वालिदैन के बारे में बताओ?" पूछा मैंने, "मेरे वालिद, मुहम्मद अफज़ल थे, वालिदा सलीमा बेग़म, दो भाई और एक बड़ी बहन!" बोली
वो,
"रिहाइश?" पूछा मैंने, तो उसने मुझे रिहाइश बता दी! मैंने याद कर ली, उसकी रिहाइश का गाँव आज भी है, और वो जगह, आज भी आबाद है!
फिर अलग किया उसे!
चूमा उसको! और तभी, मेरी आँखों से, आंसू, झर झर भने लगे! मेरे आंसू, आबिदा ने पोंछे थे उस रात! "अब जाओ आबिदा! अब जाओ!" कहा मैंने,
और मैं पीछे हटा! वो आगे आने को हुई! मैंने मना किया! और पढ़ दिया मंत्र! धुंए में लिपट गयी! सुकून! सुकून जो एक पल को भी न मिला था उसको! तीन सौ बरस के अँधेरे में! ऐसा सुकून मिला! वो धीरे धीरे धुंए में खोती रही! "अलविदा आबिदा! अलविदा मेरी आबिदा!" मेरे मुंह से निकल या अचानक ही! "अलविदा!" बोली आबिदा और वो धुआं और आबिदा, खो गए! नज़रों के सामने ही! मैं बैठता चला गया! "जाओ आबिदा! जाओ! अलविदा! हमेशा खुश रहना! हमेशा! यही है इस फक्कड़ के पास देने को!" बोलते बोलते,आलती-पालती मार, बैठ गया वहीं! मैं सर नीचे कर, बैठ गया था! शर्मा जी आये दौड़े दौड़े! बैठे संग मेरे! रखा मेरे कंधे पर हाथ!
और कुछ देर ऐसे ही बैठे रहे! "चली गयी आबिदा!" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "बहुत नेकी का काम किया आपने!" बोले वो, कुछ न बोला मैं, "अब, दिल भारी न करो" बोले वो, "समझता हूँ" कहा मैंने, "आओ, उठो' बोले वो, "अभी उठता हूँ" कहा मैंने,
"दिल भारी है?" बोले वो, "बहुत!" बोला मैं, "खुश हो जाओ! वे मुक्त हुए!" बोले वो, "खुश हूँ" कहा मैंने, "आओ फिर" बोले वो, "अभी" कहा मैंने, वे भी बैठे रहे, और मैं भी, कोई आधे घंटे बाद, हम उठे, बचा सामान, नदी में प्रवाहित कर दिया,
और मैं, शर्मा जी, वापिस हुए वहाँ से, रास्ते भर, सबकुछ बेमायनी सा लगता रहा, मुझे याद आती रही आबिदा की, वो वायदा, वो क़सम, सब याद आता रहा, क़सम पर तो, मैं मस्करा पड़ा! "अब आप हैदर साहब के बारे में सोचिये!" बोले वो, "हाँ, कल से तैयारी करता हूँ" कहा मैंने, "हाँ, अब वो भी सफ़र मुक्कमल करें!" बोले वो, "हाँ" कहा मैंने,
और हम आ गए वापिस, मैं सीधा ही जा लेटा बिस्तर पर, जूते खोले, जुराब उतार फेंके,
और औंधे मंह, लेट गया! "ये लो" बोले वो, "क्या है?" मैंने लेटे लेटे ही पछा, "पानी" बोले वो, उठा मैं, और लिया पानी,
दो चूँट भरे और फिर रुका! "पी जाओ" बोले वो, मैंने तब पी लिया पानी!
और फिर से, लेट गया, मुझे, वो क़सम याद आ रही थी! याद आती तो मुस्कुरा जाता! इस तरह, नौ दिन और बीत गए, अब रह गए थे कुल छह दें, मैंने तैयारियां तो कर ली थीं, बस, अब रजब सोलह, हिजरी आये तो हम पहुंचे वहाँ! आतिरा, जुबैदा और आबिदा, सब पार लग चुके थे। लेकिन मेरे दिल में,जगह कर गए थे। हमेशा के लिए! मैं बेहद नसीब वाला था, कि, मुझे सूबेदार हैदर साहब से मिलने का मौका मिला था! उनका मेहमान बना था मैं! एक रात का मेहमान!
