वर्ष २०१२ फरीदाबाद ...
 
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वर्ष २०१२ फरीदाबाद की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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सभी हंस पड़े!

मैं भी हंसा!

शर्मा जी भी हँसे!

अमित साहब को 'चपटिया' समझ नहीं आया और जब शर्मा जी ने समझाया तो वे भी हँसे!

"जाओ कल!" वे बोले,

"मैं जाता हूँ कल" मैंने कहा,

अब फिर से गिलास बढ़ाये गये आगे! और फिर फिर से हमने एक और उद्धार किया मदिरा पर! बस कुछ देर बाद उदर में जाकर मुजरा पेश करने वाली थी!

"कहाँ रहे हो आप?" रिछपाल ने अमित साहब से पूछा,

"जी फरीदाबाद" वे बोले,

"दिल्ली के पास वाला?" उन्होंने पूछा,

"हाँ जी" वे बोले,

अब एक और पैग!

"लड़के पर ध्यान नहीं दिया जी आपने, हाथ से निकल गया" वे बोले,

"क्या करूँ जी मैं?" वे बोले,

"माँ की भी नहीं मानता?" उन्होंने पूछा,

"नहीं जी" वे बोले,

"कैसा बद्तमीज़ लड़का है?" वे गुस्से से बोले,

अमित जी झेंप गए!

"एक काम और करना?" वे बोले,

"जी क्या?" अमित साहब ने पूछा,

"अगर न माने तो त्याग कर देना उसका, नासूर पालना नहीं चाहिए, कोई बिटिया भी है आपकी?" उन्होंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ जी है" वे बोले,

"ब्याह हो गया?" उन्होंने पूछा,

"जी नहीं" वे बोले,

"छोटी है या बड़ी?" उन्होंने पूछा,

"बड़ी है जी" वे बोले,

"गलत काम हो गया" वे बोले,

गलत काम!

मैं समझ गया उनके कहने का आशय!

शर्मा जी भी समझ गये!

बात गम्भीर थी, मैं चुप हो गया!

फिर से और एक जाम!

और फिर से खाली!

तभी वहाँ एक साध्वी आयी, बाबा रिछपाल से बात करने, उन्होंने बात की और उसको भेज दिया, वो चली गयी!

"मैं अभी आया" वे बोले और चले गए बाहर!

"समझे शर्मा जी! ये बाबूराम कोई बाबा नहीं!" मैंने कहा,

"समझ गया" वे बोले,

"अब कल देखते हैं" मैंने कहा,

"जी" वे बोले,

"अगर समझ गया, तो ठीक, नहीं तो मैं यहाँ से वापिस!" मैंने कहा,

"सही बात है" वे बोले,

तभी रिछपाल आ गये अंदर! साथ में एक और औघड़ सा आ गया, वो भी बैठ गया! उसका नाम था मणि, यही बोला था उन्होंने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मणि? एक बात बता?" उन्होंने पूछा,

"हाँ जी?" वो बोला,

उसने अपना गिलास उठाया और खींच गया! फिर छाती पर तीन बार हाथ मारे और गला सहलाया! अर्थात, वो किसी संकल्प में पी रहा था ऐसा, संकल्प के मध्य, तांत्रिक-संकल्प!

"यहाँ कोई बाबूराम है?" उन्होंने पूछा,

"एक है तो सही" वो बोला,

"कहाँ है?"

"भोला के यहाँ है" वो बोला,

''अच्छा! साले भिखारी!" वे बोले,

"हाँ जी वही!" वे बोले,

"सुनो, निकाल लो लड़के को वहाँ से!" अब वे बोले,

मैं समझ गया कि क्यों!

"मैं निकाल लेता हूँ!" मैंने कहा,

"हाँ, कल ही" वे बोले,

अब फिर से दारु का दौर शुरू हो गया!

और मेरे लायक़ काम शुरू हो गया!

 

उस रात हम आराम से सोये, नशा काफी हो चुका था, खाना खा ही लिया था सो अब सोना ही उचित था, कोन और काहे की किसी से तुफ़ैलबाजी की जाये, सो जाकर अपने अपने कक्ष में सो गए! खर्राटेदार नींद आयी! कहाँ है कुछ नहीं पता!

