वर्ष २०१२ पीलीभीत क...
 
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वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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और जग ले, चले गए बाहर! जब वापिस आये तो जग हाथ में नहीं था उनके!
"क्या हुआ, जग कहाँ है?" मैंने पूछा,
वे बैठे, तौलिये से हाथ पोंछे,
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"भीड़ लगी थी वहां तो! तभी वही लड़की आई उधर, मुझे भेज दिया बोली मैं ले आउंगी पानी" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
और तभी वो लड़की धड़धड़ाती हुई अंदर आई, हाथ में जग था, रख दिया जग वहीँ उसने! कटोरे को हाथ लगाया,
"ये तो ठंडा हो गया?" वो बोली,
"कोई बात नहीं" मैंने कहा,
"कैसे कोई बात नहीं?" वो बोली और उठा ले गयी कटोरा हमारा!
अब फिर से मैं और शर्मा जी एक दूसरे को देखने लगे!
"लड़की है या तूफ़ान मेल?" शर्मा जी बोले,
"लेकिन दिल की साफ़ लगती है, आपको खड़े नहीं रखा, शोरबा गर्म करने के लिए ले गयी है!" मैंने कहा,
"हाँ, ये तो है" वे बोले,
तभी आई वो अंदर, कटोरा पकड़े, हाथ में और हाथ में एक कपड़ा था, उस पर ही रख कर लायी थी, उसने कटोरा रखा, अब कटोरा भरा था पूरा, उसने और डाल दिया था शोरबा और बोटियाँ!
"नाम क्या है तुम्हारा?" मैंने पूछा,
"ज्योति" वो बोली, बिना आँखें मिलाये,
"अच्छा" मैंने कहा,
"कहाँ से आये हो आप?" उसने पूछा,
"दिल्ली से" मैंने कहा,
मैंने दिल्ली कहा तो अपनी आँखों से उसने मुझे और शर्मा जी को तोल लिया, शायद दिल्ली के या शहर के लोग विश्वास के काबिल नहीं थे! देखा तो उसने ऐसे ही था हमें!
"कभी दिल्ली गयी हो?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोली,
"अच्छा" मैंने कहा,
अब तक उसने कटोरा रख दिया था, और सलाद को देख रही थी,
"ये और चाहिए क्या?" उसने पूछा,
"नहीं, बहुत है" मैंने कहा,
"पानी?" उसने पूछा,
"अभी ज़रूरत नहीं" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"और लाऊँ?" वो बोली,
"ले आओ" मैंने कहा,
वो फिर से लपक के बाहर दौड़ी!
"लगता है शहरी लोग पसंद नहीं इसको" वे बोले,
"लगता तो ऐसे ही है" मैंने कहा,
हमने गिलास भरे अपने, कि वो आ गयी, एक और जग ले आई थी पानी का, रख दिया मेज़ पर,
"और कुछ?" उसने पूछा,
"नहीं जी, बस" मैंने कहा,
"ठीक है, मैं बर्तन बाद में ले जाउंगी" वो बोली,
"ठीक है" मैंने कहा,
चली गयी वो! बहुत जल्दी में रहती थी! तेज ही बोलती थी और तेज ही काम भी करती थी! तेजी से बहुत प्यार था उसको! नाम भी ज्योति था! ज्योत की तरह से चटकदार थी!
हमने फिर से अपना कार्यक्रम आगे बढ़ाया!
शोरबा गरम हुआ, तो मजा आ गया था!
हमें एक घंटा लगा, दूसरा जग भी खाली कर दिया था! जग बड़ा भी नहीं था, मुश्किल से ही एक लीटर पानी आये तो आये! बर्तन रख दिए एक तरफ! ताकि वो आये और आराम से ले जाए! और हम अब बैठ गए अपने बिस्तर पर! थकावट थी, लेकिन थकावट हरने वाली बूटी आज रात अपना काम करने वाली थी! सुबह ताज़ा ही उठना था!
कोई दस मिनट के बाद वो आई अंदर,
"हो गया?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
उसने बर्तन उठाने शुरू किये,
"खाना?" उसने पूछा,
"भिजवा दो" मैंने कहा,
कुछ न बोली वो,
बर्तन उठाये वो निकल गयी!
"कमाल की लड़की है, अधिक बात नहीं करती!" शर्मा जी बोले,
"हाँ" मैंने कहा, और मुस्कुराया,
थोड़ी देर में वो आई!
खाना ले आई थी, बिस्तर पर रखा उसने, हमने आराम से खाना अपने अपने पास रखा, और खाना शुरू किया, वो चली गयी थी, बिना कुछ कहे!
हमने खाना खाना शुरू किया! रोटियां और चावल थे साथ में, दोनों ही खा लिए! बर्तन रख दिए एक जगह अलग, हाथ-मुंह धोये, कुल्ला किया और पकड़ लिया बिस्तर, दरवाज़ा बंद कर लिया था, अब वो आये तो ठीक, न आये तो ठीक! बर्तन अब सुबह ही मिलते!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सुबह हुई!
हम उठे! नहाये-धोये और फारिग हुए!
सुबह सुबह ही बाबा गिरि आ गए थे हमारे पास! नमस्कार हुई, अब आगे का कार्यक्रम तय हुआ, कोई ग्यारह बजे हमें मिलना था बाबा अमली से!
कोई साढ़े आठ बजे वो लड़की आई, नमस्ते हुई और बर्तन ले गयी, चाय ले आई थी, तो हमने चाय पीनी शुरू की, साथ में ब्रेड मिली थी सिकी हुई, वही खायी!
मित्रगण!
फिर बजे ग्यारह!
