और फिर गड्ढे से बाहर आ गया, मैं भी गड्ढे से बाहर निकल आया, मुझे समझ नहीं आया कि क्यों तो गड्ढे में गए,
और क्यों बाहर ही आ गए! मंसूर बाहर खड़ा रहा, मैं देखता रहा उसको, फिर आगे आया, मंसूर उस फैक्ट्री को देख रहा था,
अजीब सी निगाह से, "वो, उन्होंने खयानत की है" बोला मंसूर, खयानत? उन्होंने? कैसे?
अब मैं जानना चाहता था! "कैसे ख़यानत की हैं उन्होंने?" मैंने पूछा, "वो, वहाँ" कहा उसने और चला उधर, मैं भी संग ही चला,
और एक जगह रुक गया, मैं समझ गया, मैं आगे गया, वहाँ देखा, यहां क्या हो सकता है? ध्यान से देखा,
और समझ में आ गया! ये शौच, दूषित जल आदि का टैंक था उसके नीचे, गंदा पानी आता था वहाँ, अंदर फैक्ट्री से, मज़दूर लोगों के लिए बनाया गया था वो स्थान, इसी से बाबा नाराज़ थे,
शुक्र है,मात्र नाराज़ ही हुए थे, कहर नहीं बरपाया था उन पर! नहीं तो न ये फैक्ट्री ही रहती,
और न कोई और सकुशल! "समझ गया मैं मंसूर!" मैंने कहा,
उसने गर्दन हिलायी हाँ में, "मैं कह कर, हटवा दूंगा, बाबा की जगह भी बनवा दूंगा, साफ़-सफाई रोजाना ही हुआ करेगी, ये मेरा वायदा है!" मैंने कहा! मित्रगण।
ये पीर, सैय्यद, सभी बहुत सफाई-पसंद होते हैं, सफेद रंग के वस्त्र पहनते हैं, सुगंध आती है इनमे से, ये गंदगी बर्दाश्त नहीं करते, और यहां, यही सब हुआ था! "यहां जो कुछ हुआ, अनजाने में ही हुआ मंसूर!" मैंने कहा, वो मुस्कुराया, अपने झोले में से, कुछ निकाला,
और मुझे दिया,
ये मीठी खील और मुरमुरे थे! मैंने माथे से लगाया वो,
और खा गया, बहुत बेहतरीन था, अब वापिस हुए, गड्ढे तक, "मंसूर, एक इच्छा है मेरी" मैंने कहा, "जानता हूँ! सब जानता हूँ, लेकिन वो सब होने के बाद" वो बोला, मैं मुस्कुराया,
और कोई रास्ता नहीं था, मुझे हाँ कहनी पड़ी, "मैं ज़रूर आऊंगा!" मैंने कहा, "मैं ज़रूर मिलूंगा" उसने कहा,
और जैसे ही वो जाने लगा, मैंने आवाज़ दे, रोक लिया, ये तो पूछा ही नहीं था कि, वहां कौन से बाबा रहते हैं। "मंसूर! यहां कौन से बाबा हैं?" मैंने पूछा, वो मुस्कुराया! "जिनसे तुम आजतक नहीं मिले!" वो बोला, मुझे झटका लगा! ऐसे कौन हो सकते हैं? मैं कई पीर बाबा से मिला हूँ, सैय्यद भी देखते हैं मैंने गुजरते हुए, फिर कौन से बाबा? मैंने सोच में पड़ा!
वो भांप गया! मेरे कंधे पर हाथ रखा, मुस्कुराया, "तेहलीवाला के नौ-गजा पीर!" वो बोला,
और बोलते ही गड्ढे में कूद गया! वो तो कूद गया! लेकिन मैं अपने ही विस्मय की कब्र में दफन हो गया! नौ-गजा पीर! मैंने तो मात्र नाम ही सुना था उनका!