खैर,

सुबह उठे, स्नानादि से फारिग हुए और फिर चाय-नाश्ता भी किया, मैंने अमित साहब को अपने कक्ष में ही बुला लिया था, वे आ गए थे और हम सभी ने मिलकर चाय-नाश्ता किया, अब मुझे उस बाबा बाबूराम के पास जाना था, इसके लिए मुझे बाबा रिछपाल से वहाँ का पता भी पूछना था, हालांकि अमित साहब वहाँ हो कर आ चुके थे, लेकिन पूछने में कोई हर्ज़ नहीं था! सो मैं गया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उनसे मिला, नमस्कार हुई और मैंने पता पूछा, पता मिल गया, यहाँ से कोई तीन किलोमीटर ही थी वो जगह, अब मैं वापिस आया और फिर हम तीनों निकल पड़े उस बाबा बाबूराम से मिलने!

हम पहुंचे गए वहाँ, आधा घंटा लग गया, बल्कि ज्य़ादा ही, हम वहीँ पहुँच गए थे, अब यहाँ से पूछा तो और जागे जाना पड़ा, आखिर में हम पहुँच ही गए वहाँ, अब यहाँ से कमान अमित साहब ने सम्भाल ली, वे मिल चुके थे बाबा बाबूराम से, अब हम उनके पीछे पीछे चले!

वहाँ तो फटेहाल से लोग पड़े थे, कोई ऊंघ रहा था तो कोई सो रहा था, कोई भजन में लगा हुआ था, कुल मिलाकर ये सब चोर-उच्चक्के क़िस्म के लोग थे, जो बस जीवन काट रहे थे अपना किसी तरह! तभी अमित साहब हमको एक जगह ले गए, ये झोंपड़-पट्टी की सी जगह थी, ऐसी ही एक जगह वो ले गए हमको, अंदर ही लेटा हुआ था वो बाबा बाबूराम!

अमित साहब ने आवाज़ देकर बुलाया उसको, वो बाहर आया, थोड़ी देर लगायी उसने! उसने अमित साहब को देखा, फिर मुझे और फिर शर्मा जी को!

"अंदर आओ" उसने कहा,

हम अंदर गये!

अंदर बैठ गये!

"आप दोबारा आ गए?" उसने पूछा,

"हाँ" वो बोले,

"अब क्या काम है?" उसने कहा,

"लड़के से मिलना है" मैंने कहा,

"अब नहीं मिलेगा वो" वो बोला,

"क्यों?" मैंने पूछा,

उसने बड़ी अजीब सी नज़र से मुझे देखा!

"नहीं मिलेगा" उसने जवाब दिया,

"क्यों नहीं मिलेगा?" मैंने पूछा,

"वो लगा हुआ है अपने काम पर" उसने कहा,

"कैसा काम?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जिस लिए वो आया है यहाँ पर" वो बोला,

"एक बार मिलवा दो मुझे" मैंने कहा,

"नहीं मिल सकता" उसने कहा,

"अरे एक बार ही तो मिलना है?" मैंने कहा,

"अरे नहीं मिल सकता" उसने कहा,

गुस्सा तो इतना आया कि उसको पकड़ कर बाहर फेंक दूँ!

"कहाँ है लड़का?" मैंने पूछा,

"बताया न?" उसने कहा,

"एक बार ही तो मिलना है?" मैंने कहा,

"आप जाओ वापिस, इनसे बात हो चुकी है उसकी" वो बोला,

"मतलब तू नहीं मिलवायेगा?" मैंने अब तू-तड़ाक की!

वो चौंका!

"कौन है तू?" उसने पूछा,

"बाबा रिछपाल के यहाँ से आया हूँ!" मैंने कहा,

अब थूक गटका उसने!

समझ गया!

"हाँ?" मैंने पूछा,

"आओ" उसने कहा,

अब हम उसके साथ साथ चले!

वो हमको पीछे ले गया! झाड़-कबाड़ पड़ा था वहाँ और झोंपड़ियां बनी हुई थीं, उन्ही में से एक में था वो लड़का गौरव!

उसने आवाज़ दी तो गौरव बाहर आया!

उसने सभी को देखा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अपने पिता जी को भी, लेकिन उसने नमस्ते नहीं की अपने पिता जी से! अमित साहब की आँखों में आंसू छलछला गए!

"चल भाई गौरव!" मैंने कहा,

वो मुझसे मिल चुका था अपने घर में ही!

