मैंने जैसे ही देखा, पलट कर, बाहर के लिए, कि पता नहीं वो कब उठी, और मुझे मेरे कंधे से पकड़ लिया! बाहर तो कोई नहीं था, स्याह सा अँधेरा और कुछ कीटों के स्वर! बेढंगे नहीं कहूँगा, स्वर समान ही था!
"ममता कहाँ है?" पूछा मैंने,
"बाहर!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"वहीँ तो रहती है?" बोली वो,
"वहीँ?" पूछा मैंने,
"हाँ, वहीँ!" बोली वो,
"उसका आदमी नही, तो शिशु कहाँ से?" पूछा मैंने,
"आदमी नही?" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"किसने कहा?" पोछा उसने,
"ममता ने?" कहा मैंने,
"कौन सा आदमी?" पूछा उसने,
"अब विधवा नहीं वो?" पूछा मैंने,
"उसने ब्याह ही कब किया?" पूछा उसने,
"कौन ममता?'' पूछा मैंने,
''वही न, जो लायी तुम्हें मेरे पास?" बोली वो,
"हाँ, वही?" कहा मैंने,
"उसने ब्याह नहीं किया!" बोली वो,
"क्या?" मैंने अचरज से पूछा,
"हाँ?" बोली वो,
"तो ये शिशु?'' कहा मैंने,
"उसका ही है!" बोली वो,
"तो किस से हुआ?" पूछा मैंने,
"मैं क्या जानूँ?" बोली वो,
"तो कौन जाने?" पूछा मैंने,
"बस ममता!" बोली वो,
"तुम नहीं जानतीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" कहा उसने,
"तो ये कैसे पता, कि ये शिशु, उसका ही है?" पूछा मैंने,
"मैंने और उसने दफन किया!" बोली वो,
मैं तो काँप उठा उसकी बात सुन कर! ये औरतें हैं? ममत्व की द्योतक? दफन? एक असहाय शिशु? दफन कर दिया?
"क्यों दफन किया?" पूछा मैंने,
"न हाथ थे, न पाँव!" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"नहीं समझा?'' कहा मैंने,
"हाथ और पाँव जुड़े हुए थे आपस में!" बोली वो,
"तो उसे दफन कर दो?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"इसीलिए?'' पूछा मैंने,
"और नहीं तो क्या?" पूछा उसने,
"तुम भी ऐसा ही करतीं?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"कैसी औरत हो तुम?" पूछा मैंने,
"जैसे सामने खड़ी हूँ!" बोली वो,
"ममता को बुलाओ?" बोला मैं,
''वो नहीं आएगी यहां!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"नहीं समझे?'' बोली वो,
समझे? हाँ! कुछ आया समझ मुझे!
"सुनो?" पूछा मैंने,
"बोलो?'' बोली वो,
"रास्ते में तुम दो बार डरीं, किस से?" पूछा मैंने,
"ममता से!" बोली वो,
ठीक! यही अंदाजा लगाया था मैंने! अब एक बात साफ़ थी, या तो ममता झूठ बोली थी या फिर ये, झूठ बोल रही थी, जो मेरे सामने थी, कंचन!
"मैं आया अभी!" कहा मैंने,
"नहीं, ये भूल नहीं करना!" बोली वो,
"भूल?" पूछा मैंने,
"हाँ, भूल!" बोली वो,
"बाहर जाने की?'' पूछा मैंने,
"मिलने की!" बोली वो,
"ममता से?'' पूछा मैंने,
"वो ममता नहीं है!" बोली वो,
पाँव तले ज़मीन खिसकी! छत जैसे नीचे को आयी ढांपने! दीवारें जैसे समीप ही आने लगीं भींचने! दम, जैसे घुटने को हो!
"क्या कह रही हो?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"नहीं समझा मैं?" कहा मैंने,
''आओ?" बोली धीरे से,
मेरा कॉलर पकड़ा उसने, हल्का सा खींचा, और ले चली खिड़की तक!
"नीचे रहो!" बोली वो,
खिड़की की चौखट से नीचे रहे हम!
"सामने देखो, कुछ दिखा?" धीरे से कान में बोली वो!
मैंने देखने की कोशिश की! पहले तो कुछ न दिखा! और जब दिखा, तो खून ही जमने लगा! अपने आप ही मन में, सभी, रक्षण-मंत्र जप उठे!
ठीक सामने, एक पलाश के पेड़ के नीचे, ममता बैठी थी, कंधों तक, ज़मीन में गड़ी हुई! आँखें फाड़े, सर घुमाते हुए, सामने भी, दायें भी, बाएं भी और नीचे, ऊपर भी! मैंने झट से नीचे किया सर! पसीने छलक उठे मेरे!
"ये क्या कर रही है?'' पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोली वो,
"पता नहीं?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"यहां नहीं आती?" पूछा मैंने,
"दरवाज़े तक, खिड़की तक!" बोली वो,
"वो क्यों?" पूछा मैंने,
"डरती है!" बोली वो,
"किस से?" पूछा मैंने,
"यहां आने से!" बोली वो,
"तुम यहां अक्सर आती हो?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
''आज कैसे?" पूछा मैंने,
"तुम्हें दिखाने!" बोली वो,
"ये सब?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"मैं ही क्यों?" पूछा मैंने,
"तुम ही हो वो!" बोली वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"वही, जो चाहती है ये ममता!" बोली वो,
"क्या चाहती है?'' पूछा मैंने,
''संसर्ग!" बोली वो,
मिल गया उत्तर! किस से होगा ये शिशु उसका! अब समझा!
"लेकिन मैं ही क्यों?" पूछा मैंने,
"इसीलिए तो लायी?" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"तुम्हें!" बोली वो,
"साफ़ कहो?" पूछा मैंने,
"आज यहां नहीं आते अगर तुम, तो कुँए पर होते!" बोली वो,
अवाक मैं! हतप्रभ! ज़ुबान को मारा काठ!
"कुआँ कहाँ है?'' पूछा मैंने,
"पास ही!" बोली वो,
"क्या है वहां?" पूछा मैंने,
"दिन में देख लेना!" कहा उसने,
"लेकिन तुम?" पूछा मैंने,
"नहीं जा सकती!" बोली वो,
"तो फिर?'' पूछा मैंने,
यहां, एक रहस्य नहीं, अनेकों रहस्य थे! कुछ समझ आने लगे थे, कुछ पकी हुई, सूखी फलियों की तरह, खुलने लगे थे!
"तो? कौन ले जाएगा मुझे?" पूछा मैंने,
"या तो स्वयं या फिर बाबा को ले जाना!" बोली वो,
''एक मिनट! क्या बाबा को मालूम है ये सब?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"ये कैसे सम्भव है?" पूछा मैंने,
"सम्भव है!" बोली वो,
बाहर, एक हंसी सी गूंजी! एक ख़ौफ़नाक सी हंसी!
"श्ह्ह्ह्ह्ह!" इशारा किया उसने.
मैं नीचे झुक गया! उसने झुका दिया था, हम, नीचे हो गए थे!
"अँधेरे में नहीं रहना!" बोली वो,
उसका अर्थ था, दीये की रौशनी से बाहर नहीं जाना!
"क्यों?" मैंने फुसफुसा के पूछा,
"चुरा लेगी!" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
''अस्तित्व!" बोली वो,
ये क्या बोल गयी थी वो? ये यही थी कुंजी? क्या यह था वो कपाट? का यहां से ही, इस रहस्य की कब्र खुदनी शुरू होती है?
मेरी नज़र, आहिस्ता से, मेरी घड़ी पर पड़ी, घड़ी बारह से ऊपर बजाने लगी थी! समय कैसे कटे जा रहा था, भान ही न पड़ता था! ये तो ऐसा लगता था जैसे कि मैं इस संसार से अलग, किसी और वीभत्स संसार में विचरण करने लगा होऊं?
"श्ह्ह्ह्ह्ह!" फिर से बोली वो,
और मुझे हाथों के ज़ोर से, नीचे लिटा दिया उसने, और खुद, मेरे ऊपर आ लेटी, ये सब क्या हो रहा था, मेरी समझ से बाहर था! मैं क्यों इस 'कंचन' का विश्वास करूँ? कैसे कर लूँ? ये क्या माज़रा है? कुछ समझ नहीं पड़ता था!
"अस्तित्व?" मैंने पूछा,
"समूचा!" कहा मैंने,
"कैसे?'' पूछा मैंने,
''सांस से!" बोली वो,
"सांस?'' कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"कैसे सम्भव?" पूछा मैंने,
"आजमाना भी मत!" बोली वो,
''तो तुम बताओ?" बोला मैं,
"सांस अपनी न रहेगी!" बोली वो,
मैंने गौर से देखा उसे! उस पल, कितनी सरल, स्पष्ट, भोली-भाली, और सच कहूँ तो मेरे जीवन की खेवनहार से लग रही थी वो! वो मुझे सरंक्षण दे रही थी, या मेरा भक्षण कर रही थी, मैं तो इसी झंझावत में हिचकोले का रहा था!
"ऐसा कब तक चलेगा?' पूछा मैंने,
''प्रातःकाल तक!" बोली वो,
''फिर?" पूछा मैंने,
''फिर शांत!" बोली वो,
"विराम?" पूछा मैंने,
''सही समझे!" बोली वो,
"कब तक?" पूछा मैंने,
"विरामावस्था तक!" बोली वो,
"ये विरामावस्था कब से थी?" पूछा मैंने,
"नौ माह से!" बोली वो,
"नौ माह?" पूछा मैंने,
"हाँ, या दस?" बोली वो,
"तुम्हारी आयु कितनी है?' पूछा मैंने,
"कितनी लगती है?" पूछा उसने,
"तेईस बताया गया था?" बोला मैं,
"सत्ताईस!" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"कहाँ फंस गयी हो?" पूछा मैंने,
"निकाल दो ना फिर?" बोली वो,
"भला कैसे?" पूछा मैंने,
"जानते हो!" बोली वो,
"क्या सम्भव है?" पूछा मैंने,
"असम्भव भी नहीं!" बोली वो,
''आरम्भ से ही वाक्-पटु हो?" पूछा मैंने,
''हाँ!" बोली वो,
"या बाद में?" पूछा मैंने,
"ना!" बोली वो,
फिर एकदम से, भींच लिया मुझे, मेरे चेहरे पर, सर टिका लिया अपना! मेरे मुंह पर, हाथ रख लिया! कुछ पल, ऐसे ही, मेरा दम सा घुटा, तो हटाया हाथ उसने!
"कोई आया?" बोली वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"कोई?'' बोली वो,
"मुझे नहीं पता!" कहा मैंने,
"यहीं रुको!" बोली वो,
वो उठी तब, और चली ज़रा बाहर की तरफ, मैंने सरसरी निगाह डाली उस पर! धीरे से लौटी, दरवाज़ा बंद कर, सांकल लगा कर, आहिस्ता से आई मेरे पास,
"खड़े हो?" बोली वो,
हाथ दे उसने, खड़ा किया, मैं खड़ा हुआ!
"आओ?" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
''श्ह्ह्ह्ह्ह्ह!" फिर से चेताया, होंठों पर ऊँगली रख अपने,
"वहाँ?" बोली वो,
और झाँका, दरवाज़े से बाहर उसने पहले, एक झिरी से! फिर हटी, और मुझे इशारा किया सामने देखने को! मैं झुका, और एक आँख से देखा बाहर!
"क्या दिखा?'' पूछा उसने,
"कुछ नहीं?" कहा मैंने,
'ध्यान से देखो?'' बोली वो,
"अहां? कुछ नहीं?" कहा मैंने,
"हटो!" बोली वो,
और खुद देखा, मेरा हाथ पकड़ा,
"वो देखो, सामने से दायें!" बोली वो,
ओहो! अब जो देखा सामने, तो दिमाग में पटाखे छूट गए! सामने, आग जलने लगी थी अब! आग के ठीक पहले, धनुष से आकार में, ममता जैसे योगरत थी! दोनों हाथ नीचे, भूमि पर टिकाये, कम, नितम्ब उठाये, टांगें ऊपर उठाये, बस पाँव ही टिके थे नीचे!
"ये क्या कर रही है?'' पूछा मैंने,
"देखते रहो!" धीरे से बोली वो,
"बताओ?" पूछा मैंने,
"देखो?" बोली वो,
मैं, एकटक देखता रहा उसे! वो तो पत्थर सी बनी, उसी मुद्रा में थी! मुझे ये मुद्रा देख, एक अत्यंत ही क्लिष्ट सी साधना का स्मरण हो आया! इस मुद्रा में, यदि, क्षुमर्णिकभट्टिका-सिद्धि प्राप्त हो जाए, तो रसातल से, रसातल के निवासियों से, सम्पर्क सम्भव हो पाता है!
रसातल?
क्या? रसातल?
वो कुआँ?
तो क्या वो, क्या वो मार्ग है? रसातल का?
अब उबलने लगा दिमाग मेरा! खौलने लगा मेरा मस्तिष्क का लहू, मस्तिष्क में! ये.......ये है क्या? क्या कोई ऐसा भी है? आज भी?
मैं पलटा! खड़ा हुआ! देखा उसे! वो मुस्कुरा रही थी! मंद मंद!
मैं थोड़ा आगे आया, वो थोड़ा सा पीछे हटी!
