वर्ष २०१२ फरीदाबाद ...
 
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वर्ष २०१२ फरीदाबाद की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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मैं भी तैयार हो गया!

और हम अब निकल पड़े बाबा बाबूराम के स्थान के लिए!

सवारी पकड़ी और निकल गए वहाँ से!

वहाँ पहुंचे,

सब कुछ वैसा का वैसा ही था, कुछ नहीं बदला था! वही सब और वैसे ही सब लोग! नशेड़ी और चोर-उच्चक्के! हम सीधे अंदर चले गये! एक आदमी से बाबूराम के बारे में पूछा, उसने बता दिया और हम वहीँ के लिए चल पड़े!

वहाँ पहुंचे,

बाबूराम को आवाज़ दी शर्मा जी ने!

"कौन?" अंदर से आवाज़ आयी!

"बाहर को आ भाई?" शर्मा जी ने कहा,

वो बाहर आ गया!

पहचान गया!

नमस्ते की!

"अंदर आओ" उसने कहा,

हम अंदर चले गए,

उसने पास बैठी एक औरत से पानी लाने को कहा, औरत उठी और पानी लेने चली गयी,

"कैसे आये?" बाबूराम ने पूछा,

'ऐसे ही आ गए, दिल्ली से आये थे तो सोचा यहाँ होकर चले जाएँ" मैंने कहा,

"अच्छा" वो बोला,

अब वो औरत पानी लायी, साथ में एक लोटा भी, मैंने पानी पिया और शर्मा जी ने भी, फिर औरत चली गयी बाहर!

"बाबूराम? वो लड़का कहाँ है?" मैंने पूछा,

"वो लड़का?" उसने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ" मैंने कहा,

"वो तो चला गया" वो बोला,

मैं चौंका!

"कहाँ चला गया? मैंने पूछा,

"मदेर बाबा के संग" वो बोला,

"ये कौन है मदर बाबा?" मैंने पूछा,

"पहुंचे हुए बाबा हैं बहुत" वो बोला,

"कहाँ के हैं?" मैंने पूछा,

"यहीं के हैं" वो बोला,

"यहीं कहाँ के?" मैंने पूछा,

अब उसने मुझे उस बाबा का स्थान बता दिया!

"क्यों गया वो?" मैंने पूछा,

"बाबा ने देखा उसको, उसके बारे में जाना और फिर ले गए उसको यहाँ से, अब कुछ बनके ही लौटेगा" वो बोला,

"अच्छा!" मैंने कहा,

मित्रगण! अब मुझे पहली बार उस लड़के की चिंता हुई! कौन है ये मदेर बाबा? कैसा है? क्या आचरण है? ये जानना ज़रूरी था, बाबूराम तो उसकी तारीफ़ के पुल बांधे जा रहा था!

"उठो शर्मा जी" मैंने कहा,

वे उठे!

"कहाँ जाओगे? वहीँ?" उसने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"वो नहीं मिलने देंगे" वो बोला,

"मैं चाहूंगा तो मिल भी लूँगा!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मान जाओ" उसने हाथ जोड़कर कहा!

"सुनो बाबूराम! तुम मुझे नहीं जानते! तुम चिंता न करो, तुम्हारा नाम नहीं आएगा!" मैंने कहा,

हम तभी कि तभी वहाँ से उस बाबा मदर के स्थान के लिए निकल पड़े!

"बाबा ले गया?" शर्मा जी ने पूछा,

"शर्मा जी, वो लड़का अभी खड़िया है, पत्थर नहीं!" मैंने कहा,

"हाँ जी" वे बोले,

अब हमने सवारी पकड़ी और बैठे!

वहाँ उतर गए!

पता था ही साथ में, कोई दिक्कत नहीं हुई, हम वहाँ के लिए अब पैदल ही चले, आगे का रास्ता पैदल का ही था!

हम वहाँ पहुंचे!

ये गौशाला सी थी, यहाँ का माहौल पवित्र और शांत था, भगवे वस्त्रों में साधक घूम रहे थे! ऐसे ही एक साधक से मैंने उस बाबा मदेर के बारे में पूछा, उसने हमे और आगे जाने को कह दिया, कहा कि ऐसे बाबा तो वहाँ आगे रहते हैं, और चला गया!

अब हम आगे चले!

