अबरार आना था रात को!
वो भी बेचैन होगा,
हमारी तरह ही!
तैयारी करनी क्या थी?
कुछ भी नहीं!
बस इंतज़ार करना था!
उस दिन,
हम फिर से अपने एक और जानकार के पास गए,
जनाब रफ़ीक़ साहब,
बेहद शरीफ़ इंसान हैं वो,
अपना ही छोटा सा व्यवसाय है उनका,
दो बेटे विदेश में हैं,
नौकरी करते हैं,
और खुद यहाँ अपनी एक बेटी और पत्नी के साथ,
रहा करते हैं!
उनसे मुलाक़ात हुई!
ऐसे मिले हम जैसे,
बरसों से मुलाक़ात न हुई हो!
घर ले गए हमे!
और फिर जो ख़ातिरदारी की,
मेहमान-नवाज़ी की,
कोई जवाब नहीं उनका!
वे भी,
जनाब हैदर साहब को जानते हैं!
उनको भी बताया हमने,
खूब बातें हुईं,
नयी,
पुरानी,
और फिर वहाँ से वापिस हुए,
दोपहर बीत चुकी थी!
पल्ल्वी भी घर पर ही थी,
चिंताएं तो थीं घर पर,
लेकिन अब सुक़ून भी था!
किसी तरह से,
शाम आयी,
दिन काटे नहीं कट रहा था!
बड़ी मुश्किल से ही,
वक़्त आगे बढ़ रहा था!
लगता था,
कि जैसे अबरार के किसी आलिम ने,
हमारे यहाँ का,
वक़्त रोक दिया है!
लेकिन ऐसा करने से उसे क्या फ़ायदा!
वो तो चाहेगा,
कि दिन,
घंटे में,
घंटा मिनट में,
मिनट पल में,
और पल विपल में,
तब्दील हो जाएँ!
बेसब्र वो भी होगा,
और हम तो,
खैर थे ही!
और फिर मित्रगण!
आख़िर,
शाम ने,
रुख़सती डाली!
और रात आयी!
आ गयी थी फैंसले की घड़ी!
अब मुझे भी इतंज़ार था,
उनके आने का,
अबरार अकेला नहीं आता!
गवाह लाता अपने साथ!
ये तो मैं जानता ही था!
खैर,
मैं तैयार था!
मैं उस समय अपने कमरे में अकेला था!
शर्मा जी,
बाहर किशोर जी के साथ बैठे थे,
मैंने कुछ काम में व्यस्त था,
सब कुछ जांच रहा था,
कि तभी,
खलील हाज़िर हुआ!
मुस्कुराता हुआ!
"आओ मेरे दोस्त!" मैंने कहा,
वो मुस्कुराया!
और मेरे क़रीब आया!
"जैसा आपने चाहा था, वैसा कर दिया मैंने!" वो बोला,
"मैं जानता हूँ!" मैंने कहा,
"आप निबट लें आज, मैं फिर कल आता हूँ" वो बोला,
"शुक्रिया ख़लील!" मैंने कहा,
और वो चला गया!
समझा गया था मुझको सब!
इशारों ही इशारों में!
'आप पहले निबटा लें'
यही कहा था उसने!
और मैं समझ गया था!
कि,
अब कोई डर नहीं!
ऊँट,
हमारी ही करवट बैठा था!
अब अबरार क्या करेगा,
ये देखना था बस!
मित्रगण!
दस बजे,
और घर के सभी लोग सोये,
केवल किशोर साहब,
उनकी पत्नी,
और हम दो,
यही जागे हुए थे!
ात घिरी!
पल्ल्वी सो गयी थी,
रोज की तरह,
सामान्य सी,
अब,
ठीक साढ़े ग्यारह बजे,
हम उसके कमरे में गए,
वो चादर ओढ़,
सो रही थी,
मैं सोफे की कुर्सी पर आ बैठा,
शर्मा जी भी बैठ गए,
अब मैंने कलुष-मंत्र चलाया,
और अपने,
और शर्मा जी के नेत्र पोषित किये!
एक घंटा बीता,
कोई नहीं आया,
और फिर कोई और आधा घंटे के बाद,
रौशनियां चमकीं!
अबरार अपने साथ,
अपने सभी साथियों को लेकर हाज़िर हुआ!
वो खुश था!
लेकिन असलियत तो मैं जानता था!
सलाम हुई उनसे,
"आओ अबरार!" मैंने कहा,
"एक माह हो गया!" वो बोला,
"हाँ! यक़ीनन हो गया!" मैंने कहा,
उसके चेहरे से लगता था,
कि वो इस समय तक,
बहुत बेचैन रहा था!
"अबरार! जगाओ इसको! लेकिन हाथ नहीं लगाना! चाहे कुछ भी करो!" मैंने कहा,
अबरार खुश!
अबरार ने देखा उसको!
अपना जिन्नाती असर चढ़ाना शुरू किया उसने!
लेकिन!
नहीं जागी वो!
उसने मुझे देखा,
घबराया हुआ सा!
फिर आवाज़ दी उसने उसे!
