई पारंगत एवं निपुण संगीतकार नहीं था हमारे पास, जो प्रकृति के इस मूक-संगीत से लोहा ले सके! दूर दूर तक, पहाड़ फैले थे, उनकी चोटियां, जैसे उचक उचक कर, आकाश से ही कह रही हों कि उनकी ऊंचाई से कौन करे मुक़ाबला!
''और शर्मा जी? पेट सही है?" पूछा उसने,
"हाँ, कल से तो बहुत बेहतर है!" बोले वो,
"अच्छा, अब नहीं होगा पेट खराब, दवा ने काम कर दिया है!" बोला वो,
"बस, होना भी नहीं चाहिए!" बोले वो,
"नहीं होगा!" बोला वो,
कुछ देर बाद, हम फिर से चल पड़े, कभी समतल रास्ता, कभी ऊंचाई वाला, कभी ढलान से नीचे! लेकिन थकान नहीं हो रही थी, ये उस ताज़ा माहौल के कारण था शायद! यहाँ की आब-ओ-हवा में ही ये सीरत है! ये पहाड़ी लोग तो, रोज ही उतरते हैं और रोज ही चढ़ते हैं ऊपर के लिए! देखने में तो हमे ये कोई मैराथन-दौड़ सी लगती है, लेकिन ये उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी है! चौमासो में, सर्दियों में कभी-कभार ऐसे गाँवों का संबंध, बाहरी क्षेत्र से कट कर रह जाता है, इसीलिए, शेष दिनों में ये लोग, मेहनत कर, उसकी भरपाई कर लेते हैं! और ये सच भी है, कि जो प्रकृति के जितना निकट रहता है, रोग उस से उतना ही दूर रहते हैं, और जो जितना दूर रहता है, रोग तो घर कर लेते हैं उसकी देह में! अब बीमारियां भी तो सौ क़िस्म की हैं! एक का उन्मूलन होता नहीं कि नयी बीमारी सामने आ जाती है! नए नए क़िस्म के ज्वर आ गए हैं, एक से निबटो तो दूसरे से उलझो! ये सब, हमने ही पैदा किया है, तो हम ही काट रहे हैं! और आगे तो न जाने, कैसा वक़्त आये! लोगों ने अब पैदल चलना ही छोड़ दिया है, आराम-तलब हो चले हैं, हाँ, जब सर पर आन पड़ती है, तब पैदल चलने का ख़याल आता है! जो पहले ही चल लिए होते, तो भला नौबत ही क्यों आती!
चलिए, कुछ बताता हूँ आपको, इन प्रयोगों का प्रयोग करें, लाभ ही मिलेगा, नुकसान का तो सवाल ही नहीं! देह न बनती हो, खूब खाते हों लेकिन दुबलापन न जाता हो, देह पतली-दुबली ही रहे तब, एक काम कीजिये, सौ ग्राम, गोंद-कतीरा, कीकर की गोंद ले आएं, इसको भून लें, भूनने के बाद, पच्चीस ग्राम बूरा मिला दें, पचास ग्राम शुद्ध देसी घी, पचास ग्राम, भूनी हुई सूजी, दस ग्राम शुद्ध शहद, मिला लें और एक डिब्बे में भर कर रख लें! औटे हुए दूध का आधा कप लें, और एक चम्मच वो चूर्ण खा जाएँ इसके साथ, अब आधे घंटे तक, कोई जल नहीं, कोई भोज्य-पदार्थ नहीं! ऐसा दिन में दो बार करें! बीस दिनों के बाद, देह में असर देखें! एक बात और स्पष्ट कर दूँ, इन सामग्रियों का कोई विकल्प नहीं होता, जो बताया गया है, वही प्रयोग करें! चूर्ण ये, यदि खत्म हो जाए तो और बन लें! कब्ज़ के मरीज़ इस प्रयोग से बचें!
दूसरा प्रयोग, सौ ग्राम छिलके वाली उड़द की दाल लें, इसको पानी में रात भर फुलेने के लिए रख दें, सुबह निथार लें अच्छे से, अब इस दाल को, पचास ग्राम शुद्ध देसी घी में भून लें, साथ में, दस ग्राम गुलकंद, दस ग्राम, जायफल का चूर्ण, पांच ग्राम, बहेड़ा चूर्ण, बीस ग्राम आंवला चूर्ण, बीस ग्राम सेब का सूखा हुआ मेवा(काट लें, टुकड़े कर लें) मिला दें! जब गुलाबी आभा दे दे, तो उतार लें! ये मिश्रण, एक चम्मच, फ़टे दूध के पानी के साथ खा लें, एक चम्मच, दिन में एक बार, भोजन के बाद! माह भर आजमाएं और असर देखें! जहाँ देह में निखार आएगा, जान पड़ेगी, देह मांसल होगी, वहीँ पाचन, श्वास आदि में लाभ, थकान, अलसायापन, अनिद्रा, अवसाद एवं गुल्म के रोगों में भी लाभ पहुंचेगा!
अनार का छिलका, शरीर की प्रतिरोधी-क्षमता को बढ़ाने वाला होता है, इसको सुखा लें, सुखाने के बाद, इसका चूर्ण बना लें, शहद के साथ एक एक चुटकी, भोजन के बाद चाट लें, अपच, कब्ज़, खट्टी-डकार, अफारा आदि से राहत मिल जाएगी! नियम आवश्यक होता है इनमे, नियम से करें और लाभान्वित हों!
"ये देखो!" बोला वो, एक जगह रुकते हुए,
"क्या है?" पूछा मैंने,
"कोई पुराना सा मंदिर रहा होगा कभी यहां!" बोला वो,
वहां, नीचे की तरफ, पत्थर पड़े थे बड़े बड़े, कुछ एक देख कर लगता था कि जैसे उनको गढ़ा गया होगा कभी, कोई मंदिर आदि रहा होगा उधर, अब तो वक़्त ने सब मटियामेट कर दिया है, अस्तित्व के नाम पर बस, मात्र ये पत्थर ही शेष बचे हैं! यही अंतिम चिन्ह शेष हैं, एक दिन, ये भी नष्ट हो ही जाने हैं, नामोनिशान ही मिट जाएगा और ये जगह, ज़मीन में दफन हो जायेगी, सदा सदा के लिए!
"हाँ, अवशेष हैं!" कहा मैंने,
"नाग-हलू है ये जगह!" बोला वो,
"अच्छा? कोई संबंध है क्या नागों से?" पूछा मैंने,
"कभी होगा जी!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"यहां तो देवता मानते हैं, नागों को!" बोला वो,
"अच्छा है न, इस से वे बचे भी रहते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, ये तो है!" बोला वो,
"कम से कम ऐसे ही सही!" बोला मैं,
'शहर से आते हैं वैज्ञानिक, इन जंगलों में, सांप पकड़ने के लिए!" बोला वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ जी, ज़हर से दवा बनाते हैं उनके!" बोला वो,
"हाँ, इस से, हज़ारों लाखों की जान भी तो बच जाती है न!" कहा मैंने,
"हाँ, सही बोले!" बोला वो,
फिर एक रात आया, कच्चा सा, अब यहां जाने से पहले, थोड़ा सुस्ताने लगे हम! पानी पिया और फिर कुछ आराम किया!
"कितनी दूर है अब?'' शर्मा जी ने पूछा,
"आने ही वाले हैं बस!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा उन्होंने,
"आगे, आबादी मिलने लगेगी!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, वहीँ चाय पी लेंगे!" बोला वो,
"हाँ, ये ठीक रहेगा!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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करीब, दो किलोमीटर चले होंगे हम, कि यहां लोगों की आवाजाही सी नज़र आई, कुछ लोग आते जाते से दिखे, कुछ महिलायें भी, कुछ चरवाहे से भी, कुछ दुधारू पशुओं के लिए, चारा ले जाते हुए लोग, अब स्पष्ट था कि हम उस स्थान तक आ ही गए हैं, जहाँ हमें जाना था!
"अब?" पूछा मैंने,
"बस, कुछ दूर और!" बोला वो,
"कितना?" पूछा मैंने,
"करीब एक-डेढ़ किलोमीटर!" कहा उसने,
"अभी और इतना?'' पूछा मैंने,
"हाँ, नीचे, तलहटी में ही है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
''अब रास्ता ही घूम कर जाता है यहां से!" बोला वो,
"हाँ, समझ गया!" कहा मैंने,
"कन्हैय्या?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?" बोला वो, रुकते हुए,
"तेरे यहां आना-जाना लगा रहता है शायद!" बोले वो,
"हाँ जी!" बोला वो,
"ऐसा क्या करता है तू?" पूछा उन्होंने,
"कुछ नहीं, कुछ सामान आदि ले आता हूँ शहर से!" बोला वो,
"अच्छा, तो अब हिसाब-किताब और माल क्या लाना है, ये जानने जा रहा है?'' बोले वो,
"हाँ जी!" बोला वो,
"बढ़िया काम है!" बोले वो,
"हाँ जी!" बोला वो,
"यार कोई सवारी आदि नहीं मिलती क्या?'' पूछा उन्होने,
"खच्चर मिलेगा!" बोला वो,
"नहीं यार!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा उसने,
"दर्द होता है फिर बाद में!" बोले वो,
मैं हंस पड़ा! अब हम घुड़सवार तो हैं नहीं, और फिर ऐसे रास्तों पर खच्चर की सवारी करना, अपने आप में ही एक कला है! हमारी तो पसलियां ही चढ़ जाएँ और कूल्हों में दर्द हो, सो अलग! इसीलिए, पहले ही मना कर दिया था शर्मा जी ने!
"चाय यहीं पियोगे या वहीँ?" पूछा उसने,
"यहीं मिल जाए तो बढ़िया!" बोले शर्मा जी,
''आओ फिर!" बोला वो,
''चल भाई!" बोले वो,
अब तक हमारे जूते, हमें गालियां देने लगे थे, काटने लगे थे पांवों में ही! कहीं बैठते तो कुछ आराम मिल जाता! चलो, चाय के बहाने ही सही!
"यहां तो कोई बाज़ार नहीं?" पूछा मैंने,
"बाज़ार तो नहीं है, लेकिन घर हैं कुछ, हैं कुछ जानकार!" बोला वो,
''अच्छा! सही जुगाड़ रखता है तू तो!" बोले शर्मा जी,
"रात-बेरात के लिए साहब!" बोला वो,
"ठीक भी है!" कहा मैंने,
"ये पहाड़ हैं, मौसम कब बदल जाए, कुछ नहीं पता, इसीलिए हैं कुछ जानकार!" बोला वो,
"ना, ठीक है!" बोले शर्मा जी,
"आओ जी!" बोला वो,
एक रास्ता था, ऊपर की तरफ, पत्थर पड़े थे वहां, पत्थरों की सी सीढ़ियां बनी थीं! वहीँ के लिए ले जा रहा था वो!
''आराम से, काई जम जाती है, फिसलन हो जाती है!" बोला वो,
''हाँ, देख लिया!" बोले शर्मा जी,
ऊपर आये, एक कोठरा सा बना था, कुछ लोग मिले वहां, हम बैठे, नमस्कार हुई, कन्हैय्या ने बात की, और कुछ ही देर में, चाय आ गयी! चाय पी हमने, चाय बढ़िया थी, कड़क चाय! करीब आधे घंटे रुके हम, पांवों को मिली राहत, फिर से जूते कसे, और उतर लिए, अब नीचे चलने के लिए! रास्ता ऐसा टेढ़ा-मेढ़ा कि लगे, अभी तो यहीं से आये थे? फिर दुबारा चक्कर लगा लिया क्या? लेकिन कन्हैय्या तो घाघ है उन रास्तों का, और इस तरह, करीब चार बजे हम, वहां पहुँच गए! वहां कन्हैय्या पहुंचा, तो ऐसी खातिर हुई उसकी, कि जैसे दामाद हो वहाँ का! खैर, एक कक्ष में आ गए हम! जूते खोले, पानी पिया और फिर वहीँ लेट मारी! कन्हैय्या किसी काम से मिलने गया किसी से, और हम, वहीँ लेटे रहे!
"कान्हू की तो अच्छी पैठ है यहां!" बोले वो,
"हाँ, वैसे आदमी भी ईमानदार है!" कहा मैंने,
"हाँ! ये तो है!" बोले वो,
"वैसे भी, पहाड़ी है, तो अच्छी तरह से घुचड़-पुचड़ कर लेता है स्थानीय लोगों में!" कहा मैंने,
"हाँ, यही बात है!" बोले वो,
"सो गए क्या?" आई आवाज़, ये कन्हैय्या था!
''नहीं तो? आ जा?" बोले शर्मा जी,
''चाय पी लो!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
चाय ले आया था, लोटे में, साथ में दो गिलास भी!
