आई अंदर, डिबिया खोली, और पान पेश किये! ले लिए हमने पान! वही लज़ीज़ पान! "आप ही मेहमान हैं न, गर मैं बेख़ता हूँ तो?" बोली वो, "जी खानुम!" मैंने कहा, "मैं जुबैदा! आपकी कनीज़!" बोली वो,
कनीज़? हमारी कनीज़? इसका क्या मतलब हुआ? "कनीज़?" बोला मैं,
जी, आपके सदक़े में, आपकी बंदगी में!" बोली वो, मैं हैरान था! कनीज़ भेज दी! हमारे लिए! "कोई खिदमत हो तो हुक्म करें!" बोली बो, "नहीं ख़ानुम, फिलहाल तो कोई ख़िदमत नहीं!" कहा मैंने, "आपको पसंदवार न गुजरी श्मसिया!" बोली वो, "नहीं जी, ऐसा नहीं!" कहा मैंने, "उज़मा ने भी यही कहा था!" बोली वो, उम्र में कोई पच्चीस की रही होगी, लेकिन देह ऐसी, जैसे कोई बुत-ए-हुस्न से रु-ब-रु होऊ! जिस्म का ऐसा कोई हिस्सा नहीं, जो खेंचे नहीं नज़र को!
और खेंचे, तो नज़र चस्पा ही हो जाए! चाहकर भी छुड़े नहीं! बेज़र ही हो जाए इंसान! सच कहता हूँ! उस वक़्त तो लगाम हाथ से छूटने को ही थी! चंदन की खुश्बू से पबरेज उसका गोरा और कसा हुआ बदन, उसका जो संग रुख्सार, सुर्ख गाल और वो तीखे अबसार! खंजर जैसे पैने! और उसका वो अंगार फेंकता बदन! जो लिबास से भी संभाले नहीं सम्भल रहा था! जिस्म के गोशे, निकल निकल भाग रहे थे! और ज़र्ब हम हुआ जा रहे थे! "आइये आप संग मेरे!" बोली वो, "कहाँ ख़ानुम?" पूछा मैंने, "जहां मालिक ने ले जाने को कहा, जश्न, बस शुरू होने को ही है!" बोली वो,
खड़ी हो गयी थी, इस तरह कि सर्द हो जाएँ हमारे बदन!
और जी करे, उसके अंगार से सेंक लूँ अपने आपको! कैद हो जाऊं उसके कफ़स-इ-जिस्म में! लेकिन नहीं, कायम रहना था! बड़ी मुश्किल थी!
कैसी झेला वो सब, उस वक़्त, मैं ही जानें! "आइये न?" बोली वो. अब जैसे हम दौराहे पर खड़े! सूबेदार साहब ने भेजा था, शायद तैयारी के लिए, जश्न से पहले की तैयारी के लिए, लेकिन मुझे अभी श्मसिया याद थी, इसीलिए दिल में खुटक-खुटक हो रही थी! "आइये?" बोली वो, "चलिए" कहा मैंने, अब मैंने सोचा, देखें क्या तैयारी है भला! वो चली, हम संग चले! ले चली एक गलियारे में, सीढ़ियां उतरे हम,
और दायें चले! बड़ी ही आलीशान सी जगह थी वो! "आइये" बोली वो, हम अंदर चले! अंदर बड़ा सा कक्ष था! बहुत बड़ा! दीवारों पर, चित्र लगे थे! बड़े बड़े! बेल-बटों की सजावट थी! बेहद सफाई थी वहाँ! धूल का एक कण भी नहीं था! "आइए, इधर आइये" बोली वो, एक कमरा था वो, काफी बड़ा, एक कोने में बना हुआ! वहां, कपडे रखे थे, बहुत सारे, जैसे सारे कपड़े वहीं रखें जाते हों! वहीं, दो कुर्सियों पर बिठा दिया हमें! और खुद, कुछ कपड़े निकालने लगी, निकाले, और दूसरी जगह पहुंची, वैसे कपड़े बेहद महंगे और फ़ारसी से लगते थे, नीलारंग ज़रूर था उनमे! अब यहां क्यों लायी थी हमें वो? हमारी क्या ज़रूरत उस जगह? "आप आइये!" कहा उसने मुझे, "मैं?" बोला मैं, "जी हाँ जनाब!" बोली शरारत के अंदाज़ से!
"और ये साहब?" पूछा मैंने, "मैं आती हूँ आपको छोड़कर!" बोली वो, "जाइए!" बोले शर्मा जी, "चलिए" कहा मैंने, और ले चली मुझे, उसी कक्ष में से, एक रास्ता खुल रहा था, वहाँ पहुंचे,
सीढ़ियां थीं, कुल तीन, उतरे हम, और जो मैंने देखा, तो! तो आँखें खुली भट्टा सी! सन्न रह गया मैं तो! ये तो हमाम था! फूलों की कलियाँ और पंखुड़ियां पड़ी थीं उसमे, इत्र डाला गया था, बेहतरीन खुश्बू फैली थी! हमाम में जाने के लिए,
सीढ़ियां बनी थीं, कुल पांच! उन पर चढ़ो, और कूद जाओ हमाम में! अब समझा, वो नहलाने लायी थी हमें! क्योंकि, जश्न शुरू होने वाला था, और नहाना ज़रूरी था! "लाइए कपड़े!" कहा मैंने, "आप ज़हमत न उठायें!" बोली वो, कपड़े, एक तरफ रखते हुए! उसने, आवाज़ दी, एक बार, "ज़लूफ़!" उसने बोला, वो चार कनीज़ आयीं बाहर, साथ में एक पर्दा लगा था, शायद कमरा था वो कोई, वे आयीं, और उन्होंने जो लिबास पहनता, पहना कहाँ था, सिर्फ ओढ़ा था, हरे रंग का एक लबादा सा, वो लबादे, एक संग नीचे गिरे और वे चारों उरियां! उनके बदन की बनावट देखकर, हैरानी से मैं तो गश खाते खाते बचा!
आजकल तो, औरतें-मर्द, मशीनों का सहारा लिया करते हैं,
बदन को चुस्त-दुरुस्त रखने में, खूब पसीना बहाते हैं, फिर भी बेडौल! चर्बी इतनी कि चला भी न जाए,
भौंडा जिस्म और भौंडी ही पोशाक उनकी! लेकिन ये चारों? जैसे गढ़ कर बनाया गया है, एक एक हिस्सा उनके जिस्म का ऐसा सुडौल था, ऐसा कसा हुआ था, कि देखने वाला कहाँ देखे और कहाँ रहने दे! वही हो रहा था मेरे संग भी! मैं तो सन्न रह गया था! ऐसा जिस्म! अब भला कौन सी पोशाक़ न फ़बे ऐसे नक्काश जिस्म पर! वे चारों आगे बढ़ीं, और मुझ तक आयीं! मैं मुस्कुराया, और रोका हाथ के इशारे से! "कोई ज़न्न जनाब?" बोली जुबैदा! "नहीं नहीं!" बोला मैं, "ज़ीक़श!" बोली वो,
और तभी, चार कनीज़ और आ गयीं वहाँ! पहले वाली, वापिस हुईं! अरे ये क्या समझ लिया इस जुबैदा ने! समझ लिया कि मुझे वो चारों हमाम-कनीज़ पसंद नहीं आयीं! तो और पेश कर दी! अब जो आयीं थी, अब क्या कहूँ! क्या लिखू। उनके बदन? शरार! जिस्म के हिस्से? अंगार!
बदन मांसल, ऊंचा कद, नुवाँ ऐसे सुडौल कि,
तस्वीरों में ही देख सके कोई इंसान! कमर ऐसी पतली, कि सोच में पहूँ! ऊपरी बदन का बोझ कैसे संभाल रही है ये कमर! जांघे, क्या कहूँ! छोड़िए, अनुमान लगा लीजिये! "अब देर न करें!" बोली एक नाजुक़ से तबस्सुम के संग! अब क्या करूँ? नहा लूँ? उतर जाऊं हमाम में? लगाऊँ गोते बहिश्त-ए-हुस्न में?