"तो तुम, सब जानती हो!" कहा मैंने,
"सब नहीं!" बोली वो,
"आरम्भ से ही जानती थीं!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"तुमने झूठ बोला?'' कहा मैंने,
"कदापि नहीं!" बोली वो,
"तुम्हें सब पता था?" कहा मैंने,
"क्या?'' पूछा उसने,
''ममता के विषय में?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"फिर से झूठ?" कहा मैंने,
"मैं झूठ नहीं बोलती!" बोली वो,
"नहीं! तुम बोलती हो! अब भी, पता नहीं, सच है या झूठ?" कहा मैंने,
"समय नहीं है! है न?" बोली वो,
"हाँ! सच है!" कहा मैंने,
"मैं ही हूँ बस! है न?'' बोली वो,
"हाँ, पता नहीं, मेरा दुर्भाग्य या सौभाग्य!" कहा मैंने,
"ये तो मुझे भी नहीं पता!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"आज पहली बार देखा!" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"तुम्हें यहां!" बोली वो,
"पहली बार?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"क्या कह रही हो?" पूछा मैंने,
"झूठ नहीं कहती!" बोली वो,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"एक बात कहूँ?" बोली वो,
''हाँ?" कहा मैंने,
"पुनः आ सकोगे?'' पूछा उसने,
"किसलिए?' पूछा मैंने,
"मेरे लिए?" बोली वो,
"कारण?" पूछा मैंने,
"आनंद?" बोली वो,
''आनंद?'' पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"कैसा आनंद, भला?" पूछा मैंने,
"कुछ समय ही तो शेष है?'' बोली वो,
"किसमे?" पूछा मैंने,
''एक होने में?" बोली वो,
'कैसा एक?" पूछा मैंने,
''नहीं जाने?" बोली वो,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
"लगता तो नहीं?" बोली वो,
"क्या??" पूछा मैंने खीझ कर,
"कि जाने नहीं?" बोली वो,
"तुम्हें जानने के फेर में, शायद हो ही जाऊं विक्षिप्त!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"तुम क्या जानो?" कहा मैंने,
''वो सब?" बोली वो,
"क्या सब?" पूछा मैंने,
"जो तुम नहीं जानते?" बोली वो,
"बताती कहाँ हो?'' पूछा मैंने,
"तो खुलो?'' बोली वो,
मैं बढ़ा आगे! अब नहीं वो हटी पीछे! मैंने उसके बाल पकड़े, सीधी तरफ से, उमेठा दिया उनमे, और खींच लिया अपनी तरफ!
"हाँ! थोड़ा और!" बोली वो,
दोनों हाथ उठाकर, एक अति-कामुक सी, अंगड़ाई भरी! अति-कामुक! मेरे शब्दों पर ध्यान दीजियेगा, चूक न हो, कोमा जैसे होंगे, तो भी समझना होगा! नहीं समझ पाये, तो कुछ नहीं आएगा समझ मित्रगण!
मैंने और खींचा अपनी तरफ उसे! वो खिंची, मेरी गरदन की तरफ, चेहरा ऐसा खींचा मैंने, कि मेरी गरदन से उसके होंठ छू गए! होंठ खुले, तो मेरे गले की, बायीं तरफ की हाँसुल को, चाटा उसने! उसके जिव्हा के रन्ध्रांशों को, साफ़ साफ़ महसूस किया मैंने! और सच कहता हूँ, मेरी आँखें, पल भर को बंद हो गयीं!
"बस!" निकला मेरे मुंह से,
"न!" बोली, सांस छोड़ते हुए!
"नही!" कहा मैंने,
"मैं, बढ़ चली!" कहा उसने,
"लौटो!" कहा मैंने,
"नहीं सकती!" बोली वो,
"सकना होगा!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"नाह!" कहा मैंने,
"रोको नहीं!" बोली वो,
मैं बोल न सका! एक अजीब से आनंद में सराबोर हो उठा था! ना में कसक, और हाँ में दोगुनी कसक!
"रुको......." कहा मैंने,
"नाह!" बोली वो,
"रुक जाओ!" अब सांस में बोला!
"मत रोको!" बोली वो,
"नहीं...रुको!" कहा मैंने, और हटाने की कोशिश की फिर उसका, चेहरा! लाल सुर्ख हो चले थे उसके होंठ, आँखों में जैसे, अजब सा, गुलाबी, शीरा उतर आया था उसकी! रंग, चमक उठा था, भवें, सख्त हो चली थीं, अर्ध-चन्द्र सा रूप ले चली थीं! आँखें, काम-सलिला से भर चली थीं! होंठों के कनिआरे से, काम-मधु टपकने लगा था! जी किया! हाँ, क्यों छिपाऊं? जी किया मेरा! बहुत! शायद, बहुत ही ज़्यादा!
"भय में?'' बोली वो,
"पूर्ण करो?" कहा मैंने, मैं लरजा ये कहते हुए!
''आस्वादन कैसा तीक्ष्ण लगता है न?'' बोली वो,
"हाँ! हां! सच कहा! सच कहा तुमने!" कहा मैंने, और भर लिया उसे बाजूओं में!
"मैं, खुलने लगी हूँ!" बोली वो,
"मैं भी!" कहा मैंने,
और उसको देह का, ऐसा कोई 'गुम्मट' न बचा था, जिसे मैंने न टटोला हो! मैं आवेग में था! आवेग! वेगपात से पीड़ित हो चला था! क्या हो रहा है, क्या नहीं? कुछ नहीं पता! नेत्र खोलूं तो उसकी देहायष्टि फूंके, बंद रखूं तो खुद अंगार होऊं!
"ये क्या है?'' पूछा मैंने,
''अक्षण-क्षरण!" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"लाँघो!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तत्क्षण!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और मैंने उठा लिया उसे! उसको, उसको उसके नितम्बों से उठा लिया था, उठाकर रखा था उसे, मैंने, उसी अवस्था में! देखे जा रहा था! देखे जा रहा था इस 'हक्ष्णा' को! हाँ, इस 'हक्ष्णा' को! जो मुझे, अक्षण-क्षरण के, नए मायने सीखा रही थी! क्या, अभी भी कुछ रिक्तांश है मुझ में शेष? हाँ! है! तभी तो! तभी तो इस 'हक्षिता' ने, इस प्रकार, द्रव्यालोलुप हूँ मैं, इस से साक्षात्कार करा दिया!
"भय?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
''शेषण?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"सुलोमिकता?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
उसने आह भरी! चिहुंक उठी! मुझसे लिपटने को, जैसे उसका बदन तड़प उठा हो, ऐसे देह में कड़ाव आ गया उसके!
"मैं रिक्त हूँ? है न?'' पूछा उसे,
"हाँ!" कहा मैंने,
"है न?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
''सही कहा था न मैंने?'' बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और तब, छोड़ा मैंने, उछाल उसे, वो झट से, चिपक गयी मुझ से! झट से! जैसे, कोई इकहरी सी वनलता, किसी वृक्ष के तने से जा लिपटती है, उसको घेरे में लेते हुए!
"है न फ़र्क़?" पूछा उसने,
अब मैं, कुछ न बोलूं, क्या बोलूं? नहीं बोलूं, तो चुप कैसे रहू? चुप ही रहूँ, तो भला कैसे? अब पता होना, एक अलग बात, जान कर चुप होना, बड़ी मुश्किल!
"है न?" बोली वो,
"अ...हाँ! फ़र्क़ तो है!" कहा मैंने,
''अब तक क्यों?" पूछा उसने,
एक गड्ढे से निकला नहीं, कि दूसरे में गिरा! अब किसे बुलाऊँ? निकलूं, तो कैसे निकलूं? और दीगर बात ये, कि निकलना भी चाहूँ या नहीं?
"गयी वो?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
मैं फिर से चुप!
बात ही तो टाली थी, ख़ारिज़ थोड़े ही ना की थी!
"अब तक, क्यों?" पूछा उसने,
और नीचे उतरी वो फिर! बैठ गयी नीचे, मुझे भी, खींचने की कोशिश की, तो मैं भी बैठ गया! पता नहीं, कभी कभी, कटने का भी मन करता है! पता नहीं क्यों? तो यहां कटना था? हाँ! क्यों नहीं! कटना तो था ही! बस, फ़र्क़ इतना, कि किस क़दर कटा जाए!
क्या मेरे? मेरे अपने! स्वयं के ही! उसके क्यों? और उसके, भला मैं क्यों देखूं? मुझे क्या फिक्र? हाँ, तो क्या मेरे, मनोभाव, पलटने लगे हैं? क्या कोई, ऐनक पहन लिया है मैंने? दीख तो सब रहा है, लेकिन वही सब क्यों दीख रहा है, जैसा मैं चाहता हूँ? यही तो फ़र्क़ है न? या हो क्या रहा है? क्या मैं, खेल रहा हूँ? खेल, खुद से ही, खेलकर? ये क्या है? क्या हो रहा है? खेल भी मेरा? खिलाड़ी भी मैं? किसके साथ? अपने साथ? नहीं तो? तो फिर? किसके साथ? अब देखा उसे, झाँका आँखों में उसकी! उसकी, भड़कीली सी आँखों में, झाँका मैंने! ओह! कैसा गहरापन! कैसा शांत! शांत समंदर! शांत! तूफ़ान बस, मेरे अंदर! तूफ़ान? क्या? सही शब्द प्रयोग किया मैंने? तूफ़ान ही न? अर्थ पता है तूफ़ान का? पता है? लौट नहीं सकता ये वापिस! जानते हो न? हाँ! जानता हूँ! लौटना? और, लौटना? कौन चाहता है अब? कौन? मैं? नहीं जी! बिलकुल नहीं!
"सुनो?" कहा मैंने,
"कहो?" बोली वो,
''वो...बन......??" कहते कहते रुका मैं!
शायद, तूफ़ान में, कोई व्योम शेष था अभी!
"बना लो! तैयार हूँ!" बोली वो,
हाय! कैसा लाल! कैसा लाल हुआ मैं! कैसे खून छलका चेहरे पर! कैसे कह गया? कैसे?
"मना किया?'' बोली वो,
"किसने?" पूछा मैंने,
शब्दों को आवरण, क्यों देते हो! क्यों छिपाते हो! क्यों भला! खुल जाओ! खुल जाओ! इसी क्षण! अभी! बिना विलम्ब!
कैसी घोर विडंबना! कैसी घोर! आधे से अधिक संसार तो, विडंबना में ही जी रहा है! क्यों मित्र अतृप्त? क्यों कुमार साहब? क्यों वक़ील साहब? ये, सत्य है या नहीं? जी रहा है न? और जो शेष बचे हैं, वो भ्रम के शिकार हैं! भ्रमित हैं! बताएं? सोचें? और!! बताएं! ये, सत्य है या नहीं?
तो, उस क्षण, मैं भी इसी विडंबना में था! खैर, मैं तो असहाय था! असहाय! सामने है भी, मना कर रहा था! सामने न होता, तो शायद, स्वीकार्य होता! सामने और समाने! एक मात्रा का ही तो फ़र्क़ है? है न? मात्रा एक ही मात्रा! और उसको, इस मात्रा को, इधर से, उधर ले जाने में, कैसी अपार! कैसी घोर विडंबना! धर्म-संकट तो नहीं कहूँगा! यथार्थ-संकट कह सकता हूँ! है या नहीं मित्रगण!
"बोलो?" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"तैयार हो?" बोली वो,
"हूँ तो..." कहा मैंने,
''और नहीं भी!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तोडूं?' बोली वो,
"ना!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उसने,
"टूट जाऊँगा!" कहा मैंने,
"जानती हूँ!" बोली वो,
मैं फिर से चुप!
"इसीलिए तो, पूछा!" बोली वो,
"गलत पूछा!" कहा मैंने,
'सही समझी मैं?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ये रात..." बोली वो, और चुप हुई!
"हाँ! हाँ! बोलो!! बोलो, ये रात??????" मैं, उदिग्न सो होकर, पूछ बैठा था ये प्रश्न! एक ही, सांस में!
"भूलने योग्य नहीं न?'' बोली वो,
"जीवित तो हैं न?" बोला मैं,
"प्रयास है!" बोली वो,
"तुम भी?" पूछा मैंने,
"नित्य ही!" बोली वो,
"क्या? ये क्या कह रही हो?" पूछा मैंने,
"दो बार, क्यों पूछते हो?" बोली वो,
"कब पूछा?" पूछा मैंने,
"सोचते हो पहले?'' बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
''तो दो बार हुए ना?" बोली वो,
"हाँ, दो बार!" कहा मैंने,
"और मुझे?' बोली वो,
मैं झन्न!
"क्या?'' पूछा मैंने,
"मुझे?'' बोली वो,
"क्या मुझे?" पूछा उसने,
"साधन भी न समझा ना?" बोली वो,
"ऐ??" बोला मैं गुस्से से, और पकड़ लिए सामने से केश उसके!
उसने मुस्कुरा के देखा! वो मुस्कुराहट, छील गयी मेरा अस्तित्व!
"क्या बोला तुमने?' मैंने गुस्से से पूछा,
"बनाया न? कह दो?" बोली वो,
छोड़ दिया! छोड़ दिया उसे, एक ही बार में, सुन कर, उसका ये, उत्तर!