"साले ने पता तो यही दिया था?" शर्मा जी ने कहा,

"उसके आसपास का ही पता दिया था" मैंने कहा,

"साला वैसे ही बता देता?" वे बोले,

"नहीं बताया होगा!" मैंने कहा,

और अब वहाँ वैसे बाबा लोग दिखायी देने लगे! भस्म लपेटे और त्रिशूल धारण किये हुए! ऐसे में से ही था कोई मदेर बाबा!

उसको ही ढूंढना था अब!

हम आगे बढ़े! वहाँ के वे बाबा लोग हमे देखने लगे! काफी लोग थे वहाँ, कुछ नहा-धोकर अपने केश निचोड़ रहे थे, कुछ कपड़े फटकार रहे थे! कुछ बैठे हुए बतिया रहे थे और कुछ सुलपे का आनंद उड़ा रहे थे! और कुछ हंसी-ठट्ठा कर रहे थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ऐ? कहाँ जा रहे हो?" एक बाबा ने रोका हमे,

हम नहीं रुके,

वो भागता हुआ आ गया सामने!

"कहाँ जा रहे हो?" उसने पूछा,

मैंने उसको देखा, एक हाथ लगता उसको तो हड्डियां बिखर जाती वहीँ के वहीँ!

"तुझे क्या परेशानी है?" मैंने पूछा,

"कोई परेशानी नहीं" उसने कहा,

"तो हट सामने से" मैंने कहा,

वो हट गया!

फिर से आ गया साथ साथ!

अनुभव क्र.६५ भाग ३

By Suhas Matondkar on Monday, September 15, 2014 at 4:35pm

"कोई काम है क्या?" उसने पूछा,

अब मैं रुका,

वो पीछे हटा!

"हाँ है" मैंने कहा,

"क्या काम?" उसने पूछा,

"मदेर बाबा से मिलना है" मैंने कहा,

"मदेर बाब से?" उसने चौंक के पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"कोई काम है क्या?" उसने पूछा,

"काम है तभी तो जा रहे हैं" मैंने कहा,

"जाओ फिर" उनसे कहा, लेकिन चुटकी बजाते हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो पीछे मुड़ा,

"ओये?" मैंने आवाज़ दी उसको, उसने पीछे मुड़ के देखा,

"इधर आ" मैंने चुटकी मारते हुए कहा,

वो आया,

"अब सीधे सीधे जा ऐसे ही वापिस" मैंने कहा,

वो घबरा गया था! सीधे सीधे वापिस चला गया!

"साला बद्तमीज़!" शर्मा जी ने कहा,

"हाँ, साला काम पूछा रहा था!" मैंने कहा,

अब हम और आगे चले,

एक जगह आग जल रही थी! वहाँ काफी लोग बैठे थे! हम वहीँ गये!

"मदेर बाबा कहाँ है?" मैंने पूछा,

सभी आँखें फाड़ हमे देखने लगे!

"कहाँ मिलेगा ये मदेर बाबा?" मैंने पूछा,

एक ने बाजू आगे करके बाएं तरफ इशारा कर दिया, हम वहीँ चल पड़े!

आगे गए वहीँ तो और ऐसे ही लोग मिले, बैठे हुए,

"ये मदेर बाबा कहाँ मिलेगा?" मैंने पूछा,

वे भी चौंके!

"अंदर" एक ने कहा,

अंदर!

मैंने उधर देखा, ये तो एक अस्थायी सा बसेरा था, लकड़ी की बाड़ लगी थी, और लकड़ी का ही एक कामचलाऊ दरवाज़ा भी था!

हम अंदर चल पड़े, वो दरवाज़ा खोलते हुए!

फिर से कुछ आदमी और औरतें दिखायी पड़े वहाँ! यहाँ भी झोंपड़ी ही पड़ी थीं! बड़ी बड़ी झोंपड़ी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ये मदेर बाबा कहाँ मिलेगा?" मैंने पूछा,

उन्होंने हमे ऊपर से नीचे तक देखा!

"बताओ?" मैंने कहा,

"वहाँ" एक ने इशारा किया,

वहाँ एक झोंपड़ी थी!

हम वहीँ चल पड़े!

झोंपड़ी के बाहर खड़े होकर आवाज़ दी!

