वर्ष २०१२ ब्यावर की...
 
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वर्ष २०१२ ब्यावर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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फरवरी का महीना था वो, फाल्गुन अपनी चहक पर था! गर्मी की सुगबुगाहट, आने लगी थी, पेड़ पौधों पर जवानी चढ़ी थी! खुमार था एक अलग ही! साँझ से थोड़ा पहले का समय था, और अभी भी भँवरे उन कलियों से खिलवाड़ कर रहे थे! जो अभी खिली भी नहीं थीं! और जो खिल गयीं थीं, उनका तो मर्दन हुआ था दिन भर! तोरई की बेल पर खिले पीले पीले फूलों को, चींटी और चीटों ने बेहाल कर रखा था। कुछ रहा-सहा, फाल्गुनी पवन ने कर दिया थी! गिरा दिए थे कई फूल! तभी मेरे पास शर्मा जी आये, वो किसी को अपने साथ ला रहे थे, और ले आये थे, नमस्कार हुई उनसे! उनका नाम सुदेश है! उम होगी करीब पैंतालीस के आसपास, हंसमुख इंसान हैं! शर्मा जी के जानकार हैं और शर्मा जी के साथ ही कभी नौकरी किया करते थे,आज 

भी उनके बहुत अच्छे संबंध हैं शर्मा जी से! इसीलिए उन्होंने शर्मा जी से संबंध साधा था, कोई समस्या ही रही होगी जो ब्यावर से यहाँ चले आये थे! "आइये सुदेश साहब!" कहा मैंने, "धन्यवाद गुरु जी!" बोले वो, और बैठे, कुछ लेकर आये थे, मुझे दिया, "ये तिल-पट्टी है गुरु जी!" बोले वो, "अरे वाह! बहुत बढ़िया!" कहा मैंने, पानी आया और उनको पानी पिलाया गया, पानी पिया हमने फिर, "और सुनाइए!" कहा मैंने, "एक समस्या लेकर आये हैं सुदेश जी!" बोले शर्मा जी, "बताइये?" पूछा मैंने, "मेरा बेटी है राधिका, एक अजीब सी समस्या से ग्रस्त है, हमें तो क्या डॉक्टर्स को भी कुछ समझ नहीं आ रहा है, बहुत इलाज करव लिया, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ" बोले वो, "क्या समस्या है बिटिया को?" पूछा मैंने, "जब सुबह सो कर उठती है, तो कभी गालों पर, कभी गरदन पर, कभी कमर पर, कभी टांगों पर, ऐसे निशान होते हैं जैसे किसी ने काटा हो उसे, वो फिर ज़ख्म बन जाता है, दर्द होता है और खून रिसता है कई कई बार तो" बोले वो, "डॉक्टर्स क्या कहते हैं?" पूछा मैंने, "उनको कुछ समझ नहीं आ रहा, कहते है की कोई त्वचा-रोग है, लेकिन निदान नहीं कर पा रहे" बोले वो, "कुछ भी लाभ नहीं हुआ?" पूछा मैंने, "नहीं गुरु जी" बोले वो, "ऐसा कब से हो रहा है?" पूछा मैंने, "करीब चार महीने हो गए, पूरे बदन पर निशान हैं बेचारी के, पढ़ाई, उसका नुकसान हो रहा है, 

और उसकी हालत, दिन-ब-दिन खराब ही होती जा रही है" बोले वो, "सम्भव है कि कोई त्वचा रोग ही हो, लेकिन क्या आपने कोई ऊपरी-इलाज करवाया?" पूछा 

मैंने, 

"तभी आपकी शरण में आया हूँ गुरु जी, करवाया था, कई लोगों के पास गया, कोई फायदा नहीं 

हुआ, हाँ, एक ने कुछ बताया कि कोई प्रेत है, उसके संग, वो ऐसा करता है, और तो और, सके 

वस्त्र भी सुबह, अस्त-व्यस्त मिलते हैं" बोले वो, "ओह! तो इलाज नहीं किया उसने?" पूछा मैंने, "किया, लेकिन वो पकड़ में नहीं आया" बोले वो, "अच्छा, क्या तस्वीर है उसकी आपके पास?" पूछा मैंने, "हाँ जी, लाया हूँ" बोले वो, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और अपनी जेब में रखे कागज़ों से, एक तस्वीर दी मुझे, मैंने ली, बड़ी सी सुंदर और मासूम सी बिटिया है राधिका, उन्नीस बरस की है, बेचारी ऐसी तक़लीफ़ झेल रही थी, मैंने दी तस्वीर वापिस, 

और इतने में चाय आ गयी, चाय पीने लगे हम फिर, साथ में, नमकीन थी, वही ली, सुदेश जी का अपना छोटा सा व्यवसाय है, बिजली से संबंधित उपकरणों का, परिवार में माता-पिता, दो बेटियां और एक बेटा है, बड़े भाई जोधपुर में रहते हैं, सरकारी नौकरी है उनकी, कुल मिलाकर, सुदेश जी का परिवार सुख से रहता है, लेकिन अपनी बेटी राधिका के विषय में बहुत चिंतित थे, साफ़ झलकताथा उनके चेहरे से! चाय पी ली हमने, रख दिए कप प्लेट में, सहायक आया और ले गया सामान सारा, "गुरु जी? अब आपकी कृपा चाहिए, एक बार आ जाएँ और देख लें, मैं आभारी रहूंगा जीवन भर 

आपका" बोले वो, हाथ जोड़कर, "आप हाथ न जोड़ें! चिंता न करें आप! मैं आता हूँ सुदेश साहब!" कहा मैंने, पाँव पड़ने लगे! आँखों में पानी आ गया, एक पिता की दशा क्या होती है अपनी संतान के दुःख को देखकर, जाना जा सकता था, मैंने हाँ कह दी थी, कम से कम देखा तो जाए कि समस्या है क्या, अगर ऊपरी है, तो इलाज कर दूंगा, आगा कोई रोग है, तो निदान भी हो जाएगा, इसीलिए मैंने हाँ कही थी! "गुरु जी, कब स्वागत करूँ आपका?" बोले फिर से, हाथ जोड़कर, "मैं कल ही निकल लेता हूँ!" कहा मैंने, "मैं साथ ही चलता हूँ आपके, बहुत मेहरबानी गुरु जी!" बोले वो, "ठीक है, कल सुबह ही निकल चलते हैं" कहा मैंने, "जी गुरु जी!" बोले वो, "चिंता न करें, समस्या है, तो निदान भी है!" कहा मैंने, 

"जी गुरु जी" बोले वो, "अच्छा, किसी और को तो ऐसी समस्या नहीं?" पूछा मैंने, "नहीं गुरु जी" बोले वो, "राधिका को कुछ दिखाई तो नहीं देता?" पूछा मैंने, "दिखाई तो नहीं देता, लेकिन उसने बताया है कि कई बार रात को उसको लगता है कि कोई लेटा है उसके साथ!" बोले वो, "अच्छा, कितनी बार हुआ ऐसा?" पूछा मैंने, "दसियों बार, वो तो अकेली भी नहीं बैठती डर के मारे" बोले वो, "अच्छा, हाँ, डर लगता होगा" कहा मैंने, "हाँ गुरु जी" बोले वो, फिर कुछ और बातें हुईं, कुछ घर की और कुछ आम बातें, उसके बाद विदा ली उन्होंने, शर्मा जी मेरे संग ही रह गए थे, उनको बाहर तक छोड़ने गए, उनके एक जानकार ने गाड़ी भेज दी थी, गाड़ी बाहर ही खड़ी थी, वापिस गए उसी गाड़ी से, और शर्मा जी आ बैठे मेरे पास! "ये तो कोई प्रेत-बाधा लगती है" बोले शर्मा जी, "अब तक तो ऐसा ही लगता है" कहा मैंने, "पकड़ो इस माँ के * को!" बोले वो, "हुआ, तो पकडूंगा!" कहा मैंने, "बहन के ** को उस पेड़ पर लटकना, उलटा, जो आते जाते प्रेत साले की ** पर मोहर छा!" बोले वो, हंसा मैं, लहजा ऐसा ही था कहने का, गुस्सा आ गया था उन्हें "हाँ, ऐसा ही करूँगा!" कहा मैंने, शाम हुई, सामान लाये ही थे, तो हो गए शुरू हम, रात वहीं ठहरने वाले थे, खाना खाया और सोये आराम से हम! सुबह हुई, निवृत हुए, और तैयार हुए, आवश्यक सामान रखा हमने, कुछ ज़रूरी भी, और कोई सात बजे, सुदेश जी का फ़ोन भी आ गया, उन्होंने टिकट करवा दी थीं और आठ बजे लेने आ रहे थे हमें, हम भी तैयार ही थे, चाय-नाश्ता किया और तैयार हो, बैठ गए, ठीक आठ बजे सुदेश जी आ गए,


   
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श्रीशः उपदंडक
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नमस्कार हुई और और हम बैठ लिए गाड़ी में, सीधा चले स्टेशन, वहाँ से गाड़ी में सवार हए, गाड़ी में ही भोजन किया, आराम किया और हम कोई शाम के बाद, उतर गए हम ब्यावर! 