"बनाया न?" बोली वो,
मैं चुप रहा! कीलें! कीलें ठोके जा रही थी, माथे में मेरे! बार बार! एक एक शब्द की, एक एक कील!!
"बोलो न?? बोलो?" बोली वो,
"क्या?" मरी सी आवाज़ में पूछा मैंने,
"बनाया न?'' पूछा उसने,
"मेरे उत्तर का क्या औचित्य?'' पूछा मैंने,
''एक तो कम होगा?' बोली वो,
"क्या कम होगा?' पूछा मैंने, अबकी बार, हैरत से!
"अवरोध!" बोली वो,
"ये क्या क्या कहे जा रही हो तुम?" बोला मैं,
"कंचन! कंचन बोलो मुझे!" बोली वो,
खाया एक और झटका!
"क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ, कंचन!" बोली वो,
"कंचन?' बोला मैं,
"हाँ!" बोली वो,
"कौन कंचन?" पूछा मैंने,
"तेज हो!! बहुत तेज!" बोली वो,
"बताओ ना? कंचन?" पूछा मैंने,
आगे हुई, घूमी, और मेरे घुटनों पर, सर रख कर, लेट गयी! फिर मुझे देखा, मोटी मोटी आँखें फैला कर! हाथ रखा, मेरे होंठों पर! उठी ऊपर, और चूमी मेरी चिबुक! फिर से लेट गयी! आँखें बंद कीं अपनी!
"जानते हो?" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
'आपने.उत्तर नहीं दिया!" बोली वो,
"किसका?" पूछा मैंने,
"मेरे प्रश्नों का!" बोली वो,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
"कहाँ?" बोला मैं,
"अभी तो?'' बोली वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"बना लो?" बोली वो,
मैं चुप! फिर से! क्या बोलूं!
हंस पड़ी वो! खिलखिला कर और..................!!
"चुप?" बोली वो,
"हूँ!" कहा मैंने,
"जान कर भी?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"चुरा लूँ तो?" पूछा उसने,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"बोलो?'' बोली वो,
"देख लो?" कहा मैंने,
"देखा ही तो नहीं!" कहा उसने,
"हाँ, सच!" कहा मैंने,
"देखना चाहोगे?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
फिर से हंसी! इस बार, हल्के से!
"कैसा लगता है न?" बोली वो,
"कब?" बढ़ाया मैंने आगे प्रश्न,
"जब?" बोली वो,
"कब, जब?" पूछा मैंने,
"जब, सबकुछ सामीप्य में हो और!" कहते कहते रुकी!
"और?" पूछा मैंने,
"सामीप्य में, फांसला हो?" बोली वो,
"फांसला?" पूछा मैंने,
"हाँ? नहीं क्या?'' बोली वो,
"फांसला या दूरी?" पूछा मैंने,
अब झट से उठ खड़ी हुई! दोनों हाथों में चेहरा भर लिया मेरा! आँखें नचाईं अपनी, कभी बायीं आँख देखे मेरी और कभी दायीं! कभी होंठ और कभी माथा!
"दूरी?'' बोली धीरे से,
"हाँ?" कहा मैंने,
"दूरी क्यों?" पूछा उसने,
"फांसला क्यों?" पूछा मैंने,
"थोड़ा सा!" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोली वो,
"तिनका भर, लेकिन पहाड़!" कहा मैंने,
"ऐसा मत कहो............नहीं......ऐसा मत कहो...........मुझे मार दो..........देखो.....देखो......मुझे मार दो, गला घोंट दो........लेकिन..........ऐसा मत कहो.....मत कहो.....!" गिड़गिड़ाते हुए से बोली वो,
"गलत पारिभाषित तो नहीं किया?'' कहा मैंने,
"उचित भी नहीं?" बोली वो,
"क्या कहूँ फिर?'' पूछा मैंने,
"कुछ ऐसा, कि, मुझे दाह न हो!" बोली मेरे गाल पर, चिकोटी सी काटते हुए!
मैं हल्का सा हंसा!
"बोलो?" बोली वो,
"अपना, बस अपना?'' पूछा मैंने,
"नहीं तो?" बोली वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"सिर्फ अपना? अर्थहीन है!" बोली वो,
"कैसे हो सार्थक?'' पूछा मैंने,
"सम्भव है!" कहा उसने,
"कैसे?'' पूछा मैंने,
"पहाड़, लोप होना चाहिए!" बोली वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"विश्वास!" बोली वो,
"नहीं लगता!" कहा मैंने,
''सो है नहीं!" बोली वो,
"है, लेकिन.....?'' कहा मैंने, और रुका!
"लेकिन?" बोली वो,
अब न बोला मैं कुछ! खुद के खोदे हुए गड्ढे में ही गिर न पड़ता!
"लेकिन के लिए....." बोली अब नज़रें बचाते हुए,
मैं अब भी कुछ न बोला!
कितना अजीब होता है न! प्रतीक्षा, अपने 'समर्थन' में कुछ शब्द सुनने की प्रतीक्षा! कुछ शब्द! बस, कुछ ही, यूँ तो, एक सांस भी, मोहर चस्पा कर दिया करती है 'हाँ' में! फिर भी! कोई गुरेज़ नहीं! कितना अजीब!
तो कुछ ऐसा ही! कुछ, ऐसा...ही.था इस समय! इस लम्हे! इस रात में, कुछ लम्हे, जैसे फंस के रह गए थे, जैसे कोई जुगनू, फंस जाता है, किसी कंटीली झाड़ी में, निकलने को बेचैन! और तेज टिमटिमाने लगता है! और होता क्या है? मादा आकर्षित हो जाती है दूर से देख कर, और बेचारी, वो भी, फंस के रह जाती है! भोर के समय, पहली रश्मि ही...अंत की लौ सुलगा दिया करती है उनके लिए! किसी के लिए, भोर, अंत की भोर हुआ करती है! कितना अजीब! उफ्फ्फ! क्या कहूँ!
"हूँ?" मैंने फिर से, खटखटाया अपना ताबूत!
"लेकिन के लिए, अभी भी जगह शेष है?" पूछा उसने,
"क्या कहूँ?'' बोला मैं,
"जो, हो!" बोली वो,
"क्या हो?" पूछा मैंने,
"सच?" बोली वो,
"कोई जगह नहीं शेष!" कहा मैंने,
"तो लेकिन भी नहीं ना?" बोली वो,
"हाँ, देखा जाए तो!" कहा मैंने,
"और कोई, देखे ही न जो?" बोली वो,
"तब विवश किया जाए!" कहा मैंने,
"आह! मेरे बदन में कुछ हुआ है!" बोली वो,
मैं चुप! अब चुप रहना ही ठीक था!
मन में, अंदर ही अंदर, मैं हंसा! उस पर नहीं! अपने आप पर! आप समझ सकते हैं कि क्यों हंसा! लेकिन भीरु भी तो था! सामने नहीं हंस पाया! इसीलिए, हंसी और गहरी थी! मूर्खता के सिवाय कोई और शब्द हो, तो सहर्ष स्वागत है उसका, स्वागत करूंगा सर झुका कर!
और फिर देखिये! हुआ क्या!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"कुछ हुआ है!" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"इतने अनपढ़ तो नहीं आप?" बोली वो,
एक तमाचा ही था ये! ये उसके ये, शब्द!
"इसमें?' पूछा मैंने,
"आँखें नही पढ़ते?'' बोली वो,
"पढ़ता हूँ!" कहा मैंने,
"मेरा तो बदन पढ़ा था तुमने?" बोली वो,
ओह!! पेड़ सा टूट पड़ा! आवाज़, कानों को चीरती चली गयी!
"नहीं पढ़ा था?" पूछा उसने,
अब कैसे छिपाऊं?
"हाँ, पढ़ा था, चोरी से!" कहा मैंने,
"पढ़ने दिया! जानबूझ कर!" बोली वो,
"सच?" पूछा मैंने,
"हूँ!" बोली वो, अंगड़ाई तोड़ते हुए!
"चाहते भी हो, और मना भी करते हो?" बोली वो,
"क्या करूँ!" अब हंस के बोला!
रंगे हाथ जो पकड़ा जाए, सो छिपाए कैसे!
"लेकिन, मना...में?" बोली वो,
"हाँ?" पूछा मैंने,
"मना में, वजन नहीं है!" बोली वो,
"मानता हूँ!" कहा मैंने,
"तब भी?" बोली वो,
"यही तो समझ नहीं पा रहा हूँ!" कहा मैंने,
"समझते तो....अब हो तुम?" बोली वो,
"कैसे पता?'' पूछा मैंने,
"मना क्यों नहीं करते?'' बोली वो,
"अब...ब.....कैसी मना?'' पूछा मैंने,
हंसी, हल्की सी, एक षड्यंत्र भरी सी हंसी!
सामने आई, मुझे गौर से देखा, अब कि....अब कि बार मैंने...नज़र बचाई! बचानी पड़ी..चूँकि मैं तो जानता था कि क्या मना नहीं करता!
"जानबूझ कर न?'' पूछा उसने,
गहरा कर दिया! मेरा ज़ख्म, जो छिपा कर रखा था, उलीच दिया! सही जगह चोट की थी! एकदम सही जगह!
"बोलो ना?'' बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ओह......मेरे बन जाओ?" तपाक से बोली,
"नहीं!" उत्तर दिया, मैंने भी, तपाक से ही!
"मुझे बना लो?'' कहा उसने,
"किसलिए?'' पूछा मैंने,
"मुझे खुलना है!!" बोली वो,
"तो खुल जाओ?'' कहा मैंने,
"पराग नहीं है!" बोली वो,
"ये क्या कह जाती हो तुम?" बोला मैं,
"सच में? नहीं है?" बोली वो,
"तो?" कहा मैंने,
"कैसे बताऊँ?" बोली वो,
"बताओ?'' कहा मैंने,
"कैसे?" पूछा उसने,
"जैसे भी?' कहा मैंने,
"जो, तुम समझ सको?'' बोली वो!
क्या बेहतरीन अलफ़ाज़-अदायगी थी उसकी! सुनने वाला भी पस्त और समझने वाला, हमेशा के लिए मस्त!
"समझता तो मैं सब हूँ!" कहा मैंने,
"अपने आप में ही!" बोली वो,
"अपने आप में ही?" पूछा मैंने,
''टटोलो?" बोली वो,
"क्या?' पूछा मैंने,
"अंतः!" बोली वो,
"क्यों भला?'' पूछा मैंने,
"तभी तो बाहर आओगे?" बोली वो,
"अभी भी हूँ?" कहा मैंने,
"ना!" बोली वो, सर हिलाते हुए!
"फिर?" पूछा मैंने,
"छिपाए हो!" कहा उसने,
"हाँ! सच!" कहा मैंने,
"मुझ से नहीं!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"खुद से!" बोली वो,
मैं हैरान! कैसे मेरे अन्तःमन पर लिखे एक एक शब्द को बांचे जाती थी वो! बिना अटक के, बिना झिझक के! बिना, परिशुद्धन के!
"तुम बहुमूल्य हो!" कहा मैंने,
"हाँ, हूँ!" बोली वो,
"तुम सरस हो!" कहा मैंने,
"हाँ, हूँ!" बोली वो,
"तुम विशेष हो!" कहा मैंने,
"हाँ, हूँ!" बोली वो,
"तुम, तुम हो!" बोला मैं,
"हाँ! हूँ!" कहा उसने,
"और मैं?" पूछा मैंने,
"अब शेष कहाँ?'' बोली वो,
"कौन सा शेष?" पूछा मैंने,
"सार्थक हुआ न?'' पूछा उसने,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"प्रयास?'' बोली वो,
"कैसा प्रयास?" पूछा मैंने,
"जानने का?'' बोली वो,
"किसे?" पूछा मैंने,
''एक साथ, तीन खेल खेले ना तुमने?" बोली वो,
"खेल?" पूछा मैंने,
"हाँ?'' बोली वो,
"कैसे खेल?" पूछा मैंने,
हंस पड़ी वो! खिलखिलाकर! और अचानक ही!
''श्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह!" बोली वो,
"लेट जाओ!" बोली धीरे से,
मुझे पीछे धकियाते हुए, मैंने आहिस्ता से पीछे लेट गया! मेरे साथ ही, आ कर, लेट गयी वो भी! हाथ रख लिए मेरे ऊपर,
"श्ह्ह्ह्ह्ह!" फिर से बोली, बाहर देखते हुए!
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने धीरे से! फुसफुसाते हुए!
"जाग गया!" बोली वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"जागा है अभी!" बोली वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"रुको!" बोली वो,
मैं चुप लगा गया फिर!
"सुनो" बोली वो,
और इशारा किया उसने बाहर की तरफ! मैंने कान लगाये बाहर अपने, लगा कि जैसे कोई, मिट्टी खोद रहा हो, बाहर, चौखट के ही, बैठ कर! हाथों से खोद रहा हो, ऐसा लगा!
"ये कौन है?'' पूछा मैंने,
"शिशु!" बोली वो,
"शिशु?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"वही?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"मिट्टी?'' कहा मैंने,
"हाँ, हाथों से!" कहा उसने,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"अंदर आने को!" बोली वो,
"अंदर? यहां?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"लेकिन उसके हाथ?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"क्या हां?'' पूछा मैंने,
"श्ह्ह्ह्ह्ह्ह!" फिर से चुप रहने को कहा उसने!
