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वर्ष २०१२ ब्यावर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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क्या मेजें, क्या कुर्सियां और क्या अलमारियां! कालीन बिछा था लाल रंग का, काले रंग के फूल कढ़े थे! "तशरीफ़ रखिये!" बोली वो, 

मैं बैठ गया एक कुर्सी पर! 

और खुद आगे चली गयी, शायद कोई और कमरा था आगे! आई फिर, तश्तरी लिए, उस पर जाम रखा था, भरा हुआ, "लीजिये हुजूर!" कहा मैंने, मैंने उठाया, और गटक गया! रख दिया वापिस तश्तरी पर! "सुनो?" कहा मैंने, "जी आली?" बोली वो, रुक गयी थी जाते जाते! "किसलिए बुलाया मुझे?" पूछा मैंने, वो मुस्कुराई! "जान जाएंगे!" बोली वो, "आप बताइये तो सही?" कहा मैंने, "ऐसी बेसब्री, अच्छी नहु हुजूर!" कहा उसने, झुकते हुए! अब मैं भी मुस्कुरा पड़ा! वो गयी फिर वापिस, और चंद ही लम्हों में आ गयी वापिस! "आइये हुजूर, चलिए!" बोली वो, 

और मैं चला उसके संग! देखू तो सही माजरा क्या है? "आप जाइए अंदर! मेरी हद ख़तम!" बोली मुस्कुरा कर, 

और लौट चली! ये क्या मतलब हुआ? खैर, मैं अंदर गया, अंदर, ख़्वास्ता पड़ा था, उसी के पीछे कोई था, "आइये!" आवाज़ आई! 

और मैं रहा झन्न! सन्न! ये तो, ये तो आबिदा की आवाज़ है! मैं आगे चला, 

तो एक बिस्तर था, पलंग पर, बड़ा सा! हमारे आजकल के पलंगों से बड़ा! पीले रंग की मखमली चादर पड़ी थी, चारों पायों के ऊपर, काफी ऊपर, डंडे से लगे थे, 

और उनमे शमा जल रही थीं! कुल चार! रौशन था वो पलंग उस शमा से! 

और पलंग के ऊपर, अपना सिर्फ चेहरा दिखाए, लेटी थी आबिदा, एक सफेद रंग की महीन सी चादर लिए! वो चादर, न ढक पा रही थी उसके बदन के उभारों को! यहाँ तक कि उसके शोश-ए-अत'दा, उस चादर में से, बस बाहर ही आने को थे! उसकी उभरी हुई जांघे, मैं तो देख ही नहीं पा रहा था उधर! वहां गड्ढा बना हआ था, उसके जिस्म का मैं अनुमान लग सकता था! 

और उसके पैर, जो चादर को, थामे हुए थे! पसीना छलछलाने लगा था मेरा तो उस पल! "आइये न मेरे क़ामिल!" बोली, ऐसे लहज़े से, कि मेरा तो वजूद ही कॉप उठा! बुनियाद ही दरकने लगी! कब ढह जाए, अब तो मुझे भी यकीन नहीं था! उसने अपना हाथ चादर से बाहर निकाला, बढ़ाया मेरी तरफ, और मैं रोक नहीं पाया अपने आप को! दे दिया हाथ अपना! उसने खींच मुझे, और मैं बैठ गया उसके करीब! अब नहीं आये समझ! वो ज़ेबापोश आबिदा, मेरे संग! कहीं रश्क ही न हो जाए अपने ही मुस्तकबिल से! करक ताबिश हो गयी जिस्म में! खून अब उबाल खाने लगा! 

एक हसीना, बेपनाह हुस्न की मलिका! खींचे एक नाचीज़ का हाथ! अब इसके क्या कहूँ? 

और तभी! तभी! उसने अपनी आँखें बंद की! 

और अपने पांवों की मदद से, चादर गिरा दी, सामने नीचे! संग-ए-मरमरी! गुलबदन! आतशी! शफ़्फ़ाफ़-ओ-कैफ़ से लबरेज़! कौसरसा जिस्म! खामदार जिस्म! मैं तो, कब गश खाऊं, पता नहीं! कुछ नहीं पता! हाँ, इतना पता था कि, मैं नसीबवाला हूँ! उसने फिर से हाथ बढ़ाया, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और इस दफ़ा, मैंने पकड़ा हाथ उसका! और खींचा उसे! वो उठी, 

और सीधा मुझसे चिपक गयी! मुझे उठी झुरझुरी! 

और मेरे हाथ उसकी उस मुलायम देह पर, रेंग उठे! उसकी कमर पर, गले पर, गालों पर, होंठों पर! अब नहीं था क़ाबू! बस चंद लम्हे और सिंकता, 

तो तप जाता! तप जाता तो बेक़ाब होता! बेकाबू होता तो कुछ न कुछ ज़रूर होता! मैंने छोड़ा उसे, एक लम्हे को, देखने को उसके अबसार! अबसार खुले और मैं डूबा उनमे! अब कोई गुंजाइश नहीं! कोई हाशिया नहीं बाक़ी! वक़्त जैसे ठहर गया था, मैं उन लम्हात में जैसे कैद होकर रह गया था! वो पुश्त कर, मेरी गोद में बैठी थी, जाम उड़ेल रही थी, जाम से निकली वो आब-ए-आतिश-ए-आब-जू, चौगुनी नशीली हो, मेरे मुंह में जा रही थी, उसकी बूंद बूंद को, मैं अपनी जीभ से चाटता था और हलक में जगह देता था! वो हुस्न-साज, आबिदा, लहर खा जाती थी, मुझे अपने हाथों से पकड़ना पड़ता था उसे, कभी आगे को झुकती, और कभी मुझसे चिपक जाती थी! अपनी बाजुओं से, मेरी कमर पकड़ लेती थी! उस वक़्त, उसके गेसू मेरे से चेहरे से टकराते, तो इस तरह आग में घी पड़ता जाता था! लुत्फ़-ए-हुस्न, बेशक मैं ही ले रहा था, लेकिन हम बाहम इसमें शरीक थे! मेरे हाथ रुक जाते थे, मेरी जांघे ऊपर उठने लगती थीं, कभी कभी, बे-दस्त-ओ-पा हो जाया करता था! 

और कभी जोश उठ आता, मैं भर लेता उसको अपनी बाजुओं में, जकड़ देता उसे, वो चिंहक उठती, टकराव करती, मुझसे, और भड़काती। उसके हाथ, मेरे जिस्म की पैमाइश करते, और इस तरह मुझे दाद-खाह सा होने का अहसास कराती! फिर वो उठी, मैं बैठा ही रहा, झुकी और मेरे लबों पर चूमना शुरू किया, चूमते चूमते, मेरी गोद में आ बैठी, मेरे दोनों हाथ पकड़, अपनी छाती पर रखवा लिए, इशारा काफ़ी था, बाकी काम मेरा था! एक बात और बताता हूँ, उसके अत'दा, कसावट भरे थे, कसाव ऐसा था, जैसे फ़ज़ली आम में होता है, कच्चा फ़ज़ली आम! 

और ये, फ़ज़ली आम सरीखे ही तो थे! मैंने तो ऐसा पहले कभी महसूस नहीं किया था! जोश था, लेकिन होश अभी संग ही था! वो मेरे ज़र्रा ज़र्रा तोड़ना चाहती थी, और मैं, अभी तक, उसके काबू नहीं आया था! मुक़ाबला कर रहा था! फरेफ़ताह! उसने तो कोई कसर नहीं छोड़ी थी! और फिर उठी वो, मुझे भी उठाया, और फिर रोका मुझे, लिपटी मुझसे, और मेरा जैब अपनी जाँघों के बीच ले, अपनी कस्स से सटा, भींच के, जाँघों को अपनी, खड़ी हो गयी! उसके पिज़ाज़ मुझसे उलझ गए। उसका क़द मेरे बराबर ही था, तो कोई दिक्कत-परेशानी नहीं हो रही थी उसे, वो मुझे मेरी कमर से पकड़, अपने ही अंदर, खींच रही थी! मैंने कभी असल जिंदगी में, ये गिरफ़्त, 

ऐसी गिरफ़्त कभी नहीं देखी थी, न ही अंजाम दिया था! मेरे लिए नया था ये सबकुछ! उसने फिर मेरे लबों पर अपने लब रखे, और भीचा मुझे! मेरी कमर पर, कंधों पर, उसके नाखून 

खेलने लगे! उसने हल्की हल्की, जिस्मानी जुम्बिश शुरू की! अपनी जाँघों से! उसी लम्हा, मेरे होंठों पर मुस्कान सी आई, और मेरे होंठ, उसके होंठों से आज़ाद हो गए! 

