वर्ष २०१२ पीलीभीत क...
 
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वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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"कौन सी?" मैंने सवाल किया,
अब उसने उत्तर दिया और उत्तर सही ही दिया था! उसको अनुभव था!
"खड़ी हो जाओ" मैंने कहा,
वो खड़ी हो गयी,
अब मैंने उसके शरीर का परिमाप देखा, कंधे ऊपर नीचे तो नहीं? पाँव में कहीं कोई दोष तो नहीं? गरदन कहीं नीचे झुकी तो नहीं? सब ठीक था अभी तक, बाकी जांच बाद में होती, वो भी आवश्यक है! और करनी ही पड़ती है!
"मासिक आने में क्या देर है?" मैंने पूछा,
"बीस दिन" वो बोली,
तब तो ठीक था!
"आज रात नौ बजे, मेरे संग क्रिया में बैठना है, लेकिन उस से पहले जांच होगी, ठीक?" मैंने बताया उसको,
उसने गर्दन हिलाकर हाँ कहा,
"ठीक है, नौ बजे" मैंने कहा,
और मैं बाहर आ गया!
बाबा को बता दिया कि अभी तक तो ठीक है सबकुछ, आगे जांच में पता चले!
"कोई बात नहीं" वो औरत बोली,
और उस भार्गवी के बार में दो-चार तारीफ़ की चटकारें छोड़ दीं!

मैं वापिस आ गया था अपने कमरे में फिर! आते ही अपना बड़ा बैग संभाला, और कुछ ज़रूरत की वस्तुएं निकाल लीं बाहर, आज इनकी आवश्यकता थी! इनको भी अभिमंत्रित करना था! शर्मा जी ने पूछा तो मैंने बता दिया सबकुछ उस भार्गवी के बारे में, कुल मिलाकर भार्गवी अभी तक तो एक सही साध्वी दीख रही थी! वो तेज-तर्रार लग रही थी, लेकिन उसको आजमाया नहीं था, उसकी आँखों की पुतलियाँ जैसे हरक़त कर रही थीं मेरे प्रश्नों पर, वो मैं सब देख रहा था, आंकलन किये जा रहा था उसका, और तभी मैंने उसको आगे की जांच के लिए बुला लिया था आज रात नौ बजे, जांच के बाद ही ये निर्णय लेना था कि आगे करना क्या है, उस से पहले नहीं, समय की कोई कमी नहीं थी, लेकिन बारिश कभी भी खेल बिगाड़ सकती थी, बस उसी का डर था, नहीं तो समय की कोई कमी नहीं थी, कोई द्वन्द नहीं था कि समय निकले जा रहा हो आगे आगे! मैंने स्नान कर लिया था, उस शाम मदिरा नहीं ली थी, मदिरा का भोग उस साध्वी के संग ही करना था! ऐसी साध्वी को अक्सर पूर्णा कहा जाता है! इसी समय ये पूर्णा हुआ करती है और जैसे जैसे क्रिया आगे बढ़ती है, ये संज्ञा भी बदलने लगती यही, अंत तक, वो शक्ति के रूप में पूर्ण हो जाती है!
कोई पौने नौ बजे, मैंने अपना सामान संभाला, और चल पड़ा उस क्रिया-स्थल की ओर, अभी तक नहीं पहुंची थी वो साध्वी, अभी कुछ मिनट शेष थे, बत्ती की व्यवस्था कर दी गयी थी, और वैसे भी, जांच के पश्चात अलख का ही प्रकाश रहने वाला था वहाँ! मैंने सारा आवश्यक सामान निकाल लिया, अबी क्रिया आरम्भ करनी नहीं थी, जब तक कि वो न आ जाए, उसके बाद ही


   
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श्रीशः उपदंडक
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क्रिया आगे बढ़ पाती, पता नहीं, वो योग्य थी भी कि नहीं!
कोई नौ बजकर पांच मिनट पर, बाबा और वो महिला, उस साध्वी को लेकर आ गयीं, मैं अंदर ही था, ये बाबा को मालूम था, अतः वो अंदर नहीं आये, बाहर से ही उस महिला को ले, लौट गए, और वो साध्वी सीधा अंदर ही आ गयी! मैं खड़ा था, मुझे देखा तो प्रणाम किया उसने! अब मैंने उसको उसके बैठने का स्थान दिखाया, वो वहां जा बैठी! मैंने तब तांत्रिक-वंदना की, कि मेरे मन में कोई पाप न बसे, कोई ऐसी बात न हो जिस से मेरे गुरु की आन-शान में कोई खयानत हो! वंदना हो गयी! और अब मैं भी बैठ गया!
"इधर आओ" मैंने कहा,
वो खिसकी और आगे आ गयी मेरे पास, मेरे घुटने से उसका घुटना छू गया था, इतना समीप,
अब मैंने उसको अपना सम्पूर्ण परिचय दिया, अपने बारे में बताया, ताकि उसको पूर्ण विश्वास हो जाए मुझ पर, ये अत्यंत आवश्यक है!
"भार्गवी, चूंकि तुम पहले भी क्रिया में बैठी हो, अतः तुम्हे सारे नियम पता होंगे, इसीलिए, मन में कोई प्रश्न हो, शंका हो, तो पूछ लो" मैंने कहा,
उसने कोई प्रश्न नहीं किया, कोई शंका ज़ाहिर नहीं की,
"ठीक है भारगवी, अब वैसा ही करना जैसा मैं कहूँगा, कहूँगा मात्र एक बार, दुबारा नहीं, एक बार तुमने नहीं सुना, तो मैं तुम्हे वापिस भेज दूंगा, ठीक है?" मैंने पूछा,
"जी, ठीक है" वो बोली,
वो असहज नहीं हो रही थी, इसका लाभ मुझे मिलना ही चाहिए था, उसकी देह पुष्ट थी, और वो एक बढ़िया साध्वी सिद्ध होती, ये मेरा विश्वास था!
