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वर्ष २०१३ अलवर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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बड़ा अलसाया सा दिन था वो!

 बैठे बैठे ही ऊंघ रहे थे हम!

 मैं और शर्मा जी!

 देह ऐसे टूट रही थी जैसे,

 कि सारा दिन पुआल उठाये हों हमने!

 उबासियों ने तो,

 और बुरा हाल कर दिया था,

 इस तरह मुंह फाड़ना पड़ता कि जैसे,

 किसी ने सजा दी हो,

 मुंह फाड़ने की,

 और फिर,

 नेत्रों से पानी बह जाता,

 बार बार पोंछना पड़ता!

 न तो नींद ही आ रही थी,

 और न ही जागे बन रहा था!

 अजीब सा ही माहौल था!

 बार बार अंगड़ाई,

 और देह तोड़ रही थी!

 बड़ी सुस्ती थी बदन में!

 ऊपर से,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 पंखे की आती आवाज़, और उसमे होती,

 खट खट, जैसे और हमारी हालत के ताबूत में,

 कीलें ठोकी जा रही थी!

 तभी मेरे कमरे में,

 मेरा एक श्वान आया,

 दुम हिलाता हुआ,

 उसको भी सुस्ती ने जकड़ा हुआ था,

 मैंने उसके सर पर हाथ फेरा,

 उसके बालों पर हाथ फेरा,

 हौंक रहा था,

 बेचारे को,

 मुंह बंद करना पड़ता!

 अपना पंजा उठाया उसने,

 मैंने हाथ दिया,

 रख दिया उसने,

 और मुझे देखने लगा!

 मैंने हाल-चाल पूछे उस से!

 समझ गया कि प्यासा है वो,

 मैं बाहर गया,

 एक मग लिया,

 और पानी डाला उसमे,

 और दे दिया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 दुम हिलाते हुए,

 चटकारते हुए,

 पानी पी लिया उसने!

 फिर मुझे देखा,

 मूक भाषा में,

 मेरा धन्यवाद किया,

 तभी दूसरा श्वान भौंका,

 तो वो भी भागा!

 कुछ उसकी फ़ितरत,

 और कुछ उसकी स्वामिभक्ति!

 मैंने अपने सहायक को बुलाया,

 वो कपड़े उठा रहा था,

 अब उसको बोला कि,

 अभी से, एक बाल्टी में,

 पानी डाल कर,

 छाया में रख दे,

 ताकि ये श्वान पी सकें,

 और पक्षियों के बरतन में और बाजरा आदि अन्न डाल दे,

 साथ ही, पानी बदल दे,

 एक कौवा, बेचारा पानी ढूंढ रहा था,

 पानी नहीं था बरतन में,

 उसने कपड़े छोड़, वही किया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 अब पानी पड़ा बरतन में तो,

 कौवा छिटक कर, पास में ही खड़ा हो गया,

 जब सहायक हटा,

 तो अपनी चोंच में,

 पानी भर कर!

 सर ऊपर कर,

 पानी पीने लगा!

 मित्रगण!

 प्रत्येक सजीव और निर्जीव वस्तु,

 उसी अपरम्पार की बनायी हुई है!

 इसीलिए,

 सभी का आदर करना चाहिए,

 न कोई छोटा है,

 न कोई बड़ा!

 कोई भेद नहीं!

 वो, त्रुटिहीन है,

 उसने ही कुरूप रचे हैं,

 सुन्दर रचे हैं,

 इसीलिए,

 कभी भी उसकी रचना का उपहास नहीं उड़ाना चाहिए!

 ये पशु-पक्षी,

 सभी उसके ही बनाये हैं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 वही इनको खिलाता-पिलाता है!

 अब, मानव के पास विवेक है,

 इसीलिए, वो, आपसे कुछ आशा रखता है,

 बस, उसके संकेत पढ़ो, समझो और उसके करीब हो जाओ!

