वर्ष २०१२ ब्यावर की...
 
Notifications
Clear all

वर्ष २०१२ ब्यावर की एक घटना

65 Posts
1 Users
0 Likes
783 Views
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और चला, आगे की तरफ, हवेली बहुत बड़ी थी! हमने तो एक चौथाई या एक तिहाई ही देखी थी! लेकिन अभी तो मुझे वो, हमाम देखना था! वहीं हमाम, जिसके पानी में पड़े इत्र की खुश्बू अभी तक मौजूद थी मेरे जिस्म में! हम चले, उतरे सीढ़ियां, गलियारे में आये, फिर से उतरे, 

और फिर चले, सामने, और फिर बाएं, और थी सामने, था वो हमाम! वही हमाम! मैं भाग लिया, शर्मा जी भी तेज क़दमों से आये वहाँ! मैं अंदर घुसा, तो देख, कलेजा मुंह को आया! खंडहर! पत्थर! बड़ी बड़ी घास! टूटे हुए कमरे! 

 

हमाम का नाम-ओ-निशान नहीं! चूहे दौड़ रहे थे, अब उन्हीं का घर था ये! ढूँढा मैंने, बड़ी मुश्किल से, एक दीवार दिखी! यही था हमाम! यही! "ये। ये रहा!" कहा मैंने, "यही आये थे?" पूछा उन्होंने, "हाँ, यहीं!" कहा मैंने, मैं बैठ गया एक पत्थर पर, "वो, वहाँ जो कमरा है, वहाँ होती थीं कनीजें!" कहा मैंने, "अच्छा!" बोले वो, "और उधर, उधर कपड़े रखे जाते थे!" कहा मैंने, "अच्छा !" बोले वो, "आप भी तो बैठे थे?" कहा मैंने, "हाँ, लेकिन जगह याद नहीं" बोले वो, "यही है वो जगह!" कहा मैंने, "अब देखो!" बोले वो, "हाँ! अब तो कुछ नहीं!" कहा मैंने, 

और हो गया चुप! फिर से, हमाम में जा पहुंचा था! उस जुबैदा के संग नहा रहा था! उन कनीज़ों के संग! अभी भी, हाथ-पाँव की उँगलियों में, गुदगुदी सी उठ रही थी, सोचते सोचते! "अरे?" बोले वो, "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "वो दो कोस पर, एक सराय है!" बोले वो, मैं खड़ा हुआ! "अरे हाँ!" कहा मैंने, "क्या कहते हो?" बोले वो, 

"चलो! अभी चलो!" कहा मैंने, 

और हम चल पड़े, सराय देखने! क्या पता, वो भी जिंदा हो! जैसे ही बाहर आये, यो कमरा दिखा! असलम का कमरा! जहाना हमें वो हलकारा मिला था, शफ़ीक़-उल्लाह! अब छत भी नहीं थी उस पर! निकले हम वहाँ से, बाहर आये, कोई फाटक नहीं! बस जगली झाड़ियाँ! 

और कुछ नहीं! हम चले वहां से, और आये अपनी गाड़ी तक, गाड़ी मोड़ी, और दौड़ा दी, सड़क पर आये, और दौडाई गाड़ी, हम देखते जा रहे थे, कि यकायक एक खंडहर दिखा! "वही है!" बोले शर्मा जी, 

और हमने गाड़ी काटी वहां के लिए! जा पहुंचे! उतरे! देखा, तो ये एक सराय रही होगी! पुरानी, अब खंडहर! पेड़ों से घिरी! झाड़-झंखाड़ लगे थे, जंगली पेड़-पौधे! "आओ!" कहा मैंने, "चलिए!" बोले वो, 

और हम चल पड़े, उस खंडहर के लिए! और हम जा पहुंचे उस सराय के खंडहर में! ये भी तेन सौ बरस पुराने खंडहर थे! उस सराय की मोटी मोटी दीवारें, उसकी शान को आज भी बताती हैं! कम से कम बीस से अधिक कमरे रहे होंगे वहां, एक कुआँ भी था, अब ढका हुआ था, पेड़-पौधों से! कभी इस पर भी रौनक हुआ करती होगी! ऊँट, घोड़े, खच्चर आदि भी पानी पीते होंगे इसी कुँए से! तब इसके पानी का क्या मोल होगा! प्यासे लोग, अपनी प्यास बुझाते होंगे! मुश्क भरी जाती होंगी! सफ़र में संग ले जाने के 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

लिए! नहाना-धोना होता होगा, कपड़े भी धुलते होंगे! अलग अलग सूबों से लोग यहां आकर ठहरते होंगे! आराम करते होंगे! यहां भी, सरकारी मुलाज़िम तैनात होंगे, नौकरीपेशा चंद मुलाज़िम! मई जैसे उसी वक़्त में जा पहुंचा था, जैसे ये सराय जिंदा हो चली थी, भले ही मेरे तसव्वुर में! "आप जांचो ज़रा?" बोले वो, 

और मैंने तब जांच की, मिट्टी उठाई, और मंत्र पढ़े, नहीं, कुछ नहीं निकला! यहां कोई नहीं! ये अब वीरान है! साँसें तो बहुत पहले ही तोड़ चुकी, अब बस ख़ाक होने का इंतज़ार है! बस ख़ाक़ होने का, फिर इसका वजूद, हमेशा हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा! "नहीं, यहां कुछ भी नहीं!" कहा मैंने, "चलो, ये तो अच्छा है" बोले वो, 

और फिर हम चले वहाँ से, गाड़ी में बैठे, और गाड़ी दौड़ाई फिर, आये सड़क पर, और अब सुदेश जी के घर कर लिए चल पड़े! जब जा रहे थे, तो बीच में, दायीं तरफ, फिर से, वही हवेली पड़ी! जहां कल हम मेहमान थे! मैं रुका, निहारा उसे, और निहारते हुए, फिर चल पड़े आगे! अब तक आठ बज चुके थे! और हम घर पहुँच गए! शर्मा जी को बता दिया था की सुदेश जी को न बताएं कुछ भी, ये अच्छा ही रहता, नहीं तो वो भी ज़िद पकड़ लेते! और एक बार देख लेते, तो न घर के रहते, न बाहर के, और न अपने ही! ये दुनिया, हर लिहाज़ से बेमायनी और फीकी हो जाती! घर पहुंचे, तो सुदेश जी मिले, हाल-चाल पूछा, बहुत से सवाल किया, जवाब भी दिए, और फिर हम नहा-धो, फारिग हुए, फिर चाय-नाश्ता और उसके बाद बिस्तर पकड़ लिया सोने के लिए! राधिका बिलकुल ठीक थी अब! निशान जाने लगे थे! दोपहर में भोजन किया, और फिर रात को हल्का-फुल्का खा कर, फिर से चल पड़े! चैन तो आना नहीं था, आया ही नहीं! हम चले फिर आगे की तरफ, जहां कल गाड़ी लगाई थी, फिर से वहीं लगा दी! और चले हवेली की तरफ! हवेली वीरान सी दीख रही थी! दीखती भी! "रुको!" कहा मैंने, वे रुके, 

और तब मैंने कलुष-मंत्र का प्रयोग किया! फिर अपने और शर्मा जी के नेत्र पोषित किये! 

और फिर कुछ शब्द बोल, नेत्र खोल दिए! हवेली चमचमा उठी! रौशनी झाँकने लगी झरोखों से! 

"आओ!" कहा मैंने, और हम चल पड़े, आया फाटक, रुके, और सांकल खटखटाई! कुछ ही लम्हात के बाद, दरवाज़ा खुला, चर्र-चूं की आवाज़ करता हुआ! सामने शमीम खड़ा था! हमें देखा तो खुश हुआ! "सलाम!" बोला वो, "सलाम!" कहा मैंने भी, "आइये!" बोला वो, 

और ले चला संग अपने, पहुंचे हम, असलम के पास! असलम साहब उठ कर आये! सलाम हुई! "कैसे हैं हुजूर!" बोला वो, "सब खैरियत! आप सुनाएँ!" कहा मैंने, "सब ठीक है" बोला वो, "शमीम, पानी पिलाओ भई?" बोला असलम! शमीम गया अंदर, और ले आया दो गिलाल पानी, हमें दिया, और हमने पिया! दे दिए गिलास वापिस! "बैठिये साहब!" बोला असलम, "शुक्रिया! लेकिन हमें मिलना है हैदर साहब से!" कहा मैंने, "आइये न साहब! मैं चलता हूँ लेकर आपको!" बोला वो, 

और हम चले उसके संग! "असलम?" कहा मैंने, "जी हुजूर?" बोला वो, "आज मेहमान नहीं आये?" पूछा मैंने, "आएंगे हुजूर!" बोला वो, "अच्छा!" कहा मैंने, कुछ मिले-जुलने वाले आ रहे


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

होंगे! या फिर महकमे के लोग! आज हवेली की शान-ओ-शौक़त लौट आई थी! ठीक वैसी ही, जैसे कल थी! "आइये" बोला वो, और हम चढ़े ऊपर! 