"वस्त्र उतारो अपने" मैंने कहा,
थोड़ा सा सकपकाई वो,
लेकिन यही तो कार्य था उसका, उसको इस समय ऐसा नहीं करना चाहिए था, उसके साथ कोई ज़बरदस्ती नहीं थी, ये उसकी इच्छा पर निर्धारित था, चाहे तो बैठे, नहीं तो जाए, कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं थी!
उसने धीरे धीरे अपना वस्त्र खोलने आरम्भ किये, और कुछ ही देर में, वो दो ही वस्त्रों में रह गयी,
"ये भी" मैंने कहा,
उसने वे भी उतार दिए,
"खड़ी हो जाओ" मैंने कहा,
वो खड़ी हो गयी,
अब मैंने उसकी देख का परिमापन आरम्भ किया, क्या कंधे बराबर हैं? कोई आगे या पीछे तो नहीं? कोई वक्र तो नहीं? छोटा-बड़ा तो नहीं? स्तन समरूप हैं या नहीं? के दोनों ही स्तनाग्र एक समान हैं अथवा नहीं? क्या नाभि भंवरिका रूप में है या नहीं? क्या नाभि में कोई मांस-पिंड तो नहीं दीखता? क्या योनि-स्थल में कोई दोष तो नहीं? क्या घुटने समरूप हैं? क्या पाँव एक जैसे हैं? उँगलियों में कोई दोष तो नहीं? क्या हाथों में, या उनकी उँगलियों में कोई दोष तो


   
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श्रीशः उपदंडक
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नहीं? आदि आदि जांच, ये सम्मुख जांच है, अब तक सब ठीक था!
"पीछे घूमो" मैंने कहा,
वो पीछे घूमी, कमर मेरी तरफ करके,
ये पश्चमुख जांच है!
क्या रीढ़ की हड्डी टेढ़ी तो नहीं? कोई कुब्ब तो नहीं? कहीं दीखती तो नहीं? कोई दोष तो नहीं? क्या नितम्ब सही विकसित हैं? क्या नितम्बों के ऊपर गड्ढे एकसार हैं या नहीं? कहीं एक ही तो नहीं? क्या जंघाओं में को दोष तो नहीं? पिंडलियाँ समान हैं? एड़ियां सही हैं, एक जैसी? कहीं एड़ियां अंदर को तो नहीं धसकती? ऐसा अक्सर होता है, आपने देखा होगा, कई पुरुषों और महिलाओं के जूते आदि अक्सर एक ही जगह से अधिक घिसते हैं, ये वही जाँच है! टखने समरूप हैं? अभी तक तो सब सही था! वो पूर्ण रूप से जांच में सफल होगी, अब मुझे विश्वास हो चला था!
"घूम जाओ" मैंने कहा,
वो घूम गयी,
एक तरफ से देखा,
ठीक था बदन उसका,
"दूसरी तरफ" मैंने कहा,
वो घूमी,
यहां भी ठीक था!
वो सफल हो गयी थी!
ये साध्वी बनने के लायक थी! बात बन गयी थी!
"पहन लो वस्त्र" मैंने कहा,
उसने अपने वस्त्र पहनने शुरू कर दिए!
जब पहन लिए तो खड़ी हो गयी वहीँ!
"आओ, बैठ जाओ" मैंने कहा,
वो बैठ गयी,
"मदिरा का सेवन कर लेती हो?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोली,
अब उसका संकोच दूर हो गया था! आवाज़ में विश्वास भर गया था उसकी!
"ठीक है" मैंने कहा,
अब पहले से लाये सारे सामान को मैंने निकला बाहर, वहीँ रखा, और दो गिलास निकाल लिए! साथ में बोतल में भरा पानी भी!
"लो, तैयार करो" मैंने कहा,
उसे नहीं पता था कि मैं ऐसा कहूँगा उस से!
"मुझे नहीं आता" वो बोली,
मुस्कुराते हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"सीख लो!" मैंने भी मुस्कुराते हुए कहा,
अब उसने कोशिश की, मदिरा का ढक्क्न खोला मैंने, बोतल उसको दी, उसने पकड़ी, और गिलास में बस दो दो ढक्क्न के बराबर मदिरा दाल दी!
"ये क्या है?" मैंने पूछा,
"क्या?'' वो बोली,
"ये क्या डाला है?" मैं आहिस्ता से पूछा,
"मदिरा?" वो बोली,
"इतनी सी?" मैंने कहा,
"क्यों?" वो बोली,
"सुबह तक पीनी है क्या?" मैंने कहा!
अब वो समझी और हंस पड़ी!
मैंने बोतल ली उस से और गिलास में और मदिरा डाल दी!
"ये लो" मैंने गिलास उठाकर उसको दिया!
उसने गिलास लिया, और एक ही सांस में खींच गयी!
मेरे तो होश उड़ गए!
ये जोश था या होश??
"ये जोश था या होश?" मैंने पूछ ही लिया!
"होश!" वो बोली,
हँसते हुए!
मैं भी हंस पड़ा!
अब मैंने गिलास उठाया और खींच लिया!
उसने मुझसे भी यही प्रश्न कर लिया! मैंने उत्तर नहीं दिया! अब मुझसे खुलने लगी थी वो! एक टुकड़ा दिया गाजर का उसको,
"ये लो" उसने लिया और खा लिया,
"कहाँ की रहने वाली हो?" मैंने पूछा,
"रुद्रपुर" वो बोली,
"अच्छा" मैंने कहा,
"वो महिला माँ है तुम्हारी?" मैंने पूछा,
"नहीं" बोली वो,
"तो?" मैंने पूछा,
"जहाँ मैं रहती हूँ, वहाँ की उप-संचालिका है" वो बोली,
"अच्छा" मैंने कहा,
"माँ-बाप कहाँ हैं?" मैंने पूछा,
"बाप जीवित नहीं, माँ है, गाँव में" बोली वो,
"किसके साथ रहती हैं?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"छोटी दो बहनों के साथ" वो बोली,
"भाई नहीं है कोई?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोली,
"अच्छा" मैंने कहा,
"यहाँ कौन लाया तुम्हें?" मैंने पूछा,
वो समझी नहीं, मैंने समझाया कि डेरे में कैसे पहुंची?
