वर्ष २०१२ पीलीभीत क...
 
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वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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उसके बाद मुझे उस महासिद्धि में लग जाना था! महाक्रिया में! मैं आगे चला जा रहा था, और एक जगह बाबा गिरि रुक गए! अब यहां से मुझे आगे जाना था, वो मासू मुझे बही दीख नहीं रहा था, उसके लिए आगे जाना था मुझे! तभी बाबा गिरि ने मुझे आशीर्वाद दिया! और मैं उनके चरण छूने के बाद बढ़ गया आगे!
मेरे सामने वो मासू खड़ा था! गर्व से! वो प्रिय था उस कौमुदी को! उस तृप्तिका को! उस युग्मा को! उस वेत्ता और उस नखाकेशी के संयुक्त रूप को! मैं तो मात्र एक साधक था! जो साधने चला आया था उस युग्मा को, जिस से कुछ प्राप्त करना उद्देश्य था मेरा! और इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए मैं आगे बढ़ा! उस चबूतरे पर आया! उस स्थान को नम किया! उस वृक्ष को नमन किया! फिर दश-दिशा नमन, आठों कोणों को नमन किया! वस्त्र उतारे! और अब भस्म-स्नान किया! एक एक मंत्र पढ़ते हुए, मैंने एक एक तंत्राभूषण धारण किये! ये साधना एक रात्रि की नहीं थी! इस साधना में अनगिनत रात्रियाँ लगतीं! ये मेरी योग्यता पर निर्भर करता था! कि मैं कितना आगे बढ़ता हूँ! कौन कौन से वृत्त भंग करता हूँ, कौन से अवरोध का वेध करता हूँ!
भस्म-स्नान हुआ!
आभूषण धारण कर लिए!
रक्त से चिन्ह बना लिए!
माथे और ग्रीवा पर, त्रिपुण्ड स्थापन कर लिया!
फिर गुरु नमन किया!
श्री महाऔघड़ नमन किया!
और एक अलखनाद करते हुए, अलख उठा दी!
अन्धकार को चीर दिया उस प्रकाश ने!
वो पेड़, उस प्रकाश में किसी दैत्य समान नज़र आने लगा था!!
और फिर एक महानाद! उस महाशक्ति का नाम ले, संकल्प लिया! या तो सिद्धि नहीं, या फिर मैं जीवित नहीं!
और इस प्रकार मैंने उस महासिद्धि के प्रथम चरण में प्रवेश किया!
मैं मध्य-रात्रि तक मंत्रोच्चार करता रहा! डूबा रहा उन क्लिष्ट मंत्रों में! मुझे हर पल यही लगता कि मैं नज़रों में हूँ अपने गुरु मेरे दादा श्री की!
इस प्रकार प्रथम रात्रि की साधना पूर्ण हुई! शेष रात्रि मैंने वहीँ बितायी!
अगली सुबह, स्नान किया और जा पहुंचा उनके पास! मुझे देख सभी प्रसन्न हुए! दिन में मैं समस्त नियमों का पालन किया करता था!
मित्रगण इस प्रकार में उस महासिद्धि के तीन चरण पूर्ण कर चुका था! मेरी दाढ़ी मूंछें बढ़ गयी थीं! शरीर का रंग बदल चुका था, मैं काला पड़ता जा रहा था धीरे धीरे, मेरे हाथों के केश जल चुके थे, छाती के बाल, जल चुके थे उस अलख के ताप से! अब ये तो चतुर्थ और अंतिम चरण था, ये ही अलसी चरण था! इसमें वो महासिद्धि जागृत होने वाली थी! मंत्र जागृत होने वाले थे! वो स्थान जागृत होने वाला था, और मैं, इस संसार से अब कटने वाला था!
कोई नौ रात्रि पहले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कोई दो बजे रात का समय हुआ होगा!
मैं गहन मंत्रोच्चार में लीन था!
कि सहसा, मुझे कुछ स्त्रियों के स्वर सुनाई दिए!
ये मेरा भ्रम नहीं था! वे स्वर, मेरे पीछे से आ रहे थे! और काफी स्पष्ट थे! वे किसी डिम्बाक के विषय में बात कर रही थीं! ये डिम्बाक कौन है, मुझे नहीं पता था! मैंने पीछे नहीं देखा, स्वर फिर से गूंजे! और फिर से कुछ स्त्रियां हंसी! जैसे मेरा उपहास उड़ाया जा रहा हो!
मैं खड़ा हुआ! सामने देखा,
"कौन है?" मैंने अलख में ईंधन झोंकते हुए पूछा!
एक अट्ठहास हुआ!
एक महा-प्रबल सा अट्ठहास! एक स्त्री का अट्ठहास!
"कौन है? सामने आओ?" मैंने कहा,
किसी के कदमों की आवाज़ आई!
जैसे सूखी पत्तियों पर कोई चल रहा हो धीरे धीरे!
फिर आवाज़ रुक गयी! जैसे कोई ठहर गया हो! मैंने अपना त्रिशूल अपने हाथ में ले लिया था! मैं किसी भी परिस्थिति से निबटने के लिए तैयार था! अक्सर ऐसी सिद्धियों में अवरोध उत्पन्न हुआ करते हैं, और अवरोधों के आरम्भ आज हो चुका था!
"सामने आओ?" मैंने कहा!
फिर पत्तियों पर चलने की आवाज़ हुई!
और फिर रुक गयी! मैंने फिर से अलख में ईंधन झोंका!
मित्रगण! ये सभी अवरोध, क्रिया के हिस्से ही हुआ करते हैं! और ये भी यही था!
आवाज़ फिर से आई! फिर से कोई धीमी हंसी हंसा!
यदि मैं पीछे देखता, तो क्रिया भंग हो जाती! जो भी था, सम्मुख ही अाना चाहिए थे!
आवाज़ फिर से हुई! कोई आगे बढ़ा!
"सामने आओ मेरे!" मैं चिल्लाया!
"ठहर जा!" एक स्त्री की आवाज़ गूंजी!
अब मैं जान गया कि ये कौन है! ये दौंदनी है! भैरवी समान एक शक्ति! तो किसी भी साधक के लिए रोड़े अडाती है उसके मार्ग में! कैसे भी करके! काम से, धन से, लालच से, भय से! यही तो कार्य है इसका!
