वर्ष २०१२ भोपाल की ...
 
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वर्ष २०१२ भोपाल की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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भादों का महीना था, गर्मी जहां अपना दबदबा क़ायम करने पर तुली थी वहीं नमी ने जीना हराम कर रखा था! बदन पर आये पसीने सूखते ही नहीं थे, पोंछ पोंछ कर त्वचा लाल हो जाती थी लेकिन पसीना जस का तस! कितना भी नहाओ, स्नानागार से बाहर आते ही फिर से नमी से साक्षात्कार होता था! ये समय दिल्ली में सबसे बुरा होता है, न दिन को आराम और न रात को चैन! ऊपर से कीट-पतंगे इतने अधिक कि आपका रास्ता रोक के खड़े हो जाएँ! रात्रि समय और संध्या समय तो उनका ही राज होता है, घरों में घुस घुस कर कोहराम मचाया करते हैं! मैं भी एक ऐसी ही संध्या समय अपने स्थान पर बैठा था, गर्मी तो थी ही, लेकिन किसी तरह बस बात बनाये जा रहा था! तभी मेरे पास शर्मा जी का फ़ोन आया, वे आ रहे थे और सारा सामान उन्होंने ले लिया था, ये बढ़िया बात थी, अपना खा-पी कर सो जाओ और फिर सुबह ही उठो! मैंने अपने सहायक को बुलाया और कुछ बर्तन, गिलास और ठन्डे पानी का इंतज़ाम करने को कहा, वो गया और फिर थोड़ी देर में ही सारा सामान ले आया, और वहीँ रख दिया, इतने में ही शर्मा जी भी आ गए! उनके साथ कोई आगंतुक भी थे, इस समय शर्मा जी उनको यहाँ लाये थे तो इसका अर्थ था कि वो उनके कोई अतिप्रिय ही जानकार हैं! वे आ गए अंदर, नमस्कार हुई और फिर परिचय! जो आये थे उनका नाम कृष्ण गोपाल था, बाद में मैं उनको गोपाल नाम से ही सम्बोधित करूँगा इस घटना में! खैर, हम बैठे और गोपाल जी ने पानी पिया, उसके बाद फिर शर्मा जी ने सारा सामान खोला और मदिरा की दो बोतल निकाल लीं,

अब शर्मा जी ने सारा सामान खोल लिया, एक गिलास कम था सो मैंने आवाज़ देकर तीसरा गिलास भी मंगवा लिया, और फिर तीन गिलासों में उन्होंने मदिरा परोस दी, मैंने मदिरा की कुछ बूँदें भूमि पर भोग हेतु गिरा दीं और फिर गिलास उठाकर, मुंह से लगाकर खाली कर दिया, ऐसे ही उन्होंने भी किया!

"गुरु जी, ये मेरे अति विशिष्ट जानकार हैं, ये पहले मेरे साथ ही थे, और इनका निवास-स्थान भी मेरे पास ही था, लेकिन फिर ये यहाँ से बदली हो कर भोपाल चले गए, फिर वहाँ गए तो वहीँ के हो कर रह गए! अब इनके दो बेटे हैं, दोनों अपने पिता के व्यवसाय में हाथ बंटाते हैं, और एक बेटी है इनके, शादी के लायक" वे बोले,

''अच्छा! बड़ी ख़ुशी की बात है!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"लेकिन गुरु जी, एक समस्या है, यूँ कहो कि हँसते-खेलते परिवार को नज़र लग गयी है इनके" वे बोले,

"कैसे? क्या हुआ?" मैंने पूछा,

"गुरु जी, लगा लीजिये, आज करीब छह महीने हो गए, एक दिन ऐसा नहीं आया जिस दिन इस चिंता से बाहर निकला होऊं, एक रात ऐसी नहीं गुजरी कि चैन से सोया हूँ, मेरी पत्नी का भी यही हाल है" अब गोपाल बोले,

"क्या बात है?" मैंने पूछा,

"गुरु जी, बताता हूँ, बड़े अरमान ले कर आया हूँ आपके पास, कहाँ कहाँ धक्के नहीं खाये, जिसने जो बताया वहीँ गया लेकिन कुछ नहीं हुआ, थोडा आराम पड़ता और फिर से वही कहानी" वे बोले,

अब तक दूसरा पैग बन चुका था!

सो वो भी खाली किया!