उस एक रात में, जैसे मैं, उनको उन्ही बीते तीन सौ बसों से जानता हूँ, ऐसा घुलमिल गया था उनसे! आलिम होना एक अलग बात है, और एक इंसान होना एक अलग बात! उन्होंने तो एक इंसान को ही एक रात की पनाह दी थी! मैं आलिम हूँ, ये हैदर साहब ने जाना था, या यूँ कहें, वे सभी जानते थे, उन सभी को इंतज़ार था किसी के आने का, कि कोई आये, और उस कैद-ए-कफ़स से छुटकारा दिलाये! वो, मैं ही था! इसीलिए खुद को, बड़ा नसीब वाला समझ रहा
था मैं! उसी रोज की बात है, बड़ी हिम्मत की मैंने, और वो पोटली उठायी, वही पोटली, और लाया कमरे में, पीले और काले रंग के मखमली कपड़े से बनी थी वो, उसमे इत्र की भीनी भीनी सुगंध, मुझे जुबैदा के वहीं खड़े होने का सा अहसास करा रही थी, ये आखिरी वक़्त था, जब मैंने उसको देखा था! उसके बाद कभी नहीं! दिल में रस्सी सी, गुंथ जाती थी उसको देखकर! मैंने उसको खोला, और अपने बिस्तर पर, निकाला उसका सामान, आठ सोने के कंगन, छह अंगूठियां, दो, हाथीदांत से बनी कंधियां, चार, बालों में बाँधी जाने वाली सोने की लड़ें, चार नथनियाँ, इनमे दो छल्ले भी थे, चार बूंदे, चार झुमके, दो सोने की गले में डाले जानी वाली चैन, और दो सोने की, सर्पाकार चूड़ियाँ सी! इतने बरस न बीते होते, तो इनको, जुबैदा के किसी रिश्तेदार अथवा किसी, उसके घराने की, किसी औरत या लड़की को दे आता, लेकिन बहुत वक़्त आगे जा चुका था,अब कौन जाने जुबैदा को! अब तो झूठे फरेबी भी, इस सामान के लिए, वारिस बन जाते उसके! सामान बिस्तर पर बिखरा पड़ा था! मैंने एक अंगूठी उठायी, और उसको अपनी मध्यमा ऊँगली में पहना, आ गयी! ये अंगठी, उसकी अनामिका में ही आती! ऐसा बदन था उसका! "ये कम से कम ढाई सौ या तीन सौ ग्राम तो होगा?" बोले शर्मा जी, कंगन उठाते हुए,
"पता नहीं!" कहा मैंने, "ये कंगन ही कोई साढ़े तीन सौ ग्राम के होंगे!" बोले वो, "हाँ, भारी हैं!" कहा मैंने, "तो ये कुल आधा किलो के बराबर हैं!" बोले वो, "लेकिन इनका मोल बहुत है शर्मा जी!" कहा मैंने, "हाँ, ये तो अनमोल हैं!" बोले वो, "ये कंघी देखो, हाथ से बनी है, कैसा महीन काम है हाथ का!" बोले वो, मुझे देते हुए वो कंघी, मैंने पकड़ी और देखी, वाक़ई में, बेहद महीन काम था, जैसे सुई से बनाई गयी हो! "ये होती है कारीगरी!" बोले वो, "हाँ, सच में!" कहा मैंने, "ये नथनी देखो, इसमें हीरे लगे हैं!" बोले वो, उन सभी में, हीरे लगे थे! बेहद शानदार! सफ़ेद और गुलाबी! तराश का बेहद महीन काम किया गया था! सोना ऐसा चमक रहा था, जैसे आज ही ताबिश हुआ हो! मुझे वो सारा सामान देख कर, फिर से वो जुबैदा याद हो आई! वो हमाम याद हो आया! उसके साथ बिताए, वो लम्हात याद हो आये! और जब रहा न गया, तो सारा सामान वापिस भर दिया मैंने उसी पोटली में, बाँध दी, और रख दी एक जगह! मित्रगण! इस तरह रजब पंद्रह आ पहुंची! हम तैयार हुए, सामान आदि बाँध लिया था हमने, जो भी चाहिए था वो सब रख लिया था! कुछ छूटे न, शर्मा जी ने फेहरिस्त बना ली थी, उसी से जांच कर, सामान रखा था हमने! और उसी सुबह, हम निकल पड़े, ब्यावर के लिए, उस हवेली के लिए, जहां कल, हमें जाना था! सुदेश साहब को खबर कर ही दी थी, वे आने वाले थे स्टेशन, तो हम पहुंचे स्टेशन, गाड़ी में हुए सवार, और रास्ते भर, मैं उस हवेली के ही बारे में सोचता रहा!