 खैर,

 मैं अंदर आया वापिस,

 बैठ गया,

 शर्मा जी,

 ऊंघ रह थे,

 चश्मा हाथों में ही था उनका,

 बैठे बैठे ही,

 नींद की ख़ुमारी के मारे थे!

 मैं लेट गया!

 बदन ऐसा टूटा था कि,

 जैसे जोड़ जोड़ अपना हिसाब मांग रहा हो!

 तभी सहायक आया,

 शिकंजी लाया था,

 मैं उठा,

 और शिकंजी ली,

 शर्मा जी को जगाया,

 उनकी तंद्रा टूटी,

 तो उन्होंने शिकंजी ली,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 शिकंजी पी,

 तो मुंह का स्वाद बदला!

 और मैं फिर से लेट गया!

 शर्मा जी ने चश्मा पहना,

 और उबासी ली,

 फिर सर पर हाथ रख कर,

 वे भी लेट गए!

 अब तो उस बोझिलपन के आगे,

 घुटने एक दिए हमने!

 उसी की सत्ता थी,

 मात्र कुछ ही मिनट में,

 शर्मा जी के,

 खर्राटे गूँज उठे!

 वो तो चले गए परली पार!

 और मुझे था इंतज़ार!

 मैं फंसा था, बीच मंझधार!

 दया हुई नींद की,

 और मैं भी सो गया!

 अभी आधा ही घंटा हुआ होगा,

 कि मेरा मुंह चाटा किसी ने,

 मेरी आँख खुली,

 तो ये मेरा श्वान भूरा था,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 मेरी आँख खुली,

 तो वो और खुश हुआ!

 सफल हो गया था अपने काम में,

 उचक कर,

 मेरी बगल में आ लेटा!

 नींद के मारे मेरी हालत खराब थी,

 मैंने रखा उसके ऊपर अपना घुटना और गर्दन पर हाथ,

 और सो गया,

 भूरा भी सो गया!

 बार बार कान खड़े करता अपने वो,

 कभी उचक उचक कर देखा लेटा बाहर,

 फिर भौंका,

 मैंने मुंह बंद कर दिया उसका,

 समझ गया वो,

 चुप हो, लेटा रहा!

 और मैं सो गया!

 जब मैं सोया था,

 तब दो बजे थे,

 जब जागा, तो पांच का समय था,

 शर्मा जी को तो पस्त कर दिया था नींद ने,

 लम्बे लम्बे खर्राटे बज रहे थे!

 भूरा साहब कब खिसक गए, मुझे लोरियां सुनाकर,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 पता ही नहीं!

 मैं उठा, और बाहर आया,

 भूरा अपने साथियों के साथ,

 ज़ोर-आजमाइश कर रहा था!

 मुझे देखा, तो भागा चला आया,

 खुश, बहुत खुश!

 आ कर,

 पंजे रख दिए, मेरे पेट पर!

 बहुत प्यार करता है मुझे!

 मोहल्ले में ही,

 एक मादा श्वान ने आठ पिल्ले दिए थे,

 मोटे मोटे, तंदुरुस्त!

 आँखें नहीं खुली थीं उनकी अभी,

 एक रात बारिश हुई बहुत तेज,

 मैं अपने आवास पर ही था,

 मेरी नीदं खुली,

 कोई दो बजे थे,

 मुझे उन पिल्लों का ध्यान आया,

 उनको खोह में तो पानी घुसा होगा,

 मैं भागा बाहर,

 बारिश पड़ रही थी बहुत तेज,

 मैं गीला हो गया था,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और वहाँ पहुंचा,

 सात पिल्ले,

 सात पिल्ले कुचल दिए गए थे,

 किसी ट्रक के नीचे आने से,

 पानी भर गया था तो,

 बाहर आ गए थे,

 मात्र ये ही,

 ये भूरा,

 कूँ कूँ कर रहा था,

 गीला,

 बेचारा!