बाबा गिरि आये हमारे पास! और हम उनके साथ चल पड़े! पहले पहुंचे हम बाबा अमर नाथ के पास, उनकी तबीयत अब पहले से बेहतर थी! अब तरोताज़ा लग रहे थे, नमस्कार हुई उनसे, और अब हम चले उनके साथ बाबा अमली को देखने!
उनका कक्ष उस जगह से काफी दूर था, एक दूर जगह कुछ कक्ष बने थे, ये ऊंचाई पर थे, फलदार वृक्ष लगे थे, शायद लोकाट था वो, आड़ू के भी पेड़ थे वहां! हम चलते रहे उनके साथ और एक जगह आ गए, यहाँ कुछ कक्ष थे, खपरैल से बनी थीं उनकी छतें! बाबा गिरि रुके, तो हम भी रुके,
"आइये" वे बोले,
अब जूते उतारे हमने, सभी ने,
और चल पड़े उनके साथ,
एक जगह रुके, बाहर कुछ महिलायें बैठी थीं, शायद अन्न फटकार रही थीं! कुछ धान साफ़ कर रही थीं, हमें देखा तो सभी उठ गयीं वहाँ से और चली गयीं एक कमरे में,
"वो, वहाँ" बाबा गिरि ने इशारा किया एक तरफ,
वो एक बड़ा सा कक्ष था, पीले रंग से लीपा गया था,
"आओ" बोले वो,
हम चल पड़े, ये एक गलियारा था, वो पार किया, फिर एक और गलियारा आया दायें, वहाँ मुड़े, और अब बाबा अमर नाथ के कक्ष के सामने रुके, हम सभी रुक गए, उस जगह अगरबत्तियां सुलग रही थीं, ख़ुश्बू आ रही थी भीनी भीनी!
"ये है उनका कमरा" बोले बाबा गिरि,
मैं चुप खड़ा था, इंतज़ार में, दर्शन के लिए, बाबा अमली के!
लेकिन कक्ष बंद था अंदर से!
बाबा गिरि ने आवाज़ लगाई, कोई दो बार, अंदर से कोई आ रहा था! तभी दरवाज़ा खुला, बाबा गिरि को देखा उसने तो चरण छुए एक व्यक्ति ने, फिर बाबा अमर नाथ के भी चरण छुए! वो व्यक्ति अंदर ले गया हमने, पता चला ये बाबा अमली के ज्येष्ठ पुत्र हैं!
हम अंदर गए, बीच में एक जगह, छत में जाल लगा था, धूप अंदर आ रही थी वहाँ से, जाल बड़ा तो नहीं था लेकिन धूप के लिए पर्याप्त था! वो व्यक्ति एक जगह रुका, सभी को देखा, उसने, और उसने दरवाज़ा खोला एक छोटे से कक्ष का, और चला गया अंदर, फिर वापिस


   
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श्रीशः उपदंडक
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आया, हमें अंदर ले जाने के लिए! हम अंदर चले! अंदर एक जगह पलंग बिछा था, एक पुराने ज़माने का निवाड़ वाला पलंग! कोई लेटा था उस पर, आसपास, मेज़ रखी थीं, मेज़ों पर शायद देसी दवाइयाँ रखी थीं, या ऐसा ही कुछ था! उस व्यक्ति ने बिठा दिया हमें वहीँ, हम वहीँ, रखी हुई कुर्सियों पर बैठ गए!
अब बाबा गिरि उठे, उस व्यक्ति के पास गए, उस व्यक्ति ने उनकी बात सुनी, उस व्यक्ति ने मुझे देखा, शायद मेरे विषय में बात कर रहे थे वो उस से! फिर बाबा गिरि वापिस आये, बाबा अमली अभी सोये हुए थे, अब हमें करनी थी, उनके जागने की प्रतीक्षा! और कोई विकल्प नहीं था!!

इंतज़ार नहीं हो पा रहा था! क्या करते, करना पड़ा! बाबा अमली तो टस से मस भी न हो रहे थे, एक करवट भी न बदली थी, एक आवाज़ भी न आई थी मुंह से, लगता था जैसे कोई मृत शरीर लिटा रखा हो बिस्तर पर! मुझे बहुत लालसा थी उनसे मिलने की, लेकिन वे जागते तभी कुछ होता, बाबा गिरि ने बताया था कि अब वे बोल भी नहीं पाते, आँखें बंद ही रखा करते हैं, शायद अब सुनाई देना भी बंद हो गया है उनका, कोई हाव-भाव नहीं होता उनको देख कर, अपनी मर्ज़ी से ही बोलते हैं या कुछ कहते हैं, ऐसा लगता है जैसे किसी ध्यान में लगें हों लेटे लेटे, लगता तो ऐसा ही था, और तभी उन्होंने अपना एक घुटना उठाया, वो व्यक्ति दौड़ के उनके पास गया, हम भी झट से खड़े हो गए, उस व्यक्ति ने नीचे झुक कर कुछ कहा बाबा अमली से, और अगले ही पल इशारा कर दिया हमको! हम सभी दौड़ के भागे आगे, मैं उनमे लम्बा था था सबसे, मुझे बाबा अमर नाथ के कंधे के ऊपर से उनका चेहरा देखने का अवसर मिला, बाबा के चेहरे पर वक़्त की झुर्रियां एक पर एक चढ़ी थीं, दाढ़ी सारी सफ़ेद थी, उनमे लटें पड़ चुकी थीं, सर उनका गंजा था, वक़्त के साथ उनके सभी बाल उड़ चुके थे, बस गर्दन के पीछे कुछ बाल शेष थे, वो भी सफ़ेद रुई की तरह! बाबा ने आँखें बंद कर रखी थीं, चेहरा बहुत कृशकाय था, चेहरे की हड्डियां साफ़ दिखाई दे रही थीं, कनपटियों का मांस अंदर घुस चुका था, देखने पर बस इतना पता चलता था कि जैसे किसी नर-मुंड पर इंसानी खाल का मुलम्मा चढ़ा दिया हो! उनकी पूरी देह का वजन पैंतीस किलो से अधिक नहीं होगा, हाँ, उनकी लम्बाई आदि को देखकर ये अवश्य ही पता चलता था कि