वर्ष २०१२ भोपाल की ...
 
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वर्ष २०१२ भोपाल की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ जी" वे बोले,

"ठीक है, आज ही सही" मैंने कहा,

अब चाय आ गयी, हमने चाय पी!

उस समय पौने छह बजे थे, इसका मतलब हमको यहाँ से सात बजे निकलना था उसके दफ्तर के लिए, जैसा कि सौम्या ने बताया था!

और फिर बजे साथ, हम तैयार हुए, और हम वहाँ से चल पड़े उस विक्रांत की तरफ! उसने जिस खेल का आयोजन किया था अब वो खुद ही फंसने वाला था उसमे! कहते हैं न, दूसरों के लिए गड्ढा खोदोगे तो खुद ही गिरोगे! अब वो गिरने वाला था, अपने ही खोदे हुए गड्ढे में! गड्ढा भी कुछ ऐसा कि जिसका तल बहुत गहराई पर था!बीच शहर से होती ही हमारी गाडी धीरे धेरे रास्ता छोटा किया जा रही थी! और विक्रांत इस से अनभिज्ञ बैठा था अपने दफ्तर में!

औ फिर हमारी गाड़ी एक बड़ी सी इमारत के सामने जाकर रुकी, गाड़ी अंदर ली गयी, पार्किंग में लगायी गयी, पर्ची ली और फिर हम इमारत में घुस चले, इसकी ही एक मंजिल पर वो दफ्तर था!हमने लिफ्ट ली और उस मंजिल तक आ गए!

 

हम उस तल पर पहुंचे गए, वहाँ अन्य भी कई दफ्तर थे, और फिर हमको एक जगह उस दफ्तर का नाम दिखायी दिया, हम वहीँ चल पड़े, उसके सामने आये, शीशा लगा था और दफ्तर आलिशान था! ये इंजीनियरिंग से सम्बंधित ही दफ्तर था, इसीलिए सौम्या ने यहाँ नौकरी की थी, ताकि कुछ प्रशिक्षण प्राप्त हो सके, लेकिन यहाँ तो उसके साथ कुछ और ही पेश आया था, बेचारी की जान पर बन आयी थी, मुझे उसी समय क्रोध चढ़ आया, लगा कि जाते ही उस विक्रांत को लात-घूंसों से नवाज दूँ! लेकिन वहाँ अभी भी कई दफ्तर अभी भी खुले थे, और कोई तमाशा मै चाहता नहीं था, इसीलिए मैंने यहाँ अपनी रणनीति ज़रा सी बदल ली!

हम दरवाज़े के पास खड़े हुए तो एक टेबल के सहारे खड़ा हुआ एक व्यक्ति उठ कर वहाँ आया, उसने दरवाज़ा खोला, ये शायद वहाँ का चपरासी था, वो गोपाल जी को पहचान गया, और उनसे नमस्ते की, उन्होंने भी नमस्ते की, ये बढ़िया हुआ था! अब गोपाल जी ने विक्रांत के बारे में पूछा तो उसने बताया कि विक्रांत इस समय दफ्तर में ही हैं और अपने केबिन में बैठे हैं, अब गोपाल जी ने उस से मिलने की इच्छा ज़ाहिर की, जैसे कि रणनीति बनायी गयी थी, चपरासी ने हमको वहीँ बैठने को कहा और खुद अंदर चला गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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थोड़ी देर बाद आया वो और उसने हमको अंदर जाने को कह दिया, अब तक कोई और नज़र नहीं आया था वहाँ, इसका मतलब दफ्तर में विक्रांत और उस चपरासी के अलावा और कोई नहीं था! समय साथ दे रहा था, विक्रांत के ग्रह-नक्षत्र सभी आँखें मूँद सो गए थे, हाँ अब गोचर में वेध लगा गया था उसके!

हम अंदर गए, वहाँ एक केबिन में बैठा था विक्रांत, चपरासी ने दरवाज़ा खोला, अंदर धकेला दरवाज़े को और हम सट से अंदर चले गए!