खूबसूरत शहर है ब्यावर! राजस्थान की गौरवमयी संस्कृति का एक नगीना! राजस्थान वैसे ही अपने आप में एक समृद्ध प्रदेश है! कोई कोना नहीं इसका जहां इसमें भारतीयता और संस्कृति न मिलती हो! मुझे बहुत पसंद है राजस्थान, मेरा लगाव है इस से! मुझे बहुत अच्छा लगता है यहां आना और घूमना! वहां उतरे और वहां से सवारी पकड़, उनके घर के लिए निकले, घर उनका स्टेशन से दूर है, पुश्तैनी मकान है और वो भी गाँव में, शहर से अलग, कोई दो घंटे और लगे, औ फिर हम उतरे वहां, सुदेश जी ने घर में फ़ोन कर ही दिया था कि हम कोई ग्यारह बजे तक, घर पहुँच जाएंगे, 

और हम पहुँच गए! पानी पिया, हाथ-मुंह धोये, और फिर पानी पिया, घर के सभी लोग मिले, उनके माता-पिता भी 

और उनके बेटी और बेटा भी! राधिका अपने कमरे में थी, उस से मिलना था, तो चाय पीने के बाद, मैंने इच्छा जाहिर की, उस से मिलने की, सुदेश जी ने पहले भोजन के लिए कहा, तो मैंने बाद में करने के लिए कह दिया, सबसे पहले राधिका को देखना था! "ज़रा बिटिया से मिलवाइये?" कहा मैंने, "आइये गुरु जी" बोले वो, अब हम चले उनके साथ, अपने कमरे में थी, कमरा बंद था, खटखटाया तो खुला, राधिका सामने खड़ी थी, उसके गालों पर, निशान थे, कान के पास, नीचे, गरदन पर, उसने नमस्ते की, और हम अंदर बैठ गए, अंदर, राजस्थानी चित्र टंगे थे, उसकी किताबें आदि सामान रखा था! हम वहीं बैठ गए, दो कुर्सियों पर, सुदेश जी, बिस्तर पर, "इधर आओ राधिका?" कहा मैंने, 

आई वो, "मुझे ये निशान दिखाओ" कहा मैंने, उसने चेहरा आगे किया, मैंने ध्यान से देखा, ये ऐसा था, जैसे या तो किसी ने नाखून से चिकोटी मारी हो, या फिर दांतों से काटा गया हो, चेहरे पर कम से कम बीस निशन थे। ये त्वचा रोग नहीं था, कोई निशान छोटा था, और कोई बड़ा! एक बात और, जब मैं कमरे में गया, तो कोई गंध या किसी की मौजूदगी नहीं मिली मुझे! "ताज़ा निशान कौन सा है?" पूछा मैंने, उसने, अपनी बगल के पास बताया, और ये भी, कि ऐसे निशान, उसमे पूरे बदन पर हैं, उसके गुप्तांगों पर भी, बड़ा ही अफ़सोस हुआ, कैसी तकलीफ़ झेल रही थी वो, बड़ा ही अफ़सोस हुआ! 

"सुदेश जी, ज़रा कैंची दो मुझे" कहा मैंने, 

राधिका ने ही कैंची दी मुझे, "मैं तुम्हारे कुछ बाल काट रहा हूँ, कोई आपत्ति तो नहीं?" पूछा मैंने राधिका से, "नहीं" बोली वो, 

और मैंने कुछ बाल काट लिए, कान के पास से, "ये पकड़ो शर्मा जी" कहा मैंने, "राधिका, एक कपड़ा दो मुझे, तुम्हारा इस्तेमाल किया हुआ, जो धुला न हो" कहा मैंने, "ये चलेगा?" बोली वो, वो एक रुमाल था, "हाँ, चलेगा" कहा मैंने, 

और रख लिया, दे दिया शर्मा जी को, "इनकी माता जी को बुला लो" कहा मैंने, उन्होंने आवाज़ दी, सुदेश जी ने, और बुला लिया, "आप यहीं रहे इस राधिका के साथ, घबराएं नहीं" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो वहीं बैठ गयीं, और हम चले अब बाहर, "मझे कोई खाली जगह चाहिए, एकांत" कहा मैंने, "छत ठीक रहेगी?" पूछा उन्होंने, "हाँ, ठीक रहेगी" कहा मैंने, 

और वो हमे ले चले छत की ओर, चढ़ गए हम सीढ़ियां! मुझे पूरा यक़ीन हो चला था कि ये ऊपरी मामला ही है, इसलिए, मैंने ये फैसला किया था कि इसका निदान शीघ्र ही करना आवश्यक है! और इसके लिए अपने सिपाहसालार इबु की मदद चाहिए थी! अगर कोई भी, कैसा भी प्रेत है, तो इबु उकी टांगें पकड़, उलटा कर, पकड़ ही लाएगा, चाहे कहीं भी छिपा हो! अगर किसी का किया-कराया है, और किसी ने छोड़ा या भेजा है, तो भी मुझे खबर दे ही देता इबु! उन्होंने मुझे एक कमरा दिया, बड़ा सा कमरा, मैं और शर्मा जी आये उसमे, बीच में एक दरी बिछवा ली गयी, मैं बैठ उस पर, और शर्मा जी से वो कपड़ा, और वो बाल, ले लिए, और भेज दिया बाहर उन्हें, उन दोनों को, अब बाल और कपड़ा, रखें मैंने दरी पर, रात के बारह बज चले थे, लेकिन इस से कोई फर्क नहीं पड़ता, राधिका ठीक हो जल्दी, ये ज़रूरी था! अब मैंने रुमाल खोला, और वो बाल,रख दिए उस पर, और फिर पढ़ा शाही रुक्का अपने 

इबु का! झनझनाता हुआ इबु, अपने सुनहरे लिबास में हाज़िर हुआ! मुस्कुराया। मैं भी मुस्कुराया! इबु से याराना है मेरा! बहुत पुराना! मैंने इबु को अब वो बाल और रुमाल दिए, उसने गंध ली, चेरे पर आया रौब और गुस्सा! स्पष्ट था कि ये सौ फी सदी प्रेत-बाधा ही थी! मुझे देखा और अपना उद्देश्य जान, उड़ चला मेरा सिपाहसालार! मैं बैठा रहा, कोई सात या 

आठ मिनट के बाद, एक लड़के को, जिसकी उम कोई अठारह या उन्नीस रही होगी, जिसकी अभी दाढ़ी भी पूरी नहीं आई थी, ले आया पकड़ कर सर के बालों से! यही था वो प्रेत! थर-थर कॉप रहा था, इब उसको पकड़ कर, हिला देता था! "क्या नाम है तेरा?" पूछा मैंने, "मनजीत" डर डर के बोला, ज़रा सा भी अटकता, तो इबु हिला देता उसे! झूला झुला देता था! "कब से तंग कर रहा है इस लड़की को?" पूछा मैंने, "चार महीने से" बोला अटकते अटकते! "किसी ने भेजा?" पूछा मैंने, "नहीं" बोला वो, "कहाँ से लगा उसके पीछे?" पूछा मैंने, "रास्ते से" बोला वो, दरअसल, राधिका को एक बार उसने देखा था आते-जाते हुए, तब वो रास्ते में सवारी का इंतज़ार कर रही थी, शायद पढ़ाई करने जा रही हो, तभी से पीछे लग गया था उसके! बहुत होशियार था! हमेशा साथ नहीं रहता था, घर के बाहर खड़ा रहता था! और मौका मिलने पर, आ धमकता था राधिका के पास! वो भी रात के समय! जैसे ही बोला वो ये, इबु ने उछाला उसे और लटका दिया उलटा, दोनों पाँव पकड़ कर! प्रेत उलटा लटकना नहीं पसंद करते! वे रोपड़ते हैं, गिड़गिड़ाते हैं, लालच देते हैं कि ये दूंगा वो दूंगा, जिस औरत को देखोगे, भागी चली आएगी, गुलाम बना दूंगा, पैसा दूंगा, दुश्मनों को मारूंगा, आदि आदि, तो उसने भी ऐसा ही किया! मनजीत पंजाब के अबोहर-फाजिल्का का रहने वाला था, एक झगड़े में, चाकूबाजी में उसकी मौत हई थी! भटकता-भटकता यहां चला आया था! "और कौन है तेरे साथ?" पूछा मैंने, ताकि कहीं और भी न हों, कि हम चले जाएँ तो वो अपना खेल खेलें! "कोई नहीं है" बोला वो, रोते रोते! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"झूठ?" बोला मैं, तो इबु ने दी कोहनी दबाकर उसे! चिल्ला पड़ा! गुहार लगाने लगा! "सच कह रहा हूँ, अकेला हूँ, मुझे छोड़ दो, अब नहीं आऊंगा, किसी को तंग नहीं करूँगा, छिप के रहूंगा!" बोला वो, "क्या करता था तू उस लड़की के संग?" पूछा मैंने, "मुझे अच्छी लगती थी, प्यार करता था उसे" बोला वो, "और काटता था, है न?" बोला मैं, "हाँ गलती हो गयी, गलती हो गयी!" बोले रोते रोते! "साले, हरामजादे, मासूम से खेलता है? तुझे नहीं बख्शने वाला मैं, दया के लायक ही नहीं तू!" कहा मैंने, 