और जो बताया, वो नया नहीं था, कोई रिश्तेदार, कोई जानकार! यही देखा है मैंने तो आजतक!
"चलो दूसरा बनाओ" मैंने कहा,
उसने अब सही बनाया, और खींच लिया!
मैं फिर से देखता रह गया उसको! जोश चढ़ा था उसको!
और मैंने भी खींच लिया अपना गिलास!

शराब पीने में तो माहिर लगती थी मुझे ये भार्गवी, गिलास ऐसे खींच लेती थी जैसे शराब नो होकर, शर्बत हो! मई तो खुद देखकर हैरान था उसको! बहुत ही कम मैंने ऐसे साध्वियां देखी हैं, अब भले ही वो साध्वी हो, लेकिन सबसे पहले वो स्त्री थी, और स्त्री के स्त्रियोचित भाव सबसे पहले ही प्रकट हो जाया करते हैं! फिर लगा, ये जोश है, होश नहीं, क्योंकि मैंने ऐसे कई नए खिलाड़ी देखे हैं जो एक ही बार में गिलास खाली कर दिया करते हैं, नहीं तो ऐसा होता नहीं नौसिखियायों के साथ, कि गिलास हाथ में पकड़े रहेंगे, चाय की चुस्कियों की तरह पिएंगे, और उस पर ऐसा कि जैसे सजा दी गयी हो उन्हें वो गिलास देकर! लेकिन यहां ऐसा नहीं था, वो माहिर लगती थी मुझे तो, कम से कम अभी तक! खैर, मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ना था इस से, वो मेरे संग किसी प्रत्यक्ष क्रिया में नहीं बैठने वाली थी, वो तो मात्र मेरे उन मन्त्रों को जागृत करवाने वाली थी जिसने किसी साध्वी की आवश्यकता पड़ा करती है! और दूसरा, काम-लाभ, और कोई अन्य लाभ नहीं था उस से, लेकिन मेरा काम-भाव नहीं जागा था अभी तक! शायद अभी और समय लगे! तंत्र में यही होता है, जब तक उस भाव का चरम न आ जाए, आप चेष्टा भी नहीं कर सकते, ये भाव ऋण और धन, दोनों में समभाव रूप से होना चाहिए, और ऐसा अभी तक नहीं था! वो मुझसे खुल रही थी, हालांकि जानती थी कि इस से आगे क्या होगा, लेकिन उसमे डर, भय या संकोच जैसा कोई भाव अभी तक नहीं आया था! और ये अच्छी बात थी! मैंने भी अपना गिलास साफ़ कर दिया था! और बारीकी से उस भार्गवी के शारीरिक हाव-भाव देख रहा था, आँखें अब अधखुली सी होने लगी थीं, चेहरा लालिमा लेने लगा था, होंठों में रक्त जमने लगा था, कान के पोर नीचे से लाल हो चले थे, ये मदिरा से आये नशे का प्रभाव था!
"सुनो?" मैंने कहा,
वो उस समय मिट्टी में अपनी ऊँगली से वृत्त बनाये जा रही थी, एक के ऊपर एक दीर्घ वृत्त! जब पूर्ण हो जाते और स्थान न बचता तो हाथ से मिटो देती थी उसको, और फिर बनाने लगती!
"जी?" वो बोली मुझे देखते हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मेरी आँखें मिलीं उस से, तो उसकी आँखों में नशा नज़र आया मुझे, लेकिन नशा अभी कमसिन था, इसको और यौवनिकृत करना था!
"और बनाओ" मैंने कहा,
उसने बोतल पकड़ी, और गिलास में भरी, फिर पानी डाल दिया! गिलास मुझे दिया, मैंने गिलास लिया और उसको देखा,
"उठाओ" मैंने कहा,
उसने गिलास उठाया, और इस से पहले मैं कुछ कहता, अगले ही क्षण गिलास खाली! इस बार हल्की सी खांसी वो! मैं समझ गया, अब सुरूर का समय नहीं है, अब नशे का समय है! मैंने सलाद में कटा टमाटर का एक टुकड़ा दिया उसे, पहले मना किया उसने, फिर ले लिया और खा लिया! मैंने भी अपना गिलास खत्म कर लिया था!
पहले वो आलती-पालती मार के बैठी थी, लेकिन मदिरा के नशे से, जोड़ खुलने लगे थे, बदन में रासायनिक परिवर्तन आने लगे थे, इसीलिए अब आलती-पालती न मार, टांगें सीधी कीं पहले, फिर घुटनों से एड़ियां पीछे कर बैठ गयी! इस से उसका ऊपरी बदन तन गया! ये नशे का प्रभाव था!
"और लोगी?' मैंने पूछा,
"आप..लोगे?" उसने सवाल किया अपने उत्तर में! आवाज़ लड़खड़ा गयी थी उसकी, अब नशा हावी होने वाला था उस पर!
"मेरा छोड़ो, तुम बताओ?" मैंने कहा,
"आप लोगे तो मैं भी लूंगी" वो बोली,
"ठीक है, बनाओ" मैंने कहा,
"आप बनाओ अब" वो बोली,
मैं मुस्कुरा गया! अब उसके बसकी नहीं था, यही आखिरी सीमा थी उसकी! मैंने दो गिलास बना लिए! और सबसे पहले अपना गिलास खींच लिया! उसका गिलास नहीं दिया उसको, वो लेने लगी तो, मैंने मना कर दिया उसको! अब तो झगड़े पर उतारू सी हो गयी! कि क्यों नहीं दे रहा मैं उसको! जबकि उसकी हालत सही नहीं थी अब! अब या तो वो उलटी ही करती या फिर लेट ही जाती वहाँ! जब नहीं मानी तो, मैंने दे दिया गिलास, आधा छलकाए और आधा पी लिया! मैंने उसके ही कपड़े से मुंह साफ़ कर दिया उसका!
अब ली उसने बदनखोल अंगड़ाई! अब अंग अंग में मदिरा पहुँच चुकी थी! और मदिरा, छिपा हुआ सब खोल दिया करती है! लेकिन मैंने कुछ नहीं कहा उस से! सिर्फ देखता ही रहा उसको, मुझे देखती, और नज़र हटा लेती, फिर से देखती, फिर से हटा लेती!