तभी रास्ते में, बानो मिली! खुश थी हमें देखकर! "कैसी हो बानो?" कहा मैंने, ॥***ह का फ़ज़ल है!" बोली वो, "बढ़िया!" कहा मैंने, "आप कैसे हैं मालिक?" बोली वो, "सब फ़ज़ल है परवरदिगार का!" कहा मैंने 

और हम चल पड़े! फिर से सीढ़ियां आई, सीढ़ियां चढ़े! 

और फिर आया कमरा हैदर साहब का! असलम अंदर गया! और जब आया, तो हैदर साहब खुद आये! सलाम हुई! गले लगे! मुझसे भी और शर्मा जी से भी! हाथ पकड़, ले आये अंदर! "आइये! तशरीफ़ रखिये!" बोले वो, हम बैठ गए, और तब उन्होंने आवाज़ दी बानो को! बानो आई, उन्होंने कुछ इशारे इशारे में कहा, बानी चली वापिस! "और सुनाएँ!" कहा मैंने, "आपसे क्या छिपा!" बोले वो, "मैं आया, वायदा किया था!" कहा मैंने, "आपकी फ़ज़ालत का कोई शुबह नहीं था!" बोले वो, "शुक्रिया आपका!" बोला मैं, "आपका भी, सबसे पहले!" बोले वो, बानो आई! साथ अपने, दो और कनीज़ों को ले आई थी, खाने पीने का सामान! गिलास, और मीना! रख दिया, मेज़ पर, दस्तरख्वान बिछा कर, "शरबत लेंगे या आब-ए-तल्ख आप?" पूछा उन्होंने, "जो आप चाहें!" कहा मैंने, 

"पहले शर्बत पी, ताज़ा-ओ-ताबां हो जाएँ!" बोले मुस्कुराते हुए। 

और बानो ने, तीन गिलास शर्बत भर दिया! हैदर साहब ने, हमे गिलास पकड़ा दिए! 

और हम पीने लगे! "ये बनाओ बहुत अच्छी लड़की है!" कहा मैंने, "कोई शक नहीं!" बोले वो, मुझे देख, बानो मुस्कुरा पड़ी! "आगे-पीछे दौड़ती है!" बोला मैं, फिर से मुस्कुराई! "ये कनीज़ कम, हमारी बहन ज़्यादा है!" बोले वो, "अरे वाह!" कहा मैंने, "क्यों बानो?" बोले हैदर साहब! गरदन हिला दी उसने! हाँ में! "फिर तो हमारी भी बहन हुई!" कहा मैंने, "क्यों नही!" बोले हैदर साहब! "ठीक है न बानो?" बोला मैं, "हाँ हुजूर!" बोली वो, जैसे ही शरबत ख़त्म हुआ, और डालना चाहा, मैंने मना कर दिया! "पेट भर जाएगा!" कहा मैंने, हंस पड़ी बानो! 

और फिर गिलास ले, तश्तरी में रख, चली गयी! अब मैं पीछे हो, बैठ गया! "हाँ हैदर साहब, बहन का ब्याह हो गया था, नुसरत का!" कहा मैंने, "हाँ साहब! हो गया था!" बोले वो, "फिर?" पूछा मैंने, "बहनोई ले गए थे उसको, तबादला हुआ था उनका" बोले वो, "अच्छा! कहाँ?" पूछा मैंने, 

"आगरा" बोले वो, "अच्छा!" कहा मैंने, "बहुत दूर?" कहा मैंने, "हाँ, सरकारी फ़रमान था, जाना ही था!" बोले वो, "और हैदर साहब, आप कहाँ के रहने वाले हैं?" पूछा मैंने, "अजमेर की पैदाइश है हमारी, वहीं के एक गाँव में पैदा हुए थे हम!" बोले वो! बोलते बोलते, मुस्कुरा पड़े! अपने गाँव की याद आ गयी थी! अपने बचपने के दिन! अपना बचपन! कौन भूलता है अपना बचपन! वो भी न भूले थे! "तो आप यहां के सूबेदार बनाये गए!" कहा मैंने, बात को फेरा मैंने, "जी जनाब! हमें भेजा गया था!" बोले वो, 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और अब जाम बना लिए उन्होंने, एक मुझे दिया, एक शर्मा जी औ, और एक अपने लिए! सूखे मेवे थे, गोश्त था, कई तरह का! लज़ीज़ गोश्त! खुश्बू ही खुश्बू! तब मैंने पहला घुट भरा, वही शराब थी! रात वाली! गुलाबी शराब! बेहतरीन शराब! आज तलक नहीं पी ऐसी शराब! और गुलाबी, तो कभी नहीं! "आपका ब्याह हो गया था?" पूछा मैंने, जाम रखा नीचे, अपने घुटने पर, हाथ रखा, "हाँ, हो गया था हमारा ब्याह!" बोले, और मुस्कुरा दिए! "क्या नाम जान सकता हूँ मोहतरमा का, गर ऐतराज़ न हो तो!" कहा मैंने, "ऐतराज़ कैसा! जोहा नाम था! बेहद सुंदर थी! बेहद! बेहद मुहब्बत किया क्ति थीं हमें!" बोले वो, और यकायक, ग़मगुसार हो गए, जैसे आँखों में पानी छलक अॅाया हो! "मुआफ़ी चाहूंगा!" कहा मैंने, "कोई बात नहीं!" बोले, आंसुओं को, जज़्ब करते हुए! अब और कुछ पूछना, तहज़ीब के ख़िलाफ़ था, वे पहले ही गमज़दा थे, 

और कुछ पूछने से, टूट ही जाते! वे सोचते रहे कुछ, आँखें बंद कर, चुपचाप! शायद आज, घर की याद आ गयी थी उन्हें! कुछ लम्हे बीते, मैंने दूसरा घूट भरा जाम का, और रखा गिलास, 

गिलास थोड़ा तेज़ रखा, ताकि आवाज़ हो, और वो ख़यालों से बाहर आएं! और आ गए! "यहां कुल कितने लोग हैं?" पूछा मैंने, "बयालीस" बोले वो, "कुछ दूर से भी आते हैं?" पूछा मैंने, "उन्हें मिलाकर" बोले वो, बयालीस! बहुत थे! तादाद बेहद ज़्यादा थी! "अब उनतालीस हैं!" बोले वो, "हाँ, जानता हूँ" कहा मैंने, 

और उन्होंने अपना जाम ख़त्म किया! कुछ मेवे उठाये और खाने लगे, "हुआ क्या था हैदर साहब?" पूछा मैंने, अब ये सवाल था असली! इसी सवाल में सारी कहानी पैबस्त थी! "हमें, उस रोज दिन में एक फ़रमान मिला, कि ज़ख़ीरा आ रहा है, उसको, इस ख्वाबगाह के पीछे बने, माल-खाने में रखवा दिया जाए, यहां से ये ज़खीरा, खरवा जाएगा, वहाँ से कहीं और, अब फ़रमान था, त'आमील होना ही था, दोपहर तक ज़खीरा आ गया, रखवा दिया माल-खाने में, आइये ज़रा मेरे साथ" बोले वो, वो उठे, और ले चले हमें, हम चले उनके साथ, 

जो मिलता, झुक जाता, हम चलते रहे, पूरी हवेली ही पार कर ली, 

और एक और फाटक आया, वहां भी एक मुलाज़िम बैठा था, आया दौड़ कर, "फाटक खोलो" बोले वो, फाटक खुल गया, 

और हम चल पड़े, वो मुलाज़िम भी, आये उधर, और रुके वो, "यहां, यहां था वो मालखाना" बोले वो, वहां तो अब, कुछ न था, पत्थर ही पत्थर थे! 