अपनी जवानी में वो बेहद तंदुरुस्त, हृष्ट-पुष्ट और मज़बूत रहे होंगे! मेरे सामने उस युग्मा का एक प्रबल और महान साधका आज बेबस पड़ा था! मौत का इंतज़ार करता हुआ एक महान साधक! अपने जीवन से लड़ रहा था! कैसी विडंबना थी ये अजीब ही! जहाना मेरे मन में उनके लिए आदर उमड़ा, वहीँ दया का कुण्ड भी भर गया, हालांकि मैं तो उन बाबा अमली के पाँव के एक अंगूठे के बराबर की धूल भी नहीं था, इसीलिए वहीँ निर्णय कर लिया कि मैं यथासम्भव प्रयास करूँगा कि बाबा को मुक्ति मिल जाए इस संसार से, कट जाए वो डोर जिसके कारण युग्मा का वो साधक आजतक लम्बी आयु भोगने के श्राप से में बंधा था! बस! इतना ही समय मिला बाबा अमली को देखने का, उनसे नज़रें नहीं मिलीं, इसका अफ़सोस रहा मुझे, उसके बाद हम वापिस हुए, बाबा गिरि ने मुझे बताया कि वो बाद में आएंगे मेरे पास बात करने, और तब मैं और शर्मा जी, वापिस अपने कक्ष में लौट आये!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कक्ष में आये तो बैठे, मैंने पानी पिया, शर्मा जी ने भी पिया, मैंने अपने जुराब उतारे और जूतों में घुसेड़ दिए, शर्मा जी अपने जुराब उतार रहे थे, उन्होंने भी अपने जुराब जूतों में घुसेड़ दिए, और पाँव ऊपर करके बैठ गए!
"मुझे तो सौ वर्ष से भी अधिक आयु लगी बाबा की" वे बोले,
"हाँ, मुझे भी" मैंने कहा,
"बेचारे" वे बोले,
"उनको खेमा का ग़म साल रहा है शर्मा जी, आज तक" मैंने कहा,
"हाँ, वो इसलिए कि वो कुछ नहीं कर सके" वे बोले,
"यही कारण है" मैंने कहा,
"जो भी हुआ, बहुत बुरा हुआ" वे बोले,
"हुआ तो बहुत ही बुरा" मैंने कहा,
अब शर्मा जी ने बीड़ी निकाली, मुझसे पूछा, मैंने मना किया, सो अपने लिए लगा ली उन्होंने,
"लेकिन एक बात तो बताइये?" वे बोले,
"पूछो?" मैंने कहा,
"रमास का पेड़?" वे बोले,
उनका मैं आशय समझ गया! उसको तो दो-ढाई वर्ष चाहियें रोपने के लिए! ये बात तो सोची ही नहीं थी! या फिर इसका भी प्रबंध कर रखा था बाबा अमर नाथ और बाबा गिरि ने?
"हाँ, सवाल अच्छा है, वाज़िब है!" मैंने कहा,
"अब बाबा आएं तो ही बताएं" वे बोले,
"हाँ, मैं खुद ही पूछ लूँगा" मैंने कहा,
"क्योंकि दो-ढाई साल तो बहुत लम्बा समय है" वे बोले,
"सही में" मैंने कहा,
तभी हरकिशन आया अंदर, कुछ खाने आदि के लिए पूछा उसने, अभी भूख नहीं थी, तो मना कर दिया, वैसे भी खाने की इच्छा नहीं थी तब,
"देख लो, एक ऐसा साधक जो विरला है, उसका हाल!" वे बोले,
"सच कहा" मैंने कहा,
"ये प्रेम-मोह यही है असली बंधन" वे बोले,
"हाँ, ऐसे नहीं टूट पाते ये" मैंने कहा,
कुछ देर अपने अपने ढंग से सोचते रहे हम!
मैं उठा फिर, चप्पल पहनीं और बाहर चला गया, बाहर का माहौल देखा, धूप खिली हुई थी, तितलियाँ आदि अपने अपने काम पर लगी थीं! महिलायें भी पानी भर रही थीं, कुछ वहीँ कपड़े धो रही थीं, कुछ अन्य कामों में लगी थीं, कुछ पुरुष भी अपने अपने कामों में लगे थे, दूर एक जगह गाय-भैंस बंधी थीं, बकरियां और उनके बच्चे भी वहीँ उछलकूद मचा रहे थे! ठेठे देहाती माहौल था, और ये सब देखकर लगता था कि वो डेरा जैसे अपना रूप खो चुका है, अब वहाँ कोई क्रियाएँ आदि नहीं होतीं, वो डेरा अब गए वक़्त का ही प्रतीक है, न जाने कब से


   
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श्रीशः उपदंडक
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ऐसे ही सोया पड़ा है! इन वर्षों में किसी ने नहीं जगाया है उसको! दूर एक जगह एक बाड़ा सा बना था, वहां बड़े बड़े पीपल के पेड़ लगे थे, उन्ही पेड़ों के बीच में एक स्थान और था, अब उसकी छत नहीं बची थी, मात्र दीवारें ही थीं, कुछ लोहे के जंग लगे गार्टर वहीँ पड़े थे, अभी मैं देख ही रहा था कि मेरे कंधे पर किसी ने हाथ रखा, ये शर्मा जी थे, वे भी बाहर आ गए थे,
"क्या देख रहे हो आप?" बोले वो,
"वो सामने" मैंने इशारा किया,
"उन पेड़ों को?" वे बोले,
"हाँ, उनके नीचे" मैंने कहा,
"हाँ, कुछ बना हुआ है" वे बोले,
"आओ" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
हम चल पड़े वहीँ के लिए,
वहाँ पहुंचे,
मैंने गौर से देखा, ये तो एक क्रिया-स्थल था! जो अब वीरान पड़ा था! मिट्टी जम चुकी थी, जंगली पेड़-पौधे और झाड़ियाँ ही थीं हर तरफ! और कुछ नहीं! बस दीवारें ही शेष थीं, उन दीवारों में भी पीपल के पौधे सेंध लगा चुके थे!