क्या करूँ? दोफाड़ हुआ मन! एक कहे, जाओ! एक मौक़ा फिर न आएगा! एक कहे, नहीं, नहीं जाओ! एक हथौड़ा बजाए, एक थप्पड़ सा मारे!
और मैंने ठान लिया! क्यों न ख़ाम-ए-खुद को परखा जाए! मैंने जुबैदा को देखा, और जुबैदा ने मुझे, एक ही लम्हे की नोंक पर, हम मुस्कुरा उठे!
और मैं चला एक तरफ, जहां कपड़े उतार कर रखने थे! मैं गया एक जगह, और अब अपना कुरता उतारा, अपने तंत्राभूषण उतारे, भुजबंध उतारे और कुर्ते में रख दिए सहेज कर, ताकि
छुएं नहीं किसी से भी! मैं अभी बनियान उतार हो रहा था, कि मेरी कमर पर किसी ने हाथ फेरा, मैं पलटा, तो ये जुबैदा थी! मुस्कुराई, चेहरा एक अलग से
अंदाज़ में हल्का-हल्का सा हिलाया, नीचे वाले होंठ को बायीं तरफ से, मुंह के अंदर ही काट रही थी! फिर होंठ खोले उसने, और मेरे कपड़े उतारने लगी! उसके बदन से निकलती चंदन की
महक़ जैसे मुझे खींचे जा रही थी उसकी तरफ! एक चादर में मुझे लपेटे, मेरे कपड़े खलास किये जा रहे थे जिस्म से, और फिर धीरे धीरे नीचे झुकते हए, मेरी चुस्त पाजामी भी, मेरी एड़ियों से दुलका, उतार ली गयी! और बैठे बैठे, उसने, मेरा आखिर कपड़ा भी उतार दिया, उठी, मुझसे नज़रें मिलायीं, बिना पलकें झपकाये, और लाइट दिया एक सफ़ेद चादर में, हाथ पकड़ा और ले चली उस हमाम की तरफ! ऐसा मैंने जानबूझकर ही चुना था! मित्रगण! कभी भी किसी भी तथ्य को मात्र ये कह कर नहीं मान लेना चाहिए, हाँ, ध्यान अवश्य ही देना चाहिए, सुनना चाहिए, कि वो तथ्य आपके किसी गुरु श्री के हैं, अथवा ग्रन्थ में लिखे हैं, अथवा सदियों से चले आ रहे हैं, आपको उनको परखना चाहिए, जब आपको उचित लगे, तो उसे धारण कर लें चाहिए हमेशा के लिए! देखिये, आग का गुणधर्म क्या है? जलाना! और यही आग हमें भोजन भी प्रदान करती है। जल का गुणधर्म क्या है? जीवन को पोषित करना, जल ही जीवन है, परन्तु, प्रलय का कारण भी यही है! हमारे अंदर हमारे गुण, अवगुण सभी हैं, और हमसे बड़ा कोई नहीं है जो इस विषय में जानता हो कि मुझमे गुण क्या हैं और अवगुण क्या हैं! हम अपने अवगुण छिपाते हैं और गुणों का बखान करते हैं! अब इसका उलट किया जाए, तो निर्मलता घर करने लग जायेगी चित्त में! बदन गन्दा हो, कपड़े फटे हों, बदन पर भस्म मली हो, अस्थियों के माल पहने हों, गंगाजल से नहाएं हों, गेरुए वस्त्र पहने हों, बड़ी बड़ी मालाएं पहनी हों, टीके लगाए हों माथे पर, इस से कोई लाभ नहीं होने वाला! बस आपका चित्त! वोन मैला हो! यदि वो मैला हुआ, तो आपके शरीर को गंगाजल से भी नहलाया जाए, तो कोई लाभ नहीं! चित्त से ही ध्यान लगाया जाता है, चित्त ही माध्यम है उस से वार्तालाप करने का! उसके आपके वस्त्रों से, साज-सज्जा से, श्रृंगार से से कुछ नहीं लेना! चित्त का कोई धर्म नहीं! कोई भेद नहीं! मात्र एक, निर्मलता! तो मेरा आशय था, कि अपने धैर्य को, विश्वास को समय समय पर जांचते रहना चाहिए! आपको अपनी कमियां मिलें, तो फौरन हटा दो उन्हें, इस से पहले कि वो पहाड़ बनें! अब यहां भी, मैंने नहाने का फैसला इसलिए ही लिया था, कि मैं देख लूँ, जांच लूँ, कि अभी भी कायम रहता हूँ या खोखला बनाने वाली दीमक तो घर नहीं कर गयी? बस, यही मक़सद था! तो वो ले चली थी मुझे उस हमाम की तरफ
और चढ़ाया मुझे उन सीढ़ियों पर, वे चारों, अब हमाम में उतर चुकी थीं,
मैं जैसे ही पांचवीं सीढ़ी चढ़ा, चादर ले ली उन्होंने, और रख दे अलग,
और उतार लिया मुझे पानी में! पानी ग़ज़ब का ठंडा था! मेरी तो सांस ही चढ़ गयी! हमाम में, सर रखने के लिए, सर ठिकाने के लिए, पीछे की तरफ पत्थर लगा था, ये पत्थर बड़ा ही चिकना और शानदार था! उसकी किनारियों पर, नीले रंग के पत्थरों के टुकड़े लगा कर, किनारियां बना दी थी! मैं हमाम में आराम से बैठ गया, पीठ टिकाकर, अब तक तो सबकुछ
ठीक था, वे चारों मेरे हाथों की. और पांवों की उँगलियों की मालिश सी कर रही थीं! बहुत अच्छा लगा रहा था, सच में! बहुत ही अच्छा! मेरी नज़र सामने गयी, वो जुबैदा, अपने जिस्म को उस लिबास की कैद से आज़ाद कर रही थी,
ओह! अब तक मैं किसी पर रीझा था दिल ही दिल में तो वो जुबैदा ही थी! ये क्या कर रही है? दिल धड़का! आँखें फैली! और मेरी सोश पहाड़-ए-नईम पर जा पहुंची! उसने उतार दिया लिबास अपना!
क्या खूबसूरत! क्या खूबसूरत! बला की खूबसूरत! कज़ा की खूबसूरती! उसके जिस्म का एक एक हिस्सा, जैसे, शहद-ओ-शेरी से लबरेज था! जिसको ऊँगली से नहीं, ऊँगली से तो हरगिज़ नहीं, सिर्फ जीभ से ही चाटा जा सकता था! ऐसा शीरी भरा। ऐसा लज़्ज़तदार!
मैंने फ़ौरन ही उसके जिस्म का वो नक्श, उतार लिया ज़ेहन में! देर न लगाई! उसने,आखिर में, अपने गले से, गहने उतारे, बाल खोले, सर हिलाया,
और नशीले चाल से, एक एक क़दम नापती हुई, आ रही थी, उसके नुवाँ जिस क़द्र हिल रहे थे, उस से मेरी धड़कनें और नासबूर हो चली थी! वो सीढ़ियां चढ़ी, रुकी, मुझे देखा, नशीली सी, एक क़ातिल मुस्कान!
और उतर गयी हमाम में! अब तो हुई फ़ज़ीहत! संग बैठ गयी मेरे,
और पलटी मेरी तरफ! मेरे बाएं कंधे पर हाथ रखा, मेरा तो उस ठंडे पानी में भी, बदन दहकने लगा! बस पानी में से भाप उठने की देर थी! मेरी छाती पर हाथ फिराया उसने, मेरे गले पर, मेरे कंधे पर,
और जब उसके शोश-ए-नुवाँ मुझसे टकराएं, तो मुझमे बिजली सी कौंधे! मैं हैरान रहूँ! ये सूबेदार जैसे आसदाह, कैसे, रोज ही ऐसे गुसल-ए-हमाम किया करते हैं! ऐसी कौन सी दवा खाते हैं, ऐसा कौन सा सुलेमानी तिला है इनके पास!