और कुछ, टूटी हुई सी इमारत के टुकड़े, बड़े बड़े! "यहीं से क़यामत बरपी थी उस रात हम सभी पर" बोले वो, 

"कैसे?" पूछा मैंने, "आइये, बताता हूँ क्या हुआ था उस मनहूस रात" बोले वो, 

और अब चले वापिस, हम भी वापिस चले, फाटक बंद हुआ, मुलाज़िम वहीं रह गया, और हम साथ चलते रहे सूबेदार साहब के! आ गए उनके कमरे में, आ बैठे, फिर से जाम बनाये उन्होंने, इस बार बड़े जाम, 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और जल्दी से उठा, गटक गए वो, अपने हालातों से लड़ रहे थे अंदर ही अंदर! अपने जज़्बातों से! कितना मुश्किल होता है ऐसे लड़ना! न हार ही होती है, और न जीत ही! बस ये लड़ाई, यूँ ही चलती रहती है! लेकिन ये हैदर साहब तो, तीन सौ बरस से लड़ रहे थे! अंदर ही अंदर! "बेगुनाहों को हलाक कर दिया हमने...." रो पड़े थे, फूट फूट कर, "बेगुनाहों को हलाक़ कर दिया हमने!" बोले जा रहे थे, गुस्से में, अपने सीने में चूंसे मारे जा रहे थे! रो रहे थे, तड़प रहे थे! फ़फ़क-फ़फ़क के रो रहे थे! "हैदर साहब?" बोला मैं, "आलिम साहब, हमने बेगुनाहों को हलाक़ कर दिया!" बोले वो, "हआ क्या था?" पूछा मैंने, अब संभाला अपने आपको उन्होंने, सीने में छिपा दर्द, आज ज़्यादा ही भड़क गया था, 

हुए कुछ संजीदा, "उस रात, महफ़िल सजी थी, आबिदा को बुलाया गया था, आबिदा का वो, तराने का, पहला मौका था! हम बेहद खुश थे, बेहद खुश! सारी तैयारियां की गयी थीं! उस रोज हमने अपने ख़ास मेहमानों को बुलाया था!" बोले वो, जोश के साथ! फिर रुक गए,जाम बनाने लगे थे! "फिर क्या हुआ था?" पूछा मैंने, "महफ़िल जवान थी! आबिदा तैयार थी तराने के लिए! सभी बैठे थे, और तभी एक मुलाज़िम भागा भागा आया, चिल्लाते चिल्लाते कि 'असलहे में आग लग गयी! असलहे में आग लग गयी, ज़ख़ीरे में आग लग गयी!' और जब तक हम कुछ समझते, ज़ोरदार धमाका हुआ, और आग का वो आफ़ताबी समंदर हमारे सामने से होता, हम सबको, इस पूरी हवेली को, ख़ाक़ करता गुज़र गया....... ............." बोले वो, और चुप हुए, मेरे सीने में धक्का पहुंचा, वो धमाका, अब मेरे सीने में हुआ था, मेरे सीने में, ऐसी दर्दनाक मौत? न सोचने का मौक़ा? न बचने का? न बचाने का? कैसा मंज़र होगा वो, कैसा हौलनाक मंज़र! रीढ़ में कम्पन्न छूट गयी! हलक में, न जाने क्या हुँस गया! सांस, बंद सी होने लगी, लगा, वो धमाका, अब होने को है, अभी, बस अभी अभी होने को है! "मुझे बेहद अफ़सोस है हैदर साहब" कहा मैंने, अपनी गरदन हिलायी उन्होंने, धीरे धीरे, 

"न वो ज़ख़ीरा होता, न कुछ होता" बोले वो, "हाँ, लेकिन इसमें आपको कोई गलती नहीं" कहा मैंने, "हमने ही रखवाया था वो मौत का ज़खीरा" बोले वो, "आपने सिर्फ़ हुक्मऊदूली की" कहा मैंने, "काश उस दिन, हुक्मतलफ़ी की होती" बोले वो, उठे, और चले एक तरफ, शायद, उसी कमरे में, दीवार के पास, वे उस तरफ जाकर, कुछ टटोलते रहे, फिर एक झोला सा लाये, काफी बड़ा था झोला, रखा दिया मेज़ पर, और पीठ लगा ली, कुर्सी से, धीरे धीरे कुछ बोल रहे थे, समझ नहीं आ रहा था, होंठ हिल रहे थे, आँखें, बंद कर ली थी उन्होंने, हम देखते रहे उन्हें, सीने में बैठा दर्द, आज उछल रहा 

था अंदर ही अंदर। फिर एक सांस में , आगे होते हुए उनके वो अलफ़ाज़ बाहर निकले, "हमें मुआफ़ करना ज़ोहा, हमें मुआफ़ करना, जोहा, हमें मुआफ़ करना" बोले जा रहे थे, बार, बार! मैंने नहीं टोका उन्हें, दिल के गुबार थे, जो निकले जा रहे थे! 

आंसुओं से भर गयीं थे आँखें, छलछला रही थीं आँखें,आंसू ही आंसू थे, अपनी आस्तीन से आँखें पोंछी उन्होंने, और वो झोला खोलना शुरू किया, 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और खोलते खोलते, निकाले कुछ जले हुए कपड़े, संभाल कर! "ये देखिये साहब, कपड़े, जोहा के लिए खरीदे थे, हफ्ते भर बाद, घर जाना था मुझे, सभी के लिए कुछ न कुछ लिया था हमने!" बोले, वो फ़फ़क के रोने लगे! मेरी तो हिम्मत ही न हुई उन्हें छूने की, मैंने देखे ज़रूर, लेकिन छुआ नहीं, छू ही नहीं सकता था, हिम्मत ही नहीं बनी! "गलती हमारी थी, हमारी!" बोले हैदर साहब, आस्तीन से आंसू पोंछते हुए! "आपकी कोई गलती नहीं थी, आपने अपना फ़र्ज़ निभाया हैदर साहब" कहा मैंने, "सब बेगुनाह मारे गए, सब, हम ही वाइज़ हैं उसके!" बोले वो, "आप वाइज़, कतई नहीं!" कहा मैंने, "हम हैं आलिम साहब" बोले वो, "कतई नहीं!" कहा मैंने, 

अब उन्होंने, उन जले हुए कपड़ों को, ज्यों का त्यों डाल दिया, और ले गए रखने, संभाल कर! 

आये वापिस, बैठे, जाम बनाया, "आपके लिए?" बोले वो, "हाँ हैदर साहब" कहा मैंने, 

और हमारे जाम भी भर दिए, उठाये हमने, और वे, पीठ लगा, हो गए पीछे, "हैदर साहब!" कहा मैंने,, "फ़रमायें जनाब" बोले वो, "आप तैयार हैं?" पूछा मैंने, "जी?" बोले वो, "इस जहाँ से छूट जाने को!" कहा मैंने, 

चुप हो गए वो, "बोलिए?" बोला मैं, "कुछ यादें हैं, उनका क्या?" बोले वो, "ये यादें नासूर बन गयी हैं, सालती रहेंगी आपको, आप चाहें, तो ये बेगुनाह, आपके साथ साथ, सफ़र मुकम्मल कर लेंगे!" कहा मैंने, "समझते हैं हम!" बोले वो, "तो बताइये?" बोला मैं, "हमें वक्त चाहिए" बोले वो, "कितना?" पूछा मैंने, "रजब सोलह, चाँद-रात है, मैं आता हूँ उस रात!" कहा मैंने, वे मुस्कुराये! "आलिम साहब!" बोले वो, "फ़रमायें हैदर साहब!" कहा मैंने, "हम खाली हैं, देने के लिए, मिट्टी भी नहीं!" बोले वो, हँसते हुए! "हैदर साहब! मुझे कुछ चाहिए ही होता, तो कैद कर लेता सभी को, मनचाहा मिलता रहता! आपसे दोस्ती की, आपने इज़्ज़त बख्शी, ये ही बहुत है मेरे लिए, कभी नहीं निपटेगा ये ही!" कहा मैंने, "आलिम साहब! आलिम साहब!" वे बोले, उठे, मैं भी उठा, और लग गए गले! रोने लगे! 

