वस्त्र से कस के ढके हुए थे! उन सभी के हाथों में, पात्र थे, उन पात्रों में कोई जल था, चारों ने, अलग अलग दिशा में वो जल बिखेरा था, और उसके पश्चात, वे फिर से कहरों का सा रूप लेकर, आकाश-गमन कर गयी थीं!
मेरा हृदय धड़क रहा था! ये आगमन की तैयारियां ही थीं! युग्मा आने को थी, उसकी दासियाँ, सेविकाएं, उसके आगमन में स्थान संयोजित और सुशोभित कर रही थीं! यही कारण रहा होगा!
इस से मुझे मानसिक बल प्राप्त हुआ! मैंने फिर से सघन मंत्रोच्चार किये! नेत्र बंद हो गए मेरे फिर से! इस बार मैं फिर से आकाश में विचरण करने लगा! न जाने कौन सा स्थान था वो, मैं एक पर्वत पर था, उस पर्वत के मध्य, नीचे एक बड़ी सी झील थीं, मैं वहीँ नीचे उतर आया था, मैं उसके निर्मल, साफ़ दूध से जल के ऊपर कोई चार फ़ीट ऊपर विचरण कर रहा था, जल में बड़ी बड़ी सुनहरे रंग की मछलियाँ तैर रही थीं! मैं आगे बढ़ता रहा, मेरे सामने एक बहत पुराना सा मंदिर खड़ा था, लेकिन वो था बहुत विशाल! मंदिर का रंग लाल था, मंदिर की दीवारों पर, अब काई लगी हुई थी, हरे रंग की काई, मैं उतर आया था नीचे, मैंने मंदिर में प्रवेश किया, जैसे ही पाँव रखा, मेरे पाँव की आहट, उस पूरे मंदिर में गूँज उठी! मैं आगे बढ़ा, सोचा कोई मिलेगा मुझे अंदर, लेकिन कोई नहीं था अंदर, मंदिर में जगह जगह बर्फ जमी हुई थी, और कोई मूर्ति, और कोई भी पूजा-स्थल नहीं था!
मैं आगे बढ़ा, खाली था वो मंदिर! कोई नहीं था वहाँ! मैंने छत को देखा, छत दिखाई ही नहीं दी मुझे, अँधेरा था वहाँ! या बहुत ऊपर थी वो छत! मैं वो मंदिर घूमता रहा, उसकी खिड़कियाँ थीं तो, लेकिन कोई पल्ले आदि नहीं थे, बस पत्थरों की चौखट ही थीं! मंदिर के शिल्प-कला से पता चलता था कि जैसे ये मंदिर किसी चोल राजा ने बनवाया हो! लेकिन क्या वो मंदिर ही था? मुझे नहीं लग रहा था! वहाँ कोई नहीं था, लगता था जैसे लोग पलायन कर गए हैं वहां से! और जैसे ही मैं मुख्य प्रांगण में पहुंचा, मुझे विषमा की बेलें दिखाई दीं! फूल लगे थे उन बेलों पर! विषमा के फूल?
तभी नेत्र खुले मेरे!
सामने मेरे, वही तो पड़े थे!
विषमा के फूल गहरे लाल रंग के हुआ करते हैं, भारत में नमी वाले जगह में हुआ करते हैं, इसकी बेले का पत्ता गिलोय या पान जैसा हुआ करता है, फूल के नीचे एक गुठली सी बनी करती है, ये गुठली कामोत्तेजक, कामदीप्ति के लिए प्रयोग हुआ करती है, यदि स्त्री इसका सेवन करें तो उसकी आयु स्थिर हो जाया करती है!
विषमा के फूल षट-फलक वाले होते हैं! सुगंध में तीखे होते हैं, बेला की फूल की तरह से महक होती है!
प्रकाश कौंधा!
मैं अपने हाथ आगे किये आँखों के!
और जब प्रकाश मंद पड़ा, तो सामने देखा,
वो आठ स्त्रियां थीं! पीले रंग के वस्त्र पहने! दिव्य-वस्त्र थे उनके! वे उस स्थान का जैसे
मुकायना कर रही थीं! तभी वायु का वेग बढ़ा! और मेरी अख मेरे पेट तक जा पहुंची! मैंने फिर से अलख में ईंधन झोंका, और सामने देखा!
"रन्ध्रा कौमिषः!!!" स्वर गूंजे!
"त्रिस्त्रायिका अयुम्ब्म!!" मैंने कहा,
बरसात हो गयी!
फूलों की बरसात!
मेरे ऊपर, आसपास, उस स्थान पर, बरसात! मेरे अनुनय स्वीकार था उन्हें! वे ही तो थीं, जो खबर करतीं उस महानायिका, महाराध्या एवं महासिद्धिका युग्मा को!!
मैंने उनको प्रणाम किया!