"बाबा?" मैंने पुकारा,

"कौन है?" अंदर से आवाज़ आयी,

"बाहर आओ ज़रा" मैंने कहा,

"अंदर आ जाओ" उसने कहा,

अब हम अंदर चले गए!

अंदर तो पूरा श्मशान सा बना रखा था बाबा ने! बिलकुल वैसा ही दृश्य! एक तरफ रुद्राक्ष और डमरू टाँगे त्रिशूल गड़ा था और आसन बिछा था!

"कौन हो तुम?" बाबा ने पूछा,

कोई साथ वर्ष के करीब का रहा होगा बाबा! लम्बा-ठाड़ा! सफ़ेद दाढ़ी और सफ़ेद मूंछें रखे! मालाएं पहने! भस्म लपेटे!

"यहीं से आये हैं" मैंने कहा,

"बैठ जाओ" उसने कहा,

हम बैठ गये, नीचे, गुदड़ी बिछी थी, हम बैठ गये!

"पानी मिलेगा?" मैंने पूछा,

"हाँ, क्यों नहीं" वो बोला,

उसने मद्दो मद्दो आवाज़ दी, एक औरत आयी, उस से पानी के लिए कह दिया, वो पानी लेने गयी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"यहाँ कहाँ से आये हो?" उसने पूछा,

अब मैंने उसको बता दिया कि कहाँ से आया हूँ! और कौन हूँ!

वो चौंका अब!

"क्या काम है?" उसने पूछा,

"एक लड़का है यहाँ पैर गौरव नाम का, जिसको आप लेकर आये हो बाबूराम के यहाँ से, कहाँ है वो?" मैंने पूछा,

"कैसे जानते हो उसको?" उसने पूछा,

"वो भी जानता है" मैंने कहा,

पानी आगया, हमने गिलास लिए अपने पानी के! और वापिस कर दिए, मुस्कान बिखेरती वो मद्दो चली गयी वहाँ से! चिलम थी शायद बाबा की!

"कहाँ है?" मैंने पूछा,

"बुलाता हूँ" उसने कहा,

अब फिर से मद्दो को आवाज़ दी और उस लड़के को लाने को कहा! वो फिर से मुस्कुराते हुए चली गयी!

"कैसा है लड़का?" मैंने पूछा,

"लड़का बहुत आगे तक जाएगा" बाबा ने कहा,

"अच्छा!" मैंने कहा,

"मेहनत कर रहा है बहुत" वो बोला,

"बढ़िया है" मैंने कहा,

और तभी वो लड़का आया वहाँ, उसकी शक्ल-ओ-सूरत क़तई बदल चुकी थी, पतला दुबला हो गया था, आँखें धंस गयीं थीं गड्ढों में, गाल भी पिचक गए थे! अभी तो ककहड़ा ही था, व्याकरण तो आरम्भ भी नहीं हुई थी!

वो सामने आ बैठा बाबा के कहने पर!

"पहचाना?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ" वो बोला,

"कैसा है?" मैंने पूछा,

"ठीक हूँ" वो बोला,

"याद नहीं आती किसी की?" मैंने पूछा,

"नहीं" वो बोला,

अब भी वही अकड़!

"कितना सीख लिया?" मैंने पूछा,

"शुरुआत है" उसने कहा,

"अलख उठवायी इस से?" मैंने उस बाबा से पूछा,

"अभी इस लायक़ नहीं" वो बोला,

"मुझे नहीं लगता तब तक ये ज़िंदा भी बचेगा!" मैंने कहा,

"हो जाएगा!" बाबा ने कहा,

"हाँ, अभी भी ललक है?" मैंने पूछा लड़के से,

"हाँ" उसने कहा,

"तू मरके रहेगा!" मैंने कहा!

"ऐसा नहीं बोलो" बाबा ने उसके सर पर हाथ रखते हुए कहा,

"देख लेना मदेर! ये मर जाएगा ऐसे ही एक दिन! इसकी हालत देखो!" मैंने कहा,

"हो जाएगा ठीक" वो बोला,

लड़के को मेरी बात बुरी लगी सो उठने लगा वहाँ से, जैसे ही उठा बाबा ने रोका!

"सुन लड़के! मैं कौन हूँ इस बाबा से पूछ लेना, ये बता देगा!" मैंने कहा,

लड़का चुप!