और इबु ने झूला झुलाया उसे! "माफ़ कर दो, माफ़ कर दो!" बोला वो, "चुप कर, हरामजने?" कहा मैंने, "ले जाओ इसे, और लटका दो उसी कीकर के पेड़ पर, आते ही इसको कैद कर, ज़मीन में गाड़ दूंगा, पड़ा रहेगा हज़ारों सालों तक वहीं!" कहा मैंने, "रहम करो! रहम करो!" चिल्लाया वो! "चुप कर, बहन के **?" बोला मैं गुस्से से! 

और फिर इबु, उसको बगल में दबा, लोप हो गया! ले गया लटकाने उसी पेड़ पर! और तब मैंने अपने एक प्रेत का आह्वान किया, अल्ताफ़ नाम है उसका, अतृप्त भाई वाक़िफ़ हैं उस से! वही आया तो मैंने उसे यही कहा कि, जो नया आया है ये मनजीत, ज़रा इसकी सिकाई करो, चैन नहीं लेने देना! वो हंसा और हुआ वापिस! हो गया काम! बहुत खेल लिया था, अब खेल खत्म! मैं चला बाहर, कपड़ा और बाल लेकर, आया बाहर तो वे दोनों आये मेरे पास! मैं मुस्कुराया! वो कपड़ा और बाल उन्हें दिए! "लो, या तो जला देना, या किसी नदी-नहर में बहा देना, और बिटिया अब सही है, उसकी दवा करवा दो, अब ठीक हो जाएगी" कहा मैंने और सबकुछ बता दिया! पाँव पड़ें, रोएँ, धन्यवाद करें, गले लगें! मैंने और शर्मा जी ने बहुत समझाया उन्हें, बहुत! और तब जाकर शांत हुए! भागे नीचे और बता दिया सबकुछ सभी को! राधिका, अब प्रसन्न थी, उसके ज़ख्मों का दर्द, जैसे छू हो गया था! 

"कौन था ये मनजीत?" पूछा शर्मा जी ने, "पंजाब से था' कहा मैंने और बता दिया फिर से सबकुछ! "कर दिया इंतज़ाम?" बोले वो, "हाँ, पक्का!" कहा मैंने, "लटका दिया न?" पूछा उन्होंने, "हाँ, उसकी दावत शुरू हो गयी है!" कहा मैंने, 

और हम नीचे आये अब! उसके बाद स्नान किया मैंने, और फिर भोजन! भोजन कर, आराम से सो गए थे हम! कोई दिक्क़त-परेशानी नहीं! सुबह उठे तो राधिका से बात हुई, बहुत अच्छी तरह से सोयी थी वो, कोई परेशानी नहीं और कोई ज़ख्म नहीं हुआ सारी रात, कोई दर्द नहीं और कोई भी शारीरिक कष्ट नहीं! घर में सभी खुश थे! निवृत हुए, चाय-नाश्ता किया और फिर दो घंटे के बाद हमने भोजन किया, वापसी की टिकट करवानी थी, लेकिन सुदेश जी हमें रोकना चाहते थे, उनके बहनोई के साथ कुछ 

समस्या थी, उसी सिलसिले में, चलो, हाथ आये ये भी सही! दोपहर बाद, सुदेश जी हमें शहर घुमाने चले! अब वहाँ बैठे बैठे भी क्या करते! इस से तो घूम ही लिया जाए! और हम घूमने चले गए! शहर घूमा, और फिर हम शहर से वापिस हुए, आये घर, शाम को कार्यक्रम हुआ, उनके बहनोई कल आने वाले थे, तो कल का दिन भी बिताना था, अगली दिन, कोई दस बजे, फिर से हम घूमने चले, इस बार देहात के क्षेत्र में! हम वहाँ पहुंचे, लाल-लाल पहाड़ियां और खुली खुली


   
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श्रीशः उपदंडक
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जगह! बहुत शानदार! आबादी से दूर, अपना अस्तित्व बनाये हुए! "कितना शानदार नज़ारा है!" कहा मैंने, "बियाबान है जी!" बोले सुदेश जी, "ऐसा ही अच्छा है, शहरी जिंदगी से अलग!" कहा मैंने, "हाँ जी, ये तो है" बोले वो, एक जगह रुके, पानी खरीदना था, खरीदा, और फिर से चले! छोटा सा कस्बा था ये! बहुत संदर! ऊँट खड़े थे, सामान लादा जा रहा था ऊँट-गाड़ी पर! "जिंदगी यहां भी चलती है!" बोले शर्मा जी, "हाँ जी" कहा मैंने "सब दाने-पानी का खेल है!" बोले शर्मा जी, 

हम चले जा रहे थे आगे! दूर निकल आये थे! "ये तो है ही!" कहा मैंने, 

और तभी मेरी निगाह एक पुरानी हवेली पर पड़ी, सड़क से अलग, दूर, जंगल जैसे क्षेत्र में! "एक मिनट रुकना?" कहा मैंने, रुक गए, गाड़ी एक तरफ लगा ली, "वो क्या है?" पूछा मैंने, "हवेली है कोई" बोले शर्मा जी, "किसकी है?" पूछा मैंने, "ऐसी तो बहुत हैं यहां, वीरान और खंडहर" बोले सुदेश जी, "ज़रा देखें?" कहा मैंने, "खंडहर ही हैं" बोले वो, "खंडहर का अपना इतिहास होता है! जब ये जवान होगी, तो इसकी शान देखते ही बनती होगी सुदेश जी!" कहा मैंने, "ये तो है" बोले वो, "आओ, देखें" कहा मैंने, "चलो" बोले वो, 

और हम चल पड़े, पहुंचे वहाँ! बहत सुंदर हवेली थी। हालांकि अब खंडहर थी, लेकिन अपनी शान बनाये खड़े थी! काफी बड़ी 

थी। 

"आओ, अंदर चलें" कहा मैंने, "चलो" बोले शर्मा जी, 

और जैसे ही हम अंदर घुसे, मुझे गंध आई! इत्र की! तेज गुलाब इत्र की! "रुको!" कहा मैंने, "क्या हुआ?" बोले शर्मा जी, "ये हवेली आज भी जिंदा है!" कहा मैंने, "जिंदा है?" बोले सुदेश जी! "हाँ, आज भी जिंदा है!" कहा मैंने, 

शर्मा जी समझ गए! लेकिन सुदेश जी, अटक गए! "मैं नहीं समझा!" बोले वो, अब समझाया शर्मा जी ने। तो थूक गटकने लगे! डर गए थे, सहम गए थे! "आओ, अंदर चलें!" कहा मैंने, "चलिए" बोले शर्मा जी, और हम अंदर चले तब! बड़े बड़े कक्ष! भले ही टूट फूट गए थे, दीवारें झड़ गयी थीं, लेकिन सच में, जब ये हवेली जवान होगी, तब बात ही अलग होगी उसकी! दीवारों पर आले बने थे! बड़े बड़े! शमा के रखने के कुन्दे बने थे! बड़ी बड़ी चौखटें और मेहराब! रौशनदान और खिड़कियाँ! जैसे हम इतिहास में पहुँच गए थे। "बहुत सुंदर है!" कहा मैंने, "हाँ! बेहतरीन!" बोले शर्मा जी, 