कोई असर नहीं!
नाम पुकारा!
परेशान हुआ!
कभी इधर!
कभी उधर!
पूरी कोशिश कर ली उसने!
जितनी कर सकता था!
कुछ न कर सका!
नहीं जगा पाया वो!
उस से उठती तेज़ महक़ भी,
नहीं जगा सकी उसको!
खाली हाथ रह गया!
कभी अपनी माँ से बात करता,
कभी अपने बाप से,
कभी बहन से,
कभी भाई से!
लेकिन हुआ कुछ नहीं!
पल्ल्वी, निढाल ही रही!
"बस अबरार!" मैंने कहा,
उसने मुझे देखा,
एक थके-पिटे खिलाड़ी की तरह!
"वो महज़ तेरे असरात थे! जिन्नाती असरात, जिसमे ये लड़की क़ैद थी! अपने आपको भुला बैठी थी! इसी को मुहब्ब्त समझती थी वो! अब असरात नहीं! तो कोई मुहब्ब्त भी नहीं! अब जाओ अबरार! कुछ नहीं बचा तुम्हारे लिए! ये आदमजात है, वापिस लौट आयी है आदमजातों में!" मैंने कहा,
और खड़ा हुआ!
"नहीं! ऐसा नहीं हो सकता!" वो बोला,
"तुमने कोशिश की! पूरी कोशिश! लेकिन कुछ न हुआ! अब जाओ अबरार! हसन, आइजा और जनाब एत्तहूक़ साहब! आपने देख लिया अब! अब इस अबरार को ले जाओ! नहीं तो अब ये ज़बरदस्ती होगी! और मेरे पास और कोई रास्ता नहीं बचेगा! ले जाओ इसको!" मैंने कहा,
वे चुपचाप सुनते रहे!
सभी मेरे पक्ष में थे!
बस वो अबरार!
वही मुझे देख रहा था!
कभी मुझे!
कभी उस लड़की को!
वो उसको छूने के लिए,
तड़प रहा था!
मैंने रोक दिया उसको!
कई बार!
और फिर,
वे सभी लोप हुए!
बस,
रह गया अबरार वहाँ!
"जाओ अबरार! अब जाओ!" मैंने कहा,
वो बैठ गया!
दुखी,
परेशान!
उसने जो सोचा था,
वो नहीं हुआ था!
अब मैंने उसको खूब खरी-खोटी सुनायी!
कि आइंदा ऐसा कभी न करे!
कभी इसके पीछे न आये!
कभी किसी और आदमजात पर नज़र न डाले!
वो सुनता रहा!
"अबरार! अब जाओ!" मैंने कहा,
टूट गया वो!
खाक़ में मिल गयी मुहब्ब्त उसकी!
"मैं जा रहा हूँ आलिम साहब" वो बोला,
"यही बेहतर है" मैंने कहा,
"कुछ कहना चाहता हूँ" वो बोला,
"कहो?" मैंने कहा,
"माह में एक बार, इसको देख सकता हूँ?" उसने कहा,
"नहीं!" मैंने कहा,
"एक बार?" वो बोला,
"बिलकुल नहीं" मैंने कहा,
"रहम कीजिये" वो बोला,
"नहीं अबरार! अब भूल जाओ!" मैंने कहा,
वो कसक उठा!
तरस तो मुझे भी आया,
लेकिन ऐसा करना ठीक नहीं था!
न जाने आगे क्या हो!
और फिर वो,
प्रकाश दमकाता हुआ,
लोप हुआ!
लोप होते ही,
गुलाब के बड़े बड़े फूल बिखर गए हर तरफ!
बिखरे तो लोप भी हो गए!
मैं जान गया!
ये कारगुज़ारी,
उसी,
ख़लील की है!
वो पल पल मेरे साथ ही था!
मित्रगण!
मैंने अबरार को आखिरी बार तभी देखा था!
सब ठीक हो गया था!
सब!
किशोर साहब ने बहुत धन्यवाद किया हमारा!
हम वापिस हुए!
ख़लील दुबारा आया!
मैंने बहुत शुक्रिया किया उसका!
बदले में,
फल दे गया!
मीठे मीठे आलू-बुखारे!
पिछले ही साल,
सर्दियों में,
पल्ल्वी की बड़ी बहन का ब्याह हुआ,
हम भी गए थे,
पल्ल्वी भुला चुकी थी सबकुछ!
अबरार,
अपने वायदे के अनुसार,
फिर कभी नहीं आया!
दूर हो गया था वो हमेशा के लिए!
लड़की बच गयी थी!
ये हम,
आदमजातों की जीत थी!
इंसान यदि ठान ले,
तो क्या असम्भव है?
कुछ भी नहीं!
हाँ ख़लील,
आ जाता है मिलने के लिए!
अक्सर ज़िक्र कर दिया करता है हाज़िरा का!
मुझे छेड़ने के लिए!
हंसते हुए!
मुस्कुराते हुए!
ख़लील,
आज भी मेरा बहुत अज़ीज़ दोस्त है!
मरते दम तक रहेगा!
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