वर्ष २०१२ फरीदाबाद ...
 
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वर्ष २०१२ फरीदाबाद की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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नहीं जा सकता, उसकी हालत नहीं है वहाँ जाने की, अब शर्मा जी ने उस से वो जगह पूछी जहां वो लड़का फंसा हुआ था, उस लड़के ने वो जगह बता दी और फ़ोन काट दिया!

वे चिंतित हुए!

मैं अपने कक्ष में भागा, अपना फ़ोन उठाया, उस पर भी दो मिस्ड कॉल्स आयी हुई थीं इसी नंबर से! जब ये नहीं मिला होगा तो उसने शर्मा जी के नंबर पर कॉल की थी!

अब मैं भी चिंतित हुआ!

"अब क्या किया जाए?" उन्होंने पूछा,

मैंने सोचा-विचारा! कुछ न कुछ तो ज़रूर ही किया जाना था, नहीं तो लड़का जान से हाथ धो बैठता, ये बसुनाथ कौन है? ये भी नहीं पता था? कहाँ ले जा रहा था? ये भी नहीं पता था? क्यों ले जा रहा था? ये भी नहीं पता था!

"आप अमित साहब को फ़ोन करो अभी, ये नहीं बताना कि लड़के के साथ क्या हुआ है, बू ये कहना कि हम जा रहे हैं वहाँ, वो मिल लें एक बार उस लड़के से" मैंने कहा,

बाप थे वो, सो दिल तो पिघलना ही था! और यही हुआ! अमित साहब ने झट से हाँ कह दी!

"शर्मा जी, आप भी तैयारी करो कल की, हम कल निकल रहे हैं यहाँ से" मैंने कहा,

"जी" वे बोले,

वक़्त ने करवट ले ली थी! मुझे जिसका डर था वही हुआ! वही अदल-बदल का खेल शुरू हो गया था! कच्ची मिट्टी था वो लड़का, कोई भी हथियाना चाहता था! बसुनाथ कोई अपवाद नहीं था, लेकिन उसने उसको मारा-पीटा था ये गलत हुआ था! और मुझे अब क्रोध आया उस बाबा पर जिसको मैं ये कह कर आया था कि उस लड़के का ध्यान रखना, लेकिन उसने नहीं रहा था उसका ध्यान!

"कौन है ये साला बसुनाथ?" शर्मा जी ने पूछा,

"मुझे भी नहीं पता" मैंने कहा,

''साले ने मारा-पीटा क्यों?" वे बोले,

"लड़के ने मना किया होगा जाने से" मैंने कहा,

"तो क्या जान ले लेगा?" उन्होंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"यही तो नहीं समझ आया मुझे?" मैंने कहा,

"बचाओ गुरु जी इस लड़के को" वे बोले,

"इसलिए जा रहे हैं" मैंने कहा,

शाम हुई!

उस रात मैंने अपनी विद्याएँ जागृत कीं, मंत्र जागृत किये, कुछ भी सम्भव था, लड़ाई-झगड़ा, द्वन्द कुछ भी! खुछ भी सम्भव था! मैंने सभी विद्याएँ जागृत कर लीं! मैं सशक्त हो गया और उसके बाद अपना समस्त आवश्यक सामान अपने बैग में रख लिया! अब कल यहाँ से निकल जाना था!

कार्यक्रम कुछ ऐसा बनाया था कि अमित साहब हमको स्टेशन पर ही मिलें, वहीँ से हम साथ हो कर चल देना था काशी के लिए! इसीलिए अगली सुबह कोई नौ बजे शर्मा जी मेरे पास पहुँच गए, अपना सामान तैयार करके लाये थे वो! हमने चाय-नाश्ता संग ही किया और फिर निकल पड़े स्टेशन के लिए!

स्टेशन पहुंचे,

अमित साहब अभी रास्ते में थे, अभी घंटा भर था गाड़ी छूटने में, सो हमने उनको उस जगह के बारे में बता दिया जहां हम मिल सकें और एक साथ हो कर चल सकें! इतने में टिकट हमने ले ही लिए थे!

करीब आधे घंटे में अमित साहब आ गये! हम साथ हुए, नमस्कार आदि हुई, वे अपनी सेहत खो चुके थे, मुश्किल से ही पहचान में आये, चेहरा बुझ गया था, मायूसी घर बना चुकी थी उनके चेहरे पर!

