वर्ष २०१२ पीलीभीत क...
 
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वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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कई लोग भागे आ रहे थे, जैसे सभी अपनी अपनी जान बचाने के लिए भाग रहे हों! वो ठिठक कर एक तरफ खड़ा हो गया, उसे कुछ समझ नहीं आया, और जब आया तो देर हो चुकी थी, एक सांड भागा आ रहा था उस पुल पर, उसने बुग्घी तोड़ डाली थी और कुछ लोगों को घायल भी किया था, जो लोग बचे थे, वो वापिस भाग रहे थे, कुछ ने उसको भी कहा, वो इस से पहले समझता, उसको एक टक्कर पड़ी छाती में, वो बेचारा उस बहती नदी में जा गिरा, कुछ न बोल सका, और बह गया, नहर कि बीचोंबीच, तैरना आता नहीं था, चीख सकता नहीं था, छाती की पसलियां टूट चुकी थीं उसकी..............." वे इतना बोल, चुप हो गए....
चुप तो मैं भी हो गया,
कुर्सी से कमर टिका ली,
शर्मा जी ने लम्बी सांस छोड़ी,
और मैं उस पुल पर जा पहुंचा अपने ख़याल में!!
वो कुछ नहीं बोल सका था, घायल था बुरी तरह से, बेचारा, लाचार खेमा.......
एक लम्बी शान्ति छा गयी वहां, जैसे मौन-व्रत धारण कर लिया हो सभी ने, जैसे उस खेमा की आत्मा कि शान्ति के लिए, कोई होम चल रहा हो.....
बहुत बुरा!
सच में बहुत बुरा हुआ था उसके साथ!
मैं तो सोच कर ही सिहर गया था!
आखिर में वो चुप्पी मैंने ही तोड़ी.....
"किसी ने बचाया नहीं उसे?" मैंने पूछा,
"नहीं, कोई हिम्मत वाला नहीं था वहाँ, सब अपनी जान बचाने के लिए भाग रहे थे, किसी कि नज़र गयी भी हो, तो पता नहीं, बहाव तेज था, कुछ ही पलों के कहाँ से कहाँ पहुँच गया था वो" वे बोले,
"बहुत बुरा हुआ उसके साथ" मैंने कहा,
"हाँ, बहुत बुरा" वे बोले,
तभी बाबा अमली का ध्यान आया मुझे!
"हाँ! वो बाबा अमली?" मैंने कहा,
अब चुप वे फिर से!
मैं उनका मुंह ताकूँ!
कविश ने गिलास भर दिया था, मैं एक ही झटके में खींच गया, आज तो मदिरा भी पानी जैसे लग रही थी मुझे, कोई नशा नहीं था उसमे,
"वो बाबा अमली?" मैंने पूछा,
"छोड़ आये थे वो क्रिया बीच में ही......"वे बोले,
"ओह..........अब समझ गया मैं, सब समझ गया मैं...." मैंने कहा,
और माथे पर दोनों हाथ रखे अपने!
करीब पांच मिनट शान्ति रही,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"उस दिन से, बाबा अमली टिक गए, न जीवन ही जी रहे हैं और न मौत ही आ रही है" बोले बाबा अमर अब,
"मैं समझ गया बाबा" मैंने कहा,
"पोते के प्रेम के कारण, अपना जीवन स्वाहा कर लिया उन्होंने, सब समझ गया मैं" मैंने कहा,
"उस खेमा कि लाश कभी नहीं मिली, बहुत ढूँढा, और इस से बाबा अमली के होंठ सदा के लिए खुलना भूल गए, वो आज भी वैसे है हैं, जिस रोज से वे टिके थे" बाबा अमर बोले,
सच में, बहुत ही दर्दनाक हादसा था ये,
बाबा अमली, आज क्यों इस हालत में हैं, अब समझ आ गया था मुझे!
"इसीलिए आपको बुलाया है हमने" वे बोले,
मैं चुप था...
वहीँ डूबा हुआ था अभी भी, उसी नहर में, जहां खेमा डूबा था....
मैंने बस गर्दन हिलायी अपनी!
कविश ने फिर से गिलास भरा और इस बार भी मैंने खींच लिया एक ही झटके में!
मैं उठा और आया बाहर, दिल भारी था बहुत, कितना लम्बा अरसा बीत गया था वो बोझ अपने कलेजे पर लिए बाबा अमली को, और आज ये हाल?
मैं उठा तो शर्मा जी भी उठ आये थे मेरे साथ, उन्होंने दो बीड़ियाँ सुलागयीं, एक मुझे दी और एक खुद ने ली.....बात कुछ नहीं हुई..बस धुंआ ही छोड़ते रहे हम.....

