असरात हट गए थे!
लड़की ने अपनी माँ को पुकारा,
भोजन के लिए!
माँ खुश!
पिता खुश!
अब सामान्य ही थी वो!
हमे भी नमस्कार कहा उसने!
घर में,
खुशियां लौट आयीं थीं!
ऐसा ही रहे हमेशा,
यही सोचा था मैंने!
मित्रगण!
अगले दिन,
सुबह सुबह ही,
चाय नाश्ता करने के बाद,
हम निकल गए वहाँ से,
और अब उनसे विदा ले,
दिल्ली की ओर चले!
सारे रास्ते मैं अपने इसी,
जुए के बारे में सोचता रहा,
गम्भीर रहा बहुत,
और हम,
दिल्ली आ गए,
दिमाग़ झन्ना रहा था बहुत!
उलझा हुआ था,
हालांकि,
अभी एक माह बाकी था,
लेकिन दिल में एक अजीब सी धड़कन मची थी!
शर्मा जी,
चले गए थे वापिस,
और मैं अकेला था वहाँ,
शाम का वक़्त था,
मन लग नहीं रहा था,
किसी के फ़ोन भी नहीं उठा रहा था मैं,
कोई शाम छह बजे,
मुझे ख़लील का ख़याल आया,
मैंने सोचा,
उस से ही बात की जाए!
दिल तो हल्क़ा होगा!
मैंने उसको याद किया,
उसका नाम लिया,
ग्यारह बार!
और प्रकाश चौंधा वहाँ!
गुलाबी रंग के वस्त्रों में,
वो शाही जिन्न हाज़िर हो गया!
बेहद शालीन!
बेहद सुंदर!
हाथ में,
फल लिए,
मोटे मोटे आलू-बुखारे लिए!
वो हमेशा कुछ न कुछ लाता ही है!
मुस्कुराया!
"सलाम!" वो बोला,
"सलाम ख़लील!" मैंने कहा,
"कैसे याद फरमाया आपने जनाब!" वो बोला,
"ऐसे ही ख़लील! कुछ पूछना है!" मैंने कहा,
"इस नाचीज़ से पूछना है? कमाल है!" वो बोला,
"सच में ख़लील!" मैंने कहा,
"बताइये फिर तो! आपका हुक्म सर आँखों पर!" वो बोला,
और वो आलू-बुखारे मुझे पकड़ा दिए उसने!
मैंने रख लिए!
अब मैंने उसको,
अबरार की,
और पल्ल्वी की,
सारी बात बतायी,
उसने ग़ौर से सुना,
और फिर,
"अब आप क्या चाहते हैं?" उसने पूछा,
मैंने मंशा ज़ाहिर कर दी!
"ऐसा चाहते हैं आप?" उसने पूछा,
"हाँ ख़लील!" मैंने कहा,
"मैं अभी आया!" वो बोला,
और गायब हो गया!
फिर कोई,
दस मिनट के बाद वो आया,
वो कहाँ गया था,
ये मुझे मालूम था!
अबरार के पास!
वो शाही जिन्न था!
रुतबा था उसका!
रसूख़ वाला था!
बे-रोकटोक कहीं भी आ जा सकता था!
वो आ गया था वापिस!
"अबरार ने आपकी तारीफ़ की बहुत! मुझे भी ख़ुशी हुई!" वो बोला,
"मैं जानता हूँ, बराबर का हिसाब ही किया है मैंने ख़लील!" मैंने कहा,
"पता है आपके हिसाब का!" वो हंसा!
"तन्वी कैसी है ख़लील?" मैंने पूछा,
"आप तो कभी जाते नहीं वहाँ! कभी नहीं देखा! खैर, वो दुरुस्त है!" उसने कहा,
"और आप?" मैंने पूछा,
"सब खैरियत!" वो बोला,
"अच्छा है!" मैंने कहा,
"कब तशरीफ़ ला रहे हैं आप हमारे घर पर?" वो बोला,
"आउंगा ख़लील!" मैंने कहा,
"मेरा बस चलता तो, अभी ले जाता आपका! खैर, आपकी मर्ज़ी!" वो बोला,
मैं हंस पड़ा!
