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वर्ष २०१२, मेरठ की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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जब मै उस गली में घुसा तो जहाँ-तंहा लोग खड़े थे, कोई दो के समूह में और कोई चार के समूह में, लगता था कोई आयोजन हो या कोई दुर्घटना घटी हो. काहिर हमने हॉर्न बजा बजा कर रास्ता बनाया और एक घर के सामने आ कर गाड़ी रोकी, अंदर से जय प्रसाद आये, शर्मा जी ने आगे-पीछे करके गाड़ी एक जगह लगा दी, हम अब उतरे गाड़ी से! और जय प्रसाद हमे अंदर ले गए! अंदर धार्मिक गाने चल रहे थे, रिश्तेदार आदि लोग बैठे थे वहाँ, कुछ पडोसी भी! धूपबत्ती, अगरबत्ती और दिए जल रहे थे! जय प्रसाद हमे एक कमरे में ले गए और हमको बिठा दिया वहाँ, हम बैठ गए! घर अच्छा बनाया था, एक सरकारी महक़मे में अच्छे पद पर आसीन थे वे!

उन्होंने आवाज़ दी, उनकी लड़की पानी ले कर आ गयी, उम्र होगी उस लड़की की कोई अठारह या उन्नीस बरस, आधुनिक लिबास पहने! हमने पानी पिया और रख दिए गिलास वापिस,

"ये दिए वगैरह क्यूँ जला रखे हैं?" मैंने पूछा,

"जी एक भोपा महाराज ने बताया था" वे बोले,

"अच्छा" मैंने कहा,

"रविशा कहाँ है?" मैंने पूछा,

"अंदर कमरे में" वे बोले,

तभी कीर्तन की आवाज़ आने लगी!

"चलिए, मुझे दिखाइये रविशा को" मैंने कहा,

"चलिए" वे उठे और हम उनके पीछे चल पड़े, उस कमरे में पहुंचे!

बड़ा ही अजीब माहौल था वहाँ! थालियाँ सजाई गयीं थीं, उनमे मिठाई, मेवे और नारियल, फल-फूल और न जाने क्या क्या रखा था! और सबसे बड़ी एक बात! वहाँ मल-मूत्र की दुर्गन्ध आयी!

और अब देखिये!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बिस्तर पर रविशा बैठी थी, किसी देवी की तरह! एक हाथ में धामिक ग्रन्थ लिए और दूसरा हाथ अभय-मुद्रा में किये! केश खुले! बदन एक धोती में लिपटा, अंतःवस्त्र कोई नहीं!

कमाल था!

मुझे हंसी आ गयी!

"क्या नाम है तेरा?" मैंने लड़की से पूछा,

मेरा ऐसा सवाल सुन कर वहाँ बैठे लोग मेरे शत्रु हो गए! तब शर्मा जी और जय प्रसाद में सभी को बाहर निकाला वहाँ से! वे चले गए मुझे घूरते हुए!

"हाँ, अब बता, क्या नाम है तेरा?" मैंने पूछा,

उसने आँखें खोलीं और रोने लगी, जय प्रसाद उसके आंसू पोंछने के लिए झुके तो मैंने मना कर दिया! वो तो अब बुक्का फाड़ फाड़ कर रोने लगी!

मैंने तभी एक झापड़ दिया उसको! वो पीछे गिर गयी! हाथों में रखा सारा सामान गिर गया!

उसने अपने बाप को देखा!

मैंने उसको देखा!

आँखें गोल कीं उसने!

बिना आवाज़ दांत भींचे अपशब्द कहे उसने!

"नाम बता अपना?"

कुछ न बोले वो!

"नाम बता?" मैंने कहा,

"देवी!" वो बोली,

"देवी?" मैंने हैरत से पूछा,

"हाँ!" उसने गर्दन हिला के कहा!

"कौन सी?" मैंने पूछा,

"लुहाली देवी" वो बोली!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"कहाँ की है?" मैंने पूछा,

"राजस्थान" उसने कहा,

अब मेरी हंसी छूट गयी!