और खड़ा हो गया!
वे सभी लोप हो गयीं फिर!
मेरा मन किया, कि मैं नाच लूँ! आनंदित हो लूँ!
अलखनाद किया!
फिर महानाद श्री महाऔघड़ का!
मैं फिर से गहन मंत्रोच्चार में डूबा!
और फिर मेरे नेत्र बंद हो गए!
अबकी बार मैंने फिर से विचरण किया! और इस बार मैं कहीं दूर था! दूर, जहां बहुत से झरने थे! झरने किनारे, बहुत से सफ़ेद फूलों वाले पेड़ थे! लदे हुए फूलों से! भूमि, पूरी पटी हुई थी उनसे! मैं आगे चला तो पेड़ों पर सुनहरी सांप चढ़े थे! लेकिन गुस्से में नहीं थे वो! मैं आगे गया, तो सामने एक झरना था, मन किया स्नान कर लूँ! और मैंने स्नान किया! फिर बाहर आया, और फिर से आकाश में विचरण करने लगा!
तभी मेरी बंद आँखों की पलकों में रंग बदले! मैंने आँखें खोलीं!
मेरे केशों से तभी पानी टपका!
पानी?
मैंने हाथ लगाया उनको!
तो सारे केश गीले थे मेरे!
मेरा बदन भी!
सहसा ही ध्यान हो आया, कि मैंने स्नान किया था किसी झरने में! उसी का पानी है!
मित्रगण!
मेरे सामने का दृश्य बदल चुका था!
फूल ही फूल थे वहां!
आभूषण ही आभूषण!
स्वर्ण ही स्वर्ण!
रजत ही रजत!
धन ही धन!
चाँद की चांदनी उनका श्रृंगार कर रही थी!
लेकिन ये धन किसलिए?
मैं खड़ा हुआ!
और फिर बैठा गया!
हाथ जोड़े!
"नहीं! नहीं! धन नहीं चाहिए माँ! धन नहीं चाहिए!" मैं रो सा पड़ा था!
"माँ! धन नहीं! धन नहीं माँ!" मैंने कहा,
और अगले ही पल,
जैसे ही मेरे आँख से आंसू टपका, वो धन, लोप हो गया!
जैसे ही धन लोप हुआ, मैं खड़ा हो गया!
मेरी ये मुराद भी क़ुबूल हो गयी थी!
और अब, बस कुछ पल और!
बस कुछ पल और, और वो मेरी महाराध्या,
मेरे समक्ष होनी थी!
वो धन लोप हो गया था! अकूत धन-दौलत थी वो! अथाह दौलत! ले लेता, तो संभवतः पंद्रह पुश्त आराम से बैठ कर खातीं! लेकिन नहीं! नहीं! इस से कोई लाभ नहीं! यदि धन से ही सृष्टि चलती, तो आज सभी राजा महाराजा जीवित होते! और उनके वंशज राज कर रहे होते आज भी! सृष्टि में धन का कोई औचित्य नहीं! मैं फिर से एकाग्रचित होकर बैठ गया! और लगा लिया ध्यान! फिर से मेरे नेत्र बंद हुए! और फिर मैं आकाश-विचरण कर रहा था! मैं एक ऐसी भूमि पर था, जहाँ पेड़-पौधे नहीं थे, थे भी तो नाम मात्र के! केवल झाड़ियाँ ही थीं वहां, नीचे भूमि पर, जंगली घोड़े चर रहे थे! इंसानी आबादी दूर दूर तक नहीं थी वहां! अचानक से मेरी नज़र फिर से एक मंदिर पर पड़ी! मैं इच्छा न होने के बावज़ूद नीचे उतरता चला गया! जैसे मुझे हवा में हांके जा रहा हो कोई! मैं नीचे उतरा, वो मंदिर भी लाल रंग से बना था, हाँ, उसकी सीढ़ियां और उन सीढ़ियों की शुरुआत में जो सिंहों की मूर्ति बनी थीं, वो काले पत्थर की थीं! सिंह बहुत बड़े बड़े थे! कम से कम बीस बीस फ़ीट के तो रहे होंगे! मैं सीढ़ियां चढ़ा, ऊपर के लिए, मुझे आज भी याद है, वो सीढ़ियां कुल बहत्तर थीं! मैं जब ऊपर आया, तो नीचे एक तालाब बना था, तालाब नीचे, बहुत नीचे थे, और दूर से देख कर पता चलता था कि जैसे उसमे स्नान किया जा रहा हो! जैसे कई मनुष्य थे वहां! मैंने आसपास नज़र दौड़ाई अपनी! बादल फैले थे आसपास, ज़मीन पर ही उतर आये थे वे बादल! वातावरण में ठंडक थी, मैं पूर्णतया नग्न था, मैं नीचे उतरा, ये सीढ़ियां सफ़ेद थीं, और छूने पर ऐसा लगता था जैसे मैं कबूतरों के पंखों पर चल रहा होऊं! मैं नीचे उतरा, और नीचे, और जब नीचे आये, तो देखा! देखा कुछ सतियां, स्नान कर रही थीं, वे भी नग्न थीं, लेकिन आभूषण धारण किये हुए थीं! मैं नीचे बैठा, उनसे नज़रें मिलीं, वे मुस्कुराईं, मैं वहां उकडू बैठ गया, पानी को जैसे ही हाथ लगाया, पानी पीछे लौट गया! मैं छू नहीं पाया उसे!