"सामने आओ?" मैंने कहा!
और जो मेरे सामने आई, वो ऐसी थी जैसे सूर्य की रश्मियाँ उसके इर्द-गिर्द नाच रही हों! एक अनुपम सुंदरी! नग्न! परन्तु एक एक अंग आभूषण समान! यही है दौंदनी!! दौंदनी को अरुभुश्री कहा जाता है, ये भैरवी की सहायिका है!
"हट जा मेरे मार्ग से!" मैंने कहा,
वो हंसी! हवा में उडी! भंवर काटा!
और सीधा मेरे सम्मुख चली आई, उड़कर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुझे देखा, जैसे सूंघा हो मुझे उसने!
"जा! जा!" मैंने कहा!
वो हंसने लगी!
कानफोड़ू हंसी थी उसकी!
मैंने अपना त्रिशूल उठाया! श्री महाऔघड़ का मंत्र पढ़ा! और कर दिया सम्मुख! हुआ अभीष्ट पूर्ण! दौंदनी पल भर में ही मैदान छोड़ गयी!
मैं बैठ गया!
अलख में ईंधन झोंका!
महामंत्र आरम्भ किये पढ़ने!
और मैं फिर से डूब गया उस मंत्रोच्चार में!
मित्रगण!
इस प्रकार, तीन दिन और बीत गए! तीन रात, कहना चाहिए, अब मैं वहीँ वास करता था, मुझे दिन में एक बाड़ भोजन दिया जाता था, मैं भोजन करता और अब स्नान निषेध था!
तीन रात्रि के बाद...
चौथी रात्रि,
समय होगा कोई ढाई बजे का! मैं अलख में ईंधन झोंक रहा था, कि मेरा ईंधन, अलख में न जाकर, बाहर गिरा!
मैं झट से खड़ा हुआ!
"भूकंटा?" मैंने कहा,
और आसपास देखा!
ऐसा मात्र भूकंटा किया करती है!
"समक्ष आओ?" मैंने कहा!
मैं पीछे नहीं देख रहा था!
मात्र सामने, दायें और बाएं!
"भूकंटा?" मैं चिल्लाया!
अब, जबतक, इस भूकंटा का समस्त इलाज नहीं हो जाता, मेरी अलख, भोग नहीं ले पाती!
वो नहीं आई!
सामने नहीं आई!
मैं नीचे बैठा!
मांस का एक टुकड़ा उठाया! प्रत्यक्ष-मंत्र जपा! और फेंक दिया सामने!
धुंआ उठा!
काला धुंआ!
और दुर्गन्ध फ़ैल गयी!
नथुने फाड़ने वाली, होंठ चिपकाने वाली थी ये दुर्गन्ध!
और जो मेरे सामने प्रकट हुई, वो एक वृद्ध स्त्री रूप में थी! आँखें बाहर,


   
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श्रीशः उपदंडक
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स्तन सूखे हुए, झुक कर चलती हुई,
यही थी!
यही थी भूकंटा!
अघोरियों की महाशत्रु!
मैंने त्रिशूल उठाया, यमत्रास-मंत्र जपा! त्रिशूल अभिमंत्रित किया!
और कर दिया सम्मुख!
चीख! एक चीत्कार! और सब समाप्त! समाप्त, इस भूकंटा का प्रभाव!
अलख, भड़क गयी!!!

भूकंटा भाग गयी थी! यही कार्य है उसका, विघ्न उत्पन्न करना! किसी भी साधक के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करना! ताकि साधक छोड़ दे वो मार्ग, भाग जाए वहाँ से! लेकिन मैं नहीं डिगा था, डिगने का सवाल ही नहीं था! उद्देश्य तो पूर्ण करना ही था! और इसीलिए अब मैं फिर से अलख पर बैठ गया! महा-मंत्र का जाप करता रहा! कोई ढाई बजे के आसपास, मुझे फिर से कुछ आवाज़ें सुनाई दीं! लेकिन ये को मानव-सुर नहीं थे, ये ऐसे सुर थे जिनमे फुफकार थी! जैसे साँपों की फुफकार हुआ करती है! ये फुफकार बहुत तेज थीं, लगता था जैसे कि सांप की बाम्बियाँ हों वहाँ बहुत सारी और जैसे अब सारे के सारे बाहर आ रहे हैं! ये फुफकार बहुत तेज हुए जा रही थी, मैं खड़ा हो गया, त्रिशूल उठाया और सामने देखा, नीचे, वहां तो बेहिसाब सांप ही सांप थे! काले, पीले, भूरे, छोटे और बड़े! कई तो बहुत मोटे थे, अज़गर की तरह! साँपों के विष की गंध फैली थी! ये भी एक अवरोध था! वे सांप एक के ऊपर एक चढ़े बैठे थे! मैं जानता था, कि वे अवश्य ही काटेंगे मुझे! मुझे मारना चाहेंगे, हटाना चाहेंगे इस क्रिया से! इसीलिए मैंने सर्प-मोचिनी विद्या का संधान किया! वे सांप अपनी अपनी गर्दन ऊपर उठा, मुझे ही देखते रहे! उनको भान हो चला था कि सर्प-मोचिनी विद्या का संधान हुआ है! विद्या जागृत हुई, मैं खड़ा हुआ, नीचे उतरा चबूतरे से, सांप भागे आगे मेरी तरफ! और तभी मैंने ज़मीन से अपना त्रिशूल छुआ दिया! एक प्रकाश कौंधा, आग जैसा और वे सारे सांप, उड़ चले हवा में! कोई कहाँ और कोई कहाँ! मिट्टी उड़ गयी थी वहां! जैसे कई पंखे एक साथ भूमि पर चला दिए गए हों! मुझे भी खांसी छूट गयी थी! मैं अब ऊपर चढ़ा, चबूतरे पर, और अलख पर बैठा! और झोंका ईंधन अलख में! अलख ने मुंह फाड़ा! चटर चटर की आवाज़ करते हुए, अलख मेरा साथ देती रही!
इस तरह वो रात्रि भी बीत गयी! उस रात्रि और कुछ नहीं हुआ, मैं मन्त्र पढ़ता जाता, अलख में ईंधन झोंके जाता! अब इसी स्थान पर मेरा आवास था, यहीं रहना था मुझे, दिन में, पेड़ के साथ ही बनी एक झोंपड़ी में चला जाता, और रात्रि समय फिर से आ डटता!