"बताइये गोपाल जी?" मैंने जिज्ञासावश पूछा,

वे चुप हुए अब, दुःख का सैलाब सा उमड़ा उनके चेहरे पर उस समय, मैं जान गया कि स्थिति बेहद नाज़ुक है,

"बताइये मुझे?" मैंने पूछा,

"गुरु जी, अभी शर्मा जी ने मेरी बेटी का ज़िक्र किया, समस्या उसी के साथ है, नाम है उसका सौम्या" वे बोले,

"क्या समस्या है बेटी के साथ?" मैंने पूछा,

"जी मेरी बेटी ने इंजीनियरिंग की है पिछले ही साल पढ़ाई पूरी हुई है उसकी, उसके बाद वो घर पर ही रही, कोई तीन महीने, फिर उसने एक जगह नौकरी की करीब तीन महीने, और उसके बाद उसका स्वास्थय गिरता ही चला गया, हमने बहुत इलाज करवाया उसका, लकिन जैसे दवा ने कोई असर ही नहीं किया, उसका स्वास्थ्य लगातार गिरता ही रहा, आखिर में मेरे एक जानकार हैं, उन्होंने कहा कि कोई ऊपरी चक्कर न हो, सो वहाँ भी ले गए उसको, कोई कुछ कहे और कोई कुछ, लेकिन असर कोई नहीं, तब जाकर एक बाबा मिले, बुज़ुर्ग थे, उन्होंने बताया कि इस लड़की पर कोई बहुत ताक़तवर चीज़ या शय आसक्त है और वो इसको लेके


   
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श्रीशः उपदंडक
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जाना चाहता है, ये सुनकर हम तो सिहर गए, डर गए गुरु जी, हमने उन बाबा के पाँव पकड़ लिए कि हमारी बेटी को कैसे भी करके बचा लो तो उन्होंने कहा कि वो देख्नेगे कि मामला कहाँ तक है और क्या किया जा सकता है, उसके बाद उन्होंने लड़की के गले में एक धागा बाँध दिया और घर भेज दिया वापिस, हम घर आ गए उसको लेके" वो बोले,

"अच्छा, फिर क्या हुआ?" मैंने पूछा,

"इसके बाद उन्होंने हमको तीन दिन बाद बुलाया, हम भी गए, उन्होंने कुछ पूजा-पाठ किया, और फिर उसको कुछ खिलाया, शायद कुछ मीठा था" वे बोले,

"अच्छा, फिर?" मैंने पूछा,

अगला पैग डाला गया,

हमने वो भी खींच लिया,

"गुरु जी, उन्होंने हमको तीन बार बुलाया, और सच में फायदा हुआ, लड़की ठीक होने लगी, खाना-पीना सुधर गया उसका, हमको भी तसल्ली हुई, लेकिन ऐसा कोई दस दिन ही चला, फिर से वही समस्या शुरू हो गयी" वे बोले,

"आपने वो बाबा को बताया?" मैंने पूछा,

"हाँ जी" वे बोले,

"तो क्या कहा बाबा ने?" मैंने पूछा,

"बाबा ने कहा कि वो जो कुछ कर सकते थे किया अब आगे उनके बस में नहीं" वे बोले,

"ओह" मैंने कहा,

"उसके बाद?" मैंने पूछा,

"उसके बाद हमे पता तो लग गया था कि ये कोई ऊपरी चक्कर है, सो हमने किसी और को तलाश किया और हमे फिर एक और आदमी मिल गया, उसके पास ले गए, उसने भी यही बताया, और अब उसने इलाज शुरू किया, फिर से असर पड़ा और फिर से वो ठीक होनी शुरू हो गयी, लेकिन फिर से वही हाल हुआ, उस आदमी ने भी हार मान ली लेकिन उसने एक और आदमी का पता बता दिया, हम वहाँ भी गए, लेकिन कुछ नहीं हुआ" वे बोले,

"अफ़सोस की बात है" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"गुरु जी, तब से ऐसे ही भटक रहे हैं हम, क्या करें और क्या नहीं, पर देखिये, तीन दिन पहले शर्मा जी ने फ़ोन किया हाल-चाल जानने के लिए, तभी मैंने इनसे ज़िक्र किया और इन्होने मुझे तभी दिल्ली आने को कहा, और मैं आज सुबह दिल्ली आ गया गुरु जी" वे बोले,

"आपने अच्छा किया गोपाल जी" मैंने कहा,

"अब आप निश्चिन्त हो जाइये" शर्मा जी ने कहा,

गोपाल जी बेचारे आंसू बहा बैठे!

