"मैंने बताया न, किसी सिद्धि के चककर में गया होगा" मैंने कहा,
"दिमाग खराब हो गया है इस लड़के का" वे बोले,
मित्रगण!
मैं उसी रात क्रिया में बैठा, मैंने समस्त प्रबंध किया कारिंदे के भोग का और अगर ज़रूरत पड़े तो खबीस का भी! अब ठीक मध्य-रात्रि कुछ काम निबटाने के बाद मैंने कारिंदे को उसका उद्देश्य बता कर भेज दिया! कारिंदा उड़ चला!
करीब दस मिनट के बाद कारिंदा हाज़िर हुआ! उसने जो बताया उस से उसका पता तो चल गया लेकिन वो वापिस आएगा, ये नहीं पक्का था! मैंने कारिंदे को भोग दिया और वहाँ से उठ गया अब! स्थान नमन करने के बाद मैं वापिस आ गया, स्नान किया और फिर अपने कक्ष में आ गया, शर्मा जी जागे हुए थे!
वे बैठ गए मुझे देख कर!
"कुछ पता चला?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"कहाँ है वो लड़का?" उन्होंने पूछा,
"मेरठ के पास" मैंने कहा,
"मेरठ?" वे चौंके!
"हाँ!" मैंने कहा,
"किसके साथ?" उन्होंने पूछा,
"ये नहीं पता चला" मैंने कहा,
"किसी के साथ तो होगा ही?" वे बोले,
"हाँ, पता मैं बता देता हूँ" मैंने कहा,
और फिर उनको वो पता लिखवा दिया, कुछ निशानियाँ भी बता दीं, अब पते के आसपास उन्हें, मतलब अमित साहब को ही तलाश करना था!
"मैं सुबह दे देता हूँ उनको ये पता" वे बोले,
"ठीक है" मैंने कहा,
और अब लेट गया मैं!
शर्मा जी भी लेट गए!
हम सो गए फिर!
सुबह हुई! हम उठे!
चाय नाश्ता किया और फिर शर्मा जी चले गये वहाँ से! उन्होंने फ़ोन करके उनको बता दिया कि लड़के की खोज कहाँ करें, निशानियाँ भी बता दीं, अमित के पिता जी ने बहुत धन्यवाद किया हमारा!
अमित के पिता जी, अपने एक रिश्तेदार के साथ निकल पड़े अपने बेटे को ढूंढने! उन्होंने बहुत ढूँढा लेकिन वो जगह उनको नहीं मिली! निराश हो कर वे उसी शाम मेरे पास लौट आये! मैं वहीँ था, मैंने अंदर बिठाया उनको!
वे निराश थे! बेहद निराश! मैं समझ सकता था! कारिंदा जगह तो बता देता है लेकिन उसकी निशानियाँ समझना टेढ़ी खीर है! वे ये नहीं समझ सके थे! उसके अलफ़ाज़ अलहैदा होते हैं!
"नहीं मिला?'' मैंने पूछा,
"नहीं गुरु जी" वे बोले,
"आपने सही तलाश की?" मैंने पूछा,
"एक एक जगह ढूंढ ली" वे बोले,
"वे निशानियाँ भी ढूंढीं?" मैंने पूछा,
"कुछ समझ आयीं और कुछ नहीं" वे बोले,
यहीं चूक खा गये थे वे!
"क्या चाहते हैं अब आप?" मैंने पूछा,
"लड़का मिल जाये..." वे बोले,
मैंने सोचा-विचारा!
"ठीक है, आप कल आ जाइये मेरे पास, मैं कल चलता हूँ आपके साथ!" मैंने कहा,
वे अब संतुष्ट हुए! फिर से आशा लेकर चले गए वे!
अब कल आना था उनको मेरे पास!