बीड़ियाँ खत्म हो गयीं, हमने उनकी पूरी जान निकाल ली थी, जितनी जान उनमे थी! जब ख़त्म हो आगयीं, तो फेंक दी बाहर मैदान में!
"बहुत बुरा हुआ बाबा अमली के साथ" बोले शर्मा जी,
"हाँ, बहुत बुरा" मैंने कहा,
"मैंने नहीं सोचा था कि ऐसा कुछ हुआ होगा उन बाबा अमली के साथ" बोले वो,
"मैंने भी नहीं सोचा था" मैंने कहा,
"क्या सोचा होगा बाबा ने और क्या हो गया" वो बोले,
"उनका दुःख बस वही जानते हैं" मैंने कहा,
"सच बात है, हम तो क़यास भर ही लगा सकते हैं" वो बोले,
मैंने गर्दन हिलाकर हाँ कही,
"आइये" वे बोले,
"चलो" मैंने कहा,
हम अंदर चले गए फिर,
आ बैठे अपनी अपनी कुर्सी पर,
हंडे को घेर रखा था कीड़े-मकौड़ों ने, कुछ शहीद हो चुके थे, वे नीचे पड़े थे, अपने हाथ पाँव ऊपर उठाये, कुछ अभी ज़िंदा थे, बस अंत के समय के पहाड़े पढ़ रहे थे, कोई कोई कभी कभार अपना हाथ या पाँव हिला देता था, दीवारों पर रेंगती छिपकलियों की तो दावत हो रही थी आजकल! खूब खाने को मिल रहा था लबालब! छोटे छोटे बच्चे उनके, अब शिकारी बन


   
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श्रीशः उपदंडक
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चुके थे पक्के!
कविश ने गिलास भर दिए थे फिर से, हमने उठाये, और इस बार मैंने आधा ही खींचा, और थोड़ा सा टुकड़ा खाया, चटनी के साथ. शर्मा जी ने खाली कर दिया था अपना गिलास, वे भी अब टुकड़ा उठा, खा रहे थे,
"बाबा अमली की उम्र क्या होगी अब?" मैंने पूछा बाबा गिरि से,
"कोई चौरानवें या पिचानवें बरस" वे बोले,
एक वृद्ध, बाट जोह रहा था मृत्यु की, और मृत्यु कहाँ थी, कुछ पता नहीं था! कैसी दयनीय हालत थी उनकी, वे मुक्त हो जाएँ, यही चाहते थे बाबा अमर नाथ और बाबा गिरि, और अब उनके साथ मैं भी! सच में, मैं भी यही चाटा था कि बाबा इस देह-बंधन और इस संसार से, और अपने उस दुःख से, सदा के लिए पार पा जाएँ, हो जाएँ मुक्त!
अब वो बुज़ुर्ग क्रिया भी नहीं कर सकते थे, शरीर कृशकाय था, बिन सहारे के तो उठ भी नहीं सकते थे, बैठा तो दूर, अपने बिस्तर पर, बस आँखें बंद किये प्रतीक्षा करते होंगे मृत्यु की, और कोई इच्छा शेष नहीं होगी उनमे! ये स्पष्ट था! बिन मांगे मोती मिले और मांगे मिले न भीख!
"आज बारिश में राहत है" बाबा गिरि बोले,
"हाँ, आज नहीं हुई" मैंने कहा,
"अगर कल सही रहे, तो बोलो, चला जाए वहाँ?" पूछा उन्होंने,
अब मैं मना कैसे करता!
"हाँ, चला जाए वहाँ" मैंने कहा,
लेकिन अभी भी एक प्रश्न और शेष था! और वो इस श्रृंखला में अंतिम प्रश्न ही होता! तो मैंने सही समय और क्षण की प्रतीक्षा की!
और वो क्षण आ गया!
बाबा अमर लेट गए थे और बाबा गिरि शर्मा जी से बीड़ी मांग रहे थे!
"बाबा?" मैंने पूछा,
बाबा बीड़ी का धुंआ छोड़ रहे थे!
"बोलो?" बोले वो,
"एक और प्रश्न है" मैंने कहा,
"पूछो" वे बोले,
"क्या बाबा ने, बाबा अमली ने आपसे कहा था कि आप उस तृप्तिका को साधें और उनको मुक्त करें?" मैंने कहा,
सवाल तीखा था! कुछ निजी भी!