"और सुन, कभी जब मन भर जाए तो इस नंबर पर फ़ोन कर लेना, मन भर जाए या मौत सामने दीख पड़े खड़ी हुई तो!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने शर्मा जी से अपना और उनका नंबर उसे देने को कहा, उन्होंने एक कागज़ निकाल कर उस लड़के को नंबर दे दिया, अनमने मन से उसने वो कागज़ रख लिया!

अब मैं खड़ा हुआ!

"ध्यान रखना इसका, टूट जाए तो इसको भेज देना वापिस" मैंने कहा,

बाबा ने आँखें बंद कर गरदन हिलायी!

औ हम उस झोंपड़ी से बाहर निकल आये!

और चल पड़े वापिस!

जहां हम ठहरे थे वहीँ के लिए!

 

हम वापिस आ गये वहाँ से, वहीँ जहां हम ठहरे थे, उस बाबा को मैं समझा आया था कि वो उस लड़के का ध्यान रखे! लड़के ने ज़िद पकड़ रखी थी और वो मान भी नहीं रहा था, अब न जाने नियति ने क्या ठान रखा था उस लड़के के लिए! हमसे जो बन पड़ रहा था वो कर ही रहे थे, हाँ, पिस वे रहे थे बेचारे माँ-बाप और उनकी बिटिया, वे अपनी बिटिया के ब्याह के लिए परेशान तो थे ही, लेकिन पुत्र ने और लुटिया डुबो दी थी! और हैरानी की बात ये कि कोई कुछ नहीं कर पा रहा था! क्या जाल बुना था समय ने! समय के इस मकड़जाल में सब फंसे थे! हम अपने कक्ष में आये, और बैठ गए, पानी मंगवाया और पानी पिया, फिर मैंने चाय के लिए बोल दिया, थोड़ी देर बाद चाय भी आ गयी, हम चाय पीने लगे!

"कैसी हालत हो गयी है उसकी" शर्मा जी बोले,

"हाँ, हालत खराब है" मैंने कहा,

"कहाँ जाकर मरा है ये लड़का" वो बोले,

"मर जाएगा देख लेना, यदि ऐसा ही रहा तो" मैंने कहा,

"लग रहा है" वे बोले,

"नंबर दे दिया है, कभी मन पलटे तो कर लेगा फ़ोन" मैंने कहा,

"हाँ जी" वे बोले,

चाय ख़त्म हुई और मैं जूते खोल, अब लेटा बिस्तर पर, शर्मा जी वहीं कुर्सी पर बैठ गये, मैंने अब आँखें बंद कर लीं, और झपकी लेने की कोशिश करने लगा, लेकिन बार बार उसी लड़के के ख़याल


   
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श्रीशः उपदंडक
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मेरे ज़हन में आते जाते, क्या करेगा? कैसे करेगा? आदि आदि! आखिर में सोया न गया! मैं उठ गया, बैठ गया,

"नींद नहीं आयी?" उन्होंने पूछा,

"नहीं" मैंने कहा,

"क्या हुआ?" उन्होंने पूछा,

"पता नहीं" मैंने कहा,

"उस लड़के की चिंता?" उन्होंने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"वो किसलिए?" उन्होंने पूछा,

"अब मुझे नादान लगता है वो लड़का" मैंने कहा,

"नादान तो है ही" वे बोले,

"लेकिन ज़िद पर भी अड़ा है" मैंने कहा,

"यही तो बात है" वे बोले,

"ये सही नहीं है" मैंने कहा,

"क्या कर सकते हैं?" उन्होंने कहा,

वाक़ई, क्या कर सकते थे हम!

"सही कहा आपने! क्या कर सकते हैं?" मैंने कहा,

"चलो, कोई बात नहीं" वे बोले,

"हाँ, देखते हैं क्या होता है" मैंने कहा,

दोपहर बीत चुकी थी!

मैं फिर से लेट गया, भविष्य में झाँकने लगा, कोशिश करने लगा कि आगे क्या हो सकता है, अच्छा भी और बुरा भी! और इसी उहापोह में मेरी आँख लग गयी, मैं सो गया!

जब आँख खुली तो पांच का वक़्त था, शर्मा जी भी सोये हुए थे, गर्मी बहुत थी, पसीने के मारे बनियान गीली हो गयी थी! मैंने स्नान करने की सोची और स्नान करने चला गया, स्नान किया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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थोड़ी राहत मिली, मैं कुर्सी पर बैठ गया, पंखे के नीचे, पाँकह अपनी पूरी गति से चल रहा था लेकिन उसकी हवा लू के समान लग रही थी!