हमारे जैसा तो, बार बार ठंडा हो, बार बार गर्म हो, न्यूमोनिया से मर जाए! वो उठी, उसके बदन से चकाँ पानी, मेरे कंधे से टकराये, गर्म लगे! आतशी सा! मैं तो मारे एजाज़ के, दिल ही दिल में, झूले झूलूँ! सच में, झूले ही झूलूँ! वे चारों अब मेरी बाजुओं को, पिंडलियों को रगड़ रही थीं, मैं उन शोश-ए-नुवाँ की छुअन से गुदगुदी से महसूस करता! तो कभी उठ जाता आगे, और कभी करवट से बदलता! वो, जुबैदा, आगे गयी,
और,
मेरी जांगों पर बैठ गयी, मैं तो उठ गया! एक ही झट से! ये क्या? उसने, हाथ से मुझे पीछे ही रहने को कहा,
और झुक कर, मेरी छाती पर हाथ फेरे दोनों! उसके नाखून, जो चुभे तो और भड़काएं मुझे! वो मेरी खाल को, अपनी मुट्ठी में भर लेती थी, फिर खींचती थी, फिर छोड़ कर, हाथ फिराती थी!वो थोड़ा और आगे हुई,
और मेरे कंधे पर सर रख लिया! अब मैं,
कुँए में कूदा! वो भी अँधेरे कुँए में! कुछ दीखे ही नहीं,
और टटोलूं, तो कुछ हाथ न आये!
और सबसे बड़ी बात! हमाम का ये कायदा, मुझे तो समझ ही न आया! बंदा जान से जाए! लम्हा लम्हा! रिसे, कतरा कतरा! फिर वो उठी मेरे कंधे से, हाथों में पानी लिया, और मेरे सर पर डाला, दो कनीज़ बाहर चली वहां से, गयीं अपने कमरे में, और ले आयीं कुछ एक बर्तन में, अब जुबैदा और आगे हुई, मुझसे सहन हो न हो? मैंने अपने दोनों हाथों से उसको रिद'फ़ां से पकड़, पीछे किया,
क्या मांसल था उसके जिस्म का वो हिस्सा! सख़्त, और मांसल, इस तहज़ीब में, ये रिद फां, ऐसा होना, अच्छी सेहत और तंदुरुस्ती की जानकारी देता है, कुल मिलाकर मतलब ये, कि ऐसी औरतें सेहतमंद औलादों को जना करती हैं। वो हो गयी पीछे, एक बात बताऊँ? उसके नुवाँ, नहीं, अब मैं उसकी अत'दा कहूँगा! इसका मतलब हुआ खासमख़ास! सच में, बहुत सुंदर! मुझे तो तराश सी लगती थी किसी बेहद ही इफ़्तिख़ार कारीगर की! हलामात-ए-अत दा ऐसे सुंदर, जैसे टांक दिए हों अलग से ही! मैंने अपने हाथों में पानी भरा और गिराया उन पर,
जो बँदें टपकी, वो बेहद गरम, मेरी छाती पर!
जुबैदा सब समझ रही थी,
और झुकी वो, और, जब तक, हलामात-ए-अत'दा मेरी छाती से चस्पा नहीं हो गए! मुस्कुराते हुए उठी वो,
और उस बर्तन में से कुछ निकाला, मुझे तो गाची-मिट्टी सा लगा वो, लेकिन उसमे खुश्बू थी, गुलाब की, तेज खुश्बू! अब मेरे जिस्म पर लगाना शुरू किया उन्होंने! हर हिस्से पर लगा दिया! कोई हिस्सा न छोड़ा! फिर एक और उबटन सा लगाया,
ये वैसा ही था, लेकिन रंग में गुलाबी था! वो भी लगा दिया, रगड़ रगड़ कर!
और उसके बाद मेरे जिस्म को धोने लगीं सारी के सारी! मैं क़ायम ही रहा! बहुत सुकून पहुंचा मुझे! पुरसुकूनी हालत में, निकला बाहर! चादर में लपेटा मुझे, और ले चली उसी कमरे में, अंदर आया, तो पहले वाली कनीज़ बाहर चलीं! अब मुझे फिर से लिटा दिया गया! और जुबैदा ने, एक शीशी उठायी, खोली, और सभी के हाथों में एक एक बूंद दे दी! उसके बाद हुई मालिश! अजीब सा लगा मुझे तो! शायद यही रिवाज़ हो उनका! जो भी लगाया गया था, बहुत ही ताज़गी देने वाला था! थकावट हो, और मालिश हो वैसे तो, फिर कहाँ ठहरे थकावट! "इफ़रात-ए-तसल्ली हुई हुजूर?" बोली जुबैदा! । "इसमें कहने की क्या बात! तरोताज़ा हो गया!" कहा मैंने, "इस नाचीज़ कनीज़ को भूल न जाइयेगा!" बोली वो,
"ऐसा न कही जुबैदा! ता-उम नहीं भूल सकता!" कहा मैंने, "नज़र-ए-इनायत की तलबगार रहेगी ये कनीज़!" बोली वो, जिस लहज़े से उसने ऐसा कहा था, मैं तो रीझता चला गया! "जुबैदा?" कहा मैंने, "जी हुजूर?" बोली वो, "सुनो?" कहा मैंने, "जी?" बोली वो, "इनको भेजो यहां से!" कहा मैंने, उसने, उसी लम्हे भेज दिया बाहर उन्हें! वो चली गयीं! "आओ इधर" कहा मैंने, वो आई, हैरान सी, न जाने क्या बात है! मैंने लगा लिया गले उसे! उसने भी भींच लिया मुझे! ये
बहुत ज़रूरी था! "कोई 'अपना' तो होना चाहिए न वहाँ! "हम अकेले हैं बहुत!" बोली वो, "अब नहीं!" बोला मैं, "नज़रों में पनाह दीजियेगा!" बोली वो,
आवाज़ लड़खड़ा गयी थी उसकी ऐसा कहते कहते! "जुबैदा!" कहा मैंने, अलग किया उसे अपने से, "खुत्बा बंद!" कहा मैंने, मुस्कुरा गयी! फिर से मेरे गले लग गयी!
और फिर हट गयी! "जुबैदा ख़ानुम, क़ौल देता हूँ! जब भी आऊंगा! जुस्त-जू-ए-जुबैदा होगी!" कहा मैंने, "आह मेरे आकिल-ए-अर्श! कर्जमंद कर दिया आपके अल्फाज़ों ने, ये जुबैदा, कौल देती है
आपको, मेरे आश्ना, हमेशा आपकी हज़र-ए-ख़िदमत रहेगी!" बोला उसने, उसने ऐसा अपने सर पर हाथ रख कर कहा था, मैंने नहीं, मैं ये नहीं जानता था कि क़ौल सर पर हाथ रख कर दिया जाता है! चलो, एक नयी बात पता चली! उसके बाद कपड़े पहने मैंने, जुबैदा ने भी, उसको थोड़ी देर लगी, मैं जल्दी तैयार हो गया था, अब जुबैदा मेरी माशूका हो चली थी, इसीलिए तो बनाया था, ताकि जैसा मैं चाहूँ, वैसा कर सके जुबैदा! वो कपड़े पहन रही थी, मैं गया उसके पास, "मैं चलता हूँ वहीं, आप आओ!" कहा मैंने, "जी हजूर!" बोली वो,
और मैं तेजी से दौड़ पड़ा उस कमरे के लिए,वहां पहुंचा, "३११३स!"कहा मैंने, होठों पर ऊँगली रख, वे समझ गए! "कोई भी पूछे नहाने के लिए, तो मना!" बोला मैं, "वो तो है है, बुखार जो है!" बोले वो, "हाँ! सही कहा!" कहा मैंने, "आप तो माशाअल्लाह, इन्हीं में से एक लग रहे हैं!" बोले वो, मुझे देखते हुए, "हमाम में नहाया हूँ जी!" कहा मैंने, "वाह जी वाह! मारे गोते?" बोले वो, "गोता-वोता नहीं मारा!" कहा मैंने, "तो इतनी देर क्या मालिश करवा रहे थे?" बोले वो, "बस,अपना 'तोता' संभाल रहा था, कहीं उड़ न जाए!" कहा मैंने, ठहाका लगा के हँसे वो! मैं भी हंसा!
