दिया, हम पहुचे, जूते खोले और वहीं गद्दों पर पसर के सो गए, आराम से! कब खर्राटे आये कब नहीं कुछ नहीं पता!
सुबह उठे, रात का घटना-क्रम याद आया! सर भारी था, और फिर सारी बात याद आ गयी! मैंने शर्मा जी को जगाया, वे भी जग गए, शर्मा जी थोडा संतुलित होकर पीते हैं इसीलिए होश काबिज़ रहते हैं उनके! और इस से मुझे बहुत फायदा होता है, जैसे कि जब मैं असंतुलित हो जाता हूँ तो वो मुझे सरंक्षण दे देते हैं! एक पिता के समान! और इसीलिए मैं उनका सदैव ऋणी हूँ और सदैव रहूँगा!
खैर,
वे जागे,
तब तक सहायक आ चुके थे, साफ़-सफाई करने वाले, हम सीधे ही हाँथ-मुंह धोने चले गए, पापड़ी पेड़ की डंडी तोड़ी और दातुन बना कर दातुन कर ली! और फिर चले सीधे बाबा के पास! बाबा अपने कक्ष में ही थे! हमे देखा तो मुस्कुराये! मैंने और शर्मा जी ने नमस्कार की उनको, उन्होंने बिठा लिया हमको! हम बैठ गए वहाँ!
"और सुनाइये, कैसी रही रात आपकी?" बाबा ने हंस के पूछा,
"बहुत बढ़िया!" मैंने भी हंस के उत्तर दिया!
"कोई कमी तो नहीं रही?" उन्होंने पूछा,
"नहीं बाबा, किसी भी चीज़ की कमी नहीं!" मैंने कहा,
"नाश्ता किया?" उन्होंने पूछा,
"नहीं, अभी नहीं" मैंने कहा,
"अच्छा, रुको" वे बोले,
और एक लड़की को बुलाया वहाँ, और फिर उसको नाश्ता लाने को कह दिया,
"वापसी कब की है?" उन्होंने पूछा,
"पहले ज़रा इस रुहेला से निबट लूँ मैं" मैंने कहा,
'अरे हाँ!" वे बोले,
"तो जाने से पहले यहाँ आ जान, ठीक है?" वे बोले,
'हाँ, आ जायेंगे" मैंने कहा,
तभी वो लड़की नाश्ता ले आयी, दूध और कुछ मिठाई थी, देसी मिठाई, हमने उठायी और खाई और एक एक गिलास दूध खींच मारा!
"और कोई दिक्कत हो तो मुझे बता देना" वे बोले,
"ज़रूर बाबा" मैंने कहा,
नाश्ता ख़तम हुआ!
अब हमने उनसे विदाई ली!
उन्होंने हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया और हम फिर अपनी गाड़ी में बैठ चल पड़े गोपाल जी के घर की तरफ!
घर पहुंचे!
गोपाल जी ने दरवाज़ा खोला!
हम अंदर आ गए!
उन्होंने नमस्ते की और हम अपने कक्ष में आ कर बैठ गए, उन्होंने नाश्ते की पूछी तो हमने मना कर दिया, नाश्ता तो हम कर आये थे ही! उनको बता दिया!
'कुछ बताया लड़की ने?" मैंने पूछा,
"नहीं, बोल ही नहीं रही किसी से भी" वे बोले,
"कोई बात नहीं, ज़रा स्नान कर लें, फिर मैं बात करता हूँ उस से" मैंने कहा,
और फिर हमने स्नान किया और मैंने अब गोपाल जी से उस सौम्या से मिलने की इच्छा जतायी, वे ले गए हमको उसके कमरे में! वो लेटी हुई थी, खड़ी हो गयी, उनसे नमस्ते की! अब वो ठीक थी!
"सौम्या?" मैंने पुकारा,
"जी?" उसने कहा,
"अब कैसी हो?" मैंने पूछा,
"ठीक हूँ" वो बोली,
"मैं कुछ पूछूंगा, सही सही जवाब दोगी?" मैंने करारा सा सवाल दागा!
उसने गर्दन हिलाकर हाँ कहा!
"ये विक्रांत कौन है?" मैंने पूछा,
वो चौंकी!
ये सवाल उसके पिता जी ने भी पूछा होगा! इसीलिए!
उसने उत्तर नहीं दिया, मैं समझ गया, मैंने गोपाल जी को बाहर भेज दिया!
''अब बताओ?" मैंने पूछा,
वो नहीं बोली कुछ!
अब मोर्चा शर्मा जी ने सम्भाला!
उसको सभी उंच-नीच परिवार की इज्ज़त आदि के बारे में समझाया और खूब पक्ष लिया उसका! काम बन गया! वो हम पर विश्वास कर सकती थी!