"ये क्रिया-स्थल है बाबा अमली का!" मैंने हाथ जोड़े!
उन्होंने भी हाथ जोड़े!
"क्या हाल हो गया" वे बोले,
"बाबा अमली की तरह से मृत है!" मैंने कहा,
"निःसंदेह" वे बोले,
हमने उसके आसपास देखा, सारा स्थान खाली था, कोई नहीं आता था यहां अब!
'एक समय सोचो, कैसा रहा होगा!" मैंने कहा,
"मसान नाचता होगा यहां!" वे बोले,
"सच में!" मैंने कहा,
"बाबा अमली का स्थान कैसा होगा उस समय, अंदाजा नहीं लगाया जा सकता!" वे बोले,
"हाँ, वैसे साधक का अंदाजा लगाना असम्भव ही है" मैंने कहा,
तभी पीपल के पेड़ पर बैठी कोयल बोली! बहुत मधुर थी उसको बोली!
फिर कुछ अन्य पक्षी भी! सभी अपनी अपनी भाषा बोल रहे थे!
कुछ अन्य पेड़ भी लगे थे वहां, जिन पर फल आये हुए थे, जंगली फल, कुछ लोकाट के भी थे, मैं आगे गया, एक शाख पकड़ी और उसके झुकाया, एक गुच्छा तोड़ लिया लोकाट का, पका सा! और छोड़ दी शाख, शाक्ष छोड़ी तो उस पर जमा पानी भिगो गया मुझे! मैंने रुमाल से अपना चेहरा साफ़ किया, हाथ भी!
"ये लो" मैंने उनको दिया वो गुच्छा,
"लोकाट?" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ" मैंने कहा,
"धो लेते हैं इन्हे" वे बोले,
और अब हम वापिस चले वहाँ से, अपने कमरे की तरफ...

हम सीधा कमरे में ही आये, जग में से पानी लिया और वो लोकाट साफ़ कर लिए, उन पर मिट्टी जमी थी, और मकड़ी के जाले के तार भी थे, पानी से साफ़ किये तो साफ़ हो गए! अब दांत से छीलने लगे उनके छिलके, और उनके बीज निकला कर, अब खाए! कुछ तो बहुत मीठे थे, इतने मीठे कि हाथ भी चिपक जाएँ, और कुछ खट्टे-मीठे थे! लेकिन थे वो भी बहुत बढ़िया! कम से कम आधा किलो रहे होंगे वो! हम सारे ही खा गए! अब बीज इकठ्ठा हो गए वहाँ! बहुत सारे! तो अब वो अखबार में इकट्ठे कर, बाहर फेंक दिए कूड़े में! यहाँ के लोग लोकाट नहीं खाते शायद, ऊब गए हैं! और शहरों में ये लोकाट डेढ़ सौ रुपये किलो तक बिक जाता है! स्वाद भी बढ़िया होता है इनका! हाथ धो लिए थे, अब मैंने हाथ धोये तो मुंह भी धो लिया, उस पेड़ की पत्तियों पर जमा पानी गिरा था मुंह पर! धोकर वापिस आया और तौलिया वहीँ एक खूँटी पर टांग दिया, और बैठ गया!
"कैसे मीठे थे!" बोले शर्मा जी!
"हाँ, मजा आ गया!" मैंने कहा,
तभी बाबा गिरि आ गए अंदर! हम दोनों खड़े हो गए, शर्मा जी ने कुर्सी छोड़ी तो उन्होंने बिस्तर पर बैठना ही ठीक समझा और शर्मा जी को वहीँ बैठे रहने दिया!
नमस्कार हुई! बाबा अमर नाथ की तबीयत के बारे में पूछा, अब तबीयत ठीक थी उनकी!
"देखा आपने बाबा अमली को?" बोले वो,
"हाँ" मैंने कहा,
"हालत देखी?" बोले वो,
"हाँ" मैंने कहा,
"न जीते में न मरे में" वे बोले,
"सच बात कही आपने" मैंने कहा,
"यही प्रयोजन था हमारा आपको बुलाने का" वे बोले,
"लेकिन मैं ही क्यों?" मैंने पूछा,
"बाबा मर नाथ को बताया था श्री श्री श्री ने" वे बोले,
अच्छा! अब समझा मैं सारा माज़रा!
"मुझे तो बताया ही नहीं उन्होंने?" मैंने पूछा,
"बात अमर नाथ बाबा को ही करनी थी, इसीलिए नहीं बताया होगा, आखिर, आपकी इच्छा भी तो आवश्यक है" वे बोले,
सच कहा, यदि मेरी इच्छा न हो, तो कोई ज़बरदस्ती नहीं है, थोपा नहीं जा सकता, ये एक अकाट्य नियम है तंत्र में!