चेहरा हटाया! आँखें बंद! गुल-अफ़शाँ! गौहर-ए-गुलज़ार! गुल-रु-ओ-गुल-रुख! हदया-ए-हबीब! 

और फिर हटी! मुझे देखा, कातिल निगाह से! नज़र-ए-इगवा से! पलटी! सटी मुझसे, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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अपनी पुश्त कर, 

और दुबारा से, जब को, अपनी रिद'फां से सताया, और भींच लिया! पकड़ लिया मुझे अपने हाथों से, और जैसे उठना चाहती हो, मुझे धक्का सा दे, पीछे के, मैं उसके इस दबाव के खलने के लिए, 

और धकेलू आगे! ऐसा लगातार हुआ! शायद, यही मकसद था उस लालाह-फ़ाम का! फिर से जुम्बिश शुरू की! इस बार, मेरे गले की पेशियाँ सख्त हुईं! रिद'फां की छुअन जैसे, लम्हा लम्हा महसूल वसूल रही हो मुझसे! अपने दोनों हाथों से, मेरे गरदन को पकड़ा हुआ था उसने! मेरे पेट और उसकी कमर के बीच जगह खाली हो चुकी थी, उसकी कमर, दूज के चाँद की तरह दीख रही थी, 

और चाँद के साथ वो, पीछे, मांसल रिद फां में पड़े दो गड्ढे! इन्हें में तारे कहूँगा! बेहद प्यारे! खूबसूरत जिस्म! कालिब-ए-हूर! मेरे लिए ये सब, नादिर-ए-रोज़गार था! 

और फिर जिस्म ढीला हुआ उसका, हटी मुझसे, 

और फिर से लिपट गयी! "जाम, मेरे महबूब?" बोली वो, "हाँ, ज़रूरत है!" बोला मैं, 

वो चली फिर वहाँ से, और मैं, उस ख़राम पर नज़रें चिपकाए खड़ा रहा! फिर चला आगे, और जा बैठा उसी कुर्सी पर, 

जहां मैं पहले बैठा था, उसने जाम बनाये, और जाम लायी, हाथों में पकड़, इस बार इठलाती हुई! बदन ऐसा कसा था उसका, कि गौर से देखा जाए, तभी आपको कोई कोई जुम्बिश सी महसूस हो! ले आई जाम, और आ बैठी! दिया मुझे जाम, मैंने लिया, उसने अपना जाम रखा एक तरफ, 

और अपन सर, मेरी जाँघों पर रख लिया, मेरा हाथ उसके जानू पर चला गया! उसको खींचू अपनी तरफ, 

और वो जिद पर अड़े! न हो मेरी तरफ! मैंने जाम ख़त्म किया अपना,जल्दी-जल्दी! 

और अब उसकी कमर से खींचा, कमर में जुम्बिश हुई, और कर दिया मेरी तरफ रुखसार! 

"बेहद सुंदर और हंसी हो तुम आबिदा!" कहा मैंने, चश्म-ए-पुर-आप निगाहों में ख़ामोशी! एक नहीं, हज़ारों सवाल लिए ख़ामोशी। "कुछ कहो आबिदा?" कहा मैंने, कुछ न बोले, बस मुझे देखे, आशनाई से! "कुछ कहो?" कहा मैंने, "हाजतमन्द क्या कहेंगे!" बोली वो, 

और सर फेर लिया अपना! "इधर देखो?" कहा मैंने, देखा उसने फिर मुझे! अपने होंठों पर उंगलियां रखे! मैंने उंगलियां हटाईं उसकी, "ऐसे ही रहने दो इन्हें!" कहा मैंने, मुस्कुरा गयी वो मेरे इस जवाब से! 

और आ गयी करीब मेरे और! अत'दा मेरी जाँघों पर टिक गए, और शोष-ए-स्टूड,जैसे हचभे, मुझे अलकत होनी हुई शुरू! समझ गयी थी मसला मेरा! फ़ज़ीहत मेरी, अपने बाएं हाथो, जैब पर रखा, और नीचे दबा दिए! इस से तो और उबाल आ गया मुझमे! कसाव ऐसा, कि हाल खराब में, उस वक़्त! मुलायम कफ़-ए-दस्त की छुअन से तो मैं, सच में कत्ल होने के क़रीब आ पहुंचा था! उसके कफ़-ए-दस्त की हल्की सी गर्मी ही, मुझे फूंके जा रही थी! बिना धुआं! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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बिना आग! दबाये, और मुझे देखे! 

और मैं उलझू! सुलझाये न सुलझं! मेरे खयाल और मेरे ज़ाम ही, मुझे कुचलें! मैं जाल में फंसे किसी परिंदे की मानिंद, फड़कता रहूँ! किसे सम्भालूँ? 

खुद को? या फिर, इस ज़ियाफ़त-ए-आबिदा को! काबू में रहना अब मुश्किल हुआ जा रहा था, मैं बार बार, अपनी जाँघों को कड़ा करता था, पांवों को, कड़ा करता था, मांस-पेशियाँ खिंच जाया करती थीं! लेकिन, यही उसका मक़सद था! और रफ़्ता-रफ़्ता आगे बढ़ रही थी, मुझे संग ले, घसीटते हुए, मैं भी डगर-ए-हदफ़ की तरफ, कुलांच भरने का सा जी कर उठता था, कभी कभार तो! मैंने हटा दिया उसे! वो हट गयी, लेकिन कफ़-ए-दस्त, नहीं हटाया! मैंने हाथ बढ़ा, हटाने की कोशिश की, 

तो ज़ोर लगाया उसने, नहीं उठाने को, नहीं हटाने को! 

आँखें मिलीं, हमारी, तो उसने, धीरे धीरे सर हिलाया, न करते हुए! इस अदा से तो और चिंगारी भड़क गयी! मैंने उसका कफ़-ए-दस्त, दबा दिया नीचे! उसने इशारा समझ लिया, और खुद ही दबाव बढ़ा दिया! एक लम्हे के लिए, मेरी आँखें बंद हो गयी थी। कुछ और नहीं कर सकता था मैं कुछ नहीं। जैसे मेरा क़ाबू अब उसी के पास था, जैसे खिलौना कोई, 

मैं, खिलौना सा बन रहा था उस वक़्त! मैं, यकायक, खड़ा हो गया, हाथ हटा उसका, मुझे देखा, मैंने उसको देखा, आग भड़क चुकी थी, मैं नीचे झुका, 

और उसके चेहरे पर, चुंबन ही चुंबन दाग दिया, कोई कोना, कोई हिस्सा न छोड़ा, जहां, मैंने निशान-ए-वज्द नहीं छोड़ा हो! वो, बिखर गयी थी! बिखर! 

मेरे सामने ही, उसका जिस्म, बिखर गया था, ऐसे, जैसे किसी फूलों से लदी हुई शाख़ को, एक झटके से हिलाएं तो जैसे, फूल बिखर जाते हैं। ऐसे बिखर गयी थी! 

आँखें बंद, बदन कस गया था! जिस्म के कुछ हिस्से, जैसे बेलगाम हो चले हों! वो उठी फिर, 

और मेरी बाजूओं में झूल गयी! मैंने, फिर से चूमना शुरू किया उसको, बदन का ज़र्रा ज़र्रा काँप उठा उसका, इस से, मुझे मोहलत मिल गयी थी! फिर मैं रुका, और उसने देखा मुझे, नज़र-ए-वस्ल से! 

और आगे बढ़ी, कुछ यूँ खड़ी हुई कि, मेरे पांवों पर, अपने पाँव रख दिए, एड़ियों समेत! और चिपक गयी! मैंने अपनी बाजुएँ उसकी कमर के इर्द-गिर्द लपेट दी! 