"कौन है ये विक्रांत?" शर्मा जी ने पूछा,
"जहां मैं नौकरी करती हूँ वहाँ के मालिक का लड़का है, वो वहीँ काम करता है, ऊंचे पद पर है" वो बोली,
"तुम्हारा उसके साथ कैसा व्यवहार है?" मैंने पूछा,
"जैसा दफ्तर में होता है अक्सर" उसने कहा,
"फिर तुम उसके साथ इटारसी क्यों गयीं थीं?" मैंने पूछा,
"मैं नहीं, सभी गए थे दफ्तर की तरफ से, वहाँ एक नया दफ्तर खोला है उन्होंने, और ये लोग वहीँ के रहने वाले हैं" वे बोली,
"अच्छा! उसने तुम्हे कुछ खिलाया था?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"कहीं ले गया था?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"क्या उसका व्यवशार वैसा ही है तुम्हारे साथ जैसा तुम्हारा है?" मैंने पूछा,
"नहीं!" उसने कहा,
अब मैं समझा!
"समझ गया मैं!" मैंने कहा,
"उसने कभी कोई बद्तमीजी तो नहीं की तुम्हारे साथ?" मैंने पूछा,
"नहीं, लेकिन कोशिश ज़रूर की, मैंने कभी नहीं मानी" वो बोली,
"बहुत बढ़िया किया तुमने!" मैंने कहा,
"उठो शर्मा जी, अब कुछ नहीं बचा सुनने-सुनाने के लिए, सारा मामला खुल गया!" मैंने कहा,
"अब तुम आराम करो बेटे" शर्मा जी ने सौम्या से कहा,
और हम उठकर बाहर आ गये उसके कमरे से! अब इस विक्रांत को पाठ पढ़ाना था! कहानी ये थी! उसने इसलिए इस बेचारी को तंग किया था! अब ढूंढना था उस रुहेला को!
बाहर आये तो अपने कमरे में पहुंचे, और बैठ गए, अब सारा ध्यान इस विक्रांत पर और उस रुहेला पर लगाना था, विक्रांत ने ही मदद ली होगी उस रुहेला की, ताकि वो अपने नापाक इरादे में कामयाब हो! लकिन अब बाजी पलट गयी थी, विक्रांत का खेल और उस रुहेला का 'खेल' अब पकड़ में आ चुका था! और हाँ, रुहेला अब तक जान चुका होगा कि उसकी कुछ चीज़ें पकड़ ली गयी हैं, और वो इस फ़िराक में ज़रूर होगा कि आगे क्या किया जाए, वो जानता था कि वो हमारी पकड़ में है और हर शातिर खिलाड़ी के तरह वो भी तैयार ही होगा! इसके लिए मुझे भी तैयारी करनी थी और ये तैयारी यहाँ सम्भव नहीं थी, इसके लिए हमको फिर से बाबा चुन्नी लाल के डेरे पर ही जाना था! वहीँ ये सब सम्भव था! मैंने बाबा चुन्नी लाल को फ़ोन किया और उनसे मेरी बातें हुईं, मैंने उनको अपनी मंशा ज़ाहिर की और उन्होंने सहर्ष मुझे बुला भेजा, अब मेरे सामने कोई समस्या नहीं थी! और मैं आज शाम वहीँ जाने वाला था और फिर कल उस रुहेला के पास! अब रुहेला का 'खेल' ख़तम करना था और उस विक्रांत को ऐसा सबक सिखाना था कि भविष्य में वो ऐसा काम कभी न कर सके! और इसके लिए तैयारी करना अत्यंत आवश्यक था! ये सब मैंने शर्मा जी से बताया और उन्होंने भी हामी भर दी, अब देर करना सही नहीं था, और सबसे पहले इस लड़की को सुरक्षित करना था ताकि कोई और उस पर अब हावी न हो सके!
इसके लिए शर्मा जी ने गोपाल जी को बुलाया, और सब बता दिया, वे चौंक पड़े विक्रांत के बारे में जानकर, उस रुहेला के बारे में जानकर! चौंका उनका वाजिब भी था, एक बाप को ये आभास नहीं था कि उसकी बेटी के साथ क्या खेल खेला जा रहा है! अब उनको सबकुछ बता दिया गया था! और उनको मैंने ये भी कह दिया था कि वे अब इस विक्रांत और इस रुहेला से निश्चिन्त रहें, इनको सबक कैसे सिखाना है ये वे स्वयं देख लेंगे!