"और?" मैंने पूछा,
"आप?" उसने बोला,
"बताओ?" मैंने कहा,
"आप लेंगे?" उसने पूछा,
अब पूरे नशे में थी! आवाज़ साथ नहीं दे रही थी उसकी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"एक काम करो, वहाँ, वहाँ लेट जाओ" मैंने एक जगह दिखाई उसको,
उसने देखा,
"क्यों?" उसने पूछा,
"जब नशा टूट जाए तो बात करते हैं" मैंने कहा,
वो हंस पड़ी! बहुत तेज! बहुत तेज! खिलखिलाकर! जैसे मैंने कोई चुटकुला सुनाया हो उसे!
मुझे भी हंसी आ गयी!
ये भला कौन सी क्रिया थी! ये तो चुहलबाजी हो रही थी!
"जाओ, लेट जाओ" मैंने कहा,
"नहीं" वो बोली,
"मैंने कहा, जाओ" मैंने कहा,
"नहीं" वो बोली,
"अगर एक बार और न कहा, तो मैं चला जाऊँगा" मैंने कहा,
अब वो सहमी! उठी, उठी तो गिरते गरते बची! मैंने कमर से सहारा दिया उसको!
"जाओ" मैंने कहा,
वो लड़खड़ाते हुए चली गयी उधर, लेकिन लेटी नहीं, बस बैठ गयी, चेहरा नीचे किये!
"लेट जाओ?" मैंने कहा,
उसने एक झटके से दोनों हाथ जोड़े, और लेट गयी!
अब मैंने एक गिलास और बनाया, और खींच लिया!
अब मुझे भी नशा हो चला था, मैं क्रिया नहीं करना चाहता था, आज मात्र जांच ही करनी थी, सो हो गयी थी! मैंने इसके बाद तीन गिलास और लिए, और मैं फिर वहीँ कमर टिका कर, बैठ गया!
मुझे जम्हाइयां आने लगी थीं! नींद आने ही वाली थी! मैंने कमर सीधी करने के लिए जगह बनायी, और वहीँ लेट गया, अब लेटा तो फौरन ही नींद आ गयी! मैं सो गया!
बाद में मेरी नींद खुली! खड़ा हुआ, घड़ी देखी, ग्यारह से अधिक समय था, कोई घंटा भर सोया था मैं, सामने नज़र गयी, तो वो भी अपने दोनों हाथ अपने घुटनों में दबाये, सो रही थी! मैं खड़ा हुआ, उसके पास गया, और जगाया उसको, वो जाएगी, बड़ी मुश्किल से, आँखें मल्टी हुई, नशा बहुत था उसको, अब उसको खड़ा किया, सहारा दिया, और ले आया बाहर, फिर ले गया सीधे उन कक्षों की ओर, बाबा को आवाज़ दी, बाबा तो नहीं आये, लेकिन वो महिला आ गयी, उस महिला को मैंने बता दिया कि नशा है इसको, संभाल के ले जाओ! और मैं आ गया वापिस वहाँ से, अपने कक्ष के लिए!
कक्ष में पहुंचा, तो दरवाज़ा खुला था, शर्मा जी सो रहे थे, मैं अंदर आया तो जाग गए, लेकिन बोले कुछ नहीं, मैंने पानी पिया और धम्म से बिस्तर पर पनाह ली! पनाह लेते ही, नींद ने आ घेरा! और मैं सो गया!
सुबह हुई! फारिग हुए, नहाये-धोये! और फिर चाय-नाश्ता भी कर लिया! उसके बाद थोड़ा टहलने गए! करीब एक घंटा टहले हम! मौसम साफ़ था, अब बारिश का कोई सवाल ही नहीं


   
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श्रीशः उपदंडक
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था, सफ़ेद बादल थे आकाश में! हम वापिस आये, और मैंने फिर से आराम किया! दोपहर में भोजन किया और फिर आराम!
संध्या हुई! वासदेव शर्मा जी को तीन बेहतरीन शराब की बोतलें दे गया था! उस शाम मैंने शर्मा जी के संग ही ली! और कोई साढ़े नौ बजे, मैं चला क्रिया-स्थल पर!
वहाँ पहुंचा तो भार्गवी वहीँ मिली, उस से नमस्ते हुई! आज तो बेहद शर्मा रही थी! शायद कल की बातें नशे में भी याद हो आई थीं उसको!
साफ़-सफाई उसने कर ही दी थी!
उस रात मैंने अलख उठायी!
मंत्रोच्चार किये!
वो बनी रही मेरे साथ, मैं जैसा निर्देश देता, वो पूर्ण पालन करती! कुछ मंत्र जागृत किये उस रात, उस रात उस से अधिक वार्तालाप नहीं हुआ, कम से कम अपनी क्रिया से अलग! और उसके बाद रात कोई ढाई बजे, मैंने उसको उसके कक्ष में छोड़ा और मैं वापिस हो आया!
मित्रगण!
इन दिनों में, मैंने अपनी आवश्यक सभी क्रियाएँ पूर्ण कर ली थीं, विद्या-संधान हो चुका था, सशक्तिकरण और सभी नियमों का पालन करते हुए, कुछ प्रबल मन्त्र भी जागृत कर लिए थे! अब मेरे पास दो रात थीं, जिसमे मुझे कामास्वादन करना था, लेकिन अभी तक, काम-ज्वाला तो छोड़िये, एक चिंगारी भी नहीं फूटी थी! इसी तरह उस कामास्वादन की रात्रि आई, उस रात उस से वार्तालाप हुआ, इस विषय पर बात हुई, लेकिन बात नहीं बनी, यूँ कहो कि भार्गवी नहीं रिझा पायी मुझे! वो साध्वी भले ही थी, मेरी मदद भी कर रही थी! लेकिन कुछ ऐसा हुआ ही नहीं! पहली रात्रि बीती, और फिर अगली रात्रि भी बीत गयी! अच्छा हुआ कुछ नहीं हुआ! मेरा व्रत अभी कायम ही था! और अब इसे खंडित क्यों किया जाए! अंतिम रात, भार्गवी ने मेरा बहुत साथ दिया, उसने मेरी हरसम्भव मदद की! और इस प्रकार उस साध्वी का औचित्य वहीँ समाप्त हुआ! मैंने उसको छोड़ा वापिस! उसे हैरानी थी! लेकिन मैं हैरान नहीं था! मेरे सामने मेरा ध्येय था! वही था उद्देश्य!