"तूने पी ली क्या?' पूछा शर्मा जी ने,
"पी रहा हूँ!" बोला वो,
''पी रहा हूँ? क्या?'' पूछा उन्होंने,
हंसा वो! अपने ही तरीके से!
''वो नहीं बड़े साहब! वो तो बाद में! अभी चाय!" बोला वो,
''अच्छा! ठीक, चल पी ले!" बोले वो,
मैं हंसने लगा शर्मा जी की बात पर!
"आपने क्या सोची?" पूछा मैंने,
"पट्ठे ने बोली ही ऐसे, पी रहा हूँ!" बोले वो,
''संगी-साथी होंगे, उनके साथ ही पी रहा होगा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"कई दिन बाद आया होगा!" कहा मैंने,
"हो सके है!" बोले वो,
तो जी, साहिबान, चाय पी ली हमने, और करने लगे आराम, अब तो पांवों में दर्द सा था और पिंडलियाँ कीर्तन करने को आतुर हो रही थीं! सोना था नहीं, दो घंटे बाद ही अस्तांचल में प्रवेश होने वाला था सूर्यदेव का!
"बा पेट कैसा है?" पूछा मैंने,
''अभी तो ठीक है!" बोले वो,
"बस, परहेज रखो!" कहा मैंने,
''हाँ!" बोले वो,
इसी बीच आ गया कान्हू उधर! आ बैठा!
"खाना आने वाला है, शर्मा जी, आपके लिए दही-चावल कह दिए हैं!" बोला वो,
"हाँ, ठीक किया!" बोले शर्मा जी,
''अरे हाँ, पानी लाऊँ, गुनगुना!" बोला वो, और बोलते ही चल पड़ा बाहर!
''हाँ, आज तो फंकी भी न मारी होगी?'' पूछा मैंने,
"रास्ते में ही मार ली थी फंकी!" बोले वो,
"ये ठीक किया!" कहा मैंने,
आया कान्हू लेकर पानी, दिया शर्मा  जी को, शर्मा जी ने मारी दवा की फंकी! पानी पिया फिर!
"अब कैसा है पेट?'' पूछा उसने,
"तेरी दवा ने कमाल किया है!" बोले वो,
"पहाड़ी जड़ी हैं जी!" बोला वो,
"कामयाब दवा है यार!" बोले वो,
"फायदा हुआ न?" पूछा उसने,
"बहुत!" बोले वो,
"बस!" बोला वो,
खाने के लिए, एक आदमी आया, खाना लिया हमने, और फिर, हाथ-मुंह धो कर, खाना खाने लगे!
''साँझ को, 'बैठ' में मिलवाता हूँ संतोष बाबा से!" बोला वो,
"हाँ, ठीक!" कहा मैंने,
''देखना, कैसे बढ़िया आदमी हैं!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"अच्छा कान्हू?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?" बोला वो,
"तू यहां क्या लाता है?" पूछा उन्होंने,
"मिट्टी का तेल, अनाज, दाल आदि आदि!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा उसने,
"हाँ जी, यहां ज़रूरत पड़ती है इसकी!" बोला वो,
"हाँ, ये तो है!" कहा मैंने,
"गाँव-देहात ही तो है, ठेठ!" बोला वो,
"सो तो है!" कहा मैंने, पानी पीते हुए, खाना खा लिया था हमने! बर्तन उठा लिए उसने, और रख दिए कक्ष के बाहर, तीली निकाल माचिस की, कुरेदने लगा दांत, मैं भी, डकार लेता रहा हल्की-फुलकी सी ही!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और तब, बाद में, साँझ का वक़्त हुआ! यहाँ की साँझ के क्या कहने! आसमान में, उड़ते परिंदे! बगुले आदि पक्षी! धनुष बना कर उड़ रहे थे! जैसे किसी चक्रव्यूह का धनु-द्वार हो! आसपास, परिंदों की चहचहाहट! साँझ बुलाने वाले प्रहरी थे ये! साँझ का स्वागत कर रहे थे! उसके बाद, अँधेरा घिरते ही, ये अपने अपने घोंसलों में, कोटरों में जा घुसते! और तब, रात के जीव बाहर आ निकलते! उस स्थान पर रहने वाले श्वान, रह रह कर भौंक रहे थे! उनकी भौंक से पता चल ही जाता था कि यहां इंसानी आबादी है! दुम उठाये, एक दूसरे के पीछे भागते हुए, मस्ती कर रहे थे! कोई कहीं बैठा था और कोई कहीं! उनके हौंकने से पता चलता था कि गरमी अभी है और रहने वाली है!
तो साहब, साँझ हुई, शर्मा जी का पेट अब दुरुस्त हो चला था, लेकिन फिर भी मैंने उन्हें परहेज के लिए ही कह रखा था, उन्हें न तो कुछ ऐसा खाना ही था और न पीना ही था, हाँ, नीरा मिल जाए तो कोई बात नहीं, ठंडी होती है ये नीरा, खजूर के पेड़ से बनती है, ताड़ी जैसी ही होती है, हल्की सी ख़ुमारी लिए हुए! पेट के लिए फायदेमंद हुआ करती है! साँझ ढली तो अँधेरा छाने लगा, जब अँधेरा घिरा, तो दीया-बाटी, डिबिया आदि जुड़ने लगे! हमारे यहां पर, एक लालटेन लटका गया था कान्हू, वो भी जोड़ दी गयी थी, एक लड़का आया था, उसने ही जोड़ दी थी वो! साँझ से ही, मौसम कुछ ठंडा सा होने लगा था! ये तो साफ़ ही था कि रात में, कुकड़ी जन्मे वाली है! हवा चलेगी ठंडी, और उड़ाएगी हमारी झंडी! खेस आदि का इंतज़ाम भी करना था, हमारे पास तो पतली सी ही सूती चादरें थीं, अब पता ही नहीं था कि यहां तक आना हो जाएगा! नहीं तो तमाम इंतज़ामात कर ही लाते!
"हाँ जी? आ जाओ?" आई आवाज़ कान्हू की!
"आया अभी!" कहा मैंने,
"चल रहे हो?" पूछा मैंने,
"चलता हूँ, यहां भी क्या करूँगा, कीड़े-मकौड़े ही गिनने पड़ेंगे!" बोले वो,
"तो चलो फिर!" कहा मैंने,
हम आये बाहर, जूते पहने, टोर्च लिए, कान्हू खड़ा था, दरवाज़ा था नहीं, टाट का पर्दा था, सो वही गिरा दिया नीचे! आ गए पास कान्हू के!
"चल भाई कान्हू!" बोले शर्मा जी,
''आओ जी!" बोला वो,
वो हमें टोर्च के सहारे ले चला, कुछ दूर ही गए थे, कि चढ़ाई सी पड़ गयी, चढ़े उस पर, उस पर चढ़े तो सामने, एक कमरे से, लालटेन की रौशनी बाहर झांकती नज़र आई! यहीं जाना था हमें!
"आओ, यहां ही!" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
दो श्वानों ने, कान खड़े कर, हमारा नज़र ही नज़र में, मुआयना कर लिया! और फिर, इजाज़त भी दे दी कि हम अब जाएँ अंदर!
"आ जाओ!" बोला कान्हू, जूतियां खोलते हुए!
"चलो!" कहा मैंने, और हमने भी जूते खोल एक तरफ रख दिए! और चले अंदर! अंदर आये, तो सामने एक बाबा बैठे थे, नीचे ही, चादर, गद्दा बिछा था वहां, उन्होंने हमे देखते हुए, अपने घुटने मोड़े, जगह बन दी, नमस्कार हुई उनसे, उनके साथ ही एक और बाबा थे बैठे हुए, दोनों की ही उम्र करीब पैंसठ के आसपास तो रही होगी, दो महिलाएं बैठी थीं, शायद, भोजन की तैयारियां चल रही थीं, उस कक्ष के साथ ही एक छोटा सा कक्ष भी था, शायद वही रसोईघर के रूप में इस्तेमाल होता हो!
खैर, हम बैठ गए वहीँ!
"ये हैं बाबा संतोष, जिनके बारे में बताया था मैंने, और ये हैं बाबा समरू, ये भी यहीं रहते हैं!" बोला कान्हू!
"अच्छा!" कहा मैंने,
''और बाबा, इनके बारे में मैं आपको बता ही चूका हूँ!" बोला वो,
"हाँ, आज बताया था!" बोले बाबा समरू!
"तो घूमने आये हो या कोई काम है?'' पूछा बाबा संतोष ने,
"घूमने ही आये हैं जी!" कहा मैंने,
"जी भर के घूमो! कोई कमी न!" बोले वो,
"आशीष आपका बाबा!" कहा मैंने,
"बत्तो?" बोले बाबा,
एक औरत आई उठ कर वहां, छाज रख कर, ज़मीन पर, उस औरत की उम्र कोई पचास बरस रही होगी,
"बाली को भेज?" बोले वो,
औरत ने सुना, और चली गयी बाहर, जब आई अंदर, तो एक किशोर आया अंदर उसके साथ, सीधा बाबा के पास चला आया, बाबा ने कुछ खुसर-पुसर की उस से, और बाली लौट पड़ा!
तब कान्हू और उन दोनों बाबाओं में बातें होने लगीं, मैंने कमरे का मुआयना किया, कमरा क्या था, यूँ समझो कि बस सर छिपाने की जगह भर था, लेकिन बारिश आदि से बचाव हो ही जाता होगा, छत पर कड़ियाँ लगी थीं लोहे की, सिल ठीके थे उन पर, पत्थरों के, वैसे कमरा मज़बूत था, पत्थर की दीवारें थीं, बीच में, कहीं कहीं लोहे के गार्टर से भी दिख रहे थे, ये निश्चित रूप से भूकम्प से बचाव करता होगा, पहाड़ी क्षेत्रों में अक्सर ही भूकम्प आया करते हैं, सभी को मालूम है!
तभी बाली आया, दो मदिरा की बोतल और गिलास, पानी लिए! बाबा समरू ने, मदद की उसकी और सामान रख लिया नीचे! बाली फिर चला गया बाहर, मैंने बोतल पर निगाह डाली, मैंने न तो वो कंपनी ही कभी सुनी थी न वैसी बोतल ही देखी थी, लेकिन थी तो अंग्रेजी ही! संभाल कर रखी थीं वो बोतलें उन्होंने! आज शामत आ गयी थी उनकी!
"पाखरा दिखा कल इन्हें?" बोले बाबा,
"हाँ, ज़रूर!" बोला कान्हू!
बाली फिर से अंदर आया, दो थालियां लेकर, एक में, हरी-मिर्च ताज़ा क्ति हुईं, बीच में से चिरी हुईं, टमाटर कटे हुए, गाजर और मूली! दूसरी पर कपड़ा रखा था, तो वो वहीँ रख दी उसने! गया बाहर, फिर आया, और नमक दे गया!
"बाहर हूँ" बोला बाली,
"ठीक!" बोला कान्हू!
"लो जी!" बोले बाबा,
''आप ही करो जी शुरू!" कहा मैंने,
"अच्छा जी!" बोले वो,
"इनके लिए मत डालना, पेट खराब है इनका!" कहा मैंने,
''अच्छा, दवा नहीं दी कान्हू?" पूछा बाबा ने, ढक्कन खोलते हुए, सील, फ्री हो गयी थी, तो चाक़ू मंगवा कर, सील काटी उसकी फिर!
"दी थी जी!" बोला कान्हू,
"गोठरे वाली दी थी?" बोले वो,
"हाँ!" कहा उसने,
'फिर कोई दिक्कत ना! ले लो जी!" बोले बाबा समरू!
"कहीं पेट ना चल जाए!" बोले शर्मा जी,
"ना! क़तई न!" बोले वो,
''डाल दो फिर, आपकी बात कैसे काट सकते हैं!" बोले वो,
मैंने गाजर का एक टुकड़ा उठाया, नमक की ढेरी से, नमक लिया और लगा लिया टुकड़े पर, और काटा फिर! बड़ी ही मीठी और मुलायम सी गाजर थी! ताज़ा थी, यही वजह थी! शहरों तक आते आते तो गुल्ली सी बन जाती हैं!
"पाखरा बड़ा तालाब है यहां का!" बोले बाबा संतोष, गिलास आगे बढ़ाते हुए मेरा!