मैंने समझाया उनको और शांत किया!

अब इस समस्या की जड़ तक पहुंचना था और ये बहुत ज़रूरी भी था!

 

समस्या वाक़ई जिस तरह से बताई गयी थी, गम्भीर थी, छह महीने का समय का अर्थ था कि अब बस परिणाम आने को ही है, यदि मारण-प्रयोग है तो उसका फल कभी भी आ सकता है और यदि किसी की लपेट का मामला है तो भी छह महीने का अर्थ बहुत भयानक ही होता है, अब मेरे मन में भी कुछ प्रश्न थे, सो मैंने अब उनसे प्रश्न पूछने आरम्भ किये,

"एक बात बताइये गोपाल साहब?" मैंने पूछा,

"जी पूछिए?'' वे बोले,

"क्या इन छह माह से पहले सौम्या कहीं बाहर गयी थी, किसी यात्रा आदि या कहीं कोई रिश्तेदारी में या फिर दफ्तर की तरफ से ही कोई प्रयोजन हो?" मैंने पूछा,

"नहीं गुरु जी, जहां तक मुझे याद है वो कभी नहीं गयी, फिर भी हो सकता है मुझे कोई चूक हो, मई घर में फ़ोन करके पूछ लेता हूँ" उन्होंने कहा और घर पर फ़ोन कर दिया, पूछने के लिए, उनकी बात हुई, लेकिन यही पता चला कि सौम्या घर से कहीं बाहर नहीं गयी थी,

एक शक़ तो खारिज हुआ!

"अच्छा, गोपाल साहब, घर में कोई आया था, कोई व्यक्ति या कोई औरत जो नया हो घर में?" मैंने पूछा,

"ऐसा भी नहीं है, पास-पड़ोस से ही आते जाते हैं अक्सर मेरे जानकार एवं महिलायें, मेरी पत्नी की जानकार आदि" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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दूसरा शक़ भी खारिज हुआ!

"अच्छा गोपाल साहब, आपका व्यवसाय क्या है?" मैंने पूछा,

"जी फैंसी लाइट्स का व्यवसाय है हमारा" वे बोले,

"फैंसी लाइट्स, अच्छा, कहीं कोई व्यवसायिक-शत्रुता तो नहीं?" मैंने पूछा,

''नहीं गुरु जी, मुझे ऐसा नहीं लगता, हमारा व्यवहार सभी से मिलनसार है और सबका हम से" वे बोले,

ये शक़ भी खारिज हुआ!

अब मैंने कुछ सोचा, कि ये क्या हो सकता है, थोड़ा विचार किया, और फिर उनसे पूछा, " अच्छा गोपाल साहब, क्या सौम्या के व्यवहार में कोई अंतर है?"

"जी, उसके व्यवहार में अंतर है, किसी से बात नहीं करती अब, चुपचाप लेटी रहती है, न खाने की सुध और न पीने की सुध, रोती रहती है, कुछ पूछो तो बताती भी नहीं" वे बोले,

"ओह" मैंने कहा,

एक माँ-बाप के लिए ये त्रासदी से कम नहीं था,

"गोपाल साहब, क्या किसी बेटे का ब्याह हुआ है?" मैंने पूछा,

"नहीं गुरु जी, बड़ा लड़का कहता है कि पहले बहन का ब्याह हो जाए तो बहुत बढ़िया रहेगा, लेकिन ब्याह कहाँ से हो, वो बेचारी तो.." ये कह फिर से रुआंसे हो गए वो,

"गोपाल साहब, नहीं घबराइये आप, मैं पूरा प्रयास करूँगा कि बेटी ठीक हो जाए" मैंने कहा,

उन्होंने हाँ में गर्दन हिलायी,

"वैसे डॉक्टर्स क्या कहते हैं?" मैंने पूछा,

"डॉक्टर्स के हिसाब से वो बिलकुल ठीक है, कहते है कोई मानसिक-सदमा लगा है उसको, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है, वो बहुत नटखट लड़की हुआ करती थी, मिलनसार, हंसमुख, और अब देखिये, सब जैसे कहीं छोड़ आयी है" वे बोले,

समस्या वाक़ई में विचित्र ही थी! कुछ पता नहीं चल रहा था कि आखिर इसकी वजह है क्या? अब तो केवल एक ही काम हो सकता था कि स्वयं जाकर उस लड़की को देखा जाए, और जांचा जाए, हो सकता है कि कुछ सूत्र हाथ लग जाएँ? हो सकता है समस्या घर में ही हो जो नज़र न