"जाओ साधक!" एक बोली,
मैं खड़ा हुआ,
हाथ जोड़े,
और जैसे ही हाथ खोले, मेरे पीछे से फिर से एक आवाज़ आई,
"जाओ, वहाँ जाओ" मैंने देखा कि आवाज़ किसने दी है!
मैं पीछे मुड़ा,
तो एक अद्वित्य सुंदरी वहां खड़ी थी! उसी ने आवाज़ दी थी मुझे,
"जाओ, वहाँ जाओ" वो बोली,
उसने जहां इशारा किया था, मैंने वहाँ देखा,
वहां तो एक उपवन सा था!
शाल के वृक्ष लगे थे वहाँ!
मैंने हाथ जोड़े,
और चल पड़ा उधर ही!
पीछे देखा, तो कोई नहीं था!
सब, सब गायब हो गए थे, न वो स्नान करती स्त्रियां और न ही वो सुंदरी!
मैं तो हवा के संग चल रहा था!
बदन ऐसे हल्का था जैसे कोई पंख!
मैं आगे बढ़ा, और आगे,
और एक द्वार तक आ गया, ये द्वार स्वर्ण का बना था, इसमें ज्योमितीय आकृतियाँ बनी थीं, त्रिकोण, आयत, षटकोण और सप्तभुज! अजीब सा ही द्वार था!
मैं आगे गया, और जैसे ही द्वार को धकेलने के लिए हाथ बढ़ाया, द्वार खुल गया! मेरी नज़र सामने पड़ी! एक बड़ा सा दालान था वहाँ! हरी घास लगी थी वहां! शाल के वृक्ष, झूम रहे थे! मैं अंदर चला, तो फिर से वही सुगंध आई! मेरे चारों तरफ फूल ही फूल थे! रंग-बिरंगे फूल! आकाश पर नज़र पड़ी, आकाश का रंग, लालिमा ले गया था! जैसा अक्सर क्षितिज पर हुआ करता है!
मैं आगे बढ़ा,
सामने देखा,
पेड़ों के बीच फिर से एक मंदिर सा दिखा!
मैं वही के लिए आगे दौड़ पड़ा!
घास बहुत ठंडी थी! बहुत ठंडी!
मेरे पाँव गीले हो गए थे!
मैं मंदिर के द्वार तक आया, सीढ़ियां बनी थीं, आसपास मूर्तियां लगी थीं, स्वर्ण था वो, वे नग्न-मूर्तियां थीं, और अचानक ही! मैं स्तब्ध रह गया! ये तो वैसी ही हैं, जैसी मुझे बाबा अमर नाथ ने दिखाई थी! हाँ, वही! ठीक वैसी ही! मैं मूर्ति की तरफ बढ़ा, उसको छुआ! लगा, किसी स्त्री के बदन को छू रहा हूँ! वहाँ से हटा, तो सीढ़ियां चढ़ा!
एक द्वार था वहां! बहुत सुंदर!
स्वर्ग का सा द्वार!
यहाँ भी ज्योमितीय आकृतियाँ थीं कढ़ी हुईं!
मैं अंदर गया, और जैसे ही अंदर पहुंचा, वहां एक बहुत बड़ा दीया जल रहा था! फूल बरस रहे थे छत से! सब बहुत अद्भुत था! बहुत अद्भुत! मैंने एक फूल उठाया, और देखा, ये तो विषमा के फूल थे! सभी के सभी!
तभी मुझे कुछ खनकती सी आवाज़ें आयीं वहां!
मैं बढ़ चला उधर ही!
मैं जितना बढ़ता, उतना ही आवाज़ें और दूर चली जातीं!
मैं रुक गया एक तरफ!
फिर से सुना, फिर से आवाज़ आई!
मैं फिर चल पड़ा आगे!
सामने देखा मैंने, तो एक अत्यंत ही रूपवान स्त्री खड़ी थी वहां! नग्न देह थी उसकी, ठीक उन्ही मूर्तियों में से एक! जैसे कोई मूर्ति साकार हो गयी है! मैं उसके रूप को देखकर, मुग्ध हुए बिना न रह सका! मेरे मन में काम जागने लगा!
उस स्त्री ने मेरे मनोभाव जाने!
