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वर्ष २०१३ अलवर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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 कुर्सी की पुश्त पर,

 कमर टिका ली,

 हारने की गंध बहुत तीक्ष्ण हुआ करती है!

 बस गयी थी मेरे अंदर!

 घुटन महसूस हो रही थी!

 तभी मेरे कंधे पर हाथ रखा किसी ने,

 मैंने आँखें खोलीं,

 ये ख़लील था,

 अपनी आँखों में,

 चमक लिए!

 अपने होठों पर ऊँगली रखी उसने,

 मुझे चुप रहने को कहा,

 और,

 फिर लड़की को देखा,

 लड़की की आँखें बंद हुईं,

 धीरे से,

 लुढ़क गयी बिस्तर पर!

 ये क्या हुआ?

 ये क्या किया ख़लील ने?

 कुछ तो अवश्य ही किया था!

 अब ख़लील ने मुझे देखा,

 मुस्कुराया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और गायब हो गया!

 लड़की उठी,

 आँखें खोलीं,

 और मुझे देखा,

 मैंने उसको देखा!

 ओह!

 मुझे अब समझ आया!

 ये तो शाही अंदाज़ था ख़लील का!

 वो कर गया था अपना काम!

 मुझे बहुत हैरत हुई!

 एक जिन्न,

 अपनी क़ौम के ख़िलाफ़ हुआ था,

 अभी थोड़ी देर पहले!

 दिमाग़ में कीड़े कुलबुलाये अब!

 "पल्ल्वी?" मैंने कहा,

 "हाँ?" वो बोली,

 "अबरार!" मैंने कहा,

 "कौन अबरार?" उसने पूछा,

 मैं खड़ा हो गया!

 शर्मा जी भी खड़े हो गए!

 हम दोनों एक दूसरे की शक्ल देखें अब!

 शर्मा जी ने नहीं देखा था ख़लील को!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 केवल,

 मैंने ही देखा था!

 कर गया था वो काम अपना!

 जिन्नाती इल्म दिखा ही दिया था उसने!

 मैंने अपना वायदा नहीं तोड़ा!

 मैंने कुछ नहीं किया!

 न हाथ ही लगाया,

 न ब्याह ही करवाया!

 "कुछ याद नहीं?" मैंने पूछा,

 "नहीं तो, क्या बोला आपने अबरार?" उसने पूछा,

 "हाँ, अबरार!" मैंने कहा,

 "कौन है ये? मैं क्यों जाउंगी उसको?" उसने पूछा,

 दिमाग़ में धमाका हुआ!

 चेहरे पर हंसी आयी!

 मैं खुश हुआ!

 ख़लील!

 मेरे दोस्त!

 शुक्रिया तेरा!

 इसे कहते हैं दोस्ती!

 एक शाही जिन्न,

 ख़लील की दोस्ती!

 लड़की को कुछ याद नहीं था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुछ भी!

 याददाश्त का वो हिस्सा,

 उड़ा ले गया था अपने साथ!

 मैं बहुत खुश हुआ!

 शर्मा जी भी!

 हार जीत में बदल गयी!

 बदल दी,

 हाँ, बदल दी,

 मेरे दोस्त ख़लील ने!

 "चलो!" मैंने कहा,

 "चलिए" शर्मा जी बोले,

 दरवाज़ा खोला,

 और बाहर आये हम!

 अब किशोर जी से सब बता दिया!

 सब का सब!

 वे खुश हुए!

 मेरे पाँव छूने चले,

 मैंने उठा लिया उनको ऊपर,

 मेरे गले लग गए!

 पल्ल्वी की माँ,

 बहन और भाई,

 भागे पल्ल्वी के पास!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और माँ के रोने की आवाज़ आयी!

 बहन की भी!

 भाई भी सुबक उठा!

 जो मैंने सोचा था,

 वैसा तो हरगिज़ नहीं हुआ!

 मेरी परेशानी को,

 एक ही लम्हे में,

 उड़ा दिया था ख़लील ने!

 मैं जीत गया था!

 किसी की ज़िंदगी बदल गयी थी!

 खुशियां,

 फिर से कूद पड़ीं घर में!

 उन्होंने फ़ौरन अपने भाई को फ़ोन किया!

 और हम अंदर कमरे में आ गए,

 उनके भाई भी आ गए,

 नमस्कार हुई,

 किशोर साहब ने,

 आँखों में आंसू लिए,

 सब बता दिया उनको!