और उठा लिया ऊपर! उसने भी देर न की! उठी और अपनी टांगें, मेरी कमर के इर्द-गिर्द लपेट ली! 

और झुकने लगी नीचे! अब यहीं देह की जान काम आती है! देह में जान हो, तो ऐसा कीजिये, कहीं ऐसा न हो, अपने साथ साथ, अपने महबूब को भी घायल कर दें, गिर-गिरा के! वो झुके जा रही थी, 

और मैं उसकी कमरे में हाथ डाल, 

उसको संभाले जा रहा था! "वहां ले चलिए हमें! ले चलिए! ले चलिए!" बोली वो, ऐसे बोली! ऐसे बोली! कि कहीं और ज़्यादा बोलती तो मैं, शायद वहीं 'खाली' हो जाता! लेकिन संभाला


   
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श्रीशः उपदंडक
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अपने आपको! अभी तक तो क़ायम था मैं! बस, टक्कर झेले जा रहा था! वहां का मतलब था वो पलंग, वो बिस्तर! मैं ले चला उसको, 

और ले आया बिस्तर पर, लिटा दिया उसे, "आइये, जल्दी आइये!" बोली वो, तड़प सी उठी! कसक उठी! विजदां के मारे, बर्दाश्त न हो! 

और अब! यही मैं चाहता था! ठीक यही! जोश और होश, बने रहें, तो आप शबाब-ओ-हुस्न को, मोम के मानिंद, कुचल सकते हैं! हाँ वक़्त कम ही मिलेगा! क्योंकि, मोम गर्म हो, जैसे पिघलता है, ठंडा होते ही, सख़्त होता चला जाता है! तो मैंने उस मोम को पिघला दिया था! और अब शबाब ही ज़ख्मी हुए जा रहा था अपने ही नश्तरों से! "आइये न? आइये?" बोली, दोनों हाथ फैला कर! मैं खड़ा रहा! बिस्तर के पास ही! देखता रहा, उसके बदन को! कभी टांगें इधर, कभी टांगें उधर! कभी कसक, 

और कभी लचक! कभी कहक, और, कभी लहक! इंतज़ार! इंतज़ार जिंसी-त'आलुक्क़ात का! "आइये?" बोली वो, नहीं! अभी नहीं! यही सोच रहा था मैं! 

और संग संग! नेभ-क्रिया भी चालू थी! इस से बेहद मदद मिलती है। इंजाल नहीं होंगे आप! चाहे सामने कोई भी हूर हो! 

आपकी वो पेशियाँ, अंदर, सुन्न पड़ी रहेंगी। वो उठ पड़ी! आई मेरे पास, जैब पर पकड़ बनायीं, और मेरे कंधे पर हाथ रखा! "हमारी सादीक़ी पर ऐतबार नहीं आपको?" बोली वो, "ऐसा तो हरगिज़ नहीं!" कहा मैंने, "यक़ीनन?" बोली वो, "यक़ीनन!" कहा मैंने, "हम सोख्ता हैं बेहद!" बोली वो, "जानता हूँ!" कहा मैंने, "रहम नहीं आता?" बोली वो, "कैसा रहम?" पूछा मैंने, "हाजत-रवाई नहीं बख्शेंगे आप हमें?" पूछा उसने, "क्यों नहीं!" कहा मैंने, मुस्कुराई, 

और तब मैंने उसका हाथ थामा, कलाई पकड़ी उसकी वो वाली, 

और हटाया हाथ, 

नहीं हटाने दिया! सर नीचे किया, और मेरा हाथ, दूसरे हाथ से पकड़, हटा दिया! "चलिए न?" बोली वो, "चलता हूँ!" कहा मैंने, "हमसे ताख़ीर नहीं बर्दाश्त हो रही!" बोली वो, "क्यों आबिदा?" पूछा मैंने, "नहीं जानते, नहीं मालूम!" बोली वो, "मैं जानता हूँ!" कहा मैंने, "क्या?" बोली वो, "मैं ख़ास हूँ न?" कहा मैंने, 

और हटा दिया हाथ उसने! थोड़ा दूर होने लगी, हया की चादर सीओढ़ ली, 

और तभी मैंने, उसका हाथ पकड़ लिया, और खींचा अपनी तरफ, आ टकराई मुझसे! हया ऐसी, कि जान ही ले ले, फ़ना ही कर दे! "जवाब दो आबिदा!" कहा मैंने, 

चुप! देखे भी नहीं मुझे! मैंने चेहरा उठाया उसका, तो आँखें बंद, "आँखें खोलो आबिदा!" कहा मैंने, नहीं खोली आँखें, बंद ही रखीं! मैंने झटका दिया उसके हाथ को, 

और उसने आँखें खोली अपनी! मैंने, तभी उसी लम्हे, उसके लबों को चूम लिया! ताकि, उसको ये न लगे, कि मैं दूर भाग रहा हूँ उस से, इसीलिए, "बताओ आबिदा?" पूछा मैंने, "क्या? पूछे आक़िल-ए-तौकीर!" बोली वो, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं ख़ास हँन?" कहा मैंने, मैं उसके अंदरुनी, जिस हिस्सा-ए-ज़हन पर चोट कर रहा था, मेरे सवाल का जवाब वहीं से आना था! "हाँ! आप ख़ास हैं!" बोली वो, 

और लग गयी गले मेरे! "कैसे ख़ास हूँ?" पूछा मैंने, "ये मैं ही जानें!" बोली वो, अब बोली वो! अब जान गया मैं! मैं मुस्कुराया! सर चूमा उसका, और फिर माथा! "आबिदा?" कहा मैंने, "फरमाएं?" बोली आहिस्ता से! "तलबगार हूँ मैं अब!" कहा मैंने, भींचते हुए, उसे! कसते हुए! अपने अंदर, जगह देते हुए! "हुक्म करें?" बोली वो, "बिस्तर पर चलो!" कहा मैंने, झपक पड़ी! कस लिया मुझे अपनी बाजूओं में! मुंह से, एक छोटी सी, आह फूट पड़ी! ले चली मुझे, बिस्तर पर! लिटाया मुझे और बैठ गयी संग मेरे! मेरे सीने पर हाथ फिराए, गले पर, पेट पर, और फिर नीचे तक, चिंगारियां झड़ पड़ी उस वक़्त! मैंने खंगाल दिया उसके जिस्म का एक एक हिस्सा! एक एक हिस्सा! ता'ज़ीम को रख दिया ताक पर, और खींच लिया उसे! 

और अब, नेभ-क्रिया छोड़ दी, अब कोई फायदा नहीं! अब तो, कूद पड़ा था दरिया में, इम्तिहान था, दूसरे किनारे पहुँच पाता हूँ या नहीं, या फिर, गर्क-ए-दरिया ही हो जाता हूँ! अब कूद ही गया तो, कोई रंज कैसा! वो चूमने लगी थी मेरा बदन, उसके गेसू, जब मेरे बदन से छूते, तो मैं पकड़ लेता उसका कोई भी हिस्सा! 

उसके हाथ, खेल रहे थे मेरे जिस्म से, उसके हिस्सों से, 

और अगले ही लम्हे, मेरे ऊपर थी वो! सुकून! इंतहाई सुकून! बहुत सुलग लिया था! फूंक की ज़रूरत थी, फूंक नहीं, आंधी मिली! और लग गयी आग! मैंने उसके दोनों हाथ पकड़ लिए थे, उसे कहीं नहीं छूने दे रहा था! वो इस तरह से झुकी थी, कि उसके बाल, मेरी जाँघों, मेरे घुटनों तक छू रहे थे! वो हाथ छुड़ाने की कोशिश करती, लेकिन मैं नहीं छोड़ रहा था! उसके उन हिलते, ऊपर नीचे होते, खूबसूरत, हमाह-तन, पिज़ाज़ को देख रहा था! शोश-ए-पिज़ाज़, उनकी जुम्बिश, उनका लगातार उठना, जिस्मानी हैजान को ज़ाहिर करता 

था! ज़ाहिराना तौर पर, आबिदा, खो चुकी थी! 