   
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श्रीशः उपदंडक
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आ रही हो और वही परेशान किये जा रही हो? कारण कुछ भी हो सकता था, लेकिन हमको वहाँ जाना अब बेहद ज़रूरी था! फिर भी मैंने कुछ और प्रश्न उनसे किये,

"गोपाल साहब, आप कबसे रह रहे हैं वहाँ?" मैंने पूछा,

"जी कोई बीस बरस हो गए हैं" वे बोले,

"कभी ऐसी कोई समस्या पहले हुई थी?" मैंने पूछा,

"नहीं गुरु जी" वे बोले,

"अच्छा, कहीं आपने कुछ बोला हो, कुछ माँगा और, कोई वचन भरा हो और वो आपने पूरा न किया हो, या न कर पाये हों, या भूल ही बैठे हों?" मैंने पूछा,

उन्होंने थोड़ा सा चिंतन किया!

"नहीं गुरु जी, ऐसा भी नहीं है" वे बोले,

कुल मिलकर कोई तथ्य ऐसा हाथ नहीं लगा जहां से कुछ हल निकलता, अब वहाँ जाने के अलावा और कोई चारा शेष नहीं था,

"शर्मा जी, जो मैंने जानना था जान लिया, समस्या सच में ही विकट है, अब हमको इनके निवास-स्थान जाना ही होगा, अन्य कोई विकल्प नहीं" मैंने कहा,

ये सुन कर गोपाल जी का बुझा हुआ चेहरा खिल सा उठा! मुझे भी ख़ुशी हुई और फिर हमने एक दिन निश्चित कर लिया भोपाल जाने का, अगले दिन टिकट हो जाने वाले थे और उस से अगले दिन हम यहाँ से भोपाल के लिए कूच करने वाले थे! हमने अपना बचा-खुचा सामान निबटाया फिर, और फिर शर्मा जी गोपाल जी को लेकर वहाँ से चले गए! मैं भी उनके जाते ही बिस्तर पर लेट गया और उस लड़की की स्थिति के बारे में सोचने लगा, क्या हो सकता है? अभी तक तो नहीं लगता किसी का किया कराया है, या फिर कोई तंग कर रहा है, लड़की कहीं आयी-गयी भी नहीं, अचानक बैठे-बैठे वो बीमार कैसे हो गयी? यही सवाल मेरे ज़हन में हथौड़ा मार रहे थे! इसी उहापोह में मैं सो गया!

सुबह उठा, अपने नित्य-कर्मों और स्नानादि से फारिग हुआ, फिर सहायक चाय ले आया, चाय पी साथ में कुछ खाया भी और फिर मैं फ़ोन पर अपने एक दो जानकारों से बात करने लगा, ये भोपाल में रहते थे, इनकी आवश्यकता भी पड़ सकती थी, एक बाबा चुन्नी लाल थे और एक और थे औघड़, मलंगनाथ, दोनों ही मेरे विशिष्ट जानकार थे, सो उनक मैंने बता दिया था कि मैं भोपाल आ रहा हूँ और उनकी आवश्यकता भी पड़ सकती है, उन्होंने शब्दों से ही मेरा वहाँ


   
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श्रीशः उपदंडक
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आने का स्वागत कर दिया! अब मैं वहाँ से निश्चिन्त हो गया! मैं अपने क्रिया-स्थल में गया, नमन किया और फिर अपना सारा सामान सहेजा, जो भी आवश्यक था सभी समेट लिया!

और फिर ग्यारह बजे दिन में शर्मा जी और गोपाल जी आ पहुंचे, टिकट हो गए थे और अगले दिन हमको भोपाल के लिए दिल्ली से निकलना था, गोपाल जी ने धन्यवाद की तो जैसे झड़ी ही लगा दी थी! वो दिन बीता, और फिर अगले दिन हम भोपाल के लिए रवाना हो गए!