हम गाड़ी में बैठ गये! फिर से सीटों का जुगाड़ किया और कोई घंटे भर में तीन सीटों का जुगाड़ हो गया! हापुड़ आने तक सीटें मिल गयी थीं हमको! हम बैठ गये! अब इंतज़ार था काशी आने का!

अमित जी की सीट हमसे अलग थी, वे हमारे से कई सीट आगे बैठे थे, मैं और शर्मा जी अभी क साथ ही बैठे थे,

"कोई फ़ोन आया क्या दुबारा?" मैंने पूछा,

"नहीं जी" वे बोले,

"अच्छा" मैंने कहा,

"पता नहीं क्या बीत रही होगी उस पर" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जाने से ही पता चलेगा" मैंने कहा,

उन्होंने गरदन हिलायी!

"मैं तो पहले ही सोच रहा था कि ऐसा न हो जाए उसके साथ, और हो गया" मैंने कहा,

"कितना समझाया उसको" वे बोले,

'ज़िद थी न!" मैंने कहा,

"अब निकल गयी सारी ज़िद?" वे बोले,

"जाकर देखते हैं" मैंने कहा,

अमित साहब बेचारे अलग बैठे थे, कहीं खोये हुए!

"इनको नहीं बताना अभी कुछ" मैंने कहा,

"हाँ जी" वे बोले,

"मैं खुद ही बता दूंगा काशी में" मैंने कहा,

"ठीक है" वे बोले,

परेशान हो जायेंगे ये सुनकर अभी" मैंने कहा,

"हाँ जी" वे बोले,

"अब कल पहुंचेंगे वहाँ, सबसे पहले डेरे और वहाँ से बिना देर किये उस जगह पर" मैंने कहा,

"ठीक है जी" वे बोले,

गाड़ी धीमी हुई और फिर रुक गयी!

हम बातें करते रहे,

गाड़ी फिर से चल पड़ी! और हम भी चल पड़े आगे के लिए!

 

अगले दिन हम पहुँच गए काशी! यहाँ से हम सीधे अपने जानकार के डेरे पहुंचे और वहाँ पर मैंने अपने आने की सूचना दी, और फिर दो कक्ष ले लिए, उनमे गए, अपना अपना सामान रखा और मैं स्नान करने के लिए गया, बाद में शर्मा जी भी गए, फिर हम दोनों स्नानादि से फारिग हुए, वहाँ अमित साहब भी फारिग हो गए, अब हम दोनों अमित साहब के पास गए और मैंने उनको अब


   
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श्रीशः उपदंडक
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सारी बात बता दी, रुलाई फूट पड़ी उनकी, हाथ जोड़कर बैठ गए, मुझे बहुत दुःख हुआ उनकी हालत पर, अब सच में कुछ करना था, मैंने उनको समझाया और शांत किया, अब मैंने उनको हिम्मत से काम लेने को कहा, और ये भी कहा कि जैसा मैं कहता हूँ आप करते जाओ, लड़का आपके साथ भेज दूंगा आपके घर के लिए! अब उनमे कुछ हिम्म्त जागी!

"शर्मा जी तैयार?" मैंने पूछा,

"हाँ जी, बिलकुल!" वे बोले,

"अमित जी, कोई प्रतिक्रिया नहीं करना, जैसा मैं कहूं केवल वैसा करना" मैंने कहा,

उन्होंने गरदन हिला कर हाँ कहा, उनकी हालत बहुत दयनीय थी, मुझसे देखी नहीं जा रही थी, अब मेरा सबसे पहले काम उस लड़के को वहाँ से सुरक्षित निकालना था, न जाने क्या बीत रही होगी उस पर!

"चलो शर्मा जी" मैंने कहा,

"चलो गुरु जी" वे बोले,

अब अमित साहब भी साथ चले!

