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वर्ष २०१३ अलवर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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क्या हुआ?" मैंने पूछा,

 "मैंने तुझ पर, रहम दिखाया, इसमें मेरी कमज़ोरी मत समझ?" वो बोला,

 "तो तुम नहीं मानोगे!" मैंने कहा,

 "नहीं!" अबरार बोला,

 "ठीक है!" मैंने कहा,

 अब मैं आगे हुआ,

 बैग निकला,

 भस्म निकाली!

 और अभिमंत्रित की,

 और उछाल फेंकी सामने,

 उस आलिम ने हाथ आगे किया,

 और भस्म जल कर राख हो गयी!

 लड़ पड़ा था वो!

 मुझे हैरत तो हुई,

 लेकिन अचम्भा नहीं हुआ!

 मैंने मंत्र पढ़ा!

 और तब,

 भ्रामरी-मंडिका प्रकट कर दी!

 एक हिलती और घूमती हुई हंडिया!

 आलिम के प्राण अटके!

 दोनों एक साथ चिपट गए!

 ये मंडिका,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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 जिन्नाती मामलों में,

 हमेशा अचूक होती है!

 वही हुआ!

 वे गायब हो गए!

 और वो मंडिका भी!

मैं बैठा रहा वहाँ!

 मैं जानता था कि वो ज़रूर आएगा वापिस!

 उसकी माशूक़ा यहाँ थी!

 सुला कर गया था वो उसको!

 मुक़ाबला करना चाहता था मुझसे!

 कोई और होता,

 तो मार मार के रौशनदान से ही बाहर फेंक देता!

 लेकिन मैं यहाँ अड़ा था!

 कुछ लम्हे बीते,

 और अबरार हाज़िर हुआ!

 साथ में एक प्रौढ़ से जिन्न को लेकर!

 उसके वस्त्रों पर,

 फीत सी बंधी थीं!

 सोने की थीं शायद,

 या वस्त्र सोने से जड़े थे!

 हरे रंग के!

 चमचमाते हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "कौन हो आलिम तुम?" वो बोला,

 मैंने जवाब दे दिया,

 परिचय दे दिया अपना,

 अब नाम से पुकारा मुझे,

 "क्यों इनकी मुहब्ब्त में रोड़ा अटका रहे हो?" वो बोला,

 "आप अपना नाम बताएँगे?" मैंने पूछा,

 "हसन" वो बोला,

 "जनाब हसन! ये तो आप भी बखूबी जानते हो कि मेरा मतलब है क्या? वो लड़की आदमजात है, और आप लोग आतिश! है कोई मेल?" मैंने पूछा,

 "मुहब्बत में कोई जात नहीं होती जनाब!" हसन ने कहा,

 "दुरुस्त ही फरमाया आपने! लेकिन ये लड़की इस अबरार से नहीं, इसके असरात की वजह से इसको मुहब्ब्त करती है!" मैंने कहा,

 "समझदार हो आप! मत डालो मुहब्ब्त पर पर्दा!" वो बोला,

 "मुहब्ब्त तो पाक़ है हसन साहब! लेकिन अपनी जात में ही!" मैंने कहा,

 "अगर, ये अबरार अपनी माशूक़ा को, इस लड़की को, मुहब्ब्त करता है, तो इसमें बुरा क्या है?" वो बोला,

 "हसन साहब! मैं जानता हूँ! आप जिन्न हो! और जिन्न का ही साथ दोगे! मैं आदमजात हूँ, आदमजातों का साथ दूंगा!" मैंने कहा,

 "बात बिगड़ सकती है फिर तो!" बोला हसन!

 "बिगड़ ही चुकी है!" मैंने कहा,

 "अभी भी वक़्त बाकी है" वो बोला,

 "वक़्त जा चुका है हसन साहब! अब फैंसला होना है!" मैंने कहा,

 "हाँ, वाजिब ही कहा, मैं तो समझाने ही आया था, आगे आपकी मर्ज़ी!" वो बोला,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और दोनों गायब हुए!

 अब होनी थी जंग!

 हसन साहब आये थे समझाने मुझे,

 और फिर चेता भी गए थे!

 अब मैं तैयार था!

 मैं जानता था,

 ये जिन्नात इतनी आसानी से नहीं मानेंगे!

 ये बड़े करामाती होते हैं!

 जो चाहते हैं,

 कर गुजरते हैं!

 डरते तो हैं ही नहीं!

 मैं चाहता तो,

 ख़लील को बुला सकता था,

 लेकिन नहीं बुलाया,

 वजह वही,

 अबरार नहीं मानने वाला था!

