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वर्ष २०१२, मेरठ की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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दस मिनट में बेग़म हाज़िर हुई! भीरु! आधा तो मै अब समझ गया! बेग़म बिना कुछ कहे ही लोप हो गयी! अब मै पूर्ण रूप से समझ गया! समझ गया कि मेरे सामने टकराने वाली बला कि आधी अधूरी नहीं बल्कि खेलीखायी और नैसर्गिक है!

अब मैंने वाचाल महाप्रेत का आह्वान किया! घंटों की आवाज़ करते हुए वाचाल प्रकट हुआ! कहता कम है अट्टहास अधिक करता है! मैंने उसको उसका उद्देश्य बताते हुए रवाना कर दिया!

वाचाल उड़ चला!

करीब आधे घंटे में वापिस आया! कोई अट्टहास नहीं! मामला गंभीर था! ये मै समझ गया था! काहिर, वाचाल ने भी स्पष्ट कर दिया कि वो है कौन! वो अब अपना भोग ले लोप हो गया!

अब मै जान गया था, इशारा मिल गया था कि वो है कौन!

वो थी चन्द्रबदनी-सखी रुपालिका! एक देवसखी! एक तिरस्कृत और अब प्रेत-योनि में रहने वाली देवसखी!

अब मुझे अपना हर कदम संभाल कर रखना था! एक चूक और प्राण-हरण! निश्चित रूप से! वो खुंखार थी! भयानक और शत्रुहंता! अब तो योजना भी संयत होकर ही बनानी थी! लेकिन अभी एक प्रश्न बाकी था, उसने रविशा को ही क्यों चुना था? क्या रविशा गढ़वाल गयी थी? कि अभिमंत्रित वस्तु? कोई अन्य सम्बन्ध? यदि हाँ तो क्या? प्रश्नों की झड़ी लगने लगी थी!

परंती सबसे पहले मुझे चौंसठ-कुमुदा को जागृत करना था! और इसमें मुझे तीन रातें लगने वाली थीं!

मै उठा वहाँ से और अपने कक्ष में आ कर सो गया!

सुबह सुबह शर्मा जी आ गए! गाड़ी लगा, सीधा मेरे पास आये, नमस्कार हुई और हम बैठ गए वहीँ, सहायक चाय ले आया, साथ में प्याज के पकौड़े, हमने खाना शुरू किया, चाय पीनी शुरू की!

"कुछ पता चला?" उन्होंने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

और मैंने सबकुछ बता दिया उनको! सुनकर हैरत में पड़ गए वे!

"अब?" उन्होंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"शक्ति-जागरण" मैंने कहा,

'अच्छा!" वे बोले,

"हाँ, चौंसठ-कुमुदा" मैंने कहा,

"अच्छा, बाबा रन्ना मल की कुटिया वाली?" उन्होंने पूछा,

"हाँ, वही" मैंने कहा,

"तब तो बात बन जायेगी!" उन्होंने कहा और उनको सुकून हुआ!

"हाँ, बन जायेगी" मैंने कहा,

अब मैंने शर्मा जी को एक फेहरिस्त पकड़ाई, इसमें कुछ ख़ास सामग्री थी, वही लानी थी उनको!

और फिर उसी रात से शक्ति-जागरण करना था!

 

शर्मा जी ने फेहरिस्त ले ली, और फिर चले गए, मै अपने कुछ कामों में व्यस्त हो गया, कुछ एक फ़ोन भी आए, उनसे बातें कीं और फिर मैंने अपनी कुछ वस्तुएं निकाल लीं, ये बाद आवश्यक वस्तुएं थीं उस देवसखी से लड़ने के लिए! उसी शाम को शर्मा जी वो सामग्री ले आये, ये कुछ ख़ास सामग्री होती है, और मैंने उसी रात से शक्ति-जागरण का संकल्प लिया और उसी रात क्रिया में जा बैठा, अब तीन रातों तक शर्मा जी को वहीँ रहना था!

पहली रात!

पूजन किया, आह्वान किया!

दूसरी रात!

आह्वान सफल हुआ, एक एक कर मंत्र, तंत्र और यन्त्र जागृत होने लगे!

तीसरी रात!

शक्ति संचरण एवं जागरण सम्पूर्ण हुआ!

अब अगली रात शमशान-जागरण था! ये सबसे अहम् होता है! वही मैंने किया, प्रेतों की खूब दावत हुई! सभी खुश! ख़ुशी के मारे औले-डौले घुमते! बेचारे! कोई कहीं का और कोई कहीं का!