अगली रात....
अगली रात क्रिया आगे बढ़ी! सब शांत था, मैं आह्वान के अंतिम चरण में पहुँच चुका था! और यहीं से ये क्रिया भयंकर हो जाया करती है! मैं लगातार मन्त्र पढ़ता हुए, अलख में झोंक देता ईंधन! और महामंत्रों का जाप किये जाता!
उसी रात, कोई डेढ़ बजे की बात होगी, मुझे किसी के खुरों की आवाज़ आई, किसी जानवर


   
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श्रीशः उपदंडक
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के खुरों की आवाज़! आवाज़ बहुत स्पष्ट थी! लगता था जैसे कोई खुरों वाला जानवर आसपास घूम रहा हो, मैं साधना में आगे बढ़ रहा था, पहले तो सोचा कोई जानवर होगा, कोई बड़ा हिरण या नीलगाय, या फिर कोई घोड़ा आदि, जो शायद कहीं से भाग आया हो, और मैं निश्चिन्त हो गया! कोई आधा घंटा बीता था, आवाज़ अब बढ़ती जा रही थी, ऐसा लगता था कि कोई मेरे इर्द-गिर्द चक्कर लगा रहा है, लेकिन नज़र नहीं आ रहा! मैंने अपना त्रिशूल लिया! खड़ा हुआ, आसपास देखा, वो आवाज़ कहीं दायें से आती, कभी बाएं से, और कभी सामने से, कभी पीछे से!
"कौन है वहाँ?" मैंने पूछा, तेजी से,
कोई आवाज़ नहीं आई!
कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई!
"कौन है?" मैंने फिर से कहा,
लेकिन अभी भी कोई उत्तर नहीं!
हाँ, खुरों की आवाज़ रुक गयी थी अब!
मैंने करीब पांच मिनट तक इंतज़ार किया, त्रिशूल हाथ में ही था मेरे!
मैं फिर से बैठ गया!
मंत्र जपने लगा! अलख में ईंधन झोंका!
और तभी फिर से खुरों की आवाज़ आई! और इस बार किसी गधे के रेंकने की भी आवाज़ आई! यदि कोई गधा ही होता, तो अभी तक तो मेरी आवाज़ों से डर के मारे भाग गया होता! ये कुछ और ही लगता था! अतः अब मैं तैयार हो गया! मैंने देह-पुष्टि मंत्र जपा! उर्धवुक-मंत्र जप लिया, त्रिशूल अभिमंत्रित कर लिया! और हो गया खड़ा! मुझे अभी तक वो गधा नज़र नहीं आया था! हाँ, आवाज़ सामने से ही आ रही थी! मेरी नज़रें सामने ही गड़ी थीं!
सामने अचानक ही धुंआ छा गया!
कोहरे जैसा!
अचानक से ही ठंड बढ़ गयी थी!
ये जो कोई भी था, पहुंचा हुआ था! धुंआ इसकी पहचान थी!
"कौन है?" मैंने पूछा,
कोई उत्तर नहीं!
"उत्तर दो?" मैंने कहा,
कोई उत्तर नहीं!
गधा रेंका तभी!
अब सामने देखना भी मुश्किल हो रहा था! कोहरा बुरी तरह से बादलों का सा रूप लिए फ़टे जा रहा था! शरीर से टकराता तो फुरफुरी छुड़ा देता!
एक पल में ही, मेरी वो लीपी हुई ज़मीन, नमीं चाट गयी! पाँव फिसलने लगे मेरे! मैं उंगलियां गड़ाए खड़ा रहा!
"कौन है, सामने आओ?" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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खुरों की आवाज़ आई!
कोई आ रहा था सामने!
और जो सामने आया उसे देख मेरी रूह अंदर तक सनसना गयी!
ये कल्लड़-कुम्हारिन थी! एक देवी! एक तामसिक देवी! एक ग्राम देवी! एक नगर देवी! शायद उस स्थान की देवी थी! वो गधे पर बैठी थी, कोई वस्त्र नहीं था शरीर पर, माथे पर काला रंग लगा था, उसमे आदि रेखाएं बनी थीं सफ़ेद सी खड़िया की, हाथ में एक लौह दण्ड था, दूसरे हाथ में एक मानव-रीढ़! वो रीढ़ भूमि तक पहुँच रही थी! आँखें बहुत क्रोध में थीं, लाल रंग की आँखें!
मैं नीचे बैठा, त्रिशूल दायें गाड़ दिया!
और दोनों हाथ जोड़ लिए!
गधा रेंका!
बहुत तेज!
वो और आगे आया!
अब उस देवी का क्रोध वाला रूप देखा मैंने! मुझसे ही गलत हुई थी! लेकिन मुझे नहीं पता था कि वहाँ माँ कल्लड़-कुम्हारिन का वास है!
"माँ! दया माँ!" मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा!
वो अत्यंत क्रोध में थी!
चाहती तो एक ही वार में, उस रीढ़ की हड्डी से, मेरे शरीर के टुकड़े कर देती! लेकिन वो वहीँ खड़ी रही!
"माँ! दया माँ! दया!" मैंने कहा,
वो अनवरत बनी रही!
मैं वहीँ बैठा रहा!
मिन्नतें करता रहा!
"मुझसे भूल हुई माँ! क्षमा माँ! क्षमा!" मैंने कहा,
और अगले ही पल!
वो मेरे सामने खड़ी थी!
उस भयानक रूप में नहीं! बल्कि एक, सुंदर स्त्री के रूप में! अब अस्त्र-शस्त्र नहीं थे हाथ में, बस कच्ची मिट्टी की एक हंडिया लिए! उसका सलोना रूप देख कर, और मुझसे हुई भूल कि क्षमा देकर, मैं माँ का ऋणी हो गया था!
"माँ! क्षमा माँ! क्षमा!" मैंने फिर से कहा,
आँखों से आंसू बह निकले थे!
वो मुस्कुराई!
उस हंडिया से कुछ जल लिया!
और छिड़क दिया मेरे सामने!
वो कोहरा, वो ठंड, सब गायब हो गए!
खुरों की आवाज़ आई!
कोई आ रहा था सामने!
और जो सामने आया उसे देख मेरी रूह अंदर तक सनसना गयी!