हमने अब सवारी पकड़ी और निकल पड़े उस जगह के लिए! वहाँ पहुंचे, तभी मेरे मन में खयाल आया कि क्यों न बाबा मदेर से मिला जाए? जानकारी हांसिल की जाए? हाँ, यही सही लगा, अब हम चल पड़े बाबा मदेर से मिलने के लिए! हम वहीँ उतर गए, वहाँ से दूसरी सवारी पकड़ी और चल पड़े उस बाबा मदेर के लिए! आधे घंटे से थोड़े से अधिक समय में हम वहाँ पहुँच गये! और फिर पैदल पैदल चल पड़े वहाँ के लिए! वही हालात थे वहाँ, जैसे उस दिन थे! वहीँ बाबा लोग! कोई सोता हुआ, कोई नहाता हुआ और कोई चिलम पकड़े आँखें बंद किये धुंआ उड़ाते हुए! फ़ालतू के लोग! निकम्मे लोग! चोर-उच्चक्के लोग! ये जगह ऐसे ही लोगों की पनाहगाह थी!

खैर,

हम पहुँच गये बाबा मदेर के कुटिया पर, अंदर घुसे, फिर से चार-पांच बाबा बैठे दिखायी दिए, मैं सीधा ही बाबा मदर की कुटिया के लिए चला, आवाज़ दी!

"कौन?" आवाज़ आयी, ये मदेर की आवाज़ नहीं थी, कोई और था!

"कौन?" फिर से आवाज़ आयी!

"बाहर आ?" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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एक आदमी बाहर आया!

तीनों को देखा उसने!

"बाबा मदेर कहाँ है?" मैंने पूछा,

कोई जवाब नहीं दिया उसने!

"कहाँ है?" मैंने पूछा,

तभी अंदर से वो चिलम आयी, बाबा मदेर की चिलम! मुस्कुराते हुए,

"अंदर आओ" उसने कहा,

"बाबा कहाँ है?" मैंने पूछा,

"आ रहे हैं अभी" उसने कहा,

हम अंदर चले गए,

बैठे,

वो पानी लेने चली गयी! अंदर दो बाबा बैठे थे, हमे ही देख रहे थे कि कौन हैं हम! कहाँ से आये हैं! तभी चिलम आ गयी!

"लो" उसने पानी दिया,

हमने पानी पिया,

"कहाँ गए हैं?" मैंने पूछा उस से,

"आ रहे हैं, स्नान करने गए हैं" वो बोली,

हमने प्रतीक्षा की, करनी ही थी, और तभी मदेर आ गया वहाँ, हमे बैठे देखा तो चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं! मिया भांप गया उसके भाव! क्या कहेगा ये भी!

"वो लड़का कहाँ है?" मैंने सीधे सीधे सवाल किया,

वो सकपकाया!

"कहाँ है?" मैंने पूछा,

"वो ले गया है उसको" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कौन वो?" मैंने पूछा,

"बसुनाथ" उसने कहा,

"कौन है ये बसुनाथ?" मैंने पूछा,

"बड़े बाबा" उसने कहा,

"तेरी माँ की ** का बड़ा बाबा!" मैं खड़े होते हुए बोला, सभी हैरत में वहाँ! मदेर आँखें नीचे करे!

"कब ले गया था?" मैंने पूछा,

"पंद्रह दिन हो गए" उसने कहा,

"क्यों ले गया था?'' मैंने पूछा,

"पढ़ाई कराने" वो बोला,

"तूने पढ़ाई की है उस से?" मैंने पूछा,

चुप हो गया!

"उस हरामज़ादे ने उसको हाथ कैसे लगाया?" मैंने पूछा,

"मुझे नहीं पता" उसने कहा,

"तूने कैसे भेज दिया उसको?" मैंने कहा,

"वो ज़बरदस्ती ले गया" उसने कहा,

"साले मन तो कर रहा है तेरे को इसी अलख में दाल कर भून दूं, लेकिन इस से अलख की महिमा भंगित हो जायेगी, कमीं आदमी, कुत्ता कहीं का साला!" मैंने गुस्से में कहा!

मुझे कुछ कहता तो साले को वहीँ भंजन-क्रिया का शिकार बना देता और साले के बदन में गाँठ लग जाती हमेशा के लिए! कोई खोल भी नहीं पाता! इसीलिए वो चुपचाप खड़ा हो सुनता रहा!

मैंने थूका वहीँ पर! मेरे पारा चढ़ गया था! साला उनमे से कोई भी कुछ बोलता तो मालिश कर देता जूतों से उसकी!