"उस समय आप गोरखपुर में थे, बाबा अमर नाथ मिलना चाहते थे, लेकिन आप निकल आये वहां से, तब पता किया तो आप दिल्ली जा रहे थे, आपको खबर सोम नाथ ने दी होगी?" पूछा


   
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श्रीशः उपदंडक
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उन्होंने,
"हाँ, वो उज्जैन जा रहे थे उन दिनों" मैंने कहा,
"उनको मैंने ही कहा था कि आपको खबर करें" वे बोले,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"फिर आपसे बात हुई थी मेरी, आपने कहा था कि एक माह के बाद आपका आना होगा उस तरफ, इसीलिए मैंने आपको पीलीभीत बुलाया था, और जब आपने कहा कि आप आ रहे हैं, तो बाबा अमर नाथ को भी खबर कर दी गयी थी" वे बोले,
"समझ गया" मैंने कहा,
अब मुझे सब समझ आ गया था कि सारी कहानी कहाँ से बुनी गयी थी! मेरे को खबर करना, अत्यंत आवश्य कार्य बताना, बाबा गिरि का मुझे बुलाया जाना, बाबा अमर नाथ से बात करवाना, और मेरा पीलीभीत जाना, सब समझ आ गया था अब!
"अब सब आपके सामने खुली किताब है, अब आपको निर्णय करना है" वे बोले,
"निर्णय हो चुका है, मैं ये कार्य करूँगा" मैंने कहा,
वे प्रसन्न हो गए!
बहुत प्रसन्न!
उनके चेहरे के भाव बता रहे थे उनकी प्रसन्नता के बारे में!
"लेकिन एक प्रश्न और है" मैंने कहा,
"पूछो" वे बोले,
"रमास का पेड़?" मैंने पूछा,
"वो तैयार है, पीलीभीत में!" वे बोले, हँसते हुए मंद मंद!
पूरा प्रबंध था वहां!
"हमने रूप दिया था वो पौधा, आज भी वहीँ है, अब तो बढ़िया सा पेड़ बन चुका है!" वे बोले!
"तब ठीक है" मैंने कहा,
वे खड़े हुए, और चले गए बाहर!
"मुझे अंदाजा था यही!" शर्मा जी बोले,
"सही अंदाजा था!" मैंने कहा,
मित्रगण!
मैं तैयार तो था वो क्रिया करने के लिए, लेकिन अब बहुत बड़ी परीक्षा बाकी थी! मुझे सभी विद्याएँ जागृत करनी थीं, मत्र स्थापित करने थे, विद्याओं का संधान करना था! शारीरिक-बल हेतु क्रियाएँ करनी थीं और अन्य ऐसी तंत्र क्रियाएँ, जो अत्यंत महत्त्व रखती थीं!
और अब इस विषय में बाबा गिरि ही मुझे अधिक बता सकते थे! लेकिन एक बात तो तय थी, हमें फिर से पीलीभीत जाना था, वो भयानक यात्रा दोबारा करके!
शाम घिर गयी थी! अँधेरा छा चुका था! और अब हुड़क लगी थी बहुत करारी! ऐसी करारी कि बता नहीं सकता मैं!
"अरे शर्मा जी?" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ जी?" बोले वो,
कुछ पढ़ रहे थे अखबार में! चश्मे से नज़रें ढुलकाये हुए मुझे देखा,
"यार शाम हो गयी!" मैंने कहा,
"हाँ! अभी करता हूँ इंतज़ाम!" वे उठे और चले गए बाहर!
इंतज़ाम अर्थात, अब दिल्ली वाला कड़वा-पानी तो था नहीं पास में, सारी डकोस ली थी हमने! अब या तो यहां से मिले या फिर कोई अन्य जुगाड़ हो! इसीलिए गए थे इंतज़ाम करने!
कोई बीस मिनट बाद आये वो!
हाथ में एक बोतल थी उनके!
"कौन सी है?" मैंने पूछा,
"ग्रीन लेबल" वे बोले,
रूह काँप गयी सुन कर!
लेकिन कोई जुगाड़ था नहीं, और इसी से काम चलाना था! क्या करते!
"और सामान?" मैंने पूछा,
"आ रहा है" बोले वो,
और बैठ गए,
कोई दस मिनट के बाद हरकिशन आया वहां, सामान देने, सामान रखा उसने! पानी भी रखा और गिलास भी! सामान में सलाद थी! प्याज, खीरे, चुकंदर और गाजर! और दूसरे बर्तन में, भुना हुआ मांस था मुर्गे का, सींक-कबाब जैसा! अब न जाने कैसा सेका होगा उन्होंने!
खैर!
"कुछ और चाहिए?" पूछा उसने,
"नहीं, ज़रूरत पड़ेगी तो कह देंगे" मैंने कहा,
"ठीक है" वो बोला, और चला गया!
आज तूफ़ान मेल नहीं आई थी! सुबह से नहीं दिखी थी! कल शायद था नहीं हरकिशन तो ज़िम्मा उसके हाथ में रहा होगा!
"करो शुरू" मैंने कहा,
अब उन्होंने गिलास भरे, एक मुझे दिया,
मैंने स्थान-भोग दिया और एक भुना हुआ टुकड़ा उठाया! जैसे ही खाया, आत्मा प्रसन्न हो गयी! क्या लाजवाब सेंका था जिसने भी सेंका हो! बहुत स्वादिष्ट! कोई जवाब नहीं! चटनी लगा के ही सेंक दिया था शायद! स्वाद बहुत तीखा और ज़ायकेदार था!
तो हम हो गए शुरू!!