मैं चुप फिर से! कुछ समझ नहीं आ रहा था, हाथ उसके थे नहीं, तो मिट्टी? और शिशु, मिट्टी खोद रहा था? बाहर, चौखट के? क्या है ये?
"सुनो?" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"मेरे ऊपर आओ, अभी!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"सवाल नहीं!" बोली वो,
और मैं, लेट गया उसके ऊपर! उसने, जकड़ लिया मुझे! कस कर! मेरी गर्दन से! उस पल, सब समझ से बाहर मेरी! क्या हो रहा था, किसलिए? ये सब, आखिर था क्या? सब समझ से बाहर!
"कंचन?" बोला मैं,
"हूँ?" दिया जवाब उसने,
"ये सब, है क्या?'' पूछा मैंने,
"जान जाओगे!" बोली वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"जल्दी ही!" बोली वो,
"सच बताना?" कहा मैंने,
"सच ही कहा?" बोली वो,
"बाहर, कौन है?'' पूछा मैंने,
"ममता!" बोली वो,
"और?'' पूछा मैंने,
"उसका शिशु!" बोली वो,
"मान लिया? ऐसा, रोज होता है?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"जब मैं यहां होती हूँ!" बोली वो,
"यहां?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
"कब कब होती हो?'' पूछा मैंने,
"जब भी!" बोली वो,
"जब भी? लेकिन होती क्यों हो?'' पूछा मैंने,
"ममता के कारण!" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"रुको, हटो ज़रा?'' कहा मैंने,
"मैं या तुम?'' बोली वो,
"ओ हाँ!" कहा मैंने,
भूल गया था मैं, खो गया था मैं, भटक गया था मैं!
और मैं, आहिस्ता से, उतर गया उस पर से! बगल में लेट गया, वो घूमी, और अपनी जांघ मेरी कमर में डाल दी, जैसे, मैं कहीं भागने वाला ही न होऊं!
"इस ममता का, और तुम्हारा? क्या संबंध?'' पूछा मैंने,
"मेरा नहीं!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"उसका!" बोली वो,
"हैं?'' अचरज से पूछा मैंने,
"तुम्हारा नहीं, उसका? क्या मतलब हुआ?" पूछा मैंने,
"हाँ, उसका!" बोली वो,
"मुझे समझाओ?" कहा मैंने,
"शिशु दफन किया था न?" बताया उसने,
"तो?" पूछा मैंने,
"इसीलिए तो?'' बोली वो,
"शिशु क्या मृत हुआ था?'' पूछा मैंने,
"नहीं, दांत वाला, केश वाला!" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"हाँ, ठीक वैसा ही!" कहा उसने,
"प्रसव कब हुआ था, कहाँ?" पूछा मैंने,
"इस कक्ष में, रात्रि को!" कहा उसने,
"रुको! प्रसव यहां हुआ, शिशु पैदा हुआ, विकृत था, उसे मार डाला दफन कर, यही?" पूछा मैंने,
"मैंने नहीं मारा!" बोली वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"ममता ने!" बोली वो,
"मान लिया, फिर ये, कैसे बदली?" पूछा मैंने,
"ममता बताएगी!" बोली वो,
"मम................? क्या?" मेरे मुंह में शब्द अटके!
"हाँ वो बताएगी!" कहा उसने,
होश उड़ गए! हवा हो गए!
"अब, भला वो क्यों बताएगी?" पूछा मैंने,
"जब तुम संन्सर्ग करोगे उसके साथ?'' बोली वो,
"मैं? संसर्ग?" पूछा मैंने,
"हाँ, संसर्ग!" बोली वो,
"मैं क्यों?" पूछा मैंने,
"यही तो होगा?'' बोली वो,
"होगा?" पूछा मैंने,
"हाँ, यही होगा!" बोली वो,
"कैसे होगा?'' पूछा मैंने,
''ममता से बात कर?'' बोली वो,
"मैं क्यों बात करूंगा उस से?" पूछा मैंने,
"करोगे!" बोली वो,
"मैं करूंगा?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"मैं तो सुबह होते ही भाग लूंगा!" कहा मैंने,
"सुबह होगी कहाँ?'' बोली वो,
"क्या???????" पूछा मैंने,
"हाँ, मेरी सुबह तो खत्म!" बोली वो,
"तुम्हारी तो?' बोला मैं,
"तुम्हारी भी!" बोली वो,
"क्या कहती हो?" पूछा मैंने,
"देखना!" बोली वो,
"क्या मतलब हुआ इसका?' पूछा मैंने,
"सुबह खत्म हो जायेगी, होना!" बोली वो,
"फिर?'' कहा मैंने,
"रात, बस रात!" बोली वो,
"तुम्हारे लिए, उस ममता के लिए!" कहा मैंने,
"अब तुम्हारे लिए भी!" बोली वो,
"कैसे मान लूँ?" कहा मैंने,
"बताऊँ?" बोली वो,
"हाँ?'' कहा मैंने,
"आओ!" बोली वो,
और उठ बैठी!
"कहाँ?" पूछा मैंने,
''आओ तो?'' बोली वो,
"चलो!" कहा मैंने,
वो गयी खिड़की के पास! सर किया ऊपर! बाहर, घुप्प अँधेरा! गहरा अन्धकार! हर कण में व्याप्त था वो गहरा अन्धकार!
सर किया उसने ऊपर!
"वो देखो!" बोली वो,
मैंने ऊपर देखा! और जैसे ही देखा, मैं घबरा गया! पसीने छूट गए मेरे! मेरे अंदर की जैसे जान सारी निकलती चली गयी! समझ तो रहा था, लेकिन था क्या, नहीं बोला रहा था!
''वो क्या है?'' पूछा मैंने,
"कांति-वेला!" बोली वो,
"कांति-वेला?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"वहाँ?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"और हम कहाँ हैं?'' पूछा मैंने,
"नहीं पता?'' पूछा उसने,
"नहीं?" कहा मैंने,
"कुँए में!" बोली वो,
काठ हुआ ये सुन कर मैं! हिम जैसा! बस, टूट कर ही शिथिलता खोऊँ तो खोऊँ! अब समझा, वो कांति-वेला थी क्या! सुबह, भोर से पहले का आकाश! जब आकाश में, सूर्य के आमंडल की आभा उसका श्रृंगार सा कर दिया करती है! और जो मैंने देखा, स्थान, जहां ये कांति-वेला, केंद्रित थी, एक वृत्त के रूप में, वो शायद, मुंह था, उस गहरे कुँए का!
लेकिन? क्या? ऐसा सम्भव है?
भौतिकि तो कहती है नहीं! फिर? फिर क्या है?
"कंचन!" कहा मैंने,
"हूँ?" बोली वो, अभी ऊपर ही देख रही थी!
भोली सी बनकर! मासूम सी बन कर! उसने उत्तर दिया था!
"इधर देखो!" कहा मैंने,
उसने नीचे देखा, और फिर मुझे!
और मैंने, तब, खींच कर एक चांटा मारा उसके सीधे गाल पर! वो, लड़खड़ायी और गिर गयी नीचे! जी तो किया, दो-चार लात और जमा दूँ! वो गिर पड़ी थी, औंधी पड़ी थी, मुंह से एक आवाज़ न निकली थी, बस, मेरे चांटे की आवाज़ गूँज उठी थी!
"मेरे मस्तिष्क से बाहर निकलो? अभी?" कहा मैंने,
समझा दिया था अपना आशय उसे! अपने पाँव से, उसको धकेलना चाहा, नहीं धकेली गयी, मैं नीचे बैठा, झुका, और उसके कंधे को पकड़ा, धकेलने के लिए!
मैंने कंधे से पकड़ा उसको! जैसे ही पकड़ा, मुझे जैसे, अपने अंदर ही, एक झटका सा लगा! उसका बदन, जैसे ज्वर-ग्रसित था, गरम, जैसे, तेज बुखार हो उसे! मैंने झटके से उसको पीछे किये, चेहरे पर, केश आये हुए थे, हटाये, तो कान से लेकर, उपरले होंठ तक, खून की एक लकीर बनी थी! मैंने अपनी ऊँगली उसके नथुनों पर छुआई, साँसें चल रही थीं! तो क्या बेहोश थी वो? एक चांटे में ही होश गंवा बैठी थी? मैंने, हाथ से, उसका वो खून पोंछा, और तब देखा, उसके कान की लड़, नीचे से फट गयी थी, ज़्यादा तो नही, हल्की सी, वहीँ से खून रिस रहा था, मैंने दबा कर रखा उसे, लेकिन उसने अभी तक, आँखें न खोलीं थीं!
"कंचन?" बोला मैं,
अब जैसे, मुझे अफ़सोस हुए जा रहा था, वो बकड़-बकड़ करने वाली, चुप न बैठने वाली, पल पल मुझे छानने वाली, नीचे गिरी थी! उस पल, जैसे मैं सच में अकेला पड़ गया था, अकेलापन बेहद ही खतरनाक हुआ करता है! और वो तो रात थी! बाहर, क्या था, कुछ आभास नहीं था! मुझे उसको देख देख, अफ़सोस हुए जा रहा था! मैं चौकड़ी मार, नीचे बैठ गया! उसके बालों में हाथ फेरा, खून फिर से रिसा, तो इस बार, रुमाल से मैंने उसका कान दबाया! सफेद रग के रुमाल में, छींटा एक मोटा सा, उभरा, फैला, और फिर स्थायी सा हो, रुक गया फैलना!
"कंचन?" मैंने पुकारा,
बेचैनी हावी होने लगी थी मुझ पर! न जाने क्यों, उस पल, मुझे उसकी देह के हर कोने से, उसके उस, हरे रंग के वस्त्र से भी, जिसमे उसकी सुंदर, कोमल सी देह लिपटी हुई थी, प्रेम सा होने लगा था!
"कंचन?'' मैंने फिर से पुकारा!
कोई हरकत नहीं की उसने! वो, वैसी ही लेटी रही! शांत, चित-हीन सी, मेरे मन में, बेचैनी, पल, पल, बढ़ती जाए! मुझे जैसे वो सन्नाटा, वो अकेलापन, जैसे, रह रह कर, चिकोटी काटे! मैं कभी उसको देखता, कभी उसके केश सहलाता, कभी उसका हाथ थाम लेता, कभी उसके कंधे को दबाता! क्या करूँ? जल भी तो नहीं, क्या करूँ? उहापोह! जी करे, उठा लूँ उसे! बातें करे मुझ से! भले ही, बे-सर-पैर की! करे तो सही!
"कंचन?" मैंने धीरे से कहा,
नही! कोई हरकत नहीं! मैंने सीधा किया उसे, उठाया उसको, और उसका सर, अपने घुटने पर रख लिया, माथा पोंछा उसका, केश, कानों के पीछे खोंसे, उसके कान की लड़ देखी, रुमाल हटा कर, अब खून नहीं रिस रहा था!
"कंचन? उठो? उठो कंचन?" मैंने जैसे, इस बार, गिड़गिड़ाया,
नहीं हिली वो, मेरे शब्द पहुंचे नहीं उसके कानों में! मैंने दो तीन बार फिर से पुकारा लेकिन कोई उत्तर नहीं मिला! मैं उठा, उठा तो देखा, उसके पाँव के पास से, वस्त्र हट गया है, नीचे हुआ, और ठीक किया उसे, कोई बात नहीं, कुछ भी सही, कुछ भी, अभी तक संग थी मेरे, थी क्या? है, हाँ है! कोई बात नहीं, आने दो होश! मैंने उसको वहीँ छोड़ दिया! तभी, दीये की रौशनी टिमटिमायी, जैसे, दिया अपने मंगल होने के समय, करने लगता है! मैं चला दीये के पास, उसमे झाँका, दीये में अभी, तेल बाकी था, चलता अभी संग संग मेरे!
मैं आया फिर से एक बार, कंचन के पास, कंचन, जस की तस वैसे ही लेटी थी, जैसा छोड़ा था उसे! मन में चिंता थी, थी क्या? हाँ! थी! चिंता तो थी मन में, सो, बैठ गया एक बार फिर नीचे, चौकड़ी मार! और उठाया उसको! रखा सर अपने घुटने पर, केश फिर से ठीक किये, कान की लड़ देखी, अब खून नहीं निकल रहा था!
"कंचन?" कहा मैंने,
और तभी, बाहर एक दीवार के साथ ही, जैसे कोई आ खड़ा हुआ हो! जैसे कोई, सेंध मारने की फ़िराक में हो!
"आओ! आ जाओ बाहर!" आई एक आवाज़!
और ये आवाज़ सुन, मैं चौंक पड़ा! ये आवाज़, हू-ब-हू, कंचन जैसे थी! मेरी नज़र कंचन पर गयी, वो जस की तस! आँखें बंद! ढुलकी हुई!
''आओ! आ जाओ! मैं बाहर हूँ!" बोला कोई, कंचन की आवाज़ में!
मैंने, कंचन के सर को, आहिस्ता से नीचे रखा, और चला दीवार की तरफ! कान लगाये, कुछ पल, कोई हरकत नहीं हुई, और फिर से आवाज़ गूंजी!