"तुझे भी देखूंगा, पहले इस बसुनाथ को देख लूँ" मैंने कहा,

"चलो शर्मा जी" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये कह कर मैं बाहर आ गया, कुटिया के बाहर बाबा लोग आ खड़े हुए थे! हम निकल आये तीनों वहाँ से! फिर बाहर सड़क तक आये, वहाँ से सवारी पकड़ी और अब चल दिए उस बाबा बसुनाथ के पास!

वहाँ पहुंचे! पक्का बाबाओं का क्षेत्र था ये! सभी वैसे ही, नशेड़ी, चरसी और गंजेड़ी क़िस्म के लोग! सुलपा खींच खींच के खुद सुलपा हो गए थे! ऐसे ही एक गंजेड़ी से मैंने उस बाबा का पता पूछा, उसने बता दिया, मैं चल पड़ा उस तरफ! ये एक स्थान था, पुराना सा स्थान, जैसे कब्ज़ा करके बैठे हों!

फिर से एक से पूछा, उसने अंदर की तरफ इशारा कर दिया, हम अंदर घुस गए! एक दीवार में एक चौखट लगी थी, दरवाज़ा नहीं था, वहीँ से घुस गए अंदर!

सामने पहुंचे,

वहाँ कक्ष बने थे! कोई आठ-दस होंगे! मैंने एक बाबा को पकड़ा और उस से उस बाबा के बारे में पूछा, उसने एक कमरे की तरफ इशारा किया, अब हम वहीँ चले! कमरे के सामने पहुंचे! और आवाज़ दी!

"कोई है?" मैंने कहा,

"कौन है?" अंदर से आवाज़ आयी,

"बाहर आ ज़रा" मैंने कहा,

दो आदमी बाहर आये, पक्के लफंगे साले! गुंडे कहीं के! उन्होंने हमको देखा!

"किस से मिलना है?" एक ने पूछा,

"बसुनाथ से" मैंने कहा,

"वो नहीं हैं यहाँ" वो बोला,

"कहाँ है?" मैंने पूछा,

"आ रहे हैं अभी" वो बोला,

हम बाहर ही खड़े रहे!

आधा घंटा बीत गया, कोई नहीं आया!

मैंने फिर से आवाज़ दी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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एक बाहर आया,

"कहाँ गया है ये बाबा?" मैंने पूछा,

उसको बुरा लगा मेरा तू-तड़ाक करना! बुरी सी नज़र से उसने मुझे देखा! आँखें चौड़े करते हुए!

"काम क्या है?" उसने पूछा,

"उसी से काम है" मैंने कहा,

"तमीज से बात करो" उसने कहा,

"तू मुझे तमीज सिखाएगा?" मैंने सीढ़ी चढ़ते हुए पूछा,

वो घबराया! वापिस अंदर चला गया!

अंदर से दूसरा आया!

"कहाँ गया है ये बाबा?" मैंने पूछा,

"पूजा करने" उसने कहा,

"कहाँ?" मैंने पूछा,

"किनारे पर" उसने इशारा करते हुए कहा उस तरफ,

"आओ शर्मा जी" मैंने कहा,

और हम नदी किनारे तक चलने के लिए निकल पड़े!

 

हम नदी की तरफ चल पड़े, रास्ता ऊबड़-खाबड़ था, जगह जगह वो तांत्रिक क़िस्म के लोग बैठे हुए थे, कनखियों से हमे देखते, लेकिन हमारा मक़सद उस बाबा बसुनाथ को ढूंढना था, वहाँ बहुत सारे थे ऐसे लोग, तभी मैंने एक ऐसे ही तांत्रिक को पकड़ा और पूछा उस बाबा के बारे में, उसने दूर एक जगह इशारा किया, वहाँ दूर एक अलाव जल रहा था, यहीं जाना था हमे, हम तीनों चल पड़े उस तरफ! उन ढोंगियों से अलग रास्ता बनाते हुए, हम बढ़ते गए, हम वहाँ पहुंचे, वहाँ का दृश्य ऐसा था जैसे कोई साधना चल रही हो! वहाँ वो बाबा अलाव के एक तरफ भस्म और अन्य सामग्रियां लेकर बैठा था, मंत्र सा पढ़ता और फेंक देता अलाव में! उसके आसपास तीन और बाबा बैठे थे, और दो औरतें थीं, जो बाबा के पीछे बैठी थीं, सभी मंत्र पढ़ते थे और सर झुकाते थे! मैं आगे बढ़ा उनकी तरफ ही, उन्होंने मुझे देखा, मैंने भी सभी को देखा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बसुनाथ कौन है?" मैंने पूछा,

सब चुप!