''अच्छा जी!" कहा मैंने,
"यूँ कहो, गाँव के गाँव पलते हैं उस पर!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"पुराना ही बहुत!" बोले वो,
''अच्छा जी!" कहा मैंने,
"कल देख लेना!" बोले वो,
"हाँ, आये हैं, तो देखेंगे ही!" कहा मैंने,
"और भीत बहुत कुछ है यहां!" बोले वो,
"जैसे?" पूछा मैंने,
"बताता हूँ!" बोले वो, ऊँगली डुबोते हुए, गिलास में!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बाबा ने गिलास उठकर, उसमे अपनी ऊँगली डुबोई थी, ये स्थान-भोग था और ईष्ट-भोग भी था! उन्होंने किया तो मैंने भी किया! ईष्ट को भोग देना आवश्यक हुआ करता है! आप कहीं भी हों, सदैव सबसे पहले उन्ही का भोग दिया जाता है! तो मैंने भी दिया और फिर शर्मा जी ने भी! मैंने सात बूँदें गिराई थीं! और उसके बाद, एक श्री महाऔघड़ नाथ जी का नाम और गिलास उठाया, कंठ से नीचे! जिस स्वाद और हीक से मैं डर रहा था, वैसा स्वाद नहीं था! स्वाद ठीक ही था!
"हाँ बाबा? और क्या है देखने को?'' पूछा मैंने,
"बहुत कुछ है!" बोले वो,
"पता चल जाता तो अच्छा नहीं रहता बाबा?" पूछा मैंने,
"अब हो आप यहां पर, तो चल ही जाएगा पता? अभी दो-तीन दिन तो हो ही यहां आप लोग?" पूछा उन्होंने,
"हाँ जी, इतना तो हैं ही!" कहा मैंने,
"कान्हू?" बोले वो,
"हाँ जी?" बोला वो,
"कल दिखा पाखरा, और फिर होरंग!" बोले वो,
''अच्छा बाबा!" बोला वो,
"पाखरा कल ग्यारह बजे निकल जाना, ठीक रहेगा!" बोला बाबा समरू,
"हाँ, ठीक!" बोला वो,
अब पाखरा तो तालाब ठहरा, लेकिन ये होरंग क्या? ये न समझ आया! कोई जगह है क्या? या कोई मंदिर आदि? यहां तो मंदिर ही मंदिर हैं, न जाने कितने कितने पुराने!
"बाबा?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"ये होरंग क्या है?" पूछा मैंने,
"एक जगह है, ये दिखा देगा!" बोले वो,
"कोई मंदिर है क्या?'' पूछा मैंने,
बाबा चुप्प, उठा लिए एक टुकड़ा टमाटर का उन्होंने, चबाने लगे, मैं जवाब के इंतज़ार में उन्हें ही देखता रहा, और वो, बाहर झांकते रहे!
"हुआ करता था कभी, अब नहीं है!" बोले बब समरू!
"अच्छा, पुराना रहा होगा?'' पूछा मैंने,
"हाँ, पुराना तो था!" बोले वो,
"तो अब खंडहर है?" पूछा मैंने,
बाबा समरू ने, मेरे इस सवाल पर, बाबा संतोष की ओर देखा, फिर नीचे कर ली नज़र, तब बाबा संतोष ने, भर दिए गिलास, बाबा समरू ने पानी डाल दिया, सरका दिए आगे गिलास!
"अरे?" बोले बाबा समरू,
"क्या हुआ?" पूछा कान्हू ने,
"अरे ये कैसे रह गया?'' बोले वो,
और उस दूसरी थाली से, कपड़ा हटाया उन्होंने! हटाया तो ये तली हुई मछलियाँ थीं! हाथ  हाथ भर की, एक एक बलिश्त भर की! कपड़ा हटा तो जैसे ही उनके मसाले के गंध फैली, मुंह में पानी आ गया! पहाड़ी मछलियाँ अत्यंत ही पौष्टिक हुआ करती हैं, मीठे पानी के कारण!
"ये, पाखरा की ही हैं!" बोले बाबा!
''अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ! लो!" बोले वो,
मैंने ली, और शर्मा जी को भी दी, साथ में सिल-बट्टे पर पिसी हुई, हरी मिर्चों की चटनी थी! धनिया-पुदीना पीसा गया था उसमे! चटनी को चखा तो मजा ही आ गया! इसमें कुछ और भी मिलाया गया था, मुझे उसमे, नारंगी के गंध भी आ रही थी, लेकिन नारंगी यहां तो मिलना मुश्किल ही थी!
"नारंगी है इसमें?'' पूछा मैंने,
"नहीं नहीं!" बोले वो,
"गंध से ऐसा ही लगा!" कहा मैंने,
"ये, खट्टी-घास है!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"यहां होती है बहुत!" बोले वो,
कहीं वो, लेमन-ग्रास को तो नहीं कह रहे थे खट्टी-घास? देखने से ही पता चलता फिर तो!
"हाँ, तो आपने पूछा होरंग!" बोला बाबा संतोष,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
"वो मंदिर, एक ही रात में उठ गया!" बोले वो,
मेरे हाथ से, सलाद का टुकड़ा, गिरते गिरते बचा! चौंक पड़ा मैं! और शर्मा जी भी! ऐसा कैसे सम्भवहै? उठ गया? अर्थात?
"उठ गया?'' पूछा मैंने,
"हाँ, जैसे आसमान ने उठा लिया हो उसे!" बोले वो,
''एक ही रात में?" पूछा मैंने,
"हाँ, एक ही रात में!" बोला बाबा,
"क्या कोई भूकम्प आया था?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"कोई अंधड़-तूफ़ान?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"कोई भू-स्खलन?'' पूछा मैंने,
"नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं, न कोई बारिश न आंधी!" बोले वो,
"ऐसा कैसे सम्भव है फिर?" पूछा मैंने,
"सम्भव क्यों नहीं है?" बोले वो,
"कैसे भला?" पूछा मैंने,
"सब सम्भव है!" बोले वो,
"कहीं, ज़मीन में तो नहीं घुस गया?" पूछा मैंने,
''आप कल खुद देख लेना?" बोले वो,
''अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"वैसे कितना बड़ा मंदिर था वो?" पूछा मैंने,
"ज़्यादा बड़ा तो नहीं था, एक कमरे के बराबर ही!" बोले वो,
"अच्छा! किसने बनवाया होगा?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोले वो,
"किसको समर्पित है?" पूछा मैंने,
"भोले बाबा को!" बोले वो,
"और गायब?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"कहीं कोई नदी है आसपास?" पूछा मैंने,
"कोई दो किलोमटर पर है!" बोले वो,
"कहीं बाढ़ आई हो?" पूछा मैंने,
"बाढ़ में पहाड़ी नहीं डूबती!" बोले वो,
"हम्म!" कहा मैंने,
"तो आपके अनुसार, क्या वजह हो सकती है?" पूछा शर्मा जी ने,
"बहुत सी वजह हैं!" बोले वो,
''एक मिनट!" कहा मैंने, बात काटी बीच में,
"ये कब की बात है?" पूछा मैंने,
"बीस बरस हो गए!" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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बाबा ने तो जैसे, पटखनी दे दी हो मुझे! और सर, ज़मीन से जा टकराया हो! तारे दिख गए हों! ऐसा ही लगा मुझे तो! अब भला, ऐसा कैसे सम्भव हो सकता है? कोई न कोई कारण तो रहा ही होगा? बीस बरस भी बीत गए! जो कुछ मैंने पूछा, उसके अनुसार कोई भी प्राकृतिक आपदा-विपदा नहीं आई थी, न ही टूटी थी उस मंदिर पर! फिर कैसे, लोप ही हो गया एक ही रात में? बाबा इतने भी नहीं सठिया गए कि दकियानूस कहानी या किस्सा ही सुना रहे हों! और फिर उनकी, उस मंदिर की 'पैरवी' करना, इस बात को और बल देता था कि सच में, ठीक वैसा ही कुछ हुआ था जैसा बाबा स्वयं ही बता रहे थे! ऐसा यदि हुआ था, तो निःसंदेह ये किसी परा-शक्ति का, पारलौकिकता का या फिर कोई दैविक  ही कारण था!
"बीस बरस बीते?" पूछा मैंने,
"हाँ, बीस बरस!" बोले वो,
"आपने तो, देखा ही होगा?'' पूछा मैंने,
"हाँ, इन्हीं बूढ़ी आँखों से! समरू ने भी देखा था!" बोले वो,
"अच्छा बाबा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"एक बात और?" पूछा मैंने,
"पूछो?" बोले वो,
"उस मंदिर का नाम होरंग है या फिर, उस जगह का?'' पूछा मैंने,
"पहले, उस मंदिर का नाम होरंग था, अब उसे, होरंग के नाम से जाना जाता है, उस जगह को!" बताया उन्होंने!
"होरंग का अर्थ क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
शायद को स्थानीय शब्द रहा हो? जो, शायद मैंने न सुना हो! सम्भव था ऐसा भी!
"अर्थ तो नहीं पता!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, नाम यही था उसका!" बोले वो,
"कभी जानने की कोशिश की आपने?" पूछा मैंने,
"क्या लगता है?" पूछा उन्होंने,
बड़ा अजीब सा ही लहजा था वो सवाल पूछने का! अजीब सा, जिसने मुझे, पल भर के लिए, छील ही दिया था!
"लगता तो यही है, कि आपने अवश्य की होगी!" कहा मैंने,
"बहुत!" बोले वो,
और बोलते ही, गिलास खाली कर दिया, हल्के से कांपते हाथ से, मछली का एक टुकड़ा लिया, चटनी लगाई और मुंह के अंदर सरका लिया!
मामला कुछ गंभीर सा हो गया था, इसीलिए मैंने, विषय को बदलने की सोची! बाबा लोग, दोनों ही, संजीदा से होने लगे थे! मैंने भी चुप्पी साध ली!
"वो, बहुत सुंदर मंदिर था!" फिर से बोले बाबा!
''अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"वहां, पूजा-पाठ हुआ करती थी?" पूछा मैंने,
"हाँ, कभी कभी!" बोले वो,
"अच्छा! गाँव वाले ही आते होंगे?" पूछा मैंने,
"हाँ, यहां के सभी लोग, जाया करते थे उधर, उधर, एक बूटी का पेड़ हुआ करता था, पपीते जैसा, उसमे, बेर से लगते थे, वे मीठे तो नहीं थे, खट्टे हुआ करते थे, जिसको औलाद नहीं हुआ करती थी, वो औरत उसके बेर, अमावस की रात को तोड़ के लाती, खाती और मातृत्व-सुख प्राप्त कर लिया करती थी!" बोले वो!
"तो वो पेड़ अब?" पूछा मैंने,
"अब नहीं है!" बोले वो,
"नहीं है?" पूछा मैंने,
"हाँ, वो भी संग ही लोप हो गया!" बोले वो,
ये दूसरा विस्फोट!
अब वो पेड़ क्यों लोप हुआ? क्या वो पेड़ भी, अलौकिक ही था? या फिर............कही ऐसा तो....नहीं.....?
"बाबा?'' कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"वहां कोई रहता था क्या?" पूछा मैंने,
"रहता था? मतलब?" पूछा उन्होंने,
"कोई सिद्ध बाबा?" पूछा मैंने,
"नहीं, कोई नहीं!" बोले वो,
"ओह........!" कहा मैंने,
"कोई भी नहीं?" पूछा शर्मा जी ने,
"नहीं जी, कोई भी नहीं!" बोले वो,
"कमाल है!" बोले शर्मा जी,
"अच्छा, मंदिर कब से था वहां, इसका कुछ पता?" पूछा मैंने,
"ये भी नहीं पता!" बोले वो,
"अच्छा...." कहा निराशा से मैंने,
"मंदिर में क्या स्थापित था?'' पूछा मैंने,
"मतलब?" बोले वो,
"शिव-लिंगम्, मूर्ति आदि?" पूछा मैंने,
"कुछ भी नहीं!" बोले वो,
"हैं? कुछ भी नहीं?" पूछा मैंने,
"हाँ, मात्र एक, पिंडी ही!" बोले वो,
"पिंडी?" पूछा मैंने,
"हाँ, इतनी सी!" बोले वो,
हाथ के इशारे से बताया उन्होंने, करीब, आधा ही फुट की रही होगी वो पिंडी!
"अच्छा!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
तभी आया बाली, बात की उसने, और फिर चला गया वापिस!
"बनाओ-बनाओ?'' बोले बाबा,
"हाँ!" कहा मैंने,
मैंने और गिलास बनाये सभी के लिए, आगे सरकाए फिर!
"मंदिर का रंग-रूप कैसा था?'' पूछा मैंने,
''अष्ट-कोणीय!" बोले वो,
"अच्छा, स्तम्भ आदि?" पूछा मैंने,
"मध्य में चार!" बोले वो,
"पिंडी के संग?" पूछा मैंने,
"हाँ! बीच में पिंडी थी!" कहा उन्होंने,
"और उस गर्भ-गृह का व्यास?" पूछा मैंने,
"अधिक नहीं, बस, बस..इतना होगा, उस, पत्थर तक!" बोले वो,
"समझा! छह फ़ीट, आमने-सामने?" कहा मैंने,
"हाँ, इतना ही!" बोले वो,
मछलियाँ खत्म ही होने को थीं की बाली और रख गया!