मित्रगण, मैंने उसी समय एक धागा बनाया, और उसको मन्त्रों से अभिमंत्रित किया फिर एक आन लगायी और गोपाल जी को दे दिया, ये धागा उन्होंने सौम्या के बाएं हाथ में बांधना था, इस से कोई भी हवा या रूह उस पर क़ाबिज़ नहीं हो सकती थी! वे धागा लेकर चले गए और कुछ देर बाद आकर बताया कि उन्होंने वो धागा उसके बाएं हाथ में बाँध दिया है! चलो! अब ये लड़की तो सुरक्षित हो गयी थी! अब रहे ये विक्रांत और रुहेला! इनका हिसाब-किताब अब सबसे पहली प्राथमिकता थी मेरी!
उसके बाद खाना खाया हमने और कुछ देर आराम किया! और कुछ रणनीति बनायी हमने! रुहेला के पास तो हम पहुँच सकते थे, रही बात इस विक्रांत की, उसके लिए या तो उसके दफतर या फिर उसके घर जाकर ही उसको धरा जा सकता था! खैर, ये बात बाद की थी, सबसे पहले जहां से ये 'खेल' ज़ारी हो रहा था उसको रोकना अत्यंत आवश्यक था!
और फिर हुई शाम, कोई पांच बजे, हम पांच बजे ही गोपाल साहब की गाड़ी लेकर वहाँ से बाबा चुन्नी लाल के डेरे के लिए निकल पड़े! घंटे भर में वहाँ पहुँच गए हम! बाबा चुन्नी हमको वहीँ मिले, नमस्कार हुई और उन्होंने मुझे सीधे ही क्रिया-स्थल के बारे में बता दिया, ये स्थल एक कोने में बना हुआ था, चहल-पहल से दूर, वहाँ बस पेड़ लगे थे और दो तीन कमरे बने थे, कुल मिलकर जगह शांत थी! मैं वहाँ गया, सीधा स्नानालय और स्नान किया, फिर मैंने अपना बैग, जो मैं लेकर आया था, खोला और फिर कुछ सामग्री निकाली और उसको थाल में सजा कर मैंने अब मंत्रोच्चार किया, कई मंत्र जागृत करने थे, अभय-मंत्र, शूल-मंत्र, भंजन-मंत्र आदि आदि! मैंने अब मंत्र जागृत करने आरम्भ किये, एक एक करके, मुझे पूरे तीन घंटे लग गए, मंत्र जागृत हो गए सारे! अब मैं वहाँ से उठा, लेकिन मुझे तभी ध्यान आया कि मुझे उस रुहेला का पता भी निकालना है, इसके लिए मैंने अपना कारिंदा सुजान हाज़िर किया, सुजान हाज़िर हुआ और वो उड़ चला! उड़ चला अपने गंतव्य की ओर!
पांच मिनट बीते होंगे कि सुजान हाज़िर हुआ, पता निकाल लाया था, उसने जो ख़ाक़ा खींचा वो मैंने अपने दिमाग में बसा लिया, अब सुजान वापिस हुआ, अपना भोग लेकर! और मैं बाहर आ गया, अपना बैग लेकर!
मैं सीधा बाबा के कक्ष तक आया, बाबा नहीं थे वहाँ, हाँ, शर्मा जी वहाँ लेटे हुए थे, मैंने आवाज़ देकर उनको उठाया, वे उठ गए!
"बाबा कहाँ गए?" मैंने पूछा,
"कोई मिलने आया है उनसे, वहीँ गए हैं, मुझे आराम करने के लिए कह गए थे" वे बोले,
'चलो कोई बात नहीं" मैंने कहा,
और मैं भी बैठ गया वहाँ पर,
बैठा, तो बैठा नहीं गया, कमर अकड़ सी गयी थी, जो बिस्तर शर्मा जी ने खाली किया था, अब मैं लेट गया वहाँ पर!
"पता चल गया रुहेला का?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, चल गया" मैंने कहा,
"कहाँ है?" उन्होंने पूछा,
"खेड़ा, इटारसी में" मैंने कहा,
''अच्छा!" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"तो अब इस हरामज़ादे का कब करना है खेड़ा पलट?" उन्होंने पूछा,
मुझे हंसी आयी!
"कल" मैंने कहा,
"कल सुबह ही निकलते हैं" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
''और वो कुत्ता विक्रांत?" उन्होंने पूछा,
''उसका भी हिसाब-किताब करेंगे" मैंने कहा,
''आप देखिये क्या हाल करता हूँ इन दोनों का मैं, साले कमीने!" वे बोले,
मैं मुस्कुरा पड़ा!
मैं जानता था वो गुस्से में आ गए हैं!
और तभी वहाँ बाबा ने प्रवेश किया!