"मुझे पर ऐतबार रखें!" मैंने कहा, वे हटे, आंसू पोंछे, मेरा हाथ पकड़ा! "ऐतबार! आलिम साहब! ऐतबार तो पहली मर्तबा मिलते ही कर लिया था!" बोले वो, "बस! मैं आऊंगा रजब, सोलह को!" कहा मैंने, "हमें इंतज़ार रहेगा!" अब हंस के बोले! मान गए थे मेरा कहना और मेरी तजवीज़! हंसने का मतलब तो यही था! "अब चलूँगा मैं!" कहा मैंने, "सहर तक रुकिए?" बोले वो, "जाने का मन तो मेरा भी नहीं!" बोला मैं, "तो रुक जाइए! ये हैदर, फिर न मिलेगा!" बोले वो, 

ये क्या कह दिया हैदर साहब ने! आसान से अलफ़ाज़, लेकिन मायने पहाड़ से! "रुक जाता हूँ हैदर साहब!" बोला मैं, और तब उन्होंने बानो को बुलाया, खाना लगाने को कहा, थोड़ी देर बाद, खाना लगा, और हमने खाया खाना, जाम टकराये! "आज महफ़िल नहीं सजी?" पूछा मैंने, "कल आखिरी थी!" बोले वो, "कैसे?" कहा मैंने, "महफ़िल तो न जाने कब से सज रही है! आज से नहीं!" बोले वो, "क्या आबिदा?" पूछा मैंने, "नहीं नहीं!" बोले वो, "तो फिर?" पूछा मैंने, "पुरसुकून!" बोले वो, "नहीं समझा!" कहा मैंने, 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"कल तक पुरसुकून नहीं था! आपके आने से हुआ!" बोले वो, कम अल्फ़ाज़ों में, सारा मतलब समझा दिया था! उन्हें इंतज़ार था किसी का! किसी का, जो उनकी फंसी हुई नैय्या को पार लगा दे। इंतज़ार! इतना लम्बा इंतज़ार! न जाने कितना! शायद, क़यामत तक! उसके बाद, हमने सोने का फैसला किया, सहर से पहले उठना था! हमारा सोने का इंतजाम कर दिया गया! हम सोने की कोशिश करते रहे, लेकिन नींद न आई! हैदर साहब की बातें, उनका दर्द, दिल में उतर गया था! वही, करवटें ले रहा था! बार बार! "कितना दर्द!" बोले शर्मा जी, "हाँ, कितना दर्द!" कहा मैंने, "बेचारे हैदर साहब!" बोले शर्मा जी, "बेचारे, लाचार!" कहा मैंने, "तीन सौ बरस! बाप रे बाप!" बोले वो, "हाँ, तीन सौ बरस का दर्द!" कहा मैंने, "इंतहा है ये!" बोले वो, "यक़ीनन!" कहा मैंने, "तो चाँद-रात पर मुक्त?" बोले वो, "हाँ, मुक्त!" कहा मैंने, "बहुत बढ़िया! पुण्य का काम!" बोले वो, "आपको भी श्रेय है!" कहा मैंने, "आपके साथ!" बोले वो, "हाँ, मेरे साथ!" कहा मैंने, बातें करते करते, सुबह ही होने को हुई, नींद नहीं आ पायी! 

मुझे, आबिदा की याद आ रही थी! उसका चेहरा! उसके साथ बिताए वो लम्हे! और तब हम उठे, दोनों ही, चले सूबेदार साहब के पास! रास्ते में, बानो मिली, मुस्कुराई! बानो! वो मासूम सी लड़की! लम्बी सी चोटी लटकाये! माथे पर सोने की लड़ सी टांगें! मासूम सी बानो! उम में कोई, अठारह या उन्नीस की रही होगी बानो! सुंदर, समझदार और चंचल! चले हम आगे, कुछ और कनीजें भी अपने अपने कमरों में थीं, कुछ मेहमान आदि भी, कुछ दूर से आये हए, सभी की आवाजें आ रही थीं, हम सीढ़ियां चढ़े और फिर सदा चले हैदर साहब के पास, उनका कमरा खुला ही था, पर्दा लगा था, मैंने बाहर से ही आवाज़ लगाई, "हैदर साहब?" बोला मैं, पर्दा हटा, और वो खुद आये, "आइये न! आइये!" बोले वो, 

और चले अंदर, जा बैठे, "हैदर साहब, सहर होने को है,अब के बाद मैं रजब सोलह को ही आऊंगा!" कहा मैंने, "हमें इंतज़ार रहेगा आलिम साहब आपका!" बोले वो, "अब चलूँगा साहब!" कहा मैंने, 

और हम उठ लिए वहाँ से, हैदर साहब भी संग चलने को तैयार थे, मैंने मना किया, समझाया तब जाकर माने वे! 

और हम अब नीचे की तरफ चले, उत्तरी सीढ़ियां और फिर चले, अभी तक रौशनी आ रही थी जलती हुई शमा की, हर कमरे से, ये शमा, ये रौनक, बस कुछ चंद लम्हात बाद, गुमनामी के अँधेरे में खो जाने वाले थे! बस कुछ ही लम्हात के बाद! हम उतर आये नीचे, 

और रुके, "शर्मा जी?" कहा मैंने, 

"जी?" बोले वो, "आँखें बंद कीजिये!" कहा मैंने, उन्होंने आँखें बंद की, मैंने भी की, 

आँखों की बंद पलकों पर, कुछ ही लम्हात बाद, रंग बदल गया! और मैंने आँखें खोल दी अपनी! "शर्मा जी, आँखें खोल लो" कहा मैंने, 

आँखें खोली उन्होंने! हवेली, तीन सौ बरस आगे जा पहुंची थी पिछली रात से! खंडहर बन गयी थी! वो शान-ओ शौकत, वो रंगीनियाँ, और उससे वाबस्ता हर चीज़, हर इंसान, वक़्त के उस स्याह अँधेरे में धकेला जा चुका था! बहुत दुःख होता है, और हुआ, "वापिस चलें अब?" बोले


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

वो, "एक मिनट, वो जगह देखते हैं" कहा मैंने, "कौन सी जगह?" पूछा उन्होंने, "वो मालखाना!" बोला मैं, "अरे हाँ, आइये" बोले वो, 

और हम चल पड़े, रात में जहां कालीन बिछे थे रास्ते में, गलियारे में, अब यहां मिट्टी, पत्थर और बजरी पड़ी थी, खर्र-खर्र आवाज़ करती बजरी, जूतों के नीचे आने से! हम चलते रहे, और आ गए उधर, अब कोई फाटक न था, बस एक दीवार थी, जो ढही पड़ी थी, उसकी नीवं भी उखड़ गयी थी, हमने दीवार पार की, और आये उस मैदान में, सामने लगा कि, पुराने वक़्त में यहां कोई इमारत त'आमीर रही होगी! अब बस, कुछ ही दीवार सी बची थी, बाकी सब, पत्थर बन चुका था! "वो देखिये" बोले वो, कुछ पत्थर थे, जले हुए, काले पड़े हए थे! "यहीं होगा वो मालखाना!" कहा मैंने, "हाँ, देखो न, कैसे पत्थरों के टुकड़े हुए पड़े हैं?" बोले वो, एक बड़ा सा जला हुआ, पत्थर का टुकड़ा उठाते हुए! मैंने लिया वो पत्थर! चीख चीख कर गवाही दे रहा था उस धमाके की, जिसने एक ही लम्हे में उन बयालीस को, पलक झपकने से पहले ही ख़ाक कर डाला था! वो टुकड़ा गवाह था! मैंने 

इज़्ज़त के साथ उसको वहीं रख दिया! और जा पहुंचा उस रोज में, जिस रोज मालखाने में, वो ज़ख़ीरा रखा गया था! सूबेदार हैदर साहब यहीं होंगे, मज़दूर ढो रहे होंगे बोरे उस ज़ख़ीरे के, अपनी मौत का सामान, रखा जा रहा था। सरकारी फ़रमान था, और हैदर साहब, फ़र्ज़मंद इंसान थे, उन्हें नहीं पता था, कि कल कीसहर देखना, अब मुमकिन, हरगिज़ नहीं! "बहुत बुरा हुआ!" बोले शर्मा जी, "हाँ जी!" कहा मैंने, "इस ज़ख़ीरे ने, जान ले ली सबकी" बोले वो, "हाँ, शायद आया ही इसीलिए था" कहा मैंने, "हाँ, देख लो, मौत का सामान, खुद ही रखवाया उन्होंने" बोले वो, "उन्हें क्या मालूम था!" बोला मैं, "सही बात है! वक़्त का कोड़ा पड़ना था, पड़ गया, अटकना था, अटक गए!" बोले वो, "हाँ शर्मा जी, यही हुआ" कहा मैंने, "तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता उस मंज़र का!" बोले वो, "बेहद मुश्किल है!" कहा मैंने, "अब चलें, दिल भारी होता है बहुत" बोले वो, "हाँ, दिल पर, वजन बढ़ने लगता है!" कहा मैंने, 