"लो!" बोले वो,
मैंने एक टुकड़ा, फिर से ले लिया, चटनी अभी बाकी थी, बची हुई!
"और ऊंचाई?" पूछा मैंने,
"पिंडी के ऊपर?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"करीब छह फ़ीट!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
''और पत्थर कैसा था?" पूछा शर्मा जी ने,
"बलुआ पत्थर, लाल रंग का!" बोले वो,
"बलुआ?'' मैं चौंका तब!
"हाँ, है न कमाल?' बोले वो,
"हाँ! सच में कमाल!" कहा मैंने,
यहां कैसे आया लाल पत्थर?
हैरत की बात! कैसे सम्भव?
"आप क्या कहते हो बाबा?'' पूछा मैंने,
"क्या कहूँ!" बोले वो,
"ये बलुआ पत्थर?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोले वो,
अब हम सकते में! ये मंदिर? लाल पत्थर? एक ही रात में लोप? अचानक से ही तभी!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अचानक से कुछ प्रश्न में में उपजे और एक तो मन में कौंधा, ये कि, ये मंदिर कब आया था अस्तित्व में? इसका उत्तर मिल जाता तो सच में कुछ न कुछ रहस्योद्घाटन अवश्य ही हो जाता! सो मैंने पूछ ही लिया, हालांकि, उन्होंने पहले ही चेता दिया था कि उन्हें इस विषय में मालूम नहीं है, क्या पता, थोड़ा ज़ोर डालें तो पता चल जाए!
"बाबा?'' पूछा मैंने,
"अभी आया" बोले बाबा संतोष,
और उठ कर, बाहर चले गए, कुछ शंका-समाधान करने गए होंगे, मैंने भी प्रतीक्षा की उनके लौटने की!
"कन्हैय्या?'' पूछा मैंने,
"हाँ जी?" बोला वो,
"तुमने तो देखा होगा ये मंदिर?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, कभी नहीं!" बोला वो,
"तू तो यार यहीं का है? फिर भी?" बोले शर्मा जी,
"यहां तो साल में एक दो बार ही तो आना होता है?" बोला वो,
बात उसकी भी सही थी! काम करे या फिर मंदिर घूमे! वो अपने काम में ही व्यस्त रहता था! उसे कहाँ फ़ुर्सत मंदिर आदि घूमने की!
तभी बाबा अंदर आये, दीवार से लगी रस्सी पर लटके अंगोछे से, हाथ साफ किये अपने, और चलते आये हमारे पास तक, आये, जगह बनाई, गिलास ज़रा संभाल कर रखा और बैठ गए!
"हाँ, क्या कह रहे थे?'' बोले बाबा,
"यही कि, ये मंदिर कब से था यहां?" पूछा मैंने,
"कब से था?'' बोले वो,
"हाँ, कब से?" पूछा मैंने,
"मुझे यहां रहते, तीस बरस होने को आये, क्यों? हैं न समरू?' बोले वो, बाबा समरू के देखते हुए!
बाबा समरू ने, हाँ में सर हिलाया, कुछ सोचा पहले, फिर सर हिलाया, दो तीन बार!
"तो तभी से, देखा था मैंने वो मंदिर यहां!" बोले वो,
"अच्छा, तीस बरस!" कहा मैंने,
"हाँ, तीस बरस!" बोले वो,
"तो लोग, उस मंदिर में रोज जाते थे?" पूछा मैंने,
''रोज कहाँ? लोग जाते थे अपनी गाय-भैंस चराने, तो नज़र तो आता था ही?'' बोले वो,
"अच्छा, समझ गया! दूर से ही नज़र आता होगा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"पहाड़ी पर था?'' पूछा मैंने,
"हाँ, ऊँची नहीं है ज़्यादा!" बोले वो,
उनके लिए तो ज़्यादा ऊँची नहीं होगी, लेकिन हम मैदानी लोगों के लिए तो सच में ही ऊँची होगी! ये लोग तो खटाखट चढ़ जाते हैं, हमे ही घुटने कांपने से डर सा लगता है, आदत नहीं है इसीलिए!
"तो सबसे पहले किसको नज़र आया था कि वहां मंदिर नहीं है?" पूछा मैंने,
"पहले सुबह, कुछ महिलाओं को, तब हम यहां नहीं रहते थे, हम दूसरी तरफ रहते थे, तब यहाँ और भी लोग आये हुए थे, आगे जाने के लिए, तो उन महिलाओं ने ही सबसे पहले देखा था कि उस पहाड़ी पर मंदिर नहीं नज़र आ रहा था!" बोले वो,
"अच्छा, तो फिर खबर उड़ गयी होगी! और इस तरह, आपके पास आई होगी! है न?" पूछा मैंने,
"हाँ, उस शाम चार बजे थे, मैं तब, कुछ अन्न का हिसाब करवा रहा था, एक लड़का हुआ करता था यहां सुदेश नाम का, उसने ही आ कर बताया था हमें!" बोले वो,
"तो खबर, एक गाँव से दूसरे गाँव गयी होगी, लोग आये होंगे?" पूछा मैंने,
"हाँ, आसपास वाले, जो देखा करते थे उसे, और दूसरे गाँव वाले भी आये थे उसी दिन!" बोले वो,
"प्रशासन को खबर दी गयी थी?" पूछा मैंने,
"देके भी क्या लाभ था? फिर भी, यहां एक अध्यापक थे, उन्होंने, एक अस्पताल से खबर की थी, तब फ़ोन वहीँ था बस!" बोले वो,
''अस्पताल कितनी दूर रहा होगा?'' पूछा मैंने,
"सुबह से दोपहर लग जाती थी, करीब बीस-बाइस रहा होगा!" बोले वो,
"अच्छा, प्रशासन का कोई दौरा हुआ?'' पूछा मैंने,
"यही नहीं पता चला, कई बोले कुछ लोग आये थे, कई बोले, वो भू-सर्वेक्षण वाले थे, कुछ पता नहीं चल सका!" बोले वो,
"समझ सकता हूँ, हमारे यहां पर, आम लोग, ऐसे विषयों के प्रति अधिक गंभीर नहीं हुआ करते, ये घटना भी जल्दी ही भुला दी गयी होगी, रह गया तो बस नाम ही शेष!" कहा मैंने,
"हाँ, ऐसा ही समझो!" बोले वो,
"यहां से कितनी दूर पड़ता है?" पूछा मैंने,
"कोई तीन-चार किलोमीटर होगा!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"कन्हैय्या?" बोले शर्मा जी,
"जी?" बोला वो,
"कल सबसे पहले, यही दिखा!" बोले वो,
"चलो जी!" बोला वो,
"कल देख लो!" बोले बाबा!
''वैसे बाबा?" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
अब तक, दो-तीन गिलास हम अंदर कर चुके थे, बात बात में पता भी नहीं चल रहा था कि वक़्त क्या हुआ है और कितना समय हो चुका है! ये विषय ही कुछ ऐसा था!
"किसी ने भी पड़ताल नहीं की? ये तो धर्म का विषय था?" पूछा मैंने,
"पड़ताल!" बोले वो,
"हाँ, पड़ताल?" कहा मैंने,
वे चुप हुए कुछ देर!
"समरू?" बोले फिर,
"हाँ?" बोले समरू बाबा!
"बना भाई!" बोले वो,
तब बाबा समरू, आगे खिसके, और गिलास बनाने लगे, प्लास्टिक का जग उठाया तो पानी कम था, आवाज़ दी बाली को, बाली न आया, तब, कन्हैय्या ही उठा, गया बाहर जग लेकर, और ले आया पानी! बना दिए गिलास, मैंने एक ही झटके में गिलास खाली किया अपना, गिलास में मदिरा पड़ी रहे तो जम सी दिखाई और जान पड़ती है! ऐसा ही सभी ने किया, हाँ, शर्मा जी का अब ये आखिरी ही गिलास था, अपना गिलास, उल्टा कर, रख दिया था एक तरफ!
"हाँ तो पड़ताल!" बोले वो,
"जी, बाबा!" कहा मैंने,
"की थी पड़ताल!" बोले वो,
"की थी?" पूछा मैंने हैरत से,
"हाँ! की थी!" बोले वो,
"किसने?" पूछा मैंने,
"किसने!!" बोले वो,
"हाँ बाबा! किसने की थी पड़ताल!" कहा मैंने,
"अब उसका नाम है.....तापसी!" बोले वो,
"तापसी?" बोला मैं,
"हाँ, तपस्विनी तापसी!" बोले वो,
"तपस्विनी हैं वो?" पूछा मैंने,
"हाँ भी, और नहीं भी!" बोले वो,
बड़ा अजीब सा जवाब! हाँ भी और नहीं भी?
"अब कहाँ हैं?" पूछा मैंने,
"हैं यहीं!" बोले वो,
"यहीं?" बोला मैं,
"हाँ! यहीं!" कहा उन्होंने,
"यहीं, मतलब, आसपास, यहीं के?'' पूछा मैंने,
"यूँ जी समझ लो!" बोले वो,
''तो बाबा, ये हां भी और नहीं भी? इसका क्या मतलब?" पूछा मैंने,
"बता दूंगा! समरू?" बोले वो,
"हाँ?" बोले समरू बाबा,
"क्या बजा?'' पूछा उन्होंने,
"बारह से ऊपर!" बोले समरू, कलाई घड़ी में देखते हुए!
"काफी हुआ, कल जाना भी है!" बोले बाबा,
"इसका उत्तर मिल जाता तो....."कहा मैंने,
"कल देख कर तो आओ?" बोले वो,
''सो तो जायेंगे ही!" कहा मैंने,
बाबा ने लगा तो दी सुर्री में आग, अब धमाका कब हो, दिल पकड़ के बैठो!
"कल देख आओ, फिर बताता हूँ!" बोले वो,
"ठीक है बाबा!" कहा मैंने,
''आओ जी!" बोला कन्हैया!
''हाँ, चलो!" कहा मैंने,
नमस्कार की हमने, और लौटे वापिस, बाहर आये, तो घुप्प अँधेरा!
''आओ!" बोला अपनी टोर्च जलाते हुए कन्हैय्या!
"चल!" बोले शर्मा जी,
हम चल पड़े उसके पीछे पीछे!
"कन्हैय्या?" पूछा मैंने,
"जी?" रुक कर बोला वो,
"ये बाबा, सही कह रहे हैं?'' पूछा मैंने,
"सही ही कह रहे होंगे!" बोला वो,
"अजीब सी बात बताई इन्होने तो!" कहा मैंने,
"कल देख ही जो लेना!" बोला वो!
"हाँ, ठीक!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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खैर जी, अपने कमरे में पहुंचे हम! खेस आदि लगवा दिए ही गए थे, शायद बाली ने ही लगा दिए हों, कन्हैय्या भी चला गया था हमें छोड़ कर, उसके पाँव लड़खड़ा रहे थे, लड़खड़ा तो हमारे भी रहे थे वैसे, झूठ क्यों बोलो! बस बिस्तर पकड़ा फिर, जूते खोल-खाल कर! तो हम लेट गए, खेस ओढ़ लिए अपने अपने, अब मौसम ज़रा बदलने लगा था, ठंडक बढ़ गयी थी, और फिर मच्छर भी थे, पाँव पर काटते हैं तो बस पूछिए ही मत!
"बाबा कहीं सठिया तो नहीं गए?'' पूछा मैंने,
"बातों से लगा नहीं ऐसा!" बोले वो,
"कहीं कोई समझ का ही फेर हुआ हो?" पूछा मैंने,
"हो सकता है!" बोले वो,
"कई बार सामने घटित भी सत्य नहीं होता!" कहा मैंने,
"हाँ, लेकिन वो दावे से तो कह रहे हैं?" बोले वो,
"ऐसे कैसे एक ही रात में लोप हो जाएगा कोई पत्थरों से बना मंदिर?" पूछा मैंने,
"हाँ? कहीं खेड़ा-पलट तो नहीं?" बोले वो,
"हाँ! ये हो सकता है!" बोला मैं,
"कई कई बार, किसी छोटे से स्थान पर भी हो जाता है ऐसा, ये तो पहाड़ी क्षेत्र हैं!" बोले वो,
"हाँ, सम्भव है!" कहा मैंने,
"कई जगह ऐसी हैं, जो एक ही रात में प्रकट हुईं और लोप भी हुंण कई जगह, अक्सर सुनने में आता तो है?" बोले वो,
"हाँ, जैसे शिकारपुर की हवेली?" कहा मैंने,
"हाँ, वही लो!" बोले वो,
"भूतों की हवेली बाजै है वो!" कहा मैंने,
"हाँ, कहते हैं भूतों ने एक रात में बना दी थी, सुबह होने से पहले पूरी नहीं हुई, तो छूट गयी आधी! कहते हैं सामान पड़ा है आज भी निर्माण का!" बोले वो,
"हाँ, ऐसा ही है!" कहा मैंने,
"सब अजब-गज़ब है!" बोले वो,
"कल देखते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, देखते हैं कि कहीं अंदर ही तो दफन नहीं हो गया? कोई निशान तो बचा ही होगा?'' बोले वो,
"कल ही पता चलेगा!" कहा मैंने,
कुछ देर चुप हम!