और तभी आई जुबैदा! "जुबैदा?" कहा मैंने,
"जी, कहिये हुजूर?" बोली वो, "ये हमाम नही जायेंगे!" कहा मैंने, "क्यों, समीना आने ही वाली होगी?" बोली वो, "आई थी, मना किया मैंने" बोले वो, "क्या वजह है हुजूर? कोई ख़ता हुई हमसे?" बोली वो, "अरे नहीं, बुखार है" बोले वो, "ओह, दवा लाऊँ?" बोली वो, "नहीं, अभी ज़रूरत नहीं, जब होगी तो मंगवा लूँगा!" बोले वो, "जी हुजूर!" बोली वो,
और चली एक तरफ, गयी बाहर! और कोई दो-तीन मिनट में ही, एक और कनीज़ आई, शरबत लेकर. हमने उठाये गिलास, और पीना शुरू किया!
वही लज़्ज़त! वही मिठास और वही ज़ायक़ा! शरबत ख़त्म किया और रख दिए गिलास उस थाल पर, कनीज़ ने एक नज़र हमें देखा और चली गयी! मैं तो इन कनीज़ों का जिस्म देखकर हैरान था, स्का जिस्म ऐसा सुडौल था कि जैसे उनकी भर्ती की गयी हो, और ऐसा जिस्म होना, बहस ज़रूरी हो! बला की खूबसूरत, हस्न से लबरेज़ ईमान पर बार बार खंजर चले! ज़ख्म हों, और उनमे तड़प उठे! अब उठे तो दबे कैसे? बस इसी ओल-झोल में, गोल-मोल हुए पड़े थे हम!
और तभी आई जुबैदा! "आइये हुजूर!" बोली वो, हम खड़े हुए,
और चले उसके पीछे पीछे, अब मैं उसकी चाल का ही दीवाना हो चला था! कैसी अदा भरी चाल थी उसकी! मेरी तो नज़रें उसी पर रही! हम सीढ़ियां उतरे और फिर एक गलियारे में चले, और फिर एक कमरे में ले चली, "तशरीफ़ रखिये जाह!" बोली वो, हम बैठ गए उधर, बड़ा सा पलंग था वहां, और साथ में कुर्सियां, वहीं बैठे थे हम! "आप आराम करें, हम आते हैं!" बोली वो,
वो पलटी और चली, "जुबैदा?" बोला मैं,
और उठके चला उसके पास, "कहिये हुजूर?" बोली वो, "जा कहाँ रही हो?" पुछा मैंने, "आबिदा आ पहुंची हैं, वहीं जा रही हैं! आते हैं हम!" आँखें मौंच के बोली!
और चली गयी वो, मैं आ गया वापिस, बैठा शर्मा जी के साथ, "कोई आबिदा आई हैं" कहा मैंने, "यहां तो सभी आबिदा ही हैं!" बोले वो! मैं हंस पड़ा! तभी सामने से एक और औरत गुजरी, पीले रंग के लिबास में, लिबास बेहद झीना सा था, मैं तो उसको देखता ही रह गया! यहां तक कि दरवाज़े से निकल, बाकायदा देखने पहुंचा उसको! क्या नशीली चाल थी उसकी! मेरी नज़रें तो जा चिपकी उस से! अचानक ही उसने पलट के देखा, रुकी, और वापिस हुई! मेरा दिल धड़का! समझ नहीं आया कि क्या करूँ मैं! खड़ा हो गया मैं वहीं! आ गयी वो उधर ही! झीनी सी नकाब पहने थी! कितने सुंदर होंठ थे उसके, उस झीनी सी नक़ाब में से भी फूंक ही दे रहे थे! मुस्कुराई, "आदाब!" बोली वो, "आदाब!" कहा मैंने, "आप नए हैं यहां!" बोली वो, "जी, आज ही आया, परदेसी हूँ!" कहा मैंने, "मुझे मालूम है!" बोली वो, "ये तो अच्छा है!" कहा मैंने, "ईशाद हो तो कुछ अर्ज करूँ?" बोली वो, "ज़रूर!" कहा मैंने,
वो बात कर रही थी,
और मैं अपने नज़रो के हाथों से, खेल रहा था उसके उन गेसुओं से, जो लटके थे उसके अत'दा पर! ऐसा कपड़ा था, न दिखा ही रहा था, और न छिपा ही रहा था! ज़ालिम बन बैठा था! न देखते ही बने न देखते बिना बन पड़े! "आइये संग हमारे! इनायत करें!" बोली वो, उसी लम्हे, मुझे जुबैदा की याद आई!
खैर, मैं चला पड़ा साथ में उसके, दो कक्ष छोड़ने के बाद, ले आई एक कक्ष में! ओहो! कक्ष देखा, तो ये तो जैसे रक्क़ाशगाह थी! अंदरूनी वस्त्र पड़े थे, साज-सजावट का सामान, कपड़े, और न जाने क्या क्या! दीवारों पर तस्वीरें लगी थीं , सभी की सभी भड़काऊ! जैसे काम-शास्त्र का एक एक आसन का चित्रण कर दिया गया हो! "तशरीफ़ रखिये!" बोली वो, मैं बैठ गया! दरवाज़े का पर्दा सरका दिया उसने, फिर एक चिलमन के पीछे गयी, और लायी पानी! पानी पिया मैंने, पानी में भी गुलाब की पंखुड़ियाँ मिली थीं, जैसे गुलकंद डाला हो उसमे! "आप, आलिम हैं न?" बोली वो, अब नहीं छिपा सकता था मैं! "हाँ, आलिम हूँ!" कहा मैंने, मुस्कुराई, संग बैठी मेरे, "एक एहसान कीजियेगा?" बोली वो, "कहिये?" कहा मैंने, "कह दूँ?" बोली वो, "हाँ, कहो, आप........" बोला मैं, "आतिरा! आतिरा कहें आप हमें!" बोले, आतिरा! मायने ख़ुश्बू! सच में, ख़ुश्बू ही थी वो! मेरे दिल-ओ-दिमाग पर छाती हुई!
"कहें आतिरा?" बोला मैं, "संग ले जा सकते हैं?" बोली वो, "संग?" बोली वो, "हाँ! संग!" बोली को, "वजह?" बोला मैं, "वजह नहीं वजूहात!" बोली वो, "ओह, बताएं?" बोला मैं, "फिर सहर होगी, फिर शाम, फिर सहर, फिर शाम!" बोली वो, समझ गया उसका मतलब! "करार करती हूँ, जैसे कहेंगे, करूंगी!" बोली वो! मैं पिघल गया था उसकी सच्चाई सुन कर, वो वाकिफ़ थी! मैंने हाथ आगे बढ़ाया, और उसके गाल को छुआ, हाथ पकड़ा, और चूमा उसने! "हैदर साहब मान जाएंगे?" कहा मैंने, "वो हम पर रहने दीजिये!" बोली वो, "ठीक हैं अतिरा!" कहा मैंने, "हमें उम्मीद है!" बोली वो, मैंने हाँ में गरदन हिलायी अपनी, "अब चलता हूँ मैं!" कहा मैंने, "हम भी चल रहे हैं!" बोली वो,
और मैं निकला वहाँ से, संग वो भी मेरे, छोड़ा मुझे कमरे तक, मुस्कुराई, अपने दिल पर हाथ रखा, फिर मेरे होंठों पर, जब तक चूमा नहीं, नहीं हटाया हाथ!
और इठलाती हुई, पीछे देखती हुई, मुड़ गयी एक गलियारे में। आया कमरे में वापिस, और तभी वाद्य बजे, तबला बजा, एक ताल छिड़ी और फिर से बंद!