"आ जाओ?" आई आवाज़!
"कौन हो तुम?'' पूछा मैंने,
"कंचन!" आई आवाज़!
कंचन?
ये कैसे हो सकता है? कंचन तो यहां लेटी है? तो ये कौन है? ममता? हाँ, ममता ही है! वही है ये!
''आओ?" बोली वो,
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
"कंचन!'' आई आवाज़!
''और ये?" पूछा मैंने,
"ममता!" बोली वो,
क्या???
पागल ही न हो जाऊं मैं कहीं? ये मैं कहाँ चला आया? कहाँ आ फंसा इनके बीच? ये क्या चल रहा है? कहीं ये कोई दुःस्वप्न तो नहीं? मैं कहाँ था पिछली सुबह? कहाँ था? कहाँ चला आया? पागल कर देंगी ये दोनों मुझे! पागल! खुद, अपनी तरह!
"आओ! बाहर आओ!" आई आवाज़!
"श्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह!" आई मेरे पीछे से आवाज़!
मैंने पीछे पलट के देखा! ये कंचन थी! कंचन? या ममता? क्या बताऊँ?
वो उठी, और आई मेरे पास, मुझे एक तरफ हटाया, और दीवार के पास खुद आ खड़ी हुई! मुझे इशारा किया, थोड़ा पीछे हटने को, और मैं, क्या करता? हुआ पीछे! किस पर विश्वास करूँ? किस पर नहीं? कौन क्या है? और क्या कौन? क्या मैं, मैं ही हूँ? अभी तक?
और फिर, वो आवाज़ गायब सी हो गयी! आई कंचन, पास मेरे, और मुझे बिठाल दिया, फिर, खुद भी बैठ गयी!
"अकेले थे?'' पूछा उसने,
"अ....हाँ!" कहा मैंने,
"मेरे होते?'' बोली वो,
"तुम अचेत थीं!" कहा मैंने,
''तुम्हारे होते?" बोली वो,
"अ...हाँ?' कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"न मेरे होते, तुम्हारे होते!" बोली वो,
और ऐसा कहते, मेरे गले से लग गयी! सच कह रहा हूँ, मैंने भी भर लिया था उसे अपनी बाजूओं में, बड़ा सुकून सा मिला था! मेरा अकेलापन भाग जो खड़ा हुआ था!
"क्या बोले थे?'' पूछा उसने, गले लगे ही,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"बाहर निकलो?" बोली वो,
"क्या? कब बोला?'' पूछा मैंने,
"मेरे मस्तिष्क से बाहर निकलो! अभी!" बोली वो,
"हाँ, बोला था!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोली वो,
"क्यों का नहीं पता!" कहा मैंने,
"एक बात कहूँ?" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"हाँ भी करोगे?'' बोली वो,
"बोलो तो?" बोला मैं,
"हाँ करनी होगी?" बोली वो,
"बिना सोचे?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"ज़िद है!" बोली वो,
"ज़िद? कैसे ज़िद?'' पूछा मैंने,
''अ..हां! अच्छा बोले तुम! कैसे बोले, क्यों नहीं!" बोली वो, हँसते हुए!
"हैं?" मैं विस्मित!
कहाँ बात पकड़ी!
"बोलो?'' बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"हाँ कहनी होगी?'' बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"बोलो हाँ!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"मैं मर जाऊं तो?" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"हाँ हाँ?" बोली वो,
"मर जाऊॅं, मतलब?" पूछा मैंने,
"प्राण न रहें?'' बोली वो,
"क्यों?'' पूछा मैंने,
"बताओ ना?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं मरने दोगे?" बोली वो,
"क्या कहना चाहती हो?" पूछा मैंने,
"नहीं मरने दोगे?" बोली वो,
"मैं कौन होता हूँ?" पूछा मैंने,
"बताओ?" बोली वो,
"नहीं मरने दूंगा!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उसने,
"अब ये क्या, क्यों?" बोला मैं,
"बताओ ना? क्यों?" बोली वो,
"पता नहीं, लेकिन नहीं मरने दूंगा!" कहा मैंने,
मैं कहे तो जा रहा था, पता नहीं क्या क्या! वही बात, कि पल की पता नहीं, सुधारने चले परलोक!
"ओह! ओह!" बोली वो, चिपके ही!
"क्या हुआ कंचन?" पूछा मैंने,
"नहीं मरने दोगे न?" बोली वो,
"हाँ, नहीं मरने दूंगा!" बोला मैं,
"काट लूँ?" बोली वो,
"काट लूँ?'' पूछा मैंने,
"काट लूँ न?" बोली वो,
"क्या कंचन?'' पूछा मैंने,
"शेष समय अपना?'' बोली वो,
"शेष समय?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"कैसा शेष समय कंचन?" पूछा मैंने,
"संग तुम्हारे?" बोली वो,
"क्या मतलब?" पूछा मैंने,
"बोलो ना?' बोली वो,
"कैसा शेष समय? ये समझाओ?'' पूछा मैंने,
"मैं, मर रही हूँ!" बोली वो,
"मर रही हो?" पूछा मैंने,
"हाँ, पल पल!" बोली वो,
"कैसे कंचन?" पूछा मैंने,
"न छोड़ोगे न मुझे?' बोली वो,
"हाँ, न छोड़ूंगा!" कहा मैंने,
"मैं कहती हूँ न?'' बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"कहती रहती हूँ न?'' बोली वो,
"क्या कंचन?" पूछा मैंने,
"मुझे मार दो?" बोली वो,
"हाँ?'' बोला मैं,
"इसीलिए!" बोली वो,
"किसलिए?'' पूछा मैंने,
"मैं, मर सकूँ, इत्मीनान से!" बोली वो,
"क्या बक रही हो?" कहा मैंने,
"सच कह रही हूँ!" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"ऐसे!" बोली, दोनों हाथ खोलकर!
"नहीं समझा?" कहा मैंने,
"समझ जाओगे!" कहा मैंने,
"कब?'' पूछा मैंने,
"बाद मरने के.........मेरे!" बोली वो,
"तुम पागल हो गयी हो?" बोला मैं,
"अब होश में हूँ!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा मैंने,
"तब पागल थी!" बोली वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"जब ले आई थी तुम्हें यहां!" बोली वो,
"अच्छा?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"कंचन?'' बोला मैं,
"न बोलो!" बोली वो,
"क्या न बोलूं?'' बोला मैं,
''अब लौट जाओ!" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
"कहाँ लौट जाऊॅं?" पूछा मैंने,
"बाहर झांको?" बोली वो,
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"देखो?" बोली वो,
मैं खड़ा हुआ, और गया खिड़की तक, झाँका बाहर! ये! ये तो भोर थी! भोर, आ पहुंची थी! काली रात, बीत चुकी थी! रात, वो वीभत्स रात, बीत चुकी थी!
"जाओ!" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"वापिस?'' बोली वो,
"कहाँ वापिस?'' पूछा मैंने,
"जहां से आये थे?" बोली वो,
"और तुम?" पूछा मैंने,
मुस्कुराई वो! मुझे बुलाया! बिठाया! मेरे बालों में, हाथ फेरा! मुझे, माथे पर चूमा! मेरे हाथ पकड़े, चूमे!
"जाओ!" बोली वो,
और दिया, बुझा! टिमटिमा कर!
"और तुम?" पूछा मैंने,
"जाने दो!" बोली वो,
"जाने दो?" पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
"अब दिन है न?'' पूछा मैंने,
"हाँ?'' बोली वो,
"बाहर, न जा सकोगी?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
"फिर?" पूछा मैंने,
"क्या फिर?'' पूछा उसने,
"तुम?" पूछा मैंने,
"रोज की कहानी है!" बोली वो,
"कब से?'' पूछा मैंने,
"अब भी न जाने?" पूछा उसने,
"ना?" कहा मैंने,
"डेढ़ साल होने को आये!" बोली वो,
"ऐसे ही, रोज, डर में?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
दिल पसीज उठा! अजीब सा भाव छा गया!
"कंचन?" बोला मैं,
"हूँ?" बोली वो,
"तुमने मुझे, बचाया?" पूछा मैंने,
"क्यों पूछते हो?" पूछा उसने,
"बताओ?" पूछा मैंने,
"तुम्हें क्या लगता है?'' पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"अपना बनाओगे न?" बोली वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"मैं मर रही हूँ!" बोली वो,
"क्यों भला?'' पूछा मैंने,
"जाओ!" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"कुँए पर?'' बोली वो,
"कुआं?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"किसके साथ?" पूछा मैंने,
"ममता के अलावा!" बोली वो,
"सच?" कहा मैंने,
"अब तो संदेह न करो?" बोली वो,
"नहीं किया कंचन!" कहा मैंने,
"अब मिला उत्तर?" पूछा उसने,
"किसका?'' पूछा मैंने,
"क्यों बचाया?" बोली वो,
"उसे, मेरा सामर्थ्य मालूम नहीं?" पूछा मैंने,
"मालूम है!" कहा उसने,
"फिर भी?'' पूछा मैंने,
"यही तो आवश्यक है!" बोली वो,
"वो शिशु? याद है?" पूछा उसने,
"हाँ?" कहा मैंने,
"बागड़ का है!" बोली वो,
"बागड़? कौन बागड़?" पूछा मैंने,
"अलहेलिया!" बोली वो,
"क्या??????" मैंने मुंह फाड़कर पूछा!
उसने, सर हिला कर, हाँ कही! और तब, खिड़की से, अंदर, आई रौशनी! किसी मेहमान की तरह! मैं हुआ खड़ा, चला आगे, झाँका बाहर...देखा और...............!!
भोर ने छू लिया था ज़मीन का आँचल! धूप खिलने लगी थी! सुबह के परिंदे, भोर के स्वागत में जुट गए थे! पर मेरे मन में, मेरे विकारों के परिंदे, जस के तस बैठे थे! मैंने पीछे मुड़कर देखा, एक कोने में सहमी सी बैठी थी कंचन! मेरी तो भोर हो चली थी, लेकिन उसकी वो कमरे की किड, जस की तस बनी हुई थी! क्या करूँ? छोड़ जाऊं इसे? छोड़ दूँ और लौट जाऊं? मरे तो मरे? जीए तो इसका भाग्य? धूप में निकल नही सकती! सारी रात तो बतियाई थी मुझ से! सारी रात, आँखों में ही काटी थी इसने भी मेरे ही संग! क्या करूँ? पत्थर बन जाऊं? खोलूं दरवाज़ा और लौट जाऊं? उठाऊँ सामान अपना और चला जाऊं वापिस?
उसने सर उठाया, मुझे देखा, उसकी वो नज़रें मुझे छील गयीं अंदर तक! इसने तो कुछ खाया भी नहीं? कैसे करेगी? कौन लाएगा इसके लिए? क्या इसकी सखियाँ? चलो ले भी आयीं तो इसकी ये हालत? ऐसे ही चलेगी क्या? मैं तो मुक्त सा हुआ, लेकिन ये? बड़ा मुश्किल होता है कलेजे पर पत्थर रखना! और इसकी नज़रें? कुछ कह रही हैं क्या? या फिर मैं ही नहीं पढ़ना चाहता? या पढ़ नहीं पा रहा? या पढ़ना ही नहीं चाहता? जानबूझ कर?
मैं लौटा, और आया उसके पास, उसके गले से हटा, उसका कपड़ा ठीक किया! गले पर नज़र पड़ी, तो फड़कती हुई नस दिखी! नस, जो फड़कते हुए, शायद 'ना' ही बोल रही थी! ये तो साफ़ सुना था मैंने! समझ भी गया था!
"चले जाओ!" बोली वो,
मैं कुछ न बोला!
अभी तक, झंझावत में था, बाहर नहीं निकल पाया था!
"लौट जाओ! जाओ ना?' बोली वो,
मैं बैठ गया, उकडू, उसके पास! भरा चेहरा उसका अपने हाथों में! आँखें देखीं तो आँखों में एक परत दिखी, परत, कुछ जानी-पहचानी सी लगी! ये आंसूओं की परत थी! इस से पहले कि मैं कुछ कहता, वो परत, इकट्ठा हो, बूँदें बनी, और ढुलक गयीं नीचे, पलकों से!
"जाओ न? ठहरे क्यों हो??" पूछा उसने,
उखड़ी सी आवाज़ में! उखड़ी सी आवाज़, जिसमे, कुछ तो विवशता थी, कुछ शिकायत थी, नाहक़ शिकायत कह सकता हूँ उसे, लेकिन थी शिकायत ही, और कुछ ना भी!
"जाओ? भोर हो गयी!" बोली वो, इशारा करते हुए, खिड़की से बाहर की तरफ!
"रोज होती है!" कहा मैंने,
"ऐसी नहीं?" बोली वो,
"हाँ, ऐसी तो नहीं!" कहा मैंने,
और आंसू पोंछ दिए उसके, पोंछे, तो आह सी घुंटी गले में, और आंसू, सैलाब की तरह से, जी से बैर रखते हुए, आँखों के रास्ते बह निकले! इस बार फफक कर रोई वो! फफक कर! समझ गया मैं! समझ गया कि कब से रुके थे वो आंसू! कब से ये सैलाब उफान पर था!