"अरे हाँ?" बोले वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"तपस्विनी तापसी की पूरी बात नहीं बताई उन्होंने?" बोले वो,
"शायद, लम्बी कहानी हो?" कहा मैंने,
"हाँ, ये हो सकता है!" बोले वो,
"शायद को गूढ़ बात ही हो?'' कहा मैंने,
"हाँ, उन्होंने कहा कि, अब जाना जाता है तापसी नाम से, पहले कुछ और होगा नाम?" बोले वो,
"कल पता करते हैं!" कहा मैंने,
"वैसे एक बात तो है!" बोले वो,
''वो क्या?'' पूछा मैंने,
"इतिहास में भी ऐसा हुआ है, बताया गया है, कि फलां गाँव, एक ही रात में गायब हो गया, सारे निवासी छोड़ गए, जैसे कुलधरा! आलेया के प्रकाश-पिंड, मेरठ का जी.पी. ब्लॉक, बृज राज महल के मेजर बरटन!
ये सब अजब-गज़ब है! समझने वाले ही समझें! नहीं तो, केवल किवदंतियां! जैसे कि ये, मंदिर वाली किवदंती! है न!" बोले वो,
"हाँ!" मैंने लम्बी सांस छोड़ते हुए कहा!
"चलो जी, कल की कल देखते हैं!" बोले वो,
"हाँ, देखते हैं कल ही!" कहा मैंने,
उसके बाद, हम सो गए! आराम से सोये, मुंह ढक कर!
सुबह हुई!
"क्या बात है?'' आई आवाज़!
कन्हैय्या खड़ा था बाहर, दातुन कर रहा था!
"हाँ?' कहा मैंने, खेस से मुंह निकालते हुए,
"नींद नहीं टूटी अभी?'' बोला वो,
"क्या बजा?" पूछा मैंने,
"दिन चढ़ गया, आठ का वक़्त है!" बोला वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ, उठ जाओ, चाय ला रहा हूँ!" बोला वो,
"ले आ!" कहा मैंने,
अब मैं उठा, शर्मा जी को उठाया, हुए फारिग कुल्ला-दातुन से, चाय ले ही आया था वो, चाय पीने लगे हम फिर! साथ में चावल की कचरियां थीं, बढ़िया लगीं चाय के साथ!
"पेट ठीक है?'' पूछा कन्हैय्या ने,
"हाँ, ठीक है!" बोले शर्मा जी,
"बस, फिर क्या है!" बोला वो,
''और क्या!" बोले वो,
तो चाय पी, और कन्हैय्या चला गया, हम भी स्नान आदि से निवृत हो लिए! आराम करने के लिए, कमरे में ही बैठे रहे, दस बज गए थे!
आया कन्हैय्या,
"आओ जी, खाना खा लो!" बोला वो,
"चलो!" कहा हमने,
हम चल पड़े, खाना खाया बढ़िया से! और फिर, कन्हैय्या के साथ, अपने कमरे में आ गए! तब तक, पौने ग्यारह का समय हो चला था!
"बाबा हैं उधर?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"कहाँ गए?'' पूछा मैंने,
"कल कह तो रहे थे, बताया नहीं था कि सुबह जाना है कहीं?'' बोला वो,
"अरे हाँ! और आएंगे कब तक?" पूछा मैंने,
"साँझ तक!" बोला वो,
''साँझ तक!!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"यानि सारा दिन बेकार?" पूछा मैंने,
"कैसे बेकार? चलो, होरंग दिखा दूँ?" बोला वो,
"हाँ! ये ठीक है!" कहा मैंने,
''आप बैठो, आया मैं!" बोला वो,
"बाबा तो गए!" कहा मैंने,
"गए होंगे किसी काम से!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं, होरंग ही देख आवें?" बोले वो,
"हाँ, और क्या!" कहा मैंने,
आया कान्हू! साथ में, बाली को ले आया था, रास्ता दिखाने के लिए शायद!
"चलो जी!" बोला कान्हू!
"बाली चलेगा साथ!" कहा मैंने,
"हाँ जी!'' बोला कान्हू!
बाली, मुस्कुरा पड़ा! और हम, चल पड़े फिर साथ साथ ही!
"पढ़ाई नहीं की बाली?" पूछा मैंने,
"पांच तक!" बोला वो,
''फिर?" पूछा मैंने,
"फिर नहीं" बोला वो,
समझ गया था मैं, क्या कारण रहा होगा! इसी कारण से, अक्सर नहीं पढ़ पाते बालक लोग आगे! फिर, घरवाले, काम में जोड़ देते हैं उन्हें! बाली के संग भी ऐसा ही कुछ हुआ होगा!
"यहां कब से है बाली?" पूछा शर्मा जी ने,
"काफी समय हुआ!" बोला वो,
''अच्छा! अब यहीं का हो गया!" बोले वो,
"और क्या!" बोला कान्हू! बाली के कंधे पर हाथ मारते हुए!
बातें करते-करते! रुकते-रुकाते, इधर-उधर देखते, आ ही गए हम उधर! उस पहाड़ी के पास!
"अब सुस्ता लो यार!" बोले शर्मा जी!
"हाँ, बैठ जाओ!" बोला कान्हू!
बिछाया गमछा, और बैठ गए!
"यही है वो पहाड़ी?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोला बाली,
"वहां, उस चोटी पर था वो?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोला वो,
"फिर?' पूछा मैंने,
"उधर, उस पेड़ के पास!" बोला वो,
"यार बाली? तूने तो देखा भी न होगा, तू कैसे बता रहा है?' पूछा शर्मा जी ने,
"मैं आया हूँ कई बार!" बोला वो,
"किसके साथ?" पूछा मैंने,
"बाबा के साथ!" बोला वो,
"बाबा के साथ?" पूछा मैंने अचरज से,
"हाँ?'' बोला वो,
"बाबा क्यों आते हैं यहां?" पूछा मैंने,
"पूजा करते हैं!" बोला वो,
"पूजा करते हैं?" मैंने फिर से पूछा,
"हाँ!" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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पूजा करने आते थे? लेकिन, किसकी पूजा? अब तो कोई मंदिर भी न था वहां? और कोई बैठता भी न था, तो भला पूजा कैसी? अब पूजा करनी ही हो, तो कहीं भी की जा सकती है, इसी पहाड़ी पर ही क्यों? कोई लगाव उस स्थान से? या कोई छिपी हुई कहानी? ये तो गुत्थी में एक गाँठ और लगाने वाली बात हो गयी!
"बाली?'' बोला मैं,
"हाँ जी?" बोला वो,
"पूजा किसलिए करते हैं?'' पूछा मैंने,
उसे मेरा सवाल ही न समझ आया, मुझे ही घूरता रहा!
"मतलब कि किसकी पूजा करते हैं?" पूछा मैंने,
''डमरू वाले की! भोला बाबा!" बोला वो,
"अच्छा! और कब करते हैं?" पूछा मैंने,
"तीन चार महीने में?" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
यानि कि, जब इधर कभी आते होंगे तो करते होंगे, इसमें कोई अचम्भे वाली बात नहीं! मंदिर उन्होंने देखा था, इसीलिए शायद!
''चलें जी ऊपर?" बोला कान्हू!
"चलो!" कहा मैंने,
उठे हम, कपड़े झाड़े, फिर से पहाड़ी को देखा, ज़्यादा ऊँची नहीं थी वो, चढ़ा जा सकता था आराम से ही! छीजी हुई पहाड़ी थी, अर्थात, पेड़ भी सघन नहीं थे, झाड़-झंखाड़ भी गुंथे हुए नहीं थे उसमे!
और हम, चल पड़े, सम्भल सम्भल के चढ़ने लगे, पत्थर ज़रूर मिल रहे थे, कुछ बड़े, कुछ छोटे! लाल रंग के चींटे थे वहां, खतरनाक, काट लें तो चक्कर ही आ जाएँ उनके ज़हर से! उनसे बचते हुए, हम चढ़ने लगे! और कोई चालीस मिनट में, उधर आ पहुंचे! हमें तो पसीने आ गए थे!
"वो सामने!" बोला बाली,
''अच्छा!" कहा मैंने,
थोड़ा सा और ऊपर चढ़े, और फिर, एक समतल जी जगह आई! यहां पेड़ थे, ज़्यादा बड़े नहीं थे, नए पेड़ थे, जंगली!
"बाली?" बोला कान्हू,
"हाँ?" कहा उसने,
"कहाँ था वो मंदिर?" पूछा उसने,
"उधर, उधर देखो?" बोला वो,
"जहाँ वो पत्थर पड़े हैं?'' पूछा कान्हू ने,
"हाँ!" कहा उसने, और गया दौड़ कर उधर!
हम और आगे चले! आ गए उधर! आसपास देखा, यहां तो कुछ ही नहीं था! मैंने सोचा था कि कुछ खंडहर से, कुछ गड्ढे से, कुछ गढ़े हुए पत्थर मिलेंगे, लेकिन यहां तो ऐसा कुछ भी नहीं था? ये तो ऐसी जगह लगती थी, जैसे कोई बियाबान!
"यहां था?'' पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"यार शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"कुछ दीख रहा है?" पूछा मैंने,
"कुछ भी ना!" बोले वो,
"यहां तो कुछ भी नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ, कुछ भी नहीं!" बोले वो,
"बस ये झाड़-झंखाड़ ही हैं!" कहा मैंने,
'और तो और, नींव भी नहीं!" बोले वो,
"हाँ! कहीं मज़ाक तो नहीं?" पूछा मैंने,
"ना! ऐसा तो नहीं लगता!" बोले वो,
"कान्हू?" बोला मैं,
"आया!" बोला वो, और आया,
"कुछ दिखा तुझे? हमें न दिखा हो तो?" पूछा शर्मा जी ने,
वो हंसने लगा! हाथ पर हाथ मारते हुए!
"बता?'' बोले शर्मा जी,
"कुछ ही नहीं जी!" बोला वो,
"इस बाली से पूछ?" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" बोला वो,
वो गया बाली के पास, बाली, दूर कहीं देख रहा था!
"बाली?" बोला कान्हू,
"हाँ?" बोला वो,
"ये ही जगह है?" पूछा बाली से उसने,
"एकदम!" बोला वो,
"तो यार, यहां तो कुछ है ही नहीं?'' बोला कान्हू,
"ये नहीं पता!" बोला वो,
"बाली?" दी मैंने आवाज़,
"आया जी!" बोला वो,
"एक बात तो बता?" पूछा मैंने,
"वो क्या?'' पूछा उसने,
"बाबा, पूजा कहना करते हैं?" पूछा मैंने,
"वो, उधर!" कहा मैंने,
"किधर?" पूछा मैंने, सर झुका कर,
"उधर!" बोला वो,
"ले चल ज़रा!" कहा मैंने,
"चलो!" बोला वो,
और हम चले उसके साथ, वो जगह कोई चालीस फ़ीट दूर थी! यहां से थोड़ी ही दूर थी, कुछ ऊँची सी लगती थी वो जगह, तो हम आ गए उधर!
"ये, यहां!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
अब देखा आसपास! कहीं कुछ नहीं! सबकुछ वैसा ही! कोई बदला बदला सा दृश्य नहीं! सब सामान्य सा ही! पता नहीं, कोई कैसे यक़ीन करेगा! और प्रशासन तो कैसी ही करेगा! कोई चिन्ह नहीं, कोई निशान नहीं! कोई नींव नहीं, कोई पत्थर नहीं!
"अजीब सी बात है!" कहा मैंने,
"क्या?' बोले शर्मा जी,
"यहां कुछ रहा होगा, कैसे यक़ीन हो?" पूछा मैंने,
"अपनी तो खोपड़ी गयी रुक दौड़नी!" बोले वो,
"सभी की ही!" कहा मैंने,
"कमला है!" बोले वो,
"कोई फायदा नहीं हुआ!" कहा मैंने,
"कलुष ही चला लो?" बोले वो,
"क्या फायदा?" पूछा मैंने,
"कुछ तो दिखे?'; कहा उन्होंने,
"जब ऊपर कुछ नहीं, तो अंदर क्या होगा?'' पूछा मैंने,
"बात तो ठीक है!" बोले वो,
''आओ, चलो!" कहा मैंने,
''आओ!" कहा उन्होंने,
''आ जाओ, चलो!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो दोनों!