 मैंने उठा लिया उसको!

 और ले आया अपने घर!

 पोंछा,

 साफ़ किया,

 फिर रुई डुबो डुबो कर,

 उसको गरम गरम दूध पिलाया!

 एक माह से अधिक,

 उसको मैंने अपने आवास पर रखा,

 जब चंचल हो गया,

 तो अपने स्थान पर ले आया,

 आज भी, मेरे आवास पर आता जाता है वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 मौज उड़ा रहा है!

 ध्यान रखना पड़ता है उसका,

 एक सदस्य की तरह!

 खाना-पीना, दवा आदि के लिए!

 तभी शर्मा जी आ गए!

 अब शर्मा जी से गुथ पड़ा वो!

 उठा लिया उसको!

 और पुचकारा!

 अपनी आँखों से, घूरता रहा उन्हें,

 शरारत भरी निगाहों से!

 और तभी फोन बजा उनका!

 भूरा को छोड़ा उन्होंने,

 तो मेरे से आ भिड़ा!

 शर्मा जी बात करते रहे,

 लम्बी बात हुई उनकी,

 और फिर फ़ोन कटा,

 "किसका फ़ोन था?" मैंने पूछा,

 "जैन साहब का" वे बोले,

 "कौन जैन साहब?" मैंने पूछा,

 "वो, अलवर वाले" वो बोले,

 "अच्छा, किशोर जैन जी का!" मैंने कहा,

 "हाँ" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "क्या कह रहे थे?" मैंने पूछा,

 "आ रहे हैं कल यहाँ" वे बोले,

 "बात क्या है?" मैंने पूछा,

 "अपनी बेटी को लेकर परेशान हैं" वे बोले,

 'अच्छा" मैंने कहा,

 और तब चाय आ गयी,

 हमने चाय पी अब,

 और फिर कुछ बातें हुईं,

 जैन साहब के बारे में,

 घी-तेल का व्यवसाय है उनका!

और फिर दो दिन भी बीत गए,

 आ गए किशोर साहब,

 साथ में उनके,

 उनके छोटे भाई भी थे,

 नमस्कार आदि हुई,

 हालचाल पूछे गए,

 पानी पिया उन्होंने,

 और फिर चाय भी आ गयी,

 चाय भी पी हमने,

 किशोर जी,

 बहुत परेशान से थे,

 उनका चेहरा और,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और उनके चेहरे के भाव,

 वेदना सी प्रकट कर रहे थे,

 "क्या बात है किशोर साहब? परेशान हो बहुत?" मैंने पूछा,

 गर्दन हिलायी उन्होंने,

 चाय की चुस्की ली,

 और मुझे देखा फिर,

 "हाँ गुरु जी, हम बहुत परेशान हैं" वे बोले,

 "क्या बात है?" मैंने पूछा,

 "आप तो जानते हैं, कि मेरी दो बेटियां है, देविका और पल्लवी, एक बेटा है अजय" वो बोले,

 "हाँ, जानता हूँ" मैंने कहा,

 "देविका और पल्ल्वी, दोनों ही पढ़ाई कर रही हैं, और अजय भी, देविका अपना एम्.बी.ए. कर रही है और ये पल्लवी एम्.एड. और अजय अभी कॉलेज में है" वे बोले,

 "हाँ, पता है" मैंने कहा,

 "समस्या इस पल्लवी के साथ है" वे बोले,

 "कैसी समस्या?" मैंने पूछा,

 वे चुप हुए,

 कहाँ से बताएं,

 कहाँ से शुरू करें,

 इसी उहापोह में थे,

 "कोई इन महीने हुए, पल्लवी अपनी बुआ के घर गयी थी, तावडू, कोई हफ्ता भर रही वहाँ, और जब से वो आयी, बदली हुई थी" वे बोले,

 "कैसे बदली हुई?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "उसका मन भटक सा गया है, किसी की बात नहीं सुनती, अपनी मर्जी करती है, हाँ, सजना-धजना, ये बहुत पसंद है उसे" वे बोले,

 "सजना-धजना तो आजकल की लड़कियों को पसंद है ही किशोर साहब!" मैंने कहा,

 "माना, लेकिन कितनी बार? दो बार, तीन बार? ये तो चार बार स्नान करती है, और बार बार शीशे के सामने खड़ी हो जाती है" वे बोले,

 अब दिमाग में घंटा बजा!