"गढ़वाल से सीधी राजस्थान!" मैंने कहा,

"चुप! चुप!" वो बोली,

हाथ से श्श्श किया!

ये तो खेल था!

पक्का एक खेल!

एक ज़बरदस्त खेल!

 

"नाम बता ओ लड़की?" मैंने ज़ोर से पूछा,

वो चुप रही!

"नहीं बताएगी?" मैंने धमका के पूछा,

वो अब भी चुप!

"ऐसे नहीं बताएगी तो तू?" मैंने कहा,

वो अब भी चुप!

"ठीक है, मत बता!" मैंने कहा,

अब मैंने वहाँ रखी हुई झाड़ू उठा ली, उसके ऐसे तैयार किया कि जैसे मै उस उसके सर पर मारने वाला हूँ!

और इस से पहले कि मै कुछ करता, वो तपाक से बोली,"बेटा कोई देवी माँ के साथ ऐसा करता है?"

"कौन देवी?" मैंने पूछा,

"लुहाली देवी" उसने उत्तर दिया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अच्छा! तो तू इस पर क्यों आई है?" मैंने उसकी ही बात बड़ी करी ऐसा पूछ कर,

"मुझे भुला दिया इन्होने" वो बोली,

"किसने?" मैंने पूछा,

"ओम प्रकाश ने!" उसने कहा,

"कौन है ये ओम प्रकाश?" मैंने पूछा,

"वो इस से पूछ ले बेटा" उसने अपने पिता की तरफ इशारा करके कहा,

"कौन है ये ओम प्रकाश?" मैंने उनसे ही पूछा,

"मेरे पिता जी" वे बोले,

"अब कहाँ हैं?" मैंने पूछा,

"जी उनका स्वर्गवास हो गया है एक महीने पहले" वे बोले,

"ओह!" मेरे मुंह से निकला,

"अब ओम प्रकाश तो स्वर्गीय हो गए, अब कौन बतायेगा?" मैंने उस लड़की से पूछा,

"राधेश्याम बतायेगा" वो बोली,

"वो कौन हैं?" मैंने पूछा,

"ये बतायेगा" उसने अपने पिता जी का कुरता पकड़ते हुए और देखते हुए कहा,

"कौन हैं ये राधेश्याम?" मैंने उनसे ही पूछा,

"जी..मेरे बड़े भाई" वे बोले,

"अब कहाँ हैं?" मैंने पूछा,

"यही रहते हैं, लेकिन हमारे और उनके परिवार में मनमुटाव हैं, बातचात नहीं है" वे बोले,

"ले लड़की, ये रास्ता भी बंद है!" मैंने कहा,

उसने कंधे उचकाए!

"तो मै क्या करूँ?" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बताएगी तो तू ही?" मैंने कहा,

"मै नहीं बताउंगी" वो बोली,

"कैसे नहीं बताएगी?" मैंने गुस्से से कहा,

"मै लुहाली देवी हूँ" उसने कहा,

"तो क्या हुआ?" मैंने कहा,

"कुछ भी नहीं हुआ?" उसने आँखें तरेड़ के कहा!

"हाँ, कुछ भी नहीं! तेरी जैसी देवियाँ पेड़ों पर लटकी पड़ी हैं!" मैंने कहा,

अब वो गुस्से से खड़ी हो गयी!

"ओये?" वो चिल्लाई मुझ पर!

"हाँ?" मैंने पूछा,

"निकल यहाँ से?" उसने कहा,

"नहीं तो?" मैंने पूछा,

"फूंक दूँगी तुझे" उसने नथुने फुला के कहा,

इतने में कई लोग आ गए वहाँ, आपत्ति जताने लगे! देवी पूजने लगे!

आखिर मुझे बाहर आना ही पड़ा!

मामला संगीन था!