 उनकी भी आँखें भर आयीं,

 अपने भाई को देखकर!

 वे खुश थे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 कि पल्ल्वी,

 वो नटखट सी लड़की,

 अब ठीक हो गयी थी!

 बच गयी थी!

 भय ख़तम हो गया था!

 लेकिन अब,

 परसों,

 अबरार आएगा!

 बस!

 वो देख लेगा कि क्या है असलियत!

 और हो जाएगा फैंसला!

बात बन गयी थी!

 अब सब खुश थे!

 असरात जहां अबरार ने ख़तम किये थे,

 याददाश्त,

 ख़लील ले उड़ा था!

 बहुत वाज़िब काम कर गया था ख़लील!

 उसने पूछा था मुझसे,

 'क्या ऐसा ही चाहते हैं आप?'

 मैंने कहा था,

 कि, हाँ!

 यही चाहता हूँ मैं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तब वो,

 दस मिनट के लिए गया था कहीं,

 समझ में आयी अब!

 वो जहाँ अबरार के पास गया था,

 वो,

 पहले,

 पल्ल्वी के पास भी गया था!

 जायज़ा लेने!

 अब आया समझ!

 ख़लील!

 मेरा दोस्त!

 क्या दोस्ती निभायी थी उसने!

 एक खाकसार,

 एक नाचीज़,

 आदमजात के लिए!

 वाह ख़लील वाह!

 अब ये सारी कहानी,

 बतायी मैंने,

 शर्मा जी को!

 उन्होंने अपना माथा ठोका!

 अब आयी बात समझ!

 तारीफदारी की उन्होंने अब ख़लील की!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 उसने किया ही ऐसा था!

 मेरी परेशानी को,

 एक ही लम्हे में धुआं कर गया था!

 मैं तो,

 महीने भर से,

 अपने सीने में,

 ये वजन लिए बैठा था!

 कि कैसे होगा?

 क्या होगा?

 क्या करेगी ये लड़की?

 क्या कहेगी?

 ऐसे ऐसे सवाल थे मन में!

 लेकिन,

 ख़लील ने बारीक़ी से देखा था मुझे,

 सब समझा था उसने,

 मेरी परेशानी,

 मजबूरी,

 सब!

 और इसीलिए आया था वो,

 अपने वायदे के अनुसार!

 अब समस्या थी उस अबरार की!

 अब क्या करेगा अबरार?


   
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श्रीशः उपदंडक
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 वो,

 ज़िद्दी अबरार!

 क्या करेगा?

 मान जाएगा?

 सह लेगा?

 क्या करेगा?

 अब हुई रात!

 सब ठीक था!

 पल्ल्वी एकदम सही थी!

 आराम से घर में घूम रही थी,

 अपना फ़ोन कान पर लगाए!

 सब भूल बैठी थी वो!

 और ये अच्छा था!

 बहुत अच्छा!

 जान तो बच गयी थी उसकी!

 अब भोजन किया हमने!

 और लम्बी तान लेकर,

 सो गए हम तो!

 अब परसों ही देखना था सबकुछ!

 सो गए हम!

 सुबह उठे,

 नहा-धोकर,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 फारिग हुए,

 मेरे कुछ जानकार हैं वहाँ अलवर में,

 चाय-नाश्ता करके,

 हम उनसे मिलने चले,

 जनाब हैदर हैं वहाँ!

 मेरे बहुत अजीज़ हैं!

 दांत काटे की दोस्ती है उनसे शर्मा जी की,

 और मेरे से भी खूब पटती है उनकी!

 लकड़ी का कारोबार है!

 जब हम,

 उनकी दुकान पर पहुंचे,

 और गाड़ी लगायी,

 उन्होंने चश्मे में से झाँका!

 और जब हमे देखा,

 तो सारा काम छोड़,

 भाग पड़े बाहर!

 और आ लगे गले!

 बड़े खुश हुए!

 बड़ी शिकायतें कीं उन्होंने!

 कि कल से आये हैं हम!

 और खबर भी नहीं!

 ले गए अंदर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 पानी मंगवाया!

 और फिर चाय!

 घर फ़ोन किया उन्होंने,

 खाना बनवाने को कहा,

 और जो फिरनी बनी है घर में,

 वो लाने को कहा!

 और अब हुई बातें!

 करीब दस मिनट में बेटा आ गया उनका!