 

संध्या से पूर्व हम भोपाल रेलवे स्टेशन उतर गए! बाहर आये तो गोपाल जी का बड़ा बेटा अक्षय हमको लेने आया था, उसने नमस्कार की तो हमने भी की! हम गाड़ी में बैठ अब घर की तरफ चल पड़े! भोपाल अब काफी भीड़-भाड़ वाला शहर हो गया है! और लगातार फैलता ही जा रहा है! आधुनिकता पाँव पसार चुकी है यहाँ खुलकर! हर तरफ चका-चौंध होती है अब! खैर, हम करीब आठ बजे घर पहुंचे उनके, घर एकांत में ही बना हुआ था, सभी मकान वहाँ एक जैसे ही बने हुए थे, हरियाली काफी अच्छी थी वहाँ पर, पेड़ों और पौधों को देखकर ही मालूम पड़ता था! और जिस इलाके में हम आये थे ये तो नियोजित-क्षेत्र था! हम घर के अंदर घुसे, उनकी पत्नी ने दरवाज़ा खोला और नमस्कार हुई, हमको एक कक्ष में बिठाया गया, मैंने अपना सामान एक जगह रखा, और फिर हम बैठ गए, गोपाल जी बाहर गए और फिर वापिस आये, "आइये गुरु जी, शर्मा जी, हाथ-मुंह धो लीजिये फिर चाय आ रही है" वे बोले,

हम उठे और उनके पीछे चले, मैंने हाथ मुंह धोये और फिर शर्मा जी ने और फिर पोंछ-पाँछ कर हम फिर से उसी कमरे में चले गए, चाय लगायी जा चुकी थी, चाय के साथ तमाम ताम-झाम था, जो अच्छा लगा वो खाया और फिर चाय समाप्त की, अब गोपाल जी की पत्नी रेणु आ बैठीं हमारे पास, उनके चेहरे से दुःख साफ़ झलकता था, बस कोई देखने वाला देखे और पूछने वाला पूछे! गोपाल जी भी बैठे थे!

अब दोनों उनके पुत्र भी आ गए, छोटे पुत्र ने नमस्कार की और हमने भी की, दोनों ही पुत्र सीधे-साधे और अपने काम से काम रखने वाले ही लगे, काम से घर और घर से काम, बस! कई शौक़ आदि नहीं पाल था उन्होंने, संस्कारी शिक्षा ही मिली थी उनको! मुझे वो परिवार बहुत अच्छा लगा!

"और कौन कौन है परिवार में आपके गोपाल जी?" मैंने पूछा,

"गुरु जी, परिवार तो यही है, हाँ एक बड़े भाई हैं, वो दिल्ली में ही रहते हैं, मैं पहले उनके पास ही गया था, वे भी परेशान हुए बहुत सौम्या के बारे में जानकार, माता-पिता जी बहुत पहले ही स्वर्ग सिधार गए हैं" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अच्छा, गोपाल जी, मुझे सौम्या से मिलवाइए?" मैंने कहा,

उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा, वे उठ कर गयीं और फिर थोड़ी ही देर में वापिस आ गयीं, हम उठे और उनके साथ चले, सौम्या के कमरे तक पहुंचे, सौम्या का दरवाज़ा खुला पड़ा था आधा, पहले रेणु जी अंदर गयीं, उन्होंने लेटी हुई सौम्या को जगाया शायद और फिर हम अंदर चले, और जैसे ही मैं अंदर गया मैंने उस समय उस सौम्या को देखा! उसने मुझे देखा! दोनों ने एक दूसरे को घूरा! तोला! और मैं तभी जान गया कि वो सौम्या है ही नहीं! वो उठ के बैठ गयी! उसने शर्मा जी को भी घूरा, दूसरे सदस्यों ने सोचा कि शायद बीमारी के कारण उसने ऐसा किया है! और जब उसको ये बताया गया कि हम दिल्ली से आये हैं तो उसने एक करारा सा जवाब दिया, "पता है!"

ये सुन सभी घबरा गए!

लेकिन मैं ये खेल भांप चुका था!

रेणु जी ने उसको कुछ समझाया लेकिन उसने अपने कंधे से उनका हाथ झटक दिया! और मैं वहाँ बैठा मुस्कुरा गया!

"गोपाल जी, सबसे पहले बाबा ने आपसे सही कहा था, कोई है जो इस लड़की पर है, लेकिन वो आसक्त नहीं है, उसने पनाह ली है!" मैंने कहा,

ये कह मैं मुस्कुराया!

"क्यों सौम्या?" मैंने पूछा,

उसने एक कड़वे से अंदाज़ में हंसी हंसी!

ये सुन सभी घबराये वहाँ!