   
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श्रीशः उपदंडक
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खैर, उनको दावत दी गयी और दावत भी भरपूर हुई! उस रात मै सो नहीं सका! काम बहुत था!

जब फ़ुरसत मिली तब सुबह के छह बज चुके थे!

कमर में जकड़न हो गयी थी, सो आराम करने के लिए मै सो गया वहीँ भूमि पर, दो तीन कुत्ते भी बैठे थे वहाँ, मैं वही सो गया! वे भी सो गए! किसी ने किसी को भी तंग नहीं किया!

जब सूरज की तपती रौशनी ने तन को चूमा तो होश आया! दुत्कार के उठा दिया था धूप ने! अलसाए मन से मै उठा और एक पेड़ के नीचे लेट गया, अब दो घंटे और सो गया! तभी शर्मा जी आ गए ढूंढते ढूंढते! अब उन्होंने जगा दिया!

"आइये शर्मा जी!" मैंने कहा,

नमस्कार आदि हुई!

"हो गया न्यौत-भोग?" उन्होंने पूछा,

"हाँ, कर दिया कल" मैंने कहा,

"चलिए, आप स्नान कीजिये, मै खाना ले आया हूँ, खाना खाइए फिर" मैंने कहा,

"चलो, आप कक्ष में बैठो, मै आया अभी" मैंने कहा और मै स्नानघर के लिए चल पड़ा!

स्नान किया और फिर कक्ष में आकर खाना खाया!

और तभी शर्मा जी के फ़ोन पर घंटी बजी, ये फ़ोन जय प्रसाद का था, जय साहब बड़े घबराए हुए थे! सारी बातें तफसील से सुनीं शर्मा जी ने और फिर फ़ोन काट दिया!

"क्या हुआ?" मैंने पूछा,

"आतंक काट दिया उस लड़की ने वहाँ" वे बोले,

"कैसे?" मैंने पूछा,

"अपने बाप से गलती क़ुबूल करने को कहती है और बताती भी नहीं" वे बोले,

'अच्छा!" मैंने कहा,

"और क्या कह रहे थे?" मैंने पूछा,

"बुला रहे थे" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"उनसे कहो कि क्या वो उसको यहाँ ला सकते हैं?" मैंने पूछा,

"अभी पूछता हूँ" वे बोले और नंबर मिला दिया,

उनकी बातें हुईं,

आखिर में यही निकला कि हमे ही जाना पड़ेगा वहाँ, और कोई रास्ता नहीं था!

"ठीक है, अभी बजे हैं ग्यारह, हम २ बजे निकलते हैं वहाँ के लिए" मैंने कहा,

"ठीक है, मै खबर कर देता हूँ उनको" वे बोले,

"ठीक" मैंने कहा,

खबर कर दी गयी!

और हम निकल पड़े ठीक दो बजे मेरठ के लिए!

 

हम वहाँ पौने चार बजे पहुँच गए! जय प्रसाद वहीँ मिले, बेटी के कारण दफ्तर भी नहीं जा पा रहे थे और ऊपर से लोग हुजूम में आ रहा थे गीत-गान करते करते! घर, घर न रहकर देवालय हो चूका था, लोग बाहर बैठे थे, कनात लगी हुई थीं, और अब तो भण्डारा भी शुरू हो चुका था! लुहाली-मैय्या के गीत गव रहे थे! जहां दखो, लुहाली ही लुहाली!

हम अन्दर गए और अन्दर जाते ही रविशा चिल्लाने लगी! हमने अनसुना किया और जय साहब के कमरे में बैठ गए!

और भाग कर आ गयी वहाँ रविशा! साथ ही साथ कुछ भैय्यन क़िस्म के सर पर चुनरी बांधे लोग!

अब मै खड़ा हो गया! मुझे खड़ा देख सभी खड़े हो गए!

"आ गया मरने?" उसने कहा,

"हाँ!" मैंने हंस के कहा,

"हो गया जागरण?" उसने आँखें तरेर के कहा,

"हाँ" मैंने उत्तर दिया,

"अब तू लौट के नहीं जाएगा!" वो हंसके बोली!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"तू रोकेगी मुझे?" मैंने कहा,

"हाँ!" उसने कहा,

"तू नौकरानी है, तिरस्कृत नौकरानी!" मैंने कहा,

अब उखड़ी वो!

