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वर्ष २०१३ अलवर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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 लेकिन क्या करता,

 उस समय पत्थर नहीं बनता तो,

 मोम बन जाने के कारण,

 बाजी निकल जाती हाथों से!

"शर्मा जी, दरवाज़ा खोल दो, और किशोर जी को बुला लो अंदर" मैंने कहा,

 वे उठे,

 दरवाज़ा खोला,

 और किशोर जी को आवाज़ दी,

 किशोर और उनकी पत्नी,

 पिंजरे से आज़ाद हुए हों,

 ऐसे भागे अंदर,

 चेहरा सफ़ेद पड़ा था उनका,

 मारे घबराहट के,

 सफ़ेद से पड़ गए थे दोनों ही!

 माँ से तो लिपट गयी लड़की,

 पिता ने भी माथे पर हाथ फेरा उसके,

 और फिर हमारे पास आ बैठे,

 "क्या रहा गुरु जी?" उन्होंने पूछा,

 अब बता देना ही उचित था,

 अब नहीं छिपाया जा सकता था,

 मैंने शर्मा जी को देखा,

 वे समझे और,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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 फिर उठ कर किशोर साहब के पास आये,

 "किशोर साहब, लड़की गम्भीर मुसीबत में है, ये एक जिन्न के चककर में है, फंस गयी है, अपने आपे में नहीं है" वे बोले गए,

 "जिन्न?" उनके मुंह से निकला,

 "हाँ, जिन्न" शर्मा जी बोले,

 वे घबरा गए,

 बेटी को देखा,

 माँ तो जैसे अचेत होते होते बची,

 लेकिन सम्भाल गयी अपने आप को!

 "अब कैसे होगा जी?" वे बोले,

 "मेरी पूरी कोशिश है कि ये लड़की आज़ाद हो जाए उस जिन्नाती असरात से" मैंने कहा,

 "बचा लीजिये गुरु जी!" वे बोले,

 उनकी पत्नी तो रो पड़ीं बेचारी,

 मैंने हिम्म्त बंधाई उनको,

 साहस बढ़ाया,

 कुछ हिम्म्त बंधी अब उनकी,

 मैं तो जी जान से लगा था,

 कि लड़की बच जाए उस जिन्न से,

 तभी लड़की उठी,

 अंगड़ाई ली,

 और फिर अपनी अलमारी तक गयी,

 अपने वस्त्र निकाले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "कहाँ चली?" माँ ने पूछा,

 कुछ नहीं बोली,

 और सीधा बाहर चली गयी,

 "नहाने गयी है" मैंने कहा,

 "हाँ जी, ऐसा ही करती है ये" वे बोले,

 "कोई बात नहीं, अपने आपे में नहीं है ये अभी" मैंने कहा,

 और अब हम उठ गए वहाँ से,

 अपने कमरे में आ गए,

 मुझे उस अबरार की शक्ल याद आ रही थी,

 मुहब्ब्त कर बैठा था!

 एक आदमजात से!

 यही होता है,

 जब कोई जिन्न गुजरते हुए,

 किसी आदमजात पर रीझ जाता है,

 मुझे याद है, कोई चार साल पहले,

 एक लड़का था, बेहद गरीब घर से,

 नाम था अमर, किसी तरह से गुजर-बसर हुआ करती थी उसकी,

 इतने पैसे कभी नहीं होते थे,

 कि नय किताबें ले आये वो,

 रात में, नौकरी किया करता था,

 एक एक्सपोर्ट की फैक्ट्री में,

 और खाली समय में पढ़ लिया करता था,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 पैसा बूढ़े माँ-बाप की बीमारी में लग जाया करता था,

 एक रात, वही लड़का, घर आ रहा था पैदल पैदल,

 तब उसको एक लड़की मिले,

 अकेली,

 उस से मुहब्ब्त करने लगी,

 समझ ही नहीं सका वो लड़का,

 हां, उसके माँ-बाप ठीक हो गए,

 लड़के के पढ़ाई बढ़िया हुई,

 और सरकारी नौकरी पर लग गया,

 जीवन बदल दिया उस लड़की ने उसका,

 जब वो इतना सम्पन्न हो गया कि,

 समाज में खड़ा हो सके,

 वो लड़की कभी नहीं मिली उसको!