"हो गयी तैयारी!" बोले वो, "हाँ, लग तो रहा है!" कहा मैंने, मैं उठा, कमरे का मुआयना किया, एक खिड़की थी उसमे, बाहर झाँका उसमे से, तो, ताज़ा हवा अंदर आई! "इधर आओ शर्मा जी!" बोला मैं, वो उठ आये! "वो देखो, हमारा संसार! इसी संसार में एक ये संसार!" कहा मैंने, "हाँ! सही कहा!" कहा उन्होंने, "और अब हम जिस संसार में हैं, वो भी सत्य है!" कहा मैंने, "हाँ, उसी कालखण्ड में जा पहुंचे हैं हम!" कहा मैंने, "लेकिन ये भले हैं, बहुत भले!" कहा मैंने, "हाँ, न जाने हुआ क्या इनके संग?" बोले वो, "हुआ तो कुछ होगा ही" कहा मैंने, "यकीनन" बोले वो, बाहर से घोड़ों के हिनहिनाने की आवाजें आयीं भी! किसी ने हर्राया था उन्हें! कुछ लोगों की आपस में बातें करने की आवाजें आ रही थीं, शायद अब सभी उस जश्न की जगह जा रहे थे! बुलावा हमारा, कभी भी आ सकता था, और हम भी, तैयार ही थे! अब देखना था, उस आबिदा को, जिससे, ये महफ़िल, अब जवान होने को ही थी, बस कुछ ही लम्हों के बाद! खिड़की से आती सर्द हवा, जो ओंस में लिपटी थी, बदन में रोये खड़े कर रही थी! इस दुनिया से अलग-थलग ये हवेली, दुनिया में बस एक खंडहर की तरह मौजूद थी, असल में, ये जिंदा थी! इसको आज तलक आबाद कर रखा था उन सूबेदार हैदर साहब ने! उनके अर्दली, उनके कारिंदे, उनके मुलाज़िम, अमीन-ओ-उमरा, कनीज़ वगैरह, आज तलक यहां मौजूद थे! हाँ, जिसको
बुलाया गया था, वो आबिदा, जो, चराग़-ए-महफ़िल, और कुछ मेहमान, वो शायद किसी और जगह से ताल्लुक रखा करते थे, जो इस महफ़िल को रंगीन किया करते थे! हम जिस शब यहां आये थे, वो तेरस की रात थी, न जाने कब से ये हवेली, यूँ ही आबाद होती थी, रात रात भर, और खुर्शीद के आते ही, फिर से बर्बाद! फिर से गुमनामी के साये में वाबस्ता हो जाया करती थी। मैंने ऐसी कई हवेलियाँ देखी हैं, ये भी उनमे से एक थी, जो अब मेरे जेहन में, मुन्तिला हो चुकी थी! एक कभी न भूले जाने वाली हवेली! एक रूदाद, जो जिंदगी भर, अब मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में पैबस्त हो चुकी थी, मुस्तकबिल के लिए! दूर, वहां से दूर, एक सराय का ज़िक्र किया था असलम मियां ने, हो सकता है, उस सराय का ताल्लुक इस हवेली से हो, वक़्त नसीब हुआ,
तो उस सराय को भी देख्ना था! दो कोस बतायी थी, कोई अधिक दूर नहीं! खैर, हम यहां मेहमान थे, और ख़िदमत ऐसी हुई थी, कि, बार बार दिल यही मांगने वाला था, अब दिल का कोई दीन-ओ-ईमान नहीं होता, बिन पैदे का लोटा है, कभी यहां और कभी वहाँ! दिल को भी समझाना था! और तभी, तबला बजा, इस बार तो ताल लम्बी चली थी! इसका मतलब था, हमारा बुलावा बस आने को ही है। "आओ शर्मा जी! तैयार रहें!" कहा मैंने, "ठीक हैं!" बोले वो,
और हम बैठ गए वहीं! कोई लम्हा-दो-लम्हा ही गुजरा होगा, कि जुबैदा आई अंदर! उसके उस लिबास ने तो मेरी जान ही निकाल दी! ऐसा खूबसूरत और आतशी जिस्म की मलिका तो थी ही वो, उस लिबास ने और कत्ल-ओ-गारत मचा दी थी मेरे दिल में! "आफ़रीन!" निकला मेरे मुंह से! मुस्कराई, सलाम किया, "ज़हेनसीब, शुक्रिया!" बोली वो! "ऐसा तो मुझे कहना चाहिए जुबैदा! आपके आब-ए-जिस्म का तो मैं गुलाम बन जाऊं तो भी
अत्फ़ हो!" कहा मैंने, बेहद सलीके से मुस्कुराई! "क्या आप तैयार हैं?" बोली वो, "अश्फ़ाक़! जो ले चलें!" कहा मैंने,
"तो आइये हुजूर!" बोली वो,
और हम चल पे उसके संग! कई कमरे पार किये, एक के बाद एक, एक से बढ़कर एक सजावट!
और फिर आयीं सीढ़ियां! हम सीढ़ियां चढ़े!
और जब चढ़े! तो मेरी निगाह उसके खूबसूरत और और इश्तियाकी रिद'फां के उस क़ातिल, दाम-ए-हस, जुम्बिश पर मेरी निगाहें, आ चस्पा हुई! रहा न गया! हाँ जी! न रहा गया! कमर के गिर्द हाथ जकड़ दिए, वो हंस पड़ी! अब हँसे तो हँसे! शर्मा जी भी हंस पड़े! अब हंसें तो हंसें! मुझे तो जिस्मानी और ज़हनी सुकून पहुंचा ही! आ गए ऊपर! और फिर चले! इस बार तो सजावट का कहना ही क्या। रास्ते में, फूल ही फूल पड़े थे! इत्र की खुश्बू ने, झिंझोड़ के रख दिया! और हम आ गए उस जगह, जहां हमें बुलाया गया था! जैसे ही हम वहां उतरे, मेरी नज़र, सीधे ही, उस आबिदा पर पड़ी! मैं तो जैसे बुत बन गया! क्या कहूँ? बस इतना, मै हुस्न-ए-आबिदा कैसे बयान करूँ! वो ज़र-जेबा रुखसार! जैसे, शम्स की सारी ज़िया, बद्र की चांदनी, पैबस्त हो गयी हो उसके रुखसार में! जाज़िब इतना कि, झीनी नक़ाब से भी गुसार हो, दिल चीर जाए उसका एक ही नश्तर-ए-निगाह! फ़ज़ भी न हो! कोई नालां भी न हो! नादीदगी ऐसी बढ़े, कि तिश्नगी पीछे छूट जाए! हाथ दिल पर रख कर कहता हूँ!
अपने ईमान को दांव पर रख कर कहता हूँ! एक नज़र आपकी जो छू जाए उसके रुखसार से! क़यामत तलक न लौटे! न लौटे! सोख ले वो आपसे आपकी खुदी! गोया आप कभी थे ही नहीं! किस तरह काटी मैंने वो डोर-ए-नज़र, न ही पूछो तो अच्छा! कहने बैठा, या लिखने बैठा,
तो सफ़ों पर सफ़े भरते जाएंगे,
और एक दीवान निज़ाम में आ जाएगा! कम से कम चालीस होंगे वो! बीच में, एक मोटा सा कालीन बिछा था, सागर रखे थे आसपास,
आबिदा के पास, उसकी क़नीजें बैठी थीं, उन्हीं में से एक थी वो आतिरा! जो चोरी-चोरी, मेरी नज़रों से, नज़र टकरा लिया करती थी, एक तबस्सुम के संग! उस आबिदा के चारों ओर गद्दे
बिछे थे, लोग वहीं बैठे थे, उसको घेरकर, लोग भी ऐसे कद्दावर, जैसे किसी अखाड़े में ऐय्याशगाह खुल गयी हो! सभी पहलवान सरीखे!
और वहीं, पास में, एक बड़ी सी मसनद रखी थी, इतनी बड़ी, कि किसी बड़े से सोफे की मानिंद!