"हम्म्म! अब जान गया मै कौन हूँ?" उसने कहा,

"हाँ!" मैंने उत्तर दिया,

"भय नहीं लगा?" उसने पूछा,

"भय? तुझसे?" मैंने उपहास करते हुए पूछा,

"हाँ मुझ से!" उसने कहा,

इतने में सभी भैय्यन लोग चिल्लाये, 'जय लुहाली-मैय्या' !!

"तू जिन पर कूद रही है न, तेरा वो सिलसिलिया और कमेदिया, मेरे अंगूठे से बंधे चले आयेंगे!" मैंने कहा,

आँखें फट गयीं उसकी! पहली बार!

"तू जानता है मै कौन हूँ?" उनसे गरण नीचे करते हुए पूछा,

"हाँ!" मैंने कहा,

"कौन?" उसने पूछा!

"भगौड़ी!" मैंने कहा,

इतना सुन, वो झपटी मुझ पर! मैंने और शर्मा जी ने उसको पकड़ कर पीछे फेंक दिया!

'मार मैय्या!" 'मार मैय्या' के नारे से लगने लगे वहाँ!

जय साहब कांपने लगे मारे भय के कि कहीं कोई फसाद न हो जाए!

"काट डालूंगी!" उसने ऊँगली दिखा कर हथेली से चाक़ू की मुद्रा बना कर कहा,

"भाग लेगी वापिस!" मैंने चुटकी मारते हुए कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बहुत पछतायेगा!" उसने गुस्से से कहा,

"देखा जाएगा!" मैंने कहा,

"नहीं बचेगा तू!" उसने अब जैसे गान आरम्भ किया इसी वाक्य का! गर्दन को हिलाते हिलाते! और धम्म से नीचे गिरी वो! सभी पीछे हटे!

कुछ देर मृतप्रायः सी रही और फिर एक दम से खड़ी हो गयी! आँखें ऐसे बाहर जैसे फट के बाहर आने वाली हों! सभी को घूरा उसने! घूम घूम के! फिर मेरे पास आई, नथुने फुलाते हुए!

"तूने सुना नहीं?" एक भयानक भारी भरकम मार्दाना आव में उसने कहा,

लोगों ने ये आवाज़ सुनी और भाग छूटे वहाँ से! दो चार हिम्मती डटे रहे! जय साहब सीने पर हाथ रखते हुए बिस्तर पर बैठ गए, अपने आप में संकुचित होकर! उनकी भी आँखें बाहर और जबड़े एक दूसरे से चिपके हुए, भय के मारे!

"ओ अंका! सुना नहीं तूने?" वो बोली, मर्दाना आवाज़ में!

अंका! मायने कच्चा खिलाड़ी!

"सुन लिया कमेदिया मैंने!" मैंने कहा,

उसने अपना नाम सुना तो अट्टहास लगाया!

"चला जा! आखिरी मौका है!" उसने कहा,

"जाऊँगा! कुछ कहूँ? सुनाऊं?" मैंने कहा,

"हाँ, बता?" उसने हाथ पर हाथ मारा!

"गुस्सा न हों!" मैंने कहा,

"जल्दी बक?" उसने कहा,

"ठीक है, पहले अपने बारे में बताऊँ या सुनाऊं?" मैंने कहा,

"सुना पहले?" उसने कहा,

"ठीक है, बाद में बता दूंगा! अभी कुछ सुनाऊं?" मैंने कहा,

"सुना???" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बारह हाथ का जवान! मुंह में बीड़ा पान!

कमेदिया मसान, मोहम्मदा वीर की आन!" मैंने पढ़ दिया!

धम्म! धम्म!

धम्म से गिरी वो नीचे!

ये देख लोग हैरान! बाहर से भी आ गए लोग ये सुनकर!

जय साहब ने भी उचक के देखा!

"घबराइये नहीं!" मैंने मुस्कुरा के कहा!

अब मै बैठ गया, शर्मा जी को भी बिठा लिया!

 

मेरी क्या सभी की नज़रें रविशा पर टिकी हुई थीं! वो कोई हरक़त नहीं कर रही थी! और अचानक से ही उठ बैठी! ठहाके लगा के हंसने लगी! वहाँ खड़े लोग 'जय मैय्या' 'जय मैय्या' का नाद करने लगे! उसने मुझे देखा तो ठिठक गयी!

"तू जिंदा है अभी तक?" उसने पूछा,

मुझे हंसी आई!