और मैं, उसको देखे जा रहा था, देखे जा रहा था! यूँ ही! फिर मैं उठ गया, वो चिपक गयी मझसे, कुछ देर, ऐसे ही रहे हम, 

और फिर मैंने उसको, वैसे ही पकड़ते हुए, लिटा दिया! उसकी कराहों ने, आहों ने, उस कमरे के एक एक हिस्से को गुंजा के रख दिया! वो बार बार, मुझे अपने ऊपर लेने को करे, लेकिन मैं न होऊ! वो जैसे तड़पे! बार बार हाथ उठे! 

आँखें बंद करें! मींचे! मुंह खोले! 

भींचे! 

मुझे पकड़ना चाहे! निकलना चाहे नीचे से! 

लेकिन नहीं! नहीं निकलने देना था! 

जिंसी-चाल में माहिर होना बेहद ज़रूरी है! जिंसी-चाल में, जिस्म तो सिर्फ ज़रिया है! 

खेला तो ये दिमाग से जाता है! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और ये खेल, मैं दिमाग से ही खेल रहा था। उस से बर्दाश्त नहीं हआ! खूब कोशिश की मुझे पकड़ने की, लेकिन मैंने अपने घुटनों की गिरफ्त से, उसके रिद फां को ऐसे जकड़ा था, कि निकाल ही न सके! हिल भी न सके! इसीलिए, तड़प सी जाती थी! टांगें कभी फैलाती, कभी मोड़ती, कभी उठाती, कभी ज़ोर ज़ोर से बिस्तर पर पटकती! बस,रोने के ही देर थे उसकी अब! ऐसी हालत बरपा थी उस पर, उस वक़्त! कुछ ख़ास तरीके हैं, कुछ ख़ास जिस्मानी हरक़तें हैं, कि जब आप इस हालत में मसरूफ़ हों, तो औरत, बचना चाहेगी आपसे! निकलना चाहेगी आपके आगोश से! बस, निकलने नहीं देना है! जैसे मैं नहीं निकलने दे रहा था! वो तड़प रही थी! दोनों हाथों की मुट्ठियाँ बना, गले से सटा रखे थे हाथ अपने! सर, कभी दायें और कभी बाएं! कभी हाथ पटके बिस्तर पर, कभी दायां, और कभी बायां! कभी सर उठाये, और सर पटके! कभी तकिया पकड़े! 

कभी चादर को खोंचे! कभी मुझे पकड़ने की कोशिश करे! 

और मैं अभी तक कायम था! थी कुछ वजह! कुछ खास वजह! 

आबिदा ने उस रात मेरी खिदमत नहीं! अपनी ख़िदमत, मुझसे करवाई थी! "बख्श दें! बख्श दें! पायन्दगी, मार डालेगी हमें!" बोली वो, टूट टूट कर! मैं समझ सकता था! उस हाल में तो कोई भी औरत, यही करती! चोट, सीधा निशाने पर हो, तो कौन टिकता है फिर! "नहीं आबिदा!" कहा मैंने! "अर्ज़-ए-फहीमदाह! बख़्श दे हमें!" बोली वो, "नहीं आबिदा! इब्तिदा में फज़ मुमकिन नहीं!" कहा मैंने, 

और वो कराह सी पड़ी, मेरा जवाब सुन कर! "बसबस!" बोली वो! 

और मैं तब रुका! उसने निकलना चाह, नहीं निकलने दिया! कसक उठी, बदन ऐंठा लिया अपना! बड़ी मशक्कत की, जूझी बहुत! लेकिन नहीं निकलने दिया! "अब रहम करें! रहम! हम हारे!" बोली वो, "सच में?" कहा मैंने, "हाँ, सच में!" बोली वो, "छोड़ दूँ?" पूछा मैंने, "गुलाम रहेंगे आपके हमेशा!" बोली वो, 

और, कर दिया रहम! भाजन-क्रिया,पूरी हुई। हार गयी आबिदा! हारना ही था! मुझे मालूम था! उठ गया मैं, और उतरा बिस्तर से, वो, वहीं जस की तस लेटी रही! "गुसल कहाँ है?" पूछा मैंने, "हम चलते हैं!" कहा उसने, 

और तब, सहारा दे, उठाया मैंने उसे! उसने चादर लपेटी, और मैंने भी, चले हम गुसल करने, गए, मैं जल्दी फारिग हो गया, 

और उसे वहीं छोड़, आ गया वापिस, अब अपने कपड़े पहने मैंने! आ गयी वो, और चली एक तरफ, वहां दीवार थी, न दिखी मुझे, कोई दस मिनट बीते, तो सज कर आई थी, कपडे पहन चुकी थी वो, ठीक वैसे ही, जैसे पहले पहने थे! 

आ बैठी संग मेरे, और रख लिया सर मेरे कंधे पर! "हमें......" बोली और बोलते बोलते रुकी! "हाँ? बोलो?" बोला मैं, "कह दें हम?" बोली वो, "क्यों नहीं?" कहा मैंने, "हमें याद आये तो?" बोली वो, मैं मुस्कुरा गया! "तो याद करना!" बोला मैं, 


   
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"न बन पड़े तो?" बोली वो, "तो ये लम्हात याद करना!" कहा मैंने, "या * * *ह!!" बोली वो, "और क्या?" कहा मैंने, "बताइये न?" बोली वो, "बताया तो!" कहा मैंने, "याद आये, तो क्या करें?" पूछा उसने, "आ जाना!" कहा मैंने, "कैसे?" पूछा उसने, 

ओह! ये क्या बोल गया मैं! वो भला कैसे आएगी? यहीं से तो बंधी है! कहाँ जायेगी! "मैं आ जाऊँगा!" कहा मैंने, "वायदा?" खुश होकर बोली! "वायदा!" कहा मैंने, 

और चूम लिए होंठ मेरे! "आबिदा!" कहा मैंने, "जी?" बोली वो, मुझे उसका भोलापन भा गया था! "तैयार हो?" कहा मैंने, "किसलिए भला, अब?" घबरा गयी! "अरे वो नहीं!" कहा मैंने मुस्कुरा के! "तो फिर?" बोली वो, मैं खड़ा हुआ फिर, उठाया उसे! "सफ़र मुक्क़मल करने के लिए!" कहा मैंने, "किस सफ़र?" बोली, भोलेपन से पूछा उसने, 

आँखे इंपडपा कर! पशोपेश में पड़ते हए! "बता दूंगा!" कहा मैंने, "सहर से पहले?" बोली वो, पूछा, "हाँ, सहर से पहले!" कहा मैंने, "मैं तैयार हँ!"बोली वो, अब मैंने लगाया उसको गले, उसके भोलेपन को! चल पड़े सफ़र पर, हो जाए पार! मुझे, इंतिहाई खुशी होगी! ऐसे तो, न जाने कितने बरस गुजर जाएंगे, 

यूँ ही, शमा-ए-महफ़िल बनते बनते! मेरे दिल में एक, अजीब सी, ख़ुशी उठ पड़ी थी, जैसे कोई सोता, अचानक से, रेगिस्तान में फूट पड़ा हो! "ठीक है आबिदा!" कहा मैंने, "ज़हेनसीब!" बोली वो, "अब चलता हूँ" कहा मैंने, "कहाँ?" घबरा के पूछा उसने, "यहीं हूँ, हवेली में!" कहा मैंने, "न जाइए?" बोली वो, "जाना तो होगा!" कहा मैंने, "ऐसी ख़ुशी, न मिली आज तलक!" बोली वो, "ये मेरा फख है, इसे न छीनो आबिदा!" कहा मैंने, "मेरे ***ह!" बोली वो, 

और लग गयी गले! उसकी अंगूठियां, जेवर, मेरे कुरते के कपड़े का धागा खींच गए! मैंने भी भर लिया उसे! "अब चलूँगा!" कहा मैंने, 

"हम इंतज़ार करेंगे!" कहा मैंने, 

और मैं चला बाहर तब, बाहर चला, तो एक कनीज़ खड़ी थी, 

आई मेरे पास, "आइये हुजूर!" बोली वो, "कहाँ?" पूछा मैंने, "साहिब के पास" बोली वो, "कौन से साहिब?" पूछा मैंने, मैंने सोचा, सूबेदार हैदर साहब, "वो जो आपके साथ न आये थे?" बोली वो, अच्छा! शर्मा जी! "कहाँ हैं?" पूछा मैंने, "बैठक में!" बोली वो, "चलो!" कहा मैंने, 