और हम वहीं से निकल चले बाहर, जब हवेली की हद से बाहर आये, तो मैं रुका, देखा हवेली को, याद आये सभी, बानो, असलम, शमीम, शफ़ीक़-उल्लाह और हैदर साहब! "आ रहा हूँ मैं हैदर साहब! आ रहा हूँ! दोस्ती का कौल है, मेरा फ़र्ज़ है, और सबसे पहले एक 

आलिम का फ़र्ज़ है! और, और कैद नहीं! और कैद नहीं आ रहा हूँ रजब सोलह को! सलाम हैदर साहब!" कहा मैंने, और लौट पड़ा! गड़ी तक पहुंचे, पानी पिया, हाथ-मुंह धोये, पोंछे, 

और फिर गाड़ी मोड़, हम वापिस हुए, घर पहुंचे सुदेश जी के, लड़की अब बिलकुल ठीक थी। उसी रोज की हमने टिकट करवा ली, हालांकि, सुदेश जी ने बहुत रोका, ज़िद पकड़ी, लेकिन रुकना तो मुश्किल था बहुत! 

हम शाम को, गाड़ी पकड़, वापिस हुए दिल्ली के लिए, पहुंचे दिल्ली, वहां से अपने स्थान, शर्मा जी चले गए थे घर अपने, मैं वहीं रहा, आराम किया, फिर क्रिया का हिसाब लगाया, एक क्रिया कल की जा सकती थी, लेकिन उसमे एक की ही मुक्ति सम्भव थी, मैंने ज़ोर लगाया, और मुझे आतिरा की याद आई, वही थी जिसने, खुद सबसे पहले मंशा जाहिर की थी! इसीलिए, मैं कल


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

आतिरा को मुक्त कर देने वाला था! शाम को शर्मा जी आये, सामान लेते आये थे, सहायक से इंतज़ामात करवाये, और हमने गिलास बनाये अपने, जैसे ही होंठों पर रखा गिलास, और पहला पूँट भरा, बेहद हीक और बेहद ही कड़वी लगी! "बहुत कड़वी है?" बोले शर्मा जी! मैं हंसा! हंसा और उनके घुटने पर हाथ मारा! "ये कड़वी नहीं!" कहा मैंने, "फिर?" बोले वो, "दो रात वो गुलाबी शराब पी थी न!" कहा मैंने, "अरे हाँ!" बोले वो, "बस, वो ज़बान को लग गयी!" कहा मैंने, "यही बात है!" बोले वो, "इसीलिए कड़वी लगी!" कहा मैंने, "अब देखो, तीन सौ साल पहले कैसे बढ़िया शराब मिलती थी, और इसे देखो, एक तो महंगी, 

और ऊपर से ऐसी, जैसे स्पिरिट!" बोले वो, "ये बात तो है!" बोला मैं, 

खैर, किसी तरह से धकेली गले में! खाया साथ में जो लाये थे। "वो खाना देखा था?" बोले वो, एक टुकड़ा उठाये हुए! "अब उस क्या मुक़ाबला!" कहा मैंने, 

"ये तो ऐसा लगा रहा है जैसे रबर!" बोले वो, मैं हंस पड़ा! बात तो सही ही की थी। "शर्मा जी?" कहा मैंने, "जी?" बोले वो, "कल,आतिरा को मुक्त करना है!" कहा मैंने, "ये तो बहुत बढ़िया है!" बोले वो, "कल जमना जी चलना है!" कहा मैंने, "चलते हैं" बोले वो, "ठीक है!" कहा मैंने, 

और फिर हम उस खान-पान से निबटे, मैंने हाथ-मुंह धोया, शर्मा जी ने आराम करने के लिए, तकिया लगा ली बिस्तर पर, 

लेट गए फिर आराम से, 

और मैं, चला पड़ा अपने क्रिया स्थल की ओर, उस आतिरा को हाज़िर करने! जो बेहद बेसब्र थी, आगे बढ़ने को! मैं गया क्रिया-स्थल में! गुरु-नमन किया, श्री अघोर-पुरुष नमन किया! और फिर बैठ गया! अब मैंने मंत्र पढ़ा, और कुछ ही क्षणों में,आतिरा वहाँ हाज़िर हो गयी! हाज़िर होते ही, बदहवास जैसी हालत में, सब ओर देखे! जब मुझे देखा, और भागी मेरी तरफ, मैं खड़ा था, भागी, और लिपट गयी! "मत डरो!" कहा मैंने, न हटे! चिपके ही रहे! "आतिरा! न डरो! तुम महफूज़ हो!" कहा मैंने, न हटे! सबके! रोये! "आतिरा, यकीन है न मुझ पर?" पूछा मैंने, "उसने गले लगे हुए ही गरदन, हाँ में हिलायी! लेकिन छोड़ा नहीं उसने मुझे फिर भी! 

"वो हवेली, उसका स्याह अँधेरा, वो गुमनामी, अब ख़तम आतिरा!" कहा मैंने, 

और तब हटी वो! मुझे देखे, आँखों में आंसू, होंठ कांपें! मैंने आंसू पोंछे उसके, हाथ पकड़े रही मेरा! "आतिरा! बहुत भटकी तुम! अब अपना सफ़र मुकम्मल करो!" कहा मैंने, "एक नयी सहर होगी! और एक नयी आतिरा!" कहा मैंने, गले से लग गयी मेरे फिर वो! बोली कुछ नहीं, बोल ही नहीं पा रही थी कुछ, शायद, समझ से परे था सबकुछ उसके लिए! 

या फिर, मन के भाव इस कदर उलझे थे, कि पहले कौन सा स्पष्ट किया जाए! "बस कुछ देर और आतिरा! फिर, सुकून ही सुकून!" कहा मैंने, 

और समझाया उसको! बहुत कुछ! "आतिरा?" बोला मैं, "जी?" तब बोली वो! "मुझे अपने वालिदैन के बारे में बताओ" कहा मैंने, "मेरे अब्बू, रियाज़उद्दीन अली और वालिदा साज़िदा थीं, मेरे चार भाई थे, और एक बहन" बोली 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"और रिहाइश?" पूछा मैंने, 

और अब उसने मुझे अपनी रिहाइश के बारे में बता दिया! मैंने याद रखा, कभी जाना हुआ, तो मालूमात करा सकता था उसकी रिहाइश के बारे में पता नहीं अब हो या नहीं, लेकिन कोशिश करने में कोई हर्जा नहीं! 

आतिरा से बात कर, मैंने उसको फिर से स्याहपोश किया और चला आया वापिस कमरे में अपने, फिर अपनी डायरी में उस रिहाइश का पता लिखा, उसके वालिदैन के बारे में लिखा, और फिर आराम से सो गया! अब जो कुछ करना था, वो कल! अगला दिन आया, दोपहर हुई, मैंने आवश्यक तैयारियां की, और श्री महाऔघड़ से मेरा मार्ग, उचित हो, अनुचित नहीं, प्रार्थना की, मुझे अपने देख में रखें, कामना की! कोई रत नौ बजे, हम निकले, सामान रख लिया था क्रिया का, हमें जमना जी के तट पर जाना था, नदी का होना आवश्यक है, नदी मनुष्य जीवन का सूचक है, गर्भ से उत्पन्न जैसे मनुष्य होता है, ऐसी ही नदी का भी जन्म होता है, पतली सी धारा से आरम्भ नदी, आगे जा, विशाल रूप ले लेती है, कई उतार-चढ़ाव देखती है, पहाड़ों को चीरती है, कई घुमाव देखती है, उस पर 