 

मामला अभी भी पकड़ में नहीं आया था! वहाँ अंध-श्रृद्धा के मारे लोग थे, कोई तार्किक तौर से काम नहीं ले रहा था! वहाँ उस लड़की रविशा की जान पर बनी थी! इसको किसी को कोई चिंता नहीं थी! वाह री अंध-श्रृद्धा!

हम उस कमरे से बाहर निकल गए, वापिस उसी कमरे में आ बैठे, अब तक चाय बनकर अ चुकी थी, मै चिंतित सा बैठा, चाय की चुस्कियां ले रहा था!

"एक बात बताइये, ऐसा कब हुआ?" मैंने जय साहब से पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बताता हम मेरे पिताजी के देहांत के कोई बाद कोई बीस दिन बीते होंगे, तभी रात को...एक मिनट.." वे रुक गए कहते कहते!

तभी उन्होंने आवाज़ देकर अपनी छोटी बेटी को बुलाया,

वो आयी, और वहीँ बैठ गयी, अब उनसे जय साहब ने उस रात की कहानी बताने को कहा,

"बताओ बेटा" शर्मा जी ने कहा,

"अंकल एक रात की बात है, कोई ढाई बजे होंगे, रविशा ने मेरे बाल पकडे हुए थे और मुझे खेंच रही थी, गुस्से में गाली देते देते, जब मुझे दर्द हुआ तो मैंने देखा, ये रविशा थी, वो ह रही थी, 'तेरी इतनी, हिम्मत? हिम्मत? यहाँ कैसे लेट गयी?' मै डर गयी, वहाँ से जैसे तैसे भागी, कमरा खोला और मम्मी-पापा के पास आ कर रोने लगी, सारी बात बताई मैंने उनको, वे भी घबरा गए" उनसे बताया,

कुछ देर शान्ति सी छायी!

"फिर क्या हुआ?" शर्मा जी ने जय साहब से पूछा,

"हम कमरे में गए तो उसने गाली-गलौज सुनायी, हमारे माता-पिता को भी गालियां दीं, उनसे ऐसे ऐसे नाम बताये जिन्हे सिर्फ मै ही जानता था! हम घबरा गए बुरी तरह" वे बोले,

"फिर"? शर्मा जी ने पूछा,

"उसके बाद वो एक खास मुद्रा बना के बैठ गयी, पद्मासन में, और हाथ अपने ऐसे कर लिए जैसे कोई देवी हो" वे बोले,

तब मेरी पत्नी ने पूछा," कौन हो आप?"

"लुहाली देवी" वो बोली,

"अब हम सच में डर गए!" जय साहब बोले,

"फिर?" शर्मा जी ने पूछा,

"फिर जी उसने कहा, ये लाओ, वो लाओ, ऐसा करो, वैसा करो, पड़ोस में से बुला के लाओ, उसको लाओ आदि आदि" वे बोले,

"अच्छा, फिर?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"फिर जी हमारी पड़ोस में एक भोपा जी रहते हैं, पूजा आदि कराते हैं, उनको बुलाया, उन्होंने उस से बातचीत की और घोषणा कर दी कि ये सच में ही कोई देवी हैं, देवी लुहाली" वे बोले,

'और भोपा ने ये बात अड़ोस-पड़ोस में बता दी, मुनादी हो गयी और एजी की तरह से ये खबर फ़ैल गयी!" बात ख़तम की शर्मा जी ने!

"हाँ जी" वे बोले,

"वैसे क्या ये देवी ही हैं?" जय साहब की पत्नी ने पूछा,

'आपको क्या लगता है?" मैंने पूछा,

"जी हमे तो लगता है कि हैं ये देवी कोई लुहाली" वे बोलीं,

"हो सकता है, मुझे जांच करनी पड़ेगी" मैंने ये कह के बात टाली!