और मैं चल दिया उसके साथ! और वो कनीज़ ले आई मुझे एक कमरे में, कमरे में, शर्मा जी लेटे हए थे आराम से! कनीज़ चली गयी थी वापिस, साथ में तश्तरियां रखी थीं, मिठाई और गिलास भी, लगता था कि, काफ़ी ख़िदमत की गयी है उनकी! "शर्मा जी?" कहा मैंने, मेरी आवाज़ सुनी, तो उठ बैठे! "आ गए?" बोले वो, "हाँ! परेशान तो नहीं हुए?" पूछा मैंने, "अरे नहीं! ऐसी सेवा की है कि पूछिए ही मत!" बोले वो, "कुछ, वो?" पूछा मैंने, "वो भी था, लेकिन मना कर दिया मैंने!" बोले वो, "अच्छा!" कहा मैंने, "और आप बताओ! उड़ गया तोता?" पूछा मुस्कुरा के, 

"नहीं!" कहा मैंने, "नहीं? वक़्त तो इतना लगाया?" बोले वो, "बहेलिया ही थक गया!" कहा मैंने मुस्कुराते हुए। "अरे वाह!" बोले वो, "थकावट का ध्यान रखते हुए, आ गया वापिस!" कहा मैंने, "और होता भी क्या!" बोले वो, "शर्मा जी, क्यों न सूबेदार साहब से बात की जाए, इस


   
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श्रीशः उपदंडक
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सिलसिले को रोकने की?" पूछा मैंने, "मान जाएंगे?" बोले वो, "कह नहीं सकता!" बोला मैं, "तजवीज़ तो अच्छी है!" बोले वो, "बात करने में क्या हर्जा है?" कहा मैंने, "कोई हर्जा नहीं" बोले वो, "तो चलें?" कहा मैंने, "चलो" बोले वो, 

और खड़े हुए हम, निकले बाहर, 

तो एक कनीज़ दिखी, वही आई हमारे पास, दौड़े दौड़े! "कोई ज़रूरत हैं साहिब?" पूछा उसने, "नहीं, हमें सूबेदार साहब से मिलना है" कहा मैंने, "मैं आई अभी, आप बैठे" बोली वो, 

और चली वहां से, हम वापिस कमरे में आ बैठे, और पांच मिनट के बाद वो आई, "आइये हुजूर" बोली वो, हम उठे, और अब, चले उसके साथ, सीढ़ियां उतरे, 

और सीधा चले, फिर, एक गलियारे में मुड़े, 

और फिर से आगे चले, 

क़नीज़, एक कमरे के सामने रुकी, और इशारा किया अंदर जाने का, और हम अंदर आ गए! सूबेदार साहब बैठे हुए थे, हमारा ही इंतज़ार कर रहे थे जैसे, "आइये जनाब! तशरीफ़ रखें!" बोले वो, 

और हम बैठे, तो वो भी बैठ गए। "कोई फलाक़त तो पेश नहीं आई जनाब?" पूछा उन्होंने, "नहीं! एक कतरा भी नहीं साहब!" कहा मैंने, "आपके त'आ'वून के लिए, हम हमेशा कर्जदार रहेंगे! आपने हमें इफ्फ़त बख़्शी!" बोले वो, "शुक्रिया!" कहा मैंने, "और फ़रमाएं, ये नाचीज़ हाज़िर है आपके सदके में!" बोले वो, "कुछ नहीं जनाब हैदर साहब!" कहा मैंने, "तो बेखटके कहिये!" बोले वो, "हैदर साहब?" बोला मैं, अपनी पुश्त, उस कुर्सी पर, पीछे लगाते हुए, "जी, फ़रमाएं!" बोले वो, "ये सिलसिला, आखिर कब तक चलेगा?" पूछा मैंने, संजीदा हो गए मेरा सवाल सुनकर! दोनों बाजू, बाँध लीं, मुंह बंद कर लिया और नीचे देखने लगे! "सच कहें आलिम साहब, तो हम खुद भी नहीं जानते!" बोले, सर उठाते हुए! "आप चाहें, तो ये सिलसिला, यहीं बंद हो सकता है!" कहा मैंने, "और अगर हम न कहें?" पूछा उन्होंने, "तो आपकी मर्जी है!" कहा मैंने, "आप...........?" बोले वो, "नहीं! ऐसा कुछ नहीं करूंगा!" कहा मैंने, मुस्कुरा गए! "हमें ऐतबार है आप पर!" बोले वो, "जानता हूँ, इसीलिए यहां हैं हम!" कहा मैंने, "वक़्त दें ज़रा हमें!" बोले वो, 

"ज़रूर हैदर साहब!" कहा मैंने, "हम,सब, सब के सब, कैद-ए-ज़रार से वाबस्ता हैं! लम्बा अरसा गुज़र गया! हमे सब याद है!" बोले वो, "मुझे खुशी है, कि आप सब जानते हैं!" कहा मैंने, "यकसू, सभी जानते हैं!" बोले वो, "ये तो और अच्छा है!" कहा मैंने, "आज हमें, कंज में होना चाहिए थे, और देखिये, हम कहाँ इस ख़ित्ता में कैद हैं!" बोले वो, "जानता हूँ!" कहा मैंने, "इतने लम्बे अरसे में कोई मेहमान नहीं हमारा बना, आपके सिवाय!" बोले वो, "हमारी खुशनसीबी है ये!" कहा मैंने, "खुशनसीब तो हम हैं! कि गोशा-ए-कुर्रा से कोई तो आया!" बोले वो, "एक बात कहूँ?" बोला मैं, "इजाज़त ले, हमें गोशा-गीर न करें जनाब!" बोले वो, "इस ज़र्रानवाज़ी को मैं इशरत से कुबूल करता हूँ!" कहा मैंने, "फ़रमाएं!" बोले वो, "जुबैदा, आतिरा और आबिदा, हसरत है इनकी कि इनका ये सफ़र, अब मुकम्मल हो!" कहा 


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने, 

"नसीब वाली हैं ये!" बोले वो, मैं थोड़ा सा पशोपेश में! मुझे हैदर साहब से इस जवाब के तो कतई उम्मीद न थी! "क्या आपकी इजाज़त है?" पूछा मैंने, "आप आलिम हैं जनाब! सब जानते हैं!" बोले वो, "सो तो जायज़ है, लेकिन आपकी इजाज़त के बगैर ये मुमकिन नहीं!" कहा मैंने, "उनकी हसरत है! तो उनकी मर्जी!" बोले वो, "फिर आप?" पूछा मैंने, "हम?" हँसते हुए उठे। टहले ज़रा सा, आगे गए, मीना उठायी, जाम भरा और गटक गए! 

"मेरी सूबेदारी को साल भर ही हुआ था, हम सब बहुत खुश थे!" बोले वो, "हम सब? मुआफ़ी चाहूंगा, बात काटने के लिए!" कहा मैंने, दूसरा जाम भरा, 

और जैसे ही पीने लगे,रुके, "आप लेंगे?" बोले वो, "ज़रूर!" कहा मैंने, जाम भरा दूसरा, 

और ले आये पास मेरे, दिया मुझे, मैंने लिया, 

और वे, बैठ गए! "हाँ, हम सब!" बोले वो, "कौन सब" पूछा मैंने, "मेरे अब्बु, मेरी अम्मी, दादी, खाला, दो भाई और तीन बहनें!" बोले वो, 

ओह! मैंने उनकी यादें ताज़ा कर दी र्थी! पुरानी यादें! जो ज़हन में,जंग लग कर,अब बर्बाद हुए पड़ी थीं! वही कुछ पुरानी यादें! उस ज़माने की, बेहद लम्बा अरसा गुज़र गया! 