मित्रगण! ये मेरी भार्गवी से हुई आखिरी मुलाक़ात थी! उसके बाद मैं कभी नहीं मिला उस से! न ही वो कभी मिली! हाँ, उस रात की उसके साथ हुई चुहलबाजी याद कर, आज भी मुस्कुरा जाता हूँ!
एक दिन कोई दोपहर में बाबा गिरी आये मेरे पास! नमस्कार हुई उनसे, बाबा अमर नाथ ने बुलाया था मुझे! मैं गया, नमस्कार हुई और बैठा वहां!
"सब पूर्ण हुआ?" वे बोले,
"हाँ बाबा" मैंने कहा,
"क्या आज चलें देखने उस पेड़ को?" उन्होंने पूछा,
वास्तव में, मैं भी देखना चाहता था!
"हाँ बाबा!" मैंने कहा,
"आज संध्या समय चलते हैं" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"उचित है" मैंने कहा,
"आप संध्या समय आइये" वे बोले,
"जी" मैंने कहा,
और इस तरह वो दिन बीता!
संध्या हुई, मैं शर्मा जी के संग पहुंचा वहाँ! वे सभी तैयार थे!
"चलें?" उन्होंने पूछा,
"अवश्य" मैंने कहा,
और उसी संध्या को, हम निकल पड़े, उस पेड़ को देखने, उस स्थान को देखने, जो मेरी कर्म-भूमि बनने वाला था!

अब हम चल पड़े थे, मई और शर्मा जी साथ साथ थे, और बाबा गिरि के पीछे चल रहे थे, बाबा गिरि, बाबा अमर नाथ के साथ थे, और अमर नाथ बाबा का कुछ सामान उनके भांजे कविश ने ले रखा था, जिस रास्ते से हम जा रहे थे, वो रास्ता था तो हरियाली से भरा हुआ, लेकिन लगता ऐसा था कि बीहड़ में से जा रहे हों! दूर-दराज तक कोई इंसानी आबादी नहीं दीख रही थी, जंगल ही था सारा, गत दिनों हुई बारिश के कारण पेड़ पौधों में जीवन का नव-संचार हो गया था! पत्तियां गहरी हरी हो चुकी थीं, छोटी छोटी घास भी अब बढ़ चुकी थी! परजीवी बेलें, अपने अपने शिकार पेड़ों पर पकड़ बना चुकी थीं! इसमें अमरबेल, युंक-बेल और कस्सप-बेलें थीं! जंगल काफी गहरा था! दूर दूर तक पेड़ ही पेड़ थे! जंगली जानवर भी हों, तो कोई बड़ी बात नहीं थी! हम पैदल पैदल ही चले थे, और अब तक कोई ढाई-तीन किलोमीटर चल चुके थे, अभी कितना आगे और जाना था, पता नहीं था! पेड़-पौधों से नमी बहुत बढ़ी हुई थी! और पसीने छलछला रहा थे! पसीने भी ऐसे, कि बार बार पोंछने पर भी वे सूखते नहीं थे!
"अभी कितना और?" शर्मा जी ने पूछा बाबा गिरि से,
"बस है पास में है" वे बोले,
"एक-दो किलोमीटर?" शर्मा जी ने पूछा,
"हाँ कोई डेढ़ होगा" वे बोले,
"अच्छा" वे बोले,
चलते रहे सभी!
बात डेढ़-दो किलोमीटर की नहीं थी, बात उस नमी की थी, जिसने हमारा दम फुला दिया था! लगता था जैसे कि वहाँ ऑक्सीजन की भाई कमी हो गयी है, और इसीलिए साँसें उखड़ने लगी हैं! सभी हांफने लगे थे, मुझे भी बहुत दिक्कत हो रही थी! उन पेड़ों के कारण एक अजीब सी गर्मी थी वहाँ, और यही गर्मी हमारे शरीर में और सर में खुजली पैदा कर रही थी! ऊपर से कीड़े-मकौड़े, जो हमारे कदमों की आवाज़ों से डर कर, हम पर ही छलांग लगा देते थे! अजीब अजीब से कीड़े थे, मैंने तो कई, पहली बार ही देखे थे! ला, नीले और गहरे हरे! कोई कोई तो ऐसा भयानक था कि डर लग जाता था उसको देख कर! क्योंकि ये प्रकृति का नियम है, जितना अधिक चटक रंग होगा इन कीड़ों का, उतना ही वे ज़हरीले होंगे! ऐसे ही सांप, जितना रंगों में विविधता वाला उतना ही ज़हरीला! इसीलिए उनसे भी बच के रहना पड़ता था! तभी


   
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श्रीशः उपदंडक
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चलते चलते एक जगह बाबा अमर नाथ रुके, कविश भी और बाबा गिरि भी! मैंने सोचा शायद पानी पीने के लिए रुके हैं! लेकिन बाबा ने हमें बुलाया, हमें मतलब मुझे और शर्मा जी को, हम आगे गए, कविश के पास बोतल में पानी था, सबसे पहले तो पानी पिया हमने! थोड़ी राहत हुई उस से! मुंह पर भी पानी छिड़क ही लिया थोड़ा सा!
"वो सामने देखो?" बाबा अमर बोले,
हमने देखा, वो एक टीला सा था, लेकिन था साफ़, पेड़-पौधे तो थे, लेकिन छिटके हुए, जैसे को रह रहा हो वहां, और ज़मीन साफ़ की हो उसने!