"मैं हूँ" एक बाबा ने कहा, बाबा हट्टा-कट्टा, पचास वर्ष के आसपास का रहा होगा, मजबूत कद-काठी का था! नशे में धुत्त था! मंत्र ऐसे पढ़ रहा था जैसे शिकार पर निकला हो!

"खड़ा हो" मैंने कहा,

ये सुना तो जैसे मैंने उसको धमकी दी! उसने भस्म को ज़ोर से फेंक कर अलाव में फेंका और खड़ा हो गया!

"मुझे जानता है?" उसने पूछा,

"जानता हूँ" मैंने कहा,

"कौन हूँ मैं?" उसने पूछा,

"कमीन इंसान!" मैंने कहा,

अब वो हुआ गुस्सा! उसके तीनों चेले भी उठ खड़े हुए! वो लड़खड़ाते हुए आगे आया,

"जा! चला जा! नहीं तो यहीं काट के बहा दूंगा!" उसने कहा,

मुझे बहुत गुस्सा आया उस पर उस समय! जी तो कर रहा था कि साले को धक्का देकर उस अलाव में ही घुसेड़ दूँ!

"और तू जानता है मैं कौन हूँ?" मैंने पूछा,

"कौन है रे तू?" उसने ठहाका मारते हुए पूछा,

मुझे क्रोध अब! भयानक क्रोध! मन तो कर रहा था साले को भंजन-क्रिया में लपेट दूँ! लेकिन लड़के के बारे में पता करना था मुझे! इसीलिए शांत रहा मैं!

अब मैंने उसको अपना परिचय दिया! वो नहीं पहचान पाया! फिर मैंने उसको एक और नाम बताया, अब वो जाना! उसको पहचान गया वो! लेकिन अकड़ के खड़ा रहा!

"क्या चाहता है?" उसने पूछा,

"तेरे पास एक लड़का है, गौरव, कहाँ है वो?" मैंने पूछा,

"कौन लड़का?'' उसने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जिसको तू मदेर से लाया है" मैंने कहा,

उसने अजीब सा मुंह बनाया!

"वो लड़का?" उसने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"क्या काम है उस लड़के से?" उसने पूछा,

"ये देख?" मैंने अब अमित साहब को आगे किया,

"ये पिता हैं उसके" मैंने कहा,

उसने देखा! और हंस पड़ा! बेग़ैरत इंसान!

"अब नहीं मिलेगा वो लड़का!" वो बोला,

और अब मैं आपे से बाहर हुआ! मैंने पास जाकर उसको एक ज़ोर का झापड़ रसीद कर दिया, वो चौंक पड़ा, उसने मुझ पर हाथ उठाने के लिए जैसे ही हाथ उठाया, शर्मा जी आगे बढ़े, वहाँ से वे चेले आगे बढ़े और हो गयी हाथापाई! मैं भी गिरा और वो बाबा भी गिरा, वो नशे में था तो संतुलन नहीं बन प् रहा था, मैंने उसकी दाढ़ी पकड़ा के दिए दो चार झटके! उधर वे दो लोग भिड़ गये शर्मा जी से, मैंने तभी उस बाबा को छोड़ा और फ़ौरन अलाव से एक जलती हुई लकड़ी उठा ली और शर्मा जी से लड़ते उन दोनों पर टूट पड़ा! जलती लकड़ी से बिलबिला पड़े वो! वो बाबा उठा और उसने अपने साथियों को आवाज़ दे दी! मैंने शर्मा जी को उठाया, मैंने उनको वो लकड़ी पकड़ा दी, उन्होंने लकड़ी पकड़ ली, लकड़ी लम्बी और डंडे जैसी थी, अब मुझे कुछ न सूझा! उस बाबा के आदमी भागे चले आ रहे थे! मैंने तभी इबु का शाही-रुक्का पढ़ दिया, झपाक से इबु हाज़िर हुआ, बस दो पल में ही वो सब आदमी वहाँ आ जाने थे! मैंने इबु को इशारा कर दिया!

"शर्मा जी, पीछे भागो!" मैंने कहा,

हम पीछे भागे!

अमित जी घबराये हुए पीछे भागे!