मेरे अहोभाग्य! नौ-गजा पीर बहुत ही सीधे, सरल और मददगार हुआ करते हैं, जिसको एक बार आशीर्वाद दे दें,
और वो उनका मान-सम्मान करते रहें, सेवा करते रहें, हर तीज-त्यौहार में निमंत्रण देते रहें तो, कई वंश तर जाते हैं, दुःख नाम को भी नहीं शेष रहता। धन-धान्य, निरोगता, काम में कोई बाधा नहीं, व्यापार, आदि में चहँ-ओर सफलता, सब प्राप्त हो जाता है!
ओर चाहिए क्या उन्हें? मात्र एक दीपक, चाहो तो रोज, अथवा वीरवार को, उनके नाम का जला दिया करें! बस! ओर कुछ नहीं! अतुल ओर निपुण का ये कोई, परम सौभाग्य ही था कि बाबा यहां थे! वो भी नौ-गजा पीर! मैं तो बहुत खुश था! अपने भाग्य पर, इतरा रहा था! कहाँ मिलता है ऐसा अवसर जीबन में? बहुत दुर्लभ है! नामुमकिन सा!
और अब ये मौका मेरे हाथ लगा था! और मैं इसको हरगिज़ नहीं गंवाना चाहता था! खैर, अब मैं वापिस हुआ, अपना सारा सामान उठाया, और आ गया उन सबके पास! सबके मुंह खुले थे, अब मैंने सभी को सारी कहानी से अवगत करवाया! सभी हैरत में पड़ गए, अब मैंने उनको यही सलाह दी, कि हफ्ते-दस दिन में ये सारा काम करवा लें!
सारी रात मुझे वो नौ-गजा पीर के बारे में पूछ पूछ के बेहाल कर दिया! सुबह हुई,
औ हम हिदायतें दे कर चल दिए वहाँ से, निपुण जी ही आये हमे छोड़ने, हम पहुँच गए, साहू जी थे नहीं वहाँ, गए हुए थे कहीं, निपुण जी चले गए,
और हम अपने अपने काम पर लग गए। दस दिन बीत गए, खबर निकाली, जगह पर काम जारी था अभी, अभी कोई हफ्ता और लग जाता,
और फिर इस तरह से, एक हफ्ता भी गुजर गया,
आया वो समय जब सब तैयार हो गया, जैसा मैंने कहा था, वैसा ही किया गया था, वहाँ पहुँच गए थे हम, अब तो वहां एक दीवार भी लगवा दी गयी थी, ये बढ़िया किया था, वो जगह अब एकांत में पड़ रही थी! ये बहुत अच्छा था! शाम हुई, खाना-पीना हुआ, हाँ, मदिरा नहीं पी, बाबा की अमानत में खयानत हो जाती!
और हो जाती मुसीबत! एक बार बिगड़ जाते, तो बस! कितना भी मनाओ, फिर नहीं मानते! ऐसे नियम के पक्के हुआ करते हैं ये आतिशी-पीर! रात हुई, मैं फूल आदि ले आया था,
लोहबान, गुलाब इत्र, अगरबत्तियां सब, सब ले आया था मैं!
अब हुई रात! मुझे बेसब्री से इंतज़ार था! मैं बाबा के दर्शन करूँ और धन्य हो जाऊं! करीब साढ़े दस बजे मैं नहा-धोकर, कुरता-पाजामा पहन कर, गुलाब इत्र लगा कर, वहीं की तरफ चला, सारा सामान ले लिया था मैंने, मैंने वहां जाते ही, उस गड्ढे के पास, एक बड़ा सा दीया प्रज्ज्वलित किया,
और इसी से, सारी अगरबत्तियां भी जलाईं, और वहीं लगा दी! शीश झुकाया, घुटनों पर बैठ कर, फूल जगह जगह छिड़क दिए!
आदर सहित! और वहीं बैठ गया! करीब डेढ़ घंटे बैठा रहा मैं वहां,
और तब जाकर, मंसूर ने आवाज़ दी, मेरे पीछे से! वो फूल चुनकर लाया था! मैं खड़ा हो गया, हाथ जोड़े,
वो मुस्कुराया,
और मेरे सर पर हाथ फेरा! फिर झोले में से, ताज़ा चम्पा के फूल निकाले, कुछ मुझे दिए और कुछ खुद ने लिए,
और गड्ढे में चढ़ा दिए! फिर मंसूर बैठ गया,
मैं भी बैठ गया! "मंसूर! जैसा मैंने कहा था, वैसा करवा दिया! आपने देखा?" मैंने पूछा, "हाँ, मैंने देखा, अब सब ठीक है!" बोला मसूर, मुस्कुराते हुए! अब मैं खुश था, बहुत खुश! मंसूर ने मेरे कंधे पर हाथ रखा, दो बार फेरा,
और फिर इबादत कर रहे हों, ऐसे हाथ किये, झुक कर सलाम भी किया!