"दो रोज पहले, है न?" वो बोला,
"हाँ" मैंने कहा,
"ठीक है, मैं मौजूद हूँ वहाँ!" वो बोला,
मैं खुश हुआ!
सच में!
गले से लग गया उसके!
मेरा दोस्त है वो!
और दोस्त के सीने लगना,
बहुत सुक़ून देता है!
"ठीक है ख़लील!" मैंने कहा,
"अब इजाज़त दें!" वो बोला,
"ज़रूर!" मैंने कहा,
और वो गायब हुआ!
ख़ुश्बू छोड़ गया!
तेज,
गुलाब की ख़ुश्बू!
और मैं लेट गया!
चलो!
ख़लील का सहारा तो मिला!
अब वो,
सम्भाल लेगा सबकुछ!
एक दोस्त के नाते!
अब सुक़ून था मुझे!
पंद्रह दिन बीते होंगे,
मुझे किशोर साहब का फ़ोन,
गाहे-बगाहे आता ही रहता था,
लड़की अब ठीक थी,
वैसी ही हो गयी थी,
जब वो अपनी बुआ के पास गयी थी!
खाती-पीती भी ठीक थी,
पढ़ाई भी कर रही थी,
साज-श्रृंगार भी नहीं करती थी ,
सामान्य ही थी!
खबर तो अच्छी थी,
लेकिन दिल धड़क जाता था!
पंद्रह दिन बाद?
तब क्या होगा?
अगर,
नहीं मानी तो ये?
फिर क्या होगा?
फिर तो,
ये लड़की जाने,
और फिर वो अबरार!
लेकिन,
फिर भी,
चिंता सी लगी थी!
दिल में बहुत,
घुटन सी थी!
अबरार को,
वचन दिया था मैंने,
वो अपनी मुहब्ब्त का पक्का था,
तोड़े नहीं टूट रहा था!
टूटता भी कैसे!
ये जिन्नाती फ़ितरत है!
नहीं टूट सकती!
भले ही कुछ भी हो!
चाहे फ़ना ही हो जाएँ!
लेकिन पीछे नहीं हटेंगे!
अबरार भी ऐसा ही था!
ज़िद का पक्का!
और अपने वायदे का पक्का!
ज़ुबान बहुत मायने रखती है,
उनके लिए!
जैसे कोई पत्थर!
इंसानों के जैसे नहीं,
कहा,
और भूल गए!
और तो और,
द्वेष भी कर लिया!
लेकिन जिन्न,
हरगिज़ नहीं!
कभी नहीं!
फिर दस दिन बीते और,
और ख़लील आया मेरा पास,
वही,
फल आदि लेकर!
मैंने लिए,
तो उसने खिलाये भी!
मैंने खाये!
जिन्नाती चीज़ों,
की बात ही अलग है!
एकदम अलग!
ख़लील ने मुझे भरोसा दिया,
कि जैसा मैं चाहता हूँ,
वैसा ही होगा!
मैं निश्चिन्त रहूँ!
ख़लील,
एक जिन्न होकर भी,
इस आदमजात से,
अपनी दोस्ती निभा रहा था!
अपनी ही,
क़ौम के खिलाफ!
दिल जीत लिया उसने तो!
मुझे उसकी दोस्ती पर,
बहुत फ़ख्र हुआ!
बहुत फ़ख्र!
और फिर इसी तरह,
वो दिन भी आ ही गया!
जब मुझे वहाँ जाना था!
हम निकल पड़े वहाँ के लिए,
वहाँ पहुंचे,
तो माहौल ठीक ठाक था,
किशोर जी,
और उनकी पत्नी बड़े डरे से हुए थे!
दर,
लाजमी भी था!
हालांकि इन दिनों में,
कोई बात नहीं हुई थी,
एक बार भी,
अबरार का नाम नहीं लिया था उसने,
लेकिन,
पता नहीं तब क्या हो!
जब उसको याद दिलायी जायेगी,
अबरार की!
क्या करेगी वो!
क्या होगा!
बस यही डर था!
उन्हें भी और मुझे भी!
मैं हार हुआ,
जुआरी नहीं बनना चाहत था,
किसी भी तरह से नहीं!