और फिर मित्रगण, तयशुदा कार्यक्रम के तहत वे लोग यानि कि अमित साहब और उनके रिश्तेदार जो कि उनके साढ़ू साहब थे, सुबह करीब साढ़े दस बजे मेरे पास आ गये, शर्मा जी को मैंने बता ही दिया था, सो वे भी दस बजे करीब मेरे पास आ चुके थे, अब हमे निकलना था यहाँ से, अमित साहब को उनके बेटे से मिलवाना था, मैं एक अजीब सी स्थिति में फंस के रह गया था, ये बात शर्मा जी जानते थे, और ये भी कि मैं इस मामले में तटस्थ हूँ, महज़ शर्मा की वाक़फ़ियत की वजह से ही इस मामले में शरीक़ हुआ हूँ, खैर, मैं शर्मा जी को इस मामले में दोष नहीं देता, एक तरफ वे माँ-बाप थे, उनकी पीड़ा भी जायज़ ही थी! खैर, वे आये, उनको पानी पिलाया गया और फिर चाय का भी प्रबंध किया गया, हमने चाय पी और फिर करीब पौने ग्यारह बजे हम वहाँ से निकल गए, हम अमित साहब की गाड़ी में ही निकले थे, अब हमारी गाड़ी भागे जा रही थी मेरठ की तरफ!
हम मेरठ पहुंचे और खतौली वाले रास्ते पर गाडी काटी, हम वहाँ गये, ये अमित साहब कल यहाँ आ चुके थे, अब मैंने यहाँ से कारिंदे की निशानियाँ जांचनी आरम्भ कीं, मैंने गाडी धीरे करवा दी, मुझे जल्दी ही एक निशानी मिल गयी, ये निशानी उनको भी कल मिल चुकी थी, अब और आगे हुए हम और फिर इस तरह से करीब चार निशानियाँ मैंने ढूंढ लीं, अब इसके करीब ही थे हम, यहीं था वो लड़का, ये ये सघन आबादी वाला क्षेत्र था, उसको ढूंढना इतना आसान नहीं था, अब मैंने और निशानी ढूंढनी आरम्भ की, वे भी मिल गयीं और फिर हम एक बड़े से मंदिर के करीब पहुंचे गए, उसके आसपास अन्य कुछ नहीं था, यही निशानी थी आखिरी, या तो लड़का यहाँ था या फिर इसके आसपास!
"आप कल यहाँ आये थे?" मैंने पूछा,
"नहीं गुरु जी" वे बोले,
"अच्छा, आप लौट गये पीछे से ही?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वे बोले,
अब हम उतरे!
वहीँ उस मंदिर जैसे स्थान में गए! अंदर काफी लोग थे, जैसे कोई भंडारा होने जा रहा हो! वहीँ बैठे एक आदमी से मैंने कुछ पूछताछ की, उसने अनभिज्ञता ज़ाहिर की, अब फिर से किसी और से पूछा, तभी मुझे वहाँ काले वस्त्रों में एक साधू सा दिखायी दिया, ये सबसे अलग दिखायी पड़ता था! मैं उसके पास ही गया और फिर सीधे ही उस से उस लड़के के बारे में पूछा, वो झेंपा, मैं समझ
गया कि इसको ज़रूर ही पता है इस विषय में! मैंने उस से मिन्नतें कीं, काफी मान-मुलव्वत की, तब भी नहीं बताया उसने! और फिर वो गुस्सा होकर चला गया वहाँ से! उसके दो चेले भी उसके साथ ही चलने लगे तो मैंने एक की बाजू पकड़ ली! और उसको मेरी बात सुनने को कहा, वो नहीं माना तो मैंने अब उस से ज़रा सख्ती से बात की! वो नहीं माना फिर भी! तब तक वो साधू वापिस आया और मुझसे झगड़ने लगा! लोग इकट्ठे हो गए, बात बढ़ गयी आगे, अब वहाँ ठहरना उचित नहीं था, कभी भी बात हद से आगे बढ़ सकती थी, झगड़ा हो सकता था, हाथापाई भी हो सकती थी, मैं चाहता तो उस साधू की अकड़ सबके सामने निकाल देता, लेकिन यहाँ अपना हाथ दबा हुआ था, और जानना भी ज़रूरी