"हाँ! तेरा कमेदिया आया था, चला गया!" मैंने कहा,

"भाग गया कमेदिया! कमीना!" वो बोली,

"हाँ भाग गया और अब न आवै वो दुबारा!" मैंने उपहास किया!

वो खड़ी हो गयी!

और झप्प से मेरी गोद में आ बैठी! मुझे मौका ही नहीं मिला हटने या रोकने का!

"मेरे साथ चलेगा?" उसने मेरे कंधे पर सर रखते हुए और मेरी चिबुक के बीच में नाख़ून गड़ाते हुए पूछा,

"कहाँ?" मैंने पूछा,

"मेरी जगह!" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कहाँ है तेरी जगह?" मैंने पूछा,

"नद्दोबाड़ा" उसने कहा,

"अच्छा!" मैंने कहा,

"बोल?" उसने नाख़ून और गड़ा के पूछा,

"नहीं" मैंने कहा,

वो हंसी ज़ोर ज़ोर से!

वहाँ खड़े लोग अचंभित और विस्मित! 'देवी जी' बुला रही हैं और मै मना कर रहा हूँ! कैसा अजीब और पागल आदमी है! कृपा लेनी ही नहीं आती हर किसी को!

"चल ना मेरे स्थान पर" उसने मेरे अब बाल पकड़ लिए पीछे से,

"नहीं" मैंने मना कर दिया,

मैंने उसको हटाना चाहा तो और सट गयी!

"चलो भागो यहाँ से, हरामजादों!" अब उसने गालियाँ दीं सभी को जो वहाँ खड़े थे! सभी के मुंह खुल गए ये सुनकर! और मुझे हंसी आ गयी! वे हटने लगे सभी वहाँ से! और हट गए! उसने फिर अपने बाप को देखा, और पूछा, "क्या नाम है रे तेरा?"

"जी......... जय प्रसाद" डर डर के शब्द निकले उनके मुंह से!

"तेरा बसेरा है ये?" उसने पूछा,

"हाँ जी" वे बोले,

"जा! गोश्त रंधवा आज!" उसने कहा,

जय प्रसाद को समझ नहीं आया तो मैंने साधारण भाषा में समझ दिया! वे समझ गए! शुद्ध शाकाहारी घर में विशुद्ध मांसाहारी भोजन! कैसी अजीब हालत थी जय साहब की!

"जा? जाके रंधवा?" अपने पाँव मारते हुए उनको, बोली रविशा!

अब वे भी चले गए! अब रह गए मै, शर्मा जी और रविशा वहाँ!

"हाँ रे? वो कमेदिया भाग गया?" उसने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, भगा दिया उसको" मैंने कहा,

"शाबास!" वो बोली,

"अपना नाम तो बता दे?" मैंने कहा,

"बताती हूँ, रुक जा!" वो बोली,

अब खड़ी हो गयी और मेरे सामने नीचे बैठ गयी! लोह कनखियों से देख रहे थे बाहर से ये सब तमाशा!

"ताम्र्कुंडा!" उसने कहा,

"अच्छा!" मैंने कहा,

'हाँ!" उसने कहा,

मैंने एक बात पर गौर किया, अब वो ऐसे बोलने लगी थी जैसे मदिरापान कर रही हो हर शब्द में! और ये बात मेरे लिए खतरनाक थी! कोई भी बल झपट मार सकती थी! मुझे भी और रविशा के बदन को भी!

"तेरा नाम क्या है?" उसने पूछा,

मैंने अपना नाम बता दिया!

"बहुत बढ़िया!" वो बोली,

और अब धीरे धीरे उसने खेलना शुरू किया, ताली मारनी शुरू की!

"प्यास लगी है" उसने कहा,

"पानी पीयेगी?" मैंने पूछा.

"ना, ना! सुम्मा पियूंगी" उसने कहा,

सुम्मा! सौंफ़ से बनी एक तेज शराब!

"वो यहाँ नहीं है" मैंने कहा,

"यहाँ क्या है?" उसने पूछा,

अब उसका खेलना और तेज हुआ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"पानी" मैंने कहा,

"ना! ना! सुम्मा!" उसने कहा,

अब उसने चिल्लाना आरम्भ किया! अंटशंट के नाम! अनापशनाप!

"ताम्रा?" मैंने पुकारा,

"बोल, जल्दी बोल?" उसने कहा,

"तो आली यहाँ?" मैंने पूछा ! आली यानि आ ली! सवार हो गयी!