आज उस लड़की से,
बात करनी थी मुझे,
उसको,
याद दिलाना था,
अबरार के विषय में बात करनी थी!
अबरार की याद दिलानी थी!
बड़ा ही मुश्किल काम था ये!
बेहद मुश्किल!
हमने अब चाय पी वहाँ,
फिर भोजन भी किया,
और फिर,
अपने कमरे में ही चले गए,
मैं खाली हाथ आया था,
न ही मेरा सामान था मेरे पास,
न बड़ा बैग,
न छोटा बैग,
और न ही भस्म आदि!
कुछ भी नहीं!
कुछ नहीं लाया था मैं!
मेरा तो अब किरदार,
यूँ समझो, बस दो दिन और था,
उसके बाद मुझे हट जाना था,
कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं!
कोई तंत्र-मंत्र नहीं!
वे करते रहें मुहब्ब्त!
उनकी इच्छा!
मैं क्यों बुरा बनूँ?
करीब चार बजे,
घर आयी पल्ल्वी!
हमे देखा, तो,
नमस्कार की!
बिलकुल बदल चुकी थी वो!
पल्ल्वी को देखकर,
मुझे बड़ी हैरत हुई!
असरात नहीं बाकी थे अब!
और अब,
थोड़ी देर बाद ही,
उस से बात करनी थी!
इसी सोच में डूबा था मैं!
हम अब अंदर गए,
मैं, शर्मा जी,
और किशोर साहब,
पल्ल्वी उठ बैठी,
और बैठ गयी,
अपने, बिस्तर पर!
अब मैं बैठा वहाँ!
सामने पड़ी एक कुर्सी पर,
"कैसी हो पल्ल्वी?" मैंने पूछा,
"मैं ठीक हूँ!" वो बोली,
"और पढ़ाई कैसी है?" मैंने पूछा,
"एकदम बढ़िया!" वो बोली,
उसकी बातों से,
झलकता था,
उसका व्यवहार,
बड़ा ही नटखट सा था!
चंचल स्वभाव की थी वो!
बात करती तो,
अपने हाथ ज़रूर मटकाती थी!
जैसे आजकल की नयी पीढ़ी किया करती है!
तकिया लिया उसने,
और अपनी गोद में रख लिया,
फिर अपने हाथ,
कोहनी गड़ाए,
"कुछ पूछना चाहता हूँ, पूछूं पल्ल्वी?" मैंने पूछा,
"हाँ, पूछिए?" वो बोली,
"अबरार!" मैंने कहा,
उसने सुना,
माथे पर हाथ रखा,
और जैसे कुछ याद कर रही हो,
कौन है अबरार?
कोई याद जुड़ी है उस से?
कौन है ये अबरार?
"कुछ याद आया?" मैंने पूछा,
उसने मुझे देखा,
फिर अपने पिता को,
मेरे तो,
हाथों में पसीना आ गया!
किशोर जी का दिल धड़क उठा!
शर्मा जी जड़ से हो गए!
"पल्ल्वी?" मैंने कहा,
उसने मुझे देखा,
"बताओ?" मैंने पूछा,
"क्या?" वो बोली,
"अबरार, सुना है ये नाम?" मैंने पूछा,
"हाँ, सुना है" वो बोली,
सर नीचे करते हुए,
मैं समझ गया,
वो शरमा रही थी,
अपने पिता से,
इसीलिए,
मैंने अब उनको,
बाहर भेजा!
वे चले गए,
दरवाज़ा बंद कर दिया गया,
शर्मा जी ने,
बंद कर दिया था!
"कौन है ये अबरार?" मैंने पूछा,
"है, है अबरार!" वो बोली,
धीरे से,
चुप सी हो कर,
सर नीचे झुकाये हुए,
जब सर उठाया,
तो आँखों में,
मोटे मोटे आंसू थे!
बाजी हारने की कगार पर खड़ा था मैं!
किसी भी पल,
किसी भी पल,
लगाम छूटने वाली थी हाथों से!
और मैं,
बनने वाला था,
एक हारने वाला खिलाड़ी!
थका-मांदा,
लुटा-पिटा!
मैंने अब,