लेटे हुए बाबा अमर नाथ उठ बैठे, कविश ने हाथ पकड़ कर उठाया उनको,
"हाँ, उन्होंने ही कहा था" बोले बाबा अमर,
मैं थोड़ा सा चौंक पड़ा था उनका उत्तर सुनकर,
"कब कहा था? मेरा अर्थ, कितने अरसे पहले?" मैंने पूछा,
"कोई चार साल पहले" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अच्छा" मैंने कहा,
अब मैंने अपना गिलास खुद ही बनाया, कहानी में रोचकता का अब चरम आ पहुंचा था! गिलास खाली किया और फिर से प्रश्न किया,
"क्या आपने साधा तृप्तिका को?" मैंने पूछा,
"प्रयास किया" वे बोले,
"प्रयास? मैं समझा नहीं?" मैंने कहा,
"हाँ प्रयास" वे बोले,
"क्या हुआ था?" मैंने पूछा!
अब बाबा ने मुझे एक हैरतअंगेज़ कहानी सुनाई! उनके शब्दों के अनुसार मैं उसको निम्न प्रकार से लिखूंगा!
----बाबा अमली ने, बाबा अमर नाथ और बाबा गिरि को बुला भेजा था, बाबा अमर नाथ और बाबा गिरि, अपने अपने क्षेत्रों के पारंगत औघड़ थे, इसी कारण से ही, वो उनकी समस्या का हरण कर सकते थे! ऐसा बाबा अमली को लगता था! बाबा अमली ने, एक एक क्रिया-विधि उनको बता दी, सबसे पहले तो उन्हें एक रमास का पेड़ लगाना था, जो मात्र रक्त से ही सींचा जाता, रमास, जंगली रमास, उसी का पेड़, उन्होंने एक रमास का पौधा लगाया एक गुप्त-स्थान पर, ये स्थान भी बाबा अमली ने ही बताया था, वो स्थान आज भी गुप्त है, नैनीताल में नहीं है वो स्थान, वो नैनीताल तो बाद में आये थे, उनका पुत्र उन्हें ले आया था उस स्थान से, तो वो पौधा उस स्थान पर रोपा गया, एक बलि-कर्म के उपरान्त, अब इसकी देख-रेख के लिए कुछ सहायक नियुक्त किये गए, उसमे मात्र रक्त से ही रोपन किया जा सकता था, अतः यही किया गया, एक एक सहायक को उसका कार्य बता दिया, तब तक बाबा अमर नाथ और बाबा गिरि, उन विधियों और मंत्रों को कंठस्थ करते रहे! इसमें समय लगा, ऐसी क्रिया उन्होंने कभी नहीं की थी, और किसी चूक की गुंजाइश भी नहीं थी! पौधा बड़ा होने लगा, उसकी देख-रेख होने लगी उचित ढंग से, एक वर्ष बीता, पौधा मज़बूती से संवरने लगा! किसी बालक की तरह से उसका खयाल रखा जाता! इस प्रकार कोई ढाई वर्ष बीत गए, अब वो पौधा, पेड़ का रूप ले चुका था! युग्मा-क्रिया हेतु अब वो तैयार था! बाबा अमर नाथ और बाबा गिरि, हमेशा उसको देखते ही रहते, कुछ दिशा-निर्देश भी देते, इस प्रकार एक चबूतरा भी बनवा लिया गया वहाँ, साथ में ब्रह्म-अलख का स्थान भी, विधियां, मंत्र आदि भी कंठस्थ हो चुके थे दोनों को! और इस तरह बाबा अमली से सलाह-मशविरा हुई, और एक रात्रि से क्रिया आरम्भ करने हेतु, समय भी निश्चित हो गया, एक बाट और, बाबा अमर नाथ को कुछ और भी निर्देश दिए गए थे, उनका सख्ती से पालन करना था, नहीं तो कभी भी प्राण दान करने पड़ते उस युग्मा को, वो भी सहर्ष!
और आ गया वो समय! उस स्थान पर, कुटिया बना लीं गयी थीं! सहायक आदि और बाबा अमर नाथ के संग उनका भांजा कविश सदैव ही बना रहता! और इस प्रकार उस रात्रि से उस युग्मा के साधना आरम्भ की दोनों ही बाबाओं ने मिलकर! प्रत्येक रात्रि एक बलि-कर्म हुआ करता था! इस प्रकार वो क्रिया अपने उत्तरार्ध में आ पहुंची थी, कई रात्रि बीत चुकी थीं, सभी


   
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श्रीशः उपदंडक
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नियमों का पालन किया जा रहा था, जो भी आवश्यक नियम थे! और फिर आई वो निर्णायक रात्रि! जिस रात्रि उस युग्मा को प्रकट होना था! ये दोनों साधक, मुक्ति माँगना चाहते थे बाबा अमली की! बस इतना ही! चूंकि लम्बी आयु प्रदान तो कर ही दी थी उस युग्मा ने उन बाबा अमली को! अब कितनी आयु शेष है, इसका कोई पैमाना नहीं था, बस यही कि कैसे भी करके उनको मुक्ति मिले!