और उस कमर लगाए, बैठे थे वो सूबेदार हैदर साहब! सभी ने हमें देखा! खड़े हुए, आदाब हुआ, हमने भी आदाब किया,
और एक मुलाज़िम ने, हमें बिठाया एक जगह! शानदार फ़ारसी कालीन थे वो, करीब छह इंच मोटे! नीले और पीले रंग की डोरों से सिये गए थे वो! मुलायम इतने, कि लगे पानी पर बैठे हैं! सारे के सारे खुश थे! बहुत खुश! शायद, कई अरसों के बाद कि, मेहमान बना था उनका! शायद इसीलिए! हमारे सामने शमा रखी गयी,
मेवे रखे गए, मिठाई रखी गयी, एक बात और, पेड़े रखे गए। अब हमारा त आरुफ़ दिया गया सूबेदार साहब ने! सभी ने हमारा मुस्कुरा कर, खैरमकदम किया। उस वक़्त तो, हम अज़ीम-ओ-तरीन मेहमान बन बैठे थे! हमने क़िस्मत पर, निस्बत की लूट डालते हुए! तबले की ताल उठी, बेहतरीन! मज़ा आ गया! क्या बजाया था तबलेबाज ने! "नौश फ़रमायें जनाब!" बोला एक, जो साथ बैठा था हमारे, "ज़रूर! शुक्रिया आपका!" कहा मैंने, "किबला, आप मेहमान हो हमारे! इब्तिदा करें, एहसान करें हम पर!" बोला वो, "एहसान कैसा जनाब!" कहा मैंने, और हमें एक एक पेड़ा उठा लिया, मुंह में जैसे ही टुकड़ा रखा,
क्या लज़्ज़त! क्या मिठास! क्या खुश्बू! दादी और नानी की वो पंजीरियां याद हो आयीं! खालिस! बेहतरीन! पूरा ही खा गए एक बार में! रहा ही न गया! देसी घी क्या होता है, ये तब जाना! "बन्दे को सुलेमान कहा जाता है, महकमे में, अमीन की हैसियत से हूँ!" बोला वो, "अरे वाह सुलेमान साहब!" कहा मैंने, "अब साहब कह कर, शर्मिंदा न करें!" बोला हँसते हए! "आप अमीन हैं! इसीलिए!" कहा मैंने, "इस वक़्त आपका मुलाज़िम हूँ!" बोला वो, "अरे नहीं जनाब, ऐसा न कहें!" बोला मैं, "ये तो आपकी ज़र्रानवाज़ी है साहब!" बोला वो,
"आप बार बार ऐसा न कहें अमीन साहब!" कहा मैंने, फिर उसने, पास में खड़ी एक कनीज़ से कुछ कहा, कनीज़ गयी एक कोने में, एक तश्तरी और दो गिलास, और एक मीना, ले आई, अब परोसी शराब उसमे, गुलाबी शराब! शायद बेपनाह हुस्न की परछाईं छूने से शराब भी शर्मसार हो, गुलाबी हो गयी थी! शराब परोस दी गयी! जब चांदी के उन गिलासों में, शराब गिरी, तो क्या शरार भरी ख़ुश्बू उडी! जैसे अंगूर में से आती है! ये अंगूर की ही तोड़ी होगी! यही लगता था!
और फिर उस कनीज़ ने, तश्तरी में रखे गिलास, बढ़ाये हमारी तरफ, हमने उठाये, और मैंने तब पहले घुट भरा! हम्म्म! क्या स्वाद था! कड़वापन तो क़तई नहीं! बेहतरीन-ओ-अव्वल शराब थी वो,
नज़र उठती तो रुख्सार-ए-आबिदा से जा लिपटती, और फिर, वापिस ही न होती! जुहराह-ज़बीं ने, क्या क़ातिलाना जिस्म चुना था! गोशा-गोशा, दिल की चीर देने वाला, जिस्म को निचोड़ देने वाला! उसका आइना-रूह, जैसे, रूह को,
आब-आब कर दे! माह-लका! माह-लका! गर जिस्म से उसके, जिस्म अपना, छ जाए, उफ्फ्फ़!! तो जाह-ओ-जलाल से जाए! ताबान-ए-जिस्म, तालीफ़ पैदा कर दे जिस्म में, जेहन में! मैं तो घुट भरना भूल गया था! याद दिलाया शर्मा जी ने! भरा दूसरा चूंट! और नज़रें, फिर से जा टिकी उस ज़ारदार-ए-हुस्न पर! ऐसी दौलत-ए-हुस्न! ऐसी फ़ाख़ीर! फ़ासिक होने को जी करे लम्हा लम्हा! हटाईं निगाहें! और जाम में बची, वो शराब भी हलक में उड़ेल दी! शर्मा जी भी निबटा चुके थे अपना जाम, जाम ख़तम हुआ, तो रखा तश्तरी पर! "बेहतरीन आब-ए-आब!" बोले वो, "कोई शक नहीं!" कहा मैंने,
और तभी गोश्त परोसा गया! खुश्बू ऐसी, कि आँखें बंद हों, खाना तो दूर! क्या मसाला और क्या तरीका, परोसे जाने का, यही तो है मुगलई खाना! यही हैं। इस दुनिया में हिन्दुस्तान का नाम है इस से! ज़ायका ऐसा, कि एक बार खा लिया तो रहा नहीं जाएगा! "लीजिये!" बोले शर्मा जी! "हाँ, लेता हूँ!" कहा मैंने,
और उठकर, खाया, माशाअल्लाह! इस से बेहतरीन और क्या होगा! ग़र उन जिन्नात को छोड़ दें! इस ज़मीन पर तो कहीं नहीं! न ये मसाले, न ये ज़ायक़ा न ये लज़्ज़त और न तरीका! "अरे लीजिये न, आप शर्म कर रहे हैं क्या जनाब?" बोला सुलेमान! "अरे नहीं!" कहा मैंने, "बानो!" बोला वो, बानो आई हमारे पास, तश्तरी में रखे दोनों गिलासों में, मीना से, फिर से भर दिए गिलास! और मुस्कुराते हुए,
मोटी मोटी सुरमयी आँखों का नशा डाल, रख दिए सामने हमारे!
और तभी शुरू हुआ तराना! तराना उस आबिदा का! एक नज़्म थी, मुझे तो अरबी या फ़ारसी की लगी, चंद अलफ़ाज़ आये समझ, और वहाँ जो सुने, वही गरदन हिलाये अपनी, जैसे दौर-ए-मुशायरा चल रहा हो! वाह-वाह! वाह-वाह! सब ओर से हो! और हम भी बोल दें! अब बोलने से गुरेज़ क्या! आवाज़? ऐसी आवाज़ जैसे ख़ल्क में बस, एक ही आवाज़ हो! दिलों को चीर देने वाली, कुल्फ़त में डाले, सुनूं? या न सुनूं? एक तरफ शराब! एक तरफ शराब! अब नाचीज़ करे तो करे क्या!
"क्या आवाज़ है!" बोले शर्मा जी! "सच में! कादिर!" कहा मैंने, "इंतजामात तो देखिये!" बोले वो, "देख रहा हूँ!" कहा मैंने, "ये पानी के झाले हैं क्या" बोले वो, "यही लगता है!" कहा मैंने, झाले, आज के पंखे, तब हिलाने वाले, पानी से भीगे! "हवा भी सर्द है इनसे!" बोले वो, "हाँ, ख़ादिम, लगे हैं इसी काम पर!" बोला मैं, महफ़िल जवान हो चली थी, सूबेदार मज़ा ले रहे थे, पाँव थिरका रहे थे अपना! कभी-कभाई, गुलाब की पंखुड़ियाँ बिखेर देते आबिदा पर! फिर कुछ रक्काशाएं उठी,
और शुरू हुआ उनका नाच! नाच ऐसा, कि आज की औरतें कर लें तो, गाँठ पड़ जाए बदन में, पेशियाँ फट जाएँ, हस्पताल ही ले जाना पड़े! हड्डियां भी चटक जाएँ तो कोई बड़ी बात नहीं!
वे अपनी टांगें, अपनी जांघे और कमर, ऐसे मटकाएँ, कि नज़रें उलझ जाएँ उनके बदन से! एक तो जिस्म ऐसा, कमर ऐसी पतली कि मूरत सी लगें,
और जब रिद'फां में जुम्बिश हो, तो अच्छे से अच्छा दम साधे! कंधे उचका उचका के देखे, सामने वाले को झुकने को कहे! नशा ही नशा! नशे का आलम!
नशे का जलवा!
और शराब डलवाई मैंने! जिस्म गरम होने लगा था धीरे धीरे!
अब तो लगाम छूटे ही छूटे! मैंने और शराब पी, शराब, बहतरीन थी! नशा भी था और सुरूर भी, लेकिन ऐसा नहीं, कि दो के चार दिखने लगें!
और तब, आराम से, जिस्म में गाँठ बांधे, वो नाच देखता रहा! वे थकीं तो और उठीं, वहीं लहजा, वही थिरकन! वही नज़ाकत और वही कुव्वत! अब तो भाई, कम से कम मेरे तो, जिस्म में आग और ज़हन में कसक पैदा हो चुकी थी!