वो सामने आई,
मुझे देखा,
मेरे कामभाव पहचान लिए उसने!
उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया! और मेरी गरदन पर रखा, जैसे ही रखा, मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा गया! मैं गिरते गिरते बचा!
जब नेत्र खोले,
तो मेरी कामेन्द्री शिथिल हो चुकी थी! कामभाव क्षीण हो चुके थे!
मेरे आंसू बस बहने ही वाले थे कि उसने फिर से हाथ रखा मेरे सर पर!
"जाओ! उद्देश्य पूर्ण करो!" उसने कहा,
मेरो पलकें बंद हुईं,
और जब खुलीं, तो मैं आकाश में था!
बादलों के बीच से गुजरता हुआ मैं, आगे बस आगे जा रहा था!
मुझे उस कामांगना ने अब पूर्ण कर दिया था!
मैंने मन ही मन उसको नमन किया!
और अपने उन कामभावों पर, हीनता का आभास हुआ!
मैं फिर से एक स्थान पर उतरा!
ये स्थान रेतीला था! बहुत सा रेत था वहां!
उस रेत पर चींटियाँ आ-जा ही थीं! कुछ नहीं था वहां!
और तभी जैसे कंगनों की आवाज़ आई!
मैंने पीछे देखा, और तभी एक काँटा मेरी बाजू में लगा,
मैंने काँटा खींचा और क्या देखा!
रक्त नहीं निकला था उसमे से!
हैरत हुई मुझे!
हाँ, मैं फिर से उस आवाज़ के पीछे चल पड़ा!
जब आगे गया, तो आँखों ने विश्वास नहीं किया मेरी!
सामने एक तालाब था! तालाब में सुन्दरियां स्नान कर रही थीं! हंसी-ठिठोली!
हंस बैठे थे उसमे!
काले काले सांप तैर रहे थे उसमे!
ये कैसा नखलिस्तान?
कहाँ हूँ मैं?
एक पल को सोचा!
और आगे बढ़ा!
जैसे ही बढ़ा, भूमि कांपने लगी!
और मेरे नेत्र खुल गए तभी की तभी!
मैं कहाँ हूँ?
वे सुंदरियाँ?
वे तालाब?
वे सर्प?
कहाँ है?
सहसा प्रकाश कौंधा!
और मैं अब यथार्थ में आ गया!
मैं तो, उस युग्मा के आह्वान में लगा हूँ!
मेरे मुंह से मंत्र फूट रहे थे! लगातार!
रात के दो बज रहे होंगे, मेरे केश अभी तक गीले ही थे! उनमे से पानी टपक रहा था, वो पानी मेरी कमर से जब गुजरता तो मुझे ठंड सी लग जाती! मैं अलख में ईंधन झोंक देता! अलख भड़कती तो उसके ताप से सुकून मिलता! मंत्र मैं पढ़े ही जा रहा था! अचानक ही, मेरे सामने एक स्त्री प्रकट हुई, दोनों हाथों में कलश थामे हुए, स्त्री का सौंदर्य अप्रतिम था! कोई तुलना की ही नहीं जा सकती थी! पीले रंग के चमकते वस्त्र धारण किये थे उसके, बालों का एक बड़ा सा जूडा बाँधा हुआ था उसने, और उस जूडे से आभूषण लटक रहे थे, तार से, वो हिलती तो खनक जाते वे आभूषण! उसके वक्ष स्थल को उन्ही आभूषणों ने ढक रहा था, कमर पर भी आभूषण था, उसके कंधे बहुत चौड़े, वक्ष-स्थल उन्नत, कमर बहुत पतली सी, नितम्ब बहुत पुष्ट थे, नितम्बों पर भी कमरे से बंधे वे आभूषण लटक रहे थे! वे भी खनक जाते थे! जंघाएँ केले के पेड़ सी सुडौल थीं, वे पीले वस्त्र में कस कर बंधी थीं! उन पर भी आभूषण सजे थे! कोई देख ले तो देवी की संज्ञा दे दे उसे! ऐसा अपार सौंदर्य, मैंने शायद ही कभी देखा हो! उस सुंदरी ने अपने कलशों से जल नीचे बिखेरा! जल! अपनी प्रकृति के विरुद्ध फ़ैल नहीं रहा था! वो ऊपर
उठ रहा था! वो करीब चार फ़ीट ऊपर उठा था, वो घूमा, और छलक के नीचे गिरा! वो जल, और उसकी बूँदें मेरे बदन पर पड़ीं! मेरी फुरफुरी छूट पड़ी! वो जल ऐसा था जैसे बर्फ की बूँदें!
"देवी?" मैंने पूछा,
उसने मुझे देखा,
"कौन है आप?" मैंने पूछा,
वो मुस्कुराई!
और समीप आई!