अब कमान सम्भाली इबु ने! जैसे वहाँ ज़मीन सी फट गयी! जैसे वहाँ चक्रवात सा आ गया! इबु ने उठा-पटक शुरू की! जैसे 'मेरे मालिक से भिड़ेगा?' ऐसा कहा इबु ने जैसे! और वहाँ उसने अब आतंक काट दिया! हवा में उड़ते हुए वे आदमी एक दूसरे से टकराने लगे! अमित साहब हैरत में पड़ गए कि ये क्या हुआ? वो बाबा क्या, वो आदमी क्या! सब फेंके गये करीब बीस-तीस फीट! किसी का सर फटा! किसी का हाथ टूटा, किसी का पाँव टूटा, कोई बेहोश हो गया! इबु ने कहर ढा दिया


   
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श्रीशः उपदंडक
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वहाँ पर! वो बाबा, बाबा बेहोश हो गया! और जो बचे वो इस से पहले कि कोई मदद करें, देखते ही भाग छूटे! वो औरतें नदी की ओर भाग गयीं! मैदान मार लिया इबु ने! इबु तो हज़ार तांत्रिकों पर भी भारी है! मित्रगण! खबीस को इसलिए बुरा माना जाता है, लेकिन ये बुरे नहीं! वचन के पक्के हैं! फ़ना हो जायेंगे लेकिन वचन से झूठे सिद्ध नहीं होंगे!

शर्मा जी ने मुझे देखा,

"इबु?" वे बोले,

"हाँ!" मैंने कहा,

मैंने माहौल देखा, और फिर इबु को वापिस किया! ये है मेरी ताक़त! ये है मेरा गुरुर मित्रगण! मेरे दादा श्री के गुरु द्वारा ये दोनों ही मेरे दादा श्री को दिए गए थे, इबु और तातार! इनके होते हुए मुझे कोई डर नहीं, कोई भय नहीं! मेरे दादा श्री को ये उनके परम पूज्य गुरु द्वारा दिए गए, और मेरे दादा श्री से मुझे! आज प्राण बचा लिए थे उसने मेरे!

"ज़रा आना?" मैंने कहा शर्मा जी से कहा, अमित साहब भी चले, मैंने उनको रोका वहीँ! वे रुक गए!

"जी" वे बोले,

अब हमने तलाश की उस बाबा की, और मित्रगण! रेत में मुंह धंसाए वो बाबा पड़ा हुआ था, अधमरा! इतनी बुरी हालत कि कराह भी न सके! अलाव जल रहा था अभी भी!

"शर्मा जी उठाओ इसे!" मैंने कहा,

अब उन्होंने उसको बाल पकड़ के उठाया!

उसने आँखें खोलीं अपनी!

"ओ माँ के **! खड़ा हो?" शर्मा जी ने कहा,

उसने आँखें बंद कीं!

"बिठाओ साले को!" मैंने कहा,

उन्होंने खींच लिया उसको! और बिठाने की कोशिश की, एक तो नशा, ऊपर से इबु की मार, नशे से भी ज़यादा चढ़ा इबु की मार का बुखार!

"खड़ा हो ओये बाबा?" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो बैठा, संतुलन बनाते हुए!

और मैंने उसको एक झापड़ दिया गाल पर!

"आँखें खोल बहन के **?" मैंने कहा,

उसने आँखें खोलीं!

"हाँ ओये? कहाँ है लड़का?" मैंने पूछा,

उसने गरदन ढलका दी नीचे!

"ये साला गया काम से, लगता है" शर्मा जी ने कहा,

"इसकी माँ का ***!" मैंने कहा और अपनी जूते से उसकी ठुड्डी उठायी!

"चल खड़ा हो कुत्ते?" शर्मा जी ने कहा,

वो फिर से नीचे गिर गया!

"खड़ा करो इसे?" मैंने कहा,

"नहीं हो रहा साला" वे बोले,

"होगा!" मैंने कहा,

मैंने आसपास नज़र दौड़ायी, कुछ नही था वहाँ, बस वो जलती लकड़ियां! मैंने एक लकड़ी उठायी, और उस बाबा की कमर पर रख दी! तिलमिला के वो उठा! बुरा सा मुंह बनाया उसने!

"सुन बहन के **? आराम से सुनता जा, नहीं तो यही लकड़ी तेरी ** में घुसेड़ दूंगा!" शर्मा जी ने कहा!