"नहीं कंचन!" कहा मैंने,
"क्या कंचन?" बोली गुस्से से,
"साफ़ सुनना चाहती हो?" पूछा मैंने,
सर हिलाया, हाँ में! धीरे से!
"नहीं जाऊँगा!" कहा मैंने,
"क्यों?" मेरे हाथ झिड़कते हुए बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उसने,
"जानती नहीं हो?'' बोला मैं,
"सच में नहीं जानती!" बोली वो,
"तुम, कंचन हो न?'' पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"कंचन बदल जायेगी अब!" कहा मैंने,
"क्या?'' धीरे से पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने सर हिलाते हुए!
"नहीं समझी?'' बोली वो,
"नहीं समझो अभी!" कहा मैंने,
"जाओगे नहीं?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"सच में?'' पूछा उसने,
"हाँ, सच में!" कहा मैंने,
अब लिपट गयी! रोने लगी! मैं चुप कराता रहा उसे! वक़्त बढ़ता रहा आगे!
"मुझे बताओगी?" पूछा मैंने,
"क्या?'' पूछा उसने,
"ये कुआं कहाँ है?'' पूछा मैंने,
"यहां से, दो किलोमीटर पड़ेगा!" बोली वो,
"किस तरफ?'' पूछा मैंने,
"उत्तर-पूर्व!" बोली वो,
"तुमने देखा है?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"कोई निशानी?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
और उसने बताना शुरू किया मुझे, मैं उसके एक एक शब्द को कल्पना में साकार करता चला गया! मुझे जाना था वहां! चाहे कुछ भी हो!
"इस ममता के बारे में बताओ?" पूछा मैंने,
"क्या जानना है?" पूछा उसने,
"बागड़ अलहेलिया!" बोला मैं,
वो उठी! और फिर बैठ गयी, मेरे पास ही!
"अलहेलिया जानते हो?' पूछा उसने,
"सुना है!" कहा मैंने,
"दो बरस पहले आया था, नाम बागड़ था उसका!" बोली वो,
"यहां आया था?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"ये सब, उस से ही शुरू हुआ!" बोली वो,
"उस से?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"लिलहान!" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
ये क्या सुना? क्या लिलहान है? अस्तित्व है उसका? या मात्र किवदंती? मैं तो किवदंती ही मानता था अभी तक!
"सुना है!" कहा मैंने,
"क्या?'' पूछा उसने,
''वो पाताल वासी है! एक पार-सत्ता है! परम शक्तिशाली है! रूहों को उठाता है! बसाता है! आदि आदि!" कहा मैंने,
"बस?'' बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"ये नहीं कि वो सक्ष-वेधन में समर्थ है?' पूछा उसने,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
''सक्ष क्या है?" पूछा मैंने,
"नहीं जानते?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर कैसे करोगे?" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
''साधन?" बोली वो,
"किसका साधन?" पूछा मैंने,
"लिलहान का?'' बोली वो,
"ये सुना है, वो भूमि में वास करता है, शायद, बाद में पातालवासी कहा गया हो उसे? सम्भव है ऐसा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
''लेकिन?" कहते कहते रुका मैं,
"क्या लेकिन?" बोली वो,
"ये बागड़?" पूछा मैंने,
"शिशु-बलि!" बोली वो,
"ओह! ये अलहेलिया जो भी था, ये लिलहान को साध रहा था?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
लिलहान! ये एक पाताल-वासिनी शक्ति है! अलग अलग नाम से जाना जाता है इसको! कहते हैं, पाताल का द्वारपाल है ये! इसका सामर्थ्य अपार है! परन्तु साधना महा-क्लिष्ट! मुझे नहीं पता कि किसी ने साधा भी हो कभी इसे! एक उदाहरण है, जिला छत्तरपुर, मध्य प्रदेश में एक स्थल है, भीमकुण्ड, या नीलकुण्ड! कहा जाता है, इस कुण्ड का तल नहीं है! ये तलहीन है! सबसे विशेष बात ये कि इसका जल नीले रंग का है! अब अलग अलग कहानियाँ प्रचलित हैं! परन्तु, ये प्राचीन समय में, एक लिलहान-स्थल ही था! कोई नहीं जानता कि इसमें जल कहाँ से आता है, जल का स्तर समान कैसे रहता है आदि आदि! मध्य प्रदेश, प्राचीन समय से ही तंत्र-स्थली रहा है! यहां तंत्र के महास्थल थे, अब लुप्त हैं, या खंडहर रूप में हैं, कुछ अभी तक खोजे नहीं जा सके हैं! कुछ ज़मींदोज़ हो गए हैं! वैज्ञानिक खोजें, लगातार चलती रही हैं! लिलहान को, बौद्ध-तंत्र में भी एक अलग ही स्थान प्राप्त है! लिलहान की साधना करने वाले साधक को ही अलहेलिया कहा जाता है! ये साधक अपनी रीढ़ की हड्डी को इस प्रकार बाँधा करते थे, कि सोते भी बैठे बैठे ही थे! लिलहान को प्रसन्न करने हेतु, अपने ही नवजात शिशु की बलि चढ़ाये जाने की प्रथा रही थी! बाद में, तंत्रज्ञों ने, सम्भवतः इस साधना को त्याज्य घोषित कर दिया था, तभी अधिक उल्लेख प्राप्त नहीं होता! मैं इसीलिए चौंका था, कि क्या अलहेलिया आज भी हैं? क्या लिलहान-साधना आज भी चोरी-छिपे हो रही है? अब लिलहान-साधना किसलिए? कहते हैं, अमरत्व प्रदान करता है! यूँ कहें कि दीर्घायु प्रदान करता है! नव-लोक भ्रमण करने में, साधक, सबल हो जाता है! आदि आदि तर्क हैं! मैंने आज तक, कोई लिलहान-साधक नहीं देखा, न ही मिल पाया कभी!
लेकिन अब कई प्रश्न मस्तिष्क में स्वतः ही पैदा हो गए थे, और उनका उत्तर बस यही, कंचन ही दे सकती थी! कोई और नहीं! तो मैंने अब प्रश्न पूछने शुरू किये!
"कंचन?" बोला मैं,
"हाँ?'' बोली वो,
"सबसे पहले तो ये, कि धूप में, तुम क्यों नहीं निकल पातीं?" पूछा मैंने,
"ममता के कारण" बोली वो,
"ममता?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"ममता का इस से क्या लेना?'' पूछा मैंने,
"लेना है!" बोली वो,
"ये तो कोई शारीरिक-व्याधि लगती है?'' कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"कैसे?' पूछा मैंने,
"हमने उस शिशु को दफन जो किया था?' बोली वो,
"तुमने अकेले ने ही?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"कौन था संग? ये ममता?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"और?'' पूछा मैंने,
"और कोई नहीं?' बोली वो,
"गलत!" कहा मैंने,
"गलत?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
''वो कैसे?" पूछा उसने,
"बलि हेतु नवजात चाहिए शिशु! तो?" पूछा मैंने,
"हाँ, तो?'' बोली वो,
"तो मेरा मतलब, वो बागड़ कहाँ था?'' पूछा मैंने,
"उस रात बागड़ यहां नहीं था!" बोली वो,
"तो?'' पूछा मैंने,
"उस कुँए पर था!" बोली वो,
"उसी कुँए पर?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"तो प्रसव, वहां क्यों नहीं?'' पूछा मैंने,
"अपरिपक्क्व-प्रसव हुआ था" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"हाँ, साढ़े छह मास का" बोली वो,
ये समझ आता था, कारण इसका!
"तो तुम दोनों, उस रात यहां थीं?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"यहीं तो रहती थी वो" बोली वो,
"ये ममता?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"तो तुम?" पूछा मैंने,
"मुझे उस रात उसके साथ ही होना था!" बोली वो,
"होना था?" पूछा मैंने,
"हाँ, होना था!" बोली वो,
''वो क्यों?" पूछा मैंने,
"उसे शाम से ही कष्ट था!" कहा उसने,
"तो तुम रुकीं उसके साथ?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"अब एक बात और?'' पूछा मैंने,
"क्या?'' पूछा उसने,
"तुम ही क्यों?" पूछा मैंने,
"मतलब?' पूछा उसने,
"और भी तो औरतें रही होंगी?'' पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"तो तुम ही क्यों?" पूछा मैंने,
अब वो चुप! चुप्पी लगा गयी!
"मुझे बताओ?" पूछा मैंने,
न बोले कुछ भी!
"छिपा रही हो न?'' पूछा मैंने,
नहीं बोली कुछ भी!
"कंचन?" मैंने धमकाते हुए पूछा,
न बोले, नज़र चुराए!
"कुछ लालच दिया था?" पूछा मैंने,
"हाँ" कहा उसने,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"नहीं बता सकती" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"तो कैसे मदद होगी?" पूछा मैंने,
"तब बता दूँगी" बोली वो,
"मतलब अवसर आने पर?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"विश्वास कर लूँ?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"सच?" पूछा मैंने,
"हाँ, सच" बोली वो,
मैंने उसके हाव-भाव देखे! सच ही कह रही थी वो! नहीं लगता था कि कुछ असत्य है! होगा कुछ, जो वो अभी नहीं बता रही थी! लेकिन बता देती!
"एक बात और पूछूं?" बोला मैं,
"हाँ?" बोली वो,
"बागड़ से मिलीं थीं तुम?" पूछा मैंने,
"दो बार" बोली वो,
"कब?" पूछा मैंने,
''एक, जब वो आया था और तब" बोली वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"हाँ, तब" बोली वो,
"तब कब?" पूछा मैंने,
"उस रात" बोली वो,
"प्रसव वाली रात?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"कुँए पर?'' पूछा मैंने,
"हाँ" कहा उसने,
"क्या वो कुँए पर ही रहता था?" पूछा मैंने,
"हाँ, वहीँ" बोली वो,
"अकेला?" पूछा मैंने,
"नहीं" कहा उसने,
"फिर?'' पूछा मैंने,
''साधना समय" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"क्या उम्र होगी उसकी?'' पूछा मैंने,
"पचास के आसपास" बोली वो,
"हम्म!" कहा मैंने,
"कहाँ का रहने वाला था?" पूछा मैंने,
"शायद, धौलपुर का था" बोली वो,
"था?" अब मैंने बात पकड़ी!
"हाँ, था!" बोली वो,
"अब नहीं है?" पूछा मैंने,
"नहीं" कहा उसने,
"कहाँ गया?" पूछा मैंने,
"मुझे नहीं मालूम?" बोली वो,
"सच में नहीं मालूम?" पूछा मैंने,
"हाँ, सच में" बोली वो,
"तो वो था, था, तुम्हें कैसे पता?" पूछा मैंने,
"ममता ने बताया" कहा उसने,
"और क्या बताया था ममता ने?'' पूछा मैंने,
"कि वो चला गया" बोली वो,
"चला गया?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"नहीं नहीं कंचन!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उसने,
''चला गया और था, इनमे फ़र्क़ नहीं?'' पूछा मैंने,
"नहीं तो?'' बोली वो,
"कैसे नहीं?'' पूछा मैंने,
"कैसे है?" पूछा उसने,
"चला गया अर्थात, अब कहाँ है, पता नहीं, था, मतलब, अब ज़िंदा नहीं!" कहा मैंने,
"दोनों एक नहीं?" पूछा उसने,
"कैसे हुए एक?" पूछा मैंने,
"खैर, और पूछो?" बोली वो,
"तुमने तो रहस्य बढ़ा दिया?'' कहा मैंने,
"कैसे?'' पूछा उसने,
"ममता अब तुम्हारी दुश्मन क्यों है?'' पूछा मैंने,
"मेरी कहाँ?" बोली वो,
"फिर? पिछली रात?" पूछा मैंने,
"तुम्हारी!" बोली वो,
"मेरी?" मैं चौंका!
"हाँ, तुम्हारी!" बोली वो,
"मैंने क्या बिगाड़ा उसका?'' पूछा मैंने,
"बिगाड़ा नहीं, शुरू किया!" बोली वो,
"शुरू? क्या?'' पूछा मैंने,
"जो थम गया था!" बोली वो,
"थम गया था? वो क्या?'' पूछा मैंने,
"वही?" बोली वो,
''साफ़ बोलो?'' बोला मैं,
"साधन?" बोली वो,
"साधन?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
हे मेरे भगवान! या तो ये, ये कंचन ही पागल है, या मैं ही होने लगा हूँ! यही लगता है! क्या शुरू किया? साधन? किसका साधन?
"कंचन? साधन किसका?'' पूछा मैंने,
"लिलहान का" बोली गंभीर हो कर वो!
"लिलहान का?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"लेकिन बागड़ तो, था?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
''तो साधन कैसे भला?" पूछा मैंने,
"था, तो रुका!" बोली वो,
"रुका?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"वो नहीं है, तो रुका?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"मैं आया तो शुरू?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"क्या मतलब?" पूछा मैंने,
"सोचो?" बोली वो,
"क्या सोचूं?" कहा मैंने,
"क्या शुरू हुआ?" पूछा उसने,
"पता नहीं?" कहा मैंने,
"वही सब!" बोली वो,
"वही?" पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
तभी दिमाग में बिजली सी कौंधी! मैं जैसे उछला!