"भौमिका!" वो बोली,
मैंने नाम नहीं सुना था ये कभी!
कम से कम इस साधना में तो!
वो कोई भी थी, थी कोई सहोदरी ही!
उसने उत्तर दिया, और लोप हुई!
मैं एक कदम और आगे बढ़ गया था!
मैंने फिर से सघन मंत्रोच्चार किया! अब मैं अंतिम चरण की अंतिम पक्ति में था! मैंने अपने नेत्र बंद किये! और जैसे ही बंद किये, मैं फिर से विचरण करने लगा! मैं जब भी विचरण करता था, मेरी ज्ञानेन्द्री जागृत हो जाती थी!
इस बार मैं एक उपवन के ऊपर से विचरण कर रहा था!
नीचे, हरा-भरा उपवन था! बीच बीच में नदियां बह रही थीं! बहुत सुंदर दृश्य था! सामने नज़र पड़ी, तो ऐसा धुंधलापन था जैसे वहाँ बारिश पड़ रही हो!
और मैं फिर नीचे उतरा! जैसे किसी ने सहारा दिया हो!
मैं जहाँ उतरा वहां नीले रंग के चशुम्भी के फूल खिले थे! ये फूल वर्ष में मात्र एक बार ही खिलते हैं, वो भी आश्विन के माह में! या अंत में इसके! लेकिन यहां तो हर तरफ फूल ही फूल थे! मैं आगे बढ़ा, आगे एक पगडंडी सी थी! मैं उसी पर चल पड़ा! मेरे आसपास, चशुम्भी, नित्राला, अमोर, युहिया और पलश्री के जंगली फूल थे! सुगंध ही सुगंध थी वहां!
मैं आगे बढ़ा!
हाँ, एक बात और, सूरज नहीं थे आकाश में!
ये एक चमत्कार था!
मैंने ऊपर देखा, क्षितिज पर देखा,
कहीं नहीं थे सूरज!
मैं आगे बढ़ा तो आगे एक टीला सा दिखाई दिया! मैं उस पर ही चढ़ा! वहाँ पहुंचा, और नीचे झाँका! नीचे तो फिर से एक खूबसूरत मंदिर सी इमारत थी! मैंने नीचे चलने को सोचा, और चला नीचे! जब वहां पहुंचा, तो बारिश की बूँदें गिर रही थीं! मैं आगे बढ़ा!
और आश्चर्य!
मैं बारिश के बीच से निकल गया! और भीगा नहीं!
ये क्या चमत्कार था!!
मैं आगे पहुंचा, और मेरे सामने वही खूबसूरत इमारत थी! स्वर्ण से बनी थी शायद! मैं द्वार पर पहुंचा, फूल लगे थे आसपास! पीले रंग की दीवार पर, उनकी परछाइयाँ पड़ रही थीं! और वो दीवार, वो स्वर्ण, ऐसा लग रहा था जैसे कोई दर्पण!
आश्चर्य!
मैं अंदर गया!
अंदर तो ऐसा था जैसे मैं स्वयं श्री विश्व**मा जी के उद्यान में आ गया हूँ! कैसे अद्भुत पुष्प थे वो! कैसा अद्भुत प्रकाश था! कैसा अद्भुत दृश्य था!
मैं अंदर चलता रहा! चलता रहा!
सामने एक भवन था!
मैं उसमे घुस गया!
सामने खिड़की सी थी, मैं वहाँ तक गया!
झाँका!
और जब झाँका तो पाया कि वो भवन भी हवा के संग उड़ रहा है! नीचे भूमि के एकोई थाह नहीं थी! कोई थाह नहीं! नीचे उपवन था! पेड़ बहुत छोटे छोटे दीख रहे थे! ये कैसी अद्भुत माया था!
और तभी!
तभी मुझे कुछ स्वर सुनाई दिए!
कुछ स्त्रियों के स्वर!
जैसे कोई अंदर आ रहा हो!
मैं चौकस खड़ा हो गया!
अंदर, तीन स्त्रियां आयीं!
मुझे देखा, मेरे सामने आयीं!
उनके नेत्रों में प्रेम-भाव था! क्रोध-भाव नहीं!
"जाओ साधक! यवः चरण में प्रवेश करो!" एक बोली!
और मेरे सर पर हाथ रखा!
मेरे नेत्र खुले!
और क्या देखा!!
देखा, सुनहरी हरा प्रकाश फैला है!
मेरे चारों ओर सफ़ेद सी धुंध है!
एक अद्भुत धुंध!
मैं खड़ा हुआ!
मंत्र जपता रहा!
फिर से प्रकाश का एक पिंड प्रकट हुआ!
वो पिंड शीघ्र ही, बड़ा हुआ!
और एक अति-सुंदर स्त्री में परिवर्तित हो गया!
"यवः प्रवेश!" वो बोली!