 कभी नहीं,

 आज तक नहीं!

 उसने बहुत ढूँढा,

 उसके पते पर भी गया,

 कोई पता नहीं मिला!

 जब तक असरात रहे,

 वो कभी नहीं पूछ सका उसके बारे में!

 जैसा उस लड़की ने चाहा,

 वैसा ही हुआ, होता रहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 आज संपन्न है वो,

 लेकिन उस लड़की की याद में आज भी,

 आंसू बहाता है!

 खूब समझाते हैं उसको कि ब्याह कर ले,

 नहीं मानता,

 मैंने भी समझाया है उसको!

 कभी नहीं मानता!

 वो लड़की,

 एक जिन्नी थी!

 ग़ज़ाला नाम बताती थी अपना!

 वो जिन्नी ही थी!

 पूरा जीवन बदल गयी उसका!

 खैर,

 वो लड़की नहा के चली गयी कमरे में,

 और हमने अब भोजन किया,

 और फिर आराम,

 वो आयेंगे,

 ये मैं जानता था,

 इसीलिए,

 उस कमरे में,

 मैंने कुछ प्रयोग कर दिया था,

 जब वो नहाने गयी थी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 अगर वो अबरार वहाँ आता,

 तो मुझे भान हो जाता,

 और यही हुआ,

 उस रात एक बजकर,

 चालीस मिनट पर,

 मुझे भान हो गया!

 मैंने शर्मा जी को जगाया,

 और फिर उन्होंने किशोर जी को,

 हम भागे लड़के के कमरे की तरफ!

 दरवाज़ा खटखटाया,

 नहीं खुला दरवाज़ा!

 खूब चिल्लाये,

 खूब पीटा दरवाज़ा,

 नहीं खुला!

 तब,

 यही ठीक लगा कि,

 दरवाज़ा तोड़ दिया जाए,

 लेकिन,

 तभी दरवाज़ा खुल गया!

 गुलाब की खुश्बू फ़ैल उठी!

 हम धड़धड़ाते हुए अंदर चले गए,

 लड़की लेटी हुई थी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 कसक सी रही थी,

 बिस्तर की चादर नीचे पड़ी थी,

 गद्दा आधा नीचे लटका था,

 और लड़की,

 पेट के बल,

 वहाँ लेटी थी,

 तो दरवाज़ा किसने खोला?

 ये मैं तो समझ गया,

 शर्मा जी भी समझ गए,

 लेकिन किशोर जी नहीं समझे!

 तभी पत्नी आ गयीं उनकी,

 अब मैंने उन सभी को,

 वहाँ से बाहर जाने को कहा,

 शर्मा जी नहीं गए!

 वे वहीँ रहे!

 मैंने दरवाज़ा बंद किया!

 और फिर कलुष-मंत्र चलाया,

 नेत्र खोले,

 कमरा सजा था!

 फूलों से!

 इत्र की गंध फैली थी!

 मैंने शर्मा जी को बैठने को कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 वे बैठे,

 और मैं लड़की के पास आया,

 भस्म निकाली,

 और उसके चारों ओर बिखेर दी,

 मंत्र पढ़ते हुए!

 और फिर मैं भी आ बैठा!

 "अबरार? अबरार?" मैंने कहा,

 तभी!

 प्रकाश कौंधा!

 और अबरार हाज़िर हुआ!

 "तू नहीं माना न?" मैंने कहा,

 वो चुप रहा!