"हाँ, मैदान सा है" मैंने कहा,
"हना, यही जाना है" वे बोले,
"तो चलिए फिर" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
अब हम उस रास्ते से नीचे उतरने लगे, अब झाड़-खंखाड बढ़ चुके थे, किसी तरह से बचते-बचाते हम नीचे चलने लगे! कोई आधा किलोमीटर बाद, एक साफ़ सी जगह आ गयी, साफ़ लगता था, की ये जगह इंसानी देख-रेख में है! आबादी से दूर, कुछ इंसान इस जंगल में, इस जगह को बांधे बैठे थे! ऐसी बहुत जगह हैं भारत में, जंगलों में, अक्सर ऐसे ही साधक ऐसी जगहों को बसा दिया करते हैं, अपनी क्रिया और सिद्धि के लिए, ये जगह भी उनमे से एक ही थी! हम आये वहां तो सामने ही कुछ कुटिया बनीं थीं, चार तो मैंने देखि थी, वहीँ छप्पर से डाल दिए गए थे! और बांसों की सहायता उन्हें खड़ा कर दिया गया था! ऐसी ही एक कुटिया में ले गए हमें वो! कुटिया अंदर से काफी बड़ी थी!
दरी बिछी थी, घड़ा रखा था पानी का, और कुछ डिबिया आदि भी थीं, कुछ एक टोकरी और सामान रखा था वहाँ, हम अंदर बैठ गए थे!
"कैलाश को देखो ज़रा" बाबा अमर नाथ ने कविश से कहा,
कविश बाहर गया, चप्पल पहनीं और चला गया वहां से,
हमने और पानी पिया वहाँ, घड़े में भी पानी ठंडा नहीं हुआ था, और गर्मी के मारे हाल खराब था इस कुटिया में तो! मैं और शर्मा जी बाहर आ गए फिर!
"कैसी जगह बनायी है ये!" बोले वो,
"हाँ, पक्का ही इंतज़ाम है" मैंने कहा,
"कोई आता जाता नहीं होगा यहाँ, इसीलिए" वे बोले,
"तभी तो बनायी है" मैंने कहा,
"जंगल के बीचोंबीच!" बोले वो!
"हाँ" मैंने कहा,
तभी सामने से कविश आते दिखाई दिया, एक पतले-दुबले आदमी के साथ, आदमी के हाथों में कुछ सामान सा था! वे करीब आते गए! जब और करीब आये तो उस आदमी ने नमस्कार की, कविश अंदर ले गया उसको! अब हम भी अंदर चले!
अंदर उस आदमी ने बाबा अमर नाथ के और बाबा गिरि के पाँव छुए! और बैठ गया एक


   
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श्रीशः उपदंडक
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तरफ!
"दादी कहाँ है?" पूछा गिरि बाबा ने,
"जंगल में होगी, आने वाली वाली होगी" वो बोला,
मैंने सोचा कोई बूढी औरत होगी ये दादी! भला और कौन नाम बोलेगा ऐसा!
"वो मासू ठीक है?" बोले वो,
"बिलकुल ठीक" वो बोला,
मासू, शायद कोई व्यक्ति होगा, यहीं रहता होगा,
"चल, दिखा ज़रा?" वे बोले,
"चलो" वो बोला,
अब सब खड़े हुए!
हम बाहर ही थे, तो हम भी चल पड़े उनके संग! कोई दो सौ मीटर आगे गए, ये एक हरी-भरी जगह थी! गैंदे के फूल लगे थे वहां, लगता था जैसे किसी मंदिर का बगीचा सा हो!
कैलाश चलता रहा एक जगह और रुक गया!
मैं भी रुका, वे सब रुके!
सामने देखा तो मेरी नज़रें एक जगह रुक गयीं! एक पेड़ था वो! उसके नीचे एक चबूतरा बना था! कच्चा चबूतरा, अलख की जगह बनी थी, सामान रखने को गड्ढा बना था और वो पेड़! वो पेड़ था रमास का! मासू! ये था मासू! तो ये वो जगह थी, जहां मुझे वो क्रिया करनी थी!
एक अजीब सा एहसास उतरा शरीर में!
दिमाग में कल्पना के तार झनझना उठे!
मैं उस पेड़ को गौर से देखता रहा!
यही है वो पेड़! जिसको रक्त से सींचा गया है!
"शर्मा जी! ये है वो पेड़!" मैंने कहा,
वे चुपचाप खड़े थे!
उस पेड़ की पुंगी को देखते हुए!
पेड़ कोई दस फ़ीट तक बढ़ चुका था! हवा थी नहीं, शांत ही खड़ा था!
बाबा अमर आगे आये!
"ये, ये है वो पेड़" वो बोले,
"हाँ, देख रहा हूँ" मैंने कहा,
मैंने उसको गौर से देखा था, घूम घूम कर!
फिर पीछे हुआ! बाबा गिरि के पास पहुंचा!
"क्या आपने भी इसी स्थान पर साधना की थी?" मैंने पूछा,
"नहीं" वे बोले,
"फिर?" मैंने पूछा,
"वहां, पीछे" वे बोले,
पीछे देखा मैंने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब तो वहां बियाबान सा ही था! जंगली पेड़-पौधे थे!
"यही होनी है ये साधना?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले!
रोमांच सा भर उठा मुझमे!
"आप देख लो! जो परिवर्तन करवाना हो यहां, बता दो" वे बोले,
"हाँ, मैं देखता हूँ" मैंने कहा,
वे लौटे वापिस और दूर खड़े रहे! अब रह गए हम दोनों वहाँ! और वो पेड़!
मैं चबूतरे पर चढ़ा, जूते उतार कर, पेड़ को छुआ!
उसको देखा! पेड़ अब काफी मज़बूत हो चुका था! तेज हवा आदि को सहन कर सकता था!
मैं नीचे उतर आया फिर! अलख भी ठीक थी, और सामान रखने का गड्ढा भी!
"आओ, चलें वापिस" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
हम वापिस चले अब!
उन लोगों तक पहुंचे, हम इकट्ठे हुए, और चले वापिस!
"स्थान सही है?" पूछा बाबा गिरि ने,
"हाँ, उत्तम हैं" मैंने कहा,
"आइये फिर" वे बोले,
और हम एक बार फिर से, उस कुटिया में आ गए!