 मुझे आशंका लगी एक!

 फिर भी, मैंने आगे सुनना ही बेहतर समझा,

 "अच्छा? आपने कभी पूछा नहीं?" मैंने कहा,

 "उसकी माँ ने पूछा, कई बार, लेकिन कोई जवाब ही नहीं देती" वे बोले,

 "और खाना-पीना?" मैंने पूछा,

 "ध्यान ही नहीं देती?" वे बोले,

 "सेहत?" मैंने पूछा,

 "सेहत तो बन गयी है उसकी, देविका से दोगुनी ही लगती है" वे बोले,

 आशंका और प्रबल हो उठी!

 "और पढ़ाई?" मैंने पूछा,

 "कुछ होश ही नहीं" वे बोले,

 "एक बात और, कोई अन्य विशेष बात?" मैंने पूछा,

 "हाँ, है गुरु जी एक विशेष बात" वे बोले,

 "क्या?" मैंने उत्सुकता से पूछा,

 "उसके कमरे में एक अजीब सी सुगंध रहती है, गुलाब जैसी सुगंध, जबकि हमारे यहाँ कोई इत्र आदि प्रयोग नहीं करता" वे बोले,

 घंटा दोगुनी आवाज़ से बजा अब!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "कोई इलाज करवाया?" मैंने पूछा,

 "हाँ जी, एक बाबा आये थे, कहने लगे कि किसी प्रेत की संगत है उसके साथ" वे बोले,

 "कुछ किया बाबा ने?" मैंने पूछा,

 "हाँ जी, लेकिन हमे तो कोई फ़र्क़ नहीं लगा" वे बोले,

 "अच्छा" मैंने कहा,

 "कल तो हद हो गयी गुरु जी" वे बोले,

 "क्या हुआ?" मैंने पूछा,

 "कल सारे घर में बड़ी तेज सुगंध फैली थी, दम सा घुटने लगा था, हमको बाहर आना पड़ा, लेकिन वो अपने कमरे में ही बैठी रही!" वे बोले,

 अब मैं समझ गया!

 ये कोई प्रेत का मामला नहीं,

 किसी जिन्न का मामला है!

 यही लगा!

 स्नान करना,

 साफ़ रहना,

 सजना-संवरना,

 वो खुश्बू,

 ये सब जिन्न की ही करामात है!

 तावडू,

 यहाँ आसपास,

 जिन्नाती गाँव हैं!

 लग गया होगा कि जिन्न उसके साथ,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 हो गया होगा आशिक़!

 ऐसा ही होता है!

 फिर वो लड़की,

 या औरत,

 ऐसा ही किया करती है!

 लेकिन,

 ये बात मैंने बतायी नहीं उनको!

 वे घबरा जाते!

 और तनाव बढ़ जाता,

 "आप देख लीजिये एक बार उसे" वे बोले,

 "हाँ, देखना पड़ेगा" मैंने कहा,

 "कण आयेंगे गुरु जी आप?" वे बोले,

 "मैं कल ही आता हूँ" मैंने कहा,

 प्रसन्न हो गए वो!

 और भी अजीब अजीब सी बातें बतायीं उन्होंने!

 मैंने जो जानना था,

 जान लिया था!

 ये यक़ीनन जिन्न ही था!

 तो अब सामना जिन्न से था!

 फिर कोई,

 एक घंटे के बाद,

 वे चले गए वापिस,


   
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