 किसी भी सूरत में नहीं!

 ये ज़िद्दी,

 अड़ियल,

 और बेख़ौफ़ हुआ करते हैं!

 डरना तो सीखा ही नहीं इन्होने!

 जो चाहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 वो किया!

 मैं ऐसा सोच ही रहा था,

 कि एक पहलवान सा जिन्न हाज़िर हुआ!

 लम्बा-चौड़ा!

 इंसान को तो,

 बीच में से ही फाड़ दे,

 दो टुकड़ों में!

 "क्या तू ही वो आलिम है?" उसने पूछा,

 "हाँ, वहीँ हूँ!" मैंने कहा,

 "तुझे डर नहीं लगा?" उसने पूछा,

 "कैसा डर?" मैंने पूछा,

 "हम जिन्नातों के खिलाफ बोलकर?" वो बोला,

 "मैंने कोई खिलाफ नहीं बोला!" मैंने कहा,

 "तू रोकेगा हमे?" वो बोला,

 "हाँ! ज़रूर रोकूंगा?" मैंने कहा,

 "तू जानता है तू किस से बात कर रहा है?" उसने पूछा,

 "हाँ!" मैंने कहा,

 "किस से?" उसने पूछा,

 "एक जिन्न से!" मैंने काह,

 "याहिया नाम है मेरा!" वो बोला,

 "अच्छा!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "अब दफा हो जा यहाँ से, नहीं तो वो हाल करूँगा कि अपने आदमजात होने पर आंसू बहायेगा!" वो बोला,

 मैं हंसा!

 धमकी दी थी उसने मुझे!

 "याहिया! तेरे पास जो भी इल्म हो, आज कर ले इस्तेमाल! यक़ीन कर, क़ैद नहीं करूँगा तुझे!" मैंने कहा,

 वो भड़क उठा!

 कमरे में ताप बढ़ने लगा!

 भभक उठा कमरा!

 मैं नहा उठा पसीनों में!

 अब वो हंसा!

 और गुस्से में भभका!

 मैं खड़ा हुआ!

 मुझे मालूम था,

 कि जिन्नाती इल्म क्या होता है!

 इसीलिए घबराया नहीं!

 हाँ!

 कोई ख़बीस होता,

 तो बात अलग थी!

 तब तो जूझना पड़ता उस से!

 मैंने भस्म निकाली,

 याहिया,

 टुकर टुकर देखे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 कुछ बड़बड़ाया उसने!

 और मैंने अभिमंत्रित भस्म,

 फेंक मारी सामने!

 उसने हाथ आगे किया,

 और भस्म दीवार की तरफ मुड़ गयी!

 काले जले से निशान बन गए,

 दीवार पर!

 दीवार जल गयी थी!

 जगह जगह धब्बे पड़ गए थे!

 भस्म को जला दिया था उसने!

 और तभी मैं हिला!

 मुझे चक्कर सा आया,

 सांस घुटने लगी!

 गला अवरुद्ध हो गया मेरा,

 मैंने दोनों हाथों से अपना गला पकड़ लिया,

 मैंने शर्मा जी को देखा,

 उनके साथ भी ऐसा ही हुआ था!

 उनका चेहरा तमतमा रहा था!

 नसें खड़ी हो गयी थीं!

 और याहिया हंस रहा था!

 ठट्ठे मार रहा था!

 मैंने मन ही मन,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 ऐवांग-मंत्र पढ़ा,

 माथे पर हाथ फेरा!

 विद्या ने काम किया,

 अब मैंने शर्मा जी के माथे पर हाथ फेर दिया,

 लम्बी सांस ली उन्होंने,

 और खांसी उठ गयी!

 याहिया अचंभित हुआ!

 कट गया इल्म!

याहिया अचंभित था बहुत!

 उस इल्म काट दिया गया था!

 वो आँखें फाड़े,

 मुंह फाड़े हमे ही देख रहा था!

 आँखें मटका रहा था!

 अब मैं संयत हुआ!

 एक लम्बी सांस ली,

 मुंह कड़वा हो चला था मेरा,

 मैंने थूक गटका,

 अजीब सी दुर्गन्ध थी उस थूक में,

 ये इल्म का असर था!

 याहिया वहीँ खड़ा था!

 अब मैंने फिर से,

 भ्रामरी-मंडिका का संधान किया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और पल में ही वो,

 घूमती हुई मंडिका प्रकट हुई!

 और चली याहिया की तरफ!

 यदि छू जाए,

 तो क़ैद हो जाता वो इसमें!

 याहिया चौंका!

 और पल भर में ही लोप हुआ!

