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वर्ष २०१३ अलवर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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 और यही इंतज़ार था मुझे अब!

इस पूरे खेल में,

 सुबह के साढ़े चार बज चुके थे!

 मैं अपने कमरे में गया,

 और शर्मा जी भी आ गए,

 बैठ गए,

 पानी पिया,

 मुझे पिलाया,

 और फिर लेट गए,

 "ये नहीं मानेगा" वो बोले,

 "अब उसके वालिद आये हैं तो समझा देंगे" मैंने कहा,

 "वो नहीं समझेगा, ज़िद पर अड़ा है" वे बोले,

 "कोई बात नहीं" मैंने कहा,

 "तो कैसे फिर?" वे बोले,

 "मैंने अपना काम कर दिया, अब अगर वो कुछ करेगा, तो भुगतेगा, कोई कुछ नहीं कर सकेगा फिर" मैंने कहा,

 "हाँ, ये तो है" वो बोले,

 "अब देखते हैं" मैंने कहा,

 "क्या इस लड़की से बात नहीं की जा सकती?" वे बोले,

 "की जा सकती है" मैंने कहा,

 "तो मेरी बात करवा दीजिये?" वे बोले,

 "आप समझायेंगे उसको?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कोशिश करने में कोई हर्ज़ नहीं" वे बोले,

 "ठीक है, आज देखते हैं" मैंने कहा,

 और फिर हम किसी तरह से सो गए,

 बातें करते करते,

 उलझे हुए थे,

 मुझे बार बार,

 तन्वी याद आती थी,

 कहीं वैसी कोई बात न बन जाए,

 जहां मैं लाचार हो जाऊं,

 लड़की के रुख से तो,

 नहीं लगता था,

 कि वो बात मान जायेगी,

 वो भी अड़ियल ही थी!

 या,

 अड़ियल बना दी गयी थी,

 यही कारण था,

 जो डराता था मुझे!

 खैर,

 अब सर दिया ओखली में तो,

 मूसल से क्या डर!

 अब नींद खुली जाकर कोई दस बजे,

 नहाये धोये,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 चाय-नाश्ता किया,

 और फिर आराम से आ बैठे,

 "ठीक तो हो जायेगी न गुरु जी?" किशोर जी बोले,

 "हाँ, हो जायेगी" मैंने कहा,

 अब तसल्ली ही दे सकता था मैं,

 हाल खराब था उनका,

 पूरा घर जैसे,

 तितर बितर सा हो गया था!

 कोई दो बजे,

 हम फिर से गए,

 उस लड़की के पास,

 सोयी हुई थी,

 जगाया उसको,

 हमको देखा,

 तो रोने लगी फिर से,

 "चले जाओ, चले जाओ" वो बोली,

 बहुत तेज रोई!

 ये असरात थे!

 मैंने कलुष-मंत्र पढ़ा,

 और मैंने अपने,

 और शर्मा जी के नेत्र,

 पोषित कर दिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 अब मैं उसको और तंग करने वाला था!

 देखना चाहता था,

 कि अबरार किस हद तक गुजरता है!

 आता भी है या नहीं?

 यही जांचना था!

 किशोर साहब, आप यहीं बैठो" मैंने कहा,

 और वो बैठ गए,

 शर्मा जी ने सब समझा दिया उनको,

कि चिंता न करें,

 लड़की को कुछ नहीं होगा!

 "पल्ल्वी?" मैंने कहा,

 गुस्से में,

 उसके देखा मुझे,

 गुस्से से,

 "क्या नाम है उसका?" मैंने पूछा,

 वो चुप हुई,

 आलती-पालती मार ली उसने!

 "क्या नाम है उसका?" मैंने पूछा,

 वो कुछ न बोली!

 मुझे घूरती रही!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "नहीं बताएगी?" मैंने पूछा,

 नहीं बोली कुछ!

 मैं आगे बढ़ा,

 और फिर पूछा उस से!

 कुछ न बोली,

 अब मैंने एक थप्पड़ खींच के मार दिया उसको!

 उसके गाल पर उंगलियां छप गयीं मेरी!

 ये ज़रूरी था!

 मैं जता रहा था!

 कि जैसा वो सोचती है,

 मेरे होते हुए सम्भव नहीं!

 लेकिन बोली कुछ नहीं!

 "नहीं बोलेगी?" मैंने पूछा,

 न बोले कुछ!

 असरात कूट कूट के भरे थे!

 अब आया मुझे गुस्सा!

 औघड़पन जाग उठा!

 मेरी त्यौरियां चढ़ गयीं!

 और दांत भिंच गए!

 मैंने पकड़े उसके बाल अब,

 और खींचा बिस्तर से,

 वो चिल्लाई!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 कभी काटने को दौड़े,

 कभी फफक के रोये,

 कभी छोड़ने को कहे!

 कभी खड़ी हो!