ये कल्लड़-कुम्हारिन थी! एक देवी! एक तामसिक देवी! एक ग्राम देवी! एक नगर देवी! शायद उस स्थान की देवी थी! वो गधे पर बैठी थी, कोई वस्त्र नहीं था शरीर पर, माथे पर काला रंग लगा था, उसमे आदि रेखाएं बनी थीं सफ़ेद सी खड़िया की, हाथ में एक लौह दण्ड था, दूसरे हाथ में एक मानव-रीढ़! वो रीढ़ भूमि तक पहुँच रही थी! आँखें बहुत क्रोध में थीं, लाल रंग की आँखें!
मैं नीचे बैठा, त्रिशूल दायें गाड़ दिया!
और दोनों हाथ जोड़ लिए!
गधा रेंका!
बहुत तेज!
वो और आगे आया!
अब उस देवी का क्रोध वाला रूप देखा मैंने! मुझसे ही गलत हुई थी! लेकिन मुझे नहीं पता था कि वहाँ माँ कल्लड़-कुम्हारिन का वास है!
"माँ! दया माँ!" मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा!
वो अत्यंत क्रोध में थी!
चाहती तो एक ही वार में, उस रीढ़ की हड्डी से, मेरे शरीर के टुकड़े कर देती! लेकिन वो वहीँ खड़ी रही!
"माँ! दया माँ! दया!" मैंने कहा,
वो अनवरत बनी रही!
मैं वहीँ बैठा रहा!
मिन्नतें करता रहा!
"मुझसे भूल हुई माँ! क्षमा माँ! क्षमा!" मैंने कहा,
और अगले ही पल!
वो मेरे सामने खड़ी थी!
उस भयानक रूप में नहीं! बल्कि एक, सुंदर स्त्री के रूप में! अब अस्त्र-शस्त्र नहीं थे हाथ में, बस कच्ची मिट्टी की एक हंडिया लिए! उसका सलोना रूप देख कर, और मुझसे हुई भूल कि क्षमा देकर, मैं माँ का ऋणी हो गया था!
"माँ! क्षमा माँ! क्षमा!" मैंने फिर से कहा,
आँखों से आंसू बह निकले थे!
वो मुस्कुराई!
उस हंडिया से कुछ जल लिया!
और छिड़क दिया मेरे सामने!
वो कोहरा, वो ठंड, सब गायब हो गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और स्वयं भी!
मैं माँ कल्लड़-कुम्हारिन का नाद किया! जयनाद!
मुझे क्षमा मिल गयी थी! मेरा अनाजने में किया गया अप्राद, क्षमा हो गया था! और तो और, अब माँ का आशीर्वाद भी मिल गया था!
कल्लड़-कुम्हारिन!
माँ कल्लड़-कुम्हारिन!
ये स्थानीय देवी हैं! ग्राम-देवी! इनकी सत्ता में तो कोई त्रिलोक-गामी भी, बिना अनुमति प्रवेश नहीं कर सकता! माँ का वाहन गधा है! गधा भी कोई ऐसा वैसा नहीं! एक दुलत्ती मार दे तो इंसान के चार टुकड़े हो जाएँ! रक्त से नहाया होता है ये गधा! एक विशाल गधा!
आज तो माँ कल्लड़-कुम्हारिन के भी दर्शन प्राप्त होने का सौभाग्य प्राप्त हो गया था!
मित्रगण!
शेष रात्रि, अपने असमय तक, शांत ही बीती!
अब चार रात और थीं! औ इन्ही चार रातों में, ये महाक्रिया समाप्त होनी थी!
रात्रि तीन बजे तक, क्रिया का उस रात्रि में समापन हो चला था! मैं वहीँ सो गया था!
अगला दिन बीता, संध्या हुई, मैंने सामग्री इत्यादि एकत्रित की, और आज से बलि-कर्म होने थे, तो मेढ़े, मेरे पास भिजवा दिए गए थे! एक बढ़िया सी भेरी भी!
अगली रात!
अगली रात मैंने एक मेढ़े की बलि दी!
अलख-श्रृंगार किया!
अपना श्रृंगार किया!
स्थान का श्रृंगार किया रक्त से!
और आ बैठा अलख के सामने!
कर दी महाक्रिया आरम्भ, महामंतों के साथ!
उस रात कोई दो बजे तक क्रिया निर्विघ्न ही रही!
लेकिन मध्य रात्रि ढाई बजे,
कुछ ऐसा हुआ, कि मुझे पसीने छूटने लगे!
मरे सामने, कटे हुए सर गिरने लगे! कई आधे थे, और कई दो-फाड़!
मैं खड़ा हुआ!
ऊपर देखा,
कोई नहीं था!
सन्नाटा पसरा था, भयानक सन्नाटा!

वे सर धम्म धम्म नीचे गिरे जा रहे थे! मात्र सर ही सर थे! ऐसा कई शक्तियां किया करती है, इनमे, अरिद्राक्षी, भुण्डा, कपालिनी-रुचेका, डोमकंडूल, यहिकिर्त आदि हैं! ये ऐसा ही भीषण दृश्य दिखाया करती हैं! कभी कभर ये कटे सर, परिवारजनों के भी होते हैं, उनका तड़पता शरीर भी दिखाया जाता है, कमज़ोर मन वाला साधक, विक्षिप्त हो सकता है! या जिसका पल


   
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श्रीशः उपदंडक
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भर के लिए भी ध्यान भंग हो जाए तो! फिर वो जीवित रहने वाला नहीं, और यदि रहा भी, तो समझिए मृत्यु मार्ग पर ही चलता है वो हमेशा, हड्डियां खोखली और भंगुर हो जाया करती हैं! देह से त्वचा गिरने लगती है, शरीर के जोड़ों में ज़ख्म हो जाया करते हैं, ये कुष्ठ-रोग से भी भयानक स्थिति हुआ करती है!
मैं अभी भी खड़ा था, लेकिन भय-ग्रस्त था, कोई भी अवरोध इस महाक्रिया को भंग कर सकता था! अतः इसका कारण और निदान, दोनों ही आवश्यक थे!
"कौन है?" मैंने पूछा,
कोई उत्तर नहीं आया!