थी! अब गाली-गलौज शुरू कर दी उसने! तभी वहाँ एक समझदार व्यक्ति आया, उसके आने से लग रहा था कि वो कोई विशेष ही व्यक्ति है, उसने हमारे आने का प्रयोजन पूछा, मैंने बता दिया, उसने पूरी बात सुनी, लेकिन तब तक वो साधू वहाँ से छिटक गया था, लेकिन उस व्यक्ति ने यही कहा कि यहाँ विवाद करने से कोई लाभ नहीं, हम इस साधू के अड्डे पर ही चले जाएँ, वहीँ से मालूम कर लें, यहाँ तो कोई आयोजन है, और जब उस से पूछा गया तो उसने उस साधुए के अड्डे के बारे में बता दिया, ये साधू दिल्ली के बदरपुर के पास ही के एक गाँव में रह रहा था! अब मैं समझा! फरीदाबाद और बदरपुर में कोई अधिक दूरी नहीं! वो लड़का गौरव इसी साधू के मार्गदर्शन में है! अमित साहब सब सुन चुके थे, लड़का मिला नहीं था, अब हमारे लिए वहाँ कुछ शेष नहीं था, अतः हम वहाँ से उसी क्षण वापिस हो लिए! अब उस लड़के का पता हमको इसी साधू से पता चलना था! बात सुलझते सुलझते और उलझ गयी थी! क्या करते? अन्य कोई विकल्प भी नहीं था! मैं कारिंदा हाज़िर करता तब भी यहाँ फसाद के आसार थे! क्योंकि लड़के ने तो मना ही करना था! हाँ, यदि लड़का स्वेच्छा से मिलता हमसे तो बात अलग थी! लेकिन यहाँ स्थिति उलट थी!
हम वापिस आ गये वहाँ से, यहाँ आकर अब हमने ये कार्यक्रम बनाया कि दो दिनों के बाद बदरपुर चला जाए, वहीँ से पता चले इस लड़के का, तभी बात आगे बढ़े! हाँ, मैं एतना ज़रूर कह दिया कि जितना सम्भव होगा मैं मदद करूँगा लेकिन यदि लड़का ही मना कर दे तो मैं मदद करने के लिए बाध्य नहीं और न ही वे मुझे कहेंगे कि मदद करो, स्पष्ट बात थी, इसमें मेरा कोई किरदार नहीं था! लड़का अपने पिता की बात माने या न माने, आगे वो और उनका भाग्य!
वे लोग चले गए!
रह गये मैं और शर्मा जी!
"क्या शर्मा जी!" मैंने कहा,
"अब मैं क्या कहूं?" वे बोले,
"कहाँ फंसा दिया आपने भी!" मैंने कहा,
"हाँ जी!" वे बोले,
"देखो, वहाँ लड़का था या नहीं, नहीं पता, लेकिन उसको अब तो पता चल गया होगा कि उसके पिता जी आये थे वहाँ? अब ही फ़ोन कर लेता?" मैंने कहा,
"हाँ, करना चाहिए था" वे बोले,
"वो नहीं आने वाला अभी!" मैंने कहा,
"लेकिन ये तो नहीं मान रहे?' वे बोले,
"इसीलिए तो मैंने कहा कि कहाँ फंसा दिया आपने!" मैंने कहा,
"पता नहीं क्या कहानी चल रही है" वे बोले,
"खैर, माँ-बाप का प्रेम है ये" मैंने कहा,
"सही कहा आपने" वे बोले,
"मैंने समझाया है, भागिए कहीं नहीं, आ जाएगा थक-पिट के, लेकिन नहीं मान रहे!" मैंने कहा,
"मैंने भी समझाया है..लेकिन?" वे बोले,
"चलो कोई बात नहीं, दो दिन बाद ही सही" मैंने कहा,
''हाँ जी" वे बोले,
"वैसे गुरु जी?" उन्होंने पूछा,
"हाँ?" मैंने कहा,
"उस साधू को देख कर क्या लगा आपको? है दम?" उन्होंने पूछा,
"मुझे तो कोई भांड सा लगा वो!" मैंने हंसते हुए कहा,
"अच्छा?'' वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा,
"तो भांडगिरी ही सिखाएगा उस लड़के को ये" वे बोले,
"पक्का है!" मैंने कहा,
शाम तक शर्मा जी वहीँ रहे!