 बच गया था वो!

 मंडिका भी वहीँ से लोप हुई!

 और फिर से हाज़िर हुआ वो!

 घबराया हुआ सा!

 मैंने फिर से एक और मत्र पढ़ा!

 और लड़ा दिया सामने!

 भस्म फेंकी!

 तो याहिया चीखते हुए,

 गायब हो गया!

 अब उसके बस में नहीं था मुझे रोकना!

 मैं शर्मा जी की तरफ मुड़ा,

 "शर्मा जी, आप बाहर जाएँ" मैंने कहा,

 "नहीं, हरगिज़ नहीं" वे बोले,

 "मान लीजिये?" मैंने कहा,

 "नहीं मानूंगा" वे साफ़ बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और नहीं गए,

 कई बार कहा,

 नहीं गए!

 वहीँ डटे रहे!

 तभी रौशनी दमकी!

 और दो,

 दी जिन्नात वहाँ हाज़िर हुए,

 एक लड़की और एक जिन्न!

 लड़की गज़ब की सुंदर थी!

 मुझे कहने में या लिखने में,

 कोई ऐतराज़ नहीं कि,

 बहुत कामुक थी!

 कोई भी इंसानी मर्द,

 उसको देख कर रीझ जाता,

 उसका साथ पाने के लिए,

 उसके असरात में डूबे हों एके कारण,

 किसी से भी विद्रोह करसकता था!

 उस लड़की का बदन ऐसा था,

 कि स्वयं अप्सरा भी नज़रें झुका दे!

 हलके नीले रंग की खुली सी सलवार,

 उस पर चांदी और सोने जैसे गोटे जड़े थे!

 नक़ाब झीनी थी उसकी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 सुर्ख लाल, पपोटेदार होंठ,

 बाहर झाँक रहे थे!

 कमर ऐसी पतली थी कि जैसे,

 कोई तस्वीर लगी हो!

 कामुकता की पराकाष्ठा थी वो लड़की!

 और वो जिन्न,

 बला की मर्दानगी खूबसूरती थी उसमे,

 आँखें नीली थीं!

 बाल सुनहरे से थे!

 खुश्बू फैली थी वहाँ!

 "क्या आप ही हैं वो आलिम?" वो जिन्न बोला,

 "हाँ जनाब!" मैंने कहा,

 "अच्छा! मैं असदूक़ हूँ और ये मेरी छोटी बहन आइजा है, मैं अबरार का बड़ा भाई हूँ!" वो बोला,

 "शुक्रिया असदूक़ साहब!" मैंने कहा,

 वो मुस्कुरा पड़ा!

 मैं भी मुस्कुराया!

 "अबरार ने खबर की मुझे कि एक आलिम टक्क्र ले रहा है, उसकी मुहब्बत खारिज़ करना चाहता है उस लड़की के ज़हन से!" वो बोला,

 "आपने सही सुना असदूक़ साहब!" मैंने कहा,

 "चंद सवाल हैं, पूछता हूँ, आपकी इजाज़त जो तो, पूछूं?" उसने पूछा,

 "जी, ज़रूर! मुझे इंतहाई ख़ुशी होगी!" मैंने भी मुस्कुरा का कहा,

 "क्या मुहाबत को खारिज़ करना, आपके हिसाब से जायज़ है?" उसने पहला सवाल किया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "नहीं! हरगिज़ जायज़ नहीं असदूक़ साहब! लेकिन यहाँ मामला उल्टा है, अबरार और आप सभी, आतिशजात हैं, और ये लड़की, एक आदमजात! क्या ऐसा मेल देखा है आपने कहीं? इस आदमजात लड़की की तो पूरी ज़िंदगी ही इस मुहब्बत की क़वायद में नेस्तनाबूद हो जायेगी!" मैंने जवाब दिया!

 वो चुप हुआ,

 जवाब सीधा सा ही था,

 कोई लाग-लपेट नहीं!

 कोई घुमा-फिरा के जवाब नहीं दिया मैंने!

 "दूसरा सवाल" वो बोला,

 "जी, फरमाएं!" मैंने कहा,

 "मान लिया जाए कि अबरार मान जाता है, तब भी क्या ये लड़की, उस अबरार की मुहब्ब्त को दरकिनार कर, भूल पायेगी?" उसने पूछा,

 वाह!

 ये थी जिन्नाती चाल!

 क्या पूछा था सवाल!

 काम भी निकल जाए,

 बिना किये हुए हलाल!

 बेहतरीन शब्द-जंजाल!