उसने होश साधा!

आँखें घुमायीं!

"कहाँ है वो लड़का?" मैंने पूछा,

अब उसने इशारा किया सामने! लेकिन सामने तो नदी थी!

शर्मा जी ने मारा साले को एक झापड़!

"कहाँ? कहाँ?" उन्होंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने फिर से वहीँ इशारा किया!

बात नहीं बनी!

"इसके बाल पकड़ो, खींचो इसे और नदी तक ले जाओ" मैंने कहा,

"ठीक है" शर्मा जी ने कहा,

अब हम दोनों ने उसको उसके बालों से खींच कर सीधा किया और साले को लात मार मार कर ले गए नदी तक!

अमित साहब!

वे हैरान थे!

बहुत हैरान!

 

हम उसको बड़ी मुश्किल से खींच रहे थे, रेत के कारण वो खिंच नहीं रहा था, लेकिन उसको खींचना ज़रूरी था, उसके चेले-चपाटे दूर से सारा नज़ारा देख रहे थे, लेकिन किसी की भी हिम्म्त नहीं हो रही थी हमे रोकने की! वो थोड़ी देर पहले का नज़ारा देख चुके थे!

"और ज़ोर से खींचो" मैंने कहा,

"खींच रहा हूँ" वे बोले,

बहुत मुश्किल था उसको खींचना, होश में वो आ नहीं रहा था, उसको नदी में पटकते तो उसको होश आते! अब अमित साहब भी लग गए खींचने में! और बड़ी मुश्किल से हम खींच कर नदी के किनारे तक लाये! वहाँ इक्का-दुक्का लोग थे, सभी हमे ही देख रहे थे!

"इसके पाँव डालो पानी में" मैंने कहा,

अब हमने उसके पाँव डाले नदी में, फिर अपने रुमाल भिगो कर उसके मुंह और छाती पर पानी निचोड़ा, उसके शरीर में हलचल हुई, एक दो बार आँखें खोलीं और फिर से बंद कर लीं,

"डालते रहो पानी" मैंने कहा,

"अच्छा" वे बोले,

उसने तभी अपने पाँव उठा लिए, घुटने मोड़ लिए और फिर आँखें खोलीं, हमे देखा और फिर ऊपर की तरफ खिसका!


   
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श्रीशः उपदंडक
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आ गया उसे होश!

"हाँ? कहाँ है वो लड़का?'' मैंने पूछा,

साला चुप!

"बता दे और निकल जा यहाँ से, नहीं तो फेंक देंगे तुझे नदी में ही!" मैंने धमकाया उसको!

धमकी का असर हुआ!

"कहाँ है?" मैंने पूछा,

अब उसने बता दिया कि कहाँ है वो लड़का! बस! काम हो गया हमारा! जी तो कर रहा था कि एक बार और धुनाई कर दी जाए, लेकिन अब वो बर्दाश्त नहीं कर सकता था, मर ही जाता, वो पहले से ही टूट-फूट चुका था! शरीर पर नील उभर आये थे बड़े बड़े! चेहरे पर सूजन आ गयी थी!

"अगर लड़का न ही मिला बसुनाथ तो तू आज बचेगा नहीं!" मैंने कहा,

उसने आँखें बंद कर लीं!

"चलो शर्मा जी" मैंने कहा,

"चलिए" वे बोले,

हम उसको वहीँ, वैसा ही छोड़कर चल दिए, वहीँ बसुनाथ के स्थान के लिए, वो लड़का यहीं था कहीं!