"वैसे ऐसा होता है क्या?" जय साहब ने पूछा,

"हाँ, सौ फी सदी ढोंग" मैंने कहा,

"ओह!" वे बोले,

"लेकिन वो सबकुछ बताती है" वे संशय में पड़कर बोले,

"यही जानना है कि कैसे!" मैंने कहा,

तभी आभार एक औरत आयी. उसने जय साहब से कुछ कहा,

जय साहब मेरे पास आये और बोले, "आपको बुला रही है वो"

"मुझे? ठीक है" मैंने कहा,

और मै चल दिया उसके पास!

 

मै अन्दर गया, वहां दीप जले थे, चौमुखे! उनमे खील-बताशे आदि पड़े हुए थे, अर्थात 'देवी जी' सात्विक थीं! प्रसन्न नहीं थी, क्रोधित थीं जय प्रसाद के परिवार से, क्यों? ये नहीं पता चल सका था!

खैर,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो देवी जी खड़ी हुई थीं, नीचे फर्श पर, एक दरी बिछी हुई थी!

"मुझे क्यों बुलाया?" मैंने पूछा,

"बताती हूँ" उसने कहा,

वो मेरे सामने आई और मुझे मेरे सर पर हाथ रख कर आशीर्वाद सा दिया!

"ये क्या है?" मैंने पूछा,

"आशीर्वाद" वो बोली,

मेरी हंसी छूट गयी और वहाँ खड़े लोग मुझसे उसी क्षण शत्रुता कर बैठे मन ही मन!

"हाँ, किसलिए बुलाया था?" मैंने पूछा,

"तू नहीं मानता मै लुहाली देवी हूँ?" उसने पूछा,

"नहीं" मैंने कहा,

"कैसे मानेगा?" उसने पूछा,

"कोई प्रमाण दे" मैंने कहा,

"कैसा प्रमाण?" उसने कहा,

अब उसने मेरे घर-परिवार के सदस्यों आदि के नाम बताये!

"और चाहिए प्रमाण?" उसने पूछा,

मुझे हंसी आ गयी!

"क्यों हंसा तू?" उसे गुस्सा आया!

"ये तो कोई भी कर सकता है!" मैंने कहा,

"कौन कर सकता है?" उसने पूछा,

"मै" मैंने बडंग मारा!

वो अर्रा के हंसी!

"तेरी क्या औक़ात!" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"पता चल जाएगा!" मैंने कहा,

"तू अपने आपको बहुत बड़ा कलाकार समझता है?" उसने पूछा,

कलाकार? यही कहा न उसने? मेरा दिमाग घूमा! ये जानती है की मै कौन हूँ! इसीलिए मुझे बुलवाया इसने!

"मैंने कब कहा कि मै कोई कलाकार हूँ?" मैंने पूछा,

"मै जानती हूँ" उसने कहा,

"और मै भी जान गया हूँ!" मैंने कहा,

"क्या?" उसने पूछा,

"बता दूंगा, इतनी शीघ्र भली नहीं!" मैंने कहा,

"छत्तीस योजन! छप्पन भोजन!" उसने कहा,

अब मै जैसे धड़ाम से नीचे गिरा!

मैंने उसको उसकी आँखों में देखा!

वो कुटिल रूप से, बिल्ली की तरह मुझे आँखें भिड़ाये थी!

छत्तीस योजन! छप्पन भोजन! फंस गया था मै! अब कोई गलत था और कोई सही! या तो मै गलत या वो सही!

"खेड़ू के तीर, जय मोहम्मदा वीर!" मैंने कहा,

धसका लगा उसे! भयानक धसका!

हाँ! हाँ! ये हुई न बात!

"क्या हुआ 'देवी जी'?" मैंने कहा,

"निकल जा यहाँ से, इस से पहले कि मै तेरे नाम का परचा काटूँ!" उसने कहा,

"परचा तो तेरा कटेगा! बहुत जल्द!" मैंने कहा,

उसने मुझे लात मारनी चाही तो मैंने लात पकड ली उसकी और पीछे धक्का दे दिया! उसके भक्तों ने हाथापाई सी करके मुझे बाहर निकाल दिया वहाँ उस कमरे से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मरेगा! तू मरेगा!" ऐसा कहा उसने कई बार!