आश्रित होते हैं अन्य भी! वो जीवनदायनी भी होती है, कभी सूखती है, कभी बाढ़ ले आती है, टेढ़े-मेढ़े रास्तों से हो, अंततः वो सागर में विलीन हो जाती है। ऐसा ही होता है मनुष्य का भी सफ़र! इसीलिए, मुक्ति-कर्म नदी किनारे किया जाता है! हम पहुँच गए थे, एक विशेष स्थान है वहाँ, मैं अक्सर वहीं जाता हूँ, कोई रोक-टोक नहीं, कोई अन्य दिक्कत-परेशानी नहीं! मैंने क्रिया के लिए, स्थान स्वच्छ किया, सामान रखा, शर्मा जी को संग बिठाया, कलुष से नेत्र अभिमंत्रित किये उनके! आज आतिरा को, पहली बार देखने जा रहे थे वो! मैं खड़ा हुआ! और मंत्र झाड़ा एक! और अगले ही पल, चमचम होती, आतिरा हाज़िर हो गयी! खुला स्थान देखा उसने, और फिर नदी, जैसे ही नदी देखी, मुझ से लिपट गयी! "क्या हुआ आतिरा?" पूछा मैंने, "हमें डर लगता है पानी से!" बोली वो, मैं हंस पड़ा! "सुनो आतिरा! अब सारे डर, यहीं छोड़ दो! अब कोई डर नहीं बचा! सुनो?" बोला मैं, उसने छोड़ा मुझे, आकाश देखा, किनारा देखा, ज़मीन देखी, चारों ओर देखा! मेरे दिल में घुम्मड़ सा उठा भावों का! आतिरा, कुछ ही क्षणों में, इस संसार से, सर्वदा के लिए, विदा हो जायेगी! इतनी सुंदर! इतनी हसीं! लेकिन भोली! अनजान! नहीं जानती, कि कोई पकड़ ले उसे, तो क्या हश्र हो उसका! दिल को समझाया मैंने, 

और फिर आतिरा का हाथ थामा! "आतिरा! तैयार हो?" कहा मैंने, "हाँ!" जानती थी, समझती थी! इसीलिए हाँ कहा! "मुझे मुआफ़ करना आतिरा, ग़र कि ख़ता हुई हो मुझसे!" कहा मैंने, "ऐसा न कहें आप! हमें रोना आ जाएगा!" बोली वो, "नहीं! अब कैसा रोना! अब तो सुकून ही सुकून है आतिरा! जाओ आतिरा! जाओ!" कहा मैंने, 

और बैठा मैं फिर, निकाला सामन, की आरम्भ क्रिया! आतिरा उठने लगी ऊपर! धुंआ सा उठने लगा! सुकून के कारण, आँखें बंद हुईं उसकी! "अलविदा मेरे मोहसिन!" बोली वो, मुस्कुराते हुए, आँखें खोल ली थीं उसने, चेहरा, चमचमा उठा था! 

"अलविदा आतिरा!" कहा मैंने, 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और कतरा क़तरा वो धुआं! विलीन हो गया! आतिरा, मुक्त हो गयी! तीन सौ बरसों का वो अँधेरा, ख़तम हो गया! वो चली गयी! रह गए हम दो! उन लम्हों को याद करते हुए! मेरा दिल बहुत भारी हो चला था! मैं बैठा रहा उधर, याद करते हुए आतिरा को! जब वो हवेली में मिली थी! इठलाती चाल से चलते हुए! मैं उठके चला था उसको देखने! मुस्कुरा गया मैं! वो सब याद करके! "खुश रहो आतिरा! हमेशा! बस, यही है मेरे पास तुम्हें देने के लिए!" कहा मैंने, 

और दिल भारी हो उठा मेरा! आतिरा का अब, नाम-ओ-निशान, इस दुनिया से मिट चुका था! बचा था कुछ तो, उसकी यादें और उसका, वो रिहाइश का पता! मेरे कंधे पर हाथ रखा उन्होंने! "परेशान हो?" बोले शर्मा जी, "हाँ" कहा मैंने, कहा भी नहीं जा रहा था! "क्यों?" बोले वो, "आतिरा!" कहा मैंने, "वो गयी! जहां जाना था उसे!" बोले वो, मैंने हाँ में गरदन हिलायी! "तीन सौ बरस पहले चली जाती!" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "जाते जाते, मोहसिन कहा उसने!" बोले वो, 

"हाँ!" कहा मैंने, 

आँखें गीली थीं, रुमाल लिया, आँखें साफ़ की, फिर नाक पोंछी, "दिल भारी न करो!" बोले वो, "हाँ, जानता हूँ!" कहा मैंने, "चलो अब!" बोले वो, "चलो" कहा मैंने, बचा सामान, नदी में प्रवाहित कर दिया, 

और फिर, वापिस हो चले वहां से, घर गए अपने अपने, रात भर, नींद टूट टूट कर आई मुझे! कई बार जागा! उठा, टहला! लेटा, बैठा! सोचा, दरकिनार किया सोच को, फिर से सोचा, उलझ गया! सुबह हुई, निवृत हुआ, शर्मा जी आये, तो चला उनके संग! पहुंचे वहाँ, अब दो दिन के बाद, एक क्रिया थी, अब जुबैदा को मुक्त करना था मुझे! जुबैदा, उस से मुझे ज़हनी लगाव था! हो चला था बस, उसी हवेली में, शायद, उसी हमाम में! दो दिन और बीते, आज आया क्रिया का दिन! मैंने दोपहर में सारी तैयारियां कर ली थीं! आज रात मुझे, जुबैदा को भी मुक्त कर देना था! उस तीन सौ बरस के स्याह अँधेरे से, गुमनामी से, 

और इंतज़ार से! जुबैदा, हमाम का सारा काम उसी के ज़िम्मे था, मुझे उसके साथ बिठाये हुए लम्हे और वो गुसल याद था! वो इत्र की ख़ुश्बू, आज भी याद है मुझे! नरगिस के फूलों की जैसी महक़ थी उस पानी में! वो चार कनीज़ और वो जुबैदा! सब याद थे, जैसे अभी गुज़रे लम्हे की ही 

बात हो! रात हुई, और मैं कोई दस बजे अपने क्रिया-स्थल में गया! गुरु-नमन किया, श्री अघोर पुरुष का स्मरण किया! और फिर खड़ा हुआ, मंत्र लड़ाया! और अगले ही पल, जुबैदा, वो पोटली बग़ल में दबाये, हाज़िर हुई। उसने और कुछ नहीं देखा! बस आई भागी हुई और लगी मेरे सीने से! लगते है रोने लगी! मैं उसके सर पर, कमर पर, हाथ फेर, बार-बार उसको समझातारहा! "जुबैदा? जुबैदा?" कहा मैंने, नहीं सुना! हटी ही नहीं! चिपके ही रही! "जुबैदा! ये वक़्त अब रोने का नहीं! अब सुकून का वक़्त है! बहुत रोयीं! बहुत कैद रहीं उस हवेली में! अब नहीं, न, अब नहीं!" कहा मैंने, तब हटी, मेरी आँखों में झाँका, पता नहीं कितनी शिकायतें दर्ज करा दी कुछ ही पलों! काजल फैल गया था। मैंने साफ़ किया उसका काजल! "जुबैदा! अब नहीं


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

रोना! कहा मैंने, "हम जानबूझकर नहीं रोते!" बोली वो, "तो फिर?" कहा मैंने, मुस्कुराते हुए, "हमें नहीं पता सच में" बोली वो, मैं मुस्कुराया, बेहद लज़ीज़ से लहजे में बोली थी वो! "इस पोटली में क्या है जुबैदा?" पूछा मैंने, उसने तभी, वो पोटली, मुझे दे दी! मैंने ली, खोली, तो उसमे, कुछ गहने, और कुछ श्रृंगार का सामान था! "ये तुम्हारा है?" पूछा मैंने, "हाँ" बोली वो, "अच्छा!" कहा मैंने, "बहुत सुंदर है!" कहा मैंने, और दे दिया वापिस उसे, उसने फिर से बग़ल में दबा लिया! "जुबैदा?" कहा मैंने, "जी हुजूर?" बोली वो, मैं मुस्कुराया! "अब कोई हुजूर नहीं! अब तुम हवेली में मुलाज़िम नहीं! कोई कनीज़ भी नहीं!" कहा मैंने, 