"बताओ?" मैं चिल्लाया,
कोई उत्तर नहीं, बस एक कटा सर लुढ़कता हुआ आया मेरे सामने! वो सर आँखें फाड़े मुझे ही देख रहा था! उसके होंठ हिल रहे थे! कुछ कह रहा था, लेकिन समझ में नहीं आ रहा था, शब्द साफ़ नहीं थे, और आवाज़ बहुत मंद थी उसकी! मैं उसे ही देखता था! वो बोलता रहा, बोलता रहा और आँखें बंद कर लीं उसने!
"सामने आओ?" मैंने कहा,
और तभी!
और तभी वो कटा सर, जिसने आँखें बंद कीं थीं, उछला और सीधा मेरी गोद में कूद आया! उसके रक्त से मैं भीग गया, मेरी आँखों, नाक और मुंह में वो रक्त जा घुसा था, कड़वा रक्त था उसका! उसकी क्ति गर्दन वाला हिस्सा मेरे पांवों की तरफ था, और उसका माथा मेरी तरफ, आँखें फाड़े मुझे ही देखे जा रहा था! मैंने उसको उठाया, सीधा किया और अपने हाथों से ऊपर उठाया, वो हंसने लगा! जब भी हँसता तो खून के छींटे छोड़ता! अब बहुत हुआ था, मैंने फेंक मार उसको सामने! वो चिल्लाया जैसे मैंने ही उसकी गरदन धड़ से अलग की हो!
"कौन है, सामने आओ, नहीं तो जाओ, विघ्न नहीं डालो" मैंने चिल्ला के कहा!
और तभी मेरे सामने, दूर से कोई आता दिखाई दिया!
मैंने गौर से देखा, ये कोई स्त्री थी,
अपने दोनों हाथों में कटे हुए सर लिए हुए,
उसका रूप कालरात्रि समान था! बहुत भयानक!
केश खुले हुए थे, सफ़ेद केश, गले में मुंड-माल पड़े थे!
केश हवा में उड़ रहे थे, जबकि हवा नाम-मात्र को भी नहीं थी वहाँ!
बदन नग्न था, लम्बाई कोई आठ फ़ीट रही होगी, रंग एकदम साफ़ था उसका! पतली-दुबली स्त्री थी, लेकिन स्तन बहुत बड़े बड़े थे उसके, नाभि तक आ रहे थे, वहाँ तक लटके थे, कमर में चूक्ष धारण किया हुआ था, वो भी अस्थियों का ही बना था! नेत्र सफेद थे उसके! भुजाएं भी पतली पतली ही थीं, टांगें भी कंकाल रुपी ही थीं!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा, और त्रिशूल आगे कर लिया अपना!
मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं आया!
बल्कि, उस स्त्री ने वो दोनों ही मुंड मेरी ओर फेंक मारे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे मुंड, मेरे सामने गिरे! दोनों ही बिलख कर रो रहे थे!
"कौन हैं आप?" मैंने पूछा,
कहीं ये भी कि देवी न हों, जिनसे मैं अनजान हूँ अभी तक, इसीलिए सम्मान दिया मैंने उन्हें!
"कौन हैं आप?" मैंने पूछा,
फिर से दो मुंड सामने गिरे! इस बार उनमे आग लगी थी! मांस जलने की बदबू फ़ैल गयी थी वहां! रक्त की बदबू को दबा दिया था उसने!
"मुझे कोई अपराध हुआ देवी?" मैंने पूछा,
और उसे अट्ठहास लगाया!
मित्रगण!
जब अट्ठहास लगाया, तो मुझे अपने चारों तरफ, असंख्य रूप में, वही दिखाई दी! हर तरफ! हर जगह! जैसे चारों ओर, उसी की सत्ता हो!
ये कौन है?
अब मैं घबराया!
सच में ही घबराया मैं!
कौन है ये? मुझे बताया क्यों नहीं बाबाओं ने इस विषय में?
ये कोई देवी हैं, या अन्य कोई और शक्ति?
"आप कौन हैं?" मैंने पूछा, अबकी बार हाथ जोड़ते हुए!
फिर से अट्ठहास हुआ! और घोड़े हिनहिनाये!
और जब घोड़े हिनहिनाये तो मैं समझ गया ये महामुण्डिका देवी हैं! ये काले रंग के घोड़े पर सवारी किया करती हैं! महाप्रबल देवी हैं! सर्वकाल बली हैं! लेकिन ये किसलिए आयीं? इनका तो वास यहां नहीं है? फिर किसलिए?
"माँ! अपराध क्षमा हो माँ!" मैंने फौरन ही क्षमा मांग ली!
अट्ठहास हुआ! भूमि जैसे कांपने लगी! मेरी अलख फड़कने लगी! मेरी देह में कम्पन्न छूट चली! मैं नीचे बैठा, भोग-थाल उठाया! और माँ महामुण्डिका का जाप करने लगा!
"माँ! क्षमा माँ! क्षमा!" मैंने कहा!
फिर से मुंड आ कर गिरे उधर!
आग लगी थी उनमे!
"माँ! क्षमा माँ! क्षमा!" मैं गिड़गिड़ाने लगा!
रोने लगा!
वहीँ बैठ कर, मस्तक नीचे लगाने लगा!
दोनों हाथ जोड़, भीख मांगने लगा क्षमा की माँ से!
मित्रगण! जैसे भूमि पलटी! जैसे मेरे पाँव आकाश की तरफ हुए! जैसे मेरा सर भूमि से टकराया! बस इतना ही याद है! बस इतना, उसके बाद क्या हुआ, पता नहीं!
जब मेरे नेत्र खुले, तो कोई मुंड नहीं था वहां! अलख बहुत ऊंची उठी हुई थी! मैं पेट के बल, नीचे पड़ा था, मैं हकबकाकर उठा, आसपास देखा, और भागा ऊपर! जैसे ही बैठा, तो देखा


   
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श्रीशः उपदंडक
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वहाँ अम्राक्षी के पुष्प पड़े थे! अम्राक्षी के पुष्प, गुलदाउदी जैसे होते हैं, लेकिन उनसे छोटे, रंग में महरून हुआ करते हैं, सूंघने पर, कच्चे आम की गंध आती है! वही पुष्प पड़े थे!
"माँ?" मैं खड़ा हुआ!
चिल्लाता रहा!