और सुदेश जी, थोड़ा घबराते रहे! "आज आते हैं यहां!" कहा मैंने, "आज रात?" बोले शर्मा जी, "हाँ, आज की रात!" कहा मैंने, हम वापिस हुए वहाँ से फिर, सुदेश जी ने बार बार मुड़-मुड़ के देखा उस हवेली को! माज़रा 

समझ से बाहर था उनकी! हालांकि शर्मा जी ने समझा दिया था उनको, लेकिन फिर भी समझ न सके, खैर, गलती उनकी न थी, कभी साबका ही न पड़ा था उनका ऐसे किसी वाकये से! इसीलिए हज़म नहीं कर पा रहे थे! खैर, हम पहुंचे वहां से शहर, अपना सामान खरीदा और


   
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श्रीशः उपदंडक
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थोड़ा तीखा-चटपटा खाया वहां! बेहद लज़ीज़ था! बहुत बढ़िया बनाया था, बनावटी स्वाद लाने के लिए रसायन नहीं डाले गए थे बड़े शहरों की तरह! मजा आ गया था! और फिर वहाँ से वापिस हुए हम! आ गए घर! घर आकर, भोजन करने की इच्छा नहीं हुई, बस आराम किया, हमने सुदेश जी से कह ही दिया था कि वे हमें रात करीब ग्यारह बजे उस हवेली तक छोड़ आएं! वे तैयार थे, लेकिन हिचक भी रहे थे, उनकी हिचकिचाहट भांप ली मैंने, और ये कहा कि हम गाड़ी ले जाएंगे और आ जाएंगे समय मिलते ही! मान गए, अब मानना उनकी विवशता कहो या इच्छा! हमने आराम किया उसके बाद, शाम हुई, और मैंने कुछ आवश्यक तैयारियां कीं, वे प्रेत होंगे, और प्रेतों के पास विशेष शक्ति 

हुआ करती हैं, वो स्थूल-तत्व पर सदा भारी पड़ते हैं, आपकी ऊर्जा का क्षय होता रहता है, इस से बचने के लिए कुछ मंत्र और कुछ आवश्यक वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है! तो इसीलिए मैंने अपने तंत्राभूषण लिया और शर्मा जी को भी धारण करवा दिए, कुछ मंत्र पढ़कर, उनको अभिमंत्रित भी कर दिया, देह-पुष्टि, देह-रक्षक, प्राण-रक्षक मंत्रों से अभिमंत्रण कर लिया देह का! जितना पुराना प्रेत होगा, वो उतना ही अधिक शक्तिशाली होगा! अच्छे से अच्छा तांत्रिक भी धूल चाट जाए उनसे लड़ते हुए! इसीलिए ये सब आवश्यक था! तो मैंने अपना काम तो कर लिया था! अब बस वहां पहुंचे और देखें कि हवेली में कौन कौन है! कौन अभागे हैं जो अटके हुए हैं उसी काल-खंड में! और आज भी दोहराते आ रहे हैं वही चलन! कोई आठ बजे, हमने हल्का-फुल्का भोजन किया, नहीं तो, पूरा खाते तो, नींद की झपकियाँ आने लगती! और ऐसा होना नहीं चाहिए था। ठीक साढ़े दस बजे, हम, सुदेश जी की गाड़ी ले, निकल पड़े! उस हवेली के लिए, जो आज भी जिंदा है! हम करीब सवा ग्यारह बजे वहां पहुंचे! गाड़ी सड़क से अंदर ही काट ली, और एक पेड़ के सामने खड़ी कर दी, सामने ही वो हवेली थी, बियाबान था, सुनसान, कोई उजाला नहीं, बस गाड़ी की ही रौशनी थी, बत्तियां बुझायीं तो घुप्प अँधेरा, अब गाड़ी को ताला लगाया, हवेली को देखा, चांदनी में किसी भूत के खड़े होने का सा आभास देती थी वो! शर्मा जी ने अपने मोबाइल फ़ोन की टोर्च जलायी, और हम आगे बढ़े! अँधेरा ही अँधेरा! अँधेरे की चादर ओढ़ी हुई थी उस हवेली ने! असलियत तो मुझे मालूम थी! ये इस संसार से दूर की बात है! छिपा हुआ है ये इस संसार से! इसी छिपे हुए संसार को अब देखने का समय आ चला था! बाहर ले आना था उसे, या यूँ कहो कि हम ब उसी संसार में जाने वाले थे! "रुको शर्मा जी!" कहा मैंने, रुक गए वो, 

अब मैंने कलुष-मंत्र पढ़ा! और अपने नेत्र पोषित किये, फिर शर्मा जी के, और फिर नेत्र बंद किये, कुछ अक्षर बोले और नेत्र खोल दिए! 

झम्म! हवेली का स्वरुप बदल गया! रौशनी झाँकने लगी उसके रौशनदान और खिड़कियों से! अब हम चले उस हवेली की तरफ! "शर्मा जी, मैं हाँ करूँ तो हाँ, न करूं तो न" कहा मैंने, "बिलकुल!" बोले वो, "चलो अब!" कहा मैंने, 

और हम चले अब वहाँ! उस हवेली की तरफ! पहुंचे वहाँ! फाटक बंद था! और हवेली, चमचमा 


   
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रही थी! मुग़ल-स्थापत्य काल की है वो हवेली! शानदार! बेहद आलीशान! जैसे आज ही बनी हो! दीवारों पर बने बेल-बूटे ऐसे, जैसे अभी तोड़ लो! पत्थर ऐसे चमकदार कि जैसे अभी लगाये गए हों! लेकिन फाटक बंद था और अंदर से कोई आवाज़ भी नहीं आ रही थी। मैं गया फाटक के पास! और फाटक पर पड़ा वो कुन्दा खटखटाया मैंने! एक बार, दो बार, तीन, बार, चार बार। 

और हट गया पीछे, थोड़ी ही देर में, दरवाज़ा खुला, चूं की आवाज़ करते हुए! और सामने एक लम्बा-चौड़ा शख्स आया सामने, सर पर टोपी, सफेद रंग की, कुरता, नीचे पांवों तक, हरे रंग का, चमकदार, सलवार, हरे रंग की, और पाँव में जूतियां, तावदार! हाथ में एक मोटा सा लट्ठ 

और कमरबंद में, बड़ा सा खंजर फंसा हुआ उसके! "जी कहिये?" बोलावो! खड़ी सी बोली में, रौबदार आवाज़ में! "हम परदेसी हैं, दूर तलक जाना है, रात बहुत है, रात गुजारने की जगह चाहये, मिल जायेगी 

क्या? आपकी बड़ी मेहरबानी होगी!" कहा मैंने, "कौन है?" एक और आवाज़ आई, और किसी के चलने की आवाज़ सुनाई दी, जैसे वहीं आ रहा 

हो! 

"अगयार हैं!" बोला वो, "ठहरो!" आवाज़ आई वही! 

और एक और शख्स आया वहाँ, दाढ़ी-मूंछ में, उसके कपड़े भी ऐसे ही थे, जैसे उस शख्स ने पहने थे! दरबान से लगते थे दोनों ही! हाँ, ये पहलवान! "कहिये?" बोला वो भी, अब मैंने उसको वही सब बताया जो उस पहले शख्स को बताया था! "यहां से दो कोस पर, एक सराय है, वहाँ तशरीफ़ ले जाएँ आप!" बोला वो, इशारा करते हुए, बायीं तरफ! रही होगी कोई सराय उस वक़्त वहाँ पर! इसीलिए बोला वो! "देखिये, हम परदेसी हैं, अनजान हैं यहां की अरज़ से, मदद-ओ-इमदाद हो तो बड़ी मेहरबानी, एक ही रात की तो बात है!" कहा मैंने, "समझता हूँ, लेकिन ये हवेली सूबेदार हैदर साहब की ख़्वाबगाह है और मैं उनका अदना सा मुलाज़िम, आप चाहें तो मैं आपके साथ किसी को भेज सकता हूँ उस सराय तलक" बोला वो, बेहद अदब से! बात तो उसकी वाजिब थी, वो मुलाज़िम था, और बिन पूछे सूबेदार से, कैसे आने देता अंदर! मैं 