"कंचन?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"वो मेरी दुश्मन?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"उसे चाहिए मुझ से कुछ!" कहा मैंने,
"बिलकुल सही!" बोली वो,
"ओह! समझा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"वही शुरू फिर!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"ये....ये....तो......" कहा मैंने,
''सोचा ही नहीं था!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"मतलब, अलहेलिया अब ये है!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"उसे शिशु चाहिए!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"इसीलिए तुम साथ रहीं मेरे!" बोला मैं,
"हाँ!" कहा उसने,
"रखवाली की!" बोला मैं,
"हूँ!" कहा उसने,
"समझा!" कहा मैंने,
"और कुछ?" पूछा उसने,
"एक मिनट!" कहा मैंने,
अब की मैंने कुछ गुणा-भाग! घटाया और जोड़ा!
"लेकिन?" कहा मैंने,
"क्या?'' पूछा उसने,
"मैं ही क्यों?" पूछा मैंने,
"ये तो जानते ही हो?" बोली वो,
"हूँ!" कहा मैंने,
देखा मैंने कंचन को! और मुस्कुराया ! रखा उसके कंधे पर हाथ!
"कंचन!" कहा मैंने,
"क्या?'' पूछा उसने,
"मुझे नहीं लगता कि तुम्हारा एकांश-मंडल खुला है!" कहा मैंने,
"क्या?'' चौंक पड़ी वो!
"हाँ, मुझे तो यही बताया गया था!" कहा मैंने,
"मैंने तो नहीं कहा?" बोली वो,
"हाँ, कह भी नहीं सकती!" कहा मैंने,
''वो क्यों?" पूछा उसने,
"तुम तो कुछ सरलता से छिपा भी नहीं सकतीं!" कहा मैंने,
"छिपा?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या छिपाया?" पूछा उसने,
''सबकुछ!" कहा मैंने,
"क्या सबकुछ?" बोली वो,
"ये तो तुम भी जानती हो!" कहा मैंने,
"नहीं जानती!" बोली वो,
"जानती हो!" कहा मैंने,
"तो बताओ?" बोली वो,
"एक वचन भरो!" कहा मैंने,
"कैसा वचन?" पूछा उसने,
"कि मैं जहां गलत होऊंगा, तुम ठीक करोगी उसे!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोली वो,
"हाँ, अगर बात बिलकुल ही अलग हो, तो कोई बात नहीं!" बोला मैं,
''अच्छा? पूछो, बताओ?" बोली वो,
"हाँ, बताता हूँ, पूछता हूँ!" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
मैं खड़ा हुआ, वो भी, मैं खिड़की तक गया, बाहर झाँका, बाहर अब धूप खिली हुई थी! फूल भी खिल उठे थे, तितलियाँ आ जुटी थीं अपने अपने काम पर! मैंने सर हटाया, और आया कंचन के पास!
"तैयार हो गयीं?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
अब मैंने उसको, उसकी आँखों में देखा! गहरा उतरा मैं अब! सब यहीं छिपा था! छिपाया गया था, मुझे संदेह नहीं, पूरा विश्वास था!
"बागड़ का क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"क्या मतलब?" पूछा उसने,
"हाँ, उस अलहेलिया का, क्या हुआ?" पूछा मैंने,
''बताया तो?" बोली वो,
"नहीं कंचन! मैं बाबा नहीं हूँ!" कहा मैंने,
"मतलब?" बोली वो,
"तुम सब जानती हो!" कहा मैंने,
"नहीं जानती!" बोली वो,
"जानती हो!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"सच बोलो?" कहा मैंने,
"सच ही बताया!" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"क्या सुनना चाहते हो?" पूछा उसने,
"सच्चाई!" कहा मैंने,
"वही तो बताई?" बोली वो,
"नहीं, आधी!" कहा मैंने,
''आधी?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कैसे?'' पूछा उसने,
"तुमने, प्रसव तक आधी सच्चाई ही बताई!" कहा मैंने,
"तो?" बोली वो,
"उसके बाद क्या हुआ था?' पूछा मैंने,
"किसके बाद?" पूछा उसने,
"प्रसव के बाद?" पूछा मैंने,
"बताया तो आपको?" बोली वो,
''आपको?" पूछा मैंने,
"हाँ, आपको?'' बोली वो,
"नहीं कंचन!" कहा मैंने,
"क्या?'' पूछा उसने,
"मैं नहीं आऊंगा बातों में!" कहा मैंने,
"क्या कह रहे हो?" बोली वो,
''तुम से आप!" कहा मैंने,
"तो? कोई गलत बात?" बोली वो,
"हाँ, सही समय पर, गलत बात!" कहा मैंने,
"क्या पहेलियाँ बुझा रहे हो?" बोली वो,
''आप या तुम?" बोला मैं,
"तुम!" बोली वो,
"फिर से मज़बूत हो गयीं!" कहा मैंने,
''साफ़ साफ़ कहो न?" बोली वो,
"मैं तो कह ही रहा हूँ!" बोला मैंने,
"मैं भी तो?" बोली वो,
"नहीं! तुम नहीं!" कहा मैंने,
"वो कैसे?'' पूछा उसने,
"सुनो!" कहा मैंने,
"कहो?" बोली वो,
"बालक के हाथ पाँव नहीं थे!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"तो बलि भी सम्भव न होती?" बोला मैं,
"हाँ?" बोली वो,
"जीवित रखना नहीं था?" बोला मैं,
"हाँ?" बोली वो,
"इसीलिए, दफना दिया!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"उसका गला दबाया उस ममता ने?'' पूछा मैंने,
"हाँ, पाँव रखा!" उसने कहा,
"हाँ, समझा!" कहा मैंने,
"फिर?'' पूछा उसने,
"तुम्हें अवश्य ही वीभत्स लगा होगा?" कहा मैंने,
"हाँ, किसी को भी?'' बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तो?" बोली वो,
"तो शिशु को मार कर, दफना दिया!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"अब वो बागड़!" बोला मैं,
"हाँ?" बोली वो,
"बागड़ पचास का था?'' पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"खेला-खाला और तेज-तर्रार!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"और क्रूर भी!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"उसकी क्रूरता की बानगी तुम, उस शिशु की हत्या, देख ही चुकी थीं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"अब हुआ यूँ कि, तुम! तुम कंचन!" कहा मैंने,
"क्या?" काँप उठी वो!
"जानती थीं न कि वो महासाधक है?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"इस विषय में, सूचित करना था, बागड़ को, उस कुँए पर जाकर!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"तो तुम, तुम उस ममता को, सहारा दे कर, ले गयीं उस कुँए पर!" बोला मैं,
"क्या?'' बोली वो,
"बोलो हाँ? या ना?" पूछा मैंने,
अब चुप! बगलें झांके वो!
"खैर, तुम्हारा कोई दोष नहीं! तुमने वही किया जो उचित था! ले गयीं न?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो, खौफ खा कर!
''डरो नहीं!" कहा मैंने,
उसको हिम्मत बंधाई मैंने! की अपनी तरफ करने की कोशिश! शब्दों के माध्यम से ही! भले ही!
"तो तुम, उसको ले गयीं वहां!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"उस कुँए तक!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"तो एक बात साफ़ है!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"ये सफेद रौशनी! तुम जाती थीं मिलने, तुम्हें देखा कई बार, ममता ने, बकौल ममता एक बार देखा, आदि आदि, ये सब मनघड़ंत है!" कहा मैंने,
चुप! फिर से चुप!
"है न?" पूछा मैंने,
न बोली कुछ!
"बाबा को बताया, जो बताया, तुमने और ममता ने, सब मनघड़ंत!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली अब वो!
"मुझे इस कहानी पर, शुरू से ही यक़ीन नहीं था!" कहा मैंने,
चुप ही रही!
"स्पष्ट सी बात है, जो उस दिव्यता से लिप्त होगा, उसको कोई रोग, वो भी ऐसा दुःसाध्य होना, कैसे सम्भव है?'' पूछा मैंने,
न बोली अभी भी!
"तो मुझे यक़ीन ही नहीं था, मैं सुनता रहा! और जांचता रहा! और फिर तुम्हारे पास आया, तुम्हारी कहानी, जानने के लिए! और किसलिए? सिर्फ इस रोग का कारण जानने के लिए! और मुझे पता चला, ये सब!" कहा मैंने,
"वैसे एक बात तो मैं मानता हूँ!" बोला मैं,
उसने देखा मुझे, आँखों ही आँखों में पूछा उसने!
"ममता ने तुम्हारा एक राज दबाये रखा!" बोला मैं,
फिर से देखा! फिर से एक बार!
"है न?" बोला मैं,
नहीं बोले कुछ!
"बोलो कंचन? अब मैं बहुत कुछ जानता हूँ!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"उसने राज रखा! है न?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"और बदले में, तुमसे कुछ माँगा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"और वो क्या?'' पूछा मैंने,
"क्या?' पूछा उसने,
''एक शिशु!" कहा मैंने,
मुंह खुला रहा गया उसका! घबरा गयी वो!
"लेकिन कंचन! तुम सच में बहुत अच्छी हो! सच में! ये देखा मैंने तुम्हें रात को!" कहा मैंने,
"क्या?'' पूछा उसने,
"तुम उसे शिशु नहीं देना चाहती थीं कभी!" कहा मैंने,
"हूँ" बोली वो,
"अच्छा किया!" बोला मैं,
अब न बोली फिर से कुछ!
"तुम जानती थीं कि क्या होगा उस शिशु का! ठीक वही, जो ममता ने किया! है न?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो अब!
अब कुछ विश्वास से! कुछ दृंढ होकर! किताब खुलने लगी थी! और मैं, एक एक पृष्ठ पढ़ता जा रहा था, ठीक उसके सामने!
"लेकिन ऐसा हुआ क्यों?'' पूछा मैंने,
"कैसा?'' बोली वो,
"कि तुम्हारा एक राज उसने दबाये रखा?" पूछा मैंने,
"क्या?'' पूछा उसने,
"मैं बताऊँ?" पूछा मैंने,
"बताओ?" बोली वो,
"बताता हूँ!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"हाँ, पहले कल की रात!" कहा मैंने,
"क्या?'' पूछा उसने,
"वो न मेरी दुश्मन है, और न ही तुम्हारी! है न कंचन?" पूछा मैंने,
"कैसे?" पूछा उसने,
"वो तो सिर्फ ये देख रही थी कि क्या तुम अपने वायदे पर अडिग हो या नहीं?'' पूछा मैंने,
"हूँ" बोली वो,
"तुमने कल मुझे बख्श दिया!" कहा मैंने,
देखा मुझे उसने! और आँखें नीचे कर लीं!
"तुमने उसे सूचित ही नहीं किया!" कहा मैंने,
"हूँ?" बोली वो,
"जब भी उसने पूछना चाहा, तुमने, मना कर दिया!" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"मैं तुम्हें पसंद हूँ?' पूछा मैंने, हँसते हुए!
नज़रें चुरा लीं उसने!
"है न?'' पूछा मैंने,
न बोली कुछ!
"मैं बताता हूँ, हाँ! पसंद आया!" कहा मैंने,
न किया सर ऊपर उसने!
"और हाँ! शिशु गड्ढा नहीं खोद रहा था, वो, ममता ही थी!" कहा मैंने,
"हूँ" बोली वो,
"और अब, सबसे अहम बात!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली, डेमी सी आवाज़ में!
''आओ, अब उस कुँए पर चलते हैं, उस रात को, उस समय, जब तुम, वहां पहुंचीं!" कहा मैंने,
अब चौंक पड़ी वो! मोटी आँखों से, पूरा उतारा मुझे!
"ममता की हालत सही नहीं थी, तुम, सहारा देकर ले गयीं थी उसे! है न?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो, सर झुकाये ही!
"वो चल भी मुश्किल से रही होगी?'' पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"तो, तुम थोड़ा पहले रुकीं, कुँए पर!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"ममता उस अलहेलिया के पास गयी!" बोला मैं,
"हाँ!" बोली वो,
"उन दोनों के बीच बातें हुईं!" बोला मैं,
"हाँ!" बोली वो,
"कुछ देर!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"फिर तुमने चीखें सुनीं होंगी उस ममता की?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
''वो गुस्से में होगा! बहुत गुस्से में!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"अब, तुम बताओ!" कहा मैंने,
"मैंने आवाज़ सुनी!" बोली वो,
"ममता के चिल्लाने की!" कहा मैंने,
"हाँ, वो चीख रही थी!" बोली वो,
"पीटा होगा अलहेलिया ने उसे, उसकी साधना एक प्रकार से छिन्न-भिन्न हो गयी थी!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"तो तुम देखने गयीं उसे!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"फिर! फिर कंचन?" पूछा मैंने,
"फिर?" बोली वो,
मैं उठा, और गया उसके पास, जैसे ही हाथ लगाया उसे, वो काँप उठी! मैं जानता था! जानता था कि आगे क्या हुआ था!
"कोई बात नहीं! तुमने ठीक ही किया कंचन! बिलकुल ठीक किया! तुम्हारा कोई दोष नहीं है! मैं तुम्हें दोषी नहीं मानता! बिलकुल भी नहीं!" कहा मैंने,
"सच?" बोली टूटी सी आवाज़ में वो!