"रुकजा!" ऐसा उसने अब हर झूलन पर कहा!

अब शुरू होना था खेल! जो उसने शुरू किया था, बस अभी अभी!

 

वो रुक गयी! एक दम रुक गयी! अपने दोनों होठों को अपने मुंह के अन्दर लेने की कोशिश करने लगी! आँखें चौड़ी कर लीं! और फू-फू की आवाजें निकालने लगी!

"ताम्रा?" मैंने पूछा,

उसने मुझे देखा, बहुत गुस्से से!

"पहचाना मुझे?" मैंने पूछा,

वो कुत्ते की तरह से आगे आई और आकर मेरे सामने खड़ी हो गयी! मै भी खड़ा हो गया!

"ताम्रा?" मैंने पुकारा,

"बोल?" वो बोली,

"बैठ जा!" मैंने कहा,

वो बैठ गयी! अपने दोनों हाथों को मकड़ी सा बनाते हुए!

"तीमन रन्ध गया?" उसने पूछा,

"अभी नहीं" मैंने कहा,

"बुला हराम के बच्चे को यहाँ?" वो गुस्से से बोली,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"गुस्सा ना कर, आ जाएगा वो!" मैंने कहा,

"नाह! अभी बुला!" उसने जिद सी पकड़ ली!

अब मेरी मजबूरी थी, मुझे जय साहब को बुलाना पड़ा!

"आ रे कमीन यहाँ" वो अपने बाप से बोली!

जैस साहब जैसे प्राण ही छोड़ने वाले थे अपने देह के चोले से, मैंने हिम्मत बंधाई उनकी! और उनको अपने पास बिठा लिया!

"क्यूँ रे? तीमन ना रांधा अभी?" उसने गुस्से से पूछा,

मैंने अनुवाद किया और वो समझ गए!

"अभी बस थोड़ी देर और" वे बोले,

"ले आ, जा?" उसने अपने बाप को लात मारते हुए कहा,

वे बाहर चले गए! क्या करते!

"ताम्रा, तू यहीं बैठ, मै देखता हूँ तीमन में देरी क्यों?" मैंने कहा!

"जा, जल्दी आ, और लेत्ता आइयो!" वो बोली,

मै उठा वहाँ से! पहुंचा सीधा जय साहब के पास!

वे बेचारे रोने लगे, वे उनकी पत्नी और उनकी बेटी और सबसे छोटा बेटा, अपने माँ-बाप को रोता देख कर!

"जय साहब, किसी को भेजकर आप मांस मंगवाइये, तैयार, नहीं तो इस लड़की की जान खतरे में है, सौ फी सदी" मैंने कहा,

वे संकुचाये!

"संकोच ना करो!" मैंने कहा,

"मै ही लाता हूँ" वे बोले,

"जल्दी जाइये" मैंने कहा,

एक बाप की विवशता!


   
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श्रीशः उपदंडक
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पर क्या करें!

मै वापिस आया वहाँ पर, शर्मा जी चुपचाप बैठे थे!

"बोल आया कमीन के बच्चे को?" वो बोली,

"हाँ" मैंने कहा,

"हरामजादा है ये पूरा" वो बोली,

"कैसे?" मैंने पूछा,

"किसी को बोलियों मत" उसने कहा,

"नाह, बता?" मैंने कहा,

अब काम की बात आने वाली थी सामने!

"इसकी औरत और दादा ने माँगा था चन्द्रबदनी से लड़का, हो गया, कुछ ना दिया!" वो बोली,

ओह!ये कैसी विडंबना! मै किसका पक्ष लूँ? बात तो इसने सही कही! माँगा है तो देना पड़ेगा!

"कहाँ है ये?" उसने गुस्से में कहा,

"आने वाला है" मैंने कहा,

"किंगे मर गया?" वो बोली,

"यहीं है" मैंने कहा,

"तो बुला उसे?" उसने कहा,

"बेसब्री ना हो, आ जाएगा!" मैंने कहा,

"अच्छा! सुम्मा लाया?" उसने पूछा,

"ना, आड़े कुछ और है, लाऊं?" मैंने पूछा,

"ले आ" वो बोली,

तब मैंने शर्मा जी से कह कर एक बोतल शराब मंगवा ली उनकी गाड़ी से! शराब आ गयी!

"ले ताम्रा!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने दो-तीन लम्बी लम्बी साँसें लीं!