मेरे सामने एक पैंतीस साल के आसपास का एक आदमी बैठा था, बाल रंगे हुए थे उसने शायद, भूरे रंग के केश किये हुए थे, दाढ़ी-मूंछें भी नहीं थीं उसके, कुल मिलाकर आधुनिक दिखने का भरसक प्रयास था, कपडे भी वैसे ही पहने हुए थे, बाहर से जितना सरल दीखता था अंदर से उतना ही कालिमा से भरा था! हाथ में सोने की अंगूठियां दमदमा रहीं थीं! मंझोले कद का था वो!

उसने नमस्ते की,

गोपाल जी ने की,

हमने नहीं की!

फिर उसने हमको बैठने को कहा! और चपरासी से पानी लाने को कह दिया! चपरासी का नाम किशन लिया था उसने! किशन चला गया पानी लेने!

अब हमारा परिचय हुआ, गोपाल जी को वो जानता था, शर्मा जी को सौम्या के मामा जी के रूप में पेश किया उन्होंने और मै मामा जी का दोस्त! हम दिल्ली से आये थे और यही पास में ही काम था, इसीलिए उस से मिलने चले आये थे!

वो मुस्कुराया!

"अब कैसी है सौम्या?" उसने पूछा,

"अब ठीक है" गोपाल जी ने कहा,

"बड़ी अच्छी बात है, हम यहाँ उसके बारे में बातें करते रहते थे, बहुत बढ़िया काम करती थी वो यहाँ" वो बोला,

"पिछले दो महीने से बिलकुल ठीक हो गई है, दिल्ली इलाज करवाया था उसका, इन्होने ही इलाज करवाया है" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अच्छा! अच्छा! बहुत अच्छी बात है!" वो बोला,

तभी किशन वहाँ पानी रख गया और चला गया कमरे से!

"हाँ जी, बच गयी, नहीं तो उसकी हालत बहुत खराब थी" गोपाल जी बोले,

"हाँ, अक्सर दफ्तर में भी वो ऐसी शिकायत करती थी, कई बार तो मैंने उसको छोड़ा घर तक" वो बोला,

"हाँ जी, बताया था उसकी मम्मी ने मुझे" वे बोले,

"चलो ठीक हो गयी, मैंने तो कहा था कि जब ठीक हो जाए तो दुबारा से यहाँ आ सकती है और ज्वाइन कर सकती है!" वो बोला,

अब शर्मा जी से रहा नहीं गया! उनकी कनपटियाँ गरम हो गयीं! फिर भी संयत होकर बोले," देखिये श्रीमान विक्रांत साहब! वो तो अब ज्वाइन नहीं करेगी, हाँ, आप अब रुहेला को ज्वाइन करने वाले हैं!"

इतना सुनना था कि उसने झट से पानी का गिलास नीचे रख दिया! पानी गटका उसने तेजी से, मुंह पोंछा और बोला, "कौन रुहेला?"

"वही रुहेला! पंद्रह हज़ार वाला! याद आया?" शर्मा जी ने कहा,

"ये क्या बकवास कर रहे हैं आप? निकल जाइये यहाँ से!" वो खड़े होते हुए बोला,

"सुन ओये माँ ** **! नीचे बैठ जा, जैसे बैठा था, नहीं तो साले इसी मंजिल से उठा के बाहर फेंक दूंगा तुझे!" शर्मा जी बोले,

वो एक, हम तीन!

बैठ गया नीचे!

"अरे ओ कुत्ते की औलाद! तेरा सारा भांडा फूट चुका है! तेरा वो रुहेला पड़ा होगा किसी अस्पताल में, उसने सब क़ुबूल कर लिया, तेरा सारा हाल बता दिया उसने, तूने उस लड़की को कैसे सताया, ये भी बता दिया उसने! उसकी खातिरदारी करके ही आ रहे हैं हम! और अब तेरी बारी है!" वे बोले,

अब!

शब्द न निकले उसके मुंह से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसकी जिव्हा ही उसके हलक में फंस के रह गयी!