मुझे कोई काम था नहीं तो आराम से बैठ कर समय काटते रहे! बातें करते रहे!
फिर हुई शाम!
शर्मा जी माल-मसाला लेने गए वहाँ से, यहाँ मैंने सहायक को बुलवा कर सारा इंतज़ाम करवा लिया, वो सबकुछ ले आया! फिर कोई आधे घंटे में शर्मा जी भी आ गए, उन्होंने दीपू को उसका अद्धा दिया और खाने को भी दे दिया, उसने ख़ुशी-ख़ुशी सारा सामान रख लिया और जाने लगा! तभी शर्मा जी ने रोक लिया उसको!
"दीपू? गाँव नहीं गया तू?" उन्होंने पूछा,
"जाऊँगा" वो बोला,
"कब?" उन्होंने पूछा,
"होली के आसपास" उसने कहा,
''अच्छा!" वे बोले,
कुछ देर खड़ा रहा फिर चला गया वो!
और अब हो गए हम शुरू!
फिर से बातें शुरू हो गयीं उस लड़के के बारे में! पता नहीं क्या हुआ था उस लड़के को जो यकायक ऐसा फैंसला ले लिया उसने! ये भी पता चलता, भले ही कुछ दिनों में!
दो दिन और बीते!
अब शर्मा जी ने अमित साहब को कहा कि वे उनको ठीक ग्यारह बजे मिल जाएँ बदरपुर, वहाँ ही हम पहुँच जायेंगे, फिर वहाँ से उस गाँव के तरफ चल पड़ेंगे जहां उस साधू का अड्डा है, वो वहाँ से अधिक दूर नहीं! अमित साहब तैयार हो गए और उन्होंने ठीक ग्याहरह बजे वहाँ मिलने के लिए कह दिया!
हम यहाँ से निकले, वो वे वहाँ से, हम ठीक ग्यारह बजे के आसपास वहाँ पहुँच गए, वे हमको वहीँ मिल गए, अब हम वहाँ से उस साधू के अड्डे के लिए निकल पड़े, कोई आधे घंटे के बाद हम उस गाँव में थे, वहाँ पता किया तो हमको उसके अड्डे का पता चल गया! अब हम वहीँ चल पड़े! वहाँ पहुंचे, वहाँ हमको वही चेले-चपाटे मिले! हमने उनसे पूछा, उन्होंने इस बार चूं-चपाड़ नहीं की और हमको उस साधू के पास ले गए! यहाँ पता चला बाबा का नाम असमिया बाबा है जो कि असम का तांत्रिक है!
असमिया वहीँ बैठा था, सामने एक धूनी थी जो अब शांत थी, रात्रि समय प्रयोग की गयी होगी! अब बाबा ने हमको हाथ के इशारे से बुला लिया वहाँ, टाट बिछे थे वहाँ, वहीँ बैठने को कहा, हमने जूते खोले और बैठ गये!
"हां, बताओ, क्या बात है?" उसने पूछा,
"कुछ पता करना है" मैंने कहा,
"क्या पता करना है?" उसने पूछा,
अब मैंने उसको बताया!
वो चौंका!
"कहाँ है वो लड़का?" मैंने पूछा,
"पहले ये बताओ, तुम लोग यहाँ तक पहुंचे कैसे?" उसने पूछा,
"वो छोड़ो आप, लड़का कहाँ है, ये तड़प रहे हैं अपने बेटे से मिलने के लिए, उनके पिताजी हैं, घर में इनकी पत्नी का बुरा हाल है, बहन भी बेचारी गुमसुम है, दया करो इन पर" मैंने कहा, विनती की, जितना मैं कर सकता था!