बाबा आये तो मैंने उनसे नमस्कार की और बैठ गया, अब मैंने उनको सभी बातें बता दीं कि सुजान कारिंदे ने क्या बताया है, कारिंदा उस रुहेला के पकड़ में या देख में नहीं आया था, इसका कारण ये था कि रुहेला मुस्तैद नहीं था! वो आराम से अपने खेल में ही मस्त था या फिर समय समय पर ही जांच करता था! अब मौक़ा सही था, बाबा ने भी कह दिया कि उसको अब दबोच लिया जाना चाहिए, मौक़ा अच्छा है! अब उनसे हमने विदा ली, रात के दस बजे थे, बाबा ने हमको उस रात वहीँ रुकने को कहा था लेकिन काम कुछ ऐसा था कि वहाँ रुका नहीं जा सकता था, अतः मैं और शर्मा जी वहाँ से रात दस बजे करीब गोपाल जी के घर के लिए रवाना हो गए!
हम साढ़े ग्यारह बजे घर पहुंचे, गोपाल जी से मिले और उनको आगे की सारी रणनीति बता दी, कि क्या करना है, सबसे पहले रुहेला को दबोचना था और उसके बाद फिर उस विक्रांत को!
उस रात हमने खाना खाया और फिर सो गए, अगले दिन रुहेला के पास जाना था, उसको सबक देने! बहुत खेल खेल लिया था उसने अब खेल ख़तम करना था उसका, कैसे भी करके!
सुबह हुई, और हम लोग अपने नित्य-कर्म से निवृत हुए, स्नान किया और फिर कमरे में आ बैठे, उस समय साढ़े पांच बजे थे सुबह के, गोपाल जी भी आ गए, वे भी तैयार थे, नाश्ता लगवा दिया गया, हमने चाय-नाश्ता किया और अब हम चले उस रुहेला के कुंडली बांचने! हम छह बजे वहाँ से निकल गए!
हमारी गाड़ी अब भागे जा रही थी इटारसी की तरफ, खेड़ा, यहाँ जाना था हमको, और खेड़ा के पास ही एक जगह ऐसी थी जहां ये रुहेला रहता था, जहां से ये ऐसे ऐसे घिनौने काम को अंजाम दिया करता था! हम पचास-साठ की रफ़्तार से आगे बढ़ रहे थे, कुल दूरी सौ के आसपास ही थी, सो दो घण्टे में पहुँचने की उम्मीद थी! मौसम खुला था, धूप खिली हुई थी, और मौसम में गर्मी थी! सफ़र भी बढ़िया था, कोई भीड़-भाड़ भी नहीं थी!
और मित्रगण, करीब साढ़े आठ बजे हमने इटारसी में प्रवेश किया, यहाँ से खेड़ा जाने का रास्ता पूछा और उस रास्ते पर बढ़ चले! करीब एक घंटे के बाद हम खेड़ा पहुंचे, अब यहाँ मुझे एक
बड़ा सा मंदिर पूछना था, जैसा सुजान ने बताया था, हमने वहाँ एक खोमचे वाले से पूछा, वहीँ खोमचे पर खड़े एक व्यक्ति ने वहाँ का पता बता दिया! और हम वहाँ के लिए चल पड़े!
मंदिर पहुंचे, अब यहाँ से एक और निशानी दी थी मुझे सुजान ने, हमने उसके बारे में पूछा, उसका भी पता चल गया, और हम वहाँ के लिए चल पड़े! ये रास्ता ठीक नहीं था, शायद बन रहा था या मरम्म्त हो रही थी उसकी, यहाँ हमको बहुत परेशानी हुई निकलने में, और जब हम पहुंचे तो हम शायद खेड़ा छोड़ चुके थे, ये कोई बाहरी सा क्षेत्र था! अब फिर से एक और निशानी ढूंढनी थी, और जल्दी ही वो भी मिल गयी और हम फिर एक छोटे से आबादी वाले क्षेत्र में जा पहुंचे! वहाँ कुछ लोग बैठे थे एक पेड़ के टूटे हुए शहतीर पर, उनसे शर्मा जी ने रुहेला के बारे में पूछा, उनमे से एक ने बता दिया कि रुहेला कहाँ मिलेगा, और हम फिर वहीँ के लिए चल पड़े! अब रुहेला हमारी पकड़ में था! आने ही वाला था!
और फिर हमारी गाड़ी एक जगह रुकी, ये एक खाली सा मैदान था, मैदान की दूसरी ओर एक दीवार थी जो दूर तक चली गयी थी, ज्यादा ऊंची तो नहीं थी, लेकिन थी दीवार ही, वहीँ उसके पास ही एक रिहाइशी क्षेत्र था, यहीं था ये रुहेला! हमने गाड़ी वहीँ के लिए काट दी, और वहीँ के लिए चल पड़े, वहाँ कुछ मवेशी चारा चर रहे थे, उनके पास से होते हुए हम एक गली में मुड़ गए! और यहाँ मुझे एक आखिरी निशानी दिखायी दे ही गई, एक त्रिशूल वाला मंदिर, यहीं था वो रुहेला! गाड़ी अब वहाँ जा रुकी, हमने गाड़ी एक जगह रोक ली और फिर उतरे, सीधे मंदिर में गए, मंदिर का बड़ा दरवाज़ा अभी लगा नहीं था, निर्माण चल रहा था वहाँ! हम अंदर घुस गये!