आ गए वे दोनों पास हमारे!
"कुछ नहीं है यार!" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी!" बोला वो,
"एक चीज़ दिखाऊं?'' बोला बाली!
ओहो! चौंका मैं! पैदल-बुद्धि था क्या वो! ये बाली! पहले क्यों नहीं दिखाई?
"क्या?'' पूछा मैंने,
"आओ!" बोला वो,
और वो, ले चला ऊपर हमें! कुछ था नहीं वैसे तो वहां!
"कहाँ?'' पूछा मैंने,
"ऊपर की तरफ!" बोला वो,
"वहां से?'' पूछा मैंने,
"देख लेना आप!" बोला वो,
"चल! चल फिर!" बोला मैं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो मित्रगण!
आये जी ऊपर हम! इस बार की चढ़ाई ने तो सांस ही पकड़ ली हमारी! पसलियों में क़ैद, दिल ने भी कुछ, भद्दी-भद्दी सी गालियां दे दीं! नथुने चौड़े हो गए थे! हाल खराब था, कम से कम, मेरा और बड़े साहब का! और वो पहाड़ी! वो तो पहाड़ी झींगुर हैं जी! फुदक-फुदक, कभी यहां, कभी वहाँ!
खैर,
आ गए थे वहां हम! पेट पकड़ा था, लगता था कि जैसे आँतों में, पड़ गया है वल्ला! मीठा-मीठा सा दर्द, आँतों में, उभरने लगा था! ज़ाहिर था, पानी की न्यूनता! यही तो लक्षण हैं इसके!
'पानी!" बोले शर्मा जी,
"हे हे हे! याद आई नानी!" बोला मैं!
"अभी है जवानी!" बोले वो,
मैं हंसा बहुत!
"लो पानी! और बंद करो, ये बदज़ुबानी!" बोला मैं,
"लाओ जी!" बोले वो,
और पी लिया पानी!
"पेट मत भर लेना!" कहा मैंने,
"नहीं भरा!" बोले वो, मुंह पोछते हुए!
''आओ फिर!" दिया मैंने हाथ उन्हें, और खींच लिया ऊपर!
"बाली?" बोला मैं,
"हाँ जी?" बोला वो,
"क्या दिखा रहा था?" पूछा मैंने,
"आगे आओ?" बोला वो,
"और कितना यार बाली?" बोले शर्मा जी!
'आगे, थोड़ा!" बोला वो,
"चल भाई!" बोले वो,
और हम, आगे चले, वो पट्ठा, चिंतामुक्त सा, आगे बढ़ता गया! कुछ झाड़ियाँ पार करते हुए, हम एक जगह आये! ये भी, पहले जैसी ही!
"हाँ?" बोला मैं,
"जी?" बोला बाली,
"क्या दिखा रहा था?'' पूछा मैंने,
"वो देखो?" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"यहां से देखो आप, आओ!" बोला वो,
मैं गया उसके स्थान पर, सामने देखा, ये क्या???
स्तब्ध! हैरान!
दोबार देखा!
तिवारा देखा! आँखें फाड़ फाड़ देखा!
"क्या है?" बोले शर्मा जी,
"आप भी देखो!" बोला बाली!
अब खड़े हुए शर्मा जी उधर!
"हैं?" उनके मुंह से निकला!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"एक मिनट!" बोले वो,
"देख लो!" कहा मैंने,
"अरे?" बोले वो,
"हाँ, क्या देखा?" पूछा मैंने!
"यूँ, यहां से देखो तो सामने, पानी सा दीखता है, हटो, तो जंगल!" बोले वो,
"अब ये क्या है?" पूछा मैंने,
"बाली? ये क्या है?" पूछा उन्होंने,
"पाखरा!" बोला वो,
''पाखरा?" बोला मैं,
"हाँ!" बोला वो,
"कहाँ है पाखरा?" पूछा मैंने,
"यहीं?" बोला वो,
"यहीं नहीं, मतलब, कितनी दूर है यहां से?" पूछा मैंने,
"करीब, पांच किलोमीटर!" बोला वो,
"क्या????" एक साथ निकला मुंह से! मेरे और शर्मा जी के!
"हाँ, उधर!" बोला वो, उत्तर की दिशा में, ऊँगली करके!
"तो यहां से क्यों दीखता है?" पूछा मैंने,
चुप सब!
मेरा खोपड़ा अब खराब!
शर्मा जी, हवा करें रुमाल से अपने!
कान्हू, हमें ही देखे!
"अरे बता न??'' बोला मैं,
"अरे भान**! बोले शर्मा जी, बाली के बोलने से पहले ही!
"क्या?" बोला मैं,
"इस ज़मीन के नीचे है राज!" बोले वो!
अब मैं हंसा! बहुत तेज!
"चुटकुला नहीं सुनाया मैंने!" बोले मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए!
"इस ज़मीन के नीचे, हाँ?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
''अच्छा!" कहा मैंने!
"सुनो जी?" बोला बाली,
"हाँ?" कहा मैंने,
"आओ तो सही?" बोला वो,
"कुछ और भी है?" पूछा मैंने,
''आओ, देखिये आप!" बोला वो,
"चल, दिखा!" कहा मैंने,
वो ले आया हमें!, एक जगह!
मित्रगण!
अब कल! समझा कीजिये आप!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अभी जो कुछ देखा था, उसने तो सर में खुजली डाल दी थी! लेकिन मसझ में आता था इसका कारण भी! ये एक भ्रम था, दृष्टि-भ्रम! ऐसा कई जगह होता है! कई स्थानों पर, ऐसा बनाया भी गया है! जैसे कि अकबर महान के मक़बरे, सिकंदरा की दीवारों में, छत में, मेहराबों में! गौर से देखो, तभी पता चलता है! दीवारों के भी कान होते हैं, ये वहीँ पता चलता है! वहां बनाया गया है, गढ़ा गया है, यहां ये प्राकृतिक रूप से मौजूद था! उस जगह पर खड़े हो कर, जंगल के पेड़ों के पीछे जो नीला सा आकाश दिखाई देता था, उसके दायें और बाएं पहाड़ थे, वे किनारे से लगते थे किसी तालाब के! और वो नीला सा आकाश, कोई बड़ा था तालाब लगता था! मुझे तो यही लगा था, मैंने कई बार देखा था, ऐसा ही लगा था! तब मैंने शर्मा जी को बताया था कि हम जो देख रहे थे उस पार, वो तालाब नहीं था, वो आकाश ही था! बरसात के समय, नहीं दिखेगा वो! उन्हें भी यही सही लगा था कि ये कोई दृष्टि-भ्रम ही है!
"कैसा अजीब सा लगता है!" बोले वो,
"हाँ, सच सा!" कहा मैंने,
"हाँ, कोई भी आसानी से मान ही बैठेगा कि पांच किलोमीटर दूर का तालाब बस, इसी जंगल के सामने ही है!" बोले वो,
"हाँ! देखने में ऐसा ही लगता है!" कहा मैंने,
"हैरत से भरा है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"आओ जी?" बोला बाली,
"आ रहे हैं भाई!" कहा मैंने,
"उधर!" बोला वो,
सामने की तरफ किया था इशारा उसने, वो एक ऊँची जगह थी, कोई पेड़ नहीं, कोई झाड़-झंखाड़ नहीं था वहां! नंगी ही पहाड़ी थी वो उधर!
चलते चलते, हम आ गए उधर! बहुत शानदार नज़ारा दिख रहा था वहां से! दूर दूर तक फैला जंगल! हरियाली ही हरियाली! बीच बीच में से दिखतीं पतली पतली रेखाएं, ये बरसाती नदी-नाले थे!
"क्या बात है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ! शानदार!" कहा मैंने,
"सुंदर! बहुत सुंदर!" बोले वो,
"कोई शक नहीं इसमें!" कहा मैंने,
"आओ जी?" बोला बाली,
"कहाँ?" पूछा मैंने, मुझे हैरत हुई!
"उस तरफ!" बोला वो,
"क्या है वहां?" पूछा मैंने,
"आओ, देख लेना!" बोला वो,
"चल?" कहा मैंने,
अब फिर थोड़ा सामने चलते हुए, उतरने लगे हम, यहां कुछ पेड़ से पड़े, कुछ झाड़-झंखाड़ सी! ये जगह सघन पेड़ों वाली थी! लेकिन वहां कुछ नही था, बस, जंगल ही जंगल था! और कुछ नहीं, न कोई चिन्ह न, मंदिर के अवशेष और तो और कोई पत्थर भी नहीं था बड़ा सा, बजरी ही बजरी, बस!
"अब कहाँ?" पूछा मैंने,
"उधर, अंदर की तरफ!" बोला वो,
"चल, आगे चल तू!" कहा मैंने,
वो दौड़ के आगे आया, और चलने लगा, हम उसके पीछे पीछे चल पड़े! वो कुछ ही दूर गया होगा कि रुका, और देखा हमें, इशारा किया आने का! हम पहुंचे उसके पास,
"हाँ?" पूछा मैंने,
"वो देखो!" बोला वो,
मैंने वहीँ देखा, ये क्या है?
"क्या है ये?'' पूछा मैंने,
"जा कर देखो!" बोला वो,
मैं चला उधर, शर्मा जी भी जा पहुंचे!
"ये क्या है?" पूछा शर्मा जी ने!
"पता नहीं, गड्ढा सा लगता है!" कहा मैंने,
"आगे चलो?" बोले वो,
हम आगे चले, तो पत्थर पड़े, बड़े बड़े!
और जब आये हम वहां, तो चौंक पड़े!
"इतना बड़ा गड्ढा?" बोले वो, अचरज से,
''एक मिनट!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
मैंने आसपास देखा, पेड़ लगे थे, यहां भी पेड़ लगे थे, इस गड्ढे में झाड़ियाँ उग आई थीं!
"ये इंसानी तो नहीं है!" बोले वो,
"मुझे तो कोई उल्का-घात सा लगता है!" कहा मैंने,
"हाँ, यही लगता है!" बोले वो,
"अब समझे?'' कहा मैंने,
"क्या?'' पूछा उन्होंने,
"वो मंदिर कहीं नहीं गया!" कहा मैंने,
''फिर?'' पूछा उन्होंने,
"या तो यहीं दफन हुआ है या फिर यहां से टुकड़े हो हो, छिटक गया है दूर दूर तक!" कहा मैंने,
"ऐसा कैसे कहा जा सकता है?" पूछा उन्होंने,
"क्यों?'' पूछा मैंने,
"मौसम वैज्ञानिकों को न पता चला होगा?'' पूछा उन्होंने,
''सम्भव है!" कहा मैंने,
"तलाश न की होगी?'' पूछा उन्होंने,
"सम्भव है!" बोला मैं,
"ये तो एक बड़ी घटना हुई न?'' बोले वो,
"हाँ है!" कहा मैंने.,
"फिर?" बोले वो,
"बीस साल पहले हुआ था!" कहा मैंने,
"माना, लेकिन जानकारी तो हुई होगी?'' बोले वो,
"सम्भव है!" कहा मैंने,
"दावा कमज़ोर है!" बोले वो,
"मुझे तो यही लगता है!" कहा मैंने,
"लगता तो है लेकिन दावे के साथ नहीं कहा जा सकता!" बोले वो,
"आओ!" कहा मैंने,
और हम लौट पड़े!
आ गए वापिस, बाली के पास तक!
"देखा?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कहते हैं, एक ही रात में हुआ ऐसा!" बोला वो,
"समझ गया हूँ मैं!" कहा मैंने,
'चलें?" पूछा उसने,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
'आओ!" बोला वो,
"चल!" कहा मैंने,
और हम लौट पड़े वापिस फिर! टांगें टूटने को आ गयीं! एक जगह आ कर, सुस्ताए फिर! आधे घंटे के बाद, फिर से चले!
"पाखरा कहाँ है?' पूछा मैंने,
"दूर है!" बोला वो,
"कितना?" पूछा मैंने,
"शाम हो जायेगी वापसी तक!" बोला वो,
"तो मच्छी कहाँ से लाते हो?'' पूछा मैंने,
"वहीँ से!" बोला वो,
"कौन लाता है?" पूछा मैंने,
"वहीँ के लोग हैं!" बोला वो,
"खरीदते हो?" पूछा मैंने,
"कभी कभी!" बोला वो,
"मतलब उस जगह के लोग ही यहां लाते हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"तुम नहीं जाते?" पूछा मैंने,
"कभी कभी!" बोला वो,
''समझ गया!" कहा मैंने,
"उधर गाँव के हैं लोग!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"बेकते होंगे?" पूछा मैंने,
"हाँ, आसपास में!" बोला वो,
"समझा!" कहा मैंने,
"बाद में देख लेना?" बोला वो,
''समय ही तो चलें?" बोला कान्हू!