"ये खा के देखो ज़रा!" मैंने एक टुकड़ा देते हुए कहा शर्मा जी को!
उन्होंने खाया, और मुंह बना गए!
"अबे क्या मिर्च के तेल में भूना है?" वे बोले!
मुझे हंसी आई!
"तेज है मिर्च?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बहुत तेज! वो भी देगी सी!" वे बोले,
जल्दी से पानी के घूँट खींच गए वो!
"आप ही खाओ ये! नहीं तो सुबह धुआं निकल जाएगा!" वे बोले!
मैं फिर से हंसा!
खैर, वो बचा हुआ टुकड़ा मैंने खा लिया!
मिर्च वाक़ई में तेज थीं उसमे! लगता था कि मसाला बनाते समय सिर्फ लाल और हरी मिर्च और साथ में बस नमक ही लगाया गया है! स्वाद बहुत तीखा था उनका!
मैं वो सलाद नहीं खा रहा था अब! अब शर्मा जी ही सलाद खा रहे थे! इस शराब का स्वाद ऐसा था जैसे कड़वा सिरका! गले में उतरती तो कोहराम सा मचा देती थी!
हमने किसी तरह से आधी बोतल निबटायी! डकार आती तो लगता सारा खाया-पिया बाहर आने को है! ऐसी भयानक बदबू थी उस शराब में! साथ में तीखा मसाला था, बच गए थे उसी से! अब शर्मा जी तो खिलाड़ी रहे हैं! वो तो सट्ट से खींच जाते हैं! स्कॉच पसंद है बहुत उन्हें! मुझे क़तई नहीं!
तभी बाबा गिरि आये घूमते घूमते वहां!
बैठे वहीँ!
"आओ बाबा, बनाऊं?" मैंने गिलास उठाते हुए कहा,
"नहीं नहीं! आप ओ" वे बोले,
"हम तो ले ही रहे हैं, लेकिन ये मदिरा बहुत खराब है!" मैंने कहा,
"क्यों?" वे बोले,
"बदबूदार है" मैंने कहा,
उन्होंने बोतल उठायी! देखा,
"अरे.....किसने दी ये?" पूछा उन्होंने,
"हरकिशन ने, शर्मा जी लाये थे" मैंने कहा,
"आओ मेरे साथ शर्मा जी" वो बोले, बोतल उठाते हुए और खड़े हुए,
शर्मा जी उठे, और चले गए!
और जब वे आये, तो दो बोतल ले आये थे! बढ़िया शराब! अब आया था मजा! दोनों ही बोतल नयी थीं!
"ये पहले क्यों नहीं दीं उसने?" मैंने पूछा,
"तब हरकिशन नहीं था वहाँ" शर्मा जी बोले,
'अच्छा!" मैंने कहा,
"हाँ, बाबा अब?" मैंने कहा,
"चलो बना लो" बोले वो,
अब बनाया उनका गिलास, और दे दिया,
इस तरह कुल चार गिलास पिए उन्होंने! और फिर चले गए!
"अब आया मजा!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ!" वे बोले!
तो हम कोई नौ बजे हुए फारिग! नौ बजे के बाद ही खाने के लिए कहा गया था! बस थोड़ी ही देर में, खाना भी आ गया, हमने खाना खाया, और हाथ-मुंह धो, हमने पलंग पकड़ा फिर! सो गए थे!
सुबह हुई!
हम उठे! फारिग हुए, स्नान आदि किया, चाय नाश्ता किया! और फिर तहकने निकल पड़े! रास्ते में ही वो तूफ़ान मेल टकरा गयी! आ रही थी तेज तेज! सामने आई तो नमस्ते की उसने, और झटके स एनिकल गयी पीछे!
"ये तो सच में ही तूफ़ान मेल है!" बोले वो!
मैं हंस पड़ा!
हम चले गए आगे घूमने! वहीँ जा पहुंचे, उसी पुराने उजाड़ क्रिया-स्थल पर! कुछ देर वहीँ ठहरे, और कुछ और पके हुए लोकाट तोड़ लिए! ले आये, कमरे में साफ़ किये और खाते गए उनको!
तभी बाबा गिरि आये! नमस्ते हुई! बैठे वो!
"आज निकल रहे हैं हम" बोले वो!
"बढ़िया है!" मैंने कहा,
"तो तैयार हो जाओ, भोजन करते ही निकल जाएंगे" वे बोले,
"ज़रूर" मैंने कहा,
भोजन किया कोई आधे घंटे के बाद, सारा सामान बाँधा और जब बाबा आये तो हम निकल लिए वहाँ से, बाबा ने बाबा अमली के पुत्र से कुछ बातें कर ली थीं! और जाने से पहले वो मुझसे भी मिले थे! हाथ जोड़कर, नमस्ते भी हुई थी!
तो इस तरह हम वहाँ से कुछ करने वाले थे! बाहर आये तो सवारी के लिए इंतज़ार किया! टॉफ़ान मेल यार्ड में ही रह गयी थी, नज़र नहीं आई थी सुबह के बाद! खैर, सवारी पकड़ी, और पहुंचे बस अड्डे! और इस बार एक सही सी बस ले ली! कम से कम बैठ कर टांगें तो न टूटें! बस चली, सवारी भरी पड़ी थीं उसमे! उनका सामान उसने कहीं ज़्यादा था! कभी हमारे कंधों पर लगता, कभी सर पर! लेकिन दो ढाई घंटे की बात थी, काटना ही था रास्ता!
और इस तरह हम पहुँच गए पिलीभी कोई तीन घंटों में! बाहर निकले, चाय पी, और फिर पकड़ ली सवारी, और उस देह की परीक्षा लेने वाले रास्ते को भी पार कर लिया! आखिर में, हम बाबा गिरि के स्थान में पहुँच गए!