और इस तरह, हम पहुँच गए स्टेशन, वहां से सुदेश साहब लेने आये ही हुए थे, मिले हमें, और हम, जा पहुंचे घर उनके! राधिका बहुत खुश थी, वो अब बिलकुल ठीक थी, रंग-रूप लौट आया था! हमें भी ख़ुशी हुई बहुत उसे खुश देख कर! साँझ बीती, रात बीती, और अगला दिन आया, दोपहर बीती और साँझ पकड़ी, फिर रात की आमद हुई! बजे दस, और हम उनकी गाड़ी ले, चले हवेली की तरफ! लगाई गाड़ी! रात में, उस बियाबान में, हवेली खड़ी थी! गाड़ी की बत्तियां बंद हुईं तो ओझल हो गयी! रात के उस स्याह अँधेरे में!
"उत्तरो" कहा मैंने,
और हम उतर गए, पानी पिया, बोतल वहीं रखी, सामान उठाया, शर्मा जी ने, कंधे पर टांगा, लगाया ताला, और चले आगे, फिर, रुका मैं, और कलुष-मंत्र जगाया! नेत्र-पोषित किये हमने, और खोली आँखें! हवेली
जगमगा उठी! झरोखों से,रौशनी, पीले रंग की, झलझला उठी! "आओ" कहा मैंने, "चलिए" बोले वो,
और हम चल पड़े! पहुंचे फाटक तक, सांकल बजाई! दरवाज़ा खुला, चर्र-चूं की आवाज़ करता हुआ! सामने शमीम था! "अस्सलाम आलेकुम!" बोला वो, खुश होते हुए! "वालेकुम सलाम शमीम! कैसे हो!" कहा मैंने, "सब खैरियत आलिम साहब! आप सुनाएँ!" बोला वो, "खैरियत!" कहा मैंने, "आइये, आइये हुजूर!" बोला वो,
और ले चला असलम चौकीदार के पास! गए वहां, असलम मियां, हमें देखते ही भागे आये! सलाम किया, और बिठाया एक जगह! सामान उठा लिया हमारा, रख दिया एक जगह! "शमीम, पानी लाओ!" बोला असलम, "कैसे ही आलिम साहब!" बोला वो, "खैरियत है!" कहा मैंने, मुस्कुरा रहा था, अपनी टोपी, ठीक करते हुए! 'और आप कैसे हो असलम मियाँ!" पूछा मैंने! "सब रहम-ओ-करम है!" बोला वो, पानी ले आया था शमीम, हमें दिया पानी, हमने पानी पिया, सुराही की, मिट्टी की, सौंधी सौंधी सुगंध आ रही थी!
"और लाऊँ हुजूर?" बोला शमीम, "हाँ शमीम!" कहा मैंने, वो दौड़ा, और ले आया पानी, हमने वो भी पिया! "और हुजूर?" पूछा उसने, "नहीं, बस! शुक्रिया!" कहा मैंने, "सूबेदार साहब से मिलवाइये असलम मियाँ?" बोला मैं, "आइये हुजूर!" बोला वो,
और सामान उठा, चल पड़ा आगे आगे! हम भी चले, अंदर आये, हवेलीजगमग!
आज आखिरी रात थी इस हवेली की, जगमग होने की, कल से, कोई न होगा यहां, और ये, सच में, खंडहर हो जायेगी!