"कहाँ?" उसने पूछा,

"अपने घर" मैंने कहा,

"मैं नहीं जाऊँगा" उसने कहा,

"क्यूँ?" मैंने पूछा,

"मुझे नहीं जाना" उसने कहा,

"क्यों नहीं जाना?" मैंने पूछा,

"मुझे यहाँ साधना करनी है" उसने कहा,

"कौन करवा रहा है ये साधना? ये?" मैंने बाबूराम की ओर इशारा करते हुए पूछा!

"हाँ" वो बोला,

"ये क्या जाने साधना करना?" मैंने बाबूराम को देखते हुए कहा,

बाबूराम लगा बगलें झाँकने! रिछपाल के नाम ने उसकी बोलती बंद कर दी थी!

अब गौरव भी चकित!

क्यों नहीं बोल रहे उसके गुरु जी कुछ भी?

"चल अब" मैंने कहा,

"मुझे नहीं जाना" उसने कहा,

"काहे को अपनी मौत बुला रहा है?" मैंने कहा,

"आएगी तो आये!" उसने कहा,

"सुन लड़के, तुझे डरा नहीं रहा मैं, बता रहा हूँ, यही होगा!" मैंने कहा,

"मुझे मंजूर है" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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ज़िद पर अड़ा था लड़का!

अब मुझे गुस्सा आ ही गया!

"तेरे परिवार को बर्बाद कर देंगे ये मिलकर!" मैंने कहा,

वो चुप!

"इनको देख? कैसे तड़प रहे हैं तेरे लिए? कैसा लड़का है और कैसा बेटा है तू?" मैंने पूछा,

चुप!

"अभी भी समय है, घर चल ले!" मैंने कहा,

"मुझे नहीं जाना" वो बोला,

"चाहे मर जाएँ ये?" मैंने पूछा,

"मैं नहीं जाने वाला" उसने उत्तर दे दिया!

मैं चुप हुआ! क्या कहूं?

"अपने माँ-बाप से आज्ञा ली?" मैंने पूछा,

"ये मेरा मार्ग है" उसने कहा,

अब गुरु के विषय में मैं क्या कहता! कहना भी बेमायनी था!

"तो नहीं जाएगा?" मैंने पूछा,

"नहीं" वो बोला,

अब वो बाबा हँसे मंद मंद!

और मुझे ताप चढ़े!

"ये तेरा अंतिम निर्णय है?" मैंने पूछा,

"हाँ" उसने कहा,

"मरना तय है फिर तेरा" मैंने कहा,

"कोई चिंता नहीं" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"तो साले भाड़ में जा! जा, घुस जा इन सालों में, एक दिन यहीं लेटा मिलेगा तू भी इन सब चोर-उच्चक्कों की तरह यहीं, यहीं मर-खप जाएगा, तेरे हाथ कुछ नहीं लगेगा, तुझे बर्बाद कर देंगे ये लोग, यही ठाना है तो भाड़ में जा!" मैंने कहा,

लड़का कुछ नहीं बोला,

"अब जाइये आप" वो बाबा बोला,

मैं खिसिया गया!

"चलो अमित साहब, शर्मा जी? चलो?" मैंने कहा,

शर्मा जी तो चले, लेकिन अमित साहब वहीँ रुक गये, अब मैं शर्मा जी का हाथ पकड़ कर बाहर आ गया वहाँ से!

"मैंने क्या कहा था?'' शर्मा जी से पूछा मैंने,

"मरने दो साली को अब यहाँ" वे बोले,

"मरेगा, पक्का मरेगा!" मैंने कहा,

"मरे, सड़े! साला कुछ भी करे, भीख मांगेगा साला यहाँ ये!" उनको गुस्सा आया अब!

"साला ज़िद पर अड़ा है!" मैंने कहा,

"भाड़ में पड़े अब" वे बोले,

तभी अमित साहब भी आ गये, आंसू पोंछते हुए,

"जितना समझा सकते थे समझा दिया, अब हम कुछ नहीं कर सकते" शर्मा जी ने कहा,

वे बेचारे कुछ नहीं बोले, क्या बोलते भला!

अब हम वापिस हुए वहाँ से,

जहां हम ठहरे थे वहाँ के लिए निकल पड़े वापिस!