 कभी निढाल हो जाए,

 लेकिन बाल नहीं छोड़े मैंने!

 अब मैंने उठाया उसको,

 खींचा ऊपर,

 वो उठी,

 तो मैंने सर हिलाया उसका,

 "बुला?'' मैंने कहा,

 वो गुस्से में भभके!

 "बुला उसे?" मैंने कहा!

 "अबरार! अबरार!" वो चिल्लाई!

 प्रकाश कौंधा!

 और अबरार हाज़िर हुआ!

 अपनी माशूक़ा की ख़ातिर!

 "छोड़ दो! छोड़ दो इसको!" वो बोला,

 "नहीं छोडूंगा!" मैंने कहा,

 "छोड़ दो!" वो बोला,

 गिड़गिड़ा सा गया!

 मैंने छोड़ दिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और अब,

 उस अबरार से,

 मुख़ातिब हुआ मैं!

"अबरार! तूने मेरा कहना नहीं माना न?" मैंने कहा,

 "मैं मजबूर हूँ" वो बोला,

 "तेरे वालिद साहब ने समझाया नहीं?" मैंने कहा,

 और तभी!

 तभी प्रकाश कौंधा!

 और उसके वालिद हाज़िर हुए,

 साथ में एक औरत भी,

 वो शायद माँ थी उसकी,

 दोनों दुखी से लगते थे!

 "एत्तहूक़ साहब! नहीं समझा ये!" मैंने कहा,

 वे चुप!

 "इस से कहो कि, मान जाए, ज़िद न करे!" मैंने कहा,

 "मैंने बहुत समझाया, नहीं मानता ये" वे बोले,

 "अब आप जाएँ! मैं समझा लूँगा इसको!" मैंने कहा,

 वे,

 चले गये!

 गायब हो गए!

 अबरार,

 वही सर झुकाये खड़ा रहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 उस लड़की को देखता रहा!

 मुझे तरस तो आया,

 लेकिन मैं भी मजबूर था!

 "अबरार! मुझे तरस आता है तुझ पर!" मैंने कहा,

 "नहीं आता!" वो बोला,

 "आता है!" मैंने कहा,

 "आता तो ऐसा नहीं करते आप!" वो बोला,

 "मैंने कुछ गलत नहीं किया?" मैंने कहा,

 "किया आपने! मुझे अलग कर रहे हो इस से" वो लड़की की तरफ इशारा करते हुए बोला,

 कहा तो सच ही था उसने!

 किया तो था मैंने उसको अलग!

 "तू मुहब्बत करता है इसको?" मैंने पूछा,

 "हाँ, बेपनाह!" वो बोला,

 "कब से?" मैंने पूछा,

 "जिस दिन से देखा इसको" वो बोला,

 "किस दिन?" मैंने पूछा,

 "तम्मूज़ माह, अल-ख़ा'मिस के रोज़" वो बोला,

 अरबी में बोला था उसने!

 हिंदी में इतना सटीक नहीं लिखा जा सकता,

 अरबी बहुत सुंदर और मज़बूत भाषा है!

 इसमें महाप्राण शब्द नहीं हैं!

 बेहद सलीक़े वाली, साफ़-सुथरी और अदब वाली भाषा है!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 इसमें कोई शक़ नहीं!

 तो तम्मूज़ यानि,

 जुलाई!

 अल-ख़ा'मिस रोज,

 यानि बृहस्पतिवार का दिन!

 उस दिन देखा था उसने!

 अपनी इस माशूक़ा को!

 "क्या कर रही थी ये?" मैंने पूछा,

 "उस रोज, अपने बाल सुख रही थी ये" वो बोला,

 तावडू में,

 अपनी बुआ के यहाँ,

 ऐसा ही किया होगा इस लड़की ने!

 या कर रही होगी ऐसा!

 "और तू क्या कर रहा था?" मैंने पूछा,

 "मैं जा रहा था, इसको देखा तो ठहर गया!" वो बोला,

 "आशिक़ हो गया इसका! रजु हो गया तू इस पर!!" मैंने कहा,

 "हाँ! उसी दिन से रजु हो चला मैं!" वो बोला,

 फिर वो नीचे हुआ,

 लड़की तो सो रही थी!

 वो बैठा,

 और उसका सर उठाया,

 और अपने घुटने पर रख लिया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और बालों में,

 हाथ फिराने लगा उसके,

 माथे पर हाथ,

 गालों पर हाथ!

 लगे,

 जैसे अपना तेज,

 दिए जा रहा है उसे!

 उसके आंसू होते,

 तो बहुत रोता वो!

 बस,

 एकटक देखे जा रहा था उसको!