हम सभी उस कुटिया में आ बैठे थे! नमी के मारे पसीने ऐसे बह रहे थे जैसे कोई बार बार हमारे ऊपर पानी छिड़के जा रहा हो! हलक़ बार बार सूख जाता था! नमी इतनी थी की जांघें और उसके पीछे खुजली होने लगती थी बार बार, खुजा खुजा के जान निकले का रही थी, कभी कभी तो लगता था किसी प्लास्टिक-ब्रश से ही खुजा लें! बाबाओं ने तो धोती पहनी थी सूती, सूती कपड़ा इस मामले में सही रहता है, हमने पैंट्स पहनी थीं, इसीलिए पसीना नहीं सूख रहा था! बाहर धूप थी, चटकदार धूप, ऐसी धूप कि हिरन भी काला पड़ जाए! हालत खराब थी बहुत! जितना पानी पियो, उतना ही पसीने बन बाहर निकल आता था!
"अब स्थान आपने देख ही लिया है" बोले बाबा गिरि,
"हाँ, देख तो लिया है" मैंने कहा,
"कोई संशय?" वे बोले,
"नहीं, कोई संशय नहीं" मैंने कहा,
"कोई प्रश्न आदि हो तो पूछें?" उन्होंने पूछा,
"नहीं, कोई प्रश्न नहीं" मैंने कहा,
"अब आप देख लीजिये, कब आना है आपको" वे बोले,
"मैं आज निर्णय ले लूँगा" मैंने कहा,
"तो चलें वापिस?" उन्होंने पूछा,
"चलिए" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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नमी से जान जाए जा रही थी! जितनी जल्दी निकलें, उतना ठीक!
"चलिए फिर" वे बोले,
हम उठे और बाहर आ गए!
वे सभी बाहर आये फिर, कैलाश से कुछ बातें कीं बाबा गिरि ने, और फिर चल दिए हम वापिस!
"बड़ा बुरा हाल है यहाँ तो" शर्मा जी बोले,
"हाँ, बहुत बुरा" मैंने कहा,
"कपड़े भी चिपक गए हैं अंदर से" वे जांघ से पैंट खींचते हुए बोले,
"नमी जानलेवा है यहाँ" मैंने कहा!
"हाँ, सुखा के रख दे, और बंदा पानी की कमी से यहीं का हो कर रह जाए!" वे बोले,
हमने भरे फिर लम्बे लम्बे डिग! और भागे आगे आगे! सांस फूलने लगी थी! कविश के पास जितना भी पानी था, अब ख़त्म कर दिया था हमने!
मित्रगण! वो तीन किलोमीटर ऐसे थे जैसे हिमालय पर्वत लांघ के आये हों हम! जंगल की नमी ने तो हाल खराब कर ही रखा था, ऊपर से खुजली ने तो खाल छीलने की सोच रखी थी! मैं तो सीधा ही स्नान करने चला गया! और तब जाकर आराम आया! शर्मा जी भी स्नान करके आये और आ बैठे पंखे के नीचे!
"जान बची!" वे बोले!
"उस कैलाश को देखो!" मैंने कहा,
"अरे इनको आदत है!" वो बोले,
:हाँ, आदत है इनको!" मैंने कहा,
तभी सहायक चाय ले आया! चाय की तलब तो लगी थी! साथ में जो लाया था वो हमने नहीं खाया था, सीली हुई नमकीन थी! अच्छी नहीं लगती, तो मना कर दिया था!
चाय ख़त्म की! और मैं तो लेट गया फिर! दो चार फ़ोन आये, वो सुने, बता दिया कि अभी नहीं आ सकते वापिस, अभी समय है! शर्मा जी ने भी यही कहा अपने घर में और जानकारों से! और फिर वे भी आराम करने के लिए लेट गए!
अब हुई शाम! तो याद आये जाम! लगी हुड़क! बड़ी कड़क! दिल में मची फड़क!
"शर्मा जी, ज़रा इंतज़ाम करवाओ यार!" मैंने कहा,
"अभी जाता हूँ" वो बोले,
उठे, जूते पहने, और चले गए बाहर,
जब आये, तो सामान ले आये थे, सलाद हमनें ही बनानी थी, आज काटने वाला कोई नहीं था वहाँ! चाक़ू एक ही लाये थे, तो अब पहले खीरे छीले, चुकंदर छीले, आज सेब भी थे! सेब मदिरा के संग बढ़िया लगता है! कभी खा के देखिएगा, एक सेब और एक नाशपाती! बढ़िया स्वाद देते हैं! दारु की कड़वाहट पता ही नहीं चलती! तो हमने सलाद बना ली थी, सहायक बाकी सामान ले आया था, पानी, गिलास और मसालेदार खाना! मैंने मसालेदार खाना देखा तो ये तरी वाली कलेजी थीं! प्याज, अदरक, लहसुन सब डाला गया था, स्वाद लेकर देखा, तो


   
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श्रीशः उपदंडक
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मजा आ गया! अब हम हुए शुरू!
करीब डेढ़ घंटे में हम तृप्त हो गए थे! आज बहुत आनंद दिया था मदिरा ने! उसके कोई आधे घंटे के बाद भोजन किया और फिर हमने पलंग पकड़ लिया! ऐसी नींद आई कि बाहर तूफ़ान भी आ जाए तो आँख न खुले!
सुबह हुई! हम निवृत हुए, नहाये-धोये!
अब मैंने तिथि का आंकलन किया, आज पंचमी थी, तिथि शुभ थी, मैं अष्टमी से क्रिया कर सकता था, उसके लिए सारा आवश्यक सामान इन दो-तीन दिनों में मिल ही जाता, अर्थात प्रबंध हो जाता! सबसे बड़ा काम था बलि-कर्म, उसके लिए बीड़ा बाबा गिरि ने उठाया था, और जब मेरी बात हुई बाबा गिरि से तो उन्होंने बताया कि बलि-कर्म के लिए पशु पहुंचा दिए जाएंगे वहां एक दिन पहले! और एक रात पहले मुझे लीपन-कार्य करना था उस स्थान का, जहाँ आसन लगाना था!