"यहाँ तक कैसे आये तुम?" उसने फिर से पूछा,
अब मेरे पास विकल्प नहीं बचा शेष! अब मैंने उसको बता दी सारी बात! फूंक सरक गयी उसकी एक बार को तो! फिर संयत हो गया! अपने आपको सम्भाल गया!
"अब बताओ वो लड़का कहाँ है?" मैंने पूछा,
"वो तो साधना करने गया है" उसने कहा,
"कहाँ?" मैंने पूछा,
"काशी" उसने कहा,
"किसके पास?" मैंने पूछा,
"हैं मेरे गुरु वहाँ पर" उसने कहा,
"इतनी मेहरबानी क्यों इस लड़के पर?" मैंने पूछा,
"लड़का अच्छा है, ईमानदार है" उसने कहा,
"लेकिन बाबा, आपने उसको शिष्य तो बना लिया, लेकिन उसके माँ-बाप से आज्ञा ली?" मैंने पूछा,
"क्या ज़रुरत?'' उसने कहा,
मुझे क्रोध आ गया, उबल पड़ा उसके इस धृष्ट जवाब से! लेकिन जज़्ब कर गया मैं!
"आज्ञा नहीं लोगे उसके माता-पिता की?" मैंने पूछा,
"सुनो! मैंने उसको बहुत समझाया, लेकिन वो नहीं समझा, वो कुछ गलत करे इस से बेहतर था कि उसको मार्गदर्शन दिया जाए!" उसने कहा,
ये तो बिलकुल ठीक था! इसमें असमिया की कोई गलती नहीं!
मैंने अब अमित साहब को देखा,
वे चुप!
"अच्छा, एक बार मिलवा दो इनको उस लड़के से" मैंने कहा,
"क्या फायदा?" उसने कहा,
"एक बार मिल लेंगे तो इनको सुकून पड़ जाएगा" मैंने कहा,
"वो न मिले तो?" उसने पूछा,
लाख टके का सवाल!
मेरे पास इसका उत्तर नहीं था!
मैंने अमित साहब को देखा!
वे संकुचाये अब!
"कम से कम देख ही लेंगे" वे बोले,
असमिया ने सोचा, विचारा!
"ठीक है, लिख लो पता" उसने कहा,
अब अमित साहब ने पता लिख लिया!
"एक काम और, अपने गुरु को इत्तला कर देना कि उस लड़के के माँ-बाप मिलना चाहते हैं उस से, एक बार मिलवा दें, या दिखा ही दें" मैंने कहा,
"मैं कह दूंगा" वो बोला,
अब मेरा काम ख़तम!
"कब गया वो काशी?" अमित साहब ने पूछा,
"दो दिन हुए" वो बोला,
अब मैंने असमिया का धन्यवाद किया! और हम उठ गए वहाँ से! बाहर आये और फिर गाड़ी में बैठे! अमित साहब टूट गए बेचारे!
"अमित साहब?'' शर्मा जी ने पूछा,
"हाँ जी?" वे बोले,
"अब?" उन्होंने पूछा,
"जायेंगे जी वहाँ" वे बोले,
"कब?" उन्होंने पूछा,
"मैं बता दूंगा आपको" वे बोले,
"ठीक है" शर्मा जी ने कहा और गाड़ी स्टार्ट कर दी, हम आगे बढ़ चले!
"बरबाद कर दिया इस लड़के ने तो" अमित साहब बोले,
"उसने अपनी राह चुन ली है अमित साहब!" मैंने कहा,
"कैसी राह? क्या सोचा और क्या हो गया?" वे बोले,
"आप जाइये, हो सकता है समझ जाए?" मैंने कहा,
"हाँ जी, जायेंगे" वे बोले,
अब हम गाँव से बाहर आ गये!
शर्मा जी ने अमित साहब को अब वहीँ उतार दिया, वे बेचारे मायूस से उतर कर नमस्कार करते हुए आगे बढ़ गए!
हम अब मोड़ काट कर अपने रास्ते आ गए!