ये यादें आज ताज़ा हो गयीं थीं, वक़्त की गर्द में लिपटीं वो यादें, आज सूबेदार साहब, झाड़ झाड़ कर, साफ़ कर रहे थे, तीन सौ बरस का समय कोई छोटा नहीं होता, तारीख और रवानी, सब बदल जाया करते हैं! आज फिर उसी गली से गुज़र रहे थे सूबेदार साहब, जहां बरसों पहले गुज़रा करते थे, उनके लिए ये बस अभी की ही बात थी, वक़्त के मायने उनके लिए कुछ थे ही नहीं, उनके लिए तो, बस, कुछ ही घंटों पहले की बात थी ये! लेकिन हम जीते इंसानों की लिए तो ये कई पीढ़ियों की बात थी! मैं और शर्मा जी, आज उसी तारीख की कुछ ऐसी ही यादों से, वाक़यात से रु-ब-रु होने वाले थे, जो वक़्त की ज़मीन में कहीं, गहरे दफ़न थे, और आज मेरी वजह से खोदे जा रहे थे। सूबेदार साहब ने, अपना जाम ख़तम किया, सामने मेज़ पर रखा और उठ खड़े हए, यादों को टटोला उन्होंने! टहले थोड़ा सा, दीवार के साथ जा लगे, ऊपर देखा, और फिर हटे वहां से, मेज़ 

तक आये, और फिर बैठ गए! "कानूनगोथे मेरे अब्बू, एक नामी कानूनगो, शेख अब्दुल इलाही, अपने फ़ज़-ओ-ईमान के पक्के इंसान! और यही सिखाया था उन्होंने अपनी औलाद को! हमारी वालिदा, फ़ातिमा, नेक थी बहुत, हम घर में सबसे बड़े थे, मेहनत कर, अमीन बन गया थे, मेहनत से कभी पीछे न हटते, मरकज़ी हुकूमत में, तेजी से बदलाव हो रहे थे उन दिनों, ऐसे ही बदलावों में, हमें ये 

ओहदा बख़्शा गया, हम बहुत खुश थे, हमारे घर में सभी खुश थे, उन्हीं दिनों हमारी बहन नुसरत के ब्याह हुआ था, बहुत खुश थे हम, हमारे बहनोई, सरकारी मुलाज़िम थे, ओहदा बहुत ऊंचा था उनका, वक़्त पंख लगाए उड़ रहा था" बोले वो, और उठ गए फिर, जाम उठाया, गया मीना तक और परोस लिया जाम, "आप लेंगे आलिम साहब?" पूछा उन्होंने, "नहीं हैदर साहब, शुक्रिया" कहा मैंने, उन्होंने जाम बनाया, और आये हमारे पास, बैठे, सूखे मेवों की तश्तरी ले


   
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श्रीशः उपदंडक
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आये थे, आगे बढ़ाई उन्होंने हमारे, मैंने चिलगोज़े उठाये, छीले और खाने लगा, वो चिलगोज़े आज के चिलगोज़ों से ज़्यादा बड़े थे, और स्वाद ऐसा, की खाओ तो घंटे तक मुंह में ज़ायक़ा बना रहे! अभी मैं बात कर ही रहा था, की, एक कनीज़ अंदर आई, आई और सजदा किया उसने सूबेदार साहब को, "हाँ बानो?" बोले वो, "वो बशीर साहिब अब रुखसती लेंगे" बोली बानो, "आते हैं, कहिये उन्हें" बोले वो, "मुआफ़ी चाहूंगा" बोले वो, "कोई बात नहीं, रुखसत कर दें आप, हम अभी आते हैं वापिस" कहा मैंने, 

और वो, चले गए, जल्दी जल्दी अपना जाम ख़तम कर, और फिर हम भी उठे, रुखसती में वक़्त लगता, इसीलिए मैंने सोचा, क्यों न जुबैदा वगैरह से मिल लिया जाए, सहर को ज़मीन छूने में अभी वक़्त बाकी था, "आओ शर्मा जी" कहा मैंने, वे उठे, और हम चले बाहर, बानो मिली, सलाम किया, "बनाओ? मुझे ज़रा जुबैदा के पास ले जाओ, और इन साहब को, बैठक में" बोला मैं, 

"जी हुजूर" बोली वो, 

और हम चल पड़े उसके संग, पहले बैठक में पहुंचे, शर्मा जी वहां चले गए, और मैं, उस बानो के संग, जुबैदा से मिलने चला, पहुंचा एक कमरे तक, और बानो चली अंदर, फिर आई वापिस, और बुलाया मुझे, और मैं अंदर चला तब! अंदर, बनाओ ने अपना लिबास बदल लिया था, गुलाबी रंग के उस लिबास में, कयामत ढा रही थी जुबैदा! मुझे देखा, तो आई दौड़ी दौड़ी! "या ***ह! हमें इत्तला करते तो हम दौड़े चले आते!" बोली वो, "कोई बात नहीं जुबैदा!" कहा मैंने, उसका हाथ पकड़, बिठाया संग अपने! "जुबैदा?" बोला मैं, "जी हुजूर?" बोली वो, "सहर होने को है, कुछ ही देर में" कहा मैंने, "रोज होती है" बोली वो, "वक़्त ठहर जाता है, फिर शाम होती है!" कहा मैंने, "यही सिलसिला है,रोज!" बोली वो, "अब बंद ये सिलसिला!" कहा मैंने, चौंक पड़ी! मोटे मोटे अबसार से, मुझे देखे! नायक़ीनी में! "हाँ, जुबैदा! बस इंतहा हुई!" कहा मैंने, "नहीं समझ आया, समझाइये?" बोली वो, तड़प सी लिए, "इस सहर के बाद, जो सहर होगी, वो एक नयी सहर होगी! इस कैद से अलग! सफ़र मुकम्मल करो अपना!" कहा मैंने, अब समझ गयी थी! लगी मेरे सीने से, मैंने भी उसको, भींच लिया सीने में, अगले ही लम्हे, मुझे उसके बदन में जुम्बिश सी महसूस हुई, मैंने उठाया उसे, देखा, तो आब-ए-दीदा, बह रहे 

थे। 

"नहीं जुबैदा! नहीं!" कहा मैंने, और पोंछे उसके आब-ए-दीदा! हाथों से अपने, अपने कुर्ते के 

कोने से, "न रोकिये, आज न रोकिये! बह जाने दीजिये, हमारा नसीब ऐसा भी होगा, कभी तसव्वुर ही न 

किया!" बोली वो, "नहीं! नहीं जुबैदा! इसे मेरा नसीब कहिये!" कहा मैंने, अब अपने दोनों बाजू, लपेट लिए मुझसे, उस लम्हे, मेरी भी आँखें आब-दीदा हो चली थीं! फिर हटाया उसे, काजल बिखर गया था उसका, कुर्ते से साफ़ किया! आँखें बंद कर, होंठ लरजते 

रहे उसके! "मैं सहर से पहले आऊंगा, तैयार रहना!" कहा मैंने, 

और उठ खड़ा हुआ, मुझे देखा, मैं रुक नहीं पाया! नीचे झुका, और माथा चूम लिया उसका! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर चल पड़ा बाहर, बाहर, बनाओ मिली, इंतज़ार करती थी वो! "बनो, आतिरा से मिलवाइये?" कहा मैंने, "जी हुजूर" बोली वो, 

और ले चली मुझे, उस आतिरा से मिले, जिसने, खुद ही अपनी मंशा जाहिर की थी! आया वो कमरा, और अंदर गयी बानो, आई बाहर, तो आतिरा संग थी, सलाम किया और ले आई अंदर, पर्दा किया और बिठाया मुझे, आ बैठी नीचे, मैंने मना किया की नीचे नहीं, ऊपर बैठो, न मानी! मेरे घुटनों पर, कोहनियां रख, चेहरा थामे, देखती रही! "यहां आखिरी सहर है तुम्हारी आतिरा!" कहा मैंने, उसे जैसे यक़ीन न हुआ! मेरे घुटनों पर सर रख दिया, मैं उसके गेसुओं से खेलने लगा था! "आतिरा?" बोला मैं, "जी मालिक?" बोली वो, अपने आब-ए-दीदा पोंछते हुए, "नहीं! अब वक़्त रोने का नहीं! सफ़र मुकम्मल करने का है!" कहा मैंने, ॥***ह! ऐसा नसीब!" बोली वो, "नसीब तो मेरा है आतिरा!" कहा मैंने, 

"हमारा है!" बोली वो, रुंधे हुए गले से, "आखिर सहर है ये तुम्हारी यहां!" कहा मैंने, खड़ी हुई! आंसू पोंछे, 

और बैठ गयी संग मेरे! "आली आहब? बात न कर पाये उनसे" बोली वो, सीने में दर्द छिपाए, जैसे हाथों में, मुलायम सा कांच हो, कहीं टूट न जाए, हवा के ही झोंके से! बिखर न जाए, किरिच किरिच! "मेरी बात हो गयी है!" कहा मैंने, मुस्कुराते हुए, "क्या बोले?" पूछा उसने, "उन्होंने कहा की, उसकी मर्जी!" बोला मैं, 

और तभी मेरी गोद में आ बैठी वो! चूमने लगी मुझे! इंतहा खुश! उसको खुश देख, मैं दोगुना खुश! "बस, कुछ देर और!" कहा मैंने, "हाँ मालिक!" बोली वो, "तैयार रहना!" कहा मैंने, "ज़रूर मालिक!" बोली आतिरा! 