वो अष्टमी की सुबह थी, कोई आठ बजे थे, हम चाय पी रहे थे, अब क्रिया अष्टमी को नहीं, नवमी से आरम्भ होनी थी, अष्टमी क्षय हुई थी, इसी कारण से! तो आज मुझे उस स्थान पर पहुँच जाना था! अब चाहे नमी हो या कोई कमी, जाना तो था ही, इस समय ताल बाबा अमर नाथ ने मुझे समस्त क्रिया-विधि और रीत आदि सिखा ही दी थीं, कहाँ क्या करना ही, क्या नहीं करना है, क्या मन में रखना है, क्या बाहर निकला फेंकना है, क्या सही है, क्या गलत, बारीकी से बता दिया था! मंत्र मैंने कंठस्थ कर ही लिए थे! मैं उनका उच्चारण भी सही कर रहा था, इसका श्रेय उर्दू और अरबी को जाता है, उर्दू बोलने वाला इंसान, एक ख़ास ही लहज़ा बोलता है, ये लहज़ा साफ़ और स्पष्ट होता है! इसका श्रेय में उर्दू को ही देता हूँ!
खैर,
उस शाम हम कोई छह बजे सभी के सभी, उस स्थान के लिए निकले, सारा सामान वहाँ भिजवा दिया गया था, साफ़-सफाई करवा दी गयी थी, पशु भी भेज दिए गए थे और एक मज़बूत शीशम से बनी भेरी भी भेज दी गयी थी, वो खड्ग भी मैंने देखा था, वजन में बहुत भारी था वो, एक ही वार में किसी भी मेढ़े का सर, धड़ से अलग करने की क्षमता थी उसमे, बड़े रक्त-पात्र, और अन्य पात्र आदि सब भिजवा दिए गए थे! मारा बड़ा बैग भी ले जाया गया था! वासदेव के साथ अन्य कई सहायक इसमें मदद कर रहे थे!
हम करीब साढ़े सात बजे वहां पहुँच गए थे! अब वो जगह साफ़ कर दी गयी थी! झाड़-झंखाड़ आदि सब हटा दिए गए थे! उन झाड़-झंखाड़ों से ही आसपास एक बाड़ बना दी गयी थी, कोई तीन तीन फ़ीट ऊंची, ताकि कोई आये भी तो उसको कुछ दिखाई ही न दे! क्रिया समय सभी सहायक इस बाड़ के पास पहरा देने वाले थे! ताकि कोई विघ्न न हो!
मित्रगण!
उसी रात एक मेढ़ा उस स्थान की शुद्धि और प्राण के लिए बलि चढ़ाया गया! उसको भोग भी अर्पित किया गया, और उसका मांस उस रात के भोजन हेतु पकाया भी गया, मैंने उसके रक्त से, उसी रात मंत्र पढ़ते हुए, उस आसन वाली जगह को लीप लिया था! सबकुछ ठीक से निबट गया था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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लकड़ी जला कर, एक भट्टी बना ली गयी थी, और वासदेव ने वो मेढ़े के मांस के टुकड़े कर, वो मांस पकाया, उस रात औघड़ों की खूब दावत हुई! मदिरा छक कर पी गयी! मांस बहुत बढ़िया बना था, पेट भर के खाया, रोटियां नहीं बनायी गयीं थी, बस मांस ही मांस!
हाँ, वो दादी, वो एक महिला थी, कोई पचास वर्ष की, उसी को दादी कहते थे, वो वहां कार्य किया करती थी, साफ़-सफाई आदि, देख-रेख आदि, उसकी दो पुत्रियां और एक पुत्र बाबा गिरि के डेरे में ही रहा करते थे! ये बात मुझे उसी दिन ही पता चली थी! ये दाई पहली वाली क्रिया में भी थी, और आज फिर से एक नयी क्रिया के लिए भी योगदान दे रही थी! नैय्या वही थी, नदी भी वही थी, बस खिवैया बदल गया था!
उस रात हम देर रात तक जागे, बाबा अमर ने बहुत कुछ समझाया, बाबा गिरि ने भी! और उसके बाद हम सो गए!
सुबह हुई, पानी जो लाया गया था वो उतना नहीं था कि स्नान किया जा सके, उसके लिए, वहां से कोई आधा किलोमीटर दूर एक बरसाती नदी थी, वहीँ जाना पड़ता था, हम वहीँ स्नान किया करते थे!
क्रिया का दिन आया!
उस दिन मैंने मौन-व्रत धारण किया था!
संध्या समय वो खोला!
सारा दिन मंत्रों का मन ही मन उच्चारण किया था!
मैं अपने तंत्राभूषण आदि पहले ही अभिमंत्रित कर चुका था! और अब ऐसी एक महासिद्धि पूर्ण करने के लिए तैयार था जिसके विषय में मैंने मात्र सुना ही था!
उस दिन उस समय,
मेरे मन में उस वयोवृद्ध औघड़, बाबा अमली का चेहरा घूमता रहा!
वे मुक्त हो जाएँ तो इस से बड़ा सिद्धि-फल क्या!!
मुझे उस साध्वी भार्गवी की भी याद आई!
फिर मेरे प्रियजन! उनकी आवाज़ें! चेहरे! यादें! सब याद आये!
"आप तैयार है?" बाबा गिरि की आवाज़ गूंजी!
"हाँ!" मैंने कहा,
मैं खड़ा हुआ, अपना त्रिशूल संभाले!
"चलें?" वे बोले,
"चलिए!" मैंने कहा,
बाहर आंच का अलाव जल रहा था, बस उसका ही प्रकाश था!
शेष लोग, हमें ही देख रहे थे!
तभी शर्मा जी आये! मेरा हाथ थामा और मेरे कंधे पर थाप दी!
मैं आगे बढ़ गया बाबा गिरि के साथ!

मैं चला वहां से आगे, मेरा सारा सामान वहीँ रखा था, बस मेरा त्रिशूल मेरे पास था, मेरा आसन लग चुका था, मुझे अलख उठाने थी, गुरु-नमन, श्री महाऔघड़ नमन आदि करना था, और


   
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