 "बताता हूँ असदूक़ साहब! जो आपने कहा, वो वाजिब है! ये लड़की नहीं भूल पायेगी, हो सकता है कि इस जुदाई में या तो ये पागल ही हो जाए, या मौत का दामन थाम ले! और वो इसलिए, कि इस लड़की के दिल-ओ-दिमाग़ पर, उस अबरार, आपके छोटे भाई के, असरात मौजूद हैं! इसीलिए ऐसा कहना कि कुछ नहीं होगा, मैं देख लूँगा, बेमायनी ही होगा! जिस तरह आप अपने भाई के लिए यहाँ उसकी पैरवी कर रहे हैं वैसे ही इस लड़की के माँ-बाप भी हैं! बहनें भी हैं और एक भाई भी है! वे समझा ही लेंगे!" मैंने कहा,

 उसने कुछ सोचा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "आपकी साफ़गोई से मैं बहुत खुश हूँ! अब तीसरा सवाल!" वो बोला,

 "जी, ज़रूर!" मैंने कहा,

 "अगर मैं आपसे कहूं, कि इनकी मुहब्ब्त पर रहम कीजिये और इनको बख्श दीजिये, तो आपके अपने ज़हन से क्या ख्य़ाल निकलता है?" वो बोला,

 "असदूक़ साहब! मैं जानता हूँ कि आप अपने भाई के तरफदारी करेंगे ही! मैं बखूबी जानता हूँ! लेकिन एक आदमजात को बचाना, भी मेरा एक फ़र्ज़ है! क्योंकि मैं भी एक आदमजात ही हूँ! ख़याल ये, अब, कि मुझे ये मुहब्ब्त नहीं ज़ुल्म लगता है, एक धोखा, किसी आतिश का किसी आदमजात के दिल से!" मैंने कहा,

 वो चुप हुआ अब!

 मैंने उसको उसके,

 सारे सवालों के जवाब पेश कर दिए थे!

 अब वो जाने!

 समझाए,

 या न समझाए!

 मेरे रहते तो ये,

 नामुमकिन ही था!

 "आपसे कुछ इल्तज़ा है मेरी?" वो आइजा बोली,

 "जी, फरमाइये?" मैंने कहा,

 "अबरार कि मुहब्ब्त को बख्श दीजिये, बदल में जी चाहें आप, पेश किया जाएगा!" वो बोली,

 लालच!

 ये तो पता ही था मुझे!

 मैं ले भी सकता था!

 अब मुझे क्या इस लड़की से?


   
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श्रीशः उपदंडक
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 मरे या जिए?

 लड़की खुश है,

 और क्या चाहिए!

 लेकिन नहीं!

 फिर एक मानव होने का लाभ ही क्या?

 मानव यदि मानव से ही छल-कपट करे,

 तो कैसा मानव वो?

 नरक में भी जगह नहीं मिलेगी!

 जो फ़र्ज़ आयद है मुझ पर,

 उस से पीछे नहीं हटूंगा!

 कभी नहीं!

 ऐसा नहीं सीखा मैंने!

 कभी भी नहीं सीखा!

 "नहीं आइजा! मुझे कुछ नहीं चाहिए! बस ये लड़की किसी तरह से, अपने होश काबिज़ कर ले, उसके बाद ये कहाँ और मैं कहाँ!" मैंने कहा,

 वो उचक के मेरे सामने आयी,

 नहीं डरी,

 उसको यक़ीन हो चला था मुझ पर!

 असदूक़ भी आया,

 "मान लीजिये, इल्तज़ा है मेरी!" वो बोली,

 "नहीं आइजा, ये जायज़ नहीं" मैंने कहा,

 "थोडा तो ख़याल कीजिये?" उसने फिर से कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "नहीं आइजा!" मैंने कहा,

 असदूक़ ने,

 अपनी बहन को देखा,

 और फिर मुस्कुराया!

 और दूर हट गए दोनों ही!

 "ठीक है! शुक्रिया!" असदूक़ ने कहा,

 "शुक्रिया!" मैंने कहा,

 और वे दोनों गायब!

 और मैं आ बैठा अपनी कुर्सी पर!

 "सही कहा आपने, एकदम सही!" शर्मा जी बोले,

 "कहना ही था!" मैंने कहा,

 लड़की ने करवट बदली!

 अब होश आ गया था उसे!

 उसने देखा मुझे,

 और रोने लगी!

 मम्मी-पापा चिल्लाने लगी!

 और,

 उसके बाद कोई नहीं आया वहाँ!

 दो घंटे से अधिक बीत गए थे!

 लड़की रोती रही,

 सुबकती रही!

 दया तो आई,


   
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