"अलहेलिया ने जब ये जाना कि उसको अपंग शिशु हुआ था, तो उसे बहुत क्रोध आया होगा! उसने भांप लिया कि, कोई भरोसा नहीं कि अगला शिशु सही हो, कहीं अपंग ही न हो! वो इस बार अवसर चूक गया था! और इसीलिए......!" बोला मैं, और रुका,
उसको छुआ, और खींचा अपनी तरफ!
"उसने फिर, तुम्हें चुना!" बोला मैं,
एक लम्बी सांस भरी उसने! ठंडी सी सांस!
"फिर? फिर क्या हुआ था? बस..........यही नहीं जानता मैं!" कहा मैंने,
वो पल भर के लिए, मुझसे चिपकी रही और आखें खोलीं! मैंने देखा उसे, आँखें काँप रही थीं उसकी और फिर..तभी......
"अब कुछ छिपाने से लाभ नहीं कंचन!" कहा मैंने, हल्का सा मुस्कुराते हुए!
वो, शांत थी, शांत, जैसे कई दिनों बाद, शायद जैसे, किसी ज़ख्म के दर्द, आज मंद पड़ा हो! जैसे आज, मरहम ने काम किया हो अपना!
"अब कुछ नहीं है छिपाने को....." बोली वो,
"हाँ, तो फिर क्या हुआ था? उस रात?" पूछा मैंने,
"उस रात, उस पल, उस जगह, उस समय, उस अलहेलिया ने, उसको पीटा था, मैं सिहर गयी थी, न जाने कितने सारे डर एक साथ हावी होने लगे थे मुझ पर, फिर उसकी निगाह मुझ पर पड़ी, वो क्रोध में अँधा तो था, साधना के भंग होने से और अधिक हिंसक हो उठा था, उसने मेरा रास्ता रोका, मनमानी के लिए, मैं घबरा गयी, मैं भाग पड़ी, मुझे पकड़ने की कोशिश की उसने, मैं गिरी, ज़द्दोज़हद हुई, मुझे उस पल, अपना जीवन ही खतरे में लगा....." बोली वो,
"और वो, वो ममता?' पूछा मैंने,
"वो अधमरी सी थी, कुछ न कर सकती थी, और करती भी क्या वो, वो कौन सा मेरी मदद करती, जो अपने शिशु की बलि चढ़वाने में नहीं हिचकती, उस से भला मैं क्या और किस मदद की उम्मीद रखती?" बोली वो,
"बिलकुल ठीक कहा!" कहा मैंने,
"मेरे हाथ में और कुछ नहीं आया, बस एक पत्थर, मैंने वो पत्थर उस पर फेंक मारा, पत्थर सीधा चेहरे पर लगा उसके, वो चीखा, गाली-गलौज की, जान से मारने की धमकियां दीं, वो सच में मुझे मार डालता यदि............" बोलते बोलते वो रुकी,
"यदि वो ज़िंदा रहता! यही न?'' पूछा मैंने,
"हाँ, यदि वो ज़िंदा रहता!" बोली वो,
"फिर क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"मैंने उसी पत्थर से और वार किया, सर फटा, पता नहीं, वो लहूलुहान हुआ, गिर पड़ा, और बेहोश हो गया" बोली वो,
"और उसके बाद, सारा काम, उस कुँए ने कर दिया, जिस कुँए ने उसको शक्ति प्रदान करनी थी, मौत दे दी, वो कुआँ, उसकी कब्र बन गया!" कहा मैंने,
काँप उठी वो! सिहर उठी! भयभीत हो गयी! सारी सच्चाई खुल चल चुकी थी! ये तो मैं तभी समझ गया था जब उसने उसको 'था' कहा था! विश्वास से! मैंने उसको और घुमाया, और फिराया, पेंच कसे, ढीले किये, और जान गया था कि अब अलहेलिया ज़िंदा है ही नहीं! ममता तो ये कभी न बताती! और कंचन, बस, यही ही वो एक थी, जो, बता सकती थी, बस, तोडना ज़रूरी था उसे, मारना ज़रूरी था उसे! सो उसे, तोड़ा भी, मारा भी और खोला भी! इस तरह वो खुल भी गयी! यही मेरा मक़सद था और इस तरह ये मक़सद, पूरा हो भी गया था!
"कंचन!" कहा मैंने उसे मज़बूती देते हुए!
"तुमने क्या गलत किया? कुछ नहीं! अलहेलिया कौन था, कहाँ से आया था, था भी या नहीं, कौन जाने! तुमने वही किया जो तुम्हें उस वक़्त करना ही था, तुमने वही किया! ये मुनासिब ही है! मत डरो! मत घबराओ!" कहा मैंने,
और बिठा दिया उसे नीचे! फिर खुद भी नीचे ही बैठ गया!
"अब सुनो?" कहा मैंने,
उसने सर उठा कर देखा मुझे,
"तुमने एक बात कही थी, कहा था बाद में बताउंगी, जब अवसर आएगा! मैं वो भी जानता हूँ! वो लालच! बताऊँ?" बोला मैं,
आँखों में ही सवाल किया उसने! और मैंने फिर बोलना शुरू किया!
"कंचन, तुम्हारा ये कहना, कि तुम उस अलहेलिया से बस दो बार मिलीं, ये गलत हैं! तुम उस से कई बार मिलीं! अब, वो लालच क्या था? तो वो लालच था रूप! रंग! यौवन! तंत्र में ये सुलभ है! क्रिया में ये सुलभ है! तुम्हारा ये रूप-रंग, तुम्हारी ये सुंदर देह, उस अलहेलिया की ही देन है! जिस क्षण उसने प्राण त्यागे होंगे, या पहले, उस पल में जब संज्ञान हुआ होगा उसे, उसने यही भंग किया होगा! इसे श्राप कह लो, बद्दुआ कह लो या फिर हाय कह लो! ये वही है! शुक्र करो, कि वो रात थी, यदि दिन हुआ होता, या सूर्य आकाश में होते, तब तुम न दिन में बाहर होतीं, न रात में ही, और अब तक, जीवित भी न रही होतीं! ये तुम्हें रोग, दिया हुआ है, प्रकृति-प्रदत्त नहीं है! और सुकून की बात ये है, कि इसका निदान है!" कहा मैंने,
कंचन को जैसे यक़ीन ही नहीं हुआ! वो मुझे ऐसे देख रही थी, जैसे या तो मैं, वही अलहेलिया हूँ जो प्रायश्चित करने लौट आया है, या फिर कोई दिव्य सा प्राणी, जो सम्भवतः भेजा गया है, उसको तिल तिल मरने से बचाने के लिए!
मैं मुस्कुराया! उसकी आँखों से आंसू झर झर बह निकले! उसे, यक़ीन ही नहीं हो रहा था कि कोई डेढ़ बरस बाद आएगा, आएगा, उसके लिए, जो उसकी इस तितरति, बिखरती ज़िंदगी को, संवारेगा! ऐसे ही देख रही थी वो मुझे! उसके पास अब शब्द नहीं थे! चुक गए थे उसके शब्द जैसे!
"कंचन! जब तक, ममता में रज का निर्माण होगा, तब तक तुम्हें ऐसे ही रहना होगा! जिस दिन उसको रजोनिवृति होगी, तुम स्वतः ही ठीक हो जाओगी! परन्तु, ऐसा हो भी जाए, तो, उस से पहले, ये ममता ही तुम्हें मार डालेगी! हत्या कर देगी! उसके पास, और कोई विकल्प शेष ही नहीं है! और अब तुम्हारे पास, क्या विकल्प शेष है? इस ममता को हटाना! हमेशा के लिए! रजोनिवृति से ही उद्देश्य पूर्ण नहीं होगा! मैं ये नहीं कह रहा कि तुम उसकी हत्या कर दो! नहीं, ऐसा तो सोचना भी मत कभी! अब तुम्हें दो काम करने होंगे, पहला, उसकी कोख ध्वस्त करनी होगी और दूसरा महामारण! ऐसा भी नहीं है कि वो इस महामारण को काटेगी नहीं! वो अवश्य ही काटेगी! तब? तब तुम्हें ये काम कब करना होगा? जब वो, माहवारी में होगी! उसकी प्रत्येक क्रिया उस समय दग्ध होगी! ये तुम्हें कैसे करना है, ये मैं तुम्हें बता सकता हूँ, क्योंकि ममता जैसे स्त्री का ज़िंदा रहना, इस रूप में, मानवता के लिए भी हितकर नहीं! और तुम्हारे लिए तो, कभी नहीं! तो कंचन, अब मेरा काम यहां का समाप्त हो गया! कोई औचित्य नहीं शेष! मैं आज ही लौट जाऊँगा, और उम्मीद करूँगा कि तुम मुझे खबर करो कि तुम सफल हुईं!" कहा मैंने और खड़ा हुआ!
"हाँ एक बात और?'' पूछा मैंने,
और फिर से नीचे बैठा!
"ये ममता अब कहाँ होगी?" पूछा मैंने,
"कुँए पर" बोली वो,
"ठीक! और लौटेगी कब?" पूछा मैंने,
"संध्या समय" बोली वो,
"ठीक, बाकी का काम मैं बाबा से करवा देता हूँ, इस ममता को आज ही यहां से निकाल बाहर करवाता हूँ! ताकि तुम सुरक्षित रहो! और हाँ, आज मैं नहीं जाऊँगा, आज ये काम निबटा दूँ! और आज रात ही, कुछ बता भी देता हूँ तुम्हें!" कहा मैंने,
उसके बाद, मैं निकल आया वहां से, जब वापिस लौटा, तब पता चला कि ये दूरी कम से कम एक-डेढ़ किलोमीटर के आसपास होगी! ये बियाबान सा स्थान है! दिन में आया तो लाल से पत्थर मिले थे उधर, अब भगवान जाने, क्या दफन है इनके नीचे! वो जगह तो ऐसी है, कि दिन में भी आदमी को यही लगे कि आसपास और साथ साथ ही कोई चल रहा है! पता नहीं साथ चलती परछाईं भी अपनी है कि नहीं! पल पल डर सा लगे कि अपनी परछाईं ही न भाग ले छोड़ कर!
तो मैं लौट आया, सीधा बाबा के पास गया, बाबा को कोई खबर ही नहीं थी कि कल रात हुआ क्या? होती भी कैसे! मैंने बाबा को सारी बातें बता दीं! उन्हें तो विश्वास ही नहीं हुआ! लेकिन जब मैंने खुलासा किया, तब वे मान ही गए! और, उन्होंने इस कंचन की पूरी मदद करने का फैंसला भी किया! अब आगे की सारी क्रिया, बाबा ने ही करनी थी! ये और भी अच्छी बात थी!
उसी रात, मैं और बाबा, कंचन को ले आये वहां से, ममता हमें कहीं नज़र नहीं आई, शायद बाबा साथ थे, इसीलिए, उसे कोई जल्दी नहीं थी, वो अपने हिसाब से सोच रही थी! लेकिन हमने अपना खेल, खेल लिया था!
अगले दिन, मैं कंचन से मिल, वापिस लौट आया था, लेकिन मेरा अन्तःमन अभी भी इसी प्रकरण पर लगा था, मेरी कंचन से तो कोई बात नहीं होती थी, हाँ बाबा से बातें अवश्य ही हुआ करती थीं! हर काम तयशुदा तरीके से ही हो रहा था!
कंचन को, एक रात, बाबा ने, कहीं और पहुंचा दिया! कंचन वहां नहीं रही, तो ममता हुई पागल सी! इधर बाबा की क्रिया आरम्भ हुई, ममता के उन्ही दिनों में! ११ अक्टूबर २०१२, ममता को भयंकर रक्त-स्राव हुआ! वो अचेत हो गयी थी! कुछ क़ुबूल भी न कर पायी और इस प्रकार, सुबह आते आते, उसकी शाम हो गयी!
कंचन, ठीक हो गयी! उसका डर, हालांकि, कई दिनों तक नहीं निकल पाया था, लेकिन बाबा ने उसको समझाया बुझाया और तब, वो धूप की अभ्यस्त हो गयी थी! उसका इलाज चलता रहा! एक वर्ष लगा उसके पूरी तरह से ठीक होने में! आज कंचन ठीक है! बिलकुल ठीक!
वर्ष २०१३ में, मैं, कंचन के साथ वो कुआँ देखने गया था! उस जगह पर अब, नयी सी बसावट होगी! और लिलहान का वो कुआं, हमेशा हमेशा के लिए दफन हो जाएगा! वो नहीं जागेगा फिर, जब तक कोई और अलहेलिया आकर, सूंघ नहीं लेता उसकी! बाद में पता चला कि इस तरह के कुछ और भी कुँए आसपास के गाँवों में हैं, कुछ तो ढक दिए गए हैं, कुछ ढके जाएंगे! लिलहान का बचा-खुचा कुछ और स्थल, अब कब और लघुकृत हो जाए, ये तो वक़्त ही जाने!
मित्रगण! ये संसार, अजब-गज़ब है! जो सुनो वो कम और जो न सुनो वो बहुत ज़्यादा! जो होता है वो होता नहीं, जो आरम्भ हुआ, उसका अंत ही न हुआ! हाँ कुछ विरामावस्था में चले गए, कुछ गुमनामी में!
लेकिन, सब, सब का सब, यहीं था, यहीं है और यहीं रहेगा!
साधुवाद!