अब मैंने उसके दोनों भाइयों और रेणु जी को बाहर भेजा, लेकिन सौम्या ने नहीं जाने दिया उनको, भाई, भाई, मम्मी मम्मी कहा कर रोक लिया उनको! उन्होंने मुझे देखा तो मैंने उनको बाहर जाने को कह दिया! वे चले गए!

अब रह गए हम तीन और वो अकेली सौम्या!

"कैसी ही सौम्या?" मैंने पूछा,

हँसते हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कोई जवाब नहीं दिया!

"क्या खेल खेल है तूने! वाह!" मैंने कहा,

गोपाल जी को कुछ समझ नहीं आया, वे बेचारे इस खेल को बस देखते ही रहे! हाँ, शर्मा जी अब मुस्तैद हो गए थे!

सौम्या ने मुझे फिर घूरा!

"बता सौम्या, तू सौम्या है या नहीं?" मैंने पूछा,

वो चुप!

"बता?" मैंने कहा,

चुप!

"चल! अपने पिता जी को बता दे!" मैंने कहा,

फिर चुप!

"पापा, इनको बोलो ये जाएँ यहाँ से" उसने कहा,

"हम कहीं नहीं जाने वाले, जायेंगे तो तुझे साथ लेकर जायेंगे!" मैंने कहा,

अब वो चिल्लाई!

"पापा?? ले जाओ इनको?" वो चिल्ला के बोली!

शर्मा जी ने गोपाल जी के कंधे पर हाथ रख कर ऐसे ही बैठे रहने का सन्देश दिया!

"गोपाल जी? ये कब से बीमार है?" मैंने पूछा,

"जी छह महीने से" वे बोले, डरते डरते!

सच में, सौम्या अब सौम्या जैसी नहीं लग रही थी! गुस्से में तमतमा गयी थी, आँखें लाल हो गयीं थीं उसकी!

"सुन लड़की, जल्दी बता कौन है तू?" मैंने पूछा,

कोई जवाब नहीं!

बस गुस्से में देखे वो!


   
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"नहीं बताएगी?" मैंने ये कह कर खड़ा हुआ!

वो भी खड़ी हो गयी!

जैसे लड़ने को तैयार हो!

"सुन! अपने आप बता दे, नहीं तो तेरा वो हाल करूँगा कि कहीं भी इस संसार में छिपने की जगह नहीं मिलेगी!" मैंने कहा,

अब उसने थूका!

उसको थूकते देखा गोपाल जी भागे बाहर! बर्दाश्त नहीं कर पाये उसका ये रूप! और फिर वे सभी कमरे में आ गए अंदर! क्या करता! मैं तो उनको उनकी सुरक्षा के मद्देनज़र बाहर रखना चाहता था, लेकिन वे नहीं माने वे!

खैर,

"हाँ सौम्या!" मैंने अब मुस्कुराते हुए कहा!

वो भागी वहाँ से! एकदम से जाकर अपनी माँ के गले लग गयी!

"मम्मी! मम्मी! इनको ले जाओ यहाँ से, ये मुझे मार डालेंगे, मार डालेंगे!" वो रोते हुए बोली!

अब माँ तो माँ होती है! पसीज गयी! बाहर ले गयीं उसको!

"गोपाल जी, लाओ लड़की को अंदर?" मैंने कहा,

अब गोपाल जी भागे बाहर!

खेल खेल गया था वो जो खेल रहा था ये खेल!

 

शर्मा जी और मैं वहीँ रह गए थे, हम दोनों ही, और वे सब बाहर थे, मुझे अच्छा तो नहीं लगा था लेकिन एक माता-पिता के प्रेम के आगे मैं भी झुक गया था, परन्तु उनको असलियत मालूम न थी, कहानी बहुत गम्भीर थी! समय नहीं था बाकी अब, हम सही समय पर आये थे तो कुछ उम्मीद बाकी थी, और जो पनाह लिया बैठा था वो सच में बहुत खतरनाक था, अंदर ही अंदर खाये जा रहा था उसको!

"शर्मा जी, अंदर बुलाइये गोपाल जी को" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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शर्मा जी उठे और बाहर गए, बाहर जाते ही अपने माँ से चिपकी सौम्या शर्मा जी को देखते ही भाग पड़ी, ऊपर के कमरों की तरफ! ये लाजमी था! हमारे आने से घर में एक नया प्रकरण आरम्भ हो गया था!

शर्मा जी बिना कुछ कहे गोपाल जी को इशारा कर वापिस कमरे में आ गए!