और मेरे सामने, थोड़ी दूर पर, माँ महामुण्डिका प्रकट हो गयीं! अम्राक्षी के पुष्पों की माला धारण किये! नीले रंग का उज्जवल वस्त्र पहने! उनके चेहरे से प्रकाश फूट रहा था! काला घोड़ा, मूर्ति सा बना, वहीँ खड़ा था! माँ मुस्कुराईं और मैं फिर से अचेत हुआ!
जब आँख खुली, तो पुष्प भी न थे!
अलख में ईंधन नहीं था, लेकिन अलख धौंकनी सामान लगातार जला रही थी!
ये सब, माँ महामुण्डिका का ही चमत्कार था! आशीर्वाद था!
मैं परीक्षा में सफल हो गया था!
सफल!
कितना प्रसन्न हुआ था मैं उस रात!
कि खुल के रोया था! महामंत्र जपता जाता,
और रोता जाता! चीख चीख के रोता!
इस प्रकार, वो रात्रि भी पूर्ण हुई!
अगली सुबह,
फिर दोपहर,
फिर शाम,
कुछ आवश्यक तैयारियां कीं!
और उस रात.....
मन्त्र सघन हुए!
गहन मंत्रोच्चार आरम्भ हुआ! आज देह में ऊर्जा समायी थी!
युग्मा का आगमन कैसा होगा, यही सोच सोच के छाती फूले जा रही थी!
कोई साढ़े बारह बजे,
आकाश से जैसे कुछ गिरा नीचे!
मैंने गौर से देखा,
समझ नहीं आया कि था क्या?
फिर से गिरा कुछ!
कोई कपड़ा सा लगता था! मैं उठा, त्रिशूल लिया,
और पहुंचा वहाँ!
बैठा, उस वस्त्र को देखा, था तो वस्त्र ही, लेकिन मेरा हाथ लगते ही, राख हो गया!
अब ये क्या था?
कोई माया?
या कोई अवरोध?


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं फिर से वापिस हुआ! अलख पर पहुंचा,
और जैसे ही बैठा, वो पेड़ झुक गया मेरे ऊपर!
जैसे अभी टूट जाएगा! अब दिल धड़का! बहुत तेज!
"कौन है???'' मैं चिल्लाया!
कोई उत्तर नहीं आया तो द्विक्काल-मंत्र पढ़ा, त्रिशूल अभिमंत्रित किया, और छुआ दिया पेड़ से! पेड़ तो सीधा हो हो गया, लेकिन मैं जा गिरा कोई पांच फ़ीट दूर ज़मीन पर! एक ऊँगली मुड़ गयी थी! खींच के सीधी की! खड़ा हुआ!
भागा अलख की ओर! और तभी मुझे किसी ने हवा में उठाया, और फेंक मार ज़मीन पर! मेरा सर टकराया! एक के चार दिखने लगे! नक्सीर छूट गयी! नाक से खून बहने लगा! अपना ही खून में अपने होंठों से पोंछता और चाट भी लेता!
"हिम्मत है तो सामने आ?" मैंने चिल्लाया!
अब क्रोध आ गया था मुझे!
"आ! सामने आ?" मैंने घूमते हुए कहा, त्रिशूल को हाथ में लिए हुए!
कोई नहीं आया!!!

मैं चारों ओर देख रहा था पलट पलट कर! लेकिन कोई नहीं था! मैंने तभी दुहित्र-मंत्र का जाप किया, नेत्र खोले, तो सबकुछ पीला हो गया था! क्या पेड़ पौधे, क्या ज़मीन, क्या मेरा वर्ण, क्या मेरा रक्त, जो भूमि पर पड़ा था, सब, सब का सब पीला! नक्सीर तो अब बंद ही थी, बंद हो गयी थी, एक मौखिक-क्रिया है, वही की जाए तो कैसी भी नक्सीर हो, बंद हो जाती है! वही मैंने की थी!
"आओ सामने, आओ?" मैंने फिर से कहा,
और तभी मेरे दायें कोई भागता हुआ सा गया!
मैंने झट से उधर देखा!
कोई भी नहीं था! अचानक से कोई बाएं भागा! मैंने वहाँ देखा! वहाँ भी कोई नहीं था! तभी लगा कोई पीछे से भागता हुआ आ रहा है, मैं पीछे के ओर मुड़ा, वहाँ भी कोई नहीं था!
किसी की ज़ोर से सांस लेने की आवाज़ आई!
अब तक कछ समझ नहीं आ रहा था कि ये कौन है!
मैं भागा, और आ गया अपने आसन पर! वहाँ खड़ा हुआ, पीछे पेड़ था मेरे, शांत खड़ा था एकदम! हवा थी नहीं, सन्नाटा पसरा था, लेकिन कई कई बार उस सन्नाटे को कुछ न समझ आने वाली आवाज़ें चीर दिया करती थीं!
धम्म की आवाज़ हुई, मेरे सामने, जैसे कोई कूदा हो! लेकिन था कोई नहीं, जो भी था, दुहित्र-मंत्र की जद से बाहर था!
"सम्मुख आओ!" मैं चिल्लाया!
लेकिन कोई नहीं आया!
अब तो हाज़िर-मंत्र जपना ही था! और इस से पहले मैं हाज़िर मंत्र पूर्ण करता, एक अत्यंत दीर्घ आकार की स्त्री प्रकट हो गयी! उसके कानों में ऐसे छेद थे, कि मेरा पूरा हाथ ही निकल जाए


   
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श्रीशः उपदंडक
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आरपार!
देह कोई दस फ़ीट ऊंची रही होगी!
नग्न देह थी, पेट बाहर निकला था, बड़े बड़े स्तन नीचे लटके थे, गर्दन पर झुर्रियां पड़ी हुई थीं, नेत्र दिख नहीं रहे थे, पलकों के नीचे दबे थे नेत्र उसके!
घुटनों में काले से रंग के कपड़े पहने थे,
पांवों में हाथी-दांत की सी हंसलियाँ सी पहनी थीं, शायद अस्थियां रही हों! चेहरा बहुत बड़ा था, होंठ ठुड्डी तक पहुँच रहे थे उसके! कोई वृद्धा ही थी वो, लेकिन कौन?
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"कालिका!" वो बोली,
कालिका!
अब कालिका शब्द के भिन्न भिन्न अर्थ हैं, कौन सी वाली कालिका थी ये?