उसको गलत नहीं कहता वो तो अपना फ़र्ज़ अदा कर रहा था! "मैं समझता हूँ, हम तो इसीलिए हो आये इधर, इत्तफ़ाकन, कहीं रात गुजारने की ठौर मिल जाती तो बहुत मेहरबानी होती, ये मेरे दोस्त हैं, पावों से चला भी नहीं जा रहा है इनसे, तक़लीफ़ न होती तो आपको ज़हमत उठाने को नहीं कहता! कोई भी छोटी सी जगह मिल जाए तो....." कहा मैंने, सोचने लगा वो कुछ! दूसरे वाले को देखा उसने, "यक़ीन कीजिये, इशराक होने से पहले ही, हम चले जायेंगे!" कहा मैंने, "ठीक है, आइये! इंसान ही इंसान की मदद करता है। इंसानियत सबसे बड़ा फ़र्ज़ है! आइये जनाब! कोई सामान हो तो, बताइये, मैं उठाये ले जाता हूँ!" बोला वो, "आपकी बहुत बहुत मेहरबानी जनाब! बहुत बहुत मेहरबानी! सामान नहीं है हमारे पास!" कहा मैंने, "कोई बात नहीं, आप इत्मीनान से गुज़ारें रात!" बोला वो, 

और हमें अंदर बुला लिया गया! यही तो चाहते थे हम! "शमीम?" बोला वो, "हुक्म?" बोला शमीम! "इन्हें कमरे में ले जाओ, बिस्तर लगाओ और ख़ाने के इंतजामात करो!" बोला वो, "जो


   
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श्रीशः उपदंडक
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हकम!" बोला शमीम "जी शुक्रिया! आप तआरुफ़ जनाब?" बोला मैं! "मोहम्मद असलम, इस ख्वाबगाह का चौकीदार हूँ!" बोला वो, "शुक्रिया!" कहा मैंने, "आइये साहब!" बोला शमीम! 

और एक गलियारे में मुड़ गया हमें लेकर! वहाँ तो घोड़े बंधे थे। ऊँट भी थे, घोड़े फनफना रहे थे, साँसें छोड़ रहे थे। मशालें लगी थीं बाहर! उनकी रौशनी, बेहद ही चमकीली और आज की बत्तियों से अलग थी! ले आया हमें एक कमरे में, कमरा भी काफी बड़ा था! पानी की सुराही रखी थी! पलंग बिछा था एक बड़ा सा! हमको बिठाया शमीम ने हमें वहाँ! सुराही से, पानी निकाल कर दिया, पीतल के गिलासों में! गिलास भी ऐसा एक एक सेर दूध आ जाए उसमे फिर ले लिए गिलास हमने, पी लिया था पानी हमने! 

"ये चौकीदार साहब का कमरा है!" बोला वो, "अच्छा !" कहा मैंने, "और कोई कमरा खाली न था, मेहमान आ रहे हैं" बोला वो, "अच्छा अच्छा!" कहा मैंने, "तो उन्होंने आपको ठहरा दिया!" बोला वो, "नेकदिल इंसान हैं आपके हुक्म!" कहा मैंने, "हाँ जी! मेरी नौकरी भी उन्हीं की वजह से हैं!" बोला वो, "बहुत खूब!" कहा मैंने, "खाने का बताएं?" बोला वो, "अभी ज़रा आराम कर लें, थक गए हैं" कहा मैंने, "ज़रूर कीजिये!" बोला वो, "शुक्रिया!" बोला मैं, "किसी चीज़ की ज़रूरत हो, तो नाम लेकर आवाज़ लगा दें, मैं पेश हो जाऊँगा!" बोला वो, "शक्रिय शमीम!" कहा मैंने, 

और चला गया वो! वहीं फाटक पर! "नेकदिल हैं ये दोनों!" बोले शर्मा जी! "हाँ!" कहा मैंने, "और ये सूबेदार साहब की ख़्वाबगाह है, वाह!" बोले वो, "हाँ जी!" कहा मैंने, "लेकिन अभी आये नहीं सूबेदार साहब, लगता है!" बोले वो, "हो सकता है!" कहा मैंने, "मेहमान तो आ रहे हैं!" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, 

और तब मैं उठा, कमरे की खिड़की से बाहर झाँका! "इधर आओ!" कहा मैंने, 

आये वो! मेरे पास! "वो देखो नीचे!" कहा मैंने, 

"ये क्या है?" बोले वो, "पालकी है!" कहा मैंने, "अच्छा !" बोले वो, "कोई आया होगा या होगी!" कहा मैंने, "अच्छा !" बोले वो, "और भी पालकियां हैं, वो देखो!" बोले वो, "अरे हाँ!" कहा मैंने, "ख्वाबगाह है न!" बोले वो, "सही कहा आपने!" मैंने कहा, 

और तभी घोड़ों के चलने की आवाज़ आई! कोई आया था शायद! "पीछे हटो!" कहा मैंने, 

और हम पीछे हटे! हमें आये हुए अभी कोई बीस ही मिनट गुज़रे थे, मेहमानों के आने का तांता लगा हुआ था! 

घोड़ों की टाप सुनाई दे रही थीं! ऊंटों की आवाजें आ रही थीं! हम उस बिस्तर पर आ बैठे थे, कि तभी शमीम आया अंदर! आया हमारे पास, और खड़ा हुआ, मुस्कुराया! "आपको बुला रहे हैं!" बोला वो, "कौन बुला रहा है?" मैंने कहा, "वही, हकम" बोला वो, "चलो" कहा मैंने, 

और हम चले उसके साथ, वो हमें एक और कमरे में ले आया, वहाँ असलम और एक और शख्स बैठा था, नीचे ही बैठे थे, कालीन पड़ा था, मसनद बिछे थे! "आइये जनाब!" बोला असलम, हमने जूते खोले और आ बैठे उनके साथ ही! "ये जनाब शफ़ीक़ उल्लाह हैं! हलकारे हैं!" बोला असलम! अब उसने हाथ पकड़, दबाये, मेरे और शर्मा जी के, फिर अपनी छाती से छुआए अपने


   
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श्रीशः उपदंडक
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हाथ! कद्दावर शख़्स था वो शफ़ीक़-उल्लाह! आँखों में सुरमा और करीने से रखी दाढ़ी! चुस्त पाजामी 

और सफ़ेद, कुरता! मज़बूत कद-काठी थी उसकी! "मैंने इनको बताया था आपके बारे में, तो मिलने को कहने लगे, मुआफ़ कीजियेगा, आना तो, 

बा-दस्तूर मुझे ही था, लेकिन वो क्या है कि मेहमान आते हैं, तो खैर-मक़दम मुझे ही करना होता है! आप तो जानते हैं, कि एक फ़र्ज़मंद इंसान के पास सिर्फ़ फ़र्ज़ ही है!" बोला वो, "वाजिब फ़रमाया आपने असलम साहब! कोई बात नहीं, हम भी कमरे बस कैद से ही थे!" बोला मैं, "आज शब-ए-दावत है जनाब! कुछ वक्त और, बस सूबेदार साहब की आमद हो!" बोला वो, "कहाँ से तशरीफ़ ला रहे हैं जनाब?" पूछा शफ़ीक़-उल्लाह ने! "जोधपुर से चले और अब जयपुर मंज़िल है!" बोला मैं, "अच्छा अच्छा! लम्बा सफ़र है!" बोला वो, "हाँ जी, सफर तो लम्बा ही है!" कहा मैंने, 

और तभी तुरही सी बजी! नगाड़ा बजाऔर वे दोनों झट से खड़े हुए! पोशाक़ दुरुस्त की उन्होंने अपनी अपनी टोपियां पहनी और चलने लगे बाहर! "आप यहीं ठहरें! सूबेदार साहब आन पहुंचे हैं!" बोला असलम और दौड़े अब वो! "आ पहंचे सूबेदार साहब!" बोले वो, "हाँ, देखो कैसे दौड़-भाग रहे हैं ये मुलाज़िम!" कहा मैंने, "हाँ!" बोले वो, "अब बुलावा आये तो बात बने!" बोला मैं, "हाँ जी! और आ ही जाएगा!" बोले वो, "आओ ज़रा!" कहा मैंने, "चलो" बोले वो, "जाना कहीं नहीं है, बस बाहर झांकें" कहा मैंने, "अच्छा" बोले वो, हमने बाहर झाँका, दायीं तरफ, एक हुजूम था! वे अंदर जा रहे थे, शायद सूबेदार अंदर चले गए थे! वे सभी अंदर जाते रहे और हम फिर से अंदर आ बैठे! कोई बीस मिनट बीते! और असलम आया अंदर! टोपी उतारी, लटका दी खूटी पर, कोने में रखी सुराही ली, और पानी पिया उसमे में, एक कटोरे में डालकर, "पानी लेंगे आप?" पूछा उसने, "नहीं, शुक्रिया!" कहा मैंने, उठा वो, हाथ पोंछे अपने, और आ बैठा वहीं! 