   
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"क्या बोलते हो?'' पूछा मैंने,
"कहाँ के लिए?'' बोले वो,
"पाखरा?'' कहा मैंने,
"चल लो, मर्ज़ी!" बोले वो,
"आप बताओ? कोई दिक्कत-परेशानी?'' पूछा मैंने,
"यहां भी कौन सा हल जोतना है? चल लो?" बोले वो,
"समय भी कट जाएगा?" कहा मैंने,
"चल लो फिर!" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
"कान्हू?'' कहा मैंने,
"हाँ जी?'' बोला वो,
"चल फिर!" कहा मैंने,
"चलो!" बोला वो,
"आओ जी!" कहा बाली ने!
हम आगे चले थोड़ा, एक ढलान सी उतरे, और चल पड़े, पहाड़ी रास्ता था, पगडंडी जैसा, उसी पर चलते रहे! रास्ते में गाँव पड़े, दूर, पहाड़ियों पर स्थित गाँव! बाली, नाम बताता रहा एक एक गाँव का! छोटे छोटे, कम आबादी वाली गाँव थे सभी के सभी! नीचे खेत बने थे, बड़ी ही शानदार सी जगह थी! ज़िंदगी कहीं नहीं ठहरती! अपना रास्ता, बना ही लेती है! इसीलिए, इंसान सबसे ज़्यादा कामयाब हुआ है प्रकृति में! ये गाँव, उसी की बानगी थे!
कभी ढलान उतरते, कभी चढ़ने लगते! ये नहीं कहना चाहिए की हालत पतली नहीं हुई! हालत तो बेहद ही पतली हुई थी! सुस्ता लेते और फिर चल पड़ते, अब तक, हमारा पानी भी खत्म हो चुका था, बाली ने बताया था की पानी मिल ही जाएगा किसी न किसी के पास! वहां, पाखरा पर, लोग मिल जाया करते हैं! और पानी के लिए कोई मना नहीं किया करता!
सुस्ताते, रुकते-रुकाते, बैठे, आराम करते, आखिर हम जा ही पहुंचे वहां! सामने एक बड़ा सा तालाब था! बेहद ही खूबसूरत! उसके किनारे, जैसे समुद्री किनारों जैसे थे! पाने में खड़े, जंगली पौधे, हवा के साथ झुक जाते और छोटी छोटी मछलियों के बच्चे, फुदक पड़ते! उनके फुदकने से, आसपास घात लगाये पक्षी, लपक पड़ते उन पर! बगुले, पनकौवे और दूसरे पक्षी आराम की सी बसर कर रहे थे वहाँ! दूर कहीं कहीं, कुछ लोग पानी में मछलियाँ पकड़ रहे थे, छोटे छोटे जाल थे उनके पास! कोई घुटने तक, तो कोई, छाती तक पानी में खड़ा था!
"ये है जी वो तालाब!" बोला कान्हू!
"बहुत खूबसूरत है!" कहा मैंने,
"यूँ लगा लो, गाँव के गाँव पलते हैं इस पर!" बोला कान्हू!
बाली ने, उसके इस व्यक्तव्य की पुष्टि की!
मैंने आसपास नज़र डाली, एक जगह, कुछ दूर आगे ही, किनारे से थोड़ा हटकर, एक मंदिर सा दिखा! छोटा सा मंदिर था वो!
"वो क्या है बाली?" पूछा मैंने,
"वो? मंदिर है!" बोला वो,
"पुराना है?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"कितना पुराना?'' पूछा मैंने,
"ये नही पता!" बोला वो,
"आओ, ज़रा देखें?'' कहा मैंने,
''आओ!" बोला वो,
हम चल पड़े उस मंदिर को देखने के लिए! आराम आराम से चलते रहे, मंदिर पास आता चला गया! आ गए हम उधर ही! अब गौर से देखा!
"ये तो गुफा है क्या?'' पूछा मैंने,
"ऐसी ही लगती है!" बोले शर्मा जी,
"ये तो नीचे जा रही है शायद!" कहा मैंने,
"हाँ जी, पानी है इसमें!" बोला बाली,
"तूने देखी है अंदर से?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, बचपन में!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
''आगे आओ!" कहा मैंने,
"चलो!" बोला बाली,
सीढ़ियां बनी थीं, पत्थरों को ही काट दिया गया था, ज़्यादा चौड़ी तो नहीं थीं, कोई दो फ़ीट ही रही होंगी! हम एक एक कर, ऊपर चढ़ आये! आये तो एक समतल सी जगह मिली, ये पत्थर का उपरला हिस्सा था!
"वो नीचे क्या है?" पूछा मैंने,
"मंदिर की जगह ही है!" बोला बाली,
"लगता है कभी अहाता सा रहा हो ये?" बोला मैं,
"हाँ, ऐसा ही लगता है!" बोले शर्मा जी,
"कमाल है!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोला कान्हू,
"भला कौन बनवायेगा ये मंदिर?" पूछा मैंने,
"कहते हैं कोई बाबा थे यहां पर, दो बाबा, उन्होंने बनवाया!" बोला बाली,
"दो बाबा?'' पूछा मैंने,
"हाँ, दो!" बोला वो,
"कब की बात होगी?" पूछा मैंने,
"बहुत साल हुए!" बोला वो,
"फिर भी?" पूछा मैंने,
"सौ से ज़्यादा मान लो!" बोला वो,
''अच्छा, पुराना ही है!" कहा मैंने,
"मैं तो ऐसा ही देख रहा हूँ इसे!" बोला वो,
'हाँ!" कहा मैंने,
"अब यहां तो कुछ नहीं बचा है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, सब खंडित है!" कहा मैंने,
"कोई दीवार भी नहीं!" बोले वो,
"हाँ, ये पत्थर ही बचे हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
''आओ, नीचे देखें!" कहा मैंने,
''चलो!" बोले शर्मा जी,
हम आ गए नीचे तब, आसपास देखा!
"ये शायद, पानी का गड्ढा है!" कहा मैंने,
"हाँ, बनाया सा लगता है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, शायद ज़रूरत के लिए!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"लाओ, बोतल दो?" बोला वो,
पानी की बोतल मांगी थी बाली ने! दे दी उसको!
"किस से लाएगा?" पूछा मैंने,
''वो देखो!" बोला वो,
जाल सुलझाते हुए, कुछ लोग थे उधर, उसने वहीँ की तरफ इशारा किया था!
"ले आ!" कहा मैंने,
उसने बोतल ली, और चल दिया!
"यहां तो रहस्य ही रहस्य हैं!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, हर तरफ!" कहा मैंने,
''दुर्गम क्षेत्र है, कौन आएगा इधर, खोज-खबर करने या लेने!" बोले वो,
"हाँ, सही कहा!" कहा मैंने,
"यहीं के लोग, यहीं पले-बढ़े हैं, यहीं खप जाएंगे!" बोले वो,
''हाँ, अधिकाँश!" कहा मैंने,
"और जो शहर का हुआ, वहीँ का हो कर रह गया फिर! यहां क्यों लौटेगा फिर!" बोले वो,
"सही बात है!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"एक बात बताइये?" पूछा शर्मा जी ने,
"पूछिए?'' कहा मैंने,
"ये मंदिर कहाँ से लगता है आपको?" पूछा उन्होंने,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"बताइये तो?'' बोले वो,
"होगा, टूट गया होगा?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"नहीं?" कहा मैंने, अचरज से स्वर में!
"आपके अनुसार, गुंबद यहां होगा?" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"तो गुंबद टिका किस पर होगा?'' पूछा उन्होंने,
"खम्भों पर या दीवार पर?" कहा मैंने,
"कहाँ है कुछ ऐसा?'' पूछा उन्होंने!
"यहां हो सकता है?" कहा मैंने,
"हवा में लटकते होंगे खम्भे फिर? है न?'' बोले वो,
अब मैंने गौर किया! बात तो एकदम सही थी! यदि ये मंदिर ही था तो अवश्य ही गुंबद या छतरी रही होगी, या फिर अन्य ढांचा, लेकिन वो टिका किस पर होगा?
"क्या लगता है फिर?" पूछा मैंने,
"ये कंदराएँ ज़्यादा लगती हैं!" बोले वो,
"गुफाएं? ज़मीन के नीचे?' कहा मैंने,
"क्यों नहीं?" बोले वो,
"समझा! इसका मतलब, नीचे ही कुछ है!" कहा मैंने,
"हाँ, इसे आप मुहाना समझ लो!" बोले वो,
"हाँ! ये हो सकता है!" कहा मैंने,
"ऐसा ही है!" बोले वो,
"लेकिन....?" कहा मैंने,
"क्या लेकिन?" बोले वो,
"तालाब! गुफाएं? कैसे सम्भव?" पूछा मैंने,
"तालाब, बाद में बना हो? या उस समय छोटा रहा हो, वो हौद सा गड्ढा देखा था न? उसमे जल भरा जाता होगा, अगर तालाब समीप ही होता, जैसे कि आज है, तो उस हौद की ज़रूरत क्या था? क्यों लाया जा था होगा पानी?'' बोले वो,
"क्या बात है! ये तो सोचा ही नहीं मैंने!" कहा मैंने,
''और अब दूसरी बात!" बोले वो,
"ये तालाब, हैं? इसका स्रोत? इसमें जल आने का कोई तो स्रोत होगा?" बोले वो,
"हाँ, अवश्य ही होगा?" कहा मैंने,
"या तो कोई नदी, या बरसाती नाले या फिर, खूब बरसात!" बोले वो,
"हाँ, सम्भव है!" कहा मैंने,
"ये तालाब, बढ़ा होगा बाद में!" बोले वो,
"इस से क्या मतलब?" पूछा मैंने,
"मतलब ये, कि ये तालाब, ऐसी कई जगहों को लील चुका है!" बोले वो,
'हाँ! समझा मैं!" बोला मैंने,
"बाली ने बताया कि नीचे गुफा में पानी है!" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"तो ये, जगह कोई मंदिर नहीं, कोई कंदरा-स्थल है! जहां काफी बरस पहले, साधू या तपस्वी या कोई और ही, रहते होंगे!" बोले वो,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
''अंदर, हम जा नहीं सकते!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
''तो कौन बताएगा?" बोले वो,
"कौन भला?'' पूछा मैंने,
"सरल तो है?" बोले वो,
"बाली?" कहा मैंने,
"अहाँ? नहीं!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"संतोष बाबा!" बोले वो,
"अरे हाँ!" कहा मैंने,
"न जाने क्यों मुझे?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"ऐसा लग रहा है कि उस गायब हुए मंदिर में, और इस स्थान में, कोई संबंध है?" बोले वो,
"ये क्या कह रहे हो आप?" पूछा मैंने,
''सही तो कह रहा हूँ?" बोले वो,
"क्यों मेरी धड़कन बढ़ा रहे हो?" पूछा मैंने,
"जो लगा, बता दिया!" बोले वो,
"आग ही लगा दी आपने तो!" कहा मैंने,
"अब क्या करूँ?" बोले वो,
"अब बिन बाते किये चैन नहीं!" कहा मैंने,
"बाबा से?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अभी देखना, एक और धमाका!" बोले वो,
''वो क्या, अब?" पूछा मैंने,
''आ रहा है!" बोले वो,
"कौन?" कहा मैंने,
"ले आया पानी!" बोले वो,
बाली आ रहा था, बीड़ी का धुआं छोड़ते हुए!
आ गया वो, बीड़ी फेंक दी,
"लो!" बोला बोतल देते हुए,
"बढ़िया किया!" कहा मैंने,
मैंने पानी पिया तब, शर्मा जी को दिया! कान्हू ने लिया और पिया!
"देखो अब!" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"बाली?" बोले वो,
"हाँ जी?" बोला वो,
''एक बात तो बता?" पूछा उन्होंने,
"हाँ जी?" बोला वो,
"यहां, और भी हैं ऐसे मंदिर?" पूछा उन्होंने,
"मंदिर?" बोला वो,
"हाँ, ऐसे?" पूछा उन्होंने,
"नहीं जी!" बोला वो,
"कोई आसपास?" पूछा उन्होंने,
"नहीं!" बोला वो,
"ऐसी गुफाएं?" पूछा उन्होंने,
"गुफाएं?" बोला वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"हैं ना!" बोला वो,
मैं सकते में! शर्मा जी सकते में!
"कहाँ हैं?" पूछा मैंने,
'वहां, लेकिन वहां तो कोई जाता नहीं?" बोला वो,
"दिखा सकता है?'' पूछा शर्मा जी ने,
"क्यों नहीं!" बोला वो,
"चल, ले चल!" बोले वो, और मेरे कंधे पर हाथ मारा उन्होंने! हो गया था धमाका!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो हम, अब उसके साथ चल पड़े! वो मस्त सा, चले जा रहा था! स्थानीय तो था ही, उसे क्या चिंता! हाँ, टांगें हमारी ही साथ छोड़ दिया करती थीं कभी कभी! झटका सा खा जाया करते थे हम! कुछ पानी बचा था, उसे सम्भाल कर रखा था हमने!