बैरंग!

 

हम वापिस आ गये वहाँ से! अब कुछ शेष नहीं था, लड़के ने मना कर दी थी, अब वहाँ से वापिस जाना ही शेष था बस, अमित साहब टूट कर रह गये थे! उनकी मायूसी उनके चेहरे से झलक रही


   
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श्रीशः उपदंडक
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थी, एक बाप का दर्द दिखायी दे रहा था, लेकिन बाप विवश था, क्या कर सकता था, कई बार समझा लिया था लेकिन उस लड़के की समझ में कुछ नहीं आया था, उसने अपने माँ-बाप के प्रेम को, स्नेह को दरकिनार कर दिया था, उनकी मिन्नतें सब आयी-गयी कर दीं थीं, दुःख मुझे भी था लेकिन मैं भी विवश था, कुछ नहीं कर सकता था, समझा लिया था, हड़का भी दिया था लेकिन उसके कान पर जूँ नहीं रेंगी थी! उसने जो ठाना था उस पर वो अडिग था, कोई कुछ नहीं कर सकता था, मुझे बस एक बात खटक रही थी, कि जिस से वो सीख रहा था वो तो ओझा और गुनियायों की गिनती में भी नहीं आते थे, ये बात लड़के को समझ नहीं आयी! खैर, अब कुछ नहीं किया जा सकता था, इसीलिए अब केवल वापिस ही जाना था!

"अमित साहब, अब तो कुछ शेष नहीं?" मैंने पूछा,

चुप रहे वो!

"हाँ, शर्मा जी?" मैंने पूछा,

"क्या कहूं और क्या न कहूं" वे बोले,

मैंने अमित साहब के लिए इशारा किया,

"अमित साहब?" शर्मा जी ने कहा,

वे बेचारे रो रहे थे,

शर्मा जी ने समझाया उनको, शांत किया,

"अब क्या फायदा रोने से?" शर्मा जी ने पूछा,

"बरबाद कर दिया इस लड़के ने हमको" वे रोते हुए बोले,

"वो तो कर ही दिया, लेकिन अब क्या किया जा सकता है?" वे बोले,

"अब जो हो सो हो" मैंने कहा,

मैंने भी उनको समझाया,

लेकिन उनके आंसू बंद नहीं हुए,

मैंने बहुत समझाया,

"क्या कहूंगा मैं सबसे?" वे बोले,

"सच बोलो, छिपाना क्या?" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे फिर से रोने लगे!

मैंने शर्मा जी को फिर से इशारा किया,

"क्यों अपने को कष्ट देते हो आप?" शर्मा जी ने कहा,

बहुत देर बाद वे शांत हुए!

"आइये, भोजन कर लें" मैंने कहा,

अब हम चले भोजन करने, अमित साहब ने नहीं खाया, जब मैंने कहा तो एक रोटी ही खायी, मैं समझ सकता था,

अब हम अपने कक्ष में आ गए, अमित साहब अपने कक्ष में चले गए,

"बहुत बुरा हुआ" शर्मा जी बोले,

"हुआ तो बुरा ही बहुत" मैंने कहा,

"क्या भूत चढ़ा है इस लड़के को भी?" वे बोले,

"सो तो है" मैंने कहा,

"साले को ऐसी सूझी कैसे?" उन्होंने कहा,

"पता नहीं" मैंने कहा,

दरअसल अब मैं उस लड़के के बारे में बात नहीं करना चाहता था, शर्मा जी भी मेरे बात करने के लहजे से भांप गये,

"अब क्या करना है?" उन्होंने पूछा,

"रात की गाड़ी है, चलते हैं वापिस" मैंने कहा,

"हाँ, और क्या, अब क्या काम?" वे बोले,

"आप कह दो अमित साहब से" मैंने कहा,

"अभी कह देता हूँ" वे बोले,

वे उठकर चले गए,

मैं लेट गया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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थोड़ी देर में शर्मा जी आ गए वापिस, बैठ गए,

"बोल आये?" मैंने पूछा,

"हाँ, कह दिया" वे बोले,

"ठीक किया" मैंने कहा,

अब वे भी लेट गए,

तभी मेरे पास एक सहायक आया, उसने कहा कि बाबा रिछपाल ने बुलाया है मुझे, मैंने आने को कह दिया और फिर खड़ा हुआ और चला गया बाहर,