 "अब देख तू!" मैंने कहा,

 और एक मंत्र पढ़ा,

 भस्म अभिमंत्रित की,

 और लड़की की तरफ गया,

 उसको सीधा किया,

 और उसके पेट पर,

 वो भस्म मल दी,

 अबरार चिल्लाया!

 बहुत बुरी तरह!

 मैंने जैसे कील दिया उसका बदन!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 अब छू नहीं सकता था वो उसको!

 इसीलिए चीख पड़ा था वो!

अब मुझे गुस्सा आ गया था!

 बहुत समझा चुका था मैं उसको!

 मैं क़ैद तो कर सकता था उसको,

 लेकिन उसके बाद,

 फिर रोज ही नयी जंग शुरू हो जाती!

 रोज,

 इनसे ही साबका पड़ता!

 रोज ही इनसे मुलाक़ात होती!

 और जब मैं छोड़ता उसको,

 तो, वो वहीँ पहुँचता सीधा!

 अपनी माशूक़ा के पास!

 और वो लड़की,

 मुमक़िन है,

 पागल ही हो जाती उसके बिना!

 आदत सी पड़ जाया करती है साँसों को,

 किसी की गंध की,

 और मानव-स्त्रियों में,

 ये सबसे अधिक हुआ करता है!

 या तो ये अबरार ही माने,

 या फिर ये लड़की!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 लेकिन दोनों ही तरफ,

 ज़िद की एक ऊंची सी दीवार थी,

 उसी के साये में,

 इनकी मुहब्बत जवान हो रही थी!

 लड़की से तो मुझे,

 कोई शिक़वा नहीं थी,

 बस इस जिन्न को अब समझाना था,

 किसी भी तरह,

 किसी भी तरह!

 "अबरार! एक बार और, आखिरी बार अब, तुझे समझा रहा हूँ! बाज आ जा! चला जा यहाँ से, छोड़ दे इस लड़की को, नहीं तो इसका अंजाम बहुत बुरा होगा!" मैंने कहा,

 "क्या होगा अंजाम? क़ैद कर लोगे मुझे? बाँध दोगे? संग में तब्दील कर दोगे? लेकिन मेरी मुहब्बत तो मरेगी नहीं! उसे तो ज़मींदोज़ कर नहीं दोगे आप?" वो बोला,

 बात सच थी!

 सौ फ़ी सदी सच!

 मैं क्या करूँगा क़ैद करके?

 क्या होगा फिर?

 सच ही था,

 उसकी मुहब्ब्त ज़मींदोज़ तो नहीं हो जायेगी!

 वो तो फिर भी ढूंढ ही लेगा उसकी रूह को!

 क्योंकि,

 एक बार,

 अगर कोई जिन्न या जिन्नी रजु हो जाए आदमजात पर,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 तो उसके असरात, तब तक बने ही रहेंगे, जब तक वो खुद नहीं हटा देता वो!

 और ये लड़की,

 अगर मर गयी,

 तो पाप मेरे सर ही मढेगा!

 और ऐस,

 मैं हरगिज़ भी नहीं,

 चाहूंगा!

 न चाह ही सकता!

 फंसा दिया मुझे!

 खैर,

 ऐसे तो नहीं हटने वाला मैं!

 सबक़ तो दूंगा ही!

 इस से पहले मैं कुछ करता,

 वो लड़की,

 हवा में लटक गयी,

 बिस्तर से,

 करीब एक फुट ऊपर,

 उसके पाँव,

 हाथ,

 और सर,

 सर के बाल,

 सब नीचे झूल गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 मैं समझ गया!

 ये हेरा है!

 मैंने फ़ौरन ही मंत्र जपा!

 और अपनी ऊँगली उसके माथे पर रख दी,

 लड़की,

 झम्म से नीचे गिरी!

 और अबरार चिल्लाया!

 गुस्सा हुआ!

 बहुत गुस्सा!

 अपना एक हाथ, अपने मुक्के से टकराया!