मुस्कुरा गयी जुबैदा! जब मुस्कुराती थी, तो बेहद सुंदर लगती थी! जैसे चमकता हुआ नगीना! "जबैदा, मुझे अपने वालिदैन के बारे में बताओ" कहा मैंने, "हमारे वालिद, अब्दुर्र फ़हीम तभी इन्तकाल फ़रमा चुके थे, जब हम छोटे थे, और वालिदा, ज़रीना, गाँव में थीं, एक बहन थी बड़ी, और दो भाई छोटे!" बोली वो, "अच्छा! और तुम्हारी रिहाइश?" पूछा मैंने, अब उसने मुझे अपनी रिहाइश के बारे में बताया! मैंने याद रखा, ये एक गाँव है, आज भी है! काफी बड़ा गाँव है! "ठीक है जुबैदा! आज तुम्हारा सफ़र मुक्क़मल होने को है!" कहा मैंने, 

और फिर समझा-बुझाकर, उसको स्याहपोश किया! और तब, आवश्यक सामान लेकर, वापिस हुआ अपने कमरे के लिए, अब जाना था हमें जमना जी! आज मुक्त कर देना था मुझे जुबैदा को! मैं कमरे में आया, शर्मा जी सारा सामान लिए तैयार थे, जल्दी जल्दी निबटे हम, फिर भी ग्यारह बज गए थे! हाँ, उस रिहाइश का पता मैंने अपनी डायरी में दर्ज कर लिया था! कोई साढ़े ग्यारह बजे, हम निकले वहाँ से, कोई बारह बजे पहुंचे, उसी जगह गए, चाँद की रौशनी थी, मैंने दीये लगाये, और सामग्री रख दी, फिर, शर्मा जी के नेत्र पोषित किये! 

और क्रिया आरम्भ की, कोई आधा घंटा लगा, तब मैं खड़ा हुआ, और मंत्र लड़ा दिया! चमचम करते हुए, जुबैदा हाज़िर हो गयी! आसपास का माहौल देखा, तो घबरा गयी! मैं आगे गया, तो चिपक गयी मुझसे, आँखें बंद किये हुए। उसके लिबास से, इत्र की महक आई, बहुत तेज! "जुबैदा!" कहा मैंने, अब देखा उसने मुझे! "इरो नहीं! मैं हूँ न तुम्हारे साथ!!" कहा मैंने, "जुबैदा, अपना सफ़र मुक्कमल करो! जाओ जुबैदा! जाओ! ग़र, मुझसे कोई ख़ता हुई तो, तो 

मुआफ़ी चाहूंगा!" कहा मैंने, लिपट गयी गले! रुलाई फूट पड़ी! बोले तो बोला न जाए! "वक़्त-ए-रुखसती है! रो के नहीं, हंस के जाओ जुबैदा!" कहा मैंने, नहीं मानी! रोती ही रही! "मत रोओ! नहीं!" कहा मैंने, बड़ी मुश्किल से समझाया उसको! तब जाकर, चुप हुई! "कोई आख़िरी ख़्वाहिश?" पूछा मैंने, "हाँ!" बोली वो! "बोलो?" कहा मैंने, "इस जुबैदा को, दिल में न सही, अपनी यादों में ज़रूर वाबस्ता रखना!" कहा उसने, और रुलाई 

फूटी, 

वो तो मुझे भी रुला ही देती! ऐसा कह कर! मैंने लगा लिया सीने से उसे! "जुबैदा! तुम मेरे दिल में, ज़हन में और मेरी यादों में, ता-उम मौजूद रहोगी! कभी नहीं भूलूंगा इस जुबैदा को मैं! कभी नहीं!" कहा मैंने, वो रोती रही, और मैं चुप कराता रहा! 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और फिर वो समय आया! "अब जाओ! बढ़ जाओ आगे जुबैदा! बढ़ जाओ! एक नई सहर इंतज़ार करती मिलेगी! अँधेरा नहीं होगा वहां! जाओ! जाओ जुबैदा!" कहा मैंने, और मंत्र पढ़ दिया! धुंए में घिर गयी जुबैदा! मेरी आँखों से, आखिर, आंसू टपक ही गए! बहुत रोके! बहुत रोके! नहीं रुके! हो गए गद्दार! "अलविदा जुबैदा! अलविदा!" कहा मैंने, वो सुकून में घिरी थी! 

पुरसुकून। 

उस धुंए में घुलती जुबैदा, सुकून महसूस कर रही थी! 

इंतहाई सुकून! "मेरे मालिक! अलविदा!" बोली वो, "अलविदा जुबैदा!.... .....................अलविदा!" कहा मैंने, मेरे आख़िरी अलविदा कहते है, धुआं छंट गया! 

और तभी, वो पोटली, नीचे गिरी! मैं भागा! भागकर, वो पोटली उठायी! लगा ली सीने से मैंने! जुबैदा चली गयी! हमशा हमेशा के लिए! बस, वो पोटली, पोटली के गहने और वो श्रृंगार का सामन, यही बचा है उसका! और वो, रिहाइश का पता! बस यही है बाकी उसका अब मेरे पास! हिम्मत नहीं होती गहने देखने की, सीना फटने को पड़ता है! आज तक, वैसा का वैसा ही रखा है! सुरक्षित! जुबैदा, वो रात, वो हमाम! सब याद है मुझे! सब! वैसा का वैसा! जब जुबैदा गयी, तो मेरे कपड़ों में, उसके इत्र की महक बसी थी, वापसी में,आते समय, सारे रास्ते यही लगा, कि मेरे संग ही है वो जुबैदा! जुबैदा! नहीं भूल सकता मैं उसे! कभी नहीं! 

पहुँच गए हम वापिस! दिल में जहाँ एक हिस्से में इंतहाई खुशी थी, वहीं कुछ ऐसा भी था जैसे कि दिल का कुछ हिस्सा, चला गया है कहीं, गिर गया है, खो गया है। जैसे, संग ले गयी वो जुबैदा! जुबैदा! जैसा मैंने बताया, मुझे, लगाव हो गया था उस से, उसके इख़लाक़ से, उसके शीरी रवैय्ये से! उसकी मुस्कान से! उसकी आवाज़ से, अदाओं से! एक ही रात में, मेरे ज़हन में घर कर गयी थी जुबैदा! और एक वजह थी, मुझे मालूम था, कि जुबैदा अब कभी लौट के नहीं आएगी! शायद इसी वजह से, ये लगाव गाढ़ा हो चला था! खैर, चली गयी थी जुबैदा! हमेशा खुश रहे! हमेशा! यही कह सकता था मैं! रात में नींद नहीं आई अच्छी, दिल में कांटा सा चुभता रहा! मैं जितना वो काँटा निकालता, वो उतना ही दोज़ हुआ जाता था! बड़ी मुश्किल से समझाया अपने आपको! हाँ, वो पोटली, वो पोटली मैंने संभाल कर रख दी, उस दिन से, आज तलक, कभी न खोल के देखी! देखता हूँ, तो बस पोटली को! बस! इस से ज़्यादा नहीं! 

सुबह हुई,और वही दैनिक दिनचर्या वही सब कुछ! हाँ, कुछ फ़ोन आये थे, कल्पि का, उस से बात की, तो थोड़ी राहत सी हुई! शाम हुई, तो फिर से मेरी और शर्मा जी की महफ़िल सजी! अब बात चल निकली हवेली की! अव बात चली, तो मेरी तो घड़ी के कांटे अटक गए एक ही जगह! वहीं जुबैदा पर, कह सकते हैं आप, कि जुबैदा से मैं ज़हनी तौर पर जुड़ गया था! मुझे उसकी याद आती थी, दिन भर! उसकी आवाज़, कानों में गूंज जाती थी! रह रहकर में, वो पोटली देखता था, उसको सूंघता था, वो इत्र की खुश्बू आती, तो लगता यहीं है कहीं जुबैदा! देख रही है मुझे! खुश होकर! "कहाँ की रहने वाली थीं ये मोहतरमा जुबैदा?" पूछा उन्होंने, मैं उठा, डायरी उठायी, सफ़े पलटे, और दे दी उन्हें डायरी! उन्होंने पकड़ी, 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और पढ़ा, "गाँव * * * * * * नसीराबाद!" बोले वो, "हाँ, यहीं की थी वो!" कहा मैंने, "अब तो पता नहीं कोई हो, या न हो!" बोले वो, "हाँ, कुछ मालूम नहीं!" कहा मैंने, "बहुत लम्बा अरसा है ये!" बोले वो, "हाँ, कम से कम छह आठ पीढ़ियां निकल जाएंगी!" कहा मैंने, 

"हाँ, सच में!" बोले वो, "लेकिन एक ख़्वाहिश है, कभी उधर चले, तो देखकर आएंगे!" बोला मैं, "हाँ, ज़रूर!" कहा उन्होंने, 