तमाशा बन गया वहाँ!

 

मै वापिस उसी कमरे में आ गया! वहां मुझे अच्छा नहीं लगा था, सोच रहा था कि इस मामले से दूर रहना ही बेहतर था, लेकिन फिर मुझे जय प्रसाद का ख़याल आया, उस लड़की रविशा का ख़याल आया, अब मदद करना औघड़ी-धर्म बनता है, सो फंस के रह गया मै, मुझे ये भक्तगण कुछ करने नहीं दे रहे थे, 'देवी जी' को सरक्षण प्राप्त हो गया था आस्था का, मेरा कुछ करना आस्था के विरुद्ध होता उनके! अब क्या हो? कैसे हो? असमंजस की स्थिति मेरे सर पर नाच रही थी! क्या किया जाए? यहाँ तो किसी माध्यम-मार्ग की भी गुंजाइश शेष नहीं थी! वहाँ 'देवी जी' विराजमान थीं!

"अच्छा जी, हम चलेंगे अब" मैंने कहा जय साहब से,

"जी अवश्य, लेकिन..." वे बोले,

"मै जानता हूँ, कि क्या है ये मामला, कैसे निबटेगा, यही न?" मैंने पूछा,

"हाँ जी" उन्होंने कहा,

"देखिये, सबसे पहले तो इस सब अंध-श्रद्धालुओं को यहाँ से हटाइये, उसके बात ही कुछ बात बनेगी, या इस लड़की को मेरे शमशान में लाइए, जैसे भी करके, बाँध के, पीट के, जकड़ के, कैसे भी, समझे आप?" मैंने कहा,

"जी" वे असहाय से बोले,

अब हम खड़े हुए वहाँ से! और जैसे ही खड़े हुए रविशा दनदनाते हुए आ गयी वहाँ! गुस्से में!

हम वहीँ बैठ गए!

"चन्द्रबदनी हूँ मै!" उसने चीख के कहा!

"स्याही हूँ मै!" उसने फिर से चीख के कहा,

"हरयाली हूँ मै!" उसने फिर से चीख के खा!

"सुरकंडा हूँ मै!" उसने दहाड़कर कहा!

वाह! सारी की सारी महाशक्तियां! सभी के नाम गिना दिए उसने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"सुन लिया! लेकिन तू कौन है?" मैंने सुलगता हुआ सा सवाल किया!

"मरेगा! मेरे हाथों मरेगा तू औघड़!" वो चिल्ला के बोली,

"तेरी क्या औक़ात?" मै अब खड़ा हो कर बोला!

"औक़ात देखेगा मेरी?" उस बिफरी अब!

"हाँ! हाथ लगा के देख! सौगंध औघड़दानी की यहीं बाँध के न दफ़न कर दूँ तो कहना!" अब मै ताव में आ कर बोला!

"जा! तेरे जैसे औघड़ों का नाश करती आई हूँ और अब तेरी बारी है!" वो बोली,

"ना! ना! मेरे जैसा नहीं था उनमे कोई भी! ये तू गलत बोली!" मैंने कहा,

"देख लेंगे! आज से दिन गिनने लग! सुखा के मारूंगी तेरा खून!" वो बोली और फिर अट्टहास!

सभी भयभीत हो गए वहाँ! पाँव पड़ गए उसके!

रह गए हम दो, सिर्फ दो!

जो पाँव नहीं पड़े!

"अब निकाल जा यहाँ से! जो कर सकता है कर ले!" उसने थप्पड़ दिखा के कहा मुझे!

"तुझे भी और इन अंधे लोगों को भी पता चल जाएगा कि तू है कौन!" मैंने कहा,

"आअक थू!" उसने थूक फेंका!

"चलो यहाँ से शर्मा जी!" मैंने कहा,

"जाओ! जाओ यहाँ से!" वो बोली!

गुस्सा तो मुझे इतना आया कि मै भंजन-मंत्र पढ़कर इसकी आंत-हाड़ सब निकाल दूँ! निकाल तो सकता था, लेकिन इस बेचारी रविशा का कोई दोष नहीं था!