अंदर हमको एक व्यक्ति दिखायी दिया, वो हमको देख हमारे पास ही आ गया, उसने नमस्ते की तो हमने भी नमस्ते का उत्तर दिया, अब शर्मा जी ने उस रुहेला के बारे में पूछा, यहाँ पता चला कि उस रुहेला का असली नाम भान सिंह था, शायद रुहेलखंड का रहने वाला होगा, इसीलिए रुहेला नाम उसका बोली का था, या अन्य कोई कारण हो, पता नहीं! वो व्यक्ति हमे अपने साथ ले चला, हम चलते गये उसके पीछे और फिर एक नव-निर्मित सी धर्मशाला सी आ गयी, छोटी सी धर्मशाला थी वो, शायद भजन-कीर्तन के लिए बनवायी गयी हो! इसी धर्मशाला के साथ कुछ कमरे थे, और उन्ही किसी कमरे में था ये भान सिंह रुहेला! वो व्यक्ति हमको उसी कमरे के सामने छोड़ वापिस चला गया, अब शर्मा जी ने कमरे में झाँका, कमरे में दो आदमी थे, शर्मा जी ने रुहेला के बारे में पूछा तो रुहेला उठा और बाहर आया! औसत कद और कोई पचास बरस की उम्र वाला था ये रुहेला, हलकी सफ़ेद दाढ़ी थी उसके, कमीज़ और पाजामा पहन रखा था उसने! यही था वो खिलाड़ी!
"आप ही हैं रुहेला जी?" शर्मा जी ने पूरी इज्ज़त बख्शते हुए पूछा!
"हाँ जी, मैं ही हूँ" वो बोला,
"जी कुछ काम है आपसे" शर्मा जी ने कहा,
"बताओ, क्या काम है?" उसने पूछा,
अब शर्मा जी ने इधर उधर देखा,
वो समझ गया,
''आओ मेरे साथ" वो बोला,
हम उसके पीछे चले अब!
वो हमको एक कमरे में ले गया और वहाँ बिठाया, वहाँ फोल्डिंग-पलंग पड़े थे, हम वहीँ बैठ गए!
"कहाँ से आये हो आप लोग?" उसने पूछा,
"जी भोपाल से" शर्मा जी ने कहा,
"अच्छा!" वो बोला,
"हाँ जी, बड़ी उम्मीद लेके आये हैं आपके पास" वे बोले,
"कोई बात नहीं" वो बोला,
"काम बहुत ज़रूरी है" वे बोले,
"बताइये?" उसने पूछा,
"बिज़नस में बड़ा घाटा हो रहा है आजकल, साथ वाली पार्टी ने धोखा दे दिया है, हम चाहते हैं साले का काम पिट जाए" वे बोले,
'अच्छा!" वो बोला,
आँखों में चमक आ गयी उसके!
"नाम बताओ उस पार्टी का" उसने पूछा,
"जी उसके मालिक का नाम है, चलेगा?" शर्मा जी ने पूछा,
"ये वही आदमी है?" उनसे पूछा,
"हाँ जी" शर्मा जी ने कहा,
"हं, अच्छा, नाम बताओ उसका?" उसने पूछा,
"विक्रांत!" शर्मा जी ने कहा,
अब उसको जैसे ये नाम सुन करंट सा लगा! झटका सा खाया उसने!
"क्या हुआ रुहेला जी?" शर्मा जी ने पूछा,
वो चुप!
"ये विक्रांत आपके जानने वाला है क्या?" उन्होंने पूछा,
"न...न....नहीं तो" वो घिग्घिया के बोला!
"आप तो ऐसे चौंक गए जैसे आप जानते हो उसको?" शर्मा जी ने कहा,
"नहीं तो" वो बोला,
"साला बहुत कमीन आदमी है वो, काम तो काम हमारे भाई साहब की लड़की पर अमल करा दिया हरामज़ादे ने, साला मिला नहीं, नहीं तो चार टुकड़े हो जाने थे उसके, घर से भागा हुआ है वो!" अब शर्मा जी बोले,
"घर से भाग गया?" वो बोला,
"लगता है आप जानते हो उसको?" शर्मा जी ने मुस्कुराते हुए कहा,
"नहीं जी" वो बोला,
"तो बताओ, काम कैसे होगा?" शर्मा जी ने पूछा,
"जी, काम के..लिए....वक़्त नहीं है मेरे पास, कहीं और चले जाओ आप" अब वो घबरा के बोला, बार बार दरवाज़े से बाहर देखता!