"ला, गोश्त ला!" उसने कहा,

"पहले सुम्मा तो ले ले?" मैंने कहा,"

"हाँ बेटा! ला" उसने कहा,

मैंने बोतल दी और उसने मुंह से लगा कर सारी खाली कर दी!

कमाल!

"कुन्नु को बुला" उसने कहा,

"कौन कुन्नु?" मैंने पूछा!

अब मै एक अजीब ही स्थिति में था!

 

तभी जय साहब मांस ले आये, उन्होंने मुझे दिया, मैंने शर्मा जी को और फिर बर्तन मंगवा लिए. बर्तन में डाल परोस दिया, दे दिया रविशा को, उसने ऐसे खाना आरम्भ किया जैसे मांस की बेहद शौकीन हो! ये देख सभी सन्न रह गए! देवी जी तो विशुद्ध तामसिक निकलीं! सभी उलझ के रह गए!

मैंने पास बैठे जय साहब से पूछा, "ये कुन्नु कौन है?"

"मेरा सबसे बड़ा भतीजा" वे बोले,

"ओह" मेरे मुंह से निकला,

"खुद खा रहा है, मुझसे पूछा भी नहीं" एक दम से कोहनी मार कर बोली वो!

"कौन खा रहा है?" मैंने पूछा,

"कुन्नु, बुलाओ उसे?" उसने कहा,

"वो नहीं आ सकता, तुम खाना खाओ बस" मैंने कहा,

"मै बुलाती हूँ उसे" उसने कहा,

"कोई आवश्यकता ही नहीं" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कहो तो बुला लूँ?" उसने पूछा,

"नहीं" मैंने कहा,

वो खाना खाने में लगी रही!

"ताम्रा?" मैंने पूछा,

"हाँ?" वो बोली,

"एक बात बता" मैंने कहा,

"पूछ" उसने कहा,

"किस से गलती हुई?" मैंने पूछा,

"इस से" उसने जय साहब की तरह इशारा करते हुए कहा,

"क्या गलती हुई?" मैंने पूछा,

"मै नही बताउंगी" उसने कहा,

"बता दी तो सारी समस्या ही ख़तम हो जाती" मैंने कहा,

"नहीं, इसको भोगने दे" वो बोली,

"बहुत सजा भोग चुके ये, अब माफ़ कर इनको" मैंने कहा,

"अभी कहाँ, अभी तो इसका लड़का चढ़ेगा भेंट!" वो हँसते हुए बोली,

"भेंट? लड़का?" मैंने हैरत से पूछा,

"हाँ" वो बोली,

"क्यों?" मैंने पूछा,

"हमसे माँगा था न?" वो बोली,

कब?" मैंने पूछा,

"चौदह बरस पहले" उसने बताया,

अब दिमाग घूमा मेरा! ये है सारी मुसीबत! ये है सारी राड़!


   
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"चल ये गलती क़ुबूल कर लेंगे, इनको माफ़ कर दे" मैंने कहा,

"नहीं! नहीं!" वो बोली,

"मान जा" मैंने कहा,

"नहीं" वो भी जिद पर अड़ी रही!

वो खाना खा चुकी, तो उठ गयी!

"अब मै चली आसन पर, कोई तंग न करे, हाँ तू आ सकता ही" वो बोली,

और चली गयी वहाँ से!

अब मै घूमा जय साहब की तरफ! उनकी तो जैसे हालत खराब थी, जैसे चोरी करते हुए रंगे हाथ पकड लिए गए हों!

"क्या कुछ माँगा गया था?" मैंने पूछा,

"हाँ जी" वे बोले,

"तो क्या वचन पूरा नहीं हुआ?'' मैंने पूछा,

"नहीं जी" वे बोले,

"फिर?" मैंने पूछा,

"हमने अपनी तरफ से जो कुछ कहा था किया, हाँ मांस नहीं चढ़ाया, ये भूल हो गयी" वे बोले,

"अच्छा! इसीलिए ऐसा हुआ है" मैंने कहा,

"हाँ जी" वे सर पकड़ के बोले,

"तो ऐसा कहना ही नहीं चाहिए, अब बताइये अब मै क्या करूँ?" मैंने पूछा,

"हम अब कर देंगे" वे बोले,

"ठीक है, कोशिश करता हूँ" मैंने कहा,

"बचा लीजिये मुझे और मेरे परिवार को!" वे आंसू छलकाते हुए बोले,

"घबराइये नहीं जय साहब" मैंने कहा,


   
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