शराब-ओ-शबाब के ये मेल, खेलने वाला था कुछ खेल! आर तब वो रक़्काशाएं! उठ कर, चलने लगीं मेहमानों के पास! उनके पास जाती, थिरकती, जिस्म के हिस्से छुअलाती, हंसी लुटाती, तबस्सुम बांटती!
और शबाब बिखेर देती! मुंह में पानी आये! इत्र नशा चढ़ाये! शराब भड़काए, जिस्म में आग लगाये! "आज तो तोता उड़ा शर्मा जी!" कहा मैंने, "संभाल के रखिये!" बोले हंस कर! "कैसे संभाल कर रखू!" कहा मैंने, "क्यों?" पूछा उन्होंने,
"जब पिंजरा ही बगावत कर दे, तो कौन संभाले!" बोले वो, "अब पिंजरे को समझाइये!" बोले वो, "कैसे समझाऊं?" बोला मैं, "कैसे नहीं?" पूछा उन्होंने, "जब बगावत ही अच्छी लगे!" कहा मैंने, "तब तो तोता उड़ा! शर्तिया!" बोले वो, "यही तो कह रहा हूँ!" कहा मैंने! "अब जब हमाम के मज़े लोगे, तो तोता तो उड़ेगा ही!" बोले, हँसते हुए! "यहाँ जान पर बनी है और आप हंस रहें हैं!" कहा मैंने भी, मुस्कुराते हुए।
और भी एक रक्क़शा आई मेरे पास! आई, मुस्कुराई, बदन में जुम्बिश दी, और उसके नुवान छू गए मुंह से मेरे!
अब क्या था! शराब सर चढ़ के बोले! शबाब हदें तोड़े! पकड़ लिया उसे!
खींचा,
तो बैठ गयी जांघ पर मेरे! जाम बनाया और, ऊँगली से मेरे होंठ खोल, जाम पिलाया! मैंने एक घुट ही पिया! सारा पी लेता, तो उठ जाती! दिल बेईमान हुआ था उस वक़्त! होशोहवास, हवेली से बाहर चले गए थे मेरे तो! मैंने कमर से पकड़ा था उसको, उसकी कमर में, उसकी पोशाक की, फीत पकड़ ली थी मैंने, उसने उठना चाह तो नहीं उठने दिया मैंने, समझ गयी मेरा मतलब!
चेहरा लायी करीब! मेरे गाल पर चूमा,
और कान में धीरे से कहा, "रात अभी जवान है मेरे मोहसिन!" और उठ गयी! शर्मा जी, मुझे देख, हंसें! अब हंसें तो हंसें! शायद, हमाम के पानी में भी नशा ही था! नशीला नाच चल रहा
था! तड़कता-भड़कता! और हम यहां अकड़े जा रहे थे! अब कहाँ देखी ऐसी महफिलें जहां शबाब परोसा जाता हो इस क़दर! आप बटोरने वाले बनो! शबाब लुटाने वालो की कमी नहीं, बस, हॉफना नहीं! नहीं तो तोता उड़ा जाएगा, खाली पिंजरा, धरा का धरा रह जाएगा! हुस्न का कुछ बिगड़ता नहीं, शबाब पर आंच नहीं आती, मारा जाता है तो जोश! इसीलिए जोश में ग़र होश मिला हो, तो शबाब आहें भरने लहता है, और दब कर आता है आपका जोश काफूर करने को! अभी, फ़िलहाल तक, मेरे जोश और होश, कायम थे, लेकिन गाँठ में गुंजाईश आने लगी थी, कब खुल जाए, पता नहीं! और गाँठ बाँधी भी कब तक जाए! बस शुकरा ये, कि जोश बना रहे
और होश टिका रहे! नहीं तो तोता फुर्र! और फिर, सब बेमायनी! खेलो अब पिंजरे से! गाओ तराना! इंतज़ार करो तोते के वापिस आने का! तो अभी तक तो लगाम जब ढीली होती, तो कस ली जाती थी, आगे का हाल,आगे ही पता! वे नाच रही थीं, थिरक रही थी! अय्याशी अपने उफूक़ पर थी! "वाह! क्या बात है!" मैंने कहा, "आपको पसंद आ रहा है सब!" बोले वो, "अमा मियाँ आप भी कैसी बात करते हो!" कहा मैंने, "चेहरा बता रहा है आपका!" बोले वो, "बताएगा नहीं!" कहा मैंने, हंस पड़े वो, ताली पीट कर!
और तब तराना ख़तम हुआ आबिदा का, आबिदा उठी और हर तरफ सलाम किया! मैंने तो खड़े हो कर सलाम किए! ताकि एक नज़र का ज़र्रा हो जाऊं उसकी! सच में, मुझे आबिदा उस वक़्त मेरी उक़दाह-कुशा सी लगी!
हाथ लग जाए तो क्या बात! ये बात और वो बात! हर बात की बात! अब थोड़ा आराम का वक़्त हुआ, जाम उठाने का,जाम बहाने का! लेकिन जेहन में यहां तो गर्द-बाद उठे थे! सीना सा मलता रहा मैं! "हुजूर!" आवाज़ आई एक, बड़ी ही दाद-ओ-दाहिश सी! मैंने नज़र उठा के देखा, वही कनीज़ थी, हाथ में मीना थामे, मैंने गिलास आगे कर दिया अपना! उसने शराब परोस दी, और फिर, जाकर, एक तश्तरीले आई, शाही-कबाब थे उसमे और क्या चाहिए था! मैंने खाए और शर्मा जी ने भी खाए, लज़्ज़तदार थे, तो और ले आई हमारे लिए! मैंने जाम खाली किया और रख दिया जाम वापिस! "बेहतरीन महफ़िल है सूबेदार साहब की!" कहा मैंने, "हाँ! किसी चीज़ की कमी नहीं!" बोले वो, "हाँ, कोई कमी नहीं!" बोला मैं, "पुख्ता इंतज़ामात किये गए हैं!" बोले वो, सभी बादाहकश थे, लगे हुए थे जाम से जाम टकराने में!
और तभी हमारे पास आया असलम! "सलाम हुजूर!" बोला वो, "आये भाई असलम,थे कहाँ आप अभी तक?" पूछा मैंने, "ख़िदमत में लगा था हुजूर!" कहा मैंने, "अच्छा! फ़रमायें!" कहा मैंने, "वो सूबेदार साहब याद फरमा रहे हैं!" बोला वो, मैं नज़र उठा के देखा,
तो तलबगार निघाओं से देख रहे थे हमें वो! हम उठे फिर!
और चले उन्हीं की तरफ! पहुंचे वहाँ! सलाम हुई, और हमें जगह दी बैठने की अपने संग! "कोई तकलीफ़-ओ-बदी तो नहीं मेरे दोस्त!" बोले वो, "नहीं जनाब! कतई नहीं!" कहा मैंने, "आपकी बेपायानी से आपने कर्जमंद कर दिया!" बोले वो, "ऐसा न कहें सूबेदार साहब!" कहा मैंने, "आप इस नाचीज़ के, हैदर कह सकते हैं!" बोले वो,
और तभी इशारा किया एक कनीज़ को, कनौज़ उठी और दौड़ पड़ी एक जगह के लिए,
और ले आई मीना, जाम और खाने को न जाने क्या क्या! कभी देखे भी नहीं, कभी सुने भी नहीं!
खैर, हमने खाए, खूब खाए, ऐसे, कि जैसे पता नहीं कब के भूखे हों! और शराब के जाम पीते रहे! शराब बड़ी ही प्यारी थी, सुरूर बनाये हुए थी, होश खोने नहीं दे रही थी!
और तब, उन्होंने आवाज़ दी उस आबिदा को, जो झीने से कपड़े में, कैद हुए बैठी थी, उठी, और ऐसी चाल से चली, कि दिल कुचल ही जाए उसके क़दमों तले!