और मैं खड़ा हुआ फिर, आतिरा भी उठी, मेरी बाजू पकड़, मेरे लबों को चूमा उसने, मैंने भी उसको गले लगा, सर चूमा उसका! 

और फिर चला मैं बाहर, बेचारी बानो, वहीं खड़ी थी, 

दीवार से लगी, एक टांग, दीवार से लगाए, घुटना मोड़े! मुझसे देखा, तो चौंक पड़ी! "बानो?" बोला मैं, "जी हुजूर?" बोली वो, "आबिदा के पास ले चलो" कहा मैंने, "जी" बोली वो, 

और हम चल पड़े फिर, और आबिदा के कमरे तक आ गए, अंदर गयी बनाओ, और जब बाहर आई, तो आबिदा संग! मेरा हाथ पकड़, ले चली अंदर! चूमा मेरा हाथ, मेरी छाती, मेरे कंधे! 

और बिठाया मैंने उसको! "आबिदा?" कहा मैंने, "जी?" बोली वो, "तैयार हो?" कहा मैंने, चौंक पड़ी! 'अरे, मेरे संग चलने को!" कहा मैंने, "ज़रूर! ज़हेनसीब!" बोली वो, 

और मेरे कंधे पर सर रख लिया उसने, मैंने भी, उस से सर भिड़ा लिया, हाथ फेरा उसके बालो में, वो दोनों हाथों से मुझे लपेटे बैठी थी! 

आ चुका था वक़्त! वक़्त अब रुखसती लेने का उनके लिए! रुखसती, इस कैद से! हमेशा के लिए! 

इस सब के बीच, सहर होने में बस अब ज़्यादा वक़्त नहीं था! बस कुछ देर और, और ये शान 


   
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श्रीशः उपदंडक
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ओ-शौक़त, अपने असल रंग में आ जाने वाले थे! ये रंगीन पर्दे, मोटे मोटे कालीन, साज सजावट, फूल और तस्वीरें, सब ख़ाकसार हो जाने को थीं! यही सिलसिला दोहराया जाता था यहां! रोज! "आबिदा, आता हूँ अभी!" कहा मैंने, "न जाइए, आज तो न जाइए!" बोली वो, दर्द भरी आवाज में, दिल में टीस तो उठती है, लेकिन मज़बूरी भी होती है! "आबिदा, मेरा जाना बहुत ज़रूरी है! वक़्त क़तरा क़तरा आगे बढ़ रहा है! मैं आता हूँ अभी!" कहा मैंने, 

और मैं भाग लिया, बानो मेरे पीछे आवाजें देते देते दौड़ी! मैंने न सुनी वो आवाजें! मैं भागा, सीढ़ियां उतरा और आया सीधे सूबेदार साहब के पास, वे दोनों हाथों में अपना सर झुकाए बैठे थे! मुझे देखा, तो खड़े हुए, आँखों में आंसू थे उनकी! कुछ बोले न बन पड़ रहा था! "अब वक़्त नहीं!" बोले वो, टूटे से अल्फाज़ों में! "कोई बात नहीं, मैं फर मिलूंगा आपसे!" कहा मैंने, "सच?" पूछा मुझसे, मेरे हाथ पकड़ कर, "हाँ, सच! दोस्ती का यही तो फ़र्ज़ है हैदर साहब! आपने दोस्ती निभायी, अब मेरा फ़र्ज़ है, दोस्ती निभाने का!" कहा मैंने, मैंने इतना कहा, और गले से लगा लिया मुझे! रो पड़े! "मैं आता हूँ आज रात!" कहा मैंने, 

और मैं निकल पड़ा वहाँ से! भाग कर गया, सीधा जुबैदा के पास! जुबैदा, बगल में एक पोटली सी दबाये खड़ी थी! मेरे दिल में, एक अजीब सी हूक उठी! मैं गया उसके पास! "जुबैदा! आँखें बंद करो!" कहा मैंने, उसने आँखें बंद की, और मैंने मंत्र पढ़ा! मंत्र पढ़ते ही, जुबैदा स्याहपोश हो गयी! अब वो मेरे पास थी! कहीं, जहां मैं रखता हूँ ऐसे प्रेतों को! अब वहाँ से भागा, आया सीधा आतिरा के पास, आतिरा अभी तक, आंखों में आंसू लिए, खड़ी थी, इंतज़ार करते हुए मेरा! मुझे देखा, तो भागी और लिपट पड़ी मुझसे! "आतिरा! वक़्त नहीं है! आँखें बंद करो!" कहा मैंने, 

उसने आँखें बंद की, मैंने मंत्र पढ़ा! 

और स्याहपोश हुई आतिरा! घड़ी देखी, मेरे पास दस-बारह मिनट बचे थे, हवेली में दौड़-भाग कर, हांफने लगा था मैं! 

मैं फिर से भागा, चढ़ा सीढ़ियां और फिर भागा, आया आबिदा के पास! आबिदा बैठी हुई थी, खोयी हुई सी! मुझे देखा, तो भाग ली पास मेरे! लिपट गयी! फ़फ़क के रो पड़ी! 

आँखें मेरी भी गीली हुई! "आबिदा, वक़्त नहीं है!" कहा मैंने, मैं हांफ रहा था, साँसें तेज थीं, मेरे सीने से सर लगा रखा था उसने! "रुकिए, हम शरबत लाते हैं!" बोली वो, 

और जाने लगी, मैंने बाजू पकड़ ली उसकी! "नहीं आबिदा! गयीं, तो बहुत देर हो जायेगी!" कहा मैंने, न समझ पायी वो! "आँखें बंद करो!" कहा मैंने, उसने आँखें बंद की, और मैंने मंत्र पढ़ा, 

और अगले ही लम्हे, स्याहपोश हुई! मैं फिर से भागा, ऊपर के लिए, बैठक में जाना था, वो कनीज़, बेचारी बानो, मेरे आगे पीछे दौड़ रही थी! मैं भागा और आया सीधा बैठक में! मुझसे देख, शर्मा जी उठे। "आओ शर्मा जी!" कहा मैंने, 

और हम चले वहां से! कुछ ही लम्हे बीते, और मैं बीच हवेली में ही रुक गया! ठीक उधर ही, जहां वो महफ़िल सजी थी, रात में! "रुको!" कहा मैंने, 

वे रुक गए! "आँखें बंद करो!" कहा मैंने, 

आँखें बंद की उन्होंने, मैंने भी, कुछ लम्हे! और कुछ लम्हे! 


   
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और फिर!! मैंने आँखें खोली अपनी! 

ये सहर थी! सहर आ चुकी थी! "आँखें खोलो!" कहा मैंने, उन्होंने आँखें खोली अपनी! 

और चौंक पड़े! हम, बीच खंडहर में खड़े थे! बड़े बड़े पत्थर पड़े थे उधर, घास-फूस, जंगली पौधे लगे थे, जहां कल कालीन बिछे थे! जहां कल दावत थी! जहां कल, मैंने आबिदा को पहली बार देखा था! जहां कल,अमीन साहब मिले थे! जहाँ कल, हम मेहमान थे! "ओह!" बोले शर्मा जी! चौंकना लाजमी था! हर तरफ, सन्नाटा! बस घास-फूस! 