और लोप हुई!
ओह!!!!!!!! पकड़ ली!
पकड़ ली मैंने!!!!!!!!!
अंतिम डोर पकड़ ली!
मैं बढ़ गया था आगे! आजम बहुत दूर आ गया था मैं!
संभवतः अपने आप से भी!
मैंने महानाद किया!
अलखनाद!
श्री महाऔघड़ का महानाद!
मैं, होने ही वाला था पार!
मित्रगण!
और वो बेला आ गयी!
अब मैंने अंतिम मंत्र पढ़ने आरम्भ किये!
जैसे ही पढ़ना आरम्भ किया,
पुष्प-वर्षा आरम्भ हो गयी!
पुष्प मेरे स्थान पर ऐसे गिर रहे थे जैसे बरसात हो रही हो!
मैंने अलख में ईंधन झोंका!
और जैसे संगीत सा सुनाई दिया मुझे!
एक मधुर सा संगीत!
कामविह्वल करने वाला अद्भुत संगीत!
मैंने और ईंधन झोंका!
मेरी अलख ने मेरा खूब साथ दिया था! एक माँ की तरह!
आकाश से जल की बूंदें बरसने लगीं!
हरे रंग के प्रकाश कण प्रकट हो गए!
वो दीप्ति को प्राप्त करते, और बुझ जाते,
फिर उनका स्थान कोई और ले लेता!
अद्भुत!
अत्यंत अद्भुत!
मित्रगण!
हरे रंग का चमकीला प्रकाश फैला हुआ था! एक ऐसा प्रकाश, जिसका कोई स्रोत नहीं था! कहाँ से आ रहा था, पता नहीं, प्रकाश के कण छन रहे थे! जैसी कोई नाभिकीय प्रक्रिया चल रही हो! जैसे भौतिकी के सभी सिद्धांत यहाँ आकर समाप्त हो जाते हों! जहां विज्ञान मात्र एक मूक दर्शक के सिवा और कुछ नहीं! विज्ञान तो टकटकी लगाए एकटक देख रहा था! कैसा
अनुपम दृश्य था वो! इस संसार से सर्वथा पृथक! आँखें जो देख रही थीं उस पर यक़ीन करना सम्भव न था! और जो हो रहा था वो किसी भी तर्क-वितर्क से परे था! प्रकाश ऐसा था जैसे शून्य के गर्भ से फूट रहा हो! वे कण ऐसे चलायमान थे जैसे किसी कालखण्ड में कोई क्रिया चल रही हो! विशेषकर उसी स्थान पर! ये वो स्थान था, जहां मैं बैठा था! जहां मन्त्रों ने एक ऐसा व्यूह रच दिया था कि मंत्र-ईष्ट को अब आना ही था! मेरी साँसें थम जाती थीं जब वे प्रकाश के कण, एक दूसरे से टकराते थे, और फिर स्वाह होने से पहले, एक नवीन सृजन कर जाते थे!
समय स्थिर था वहाँ! मुझे कुछ पता नहीं था कि रात है या दिन, दोपहर है या शाम! मैं तो अपनी अलख से सटा बस मंत्रोच्चार किये जा रहा था! अलख में ईंधन झोंकता और अलख से ही वार्तालाप किया करता था! मेरी अलख, मेरे संग ही आगे बढ़ रही थी! बीच बीच में मैं इस अलख को प्रणाम करता! इसीके कारण ही तो मैं इस क्रिया के इस आयाम में आ पहुंचा था!
मंत्र आगे बढ़े! मैं आगे बढ़ा! और इस प्रकार मैंने मन्त्र की वो अंतिम पंक्ति भी पूर्ण कर ली! हो गया सम्पूर्ण ये सब! मैं खड़ा हुआ, महानाद किया! और तभी प्रकाश कौंधा! इस बार ये प्रकाश हरा न हो, नीली आभा वाला था! इतना तेज था, कि आँखें चुंधिया गयीं! मैं बैठने को विवश हो गया, अपनी आँखों को हाथों से ढकते हुए! और जब आँखें खोलीं, तो वहां कोई सोलह देव-कन्याएं सामने थीं! नीले रंग के वस्त्रों में! सभी के हाथों में कलश थे! उन्होंने एक वृत्त का रूप लिया, और अपने अपने कलश खाली कर दिए! उनमे जल था! एक अनूठा ही जल! उन कलशों के खाली होने की आवाज़ अत्यंत मधुर थी! जैसे संगीत का कोई वाद्य हो! जब जल समाप्त हो गया तो वे लोप हो गयीं!