अब शर्मा जी उठे और उठकर दरवाज़ा बंद कर दिया अंदर से!
अब तो जैसे वो वायु-रहित गुब्बारा सा हो गया!
'दरवाज़ा?" उसने पूछा,
"काम की बात चल रही है, कोई सुने नहीं इसीलिए बंद किया, आप भी बार बार बाहर देख रहे थे!" वे बोले,
अब उसके चेहरे पर कई भाव आये और कई भाव गुजरे!
"हाँ जी, रुहेला जी, कैसे बनेगी बात?" शर्मा जी ने पूछा,
"मेरे...पास...समय नहीं ....है, आप चले जाओ कहीं और" वो बोला,
''समय कैसे नहीं है आपके पास?" शर्मा जी आये अब अपने टौर में!
'क्या...मतलब?" उसने डरके पूछा,
"रुहेला जी, जब वो माँ***** यहाँ आया था आपके पास, तब तो आपके पास वक़्त था, अब हम आ गए हैं तो वक़्त नहीं है, ये क्या बात हुई भला?" शर्मा जी ने पूछा,
"वो नहीं आया मेरे पास" वो बोला,
"तो बहन * **! उस लड़की सौम्या पर ताक़त किसने सवार की? तेरे बाप ने या उस माँ के ** विक्रांत के बाप ने?" शर्मा जी के नथुने फड़के अब!
अब वो उसने पाँव पलंग के अंदर डाले, वो भांप गया था कि उसका भांडा फूट गया है!
"सुन ओए रुहेला माँ****! सब सच सच बतायेगा, तो तेरे हाथ-पाँव ही टूटेंगे, झूठ बोलेगा तो तेरी गर्दन भी टूट सकती है, ज़िंदगी भर बिस्तर में ही हगा करेगा तू, अब सोच ले क्या चाहता है?" उन्होंने पूछा,
अब कांपा वो! पाँव तले ज़मीन खिसक गयी उसकी!
अब शर्मा जी ने उसका टेंटुआ पकड़ा और अपनी तरफ खींचा!
"ये....ये...क्या कर रहे हो आप?" उसने दबी दबी आवाज़ में पूछा,
"बहन * ** अगर ज़रा सी भी आवाज़ की तूने तो साले इसी दीवार को साथ ले गिरेगा तू, तुझे बताये देता हूँ मैं!" वे बोले,
अब तो उसका हलक़ भी सूख चला! उसकी देह अब लात-घूंसे सहने के लिए तत्पर हो गयी!
अब खड़े हुए शर्मा जी! और उसको देखा, वो नीचे देख रहा था, तभी शर्मा जी ने उसकी छाती में एक ज़ोरदार सी लात जमा दी! वो "आघ' कहता हुआ पीछे दीवार से जा टकराया और पलंग और दीवार के बीच गिर गया! मैं उठा, और उसके पास तक गया, और उसको उठाया, उसने
कांपते हाथों से हाथ जोड़े मेरे! बोला कुछ नहीं! इतने में शर्मा जी आ गए वहाँ, और एक और लात उसके पेट में जमा दी! धम्म! धम्म से गिरा वो नीचे! और अब चिल्लाया वो, बचाओ! बचाओ!
उसकी मदद के लिए दो तीन लोग पहुंचे वहाँ, दरवाज़ा खटखटाने लगे, शर्मा जी ने दरवाज़ा खोल दिया और उनको भी अंदर ले लिए और दरवाज़ा बंद कर दिया! पतले पतले वे तीनों युवक हमको देख ठिठक गए!
"जो जैसे खड़ा है खड़ा रहे, ज़रा सा भी हिला तो साले इतनी मार लगाऊंगा कि घर में कोई पहचान नहीं सकेगा!" शर्मा जी बोले,
अपने गुरु को नीचे देख वे और भी घबरा गए! अब शर्मा जी उसके पास तक गए, और उसको बालों से उठाया पकड़ कर और पलंग पर बिठा दिया!
"हाँ बे, अब बता किसलिए आया था वो कुत्ते के औलाद विक्रांत यहाँ?'' पूछा शर्मा जी ने उस से!
उसने दम साधा अपना!
"बता ओ रंडी ** ***!" शर्मा जी ने उसके बाल पकड़ कर हिलाते हुए कहा!