लेकिन एक आशिक़ क्या करे, उसके लिए तो ये जन्नत से कम नहीं! बैठ गयी, कैसे? अपनी एड़ियों पर! मैं तो उसका जिस्म ही देखे जाऊं कैसा शफ़्फ़ाफ़ जिस्म था! गठा हुआ! कसा हुआ! कहीं भी चर्बी का नाम नहीं! गुदाज़ और हबाब की मानिंद! उसने वो झीना कपड़ा हटाया!
और जब नकाब हटाया,
तो मुझ पर क़ज़ा टूटी! इंसानी खूबसूरती, ऐसी? कहीं कोई कैद हूर तो नहीं? कोई गैबी ताक़त तो नहीं? अब्रू ऐसे करीने से बने, कि बनाने वाले ने, अपनी आँखें शायद बनाने में ही कुर्बान कर दी हों! होंठ ऐसे, ऐसे दहकें जैसे कचनार की कली, जेठ के मौसम में दहकती है! रुखसार ऐसा, जैसे ज़िया-ए-आफ़ताब से नवाज़ा हो! आब्सार ऐसे, क्या कहूँ? जैसे नीलम के नग सोने में लगा दिए गए हों! जो लश्कारे मार मार, सीना छलनी कर दें देखने वाले का! हया ऐसे चकाँ, जैसे कायनात की सारी हया, कैद कर ली हो उन आब्सार में! मैं तो इसी हुस्न की बानगी में,
आब-ए-तल्ख़ का तलबगार हो उठा! झट से जाम बनवाया और हट से हलक़ में उड़ेला! "आबिदा! ये हमारे मेहमान हैं!" बोले वो,
आबिदा ने, झुक कर सलाम किया! मेरा मन तो छूने को हो आया उसके हाथों को! "आज इनकी ख़िदमत कीजिये!" बोले वो! "ज़रूर आली!" बोली आबिदा! फिर पलटी वो,
और उसी नशीली चाल से चलते हुए, जा बैठी अपनी जगह! "आज की महफ़िल, आपके नाम!" बोले सूबेदार! "का इल कर दिया आपने तो!" कहा मैंने, "का'इल तो हम हुए!" बोले वो,
"ये तो बड़प्पन है आपका!" कहा मैंने, वे चुप हुए, ऊपर देखा फिर हमारी तरफ देखा! "अरसों से वीरानी है ये हवेली!" बोले वो, "जानता हूँ" कहा मैंने, "आप आये, मेहमान बने, ये हमारा अज़ीम मुक्क़दर!" बोले वो, "जानता हूँ हैदर साहब!" कहा मैंने, "आप समझ गए होंगे!" बोले वो, "यक़ीनन!" बोला मैं, "हमारे हबीब ही रहना आलिम साहब!" बोले वो, "मैं इस बाबत बात करूंगा आपसे" कहा मैंने, "मुझे भी इंतज़ार है!" बोले वो, "जानता हूँ!" कहा मैंने, "और हाँ, आपकी हवेली है! जो हूँ, जिस लायक हूँ, कुबूल लीजियेगा!" बोले वो,
आँखों में, एक अजीब सी चमक लिए! मैंने हाथ थामे उनके!
और फिर उठा! "बात करूंगा!" कहा मैंने,
और हम, वहीं जा बैठे। थोड़ी देर में ही, दूसरा दौर हुआ शुरू! अबकी बार, दुसरा! अब हुस्न की बारिश होनी थी! कोई रक्काशा वहाँ नहीं थी! कोई थोड़ी देर बाद ही, वे आ पहुंचीं वहाँ! सफ़ेद सा लिबास पहने, कम से कम बीस तो रही होंगी!
तबला बजा!
और उन रक्काशाओं ने, अपने अपने जिस्म को, आज़ाद कर दिया उस लिबास से! मैंने झट से जाम भरवाया अपना! अब छेड़ी बजाने वालों ने एक अलग ही ताल! ताल ऐसी, कि जैसे सारा माहौल ही नशीला कर दिया हो! रक़्काशें ऐसे नाच रही थीं की जैसे उनका जिस्म रबर का बना हो! कमर को ऐसे घूमती की देखने वाले की गरदन में बल जाए! कुछ ऐसा ही हाल मेरा भी था, मुझे एक रक्काशा सबसे ज़्यादा पसंद आ रही थी, मेरी नज़रें उसे ही टटोल रही थीं! अब क्या था! अब बदन में गरमी बढ़े! गिरेबां-ओ-आस्तीन से धुंआ सा निकले! बदन में गरमी बढ़े, अब गरमी बढ़े, तो आशुफ़्ता हो बदन! अंदरूनी तकलीफ़ हो! अंदरूनी, हाँ, अंदरूनी तकलीफ़, बड़ी ही अजीब सी तकलीफ़ हुआ करती है वो! इसमें,जी के दो फाड़ हो जाया करते हैं! एक हाँ में और एक न में अड़े रहता है! अब करें क्या? मन करता है कि हाँ वाले का साथ दे, और कभी लगे, नहीं, न वाला सही कह रहा है! तो मुसीबत का वाइज़ है ये! करें तो करें क्या! और यहां, वो तकलीफ़ आज, मोम की तरह से पिघलाये जा रही थी! तभी पानी की छींटे से पड़ीं हम पर, मैंने उधर देखा, तो किसी ने कुछ रक्काशाओं के ऊपर, शराब उड़ेल दी थी, वो नाच रही थीं तो उसके बदन से छटक कर, कुछ बूंदें हम तक भी आ गयी थीं! अब तो रक्काशाओं ने बचे-खुचे कपड़े भी उतार दिए, वो भी नाच-नाच में ही ऐसा नाच मैंने देखा तो था, पर ऐसा तड़कता-फड़कता नहीं! ये तो शाही-अंदाज़ था! उधर तड़क-फड़क, इधर धड़क धड़क! वे बार बार अलग अलग शख़्स के पास जा जा उसको बेक़स कर दिया करती थीं! और ऐसे ही, मेरी पसंदीदा रक्काशा का आना हुआ! तो मैंने तो कौवे की मानिंद मारा झपट्टा और पकड़ लिया उसका हाथ! वो समझ गयी थी, इठलाते मेरी गोद में बैठ गयी! आमने-सामने मुंह था हमारा, माथे से माथा मिलाया और देखे मुझे, मैं उसके देखू! उसने मेरी गरदन के इर्द-गिर्द बने बाजू डाले! और जैसे ही हुई मेरे करीब उसके नुवाँ जैसे ही छुए, मैं उसको ले खड़ा हो गया! सभी ने देखा! अब उसने अपनी टांगों से, मेरी कमर को जकड़ा! बहुत ज़ोर से! उसने चूमा चाटा! और झूठ क्यों कहूँ, मैंने भी! और छोड़ दिया उसे! वो थिरकती हुई चली गयी वापिस! मैं जैसे ही बैठा, मेरा जाम बन चुका था। आव देखा न ताव! जाम उठाया और सीधा हलक से नीचे! "क्या बात है!" बोले शर्मा जी! मैं हंस पड़ा!
.
"हमाम में सब नंगे!" कहा मैंने, "वो कोई कहने की बात है!" बोले वो, मेरे कंधे पर हाथ मारते हुए! "आप जाम नहीं ले रहे?" पूछा मैंने, "रहा हूँ!" बोले वो, जाम दिखाकर, "आज तो खूब रंग जम रहा है!" कहा मैंने, "जमाओ!" बोले वो, करीब चालीस मिनट तक ऐसा ही होता रहा, कुछ रक्काशाएं थकती, तो और आ जाती! जाम हीजाम! अय्याशी ही अय्याशी! तभी मेरे पास, एक कनीज़ आई, "बोलिए?" बोला मैं, "आली, आइये ज़रा!" बोली वो, "कहाँ?" पूछा मैंने, "आइये तो सही!" बोली मुस्कुरा कर, "जाइए, जाइए!" बोले शर्मा जी, मैं उठा, और चला उसके संग, अब तो सभी कमरों से आवाजें आ रही थीं! हंसी-ठिठोली की! "यहां आइये हुजूर!" बोली वो,
और ले चली संग! ले आई एक कमरे के पास, और गयी कमरे के अंदर, आई वापिस, "आइये हुजूर!" बोली वो, मैं चला अंदर! कमरा देखा, तो दंग रह गया! बेशकीमती चीजें थीं वहाँ!