"आ गए सूबेदार साहब?" पूछा मैंने, "हाँ जी! अस्हाब वहीं हैं जी इस ख़्वाबगाह के!" बोला वो, "बेहतर है!" कहा मैंने, "जनाब हैदर नाम है न इनका?" पूछा मैंने, "जी! जी जनाब!" बोला वो, "तो आज शब-ए-दावत के संग शब-ए-इशरत भी है!" कहा मैंने, हंस पड़ा! मुस्कराया फिर! "आपने सही फ़रमाया! इसाफ़ी फ़ितरत के मालिक हैं जी सूबेदार साहब!" बोला वो, 

और तभी शमीम आया वहां! "आओ शमीम!" बोला असलम! "वो, सूबेदार साहब का हुक्म है" बोला वो, "क्या?" पूछा असलम ने, "मुलाक़ात करवाएं आप!" बोला वो! "अच्छा!" बोला वो, 

और खड़ा हुआ, पहनी जूतियां, उठायी टोपी अपनी और देखा हमें! "आइये, सूबेदार साहब का हुक्म बजाएं!" बोला वो, "ज़रूर!" कहा मैंने, 

और हम उठे, अपने जूते पहने और चल पड़े उसके साथ! गुलाब के फूलों की पंखुड़ियाँ पड़ी थीं हर जगह! शायद रक़्क़ाशाओं की आमद में! या फिर सूबेदार की आमद में छिड़की गयीं हों! ये तो आम रिवाज़ था उस वक्त का! यही होता था! हम कई कमरों को पार करते हुए, चलते जा रहे थे, फिर सीढ़ियां चढ़े! एक कमरे से हंसी ठिठोली की सी आवाजें आयीं! शायद औरतें थीं उसमे! सीढ़ियां चढ़, फिर मुड़े, सीधा चले, एक कमरे के बाहर, दो पहरेदार खड़े थे! कमर में


   
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श्रीशः उपदंडक
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तलवार खोंसे, असलम वहीं रुका, हमें भी रोका, हम रुके, और वो अंदर गया! और कुछ देर बाद, आ गया वापिस! "आइये!" बोला वो, हम अंदर घुसे! 

क्या आलीशान कमरा था वो! गुलाबी रंग के बड़े बड़े पर्दे! झूमर! झूमरों में लगी शमाएँ! पूरा कमरा रौशन था उनसे! उस वक़्त का लकड़ी का काम, आज के काम से कहीं आगे था! मज़बूत! सुंदर! और कुदरती! उसी कमरे में एक और दरवाज़ा था, असलम वहीं रुका, और हमें अंदर जाने को कहा अब! अब हम अंदर गए! 

और सामने, एक बड़े से बिस्तर पर, एक शख़्स बैठा था! बिस्तर पर, ऊपर छतरी लगी थी, उस पर, पर्दे लटके थे, अब ऊपर मोड़कर, रखे गए थे! आलीशान कमरा था! जैसे कोई महल! 

और वो शख्श! सजीला जवान! कोई तीस बरस का! लम्बे बाल, करीने से रखी दाढ़ी! सर पर टोपी पहने, मिर्जा-टोपी थी! सुनहरी रंग की! उसकी आँखें, भूरि-हरी सी थीं! रंग बेहद गोरा! हार्थों के बाल सुनहरी से थे! 

मज़बूत कद-काठी! कद कोई साढ़े छह या सात फीट! पहलवानी जिस्म! छाती पर जकड़ी, कंधों की मांस-पेशियाँ ऐसी सुडौल कि जैसे, कपड़े में ही गद्दा भर दिया गया हो! कलाइयां ऐसी चौडी जैसे आज के एक औसत इंसान की टांग होती है, नीचे से, जहां पाँव जुड़ा होता है! हम तो देखते ही रह गए उसको! 

गज़ब की मर्दाना खूबसूरती थी उसमे! "सलाम!" बोला वो, हम जैसे नींद से जागे! 

"सलाम जनाब!" कहा मैंने, आवाज़ ऐसी रौबदार थी कि सुनकर दंग रह जाएँ आप! "तशरीफ़ रखिये! ऐसे खड़े न रहें!" बोला वो, हम बैठ गए, एक बड़े से सोफे पर, बैठे तो धंसे अंदर! "मैं अपना तआरुफ़ दूं या आप सुन चुके हैं?" पूछा उनसे, "जी, हम सुन चुके हैं।" बोला मैं, "बेहतर है!" बोला वो, "आपने कुछ खाया-पिया?" पूछा उसने, "जी, पूछा था, हमने ही मना किया था!" कहा मैंने, "आज शब-ए-दावत है! आप मेहमान हैं मेरे! मुझे ये नादारी अता फरमायें!" बोला वो, "नादिम न करें ऐसा कह कर हैदर साहब आप!" कहा मैंने, "ये तो फ़ज़ल-ए-फुवाद है आपका!" बोला वो! "आप भी कम अर्जमन्द नहीं साहब!" कहा मैंने, "आपने मेरी इक्तिज़ा कुबूल फ़रमाई, मैं इतिफ़ात्मन्द हुआ आपका!" बोला वो, "शुक्रिया हैदर साहब आपका! तह-ए-दिल से!" कहा मैंने, तभी आवाज़ दी उसने किसी को, 

और कुछ पल रुका! शायद कोई आ रहा था वहाँ! 

और तभी एक कनीज़ आई वहाँ, एक लम्बा सा थाल लेकर! उसमे गिलास रखे थे, और कुछ मेवे भी! "लीजिये, नौश फ़रमायें!" बोला वो, "शुक्रिया बहुत!" बोला मैं और उठाया गिलास! शर्मा जी ने भी! ये शरबत था! बेहतरीन शरबत! और मैं शरबत पीते पीते उस कनीज़ को टटोल रहा था! मेरे से भी ऊंचा कद था उसका! और पोशाक़ ऐसी, कि झीनेपन से हम ही ख़ज़ालत में पड़ें। उसकी पोशाक में से उसके जिस्म का एक एक गोशा जैसे उस झीनी सी पोशाक़ में से बाहर 

आने को आमादा था! और हम, गुज़ीदा से बैठ थे! पोशाक भी ऐसी थी कि जांघों पर कसी हुई 

थी, नीचे घुटनों तक,ऊपर गले तक! बार बार निगाहें टिक जाती थीं उस पर,जल्दी जल्दी से शरबत ख़तम किया, शरबत में केसर, खस-खस और मेवे डाले गए थे! मिठास के लिए शहद


   
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श्रीशः उपदंडक
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डाला गया था। ऐसा शरबत मैंने सिर्फ जिन्नात में पिया था! जल्दी जल्दी निबटाया और दे दिए गिलास वापिस! गिलास भी चांदी के थे, बड़े बड़े, सेर भर दूध आ जाए उनमे, इतने बड़े! गिलास दिए वापिस और वो बला टली! उसने फिर से आवाज़ दी, और फिर वही असलम आया, उसने असलम से हमें ठहराने को कहा, हम उठे, वो हैदर साहब भी उठे और हम चले वहां से उस असलम के साथ! असलम आगे आगे, और हम पीछे पीछे! रौनक छायी हुई थी हर तरफ! इत्र की सुंगंध फैली थी हर जगह! हम नीचे उतरे तो बाएं मुड़ते हुए, एक कमरे में ले गया वो हमें! "लीजिये! बैठिये, मैं आ जाऊँगा आपको बुलाने!" बोला वो, 

और चला वापिस! जहां हमें लाया गया था, वो मेहमानखाना था, आराम-ओ-तलब की हर चीज़ वहां मौजूद थी! मैं लेट गया उस बिस्तर पर, बहुत ही आरामदेह बिस्तर था वो! शर्मा जी भी लेट गए! "क्या बात है!" बोले वो, "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "हम क्या ख़ाक़ ऐश करते हैं। इसे कहते हैं ऐश! ये है असली जिंदगी! हम तो कीड़ों की तरह बस 