 "सुन आलिम?" वो बोला,

 "बोल अबरार?" मैंने कहा,

 "क्या चाहता है, साफ़ बता?" उसने पूछा,

 "इसको छोड़ दे!" मैंने कहा,

 "और न छोडूं तो?" उसने बोला,

 "तो मैं छुड़वा दूंगा!" मैंने कहा,

 वो ये सुनते ही,

 झम्म से गायब हुआ!

 मैं जानता था,

 वो कुछ इंतज़ाम करने गया है!

 और कुछ ही पलों के बाद,

 अबरार हाज़िर हुआ,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 एक बुज़ुर्ग से जिन्न के साथ!

 "ओ आलिम! क्यों नहीं सुनता इस अबरार की?" वो बोला,

 "आपको भी पता है!" मैंने कहा,

 "हाँ, पता है, तुम क्यों इसकी मुहब्बत के बीच आ रहे हो?" उसने बोला,

 "ये मुहब्ब्त बेमायनी है" मैंने कहा,

 "कोई बेमायनी नहीं है, चले जाओ, ये आखिरी चेतावनी है तुमको!" वो बोला,

 "अच्छा?" मैंने कहा,

 "हाँ!" वो बोला,

 "तो ठीक है!" मैं इस अबरार को ही क़ैद कर लेता हूँ!" मैंने कहा,

 "मेरे होते?" वो बोला,

 "रोक लो!" मैंने कहा,

 और अब मैंने अपने ख़बीस को हाज़िर करने के लिए,

 शाही-रुक्का पढ़ा!

 दहाड़ता हुआ,

 मेरा ख़बीस इबु हाज़िर हो गया वहाँ!

 उन दोनों की नज़रें टकरायीं आपस में!

 अबरार की शिकनों ने बता दिया,

 सब हाल!

 हाँ, वो बुज़ुर्ग,

 वे डटे हुए थे!

 मैंने अपना उद्देश्य बताया अब इबु को!

 और एक ही झटके में अबरार वहाँ से गायब हो गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 साथ ही इबु भी!

 इसका मतलब?

 इसका मतलब कि,

 इबु ले गया उसको!

 सैर कराने के लिए!

 मैं हंस पड़ा!

 बुज़ुर्ग सब समझ गए!

 और लोप हुए!

 और उसके बाद,

 वहाँ एक बड़ा ही शालीन सा जिन्न हाज़िर हुआ!

 काले वस्त्रों में,

 किसी ख़लीफ़ा,

 या शाह जैसा,

 करीने सी दाढ़ी,

 लम्बी अधखुली,

 अचकन सी पहने!

 "मैं, एत्तहूक़ हूँ, अबरार का वालिद!" वो बोला,

 "क्या चाहते हैं?" मैंने पूछा,

 "आप छोड़ दें अबरार को" वो बोला,

 "नहीं! अब उसको सबक़ देना ही पड़ेगा!" मैंने कहा,

 "मैं समझा दूंगा उसको" वो बोला,

 "बहुत समझा चुके सब उसे, वो ज़िद्दी है, नहीं मानेगा!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "ज़िद तो हमारी फ़ितरत है आलिम साहब! मैं आपसे गुजारिश करता हूँ, एक बार छोड़ दीजिये" वो बोला,

 "आप समझायेंगे उसे?" मैंने पूछा,

 "हाँ" वो बोला,

 "वायदा?" मैंने पूछा,

 'अच्छा वायदा" वो बोला,

 और उसी क्षण,

 इबु हाज़िर हुआ,

 छोड़ दिया उसको,

 और खुद लोप हुआ!

 अब वे दोनों भी लोप हुए!

 लड़की उठ बैठी!

 और रोने लगी!

 अब हम,

 दोनों उठे,

 और बाहर आ गए!

 किशोर जी और उनकी पत्नी,

 अंदर चले गए,

 फौरी तौर पर,

 ये मामला अब शान्त था!

 लेकिन ख़तम नही!

 ख़तम तो अबरार ने करना था!


   
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