वहाँ पहुंचे तो आराम किया फिर! बैग आदि संभाल के रखे हमने, और फिर स्नान किया! चाय आ गयी! वासदेव ही लाया था चाय! वो खुश था कि हम वापिस आये थे!
रात को वही सब कार्यक्रम हुआ! बढ़िया निबट गया! बाबा गिरि से भी बातें हुईं! और शेष बातें अब सुबह होनी थीं! तो हम उस रात आराम से सोये!
अगले दिन कोई ग्यारह बजे, बाबा गिरि मेरे पास आये, मुझे ले गए एक जगह एक अलग ही स्थान पर, वो उनका क्रिया-स्थल था! बहुत सुंदर था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ये है वो" बोले वो,
"बहुत बढ़िया!" मैंने कहा!
"अब पांच दिन आपका ही है ये" वे बोले,
"जानता हूँ" मैंने कहा,
मैं अंदर गया! बहुत बढ़िया बना था वो क्रिया-स्थल! बाबा भी अंदर आ गए थे!
"मैं आज ही साफ़-सफाई करवा देता हूँ" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"अपने हिसाब से तैयार कर लो" वे बोले,
"ज़रूर" मैंने कहा,
"सामग्री उस कोठरी में है" वे बोले,
"ठीक" मैंने उसे देखते हुए कहा, उस कोठरी को, छोटी सी कोठरी थी वो,
''और आभूषण वहां हैं" वे बोले,
"मेरे पास हैं अपने" मैंने कहा,
"बेहतर है" वे बोले,
मैं बाहर आया फिर, वे भी आ गए, कुण्डी लगा दी!
"और हाँ, कल आ जायेगी साध्वी" वे बोले,
"ठीक है" मैंने कहा,
साध्वी की आवश्यकता थी! ये एक गूढ़ क्रिया है!
वो जो समझाना चाहते थे, मैं समझ गया था! अब हम वापिस हुए!
"ये स्थान मेरे गुरु का था पहले" वे बोले,
"अच्छा, क्या नाम था उनका?" मैंने पूछा,
"सुक्खन नाथ" वे बोले,
नाम नहीं सुना था मैंने! बहुत पहले की बात रही होगी!
हम आ गए वापिस! वो अपने कक्ष में और मैं अपने कक्ष में!

उस रात हमने वो संग लायी हुई मदिरा भी उड़ा डाली! मदिरा का सर्व-हरण करने में हम कभी नहीं चूकते! और चूकना भी नहीं चाहिए! बाबा गिरि ने भी हमारे साथ दो-चार पैग ले लिए थे, उनका वैसे सारा कार्यक्रम बाबा अमर नाथ के संग ही होता था! तो हम, रात को ओये आराम से, और सुकून से सुबह उठ भी गए! नहाये-धोये, चाय-नाश्ता किया, टहल भी आये! इसमें करीब आठ साढ़े आठ बज चुके थे! उसके बाद हमने आराम किया, शर्मा जी अकेले टहलने गए थे और साथ में लोकाट ले आये थे! दरअसल लोकाट पेट के लिए बहुत फायदेमंद हुआ करता है, लोकाट के बीजों को सुखाकर, उनका चूर्ण बना लें तो कब्ज़ और पेट की सभी बीमारियों का नाश किया करता है! और फल के रूप में खाओ तो भी पेट के लिए औषधि का काम करता है! जब से शर्मा जी ने लोकाट खाए थे तब से उनका पेट साफ़ और बढ़िया हो गया था! इसीलिए लाने गए थे! मैं उस समय लेट कर आराम कर रहा था! तभी वे ले आये एक बड़ा सा गुच्छा! उसको साफ़ करने के लिए गुसलखाने गए, और एक एक करके साफ़ कर


   
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श्रीशः उपदंडक
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लिए! और ले आये मेरे पास!
"लो जी" वे बोले,
"आप खाओ" मैंने कहा,
"खाओ तो सही?" वे बोले,
"आप खाओ" मैंने कहा,
"नहीं खाएंगे?" पूछा उन्होंने,
"खा लूँगा" मैंने कहा,
"तो उठिए फिर" बोले वो,
आखिर उठना पड़ा,
"लाओ" मैंने कहा,
"लो" मुझे देते हुए बोले,
मैंने फल छीले और खाने लगा! वाक़ई में बहुत मीठे चुन कर लाये थे! हम खाते रहे जब तक खत्म नहीं हो गए! जब खत्म हुए तो हाथ-मुंह धोने चले हम! वापिस आये तो बाबा गिरि मिले हमें वहीँ कमरे में! नमस्कार हुई!
"आइए मेरे साथ" बोले वो,
"चलिए" मैंने कहा,
और चला बाहर उनके साथ,
वे मुझे एक तरफ दूसरे स्थान की तरफ ले चले, मैं चलता रहा, हम पहुँच गए, तो वहां एक महिला खड़ी थी, एक कमरे के बाहर, कोई पचास-पचपन की रही होगी, उसने नमस्कार की, तो मैंने भी की,
"अंदर आओ" वे बोले,
मैं अंदर चला,
अंदर आया तो एक लड़की बैठी थी वहां, शायद यही थी वो साध्वी, जिसका ज़िक्र कल किया था बाबा ने!