"बताता हूँ! बताता हूँ!" वो बोला,
"बता?" शर्मा जी ने पूछा,
"वो आया था मेरे पास, कह रहा था कि एक लड़की है, उसका वशीकरण करना है, और उसके लिए कितना पैसा लगेगा ये बताओ, मैंने कहा कि पंद्रह हज़ार लगेंगे, और पंद्रह दिनों में वशीकरण हो जाएगा, और वो उसके वशीभूत हो जायेगी" वो बोला,
"तो उसने वो पैसे तुझे दिए, फिर?" शर्मा जी ने पूछा,
"हाँ, मेरे पास पैसे आ गए, और उस लड़की की फ़ोटो भी वो अपने फ़ोन में ले आया था" वो बोला, अपनी छाती सहलाते हुए!
"फिर?" उन्होंने पूछा,
"फिर मैंने काम शुरू कर दिया, जैसा मैंने कहा था कि वो बार बार उस लड़की को देखता रहे और मुझे फ़ोन पर, अब तक क्या हुआ,बताता रहे, उसने वैसा ही किया" वो बोला,
''अच्छा, क्या बताया उसने?" उन्होंने पूछा,
"यही कि कोई असर नहीं पड़ रहा है लड़की पर, उसने एक दो बार उस से बात भी की, लेकिन लड़की ने झिड़क दिया" वो बोला,
"अच्छा! फिर?" उन्होंने पूछा,
"एक दिन उसने बताया कि वो उस लड़की को और कुछ अन्य कर्मचारियों को यहाँ खेड़ा ला रहा है, कोई नया दफतर खोलने की बात थी, मैए कहा मौक़ा अच्छा है, मैं उस लड़की को देख भी लूँगा और कुछ दे दूंगा विक्रांत को, वो लड़की को खिला दे, किसी भी तरह" वो बोला,
"अच्छा! फिर क्या हुआ/" शर्मा जी ने पूछा,
'वो लेकर आया वहाँ, मुझे फ़ोन किया, मैं वहाँ पहुँच गया, मैंने लड़की को देखा, और फिर विक्रांत को कुछ दे दिया ताकि वो उसके खाने में मिला दे या किसी भी तरह खिला दे उसको" वो बोला,
"बोलता रहा माँ * **!" शर्मा जी ने गुस्से से कहा,
"उसने वो उसको प्रसाद में मिला के खिला दिया, लेकिन लड़की ने हाथ नहीं रखने दिया..." वे जैसे ही ये बोला, एक ज़ोरदार झन्नाटेदार झापड़ रसीद कर दिया गोपाल जी ने उसके गाल पर, वो नीचे गिर गया!
"हरामज़ादे, ये ही हैं उस लड़की के पिता, कुत्ते!" शर्मा जी ने उसको बालों से पकड़ के उठाया!
"अब बोल?" वे बोले,
उसने फिर से अपने आप को सम्भाला!
"जब बात नहीं बनी तो मजबूरन मुझे ऐसा करना पड़ा" वो बोला,
अब मैंने उसको उसके बालों सेपकड़ के उठाया! वो डरा!
"साले, कुत्ते ज़ाहिल, तेरी लड़की के साथ अगर ऐसा हो तो तू क्या करेगा? साले तुम्हारे तो खून ने भी खौलना बंद कर दिया है, पैसे के लालच में इस विद्या को बदनाम कर रहे हैं तेरे जैसे लोग, अब लड़की तो ठीक है, लेकिन अब मैं तेरा क्या अंजाम करूँगा, तू नहीं जानता!" मैंने ये कहते हुए उसको पलंग पर धक्का दे दिया! वो नीचे गिर गया, दूसरी तरफ!
उसके वे तीनों साथी काठ के उल्लुओं के सामान सारा तमाशा देख रहे थे, सुलपा खींच खींच के खुद सुलपा जैसे हो गए थे, किसी की भी हिम्मत नहीं हुई बीच-बचाव करने की!
अब शर्मा जी ने उसको उठाया, और गिरेबान से पकड़ कर नीचे दोनों पलंगों के बीच में बिठा दिया, वो रोता रहा, सुबकता रहा, गिड़गिड़ाता रहा लेकिन हम में से किसी को भी कोई दया नहीं आयी! दया आती भी कैसे? ये तो समाज के सबसे निकृष्ट लोगों के समुदाय में से था? ज़रा सी विद्या का ज्ञान नहीं हुआ कि लगे सभी को सताने! वही बात हुई न कि बंदर को हल्दी की एक गाँठ क्या मिल गयी, पंसारी बन बैठा!
"हट जाओ शर्मा जी" मैंने कहा,
अब वे हटे वहाँ से,
रुहेला की आँखें फटीं अब!