मैं खड़ा हो गया तभी! और जैसे ही खड़ा हुआ, आकाश से रंग-बिरंगा सा प्रकाश भूमि की ओर चला! साँसें रुक गयीं मेरी तो! वो सतरंगी सा प्रकाश द्रुत-गति से नीचे आ रहा था! उसक आकार बढ़ता ही जा रहा था! जब मध्य में ही था, तो भी आँखें नहीं देख पा रही थीं उसे! पूरा स्थान इंद्रधनुषी रंग का हो गया था! प्रकाश में शीतलता थी, और देखते ही देखते वो प्रकाश वो पिंड, नीचे उतर आया! जैसे, सूर्य स्वयं ही नीचे आ गए हों आज! आँखें खुल नहीं रही थीं! देखना सम्भव नहीं हो पा रहा था! मैंने आँखें बंद ही रखी थीं तब! लेकिन मेरी पलकों में से भी छन कर, वो प्रकाश मेरे नेत्रों के भीतर प्रवेश किया जा रहा था! कभी लाल रंग, कभी पीला, कभी नीला, कभी हरा! और फिर वो प्रकाश मंद पड़ा! मैंने आँखें खोल दीं तभी!
वो एक भंवरिका थी!
गोल गोल घूमती एक प्रकाश की किरण!
उसका दायरा बहुत बड़ा था! बहुत बड़ा, और अब धीरे धीरे संकुचित होने लगा था! और जब संकुचन पूर्ण हुआ, तो तेज सुनहरी प्रकाश फूटा! ऐसा सुनहरी की वहाँ की प्रत्येक वनस्पति उस प्रकाश को ग्रहण कर बैठी! मेरे पास लगा वो पेड़, रमास का पेड़, बहुत ज़ोर से हिला, और देखते है देखते, सुनहरी वर्ण का होने लगा!
अब मैं चौंका!
मेरे देखते ही देखते एक एक डाल, एक एक पत्ती उसकी सुनहरी होने लगी! उसका तना, ऐसा लगे जैसे स्वर्ण से बना एक खम्बा!
युग्मा का आगमन हो चुका था!
बस! इसी पल का तो इंतज़ार था मुझे!
वातावरण में शीतलता छायी थी! जैसे ओंस गिर रही हो! मैं स्तब्ध सा खड़ा, वहीँ उस संकुचित प्रकाश-मंडल को देख रहा था!
मित्रगण!
जो अगला दृश्य था वो मैं कभी नहीं भूल सकता! वप प्रकाश सहसा ही नीला हुआ! ऐसा नीला रंग, जैसा मैंने कभी नहीं देखा, उसमे लाल रंग की सी आभा थी! आकाश से फूल बरस रहे थे! बेतहाशा फूल! वे फूल गिरते और लोप हो जाते! एक अलग ही सुगंध छायी थी! मैं खड़ा हुआ, आँखें फाड़े उस दृश्य को देख रहा था!
और तभी फिर अचानक ही!
वो युग्मा प्रकट हो गयी! मेरी तो आँखें ही फ़टी रह गयीं! वो हवा में कोई दो फ़ीट ऊपर थी, नीचे लाल रंग के फूल थे! ढेर बन चुका था उनका, कुछ लोप हो जाते थे, और जो उस से टकराते, वे नीचे ढेरी बना लेते थे!
युग्मा!
मेरी आराध्या!
प्रकट हो गयी थी!
उसका सौंदर्य!
अप्रतिम! अतुलनीय! अद्वित्य! अनुपम!
उसका कद, कोई आठ फ़ीट!
उसकी देह, सुडौल और पुष्ट!
उसके अंग-प्रत्यंग, अकल्पनीय!
इस संसार में ऐसी कोई स्त्री नहीं! उसका एक अंश भी नहीं!
नीले रंग के वस्त्रों में थी वो युग्मा! स्वर्णाभूषणों से युक्त!
सोलह श्रृंगार क्या होते हैं, अब देखा था मैंने!
स्त्री-सौंदर्य क्या होता है, अब देखा था मैंने!
कामदेव भी रीझ जाएँ! रति विद्रोह कर दें!
इन्द्र तो युद्ध की घोषणा कर दें! ऐसा सौंदर्य!
कैसे चूक गए थे बाबा अमर नाथ, अब जाना मैंने!
कोई भी चूक सकता था! बड़े से बड़ा जीवट वाला! कोई भी!
यही थी! यही थी जिसको सिद्ध किया था बाबा अमली ने!
वो खड़ी थी!
मैं भी खड़ा था!
लेकिन स्तब्ध!
अवाक!
सन्न!
मित्रगण!
फिर कुछ प्रश्नोत्तर!
और फिर उद्देश्य!
ये कुछ गूढ़ प्रश्न होते हैं, लिख नहीं सकता यहां! हाँ, इसी में करीब पंद्रह मिनट लग गए होंगे!
वो मुस्कुराई!
और मुझे मिल गया जो चाहिए थे!
मेरा उद्देश्य पूर्ण हुआ!