"ये है रचना" बोले बाबा,
उसने नमस्कार किया, मैंने उत्तर दिया,
मैं बैठ गया था वहाँ कुर्सी पर, अब स्पष्ट था वो महिला या तो कोई पूर्व-साध्वी थी, अथवा इस लड़की की माँ,
"रचना" मैंने कहा,
उसने मुझे देखा, शर्मा कर निगाहें नीचे कर लीं उसने, मैं समझ गया, ये शायद पहली बार ही किसी क्रिया में बैठने आई है, और ये मेरे लिए सही नहीं था, ये मेरे लिए समस्या बन सकती थी! मैंने उस से अकेले में बात करने की कही, तो बाबा मान गए, वो उस महिला को लेकर बाहर चले गए, हालांकि उस महिला को ऐसा करना ठीक नहीं लगा था, उसके हाव-भाव ऐसे ही थे! वे चले गए बाहर, तो मैंने उस लड़की से बात करने की सोची!
"रचना नाम है तुम्हारा?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जी" वो घबरा के बोली,
"पढ़ाई-लिखाई नहीं की?" मैंने पूछा,
""आठ तक पढ़ी हूँ" वो बोली,
बेचारी....ऐसी बहुत हैं साध्वियां, साध्वियां ही कहूँगा, जो गरीबी के कारण ये मार्ग चुन लिया करती हैं, शोषण करना तो भारत देश में बहुत सरल है! लेकिन किसी को सहायता कर उसे सबल बनाना बहुत मुश्किल! ये भी अछूती नहीं थी!
"कभी पहले बैठी हो साधना में?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोली,
उत्तर मेरी आशा के विपरीत थे उसका!
"कौन सी क्रिया?" मैंने पूछा,
अब उसने जो बताया, वो मात्र सशक्तिकरण था, और उसमे वो सफल भी नहीं हो पायी थी, बाबा उसको मात्र इसलिए लाये थे, की मैं अपना काम-मद दूर कर सकूँ, बहु-स्खलित हो सकूँ, ताकि देह में काम अपनमी अगन भड़का न सके! क्योंकि आगामी क्रिया एक महा-क्रिया थी! और ऐसा होना, सम्भव था! मुझे उस लड़की पर तरस आया!
"कितनी उम्र है तुम्हारी?" मैंने पूछा,
"बाइस" वो बोली,
केवल बाइस! और इस छोटी सी उम्र में, उसको यहां धकेल दिया गया था! ये गलत था बहुत, कम से कम मेरी समझ में तो!
"तुम अपने घर जाओ रचना, और हो सके तो इन कामों से दूर रहो, सम्भव हो तो पढ़ाई ज़ारी रखो कैसे भी, पुनः पढ़ाई करो, अभी कोई देर नहीं हुई है, अपने पांवों पर खड़ी हो जाओगी एक दिन, तब अफ़सोस नहीं होगा इस क्षेत्र में आने का! " मैंने कहा, और उठ गया,
"रुकिए" वो खड़े होते हुए बोली,
मैं रुक गया!
"कहो?" मैंने कहा,
"माँ को पैसे की ज़रूरत है" वो बोली,
"मैं बाबा से बात करूँगा" मैंने कहा,
और आ गया बाहर,
बाहर आया तो बाबा और वो महिला बतिया रहे थे!
"सही है?" बाबा ने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
मैंने नहीं कहा, तो उस औरत को जैसे सांप सूंघा! अब उसके वो 'एडवांस' वापिस देना होगा जो शायद उसने खर्च कर दिया हो!
"ठीक है, ले जाओ उस लड़की को" बाबा बोले उस औरत से,
औरत सकपकाई सी अंदर गयी, थोड़ी देर अंदर ही रही, शायद पूछ-ताछ की हो उसने रचना से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"चलो बाबा" मैंने कहा,
"अभी चलता हूँ" वे बोले,
इतने में वो लड़की और उसकी माँ आये वहाँ, नमस्ते की, और चलते बनीं!
"आओ" मैंने कहा,
"रुको" वे बोले,
और जब वो औरतें चली गयीं तो मुझसे सवाल किया उन्होंने!
"क्या हुआ?" पूछा उन्होंने!
"बहुत कच्ची है" मैंने कहा,
"कैसे?" बोले वो,
"कोई अनुभव नहीं है" मैंने कहा,
"अच्छा...ओह" वे बोले,
"उसकी माँ ने शायद अधिक ही बताया हो आपको" मैंने कहा,
"हाँ, यही बात है" वे बोले,
अब मैंने बाबा को उस लड़की की हर सम्भव मदद करने को कहा, मैं भी करूँगा, ये भी कहा, बाबा ने बाद में बात करने को कहा इस विषय पर!
"चलो, एक दूसरी से बात करता हूँ" वे बोले,
"ठीक है" मैंने कहा,
और अब मैं वापिस चला!
अपने कमरे में आया!
"क्या रहा?" पूछा शर्मा जी ने!
अब सारी बात बतायी मैंने उन्हें! उन्हें भी मेरा निर्णय सही ही लगा!
कोई दो घंटे के बाद, मुझे बाबा गिरि का समाचार मिला, मुझे बुलाया था उसी जगह, मैं समझ गया कि कोई और साध्वी आई है, मैं चल पड़ा!
वहां पहुंचा,
कमरे में झाँका, तो एक महिला थी, एक लड़की और बाबा वहाँ!
मैं अंदर जा बैठा! फिर से अकेले में बात करने को कहा, वो मान गए! चले गए बाहर!
अब मैं उस से मुख़ातिब हुआ,
"क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने पूछा,
"भार्गवी" वो बोली,
नाम तो बहुत शानदार था उसका!
"उम्र क्या है?" मैंने पूछा,
"पच्चीस में चल रही हूँ" वो बोली,
उसके उत्तर देने के ढंग से समझ आया कि ये अनुभवी है!
"किसी क्रिया में बैठी हो?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोली,


   
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