उस रात!!
उस रात वो स्थान जैसे चमचमा गया था! जैसे समस्त तारागण उस स्थान के ऊपर ही एकत्रित हो चले थे! जैसे उनका समूचा प्रकाश एकत्रित हो, उसी स्थान पर, उस पेड़ पर, और उन साधकों पर पड़ रहा था! रात्रि समय एक का समय हुआ होगा! अँधेरा अब अँधेरा शेष नहीं बचा था, अँधेरे को किसी अलौकिक सत्ता के आगमन की बेला ने चीर कर रख दिया था! साधक दम साधे उस बेला का ही इंतज़ार कर रहे थे! वो पेड़ और उसकी सखाकाएँ, सब झूम रही थीं! आज उसे स्वार्णाभूषण प्राप्त जो होने थे! करीब आधा घंटा और बीता, आकाश से श्वेत पुष्पों की बरसात आरम्भ होने लगी!
ठीक वैसे ही, जैसे बताया था बाबा अमली ने!
सुगंध! मादक सुगंध वाले पुष्प नीचे तैरते हुए आ रहे थे! कुछ गोल गोल घूमते हुए! कुछ तीव्र गति से, और कुछ आहिस्ता आहिस्ता! वो स्थान महक उठा! वो पुष्प कौन से थे, नहीं पता चल सका था, बस मधुमालती से से लगते थे! फिर तेज भीनी भीनी सुगंध वाली बयार! ठीक वैसी ही, जैसा बाबा अमली ने बताया था! साधकों के दिल मुंह को आ गए! कलेजा सीने में धधक उठा! उस शीतल माहौल में भी, उन दोनों साधकों की पेशानियों पर, पसीने छलछला आये! यही तो होता है! जब आराध्य का आगमन होता है, तो यही होता है! कभी कभार हृदय-गति भी रुक जाती है कई साधकों की! बहुतों ने ऐसे अपने प्राण गंवाएं हैं! मैं भी साक्षी हूँ इन घटनाओं का!
वही सब इनके साथ हो रहा था, वे मन्त्रों में बंधे थे, लेकिन उनके शरीर प्रकृति में! और प्रकृति अपना मूल कभी नहीं छोड़ती! इसीलिए डर और भय, देह-क्षति और मृत्यु सदैव साधकों के समक्ष नृत्य करते ही रहते हैं! वही सब हो रहा था!
सहसा ही एक दिव्य सुनहरा प्रकाश कौंधा!
साधक सिहर उठे! इस प्रकाश में एक अजीब सा शोर था! सागर की लहरों का सा शोर!
दोनों ही साधक उठ खड़े हुए! अपने दोनों हाथ जोड़े!
आकाश की ओर देखते हुए! जहां से ये प्रकाश कौंध रहा था! प्रकाश में शीतलता थी! ताप नाममात्र को नहीं था! आँखें चुंधिया जाएँ, ऐसा तेज प्रकाश था वो!
वायुप्रवाह तीव्र हो उठा!
वहाँ की मिट्टी उड़ चली, छोटे छोटे कंकड़-पत्थर उड़ने लगे! उनकी देह पर भी लगते! झाड़ियाँ, सूखी लकड़ियों की छालें, सब हवा में उड़ चलीं! लेकिन एक बात विशेष थी! वो पेड़, वो रमास का पेड़, शांत खड़ा था! उसको वायु हिला भी न सकी थी! दोनों ही साधकों ने ये देखा था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और तभी बाबा अमर नाथ ने, वो अंतिम मंत्र पढ़े, जिस से उस युग्मा का स्वागत होना था! लेकिन मन में भय व्याप्त हो चला था दोनों के!
कुछ और पल बीते!
कुछ भयानक से पल!
पुष्प-वर्षा रुक चुकी थी तब तक!
और वे दोनों साधक! शांत खड़े थे! अपना धड़कता दिल लिए!
प्रकाश फिर से कौंधा!
वे फिर से काँप उठे!!!