"बेचारे बहुत दुखी हैं" शर्मा जी ने कहा,
"हाँ, हैं तो" मैंने कहा,
"लेकिन क्या करें?" वे बोले,
"शर्मा जी, जो हम कर सकते थे, किया, आगे इनका भाग्य" मैंने कहा,
"भाग्य तो फोड़ दिया इनका इस लड़के ने" वे बोले,
"ज़रूरी नहीं" मैंने कहा,
"अब 'वो' जाने!" वो बोले,
गाड़ी बत्ती पर रुकी!
"कोई तरीका नहीं उसको वापिस लाने का?" उन्होंने आखिर कह ही दिया!
"नहीं!" मैंने कहा,
"कोई तो होगा गुरु जी?" उन्होंने पूछा,
"नहीं है" मैंने कहा,
अब वे भी चुप!
मैं उनको ही देखता रहा!
मायूस!
"सुनो शर्मा जी, वो लड़का अपने आप आ जाएगा वापिस, वो किसी की नहीं मानेगा इस वक़्त! मैं और आप तो हैं क्या!" मैंने कहा,
बत्ती खुली,
और हम आगे बढ़ गए!
हम वापिस आ गए थे, अब दो दिनों के बाद खबर लग जानी थी कि अमित साहब वहाँ जा रहे हैं या नहीं, जा रहे हैं तो कब? फिलहाल इन दो दिनों में कोई कम नहीं था, सो यही मामला मन में छाया रहा कि इस लड़के का होगा क्या? क्या करेगा और क्या औचित्य है इस लड़के का? किसलिए उसने ये क़दम उठाया है, मेरी समझ से बाहर था, ऐसे ही एक दिन, अगले दिन शर्मा जी मेरे साथ बैठे थे, मैंने उनसे बातें शुरू कीं और पूछा, "शर्मा जी, इस लड़के का कोई प्रेम-प्रसंग तो नहीं? अक्सर ऐसे क़दम ऐसे ही इंसान उठाया करते हैं"
वे भी चौंके!
मेरी बात में दम था!
"अभी पूछ लेता हूँ" वे बोले,
उन्होंने तभी फ़ोन किया, अमित साहब ने उठाया फ़ोन और जब शर्मा जी ने पूछा तो मेरी शंका का अस्तित्व ही ख़त्म हो गया! ऐसा कोई प्रेम-प्रसंग नहीं था उस लड़के का! और हाँ, ये बात भी पता चली कि वे परसों दोपहर में जा रहे हैं काशी, अपने परिवार के साथ, हो सकता है बेटा मान जाए, अब मैंने भी यही कामना की कि बेटा मान ही जाए तो बहुत अच्छा रहेगा!
"मान जाए लड़का" शर्मा जी ने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
"बेचारे बहुत परेशान हो गए हैं" मैंने कहा,
"सही बात है, सिक्का खोटा भी हो तो भी फेंका तो नहीं जाता!" मैंने कहा,
"सही कहा आपने गुरु जी" वे बोले,
"अब ये परसों पहुंचेंगे वहाँ" मैंने कहा,
"बस, परसों ही खबर आ जायेगी" वे बोले,
"अरे बन जाए इनका काम" मैंने कहा,
"हाँ गुरु जी" वे बोले,
मित्रगण!
वो दिन भी बीता,
अगला दिन भी!
और फिर परसों वाला दिन आ गया!
दोपहर हुई और फिर शाम!
हम उनके फ़ोन का इंतज़ार करते रहे!
उस शाम और रात को फ़ोन नहीं आया, शर्मा जी ने भी नहीं किया,
हालांकि, शर्मा जी उस रात वहीँ ठहरे!
सुबह हुई, शर्मा जी चले गए अपने नियत समय पर, कोई खबर नहीं आयी!