और फिर मेरी आँखों पर अपनी ऊँगली फेरी! "तैयार हो?" उसने पूछा, मैं तो हमेशा से ही तैयार था! "हाँ मंसूर!" मैंने कहा, वो खड़ा हुआ, झोला संभालते हुए, मैं भी खड़ा हो गया, कुछ पल ऐसे ही बीते,
और मेरे देखते ही देखते, सामने रौशनी कौंध पड़ी। चमकीली, चाँदी जैसी रौशनी!
आँखें बंद होते होते बची! और जो मैंने देखा, तो मेरे तो होश ही उड़ गए! एक बाबा, जिन्होंने सर पर कपड़ा बाँधा था, शरीर कम से काम आठ मीटर रहा होगा, वृद्ध थे, सफ़ेद रंग का चोगा सा पहने हुए, पाँव तक। मैंने तो हाथ जोड़ लिए! शब्द ही नहीं थे मेरे पास कुछ कहने के लिए! बाबा मुस्कुरा रहे थे, उनका एक हाथ कमर के पीछे थे,
और दूसरे से मुझे, मेरे सर पर छुआ, फिर मंसूर को! मिल गया आशीर्वाद! चम्पा के फूलों की बरसात हो गयी! उनके सेवक जीनत सब फूल बिछा रहे थे, उनके क़दमों में! पेड़, हरे भरे हो गए थे। मित्रगण। वहाँ के पेड़ आज भी हरे भरे हैं, पतझड़ छू नहीं पाता उन्हें! और बाबा फिर लोप हए! मैंने जिंदगी में नौ-गजा पीर पहली बार देखे थे। कोई बिरला ही हो जो उनको देख पाये! मंसूर उठा! मैं भी उठा, गड्ढे में उतरा वो, मैंने हाथ जोड़े, उसने हाथ उठाया,
और लोप! मैं तो धम्म से वहीं बैठ गया! कितनी पावन जगह है वो!
चूम लिया मैंने उस ज़मीन को! मित्रगण!
आगे जाकर, उसी महीने, एक बड़ी सी मज़ार बनवायी गयी, एक बुजुर्ग मौलवी के दिशा-निर्देश में! आज मज़ार वहीं है! अतुल और निपुण ने, मात्र तीन महीने में ही एक और फैक्ट्री खरीद ली, ऐसा नफा हुआ उन्हें! आज दोनों भाई, सेवा करते हैं बाबा की, हाँ, मसूर आज भी फूल उठाता है! जो जिन्नात लाते हैं तेहलीवाला से!
मैं भी अक्सर, माथा टेकने चला जाता हूँ बाबा नौ-गजा पीर के पास! मांगने की हैसियत नहीं है मेरी! बहुत छोटा और तुच्छ इंसान हूँ! उनके दर्शन हुए, यही दौलत है मेरी! यही चाहता हूँ मैं कि, बाबा नौ-गजा सभी पर रहमत बरसायें सभी के कष्ट दूर हों! इस से बड़ी और कोई दौलत नहीं! प्रणाम बाबा नौ-गजा पीर साहब को!
साधुवाद
तेहलीवाला(हिमाचल) से पीर मोदीनगर कैसे शिफ्ट हो गए? या हो जाते है।
गुरूजी साष्टांग नमन, आपकी अति विशिष्ट कृपा हुई है हम सब पर, जो आपने इस पवित्र संस्मरण में हम सबको आदरणीय पुजय्नीय नौ गजा पीर साहब के साक्षात दर्शन करवा दिए, कोटिशः नमन पुजय्नीय पीर साहब को, हम धन्य हो गए