जैसे ही उद्देश्य पूर्ण हुआ, मेरे शरीर में उबाल आया!
मैं जैसे हवा में उछला, और नीचे गिर पड़ा!
अचेत हो गया मैं!
और फिर कुछ याद नहीं!
कुछ भी याद नहीं!
बस इतना कि वो पेड़, रमास का पेड़, भरभरा कर जल पड़ा था! उसकी एक एक पत्ती जल पड़ी थी! मैं नीचे गिरा था! बस, इतना ही याद है!
उस अचेतावष्ठा में, मैं कहाँ कहाँ नहीं घूमा! उस युग्मा के साथ! पता नहीं कहाँ कहाँ! कैसे कैसे लोग देखे मैंने! कैसे कैसे! और ये भी देखा, कोई ऐसा है यहाँ, जिसे मैं जानता हूँ, कहीं देखा है मैंने! और देखा! ये तो बाबा अमली हैं!
प्रसन्न!
मेरे सर पर हाथ रखा उन्होंने!
आशीर्वाद दिया! क्या कहा, नहीं पता! सच में नहीं पता!
मित्रगण!
मैं कितनी देर अचेत रहा, नहीं पता!
बस इतना याद है कि जब आँख खुली थी मेरी, तो मैं लेटा हुआ था! फूस के ऊपर बिछे एक खेस पर! मेरे शरीर पर तहमद सा बंधा था, घुटनों तक, मैं किसी को पहचान नहीं रहा था!
क्या हुआ था?
ये कौन लोग हैं?
मैं कहाँ आ गया हूँ?
बाबा अमली कहाँ हैं?
और वो, वो युग्मा कहाँ है?
मैं किस अनजान लोक में हूँ!
धीरे धीरे मैं सामान्य हुआ!
बाबा अमर नाथ ने मुझे सीने से लगाया! बाबा गिरि ने अपने आंसू पोंछे! मेरे हाथों के नाखून सुनहरी आभा लिए हुए थे! जो अब धीरे धीरे समाप्त हुए जा रही थी!
मैं चुप था! खड़ा हुआ! शर्मा जी को देखा, मुस्कुराया! उनको संग लिया अपने! और चल पड़ा उस स्थान के लिए! सभी मेरे पीछे चले!
वो रमास का पेड़, जड़ समेत, जल चुका था!
अब कोई नामोनिशान नहीं था उसका!
मेरी अलख, अब ठंडी पड़ चुकी थी!
मैं ऊपर चढ़ा! बैठा वहां!
और एक महामंत्र पढ़ा! युग्मा का मंत्र!
आँखें बंद कीं,
और जब खोलीं, तो मैं सामान्य हो चुका था!
मित्रगण!
हम उसी दिन कोई दोपहर में, वहां से चल दिए वापिस! सीधा आये हम बाबा गिरि के स्थान पर, मेरा मन शांत तो था, लेकिन मुझे परिवर्तन हो चुका था, भले ही कुछ समय तक, मेरी चुहलबाजी सब जा चुकी थी! मैं शांत ही रहता था, हम कोई तीन दिन और रहे वहां! और इन तीन दिनों में खबर लगी कि बाबा अमली उसी रात, उसी समय मुक्त हो गए थे, जिस समय वो युग्मा मेरा उद्देश्य पूर्ण कर गयी थी! युग्मा के आगमन समय ही, बाबा अमली उठ बैठे थे! और ध्यान में लग गए थे! कुछ समय पश्चात ही, उन्होंने देह त्याग दी थी! मैं बाबा अमली को बात करते नहीं देख सका, अफ़सोस रहा, और सदा रहेगा! बाबा अमर नाथ भी इसी वर्ष देह त्याग चुके हैं, हाँ, बाबा गिरि, वे वहीँ हैं, अपने स्थान पर, अब निश्चिन्त हैं, मेरे यहाँ एक बार आये थे! तभी बाबा अमर नाथ के विषय में पता चला था!
बाबा अमली मुक्त हुए, इस से बड़ा कोई आनंद नहीं था और न है! क्या पता मेरे लिए ही प्राण अटके हों उनके! और वो युग्मा, उसे कभी नहीं भूल सकता मैं! उसकी साधना करना अब मेरे बस में नहीं! कहीं विरक्त ही न हो जाऊं अपने आप से! बस इसीलिए!
मित्रगण! ये संसार रहस्य है! अनेक रहस्य साथ साथ चलते हैं हमारे इस साकार जगत में! कोई थाह ले लेता है और कोई जीवन की राह में आगे बढ़ता जाता है! मैं भी इस जीवन की राह में, बाबा गिरि के एक सामान्य से बुलावे पर गया था, और जब वापिस आया, तभी से भर गया हूँ! एक रहस्य जान चुका हूँ! अनेकों को जानने की उत्कंठा सदैव जीवित है!
साधुवाद!