और हम खाने-पीने में तल्लीन रहे, खूब बातें करते रहे, उसी हवेली के बारे में! रात घिरी, और हम सोये! कि तीन दिन बीते और, क्रिया करने का शुभ दिन कल आने वाला था, 

अब वो आबिदा, आबिदा ख़ानुम भी विदा लेने वाली थी! उसी रात मैं क्रिया-स्थल में गया, 

और गुरु-नमन किया, फिर श्री अघोर-पुरुष नमन! बैठा, कुछ साधना किये, और फिर खड़ा हुआ! मैं हाज़िर कर रहा था, उस आबिदा को! जो नूर-ए-महफ़िल-ओ-शमा-ए-महफ़िल थी! और मैंने, मंत्र पढ़ा, दिल मेरा, कुछ ज़्यादा ही ज़ोर से धड़क रहा था! कहीं चोरी न पकड़ी जाए, शांत करने में लगा था उसे! मंत्र लड़ा, और आबिदा अपने आफ़ताबी-हुस्न के साथ हाज़िर हो गयी! मुझे, उस रात का वो सारा वाक़या याद हो आया! जैसे हाथों से, किसी डोर की चरखी गिर गयी हो, और डोर, बेतरतीब, निकले जा रही हो! वो हाज़िर हुई, और मुझे देखा! सारा डर काफूर हो गया उसका! 

आई तेजी से, और लपक के चिपट गयी मुझसे! "आबिदा?" बोला मैं, "हाँ, हुजूर!" बोली वो, "अब कोई हुजूर नहीं! ये हवेली नहीं है! न तुम कोई रंगकार!" कहा मैंने, तब उसने आसपास देखा, कुछ समझ न आया, तो, फिर से सीने में मुंह धंसा लिया उसने! "अब नहीं डरो आबिदा! न घबराओ!" कहा मैंने, 

और हटाया उसको, थामा उसको बाजुओं में, देखा उसकी नीली सी आँखों में! सुरमयी सी आँखों में, शोख़ निगाहों को, सुर्ख, दहकते लबों को! 

और उस,ज़र-ज़ेबा रुखसार को! "जानती हो?" कहा मैंने, "क्या मेरे दिलबर-ओ-अज़ीम?" बोली वो! दिलबर! मुस्कुरा गया मैं! दिलबर! सुनकर, अच्छा भी लगा मुझे! "आतिरा, और जुबैदा ने, अपना सफ़र मुक्कमल कर लिया है!" कहा मैंने, "या ***ह!" बोली वो, "और अब, तुमने सफ़र मुक्कमल करना है!" कहा मैंने, "जानते हैं!" बोली वो, "तैयार हो?" पूछा मैंने, "हाँ! लेकिन............" बोली वो, मेरा दिल उछला, धड़का! "क्या लेकिन?" पूछा मैंने, "कुछ." बोलते बोलते रुकी, "क्या कुछ?" कहा मैंने, "कुछ आपका......" बोली वो, नज़रें चुराते हुए, झुकाते हुए, "कहो आबिदा? क्या कुछ आपका?" कहा मैंने, "कुछ आपका उधार बाकी है" बोली वो, "उधार?" पूछा मैंने, "भूल गए?" बोली वो, 

"याद नहीं?" कहा मैंने, "सच में याद नहीं?" बोली वो, "हाँ, याद नहीं?" कहा मैंने, "वो, उस रात को..." बोली वो, "अच्छा!!" बोला मैं,और हंसा! "याद आया?" बोली वो, "हाँ!" कहा मैंने, "उधार चुकाना है मुझे!" बोली वो, मित्रगण! उसी रात उधार चुकता हो गया! 

और कोई रात दो बजे, मैंने उसको स्याहपोश किया! 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और तब, मैं और शर्मा जी, निकल पड़े जमना जी के लिए, पहुंचे वहाँ, शतषिभा नक्षत्र के तारे चमक रहे थे! खगोल के मध्य से थोड़ा सा अलग! हम पहुंचे वहाँ! मैंने सामग्रियाँ तैयार की, जमना जी के पानी में, चाँद, शांत चमक रहे थे! मैंने दरी बिछाई वहां, दूर, दायें हाथ पर, पल है, वहाँ अभी भी बत्तियां चमक रही थीं, जहां हम थे, वहाँ अँधेरा था, टोर्च की रौशनी से काम लिया जा रहा था, मैंने फिर दीये प्रज्ज्वलित किये, 

और फिर क्रिया आम्भ की, कोई आधा घंटा! मेरे मंत्र जागृत हो गए, मुक्ति-क्रिया अब सम्पन्न हो जानी थी! 

मैंने एक बार फिर से श्री महाऔघड़ से कामना की, 

और आगे चला, किनारे के तरफ! हुआ खड़ा, और पढ़ दिए मंत्र! इस से पहले, मैंने शर्मा जी के नेत्र पोषित कर ही दिए थे, वे वही बैठे रहे, देखते रहे मुझे ही, मंत्र चलते ही, आबिदा हाज़िर हो गयी! आसपास देखते हुए, डरते हुए, चौंकते हुए, 

और फिर मुझे देखा उसने, आई भागी हुई मेरे पास, मेरे से सट कर खड़ी हो गयी, पीठ लगाकर, "ये कौन सी जगह है?" पूछा उसने, "ये हवेली नहीं है!" कहा मैंने, "फिर?" बोली वो, "यहां से, तुम्हारा सफ़र मुक्कमल होगा!" कहा मैंने, फिर पलटी, मुझे देखा, संजीदा होकर, मैं मुस्कुरा रहा था, उसके गेसुओं को कान के ऊपर सरका दिया, और देखा उसे, माथे पर चूमा उसको! और उसकी कमर में, हाथ डालते हुए, अपने नज़दीक ले लिया! "आबिदा! यहां से एक नया सफ़र शुरू होगा! को स्याह अँधेरा न होगा वहां! सुकून ही सुकून!" कहा मैंने, गौर से सुन रही थी, मेरा एक एक अलफ़ाज़! "आतिरा चली गयी! जुबैदा भी चली गयी! अब तुम्हारा वक़्त है!" कहा मैंने, "क्या हम, कभी आपसे मिल पाएंगे?" बोली वो, आवाज़ में दर्द ही हिलोरें मैंने महसूस की, उठती हुई! "नहीं पता आबिदा!" बोला मैं, "आप तो आलिम हैं, जवाब दें?" बोली वो, "आलिम हूँ, साथ एक इंसान भी!" कहा मैंने, "हम मिलेंगे!" बोली वो, मैं उसका ये जवाब सुन, सन्न रहा गया! "सुनो आबिदा! दिल में अब कोई ख्वाहिश न पालो!" कहा मैंने, "नहीं, हम मिलेंगे आपसे, नहीं रह पाएंगे आपके बिना, आप एक रात के मेहमान बने, हम क़यामत तक आपके गुलाम रहेंगे, सजदा किये रहेंगे आपको!" बोली और गले से लग गयी! 

भींच दिया मुझे! "आबिदा, मुझे न रुलाओ!" कहा मैंने, "नहीं, नहीं!" बोली वो, "नहीं आबिदा! सफ़र पर आगे बढ़ जाओ!" बोली वो, "नहीं! हम नहीं जाएंगे!" बोली वो, न छोड़े मुझे, न छोड़े! "हमसे वायदा कीजिये, कीजिये वायदा? कीजिये वायदा?" बोली, 

अब मेरी आँखें नम! पानी न छले, इसीलिए ध्यान हटाया! "कैसा वायदा?" बोला मैं, अब मैं फंस गया था! 

आबिदा, सफ़र मुक्कमल करने जा रही थी! दिल में कोई ख्वाहिश न रहनी चाहिए थी! कुछ सोचा मैंने, और उसको कसा फिर मैंने अपने अंदर! "किया वायदा आबिदा!" कहा मैंने, रो पड़ी! बुरी तरह से, मैं सम्भालूँ उसे, न सम्भले! कुछ पल ऐसे ही बीते! और तब चुप हुई वो, एक क़सम और ले ली थी, वो नहीं बता सकता मैं आपको! "आबिदा?" कहा मैंने, "जी?" बोली वो, "अपने


   
ReplyQuote
Page 4 / 5
Share:
error: Content is protected !!
Scroll to Top