बाबा के कमरे में पहुंचा,

नमस्ते हुई,

बैठा,

"गए थे?" उन्होंने पूछा,

"हाँ जी" मैंने कहा,

"क्या रहा?" उन्होंने पूछा,

"कुछ नही" मैंने कहा,

"नहीं आया लड़का?" उन्होंने पूछा,

"नहीं" मैंने कहा,

"पागल हो गया है साला" वे बोले,

"हाँ जी" मैंने कहा,

"साले की धुनाई नहीं की?" उन्होंने पूछा,

"क्या फायदा?" मैंने पूछा,

"हाँ...साला फिर भाग आएगा" वो बोले,

"हाँ जी" मैंने कहा,

"अब?" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अब क्या? अब जा रहे हैं" मैंने कहा,

"ठीक है, भाड़ में जाने दो साले को, भीख मांगेगा यहीं किसी किनारे" वे बोले,

"यही कहा था मैंने" मैंने कहा,

"मरने दो अब" वे बोले,

"हाँ जी" वे बोले,

तभी उन्होंने मेरी तरफ कुछ फल बढ़ा दिए, मैंने अंगूर का एक छोटा गुच्छा उठा लिया,

"और सुनाओ, कहाँ हो, वहीँ दिल्ली में?" उन्होंने पूछा,

"हाँ जी वहीँ" वे बोले,

"घर में सब ठीक?" उन्होंने पूछा,

"आशीर्वाद है आपका" मैंने कहा,

"वो सुक्खा मिला आपको?" उन्होंने पूछा,

"वो इलाहबाद वाला?' मैंने पूछा,

"हाँ, वही" वे बोले,

"एक बार मिला था, दिल्ली आया हुआ था कहीं" मैंने कहा,

"डेरा बना लिया है उसने" व बोले,

"सच में?" मैंने पूछा,

"हाँ" वे बोले,

हाँ, जुगाड़ू तो था ही वो!" मैंने कहा,

"हाँ!" वे हंस के बोले,

सुक्खा इन्ही का चेला था!

"कहाँ?" मैंने पूछा,

"इलाहबाद में ही" वे बोले,

"चलो बढ़िया हुआ" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, बढ़िया" वे बोले,

"अब चलूँगा मैं" मैंने कहा,

"ठीक है, जाना कब है?" उन्होंने पूछा,

"आज रात की गाड़ी है" मैंने कहा,

"ठीक है, मिलके जाना" वे बोले,

"ज़रूर" मैंने कहा और मैं उठ गया!

अब वापिस अपने कमरे में आया, वहाँ शर्मा जी के साथ अमित साहब भी थे, वे बेचारे मायूस थे, बहुत मायूस!

"अब चिंता छोड़ो उसकी" मैंने कहा,

उन्होंने हाँ में गरदन हिलायी,

"आ जाएगा अपने आप!" मैंने कहा,

उन्होंने फिर से गरदन हिलायी,

और फिर मैं लेट गया,

"मैं चाय बोलकर आता हूँ" शर्मा जी ने कहा,

"ठीक है" मैंने कहा और चले गये बाहर!

अमित साहब बैठे रहे गुमसुम!

शर्मा जी आ गये अंदर फिर, बैठ गए,

थोड़ी देर बाद चाय भी आ गयी!

हम चाय पीने लगे!

"रात की गाड़ी है?" अमित साहब ने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"ठीक है" वे बोले,

लगता था मन बना लिया था उन्होंने अब! और ये बढ़िया था!


   
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और फिर शाम को मैं बाबा रिछपाल से मिलने चला गया, अब हमको निकलना था, उनसे मिला और फिर आज्ञा ली मैंने, फिर मैं उस डेरे का संचालक से मिला और उनको भी अपने जाने की सूचना दे दी, और अब हम बाहर निकल गए, सवारी पकड़ी और सीधे स्टेशन पहुंचे, यहाँ से टिकट खरीदे और फिर गाड़ी में चढ़ गए, फिर हमने अपनी सीट का प्रबंध करवा लिया थोड़ा बहुत ले देकर, प्रबंध हो गया, हमको सीटें मिल गयीं, लेकिन तीनों अलग अलग, बाद में वो भी जुगाड़ कर लिया और हम एक साथ बैठ गये फिर! गाड़ी में ही भोजन किया और एक एक कप चाय पी, फिर अपने सोने के लिए अपने अपने बर्थ पर चले गए! अब सुबह ही उठना था!