खैर, हम निकाल आये वहाँ से! बाहर आकर गाड़ी में बैठ गए, गाड़ी स्टार्ट कर दी,

मुझे भयानक गुस्सा! जय साहब भी घबरा गए!

"क्षमा कीजिये" वे बोले,

"कोई बात नहीं" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्षमा!" वे बोले,

"कोई बात नहीं जय साहब! मै समझता हूँ!" मैंने कहा,

अब गाड़ी मोड़ी हमने!

और चल दिए वापिस, जय साहब को बता दिया कि शीघ्र ही मुलाक़ात होगी हमारी अब!

और अब सच में ही 'मुलाक़ात' होनी थी!

असल की मुलाक़ात!

 

हम वापिस आ रहे थे, मुझे गुस्सा था बहुत, वहां अगर श्रृद्धा या आस्था वाली बात न होती तो जंग होती! अच्छी-खासी जंग! फिर देखते कि कौन जीतता! लेकिन वहाँ उन भक्तों ने बखेड़ा खड़ा कर रखा था, मेरी तो क्या स्वयं जय प्रसाद की भी वहाँ नहीं चल रही थी! लोग आ रहे थे गाड़ी भर भर के! जिसको भी खबर लगती वही दौड़ा चला आता!

"कहाँ खोये हुए हो गुरु जी?" शर्मा जी ने पूछा,

"वहीँ" मैंने कहा,

"हाँ, स्थिति तो गंभीर है वहाँ" वे बोले,

"झूठ है सब वहाँ!" मैंने कहा,

"पता है" वे बोले,

"इसीलिए गुस्सा आ गया था" मैंने बताया,

"जानता हूँ" वे बोले,

तभी शर्मा जी ने गाड़ी एक ढाबे के सामने रोक दी,

"आइये, चाय पी लें" वे बोले,

"चलिए" मैंने कहा और गाड़ी का दरवाज़ा खोल मै बाहर आ गया,

ढाबे में गए,

चाय का कहा और फिर वहीँ बैठ गए,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्या लगता है आपको, कौन है ये देवी?" उन्होंने पूछा,

"है कोई, लेकिन देवी नहीं कोई" मैंने कहा,

"कैसे कह सकते हैं?" उन्होंने विस्तृत किया अपना प्रश्न,

"बताता हूँ ध्यान से सुनना! सुनिए, जब एक व्यक्ति किसी भूत-प्रेत की सवारी बर्दाश्त नहीं कर सकता, तो फिर दिव्य स्वरुप? कोई दिव्य आत्मा? असंभव! उसमे इतना भार होता है कि कोई संभाल नहीं सकता! क्या हाथी इस कप में समा सकता है?( मैंने चाय के कप का उदाहरण दिया, जो मेरे हाथ में था) कदापि नहीं! शर्मा जी, मनुष्य कितना ही स्नान कर ले, चन्दन लेप, केवड़ा लेप ले, तब बी उसके शरीर में मल-मूत्र, पीप, मवाद, उसके सभी बाह्य-द्वार सदैव गंदे ही रहते हैं, शौच से निवृत होने के पश्चात क्या उदर में शौच शेष नहीं?? क्या मूत्र शेष नहीं? क्या नाक में, कान में, जिव्हा पर अवशिष्ट पदार्थ शेष नहीं? तो कौन साफ़? क्या नाखूनों में, आँखों में, क्या भौंहों में कचरा शेष नहीं? क्या श्वास-नलिका में कचरा शेष नहीं? क्या थूक में मेद और दुरगन्ध, बलगम शेष नहीं? तो कौन साफ़? मंदिर जाने वाले स्वच्छ नहीं होते शर्मा जी, बल्कि वो उस दिव्य-स्वरुप को भी मलिन करते हैं! मन, वचन, कर्म तो व्यक्ति के मलिन हैं ही, तो स्वच्छ क्या? सात्विक! सात्विक देवी वो बबी इस हाड़-मांस की गंदगी से बने शरीर में! कदापि नहीं! इतने ही स्वच्छ होते तो उनका स्थान स्वर्ग में होता, देवस्थान में होता इस मृत्युलोक में नहीं! अब समझे आप?" मैंने कहा!