हम पहुँच गये उसके स्थान, तेज चलते और दौड़ते हुए! हमने उसके स्थान में प्रवेश किया, वहाँ हड़कम्प सा मच गया हमको देख कर! किनारे के तमाशे की खबर सभी को लग चुकी थी! हम अंदर गए, अब एक एक कमरा देखने लगे! कमरों में कई बाबा लोग लेते हुए थे, कई बैठे हुए बतिया रहे थे, हमने सभी कमरे देखे लेकिन किसी में भी वो लड़का नहीं दिखायी दिया, तभी मैं एक बाबा को पकड़ा को उस से उस लड़के के बारे में पूछा, उसने बता दिया कि लड़का वहीँ हैं, सामने झोंपड़ी में, हम वहीँ भागे, झोंपड़ी में घुसे, कोई चादर ओढ़े सो रहा था, मैंने सर से चादर हटाई, वो डरा! ये वही लड़का था, गौरव! अमित साहब की उसको देखकर रुलाई फूट पड़ी! उसको बेतहाशा पीटा गया था, उसके बदन पर सूजन थी, निशान थे हाथों पर, आँखें सूजी हुई थीं! अपने पिता जी को देखकर वो बहुत तेज 'पापा!पापा!' करके रोया, दोनों बाप बेटा गले मिले, अमित साहब ने अपने बेटे को दुलारना शुरू किया, किसी बालक की तरह, वो दृश्य मुझसे देखा न गया, मैं झोंपड़ी से बाहर आगे! जब पांच मिनट हुए तो मैं अंदर गया, लड़का और उसके पिताजी रो रहे थे!

"खड़ा हो गौरव" मैंने कहा,


   
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अब वो खड़े होने की कोशिश करने लगा, उसके पांवों में भी चोट थीं, उसको जैसे किसी शत्रु के समान पीटा गया था, शर्मा जी और अमित साहब ने उसको उठाया, उसको उसकी चप्पल पहनायीं और उसको बाहर चलने को कहा, मैं बाहर गया, और उनको भी बाहर आते देखा, हम चल दिए वहाँ से, वे साले सारे नशेड़ी हमे आँखें फाड़ फाड़ कर देखते रहे! आखिर में हम उस स्थान से निकले और उस लड़के को बाहर तक ले आये, यहाँ से मैंने एक सवारी पकड़ी, जिस से केवल हम ही रहें उसमे, ऐसा मैंने उस चालक को कहा और हम चल पड़े अपने डेरे की तरफ! गौरव की क़ैद ख़त्म हुई! हम पहले डेरे गए और फिर वहाँ से एक अस्पताल, वहाँ भर्ती करवा दिया उस लड़के को हमने! लड़का साथ दिन वहीँ रहा, कुछ आराम हुआ उसे, इन सात दिनों और रातों तक अमित साहब वहीँ रहे! हाँ, इस बीच उनके एक रिश्तेदार वहाँ पहुँच चुके थे! मैं और शर्मा जी भी उस लड़के को देखने जाते थे, रोज, सुबह भी और शाम को भी, या जब भी समय मिलता तब! और फिर लड़के की हालत में सुधार हुआ, हम उसको ले आये वापिस डेरे, एक रात वहाँ ठहरे और फिर अगले दिन हमने दिल्ली के लिए गाड़ी पकड़ ली, हम अगले दिन दिल्ली पहुँच गए!

अब यहाँ से वे तीन फरीदाबाद जाने वाले थे, और हम अपने स्थान! अमित साहब ने मेरे पाँव छूने का प्रास किया लेकिन मैंने नहीं छूने दिए, वे बड़े हैं मुझसे और ये गलत भी है! उन्होंने हमारा धन्यवाद किया और उसी शाम को घर आने को कहा दिया! हमने मान लिया और यहाँ से हम अलग अलग हो गए!

उसी दिन शाम को हम अमित साहब के घर गए! वे बहुत खुश थे, सभी बहुत खुश थे, वहाँ अमित साहब के रिश्तेदार आये हुए थे, सभी ने हमारा धन्यवाद किया! मैं गौरव से मिला, उसने मुझे देखा और मैंने उसे, उसने नमस्ते की और हमने भी की!

"अब ठीक हो गौरव?" मैंने पूछा,

उसने गरदन हिलाकर हाँ कहा!

अब अमित साहब हमे ले गए दूसरे कमरे में, यहाँ हमारी दावत का इंतज़ाम किया गया था! उस शाम हमने खूब दावत उड़ायी! और रात को हमने उनसे विदा ले ली!

हम वापिस अपने स्थान आ गए!

गौरव घर आ गया! सबसे बड़ी बात उसको समझ आ गयी! ज़िद और नादानी हमेशा मुसीबत का वायज़ बनती हैं! कभी भी गलत के लये ज़िद नहीं करनी चाहिए! मैं ये नहीं कह रहा कि उसका साधक बनने का फैंसला गलत था, नहीं फैंसला गलत नहीं था, बस उसने गुरु गलत चुना था और यहीं वो मार खा गया!


   
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