"कौन कालिका?" मैंने पूछा,
"भुशुंडा!" वो बोली,
ओह! अब समझा! तो ये भी आन पहंची थी यहाँ! इसी ने पटकियां मारी थीं मुझे! ये यही किया करती है! और आज पहली बार मेरे समक्ष आई थी!
भुशुंडा! काल साबित हुआ करती है साधकों के लिए! कई साधकों के प्राण हर ले जाती है ये! ये श्मशान से सम्बंधित शक्ति नहीं, मुक्त रूप से विचरण किया करती है, सिद्ध होती नहीं है, कोई सिद्धि मंत्र या विद्या नहीं इसकी, इसको प्रसन्न करने का अर्थ है इसका सदैव के लिए दास बन जाना! स्वभाव से क्रोधी, ज़िद्दी और वाचाल है! साधक को कभी अपने अलावा स्त्री-सुख प्रदान नहीं करने देती! साधक मात्र प्राणों के संकट के लिए ही इसकी दासता में डूबता चला जाता है!
"किसलिए आई है?" मैंने पूछा!
"प्राण हरने तेरे!" वो बोली,
"जानती यही, मैं किसके आह्वान में लगा हूँ?" मैंने कहा,
"हाँ! जानती हूँ" वो बोली,
"तो जा! मार्ग छोड़ दे मेरा!" मैंने कहा,
वो हंसी! कर्कश हंसी! बहुत कर्कश!
"जा भुशुंडा! जा! मैंने कहा,
लेकिन न उसने मानना था और न ही वो मानी! और आखिर में, दो दो हाथ करने ही पड़े! आखिर में मैंने श्री महाऔघड़ का महानाद करते हुए, कूटवाहिनि विद्या का संधान कर डाला! और जैसे ही भूमि को छुआ! वो धुंआ हो गयी! लोप हो गयी! नहीं आया ये साधक उसके लपेटे में!
वो शेष रात फिर आराम से बीती!
उस रात्रि की क्रिया अपने अंत को पहुंची!
उर मैं वहीँ सो गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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रात को नींद खुली, कोई सुबह का समय होगा,
एक बिज्जू का जोड़ा आया था वहाँ! और मेरे पास जो मांस रखा था, वो साफ़ किये जा रहा था! मुझे देखता तो गुर्राता! अब किसी का पेट भर रहा था, तो मैंने कई टुकड़े दे दिए उनको! मेरे पास ही आकर, खाते रहे वो मांस, फिर चले गए, पेट भर गया था उनका!
बिज्जू बहुत ज़िद्दी और अड़ियल जानवर होता है! डरता नहीं है, शेर से भी भिड़ जाता यही, दांत ऐसे कि लोहे का सरिया तक चबा के पीस डाले! जबड़े का दबाव ऐसा, कि हाथ कब काट ले कलाई से, पता ही न चले! अक्सर गाँव-देहात में इसी बिज्जू के दांत गले में या भुजा में बाँध कर पहने जाते हैं, इस से कोई ज़हरीला जानवर नहीं काटता, न कुत्ता ही काटता है! ज़हर का भी नाश करता है! मेरे पास कई पड़े हैं! मैं देता रहता हूँ ज़रूरतमंदों को!
खैर,
सुबह हुई,
फिर दोपहर,
और फिर शाम!
तैयारियां कीं!
एक मेढ़े को हलाक़ किया! मांस निकाल लिया उसका! कसाई भी क्या साफ़ करेगा जो मैंने साफ़ किया था! एक चापड़ था बड़ा सा, उसी से किया था साफ़! मांस थाल में रखा, और चल पड़ा अलख के पास!
पहुंचा वहाँ!
अलख में ईंधन झोंका!
तैयारियां कीं!
और अलख उठा दी!
फिर से महाक्रिया में लीन हो गया!
अब मात्र दो रात बाकी थीं! एक आज की और एक कल की, कल की रात, निर्णायक थी! और आज की रात भयानक! न जाने क्या हो आज रात!
मित्रगण!
कोई दो बजे का समय होगा!
मुझे मृदंग के से स्वर गूंजते हुए सुनाई दिए!
सुगंध फ़ैल रही थी हर जगह!
एक मदहोश करने वाली सुगंध!
लेकिन! ये सुगंध कब विषैली हो जाए, पता नहीं था! अतः चौकस हो कर बैठना था!
मैं चौकस ही था!
और अचानक से, वहाँ फूल गिरने लगे! लाल और सफ़ेद फूल!
बहुत प्यारे थे फूल! अष्ट-पटल वाले थे वे फूल!
जो मेरी गोदी में गिरे थे, वो बहुत शीतल थे!
बहुत शीतल! जैसे हिम के बने हों!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुझे हर तरफ, कुछ ऐसी आवाज़ें आती थीं, जैसे घड़ों से पानी निकाला जा रहा हो!
किसी के कंगन की आवाज़ें! पायेजेबों की आवाज़ें!
जैसे मैं किसी रंगमहल में आ बैठा होऊं!
मुझे आकृतियाँ दिखतीं! जैसे कई स्त्रियां दूर घेरा बनाके खड़ी हों!
सबकुछ अद्भुत था! सबकुछ!
कोई ढाई बजे के आसपास, फिर से मृदंग बजे! आज कोई बाधा नहीं आई थी!
तीन बजे........
तीन बजे करीब,
मुझे अपने आसपास स्त्रियां दिखाई दीं! आभूषणों ये युक्त!
जैसे देवियाँ! जैसे, देव-कन्याएं!
अलौकिक सा माहौल था वहाँ का!
मेरे मंत्र दीर्घ और दीर्घ हुए जा रहे थे!
और मैं उस भीनी भीनी सुगंध में आगे बढ़े जा रहा था!
सहसा!
मेरे सामने, एक स्त्री दिखी! कोई देवी सरीखी!
हाथ में थाली सी लिए, और उस थाली में जैसे कोई दीया जल रहा था!
मैं एकटक उसको ही देखता रहा!
और जब वो करीब आई, कोई छह फ़ीट, उसके रूप को नहीं देख पा रहा था मैं! वो चमचमा रही थी! लावण्यता ऐसी थी कि हाथ लगाओ तो मैली हो!
"कौन हो तुम?" मेरे मुंह से निकला!
वो हंसी!
खनकती हुई हंसी थी!