तभी शर्मा जी हिले-डुले, उनकी आँखें खुलीं, मुझे बैठे देखा तो वो भी उठ गए अब! घड़ी देखी साढ़े पांच बजे थे, उनका भी गर्मी के मारे बुरा हाल था, वे भी स्नान करने के लिए चले गए, स्नान किया और वापिस आये, फिर बैठ गये!

"चाय लाऊं?" उन्होंने पूछा,

"ले आओ" मैंने कहा,

अब लोहे की काट लोहा! सो चाय पीना ही मुनासिब था, वो चाय लेने चले गये, और फिर दो कप ले आये थोड़ी देर बाद, हमने चाय पीनी शुरू की!

"सारा सामान आदि जांच लेना, कल निकलना है" मैंने कहा,

"चिंता न करो आप" वे बोले,

हमे निकलना था वहाँ से कल, इसीलिए सामान आदि को समेटना था, कहीं कुछ रह न जाए! इसीलिए मैंने कहा था!

चाय ख़तम की हमने, कप रख दिए वहीँ,

"आओ ज़रा बाहर चलते हैं" मैंने कहा,

"चलिए" वे बोले,

मैंने अपने जूते और कमीज़ पहनी, उन्होंने भी पहने और कक्ष को ताला लगा कर हम बाहर के लिए चले, हम उस डेरे से बाहर ही आ गए, पैदल पैदल चलते रहे,

"कहाँ चलना है?'' उन्होंने पूछा,

"चलते हैं घाट पर, थोड़ा समय भी कट जायेगा" मैंने कहा,

"चलिए" वे बोले,

अब वहाँ से सवारी ली और सीधे घाट पर पहुँच गए, वहाँ थोड़ी देर बैठे, आसपास का नज़ारा देखा, श्रद्धालु आदि और यात्री आदि अपना अपना सामान उठाये यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ आ जा रहे थे! एक क्रमबद्धता थी वहाँ! पंडे घूम रहे थे कि कोई जजमान मिल जाए तो आज का दिवस सफल हो! जिनका हो चुका था सफल वे अब आराम कर रहे थे! हम वहीँ बैठे रहे, अभी दिन में काफी प्रकाश बाकी था, अभी काफी भीड़ थी वहाँ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कहाँ कहाँ से आते हैं श्रद्धालु यहाँ!" वे बोले,

"ये तो सैंकड़ों साल से ऐसे ही चल रहा है!" मैंने कहा,

"हाँ! ये है भी तो श्री महा-औघड़ की नगरी!" वे बोले,

"हाँ! और कोतवाल भी उन्ही के ठहरे!" मैंने कहा,

"हाँ जी!" वे बोले,

तभी वहाँ कुछ दक्षिण भारतीय श्रद्धालुओं की एक टुकड़ी सी आयी! उनकी श्रद्धा देखते ही बनती थी! मन बहुत खुश हुआ! इस आधुनिक भारत में ऐसी श्रद्धा देखकर मन गदगद हो उठा! हमने उनके लिए रास्ता छोड़ दिया! वे चले गए नदी की तरफ! हम काफी देर तक बैठे, जब तक की पूजन का समय न हो गया, और फिर हम उसी समय वहाँ से निकल लिए, अँधेरा छा गया था अब! धुंधलका गहराने लगा था!

"चलें वापिस?" मैंने कहा,

"चलिए" वे बोले,

"कुछ लेना तो नहीं?" मैंने पूछा,

"नहीं, सब है" वे बोले,

मेरा मतलब सिगरेट आदि से था!

सवारी पकड़ी और हम सवार हुए,

वहाँ से पहुंचे अपने स्थान तक, जहां उतरना था, अब यहाँ से पैदल का रास्ता था, बस पैदल पैदल बढ़ते चले गये अपने स्थान तक!