 "अबरार! मुहब्बत ऐसे नहीं की जाती! कम से कम हम इंसानों में तो! दोनों कि रजा चाहिए, और यहीं तुमने ग़लत किया! तुमने अपनी मुहब्बत इस पर थोप दी! तुम्हारे असरात से ये अपने आप से कट गयी!" मैंने कहा,

 "नहीं! ये भी मुहब्बत करती है मुझसे" वो बोला,

 उसके बालों को सुलझाते हुए!

 "नहीं करती!" मैंने कहा,

 "करती है आलिम साहब!" वो बोला,

 "नहीं करती!" मैंने कहा,

 "ये आप कैसे कह सकते हैं?" उसने पूछा,

 "इसलिए कि ये अभी तुम्हारे असरात में है! इसको अपने सरात से निकालो! मैं वचन देता हूँ! अगर इस लड़की ने तुम्हे ही चाहा, तो मैं रास्ते से हट जाऊँगा!" मैंने कहा,

 वो चौंका!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 उसने उसका सर नीचे रखा,

 आराम से,

 और मेरे पास चला आया,

 मुझे देखा,

 मैंने उसको देखा,

 "सच?" वो बोला,

 "हाँ! सच!" मैंने कहा,

 "मजूर है!" वो बोला,

 "एक माह! एक माह दूर रहो इस से!" मैंने कहा,

 "मजूर है!" वो खुश हो कर बोला,

 "ठीक है!" मैंने कहा,

 "लेकिन......" वो बोला,

 "क्या लेकिन?" मैंने पूछा,

 "वायदा करो" उसने कहा,

 "कैसा वायदा?" मैंने पूछा,

 "इसको कोई हाथ न लगाए, मेरा मतलब इसका ब्याह नहीं होना चाहिए!" वो बोला,

 "नहीं होगा! वायदा!" मैंने कहा,

 "मंजूर है!" वो बोला,

 और फिर वहाँ,

 काफी सारे जिन्नात आ गए!

 सभी को ये,

 प्रस्ताव मंजूर था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "अबरार! असरात हटाओ" मैंने कहा,

 ये एक प्रकार से, मस्तिष्क-संचरण था!

 ब्रेन-वाश!

 अंग्रेजी में!

 वो आगे बढ़ा!

 और अपना हाथ फिराया उसके ऊपर!

 उसने करवट बदली!

 लड़की ने!

 और तक़िया अपने सर पर ले लिया!

 "ठीक है! एक माह!" मैंने कहा!

 "मंजूर है!" वो बोला,

 ख़ुशी से!

 और फिर,

 वे सभी गायब!

 मैं बैठ गया!

 असरात हट गए थे!

 लेकिन कहानी अब बहुत टेढ़ी हो गयी थी!

 उलझ गयी थी!

 तन्वी और ख़लील!

 दोनों ही याद आ रहे थे!

 ये एक जुआ था!

 जो खेल था मैंने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 अब हम,

 उठे!

 और बाहर आ गए!

 अब शर्मा जी ने,

 किशोर साहब को,

 सब बता दिया!

 सब!

अब,

 अपने कक्ष में आये हम,

 एक माह का समय था,

 असरात,

 जैसे कि कहा था,

 अबरार ने,

 हटा लेगा वो,

 अब मुहब्ब्त की,

 जांच थी!

 देखना था,

 लकड़ी के बिना,

 आग सुलगती है या नहीं!

 वैसे,

 कुछ भी हो सकता था,

 कुछ भी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 वो लड़की मान भी सकती थी,

 या,

 नहीं भी मान सकती थी!

 कुल मिलाकर,

 ये एक,

 जुआ था,

 एक दांव,

 जो मैंने खेल तो दिया था,

 लेकिन अंजाम नहीं जानता था!

 मैंने तो,

 वचन भी दे दिया था,

 कि मैं खुद उनके रास्ते से हट जाऊँगा,

 यदि ये लड़की,

 फिर भी, उस जिन्न,

 अबरार की मुहब्ब्त में,

 क़ैद रही,

 तो मेरे पास,

 पीछे हटने के अलावा,

 और कोई रास्ता,

 बचा ही नहीं था!

 मैं चला जाता वापिस!

 और कभी नहीं आता!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 परवान चढ़ती रहती उनकी मुहब्ब्त!

 अब जो होना था,

 सो तो होना ही था!

 अब तो,

 एक माह,

 चुप रहना था!

 शिथिल,

 दुमई सांप की तरह!

 कोई चारा ही नहीं था!

 किशोर साहब आये तब,

 उनसे बात हुई,

 और समझा दिया उनको,

 कि, किस प्रकार बर्ताव करना है इस लड़की से अब,

 कोई डाँट-डपट नहीं,

 कोई मानसिक दबाव नहीं!

 कुछ नहीं,

 एक माह से दो रोज पहले,

 मैं आउंगा वहाँ,

 और खुद जांचूंगा उसको!

 वे मान गए,

 और वैसा ही करने को कहा,

 जैसा मैंने समझाया था उनको!


   
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