और सहर की ठंडी हवा में झूमते पौधे! कल की चमकती-दमकती हवेली, अब खंडहर थी! "आना शर्मा जी?" कहा मैंने, "कहाँ?" पूछा उन्होंने, "हमाम!" कहा मैंने, 

और हम चल पड़े, उन पत्थरों से बचते बचाते! 

सीढ़ियां चढ़े! और वो दीवार आई! मैं रुका! 

याद आई उस कनीज़ बानो की! जो कल, दीवार से सट कर खड़ी थी! एक टांग लगाए, एक घुटना मोड़े! एक हल्की सी मुस्कान मेरे होंठों पर आई! हाँ, कानों में कैद, उसकी आवाज़, याद आ गयी थी! हम चले, और मेरी नज़र एक टूटे हुए कमरे पर पड़ी! छत में, झरोखे खुले हुए थे! "ये है बैठक!" कहा मैंने, 

रोक न सके खुद को! अंदर चले गए! चारों ओर देखा! "यहां, यहां थीं वो कुर्सियां!" बोले वो, "हाँ! यहीं थीं!" कहा मैंने, हम आगे चले, थोड़ा और आगे, सीढ़ियां पार कर, 

और मैं रुका, एक कमरा था ये! टूटा-फूटा! बस एक आला था, जो खुद को बचा पाया था, वक़्त की मार से! "यहां आये थे?" पूछा उन्होंने, "हाँ!" कहा मैंने, "कौन था यहां?" पूछा उन्होंने, "जुबैदा!" कहा मैंने, कहते कहते, गला रंध गया मेरा! कमरे का हाल देख कर! टूट गया था सबकुछ! अब कुछ बाक़ी न था! जहां में बैठा था, वहां एक छेद था, 

वहाँ तक गया मैं! देखा नीचे, तो पत्थर नज़र आये! और कुछ नहीं! न कोई तस्वीर! न कोई सजावट! न वो सुराही! न वो गिलास! कुछ नहीं! बस गुज़रे वक्त की गर्द! आवाज़ याद आई मुझे! उस जुबैदा की! वो खिलखिलाकर हंसना, सहम जाना! शरमा जाना! नज़रें झुकाना! मैंने तब उस कमरे की दीवार को छुआ! उंगलियां फिरायीं! तो दीवार से, बस धूल ही निकली! वक़्त की धूल! "जुबैदा!" मेरे मुंह से यकायक निकला! "हमाम?" बोले शर्मा जी! "हाँ!" कहा मैंने, 

और चले हम फिर हमाम देखने! जा रहे थे, तो कमरा दिखा! एक ख़ास कमरा! खास! हाँ, वो खास कमरा! सुबेदार, हैदर साहब का! "आओ" कहा मैंने, 

और हम, चल पड़े उधर के लिए, उस कमरे के बाहर रुके, तो फिर से, बानो याद आई! 

हम कमरे में घुसे! मकड़ियों के जले लगे थे! दीवार में जगह-जगह छेद थे! छत तो आधी गिर ही चुकी थी! नीचे, पत्थर पड़े थे, बजरी सी, चींटियाँ रेंग रही थीं, छोटी छोटी घास लगी थी! दीवारें बदरंग हो चली थीं! लेकिन इसी कमरे की शान-ओ-शौक़त के हम गवाह बने थे! तो कैसी शानदार और आलीशान हवेली थी वो! और आज, कोई जानता भी नहीं, की ये हवेली, किसी सूबेदार हैदर साहब की ख्वाबगाह थी! अपनी महफ़िल के लिए मशहूर! तब कौन फटक सकता था यहां! ओहदेदार ही आएं तो आएं! और आज, आज कोई नामलेवा नहीं! वक़्त की गर्द में,


   
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सूबेदार साहब, वो महफ़िल, और ओहदेदार, वो कनीजें, वो आबिदा और वो मुलाज़िम, सब दफ़न हो गए! तीन सौ बरस! कलेजा काँप उठता है तसव्वुर करते ही! "यहां, शायद यहां बैठे थे हम!" बोले वो, "हाँ, यहीं बैठे थे हम!" कहा मैंने, "और वहां वो मीना थी!" वो बोले, "हाँ, वहीं थी!" कहा मैंने, "बहुत ही भले इंसान हैं सूबेदार साहब!" बोले वो, "हैं नहीं, थे!" कहा मैंने, "मैं तो हैं ही कहूँगा!" बोले वो, "आपकी मर्जी!" कहा मैंने, मैं आगे तक गया, एक झरोखे से बाहर झाँका, टीले, टीले ही थे वहाँ! और कुछ सूखे पेड़! 

और कुछ नहीं! कुछ भी नहीं! "आओ" कहा मैंने, 

और हम निकले वहाँ से, चले आगे, उतरे सीढ़ी, चले आगे, 

और मुझे झटका लगा! रुक गया मैं! कलेजा काँप उठा! कमरा था वो, आबिदा का कमरा! वो शान-ओ-शौक़त, अभी भी, मेरी आँखों में वाबस्ता थी! कैसे देख पाउँगा, ये खंडहर? मलबे में तब्दील हुए? 

"क्या हुआ?" पूछा उन्होंने, "आबिदा!" कहा मैंने, "ओह! तो ये आबिदा का कमरा है!" बोले वो, "हाँ, वही आबिदा!" कहा मैंने, "अंदर चलो!" बोले वो, मेरे क़दम ठिठके! कैसे जाऊं? "आओ?" बोले वो, 

और चले गए अंदर, मेरा हाथ पकड़, ले गए अंदर! मलबा! धूल! पत्थर! मिट्टी! मकड़ियों के जाल! ततैयों के घोंसले! बस, और कुछ नहीं! वो शान-ओ-शौक़त, कुछ नहीं! वो पलंग, वो बिस्तर, कुछ नहीं, वो बड़ी सी कुर्सी, कुछ नहीं! वो गुसलखाना, कुछ नहीं! वक़्त की रौ बहा ले गयी सबकुछ! 

छोड़ गयी, बस कुछ निशानियाँ, जो उसके काम की कतई न थीं! "कल यहीं थे आप?" पूछा शर्मा जी ने, "हाँ!" कहा मैंने, बस इतना ही! "यहीं थका था वो बहेलिया?" पूछा उन्होंने, "हाँ!" कहा मैंने, मेरी आँखों में, कुछ बूंदें डबडबा गयी थीं! मेरे कंधे पर हाथ रख, हुए मेरे पास, "संजीदा न हो! सब वक़्त का खेल है!" बोले वो, मैंने आँखों का पानी, आँखों में ही जज़्ब करते हुए, सर हिला, हाँ कहा! "किसी किसी के लिए वक़्त बेहद बेरहम हआ करता है! ये सब, ऐसे ही हैं!" बोले वो! "आओ" बोले वो, "चलो" बोला मैं, 

और जैसे ही मैं चला, कोने में, कुछ दिखा मुझे, 

मैं लपका उधर ही, हटाया पत्थर, कुछ और पत्थर भी, एक टुकड़ा दिखा, एक टुकड़ा, किसी सुराही के पेंदे का! जी में, तूफ़ान उठा! ये वही सुराही है, जो कोने में रखी हुआ करती होगी! पानी के लिए! टुकड़ा, अब काला सा पड़ चुका था, तीन सौ बरस, यहीं, एक जगह, बैठे बैठे, फालिज़ मार गया था उसे! आज, तीन सौ बरस बाद, उसको उठाया था किसी ने! रख दिया वहीं! वो उसी की जगह थी! वो इस हवेली के ज़रे ज़र्रे से वाबस्ता था! नए ज़माने में, कोई मोल नहीं उसका, पत्थर या ठीकरा समझा जाएगा, और, फेंक दिया जाएगा सड़क पर, जहां, उसकी तारीख़ को, रौंदा जाएगा, कुचला जाएगा, नए ज़माने 

के नए लोगों की मातहत! इसीलिए रख दिया था वापिस,जैसा था, वैसे ही! "आओ" बोले शर्मा जी, मैं उठा तब, 


   
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