एक दिन और बीत गया,
अगले दिन जब शर्मा जी मेरे पास थे, तब उनका फ़ोन बजा, ये फ़ोन अमित साहब का था, शर्मा जी ने फ़ोन सुना, अमित साहब ने बताया कि लड़का उनको मिल गया, उस से बात भी हुई, उसकी माँ ने भी समझाया, बहन ने भी और यहाँ तक कि रो रो कर अमित साहब ने भी समझया लेकिन गौरव नहीं माना, उसने कहा कि अब उसका इस संसार से कोई मतलब नहीं बचा, वे भूल जाएँ कि उनका कोई पुत्र था, ये सुनकर उनको गहरा सदमा पहुंचा! हाँ, गौरव ने कहा कि जब उसकी मर्जी होगी वो अपने मर्जी से कभी-कभार घर आ जाया करेगा! ये बात जब मैंने सुनी तो मुझे बहुत गुस्सा आया! लानत ऐसे गुरु पर और लानत ऐसी साधना कराने वाले के ऊपर! गौरव साधक बनना चाहता है, कोई बात नहीं, लेकिन माता-पिता का स्थान सर्वोपरि है! यदि माता-पिता पुत्र को आज्ञा नहीं दें तो कोई भी गुरु किसी को भी शिष्यत्व धारण नहीं करवा सकता! ये कैसे गुरु हैं? गुरु की परिपाटी ये नहीं, लक्षण ये नहीं!
"अब क्या हो?" शर्मा जी ने पूछा,
"अब मैं क्या कहूं?" मैंने कहा,
"ये तो गड़बड़ हो गयी" वे बोले,
"सो तो है ही" मैंने कहा,
"ये तो मर जायेंगे" वे बोले,
अब मैं चुप हो गया!
क्या कहता, विवश था!
"आप कुछ कहिये न?" उन्होंने कहा,
"क्या कहूं?" मैंने पूछा,
"कुछ नहीं किया जा सकता?" उन्होंने पूछा,
"आप मुझे विवश कर रहे हैं?" मैंने पूछा,
"नहीं गुरु जी" वे बोले,
"फिर?" मैंने पूछा,
"मदद की गुहार लगा रहा हूँ" वे बोले,
"किसलिए?" मैंने पूछा,
"मैं एक बाप और माँ का दर्द समझ सकता हूँ" वे बोले,
"क्या मैं नहीं?" मैंने पूछा,
अब वे चुप हुए,
खामोश!
"क्या चाह्ते हैं आप?" मैंने पूछा,
"क्यों न हम समझाएं उसको?" वे बोले,
''वो समझ जाएगा?" मैंने पूछा,
"कोशिश की जा सकती है" वे बोले,
मैं मुस्कुराया!
"जब उसने अपनी माँ, बहन और बाप की नहीं सुनी तो हमारी सुनेगा वो?" मैंने पूछा,
अनुभव क्र. ६५ भाग २
By Suhas Matondkar on Monday, September 15, 2014 at 4:33pm
"वो तो सही है, लेकिन उसको ऊँच-नीच समझाने वाला कोई नहीं" वे बोले,
अब मैं चुप!
दुविधा में डाल रहे थे मुझे!
अब मैं क्या समझाऊं?
कैसे समझाऊं?
वो तो करेगा ही जो उसने ठाना है!
लेकिन शर्मा जी नहीं माने!
आखिर में बात कर ही ली उन्होंने अमित साहब से! कि हम एक बार समझायेंगे उसको, मान गया तो ठीक नहीं तो कुछ नही किया जा सकता और हम इस मामले से अलग! बिलकुल!
मित्रगण!
आखिर कार्यक्रम निर्धारित हो गया!
तीन दिन के बाद मैं, शर्मा जी और अमित साहब फिर से जाने वाले थे गौरव से मिलने काशी! उसको समझाने के लिए! जहां अमित साहब खुश हुए वहीँ मैं परेशान हो गया! हाथ कुछ नहीं लगना था, बैरंग ही वापिस आना था!
आखिर हम स्टेशन पहुँच गये! अमित साहब वहीँ मिले! नमस्कार हुई! और इसके बाद हमने गाड़ी में जाकर अपनी अपनी सीट सम्भाली!
हम गाड़ी में बैठ गए!
"तो वो नहीं माना?" मैंने पूछा अमित साहब से!