वहाँ पहुंचे,

हाथ-मुंह धोया,

फिर कक्ष खोला, अंदर गए! बैठे, फिर मैं खड़ा हुआ, बाहर तक गया, मैंने तब एक सहायक को बुलाया, वो बगीची में पानी लगा रहा था, मैंने उस से सामान लाने को कहा और कुछ खाने-चबाने को, वो चला गया! मैंने वापिस अंदर आ गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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थोड़ी देर में वो सहायक, सारा सामान लेकर आ गया, शर्मा जी ने उसको एक सौ का नोट थमा दिया, वो खुश हो गया और कह गया कि कुछ और ज़रुरत हो तो बता देना! फिर वो मुस्कुराते हुए चला गया!

अब हम हुए शुरू!

तभी दिल्ली से एक फ़ोन आया शर्मा जी के पास, ये फ़ोन उनके एक जानकार का था, वो मिलना चाहता था शर्मा जी से शर्मा जी ने बता दिया कि वो परसों दिल्ली पहुंचेंगे और फिर वो शाम को मिल लें उस दिन, कोई व्यक्तिगत काम था शर्मा जी का उस से, कोई परिचित था उनका पुराना! फ़ोन काटा और फिर पैग बनाए शुरू किये! हमने भोग दिया और फिर पैग खाली कर दिया! फिर से मुझे उस लड़के का ध्यान आ गया! मैं मुस्कुरा पड़ा!

"क्या बात है?" उन्होंने भी मुस्कुराते हुए पूछा,

"कुछ नहीं, उस लड़के को क्या कहूं?" मैंने कहा,

"मूर्ख!" वे बोले,

"नहीं, भोला है वो!" मैंने कहा,

"वो कैसे?" उन्होंने पूछा,

"कैसा अडिग है! मुझे अपने शुरूआती दिन याद आ गये! जब मैं तैयार था पूरी तरह! और जब मैं बैठा खेड़े में तो पता चला कि तैयारी मायने नहीं रखती! नियम मायने रखते हैं! ये नियम बहुत क्लिष्ट हैं, अस्सी में से यदि एक भी , यूँ कहो कि उन्हासीवाँ भी नियम से भंग हुआ तो समझो सब ध्वस्त हुआ! ऐसा बहुत बार हुआ मेरे साथ, मैंने बहुत डांट-फटकार खायी है! अपने सभी सिखाने वालों से! मार भी काई है! और कई बार तो दुत्कारा भी गया हूँ! सब याद आ गया मुझे!" मैंने कहा,

"लेकिन आप अडिग रहे!" वे बोले,

"हाँ! मेरा मार्गदर्शन बहुत मज़बूत था शर्मा जी!" मैंने कहा,

"अच्छा!" वे बोले,

"दादा श्री ने जैसे मुझे ढाल दिया अपने सांचे में! मैं एक बार ढला तो ढलता चला गया! जहां भेजा गया, वहाँ गया, जो करवाना था उन्होंने किया, सेवा, चाकरी झाड़ू-बुहारी, चूल्हा-चिलम! सब का सब! वही दिन आज याद आ गए!" मैंने कहा,

"ये लड़का ऐसा कर पायेगा?" उन्होंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कर भी सकता है!" मैंने कहा,

"लेकिन उसके पास कोई सशक्त मार्गदर्शन नहीं है" वे बोले,

"शुरुआत व्यंजन से होती है, स्वर-माला से! उसके बाद शब्द बनते चले जाते हैं! फिर व्याकरण! सब लगन से होता चला जाता है!" मैंने कहा,

"ऐसा ये कर पायेगा? मुझे नहीं लगता!" वे बोले,

"सब सम्भव है यदि लक्ष्य प्राप्ति में लग्न हो तो! सटीक और उचित प्रकार की लगन से कोई लक्ष्य अछूता नहीं रह सकता भेदन के लिए!" मैंने कहा,

अब फिर दूसरा पैग!

 

फिर हमारी बातें होती रही उसी लड़के के विषय में! मुझे अब वो लड़का भोला और नादान लगने लगा था, मुझे जैसे उसकी चिंता सताने लगी थी, मुझे लगने लगा था कि कहीं कोई अनहोनी घटने वाली है उस लड़के के साथ, और उसके वे गुरु, वे गुरु भाग कर जाने वाले थे उसको छोड़कर! लेकिन फिर भी, फिर भी मैं कुछ नहीं कर सकता था, अब वही संपर्क करे तो करे! रात हुई, हम सो गए!