अपनी जिंदगी जिए जा रहे हैं, नयी पीढ़ी को भी नसीब नहीं ऐसी ऐश!" बोले वो, "ये तो है, हमे पहले जो थे, ऐश तो उन्होंने ही की! चाहे ऐश कहो या पुरसुकून जिंदगी!" कहा मैंने, "उसकी देह देखी? पूछा उन्होंने, "हाँ, पहलवान हैं!" कहा मैंने, "यहां किसी को भी देखो, पट्ठा, पहलवान ही है! आज के इंसान को एक झापड़ मार दे तो एक महीने तक कोमा में पड़ा रहे!" बोले वो, "सही कहा आपने!" बोला मैं, "और वो शरबत! कहीं मिलगा ऐसा शरबत आज? जब ऐसी ऐसी चीज़ रोज ही आपकी जिंदगी में शुमार होंगी, तो भला देह और सेहत, कैसे नहीं बनेगी!" बोले वो, "सही बात है, आजकल तो हर एक ज़र्ब-ओ-ज़रर का मारा है!" बोले वो, 

और तभी असलम आया अंदर, हम खड़े हो गए, "अरे हुजूर-ए-आली बैठे रहिये, मैं पूछने आया था कि कोई चीज़ चाहिए आपको?" बोला वो, 

"नहीं जनाब! हम ठीक हैं!" कहा मैंने, "एक गजारिश है!" बोला असलम, "जी कहिये? गज़ारिश कैसी?" पछा मैंने, "मालिश-ओ-मशक्कत के तब तो नहीं?" पूछा मुस्कुरा के! "अरे नहीं जनाब!" मैंने भी हंस के कहा! "बुरा न मानें तो कुछ अर्ज करूँ?" बोला वो, "अरे! बुरा कैसा! आप बेनियाज़ कहें!" कहा मैंने, "आइये मेरे साथ" बोला वो, मैंने शर्मा जी को देखा, "इन साहेबान की फ़िक़ न करें। आप सूबेदार हैदर शाह के मेहमान है, तो पूरे सूबे के हुए! मैं कौल देता हूँ आपको!" बोला, संजीदा होकर! "चले जाइए आप! मैं ठीक हूँ!" वे अपनी गरदन पर हाथ रखते हुए बोले, इशारा था कि मेरे पास ये तंत्राभूषण) हैं तो सही! "आइये हुजूर!" बोला असलम, 

और मैं चला उसके संग! बग़ल के कमरे में ही ले गया था! मुझे खैर इस बात का, कि शर्मा जी बगल वाले कमरे में ही थे। "बैठिये!" बोला वो, "आया मैं बस!" बोला वो और चला गया! किसलिए लाया था और चला क्यों गया? 

वो तो नहीं आया, लेकिन एक खूबसूरत बला का दखल हुआ अंदर! मैं खड़ा हो गया! "आप बैठिये! बैठ जाइए!" बोली वो, शीरीदार लहजे में! 

और बैठ गयी करीब मेरे! किस सबब से भेजा गया था उसको, अब समझ आने लगा था मेरी! के ख़ास-ओ-अज़ीम 'मेहमाननवाजी' थी! लेकिन एक बात तो थी! वो बला की खूबसूरत थी! उसने


   
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श्रीशः उपदंडक
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जब नकाब हटाया तो सच में, दिल में मेरे आह सी निकल पड़ी थी! उसका पूरा जिस्म जैसे आतिश-ए-हुस्न लदा पड़ा था! कद भी करीब मेरे ही बराबर होगा उसका, हाँ, रंग गोरा था, नरगिस के फूलों की महक से लबरेज़ था! उसके अबसार, हुस्न के शोलों से घायल थे! जिसको देखे, बस फूंक ही डाले! 

"काबिल-ए-इश्फ़ाक़ हूँ मैं?" पूछा उसने! "यक़ीनन!" कहा मैंने, मुंह से एक आह भरी उसने! वहां उसने आह भरी, यहां मुझे पसीना आया! "नाम क्या है आपका?" पूछा मैंने, "शम्सिया मेरे हुजूर-ए-एहतियाज!" बोली वो, ऐसे जवाब दिया, जैसे नशा कर लिया हो उसने, और अब सुरूर में हो! 

और हुजूर-ए-एहतियाज! क्या कहा था उसने! मैं सोच ही रहा था कि वो आगे खिसकी और उसके नुवाँ मेरी बाजू से टकराये! मैं अभी तक तो कायम था, लेकिन उस छुअन से गुमशता हो गया ख़याल-ए-ग़रज़ में! वो और करीब खिसकी मेरे और अब मुझे खिसकना पड़ा उस से दूर! "शम्सिया!" बोला मैं, "जी?" बोली वो, "रुको तो! ऐसे जूद-ए-ज़ार न बनो!" कहा मैंने, "ज़ाहिराना मैं झेल नहीं सकती!" बोली वो, अरे रे! ये क्या कह दिया! मुझे क्यों भड़का रही थी वो! मुझे ज़िन्हार ही रहना था, सो रहा! वो खड़ी हुई और लिबास खोलने लगी अपना! अब मैं घबराया! ये कहाँ फंस गया में! ये कैसी खिदमत-ए-इल्तिफ़ात! वैसे एक बात तो थी, मैं उसको देख रहा था, लिबास जैसे जैसे खुले जा रहा था, नश्तर-ए-ज़रीफ़-ए-जिस्म, मुझे कोंचे 

जा रहे थे! क्या करूँ? मना कर दूँ? या फिर, झूल जाऊं इस दार पर! लिबास खुल गया था उसका! जिस्म के नुमाइश हो रही थी! मैं खड़ा हुआ! "शम्सिया!" कहा मैंने, 

"जी? फ़रमायें?" बोली वो, "नहीं। रहने दो!" बोला मैं, "कोई गुस्ताख़ी हुई इस कनीज़ से?" बोली वो, "नहीं, कोई गुस्ताख़ी नहीं!" कहा मैंने, "तो क्या मैं बेफ़हम हूँ?" बोली वो, "नहीं, ऐसा भी नहीं!" कहा मैंने, "यक़ीन करें, मैं बाजीचा ही पेश आउंगी! ऐतबार रखें!" बोली वो, मुस्कुराई वो! मैंने लिबास दिया उसे वापिस! "पहन लो!" कहा मैंने, उसने ले लिया लिबास, रखा बिस्तर पर! "बूद-ए-रक्काशा यही है!" बोली वो, "नहीं शम्सिया! ऐसा न कहो!" कहा मैंने, "ठुकरा दिया आपने!" बोली, 

और लिबास पहनने लगी अपना! मैं देखता रहा उसे! पहन लिया लिबास! "बैठो यहां!" कहा मैंने, बैठ गयी, बेमन से! "सच कहिये न, मुझे दरक़ न होगी!" बोली वो, "सच कहूँ?" बोला मैं, "जी" बोली वो, "जी नहीं है!" कहा मैंने, "कसम-ए-इफ्फ़त?" बोली वो, "इखलास करो मेरा!" कहा मैंने 

और वो चली फिर वहाँ से, रुकी और आई मेरे पास, "मिलकर ही जाना!" बोली वो, "ज़रूर!" कहा मैंने, 

और मैं आया फिर बाहर! भागा शर्मा जी के पास! बैठे हुए थे! मुझे देखा तो मुस्कुराये! मैं उन्हें देख मुस्कुराया! "हो गयी मेहनत?" पूछा हंस कर! "अरे नहीं!" कहा मैंने, "सच में?" बोले वो, "हाँ, और आपकी?" पूछा मैंने, "आज तो इज़्ज़त मिल जाती ख़ाक में!" बोले वो, "यानि कोई


   
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श्रीशः उपदंडक
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असला बर्बाद नहीं हुआ!" कहा मैंने, "होता कैसे!" बोले वो, "बहुत बढ़िया! आई कौन थी?" पूछा मैंने, "उज़मा, और आपके पास?" बोले वो, "शम्सिया!" कहा मैंने, 

और तभी आवाजें आयीं, कुछ अलग सी! आवाजें, जैसे कोई रंगा-रंग समां बाँधा जा रहा हो! हम दोनों कमरे में ही बैठे थे! कि असलम आया, मुस्कुराते हुए! असलम ने तो सही ही इंतजामात किये थे, बस हमारे ही पुर्जे ढीले हो गए थे! अब इतना भी लायक़-ए-उरूज़ नहीं हम! इस्तेमाल-ए-इद्राक न किया होता तो समझो इश्तियाक ले ही डूबता उस लम्हे तो! खैर, वो आया और एक डिबिया खोली, ज़र्दे की ख़ुश्बू उठी! पान थे वो! देसी पान के बड़े बड़े बीड़े! खुश्बू ऐसी कि पान को एक साथ ही निगल लिया जाए, चबाया ही न जाए! अब पान के तो हम शौकीन हैं! शर्मा जी तो चादनी-चौक के ही रहने वाले हैं, 

और वहाँ पान के रसिया जगह-जगह हैं! बेहतरीन पान हुआ करता है वहाँ का! अब मना करना, नाकद्री ही कही जाती! खुद हमारा ज़ेहन ही गालियां देता हमें! सो, उठा लिए दो बीड़े, एक मेरे मुंह में और एक शर्मा जी के मुंह में! वल्लाह! ऐसा पान तो जिंदगी में नसीब ही न हुआ था! सुपारी ऐसी, खोये जैसी! पत्ता ऐसा, मानिंद-ए-वक़-ए-ज़र! सुभान-अल्लाह! किस्मत वालों को ही नसीब होगा वैसा पान! खुश्बू से लबरेज़ और बे-अंदाजा ज़ायका! अब खुद को बख़्तसार नसमझें तो क्या समझें! "बेहतरीन हैं ये तो मियाँ असलम!" बोले शर्मा जी! 