सुबह हुई, और हम करीब आठ बजे दिल्ली पहुँच गए! यहाँ से मैं और शर्मा जी एक साथ हुए और अमित साहब से नमस्ते हुई, वे अपने फरीदाबाद के लिए निकल गये और हम अपने स्थान के लिए!

अपने स्थान पहुंचे, स्नानादि से निवृत हुए और फिर चाय-नाश्ता किया, उसके कुछ देर बाद शर्मा जी अपने घर के लिए निकल गए, और मैं भी कोई दो घंटे के बाद अपने निवास-स्थान के लिए निकल गया, अब हमको शाम को मिलना था, मैं उसी दिन रात को शर्मा जी के साथ अपने स्थान को वापिस आ गया, कुछ छोटी-मोटी क्रियाएँ थीं करने को, उस रात शर्मा जी और मैंने मदिरापान किया, वे रात को वहीँ ठहरे, और मैं क्रिया में लगा रहा!

दिन आगे बढ़ते गए!

न अमित साहब से हमारी बात हुई और न उन्होंने हमसे ही कोई बात की!

और समय बीता,

महीना हो गया करीब,

उस दिन कोई दोपहर को शर्मा जी ने अमित साहब को फ़ोन किया, अमित साहब से बात हुई, गौरव की माँ की हालत अब खराब रहने लगी थी, पुत्र-बिछोह ने उसको पीड़ित कर दिया था, मुझे सब मालूम था लेकिन वही, खाली हाथ! कुछ नहीं किया जा सकता था! अमित साहब भी बुझे-बुझे रहने लगे थे, रिश्तेदारी में बात फ़ैल गयी थी!

फिर और समय बीता,

दो महीने गुजर गए, शायद ढाई महीने गुजर गए होंगे!

एक शाम शर्मा जी ने अमित साहब को फोन किया, फिर से वही कहानी, वही सब का सब! जब पूछा गया कि गौरव ने फ़ोन किया था घर पर कभी? तो उत्तर मिला कि नहीं, वो तो भूल गया था सबको! सभी को! उसका नंबर भी अब बंद हो चुका था! कोई संपर्क नहीं था उस लड़के से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मित्रगण!

समय अपनी निर्बाध गति से आगे बढ़ता रहा, और फिर मुझसे किसी सिलसिले में वाराणसी जाने का अवसर मिला, मुझे किसी क्रिया में मदद हेतु बुलाया गया था, मैं शर्मा जी के साथ वाराणसी के लिए कूच कर गया, ये शायद अप्रैल का महीना था! हाँ, अप्रैल का मध्य था, मैं वाराणसी पहुंचा और शुरू के पांच दिन अत्यंत व्यस्त रहा, छठे दिन मुझे कुछ आराम मिला, क्रिया सम्पूर्ण हो गयी थी! इसी कारण!

मैं अपने कक्ष में लेटा था, ये कोई दोपहर का समय था, शर्मा जी भी वहीँ बैठे थे, अखबार पढ़ रहे थे, गर्मी बढ़ गयी थी, पंखे में भी पसीना सूखता नहीं था!

सहसा!

मुझे उस लड़के का ख़याल आया! मुझे उसकी शक़्ल याद आ गयी, मुझे अमित साहब भी याद आ गए!

"अरे शर्मा जी?" मैंने कहा,

"जी?" वे चौंके!

"वो लड़का, वो गौरव? वो यहीं है न?" मैंने पूछा,

"हाँ जी" वे बोले,

"हम्म!" मैंने कहा,

"क्या हुआ?" उन्होंने पूछा,

"चलो, चल के देखते हैं उसको!" मैं खड़े होते हुए बोला,

वे हैरत में पड़ गए कि अचानक मुझे क्या हो गया!

"किस काम से?" उन्होंने पूछा!

"ऐसे ही" मैंने कहा,

"क्या फायदा?" उन्होंने कहा,

"कोई नुक्सान भी नहीं!" मैंने कहा,

"जैसी आपकी मर्ज़ी" वे बोले,

खड़े हुए, जूते पहने और फिर कमीज़ पहन ली!


   
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