सुबह उठे और फिर नित्य-कर्म और स्नानादि से निवृत हुए, मैं उसके बाद नाश्ता आदि करने के पश्चात, डेरे के संचालक और अन्य साथियों से मिलने गया, अब हमे निकलना था वहाँ से, गाड़ी छूटने में बस डेढ़ घंटा बाकी था, इसीलिए मैं सभी से मिला, और फिर उनसे विदा ली, मैं वापिस कक्ष में आया और शर्मा जी से कहा, "चलिए शर्मा जी"

अब मैंने अपना सामान उठाया,

शर्मा जी ने अपना,

"चलिए" वे बोले,

और हम निकल पड़े वहाँ से, अब स्टेशन पहुंचना था, सवारी पकड़ी और स्टेशन पहुंचे, और फिर उसके बाद गाड़ी लगी अपने प्लेटफार्म पर, हम सवार हुए और बैठ गए, थोड़ी देर बाद गाड़ी छूट गयी, अब हम दिल्ली की ओर रवाना हो गये!

अगले दिन हम दिल्ली पहुँच गये, यहाँ से अपने स्थान गये सीधा और वहाँ जाकर थोड़ा आराम किया, फिर चाय पीने के बाद शर्मा जी वहाँ से अपने निवास-स्थान के लिए निकल गए, मैंने भी आराम किया उस दिन!


   
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शाम को शर्मा जी आ गए, माल-मसाला लेकर, हमने खाया-पिया और फिर बातें कीं कुछ ज़रूरी, शर्मा जी के जानकार आदि की, जिन्होंने फ़ोन किया था, उन्होंने मुझे उस जानकार की कुछ समस्या के विषय में बताया, और इस प्रकार फिर रात्रि होते होते मैंने कुछ प्रयोग किये और मैं सो गया, शर्मा जी पहले ही जा चुके थे!

समय बीता,

करीब दो महीने और बीत गए!

अमित साहब के फ़ोन कभी-कभार आ जाते थे, उनसे बात भी हो जाती थी, उनको नहीं बताया था हमने अपनी मुलाक़ात का उस लड़के से, उनको और तक़लीफ़ होती जो किसी तरह से भी सही नहीं था! एक बार वो अाये भी मिलने के लिए, दुखी और परेशान, उनकी पत्नी की हालत बहुत खराब रहने लगी थी! सुनकर मन दुखी तो होता था लेकिन किया कुछ नहीं जा सकता था, अब तो अमित साहब भी थक-हार चुके थे, उन्होंने हालात से समझौता कर लिया था, अब यही उपाय शेष था बस!

एक महीना और बीत गया!

ये सितम्बर का महीना था, शुरू ही हुआ था, एक शाम हम बैठे हुए थे बाहर, कुर्सी बिछाकर, कुछ खाते हुए, मैं और शर्मा जी, कि तभी शर्मा जी के फ़ोन पर घंटी बजी, ये नंबर लैंडलाइन से था और जिस जगह से आ रहा था वो था काशी! शर्मा जी चौंके और उसको देख मैं भी चौंका! मेरा कोई भी जानकार लैंडलाइन से बहुत कम ही फ़ोन किया करते थे, और जिस नंबर से वो फ़ोन आते थे वो ये फ़ोन नहीं था, मैंने शर्मा जी से कहा कि फ़ोन उठाओ!

उन्होंने फ़ोन उठाया!

ये फ़ोन एक लड़के का था! नाम था उज्ज्वल!

उसने अपने आपको उस लड़के गौरव का साथी बताया!

अब बात शुरू हुई!

वो लड़का बहुत घबराया हुआ था! डरा-सहमा! उस से बात नहीं हो रही थी, उसने बताया कि उसकी पिटाई की गयी है और उसको कोई अपने साथ ले जाने की ज़िद कर रहा है, लड़का नहीं जाना चाहता था, उसके साथ ऐसा करीब दस दिन से हो रहा था, अब गौरव मदद मांग रहा था! शर्मा जी ने पूछा कि कौन साथ ले जा रहा है? तो उसने बताया कि एक है बाबा जिसका नाम है बसुनाथ बाबा! उसने उसको बहुत पिटवाया है, उसकी हालत खराब है बहुत, उसको मदद चाहिए! शर्मा जी ने उसको फ़ौरन ही एक डेरे पर जाने को कहा, लेकिन उसने बताया कि वो वहाँ


   
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