 नमस्कार की उसने,

 और अब,

 फिरनी लगायी बर्तनों में!

 और खाय़ी हमने!

 बड़ी ही लज़ीज़ बनी थी!

 शुद्ध देसी घी डाला गया था!

 मेवों से लबरेज़ थी!

 मजा बाँध दिया!

 पानी पिया अब!

 और डकार मारी खींच के!

 फिर,

 अपने एक आदमी से दुकान सम्भालने को कहा,

 और ले चले घर अपने!

 घर पहुंचे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 खाना तैयार था!

 अब खाना खाया!

 दो माह बाद,

 उनकी बेटी का ब्याह था,

 दे दिया न्यौता!

 और ये भी कहा कि,

 घर आयेंगे वे,

 शर्मा जी के!

 हमने भी हाँ कर दी!

 खाना खा ही लिया था!

 बेहतरीन खाना था!

 मजा आ गया था!

 अब हम चले वहाँ से,

 जनाब हैदर साहब को,

 उनकी दुकान तक छोड़ा,

 उन्होंने पांच डिब्बे मिठाई के रखवा दिए!

 मना करने के बाद भी!

 और फिर हम,

 उनसे विदा लेकर चले वापिस!

 "हैदर साहब जवान हैं अभी तक!" मैंने कहा,

 "माल खाते हैं! कमी कुछ है नहीं! बड़ा लड़का अधिकारी है सरकारी नौकरी में, उसकी पत्नी भी! एक छोटा बेटा है, वो पढ़ रहा है! बिटिया पढ़-लिख गयी, अब ब्याह है उसका! तो हैदर साहब को चिंता कैसी!" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ! सही कहा!" मैंने कहा,

 "वैसे भी उम्दा शख़सियत के मालिक़ हैं!" वे बोले,

 "हाँ, सही बात है!" मैंने कहा,

 "बड़ी मेहनत की है इन्होने अपने जीवन में, गाँव से निकल कर यहाँ आये, और आज देखो! रंग लायी उनकी मेहनत!" वो बोले,

 "हाँ!" मैंने कहा,

 और हम चलते चले गए वापिस,

 किशोर जी के घर,

 "बेटा कहाँ है इनका वो नौकरी वाला?" मैंने पूछा,

 "हरियाणा में है आजकल" वे बोले,

 "अच्छा! अच्छी बात है!" मैंने कहा!

 और फिर कुछ देर बाद,

 हम घर पहुँच गए!

 अंदर आये,

 और सीधा अपने कमरे में!

 किशोर साहब ने,

 चाय बनवा ली,

 तो अब चाय पी!

 वो दिन भी गया,

 और रात आयी,

 अब रात को जा,

 आनंद लिया हमने मदिरा का!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और फिर जाकर,

 सो गए इत्मीनान से!

 अब,

 कल का इंतज़ार था बस!

तो,

 वो रात भी बीत गयी!

 चैन से सोये हम!

 सुबह उठे,

 और अब नहाये-धोये!

 फिर चाय-नाश्ता किया,

 और फिर, छत पर टहलने चले गये,

 पुरानी आबादी थी यहाँ,

 घर में पुराने से ही थे,

 हवेलियां सी बनीं थीं!

 लेकिन बहुत सुन्दर जगह थी!

 ऐसी जगह मुझे अच्छी लगती हैं!

 साधारण और जीवन से भरपूर!

 दिखावेबाजी से दूर!

 मेहनती लोग!

 और उनके छोटे छोटे व्यवसाय!

 दुकानों के बाहर,

 लोगों का जलसा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 चाय की दुकाने,

 फ़ुरसत ही नहीं चाय वाले को!

 लोग चाय के साथ,

 मट्ठियां, बिस्कुट आदि भी खा रहे थे!

 चर्चाएं हो रही थीं!

 थोड़ी देर बार,

 सब चले जाने वाले थे वहाँ से!

 अपने अपने व्यवसाय के लिए!

 अपनी अपनी नौकरी के लिए!

 यही है चहल-पहल!

 अच्छा लगता है!

 ये मेरा देश है!

 मेरी संस्कृति!

 मेरी मिट्टी!

 मेरा अस्तित्व!

 टहले अब,

 और फिर नीचे आ गए,

 भोजन लग चुका था,

 तो अब भोजन किया!

 और फिर आराम!

 सारा,

 बखेड़ा आज रात को था!


   
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