"क्या हुआ?" मैंने पूछा,

"आ रहे हैं" वे बोले,

और कुछ देर में वो आ गए अंदर,

बैठे,

"कहाँ है लड़की?" मैंने पूछा,

"ऊपर भाग गयी है डर के मारे, पता नहीं क्यों?" वे बोले, अनजान से,

"सुनो गोपाल जी, ऐसे काम नहीं होगा, आप पितृत्व के कारण और वो अपने ममत्व के कारण अपनी बेटी से हाथ धो बैठोगे, और ये बहुत जल्दी होने वाला है" अब मैंने थोड़ा कड़वे लहजे में कहा,

"लाऊं उसको?" वे बोले,

"हाँ, अभी लाइए" शर्मा जी ने कहा,

और गोपाल जी बाहर निकल गए वहाँ से, उस लड़की को लेने!

हम वहीँ बैठे रहे!

कोई नहीं आया,

पांच मिनट,

दस मिनट,

और फिर पंद्रह मिनट!

ऊपर से लड़ाई-झगड़े की और उस लड़की के चीखने की आवाज़ आई, हम वहीँ बैठे हे, ये उनका पारिवारिक मामला था, हमारा बीच में उलझना सही नहीं था!

और फिर तभी गोपाल जी आ गए नीचे,


   
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"क्या हुआ?" शर्मा जी ने पूछा,

"वो नहीं मान रही" वो बोले,

"तो ज़बरदस्ती लाना था?" शर्मा जी ने अब गुस्से से कहा,

"उसकी माँ नहीं मान रही" वे बोले,

"अच्छा!" शर्मा जी बोले,

"तो अब क्या किया जाए गोपाल जी? छोड़ दिया जाए?" मैंने पूछा,

"नहीं गुरु जी, ऐसा नहीं कहिये" वे बोले,

"जब आप लड़की को लाओगे ही नहीं तो मैं क्या करूँगा?" मैंने कहा,

"मैं कोशिश करता हूँ उसको लेन की" वे बोले,

"जाइये और लेके आइये" मैंने कहा,

वे उठे और चले गए!

फिर से करीब पन्द्र मिनट बीते! लेकिन कोई नहीं आया!

और फिर करीब आधे घंटे के बाद वे नीचे आये, बैठे!

"क्या हुआ?" मैंने पूछा,

"वो नहीं मान रही" वे बोले,

"अच्छा..." मैंने कहा,

"ठीक है, गुरु जी? कल देख लें?" शर्मा जी ने पूछा,

"और कल भी ऐसा हुआ तो?" मैंने पूछा,

"कल मैं कोशिश करूँगा ऐसा न हो" गोपाल जी बोले,

"ठीक है, कल देखते हैं" मैंने कहा और उठ खड़ा हुआ, सहारा मजी भी उठे और हम उसी कमरे में आ गए, गोपाल जी वहीँ रह गए थे!

"शर्मा जी, ऐसे बात नहीं बनेगी" मैंने कहा,


   
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"हाँ" वे बोले,

"आप इनको समझाइये" मैंने कहा,

"आने दीजिये, मैं समझाता हूँ" वे बोले,

"ऐसे ही रहा तो हमको जाना पड़ेगा यहाँ से, बेचारी की जान पर बनी है" मैंने कहा,

"हाँ जी" वे बोले,

और तभी गोपाल जी आ गये वहाँ,

बैठे,

और अब शर्मा जी ने उन्हें सभी उंच-नीच समझाना शुरू किया, सांचे में ढलते चले गये फिर वे, गोपाल जी!

"गोपाल जी, स्थिति कितनी भयानक है, ये आपको नहीं पता, पल दर पल वो आपसे दूर होती जा रही है, और ऐसे ही एक दिन दूर हो जायेगी आपसे, आप समझिये, लाड़-प्यार अपनी जगह है और ये समस्या अपनी जगह" मैंने समझाया,

"मैं जानता हूँ गुरु जी" वे बोले,

"अब कल ऐसा नहीं होना चाहिए" मैंने कहा,

"नहीं होगा" वे बोले,

तब वे उठे और बाहर चले गए, हम अपने जूते खोल लेट गए अपने बिस्तर पर, एक तो यात्रा की थकान थी ऊपर से इस लड़की ने दिमाग खराब कर दिया था, नहीं तो आज ही कहानी का खुलासा हो जाता!

और फिर थोड़ी देर बाद, वे खाना ले कर आ गए, उनके साथ उनका बेटा भी था मदद करने के लिए, हमने चुपचाप खाना खाया और फिर उसके बात हाथ-मुंह धो, कुल्ला कर सो गए आराम से!