"हाँ! शत प्रतिशत सत्य!" वे बोले,

"मेरे शब्द कटु हो सकते हैं, परन्तु अर्थ नहीं" मैंने कहा,

"निःसंदेह" वे बोले,

कुछ देर शान्ति, अपने अपने क्षेत्र में केन्द्रित!

जो तू है वो मै नहीं और जो मै हूँ वो तू नहीं!

और!

ऐसा कब नहीं?

प्रेम! विशुद्ध प्रेम!

यही तो है जो जोड़ देता है तुझे और मुझे!

तुझे और मुझे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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किस से?

उस से!

उस सर्वशक्तिमान से!

भक्ति से सामर्थ्य हांसिल होता है जीवन में दुःख झेलने का! अर्थात जो भक्ति करेगा उसकी, उसका दुखी, दूसरों से अधिक, होना स्वाभाविक ही है!

ठूंठ पर क्या छाल और क्या पत्तियाँ!

काम-पिपासा! देह-लालसा! माया-लालसा! मोह! ये क्या हैं? यही तो हैं बंधन! उसके बनाए हुए!

जो जान गया वो तर गया, जो नहीं जाना वो मर गया!

मर गया!

हाँ!

मर गया!

पुनः जीवन की खोज में!

और फिर!

फिर वही अनवरत चक्र!

योनि-भोगचक्र!

खैर!

चाय ख़तम हुई और हम अब चले दिल्ली की ओर!

अपने स्थान की ओर!

 

हम वापिस आ गए, पहुँच गए अपने स्थान पर, जाते ही मैं मदिराभोग के लिए आवश्यक वस्तुएं एकत्रित कीं और फिर शर्मा जी के साथ मैंने मदिरापान आरम्भ किया, ताप अधिक था, पैग पर पैग होते चले गये! मुझे सच में ही क्रोध था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"एक बात कहूँ?" शर्मा जी ने कहा,

"हाँ, कहिये" मैंने कहा,

"कैसे हकीक़त जानी जाये इस 'देवी जी' की?" वे बोले,

"मै आज रवाना करता हूँ किसी को" मैंने कहा,

"इबु को?" उन्होंने पूछा,

"नहीं" मैंने कहा,

"फिर?" वे बोले,

"किसी औरत को" मैंने कहा,

"अच्छा" वे बोले,

"आहत हैं?" उन्होंने पूछा,

"नहीं तो" मैंने उत्तर दिया और हंसी आ गयी मुझे कहते ही!

लग रहा है" वे भी हँसे कहते हुए!

"नहीं, आहत नहीं हाँ, क्रोधित हूँ" मैंने कहा,

"समझ सकता हूँ" व बोले,

इसके बाद हमने भोजन किया और फिर शर्मा जी रात के समय चले गए वापिस अपने घर, सुबह आने थे वो अब!

अब मै उठा, स्नान किया और अपने क्रिया-स्थल में पहुंचा, वहां अलख उठायी और फिर अलख भोग दिया!

अब मैंने ऐसी किसी शक्ति को आह्वानित करना था जो मुझे सच्चाई बता सके! खबीस को मै दांव पर नहीं लगा सकता था! अतः मैंने बेग़म चुड़ैल का आह्वान किया! धुंआ और राख के कण बिखेरती वो प्रकट हो गयी! मैंने उसको उद्देश्य बता दिया और इस तरह वो अपना भोग ले उड़ चली!

मै वहीँ बैठ गया, उस पर नज़रें गढ़ाए हुए, अलख में ईंधन डालता रहा! ये समय करीब एक बजे रात का था, आसपास इसी के रहा होगा!


   
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