भूली-बिसरी एक और हवेली! ऐसी ही कुछ हवेलियों में, शुमार हो जायेगी ये! हम ऊपर चढ़े,
और मुड़े, मुड़ते ही, गलियारा आया, और फिर मुड़े, मैं ठिठका! रुक गए, वे भी रुक गए, एक कमरा था, खुला हुआ, पर्दा पड़ा था बस, ये जुबैदा का कमरा था, न रोक सका अपने आप को, घुस गया कमरे में, मेज़ पड़ी थी, बिस्तर था, सुराही थी, मीना थी, कुछ कपड़े थे उसके, सारा सामान था उसका, बस, वो न थी! आया वापिस,
और चले फिर हम, जैसे ही मुड़े, आतिरा का कमरा पड़ा! मैं फिर रुका, कमरे में गया,
वो तस्वीरें, वो पलंग, वो साज-ओ-सामान, सब था! सब सामान, बस आतिरा न थी! एक आखिरी नज़र भरी मैंने, वो सारा मंज़र, जिंदगीभर याद रखने के लिए, कैद कर लिया आँखों में मैंने! आज तलक याद है वो मंज़र! वो बिस्तर पर, पड़ा उसका दुपट्टा, मुड़ा-तुड़ा, वो सुराही, और साथ में रखा वो गिलास, वो तस्वीरें और दीवार पर लटका उसका लिबास! सब याद हैं मुझे! ज़रा ज़रा नहीं, पूरा, जैसा था, वैसा ही! हम चले आगे, और जैसे ही मुड़े, वो बानो दिखाई दी, बहुत खुश थी उस रात! सलाम किया उसने! "कैसी है बानो?" पूछा मैंने, "जी अच्छी हूँ!" बोली वो, "आज बेहद खुश है तू!" कहा मैंने, "हाँ!" बोली वो, "चल, खुश रह!" कहा मैंने, "आप चलिए, मैं आई!" बोली वो,
और तेज कदमों से, चली गयी नीचे उतर कर! आया सूबेदार साहब का कमरा, सामान रख, चला असलम अंदर, और जब आया, तो सूबेदार संग! मुस्कुराये, हमें देख, गले से लगाया उन्होंने! "तशरीफ़ रखें आलिम साहब!" बोले वो, "शुक्रिया!" कहा मैंने,
और हम बैठ गए, "असलम?" बोले वो,
और असलम सामन रख एक मेज़ पर, चला बाहर! वो गया बाहर, तो बानो आई अंदर! शरबत ले आई थी! "लीजिये हुजूर!" बोली वो,
"शुक्रिया!" कहा मैंने, और ले लिए गिलास, एक शर्मा जी को दिया, हमने शरबत पिया, आज ये आखिरी शरबत था! इसीलिए, आराम आराम से पिया! "आज रजब सोलह है, हम आ गए सूबेदार साहब!" कहा मैंने, "हमें यक़ीन था! यक़ीन था आलिम साहब!" बोले वो, "सब तैयार है?" पूछा मैंने, "हाँ, सभी के सभी! बस फ़ैज़ान साहब आते ही होंगे, घड़ी-दो घड़ी में!" बोले वो, "कोई बात नहीं!" कहा मैंने, असलम आया तभी, सारा सामान ले आया था, खाने को भी, और वो गुलाबी शराब भी! जाम बनाने लगे सूबेदार साहब! "आतिरा, जुबैदा और आबिदा, इनका सफर मुक्कमल हुआ हैदर साहब!" कहा मैंने, जाम गिर ही जाता! संभाल लिया उन्होंने! हमें देखा, आँखों में, नमी सी आई!
और तभी एक आयत पढ़ी उन्होंने, आँखें बंद कर! और मैंने उन्हें, सब बता दिया! वो गौर से सुनते रहे एक एक अलफ़ाज़! तभी असलम आया अंदर! "हाँ असलम?" बोले वो, "वो हाकिम साहब आन पहुंचे हैं!" बोला वो, "ले आओ!" बोले वो, और जाम हुए शुरू! उसके कुछ देर बाद ही, एक लम्बा-चौड़ा, पहलवान सा, सर पर बड़ा सा साफ़ा बांधे आया अंदर! अदब से सलाम किया उसने, और बैठ गया! अब हमारी जान-पहचान करवाई उनसे, वो फैज़ान मुहम्मद थे, हाकिम साहब! उनसे भी बातें हुई हमारी, जाम चले, दावत हुई! और फिर बजे रात के दो! "वक़्त हो लिया हैदर साहब!" कहा मैंने, संजीदा हो गए! वे खड़े हए, हम भी खड़े हुए,
वे गए एक तरफ, और एक संदूकची में से निकाला कुछ, बग़ल में दबाया, आये हमारे पास,
"चलिए आलिम साहब!" बोले वो, "चलिए" कहा मैंने,
और हम अब चल पड़े, जहां से ये सफ़र शुरू हुआ था वहीं! वहीं उस मालखाने के पास! असलम और शमीम, सभी को बुला लाये थे! वहाँ, कुल उनतालीस लोग थे! मैं गया एक तरफ, सामान निकाला, और नौ दीये जलाये! फिर एक क्रिया की, सभी हमें गौर से देखें, आधा घंटा लगा,
और तब, मैंने अपने खंजर से एक रेखा खींची! रेखा के उस पार, मुक्ति थी! "शर्मा जी, सभी से उनका नाम, और वालिदैन, रिहाइश, पूछ लेना!" कहा मैंने, "जी!" बोले वो, मैं रेखा के पास खड़ा हुआ, उस 'मुक्ति-स्थान पर! अब एक एक करके सभी को बुलाया, नाम, वालिदैन और रिहाइश पूछते हुए, मैं एक एक को बुलाता और वे, लोप हो जाते रेखा को स्पर्श करते ही! जब लोप होते! तो कोई हँसता, कि अपने प्रिय का नाम लेता, कोई कुछ कहता और कोई कुछ! सब खुश थे! मुक्ति मिल रही थी! फिर आया असलम! मुस्कुराया! सलाम किया और लोप! फिर शमीम! हंसा! और लोप! चार बजे तक, सिर्फ बानो, जो हाथ पकड़े खड़ी थी सूबेदार साहब का, हाकिम साहब और सूबेदार साहब यही बचे थे! मैंने बानो को बुलाया! बानो आई, हँसते हुए! "जा बानो! तू आज़ाद हुई!" कहा मैंने, उसने रेखा लांघी, और एक हंसी गूंजी! और लोप! फिर हाकिम साहब! वे आये! मुस्कुराये! ॥* * *ह आपको रिज्क बख्शे!" कहते हुए, लोप हुए!