"कहाँ हैं?" पूछा मैंने,
"आगे हैं!" बोला वो,
"कितना?" पूछा मैंने,
"है अभी, चलते रहो!" बोला वो,
उसके पाँव में तो गरारियां लगी थीं, आराम से चलता था वो! टांगें हमारी ही लचक खा रही थीं! वो तो आराम आराम से डिग भर, उछले जाता था!
कम से कम, एक किलोमीटर दूर आ गए थे हम, जंगल ही जंगल था बाएं हाथ पर, बीहड़ सा, सीधे हाथ पर, वो बड़ा सा तालाब था!
सामने आये, तो बायीं तरफ हो गया वो, हम उसके पीछे थे, हम भी बाएं हो लिए! अब बाएं ही चलने लगे! उसके पीछे पीछे!
"बस वहां से, अंदर!" बोला वो,
''अच्छा, चलो!" कहा मैंने,
और आ गए हम वहाँ पर!
"यहां से, नीचे!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
और उतरे हम वो ढलान! आये नीचे, तो एक नाला सा पड़ा, सूख ही चला था, एक पतली सी धारा बह रही थी पानी की उसमे, उसको लांघा और चलते रहे उसके पीछे पीछे!
"ये क्या है? भटकटैया?'' पूछा शर्मा जी ने, एक झाड़ी को देखते हुए,
"नहीं, ये कुछ और है!" कहा मैंने,
"लगती वैसी ही है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"आओ जी!" बोला कान्हू,
"हाँ, बाली कहाँ है?' पूछा मैंने,
''आगे!" बोला कान्हू!
"आदमी है या पहिया?'' बोले शर्मा जी!
मैं हंस पड़ा! कान्हू भी!
"यहां टांगें अलग होने को हैं और वो सरपट दौड़े जा रहा है!" बोले वो,
"बचपन में तो गुफा में घुस गया था!" कहा मैंने!
"हाँ! अब सोचो!" कहा मैंने,
"कीड़ा है पहाड़ी!" बोला मैं,
"हाँ, छर्रा!" बोले वो!
"हाँ, पूरा!" कहा मैंने,
तभी दिखा बाली हमें! हमें ही देख रहा था आते हुए!
"हाँ?" कहा मैंने,
''आओ!" बोला वो,
''अब और कितना?'' पूछा मैंने,
"बस, इधर ही हैं!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"चल भाई!" बोले शर्मा जी,
हम चल पड़े उसके पीछे! आई फिर से चढ़ाई!
"मर गए!" बोले शर्मा जी,
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"फिर से चढ़ो अब!" कहा मैंने,
"चढ़ना तो पड़ेगा ही?" कहा मैंने,
'सुस्ता लो फिर!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
और हम बैठ गए एक जगह!
"पानी दो!" बोले वो,
"लो!" कहा मैंने,
तभी बाली ने एक ज़ोरदार सी आवाज़ निकाली! अजीब सी, जानवर जैसी!
"ये क्या कर रहा है?'' पूछा शर्मा जी ने,
"पता नहीं?" कहा मैंने,
"पूछना ज़रा?" बोले वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने, चिल्ला कर,
"रीछ था!" बोला कान्हू!
''अच्छा!" कहा मैंने,
"कहीं मांद न हो उसकी?'' बोले शर्मा जी,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
"खदेड़ देगा फिर तो!" बोले वो,
"हाँ, मादा हुई तो!" कहा मैंने,
"हाँ! वही खतरनाक है!" बोले वो,
"गया क्या?'' पूछा मैंने,
"ना!" बोला कान्हू!
"कहाँ है?" पूछा मैंने,
"पेड़ पर!" बोला कान्हू!
''अरे?" कहा मैंने,
"भगाओ इसे?'' चीखा मैं,
"भाग जाएगा!" बोला कान्हू!
''आया मैं!" कहा मैंने खड़े होते हुए!
मैं गया उनके पास, वे दोनों वहीँ देख रहे थे!
"कहाँ है?'' पूछा मैंने,
"वो देखो!" बोला बाली!
मैंने झाँका पेड़ पर! एक शाख पर जा चढ़ा था वो!
"छोटा सा है!" कहा मैंने,
"ना!" बोला वो,
"लगता तो है?" बोला मैं,
"खड़ा हुआ तो बराबर आएगा!" बोला वो,
"अच्छा?'' कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
"तो जायेगा कैसे ये?" पूछा मैंने,
"अब नहीं जाएगा!" बोला बाली,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"अब चढ़ गया है तो, पता नहीं कब उतरे!" बोला कान्हू!
"कोई खतरा तो नहीं?'' पूछा मैंने,
"ना, दो तीन पर नहीं बोलेगा कुछ!" बोला वो,
'फिर ठीक है!" कहा मैंने,
अब तक शर्मा जी भी आ गए थे हमारे पास, उन्होंने भी देखा उसे!
"इस भाई के इलाक़े में आ गए हैं हम, तो भड़केगा तो ज़रूर!" बोले वो,
"हाँ, ये तो है!" कहा मैंने,
"अंदर से आ जाते हैं ये!" कहा बाली ने,
"जंगल है!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला बाली,
"इनका ही क्षेत्र है!" बोले शर्मा जी,
तभी उतरने लगा नीचे वो! आया आधे तक, हमें देखा उसने! रुका! और मारी छलांग नीचे! कम से कम, छह फ़ीट ऊपर से! और दौड़ता चला गया अंदर, जंगल की तरफ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ये तो चला गया!" कहा मैंने,
''तो हम भी चलते हैं!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, और कितना यार?" पूछा मैंने,
"बस पास में ही!" बोला बाली!
शर्मा जी ने बीड़ी जलायी तो कान्हू और बाली ने भी ली उनसे! अब तीनों ही बीड़ीबाज़, तैयार हो गए थे!
"चलो जी!" बोला कान्हू!
''चल!" कहा शर्मा जी ने,
"मुझे तो वापिस सोच सोच कर, जाने की, बुखार सा चढ़ने लगा है!" कहा मैंने,
"यही हाल मेरा भी है!" बोले वो,
"कैसे पहुचेंगे?'' पूछा मैंने,
"जब निकलेंगे तो पहुंचेंगे भी!" बोले वो,
"जाते ही खटिया को सलाम बजै ही बजै!" कहा मैंने,
"हाँ, ये भी कोई कहने की बात है!" बोले वो,
"फिर से चढ़ाई?'' पूछा मैंने,
"ये ले लेगी जान!" बोले शर्मा जी,
"हाँ यार!" कहा मैंने,
"ओ भैय्या? यार, कहाँ ले जा रहा है?'' पूछा मैंने,
"आ जाओ, सामने ही है!" बोला वो,
"चलो भाई!" बोले शर्मा जी,
अब किसी तरह से, घुटनों को सहलाते हुए, हिम्मत सी बंधाते हुए, चल पड़े ऊपर, चढ़ाई चढ़ने के लिए!
वो तो दोनों, खट-खट चढ़ गए! और हम, ऐसे चढ़े जैसे रस्सी पकड़ के चढ़ रहे हों! सांस फूल आई हमारी तो! जान ही निचुड़ने लगी बदन से!
''वो देखो!" बोला बाली!
सामने देखा! एक पहाड़ी थी, उसमे एक गुफा बनी थी, करीब चार फ़ीट ऊँची! उसके साथ में ही, एक बड़ा सा पत्थर भी रखा था! हम आये उधर! देखा पत्थर को!
"इस से शायद बंद होता होगा इसका मुहाना?" बोले शर्मा जी,
"उठाता कौन होगा? हाथी?" पूछा मैंने,
"अरे हाँ!" बोले वो,
"ऊपर से कहीं गिरा होगा!" कहा मैंने,
"हो सकता है!" कहा उन्होंने,
"बाली?'' बोला मैं,
"हाँ जी?" बोला वो,
"इसमें गया है कभी?" पूछा मैंने,
"ना! सांप, बीछू होंगे अंदर!" बोला वो,
"अब होंगे तो पक्का!" कहा मैंने,
"सिलैईया भी!" बोला वो,
"हैं? ये क्या है?" पूछा मैंने,
"जिसने पाँव होते हैं बहुत सारे?" बोला वो,
''अच्छा! कातर, कनखजूरा!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
''और कितनी हैं ऐसी?" पूछा मैंने,
"तीन हैं, इधर!" बोला वो,
"बाकी दो कहाँ हैं?" पूछा मैंने,
"पास ही हैं?" बोला वो,
"दिखा?" कहा मैंने,
"यार तेरा पास, बहुत दूर होता है!" बोले शर्मा जी!
"ये तो सही कहा!" कहा मैंने,
"आ जाओ!" बोला वो,
"चल, दिखा!" कहा मैंने,
और ले चला हमें अपने साथ वो! हम भी चलते रहे उसके साथ साथ!
"अब कहीं ऊपर तो नहीं चढ़ना?" पूछा शर्मा जी ने,
"ना!" बोला वो,
"चढ़े तो मैं तो लौट जाऊँगा!" बोले वो,
"लौट जाओगे या लेट जाओगे?" पूछा मैंने, हंस के!
''एक ही बात है!" बोले वो, हँसते हुए!
"नीचे!" बोला वो,
''शुक्र है!" बोले शर्मा जी!
हंस पड़े वे दोनों!
"तुम हो, पहाड़ी झींगुर! तुम्हें असर तो पड़ता नहीं!" बोले वो,
हंस पड़े फिर से दोनों! और हम, नीचे उतरने लगे!
''वो देखो!" बोला बाली!
सामने एक गुफा थी, तिकोनी सी! ये बड़ी सी थी! बेल आदि लटक रही थीं आसपास! पेड़ लगे थे, कुछ जंगली पौधे, पत्थरों में पनाह लिए हुए थे! हम आ गए पास उसके!
"पुरानी है बहुत!" कहा मैंने,
'हाँ!" बोले शर्मा जी,
"बाली?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोला वो,
"इसमें गया है?" पूछा मैंने,
"ना!" बोला वो,
''अबे? उसमे घुस गया, यहां नहीं घुसा?" बोले शर्मा जी,
"कोई काम ही ना पड़ा!" बोला वो,
"तो उसमे क्या काम था?" पूछा शर्मा जी ने,
"उसमे? उसमे तो था!" बोला वो,
"क्या था?" पूछा उस से,
"था!" बोला वो,
"बता तो सही?" पूछा मैंने,
"जेवर पाये थे उसमे!" बोला वो,
"हैं??" मैंने चौंक के पूछा,
"क्या?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ, गहना!" बोला वो,
कान्हू भी आँखें फाड़, उसे देखे!
"कैसा गहना?" पूछा मैंने,
''औरत का!" बोला वो,
"अच्छा? कितने?'' पूछा मैंने,
"पूरे थे!" बोला वो,
"हैं??'' पूछा मैंने फिर से, हैरत से!
"हाँ, पूरे!" बोला वो,
"कोई लाश थी?" पूछा मैंने,
"ना!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मिट्टी में गड़े थे!" बोला वो,
"मिट्टी में?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"और पता कैसे चला?" पूछा मैंने,
"बाबा ने बताई थी!" बोला वो,
"कौन से बाबा ने?" पूछा मैंने,
"समरू बाबा ने!" बोला वो,
''और बाबा समरू को किसने बताई?" पूछा मैंने,
"मुझे नहीं पता!" बोला वो,
"कैसे थे गहने?" पूछे एक साथ सवाल हम दोनों ने!
''सोना-चांदी!" बोला वो,
"हैं??'' मैंने फिर से अचरज से पूछा,
"किस चीज़ में थे?" पूछा मैंने,
"टोकनी में!"" बोला वो,
"कितनी बड़ी टोकनी?" पूछा मैंने,
"इतनी!" बोला वो,
मतलब, करीब दो किलो की!
"भरी हुई थी?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
''अब कहाँ है?" पूछा मैंने,
"बाबा के पास है!" बोला वो,
''समरू के?" पूछा मैंने,
"दोनों के!" कहा उसने,
"ये क्या कहानी यही?" बोले शर्मा जी,
"पता नहीं जी!!!!!!" कहा मैंने,
"तूने खोदे थे?" पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
''और भी हैं?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोला वो,
"कब खोदे थे?" पूछा मैंने,
"पिछले साल!" बोला वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो!
बाली, सब बता रहा था! सीधा-सादा सा युवक था! आप खुद समझ सकते हैं की कैसा स्वभाव रहा होगा उस बाली का!
"चलें?" बोला वो,
''रुक ज़रा!" कहा मैंने,
और..........................................!!!!!


   
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