"ज़ नवाज़ी है जी आपकी!" बोला छाती में हाथ रख कर अपनी वो! "कोई बद-अख़्तर ही हो, जो मुंह फेरे!" बोले वो, "तह-ए-कल्ब से शुक्रिया आपका हुजूर!" बोला वो, "शुक्रिया तो हमे अता करना चाहिए मियां असलम!" बोला मैं! "बस, ऐसी ख़जालत ही बख्शिये जनाब-ए-आली! ता-उम, एहसानगोशी से डूबा रहूंगा!" बोला वो! दरअसल, ये वो वक़्त था, जब हिन्दुस्तान की सरकारी और मादरी जुबाँ उर्दू ही थी! आज भी 

सरकारी महकमों में उर्दू का ही इस्तेमाल हुआ करता है। रोजनामचा आज भी उर्दू में ही लिखा जाता है, अदालती, कचहरी, ज़मीन, ज़मीन की पैमाइश, पुलिस का महकमा, वगैरह आज भी उर्दू ही इस्तेमाल करता है, यूँ कहें, कि बिना उर्दू के ये महकमे लंगड़े-लूले हैं तो गफ़लत न होगी! तो यहां तो उर्दू बोलने का चलन जौ-ए-झरफ़ पे था! "हुजूर आराम फरमाएं, कोई ज़रूरत हो, तो नाचीज़ बंदा पेश है आपके हज़र में!" बोला वो, "शुक्रिया असलम मियां! बोले शर्मा जी! चला गया असलम फिर, मुस्कुराता हआ! एक बात और, जब ये जाता था, अब असलम हो या फिर शमीम, जाते हुए कभी अपनी पुश्त नहीं दिखाते थे, बस पीछे होते जाते थे, यही तो है उसूल-ए-जैबत-ए-इफ्फ़त! या इज़्ज़त! "क्या बेहतरीन पान है साहब!" बोला मैं, "कोई जवाब ही नहीं!" कहा मैंने, "ज़र्दा देखा, क्या बेहतरीन है! आज तो नसीब ही नहीं!" बोले वो, "यक़ीनन! इतनी जिंदगी जी, ऐसा पान नसीब न हुआ!" मैं उस पान को चबाते हुए बोला, खुश्बू ऐसी कि जैसे इत्र में नहा के आये हों! किमाम का ऐसा ज़ायक़ा-ओ-लुत्फ़ कभी नहीं उठाया था! "खासतौर पर जैसे गुलिस्तां-ए-अदन से लाया गया हो!" बोले वो, "बेशक़!" कहा मैंने, वहाँ कमरे में, एक मर्तबान रखा था सामने, बड़ा सा, कपड़े से बंधा हुआ, "वो क्या है?" पूछा मैंने, "मर्तबान है" कहा मैंने, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"और उसके साथ?" पूछा उन्होंने, "आबगीन सा लगता है" कहा मैंने, 'आबगीन?" बोले वो, "हाँ, दस्तरख्वान पर रखने के लिए, शायद हाथ-धोने के लिए!" कहा मैंने, "अच्छा !" बोले वो, मैं उठा, चला ज़रा मर्तबान को देखने, कपड़ा खोला उसका, अंदर झाँका, तो अंदर कुछ रखा था, पोटली में बंधा हुआ, अब शर्मा जी भी उठे, और आ गए उधर ही, "क्या है?" पूछा उन्होंने, "पोटली है कोई" कहा मैंने, "निकालो?" बोले वो, 

और मैंने पोटली निकाली, दी शर्मा जी को, सुतली से बंधी थी, "खोलो ज़रा?" कहा मैंने. उन्होंने खोली, 

और जो निकला वो बेहतरीन था! नगीने थे उसमे, रंग-बिरंगे! "ये हीरे हैं क्या?" पूछा उन्होंने, "नहीं!" कहा मैंने, "तो फिर?" पूछा उन्होंने, "ये नगीने हैं!" कहा मैंने, "वो किसलिए?" पूछा उन्होंने, "पोशाक पर जड़ने के लिए!" कहा मैंने, "अच्छा ! तभी हैदर साहब के कंधे चमक रहे थे!" बोले वो, "हाँ, इसीलिए!" कहा मैंने, 

"क्या बात है!" बोले वो, "सो तो है!" कहा मैंने, "जब सूबेदार ऐसे हैं तो दारा-ए-मुल्क कैसा होगा!" बोले वो, "अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता!" कहा मैंने, "वैसे कौन हैं दारा-ए-मुल्क इस वक़्त?" पूछा उन्होंने, "अच्छा सवाल है। पता करता हूँ!" कहा मैंने, अब पोटली रखी वापिस, मर्तबान को बाँधा, और चला बाहर, आवाज़ दी असलम को, बग़ल के कमरे से, दौड़ता हुआ आया असलम! "जी साहेबान?" बोला वो, "असलम?" कहा मैंने, "हुजूर!" बोला वो, "दारा-ए-मुल्क कौन हैं, याद नही पड़ रहा?" बोला मैं, "जी, बताता हूँ, दारा-ए-मुल्क हैं शहंशाह-ए-गाज़ी अबुल फ़तह मुइजुद्दीन मुहम्मद जहांदार 

शाह साहिब-ए-कुरआन बादशाह-ए-जहान खुल्द आरामगाह!" बोला वो! "शुक्रिया!" कहा मैंने, 

और लौटा मैं वापिस! "अरे बाप रे!" कहा मैंने, "क्या हुआ?" बोले वो, "हम सन सत्रह सौ बारह और सत्रह सौ तरह के बीच में हैं कहीं!" कहा मैंने, "अरे! इतना पुराना?" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "और दारा-ए-मुल्क?" पुछा उन्होंने, "जहांदार शाह!" कहा मैंने, "ये कौन हैं?" बोले वो, "बहादुर शाह एक, के बाद हुए, उन्हीं के इब्न हैं! इनके बाद, फ़ारूखसियर हुए!" कहा मैंने, 

"जिनकी सुनहरी मस्जिद है?" बोले वो, "हाँ, वो सुभाष-पार्क के सामने वाली!" बोला मैं, "अच्छा! वो कँए वाले!" बोले वो, "हाँ जी!" कहा मैंने, "वाक़ई! कमाल है!" बोले वो, (कुँए वाली कहानी, फ़ारूखसियर से मुब्तिला है, आप जान सकते हैं, पढ़ सकते हैं! गैबी कहानी है अपने आप में! लोग आज भी कहते हैं, कि फ़ारूखसियर को घूमते हुए देखा है उन्होंने!) "हाँ, इतना लम्बा वक़्त?" कहा मैंने, "सब गैबी खेल हैं!" बोले वो, "ये तो है" कहा मैंने, 

और तभी तबला कसने की सी आवाज़ आई! जैसे तैयारी हो रही हो जश्न की! "तैयारी?" बोले शर्मा जी, "यही लगता है" कहा मैंने, तभी बाहर से, कोई गुज़रा! पायल की आवाज़ आई थी! गुज़रा, और सामने ही आ गया! ये एक औरत थी! हुस्न के बोझ से घायल! झेला नहीं जा रहा था जमाल-ए-हुस्न! "सलाम!" बोली वो "सलाम ख़ानुम!" कहा मैंने, "इजाज़त हो तो, अंदर आऊँ?" पूछा उसने, "इजाज़त कैसी, आइये!" कहा मैंने, 


   
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