सुबह हुई! रात अच्छी नींद आयी, एक बार लेटे तो सुबह ही आँख खुली! अपने नित्य-कर्मों से फारिग हुए और फिर स्नान से भी! उसके बाद कमरे में आ बैठे, तब तक चाय आ चुकी थी! हमने चाय पीनी शुरू की!

तभी उनकी श्रीमति जी आ गयीं वहाँ, बैठ गयीं!


   
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"गुरु जी" वे बोलीं,

"बोलिये?" मैंने कहा,

"गुरु जी, लड़की तो मना कर रही है मिलने के लिए" वे बोलीं,

मैं मुस्कुराया!

"मैं जानता हूँ" मैंने कहा,

"अब कैसे होगी?" उन्होंने पूछा,

"वो मैं देख लूँगा" मैंने कहा,

अब वो घबरा गयीं!

"चिंता मत कीजिये, कोई मार-पिटाई नहीं होगी उसके साथ!" मैंने कहा,

अब चिंता सी मिटी उनकी!

और फिर चाय के बर्तन उठाकर वो चली गयीं!

 

अब कमरे में रह गए मैं और शर्मा जी और गोपाल साहब, गोपाल जी ने मुझसे पूछा, "गुरु जी, क्या दिखायी दिया है आपको?"

"आप खुद देख लेना!" मैंने कहा,

"फिर भी?" उन्होंने पूछा,

"उस पर एक ज़बरदस्त लपेट है वो अपना पता नहीं बता रही!" मैंने कहा,

"ओह! बाबा ने भी यही बताया था, लेकिन तब ऐसा कुछ नहीं हुआ था?" वे बोले,

'अब सब आपके सामने है" मैंने कहा,

"हाँ जी, सो तो है" वे बोले,

"मैं कल ही पता कर लेता लेकिन आप लोग नहीं माने" मैंने कहा,

"क्या कहूं गुरु जी, मैंने बहुत समझाया, लेकिन मेरी पत्नी नहीं मानी" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"हाँ, मैंने देखा था, अब भी देखा जब वो आयी थीं यहाँ" मैंने कहा,

"सबसे लाड़ली रही है वो घर में, सबसे छोटी है न" वो बोले,

"लाड़ली है सो ठीक है, लेकिन इस से आप उसको और मौका दे रहे हैं, उसको जो उसको खाये जा रहा है दिन ब दिन" मैंने कहा,

वे चुप हुए अब,

"अब एक काम करना, उसको नीचे लाना, और कोई नहीं होना चाहिए वहाँ, केवल आप, मैं और शर्मा जी" मैंने कहा,

"ठीक है गुरु जी" वे बोले,

और वे उठ कर चले गए,

अब मैं फिर से लेट गया, दरअसल रणनीति बना रहा था कि क्या किया जाये और क्या नहीं!

थोड़ा समय बीता, और फिर खाना आ गया, हम लोगों ने खाना खाया और फिर मैंने बाहर घूमने की इच्छा ज़ाहिर की, और फिर हम टहलने के लिए बाहर चले गए! साथ में गोपाल जी भी थे, उनका रिहाइशी-क्षेत्र काफी बढ़िया था, अच्छा ख़ासा बना हुआ था और शहरी भीड़-भाड़ से अलग था, शान्ति थी वहाँ, एक आद ही वाहन दीखता था वहाँ आते जाते! कुल मिलाकर रहने लायक जगह थी वो! हम थोड़ी देर घूमे उधर, गोपाल जी ने कुछ और जगह के बारे में बी बताया और फिर हम टहलते रहे, थोड़ी देर बाद हम वापिस आये, घर पहुंचे और एक एक गिलास पानी पिया! और अपने कमरे में चले गये! थोड़ी देर बाद गोपाल जी आये, और बोले, "आइये गुरु जी, वो अपने कमरे में ही है, लेकिन उसकी माँ कि ज़िद है कि वो साथ में ही रहेंगीं"

"कोई बात नहीं" मैंने कहा और अब हम खड़े हुए! शर्मा जी ने छोटा वाला बैग उठा लिया!

कमरे तक पहुंचे,

और कमरे में घुस गए!

वो लेटी हुई थी, मुझे देख चौंक के उठ गयी!

और लगी मुझे घूरने!

मैंने भी घूरा!


   
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