अब मैंने भंजन-मंत्र पढ़ा और मुंह में थूक इकठ्ठा किया, और फिर मंत्र मन में पढ़ते पढ़ते ही उस पर थूक दिया, थूक पड़ते ही वो ऐसे चीखा जैसे पेट में कोई सलाख घुसेड़ दी हो! और अब नाक और मुंह से खून आना शुरू हुआ! वो भाग पागलों की तरह से कमरे में उठ उठ कर! उसके साथी ये देखा आपस में ही चिपक गए और वे भी रोने-पीटने लगे! फिर रुहेला नीचे गिरा, खून के कुल्ले करने लगा, गला खून से रुंध गया और फिर मैंने एक और रिक्ताल-मंत्र पढ़ते हुए उस पर थूक दिया, वो ऐंठा, कुलबुलाया, हाथ-पाँव पटके उसने और उसकी एक एक चीज़ वहाँ से छूट पड़ी! उसकी विद्या का वेध हो गया! कभी वो अपना सर पकड़ता और कभी पेट! फर्श पर खून ही खून हो गया, उसके कपडे लथपथ हो गए! और फिर मैंने अपना मंत्र वापिस लिया, उसके ऊपर थूकते हुए! ये देख गोपाल जी जैसे पत्थर से बन गए, भय खा गए! मंत्र वापिस होते ही उसका रक्त बंद हुआ, साँसें तेज तेज चलते हुए सध गयीं, वो मृत्यु-पाश से बाहर आ गया!
"अब चलो शर्मा जी" मैंने कहा,
"चलिए गुरु जी" वे बोले,
अब शर्मा जी ने दरवाज़ा खोला और हम बाहर आ गए, हमारे पीछे पीछे वे तीनों भी बेसुध से भाग निकले कमरे से! हम भी अब बाहर चले वहाँ से, बाहर आये और फिर अपनी गाड़ी में बैठे! यहाँ का काम हो गया था, अब रह गया था वो विक्रांत, जो इस सारे खेल का संयोजक था! अब उसको सबक देना था! उसको सबक देना इसलिए भी ज़रूरी था कि वो ऐसे न जाने कितनी लड़कियों का शोषण कर चुका होगा अब तक, और न जाने कितनों का करेगा, किसी मजबूर का
फायदा उठाना सबसे ख़ौफ़नाक गुनाह है इस दुनिया में! इसीलिए उसको सबक देना अत्यंत आवश्यक था!
हम मुख्य खेड़ा पहुंचे, और यहाँ से सीधे गाड़ी डाल दी भोपाल के लिए, हम दौड़ पड़े! रुहेला का जो हाल हुआ था, वो हमेशा उसको याद रहने वाला था, अब खाली था वो, कुछ कर ले, ये भी सम्भव नहीं था, अब वो वहीँ बस उस धर्मशाला की साफ़ सफाई ही कर सकता था अथवा उस से सम्बंधित ही कोई कार्य! अगले एक दिन तक तो उसकी हालत भी नहीं थी कि वो विक्रांत से संपर्क ही साधे! उसको ठीक से खड़े होने में ही दो दिन से अधिक लग जाने वाले थे!
रास्ते में गाड़ी रुकवाई मैंने, चाय-पानी के लिए, हम रुक गए तो पास ही बने एक ढाबे से में चले गए, चाय के लिए कहा और फिर आपस में ही बात करने लगे,
"भोपाल में कहाँ रहता है ये विक्रांत?" मैंने पूछा,
उन्होंने बताया!
''और उसका दफ्तर?" मैंने पूछा,
"वो मैंने देखा है" वे बोले,
"क्या कहते हैं आप? घर चलें या फिर दफ्तर?" मैंने पूछा,
"पहले घर चलते हैं, वहाँ से चलते हैं सौम्या से सलाह लेकर" वे बोले,
"ये भी ठीक है" शर्मा जी ने कहा,
चाय ख़तम हुई, और हम फिर से वापिस चले भोपाल की तरफ!
गाड़ी में हम बातें करते करते आ ही गए वापिस भोपाल!
घर पहुंचे,
मैंने मना किया था घर में कुछ भी बताने को, सो उन्होंने नहीं बताया किसी को भी, हमने हाथ-मुंह धोये और फिर खाना लगा दिया गया, हमने खाना खाया और फिर उसके बाद कुछ देर विश्राम किया, करीब दो घण्टे के बाद गोपाल जी आये कमरे में, बैठे,
"मैंने पता किया है दफ्तर के बारे में, सौम्या ने वहाँ से नौकरी तो छोड़ ही दी थी, उसने मुझे बताया है कि विक्रांत देर तक दफ्तर में ही रहता है, उसके बाद ही घर जाता है" वे बोले,
"इसका मतलब उसको दफ्तर में ही धरा जा सकता है?" मैंने पूछा,