पसीने छूट पड़े उसके!

और तभी शर्मा जी ने खींच के एक झापड़ रसीद किया उसको! उसका चश्मा उछल कर दूर जा पड़ा! और वो सन्न! क्या कहता! जैसे कोई चोर रंगे हाथ पकड़ा जाता है वैसा हाल उसका!

"हाँ, क्या चाहता है? बुलाऊँ लड़की को? करवाऊं तुझे सरे-आम नंगा? करवा दूँ पुलिस में तेरा नाम दर्ज? बोल, रंडी ** ** बोल? क्या चाहता है?" उन्होंने पूछा,

अब रोया वो! बुरी तरह से फफक फफक कर! सारी गलती मान ली उसने! पाँव पड़ने को तैयार हो गया वो! गोपाल जी से माफ़ी मांगे! मुझसे माफ़ी मांगे! शर्मा जी से माफ़ी मांगे!

"इसकी औरत को बुलाओ यहाँ!" मैंने कहा,

"हाँ, बोल ओये, अपनी औरत का नंबर बोल? उसको बुलाते हैं यहाँ, उसको दिखाते हैं कि उसका खसम क्या क्या करता है दफ्तर में लड़कियों के साथ!" शर्मा जी ने कहा,

अब तो बिफर गया वो!

नहीं! नहीं! कहते कहते उसका गला रुंध गया! फिर गले से आवाज़ आनी भी बंद हो गयी!

"शर्मा जी, क्या सजा मिले इसको?" मैंने पूछा,

"डाल दो साले को लकवा! फ़ालिज़ मार दो, साला जब बिस्तर में ही हगेगा मूतेगा, तब इसको अपने करम याद आयेंगे!" वे बोले,

अब मैंने भंजन मंत्र पढ़ा! और अपने मुंह में थूक इकठ्ठा किया! और फिर भंजनी चला दी! थूकते ही वो अपना सीधा हाथ पकड़ कर नीचे बैठता चला गया! हमेशा के लिए सुन्न हो गया था उसका सीधा हाथ, एक लोथड़े जैसा! जो था तो शरीर के साथ ही जुड़ा हुआ लेकिन मृत! मृत लोथड़े जैसा!

'आओ शर्मा जी, चलें यहाँ से!" मैंने कहा,

'चलिए!" वे बोले,

और हम वहाँ से निकल गए अब!

चपरासी बाहर ही बैठा था, उसको अंदर क्या हुआ, कुछ पता नहीं चला था शायद! और हम वापिस आ गए, लिफ्ट से उतरे, गाड़ी तक पहुंचे, बैठे, पर्ची दी और निकल लिए वहाँ से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम घर पहुंचे! रात हो चुकी थी! उस रात रास्ते से हम खाने-पीने का सामान लेते आये थे, सो उस रात हमने जम कर खाना खाया पिया!

अगले दिन,

अगले दिन दोपहर तक हमारी टिकटें आ चुकी थीं, मै और शर्मा जी आखिरी बार मिलने गए उस लड़की से, सौम्या से! उसको खूब समझाया कि कभी भी कोई भी बात अपने माता-पिता से नहीं छिपाना! और फिर मित्रगण! गोपाल जी के बहुत रोकने के बाद भी हम नहीं रुक सकते थे! न जाने और कितनी सौम्या हैं और न ही जाने कितने विक्रांत और रुहेला!समय बीता चला!सौम्या फिर से हृष्ट-पृष्ट हो गयी! हाँ, उसने कहीं और नौकरी नहीं की उसके बाद!सौम्य का इस वर्ष विवाह हो गया, लेकिन हम नहीं जा सके, मै फिर कभी सौम्या से नहीं मिला, विक्रांत का क्या हुआ, नहीं पता चल सका! नहीं ही पता किया मैंने!हाँ, गोपाल जी आते हैं हर त्यौहार पर! अक्सर मिलते हैं, अब घर में कोई समस्या नहीं उनके!

----------------------------------साधुवाद---------------------------------

 


   
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