मुझे बहुत संतोष हुआ! आखिर इन क्रूर शक्तियों से लड़ने के बाद, देवियों से क्षमा मांगने के बाद, आज कुछ शान्ति प्राप्त हुई थी! आज लगा था कि मेरी साधना पूर्ण होने को है!
"कौन हो आप?" मैंने पूछा,
"उरुविला!" वो बोली,
बोली और लोप हुई!
उरुविला! नाम नहीं सुना था मैं आज तक उसका! कोई सहोदरी होगी, यही सोचा मैंने! और मित्रगण, पहला शुभ-लक्षण प्राप्त हुआ, तो मैं प्रश्न हो उठा! बहुत प्रसन्न! नहीं तो आज रात से पहले, मेरे विक्षिप्त होने में, कोई कसर बाकी नहीं थी!
मैं आराम से लेट गया! आकाश को देखा! तारे चमक रहे थे! आज तो चाँद भी खूब चमक रहे थे! उनसे वार्तालाप किया था मैंने! भले ही कोई समझे या न समझे, मैंने वार्तालाप किया था! मैं उस रात प्रसन्न था, नींद नहीं आयी सारी रात! और सुबह की लालिमा.....छाने लगी थी!!

वो रात, मेरी आँखों आँखों में ही गयी! मुझे अपने ऊपर ही विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं आज उस समय में पहुँच चुका हूँ, जहां क्रिया का समापन होना है! मुझे कुछ सूझ भी नहीं रहा था,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कब सूरज निकले, कब दोपहर हुई और कब शाम, कुछ पता नहीं चला! मैं अर्ध-विक्षिप्त हालत में आ पहुंचा था! इस संसार का न होऊं, यही लग रहा था, मेरा कोई है, कोई परिजन, कोई मित्र, कुछ याद नहीं आ रहा था! बस क्रिया की लग्न! और कुछ नहीं! स्नाध्या हुई, तो रोजाना के तरह से मैंने तैयारियां आरम्भ कीं! वो स्थान एक मेढ़े के बलि चढ़ा, उसे रक्त और मिट्टी से लीपा, जैसे गाँव की स्त्रियां लिपटे समय गुनगुनाया करती हैं कोई लोक-गीत, मैं भी महामंत्र का जाप किया जा रहा था! तदोपरांत मैंने भस्म-स्नान किया, अपने सभी तंत्राभूषण धारण किया और फिर आसन बिछा, आज रात की अंतिम क्रिया करने बैठ गया! आज ही परिणाम प्राप्त हो जाना था, अब चाहे ऐच्छिक हो अथवा अनैच्छिक! परिणाम कुछ भी हो, क्रिया तो पूर्ण करनी ही थी! श्री महाऔघड़ का महानाद किया! माँ शक्ति का नाद किया! अपने गुरु को नमन किया और अघोर को नमस्कार किया! ये अघोर की नैय्या ही मुझे किनारे लाती! इस प्रकासर अलख में ईंधन झोंकते हुए, मैंने क्रिया आरम्भ की! दो घंटे बीते! एक अजीब सी शान्ति थी वहां! मरघट जैसी असीम शान्ति! बस अलख ही मुंह खोलती थी अपने भोग के लिए! मैं बार बार मन्त्र पढ़ता हुआ अलख की भूख शांत करता!
मित्रगण!
रात कोई पौने बारह बजे, मुझे लगा मेरे आसपास है कोई! कोई विचरण कर रहा है! मैंने आसपास देखा, कोई नहीं था! हाँ, वातावरण में एक बहुत मादक सी सुगंध फैलने लगी थी! जैसी बेला के फूलों में से आया करती है! चारों तरफ ये भीनी भीनी सुगंध फ़ैल रही थी! लेकिन कोई था नहीं वहाँ! मैं इसको शुभ लक्षण माना और क्रिया में आगे बढ़ता चला गया! कुछ समय पश्चात मैं गहन मंत्रोचार में पहुँच गया! भूल गया इस संसार को! नेत्र बंद हो गए, और मैं पर्वतों पर, जैसे उड़कर विचरण करने लगा! मुझे आकाश में चीलें नज़र आयीं, सफ़ेद चीलें! गोल गोल घूमती हुई, मुझे नीचे झीलें नज़र आयीं! मैं सफ़ेद ठंडे बादलों में विचरण कर रहा था, पर्वतों पर जमी बर्फ एक सफ़ेद सी रुई के रूप में हर जगह बिछी हुई थी! पृथ्वी बहुत सुंदर लगी! स्वर्ग भी फीका पड़ जाए उसके सौंदर्य के सामने! मैंने बड़े बड़े पेड़ देखे! जिस जगह में रुका था आकाश में, वहाँ से नीचे कदम्ब के पेड़ थे! एक नदी के दोनों ओर! नदी का पानी जैसे जम गया हो, ऐसा लगा, और सहसा ही मेरे नेत्र खुल गए! सामने देखा, तो विषमा के फूल बिछे हुए थे! ढेर के ढेर! मिट्टी का नामोनिशान नहीं था! पूरी भूमि गुलाबी हो चली थी! हर दिशा के हर क्षितिज से गहरा गुलाबी प्रकाश फूट रहा था! मैंने ऐसा दृश्य कभी नहीं देखा था! हवा बह रही थी, मेरी जटाएं उड़ उड़ कर मेरे चेहरे पर आ जाती थीं उस हवा के ज़ोर से! लेकिन उस हवा में वही सुगंध थी! एक अद्भुत सुगंध! शरीर को स्वास्थ्य प्रदान करने वाली थी वो सुगंध! शरीर में एक विशेष रूप का ऊर्जा-संचार होने लगा था! अचानक आकाश से चार चांदी के रंग की लहरें चमकीं! और आने लगीं नीचे! मैं चौकस था, कहीं ये कोई माया न हो, इसीलिए चौकस था मैं!
वो लहरें, धीरे धीरे भूमि की तरफ बढ़ीं, और जैसे ही भूमि को स्पर्श किया, वे अप्सराओं सरीखी स्त्रियां बन गयीं! उनका सौंदर्य किसी भी शब्दों से उकेरा नहीं जा सकता! उन सभी ने लाल रंग के वस्त्र पहने थे, शरीर के बस हाथ, गर्दन, और चेहरा ही चमक रहा था, शेष उस


   
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