अब रहे सूबेदार साहब! अब में चला हैदर साहब के पास! वे मुस्कुरा रहे थे। मुझे देखा और गले से लगे! फिर हवेली को देखा!
और बग़ल में से, एक झोला दिया उन्होंने!
"कपड़े! जोहा के दफ़न कर देना, ए मेरे दोस्त!" कहते कहते रो पड़े बुक्का फाड़ कर! "संभालिये हैदर साहब! ये वक़्त अब रोने का नहीं! बहुत रोये आप हँसे ही कब थे? बस, अब हंसने का वक़्त है! आप जुदा नहीं हो रहे, मेरा दोस्त हैदर, एक सूबेदार! हमेशा मेरे दिल में रहेगा! हमेशा! मेरी आखिरी सांस तक!" कहा मैंने, भींच लिया उन्होंने मुझे! और फिर संभाला मुझे, अपने गले से, एक जंजीर उतारी, मेरे गले में डाली, "मना नहीं करना! बस, यही है मेरे पास देने को! ये मेरी वालिदा ने मुझे दी थी!" बोले वो, नहीं किया मना! उनकी ख्वाहिश थी, इसीलिए। मैं गया रेखा के उस तरफ फिर, मंत्र पढ़ा, और हैदर साहब आगे चले! "अलविदा मेरे दोस्त!" कहा मैंने, "अलविदा! अलविदा! अल...................!" और लोप! तभी, वो जगमग हवेली, अँधेरे में घिर गयी! सब खत्म हुआ! बस, उन दीयों की रौशनी थी वहाँ, और कुछ नहीं। वो दीये, आज भी गवाह हैं वहां, उस रात के! वहीं पड़े हैं! आज भी! मित्रगण! हैदर साहब के साथ, सब ख़त्म हो गया! अब वो मुक्त हो गए थे! वो वीरान हवेली, आज भी वहीं है! लेकिन अब मेरी हिम्मत नहीं होती वहां जाने की! वो जो फ़र्ज़ दिया गया था निभाने को, मैंने निभा दिया था। तीन सौ सालों की वो सख्त कैद, खत्म हो गयी थी! कुछ लोग, कभी नहीं भूले जाते!
आतिरा, बानो, जुबैदा, आबिदा, शमीम, असलम, और बारह हिन्दू थे उनमे, और वो हैदर साहब! सूबेदार हैदर साहब, कभी न भूले जाएंगे। ऐसी न जाने कितनी हवेलियाँ हैं, जो आज भी जिंदा हैं। जिस रोज पाँव पड़ा मेरा वहाँ, एक और फ़र्ज़ मेरे सामने होगा, और मैं, कभी पीछे न हटूंगा! कभी पीछे न हटूंगा!
वो कपड़े, जोहा के, मैंने दफ़ना दिए थे एक पाक जगह पर! मेरे दोस्त की अमानत थे। जान से ज़्यादा कीमती थी मेरे लिए! वो जहां रहें, खुश रहें! एक क़तरा भी याद न रहे उस कैद का! एक कतरा भी नहीं। बस, यही ख़्वाहिश है मेरी! बस इतनी सी!
--------------------------साधुवाद!------------------