"नहीं जी" वे बोले,
"उसको भला-बुरा बताया?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वे बोले,
"फिर भी?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वे बोले,
"अच्छा, कौन है वहाँ जिसके पास है वो?" मैंने पूछा,
"कोई बाबूराम है बाबा" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
खैर, इस बाबूराम का पता चल ही जाना था! गाड़ी छूटी और हम चले अब! पल दर पल काशी पास होने लगा!
अगले दिन हम पहुँच गए काशी! यहाँ से मैं सीधे अपने जानकार के पास गया, उनके डेरे पर, उनसे मुलाक़ात की, और फिर वहाँ दो कक्ष ले लिए गये! एक में मैं और शर्मा जी और एक में वो अमित साहब, अमित साहब को हैरत हुई वहाँ का हिसाब-किताब देखकर! सब में नियमितता थी, सभी अपने अपने काम में माहिर थे, क्या सहायक, सहायिकाएं और क्या दर्ज़ेदार साधक वहाँ! मेरे कुछ जानकार भी मिले मुझे वहाँ, उनसे भी बात हुई, उन्होंने प्रयोजन पूछा तो मैंने उनको प्रयोजन बता दिया, अमित साहब के सामने ही उन्होंने खिल्ली उड़ा दी लड़के की! वो मुझे मालूम था! और कइयों ने इसको दुर्भागयपूर्ण बताया, और कई गुस्सा करने लगे उस लड़के के गुरु पर जिसको इतनी
भी पता नहीं थी कि माता-पिता की आज्ञा के बिना शिष्यत्व धारण नहीं किया जा सकता! खैर, जितने मुंह उतनी बातें, यहाँ मुझे मेरे एक जानकार रिछपाल से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ, वे लम्बे समय से काशी में वास कर रहे थे! उन्होंने शाम को हमे बुलाया अपने कक्ष में, खाने-पीने के लिए, तो हम गए! वहाँ और भी दो औघड़ बैठे थे, वे ओडिसा से आये थे, हालांकि मुझे जानते नहीं थे, नयी पौध थी शायद! पर रिछपाल के जानने से ही वो जान गए थे कि मेरे और रिछपाल के संबंध काफी पुराने हैं जानकारी में! अमित साहब मेरे साथ ही बैठे थे, वे न तो मांस खाते थे और न मदिरा, एक बाप की कैसी विडंबना की औघड़ों की दावत में शामिल होना पड़ा! काहिर, जब रिछपाल को ये पता लगा तो उन्होंने उनके लिए निरामिष भोजन मंगवा दिया, उनके लिए भोजन आ गया! अब उन्हें सुनना था औघड़ों का हंसी-ठट्ठा! शर्मा जी अब पुराने चावल हो चुके हैं मेरे साथ रह कर! उन्हें कहीं भी ले जाइये, कुछ भी खिलाइये, जो मैं खाता हूँ, कोई परहेज़ नहीं! अब उन दो औघड़ों ने मदिरा परोसी सबके लिए, हमारे गिलास हमारे पास आये, हमने लिए और फिर खाना भी आया, सो हमने भोग देते हुए और नाद करते हुए कंठ से नीचे उतार कर मदिरा को सम्मान दिया!
"अच्छा, क्या बताया उस बाबा का नाम? जो उस लड़के को रखे हुए है?" रिछपाल ने पूछा,
मैंने अमित साहब को देखा,
"जी कोई बाबूराम है" वे बोले,
"बाबूराम?" उन्होंने पूछा,
"हाँ जी" वे बोले,
"परले घाट पर?" उन्होंने पूछा,
"नहीं जी, इसी घाट पर" वे बोले,
"यहाँ तो कोई बाबूराम नहीं है?" वे बोले,
"कहाँ रहता है ये?" उन्होंने पूछा,
अब अमित साहब ने बताया,
"अरे किसी का चेला चपाटा होगा वो!" वे बोले,
लो जी! एक बात और पता लगी! बाबूराम कोई बाबा नहीं!
"सुनो, कल जाओ, और साले इस बाबूराम की 'चपटिया' पर दो लात बजाओ!" वे बोले,