प्रकाश फैला था, हरा और सुनहरी सा! आकाश जैसे नीचे खिसक आया था उस समय! बाबा अमर नाथ और बाबा गिरि, साँसें थामे इस अलौकिक दृश्य को अपनी आँखों से देख रहे थे! भोग आदि पहले से ही सजा दिए गए थे! अलख भी जैसे प्रतीक्षा में थी! वो एक ओर झुकी हुई, लपलपा रही थी! एक अजीब सा शोर व्याप्त था वहाँ, जैसा कि मैंने पहले लिखा, सागर की लहरों जैसा, लेकिन वे लहरें शांत नहीं, उपद्रवी थीं! ऐसा शोर था, शीतलता ने पाँव पसार रखे थे! पल पल बहुत भारी था काटने के लिए! और फिर ये तो युग्मा थी! वेत्ता और नखाकेशी का संयुक्त रूप! ऐसा रूप जिसकी कल्पना भी नहीं की थे उन दोनों ही साधकों ने! कल्पना तो छोड़िये, कल्पना-चित्रण भी सम्भव नहीं हो सकता था! वो तो बस इतना जानते थे कि वही सब होगा, जैसा बताया था बाबा अमली ने उन्हें!
तभी जैसे जल से भरे गागर छलके! अपने चारों ओर देखा उन्होंने! आवाज़ बहुत स्पष्ट थी! सुगंध अत्यंत ही तीव्र हो उठी थी! ऐसी कि नथुनों में घुसे तो और कोई गंध ही न आये! और अगले ही पल, शान्ति छा गयी! वायु-प्रवाह बंद हो गया! सन्नाटा पसर गया वहाँ! निर्जीवता का राज सा कायम हो गया! प्रतीक जीवित वस्तु अथवा पेड़-पौधे, जैसे सब जड़ हो गए! और प्रकाश की एक सफेद सी रेखा आकाश के मध्य से नीचे भूमि पर, एक चक्र का सा रूप लेने लगी! ये चक्र भूमि से कुछ ऊपर ही था, उस स्थान के मध्य ही, उन दोनों से कोई बारह फ़ीट दूर! ये चक्र प्रकाश के कणों द्वारा बना था, ऐसा लगता था! वे कण ऐसे थे, जो एक दूसरे गुंथे हुए थे! ऐसा दृश्य तो उन साधकों ने कभी नहीं देखा था! और इसी कारण से उनकी साँसें ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे हाँ, वहाँ की प्रत्येक वस्तु प्रकाश में नहायी हुई थी! अचानक से फिर से पुष्प-वर्षा आरम्भ हुई! और वो चक्र अब जैसे पूर्ण हो गया! वो रेखा जैसे उस चक्र को बनाने के लिए पूरी की पूरी उसी चक्र में फ़ना हो गयी थी! उस चक्र का परिमाप करीब दस फ़ीट रहा होगा! रंग में भूरा और पीला सा ये चक्र, अब घूम भी नहीं रहा था, बस झिलमिला रहा था! और अगले ही पल, उस चक्र में, वलय सा प्रकट हुआ और उस वलय में, अब उत्थान सा हुआ! कुछ कण ऊपर से उठे, और लेने लगे घूमते हुए एक आकृति का रूप! वे दोनों साधक मुंह फाड़े, इस सभी अलौकिक दृश्य को देख रहे थे! बाबा अमर नाथ को यहां एक मंत्र बोलना था, बाबा अमर नाथ ने वो मंत्र पढ़ा, और फिर उन्होंने क्या देखा!! देखा, वो आकृति एक स्त्री का रूप लेने लगी! धीरे धीरे, उस स्त्री की काया कोई दस फ़ीट रही होगी कम से कम, जैसा कि बाबा अमर नाथ ने बताया था! और जब वो आकृति पूर्ण हुई, तो उन्होंने


   
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श्रीशः उपदंडक
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जो देखा, वो इस संसार में कहीं नहीं देखा था! वो अप्सरा भी नहीं थी! वो यक्षिणी भी नहीं थी! वो कोई देव कन्या भी नहीं थी और न ही कोई आसुरिक कन्या! वो कोई विशिष्ट ही थी! पुष्ट देह, उन्नत ग्रीवा और वक्ष-स्थल, श्वेत वस्त्रों में जैसे कई अप्सराओं ने सृजन कर एक महा-अप्सरा का रूप लिया हो! ऐसा रूप-श्रृंगार तो उन्होंने कल्पना में भी नहीं सोचा था! बाबा अमली ने सिद्ध किया था उसको! कैसे विलक्षण बाबा रहे होंगे वो अमली बाबा! कैसे विलक्षण! कल्पना से भी परे! शब्द नहीं बाँध सकते थे उस अनुपम सौंदर्य को, उस दैविक सौंदर्य को! ये संसार तो नगण्य था उसके लिए! फिर भी, मंत्र-शक्ति में बंधी वो युग्मा का आगमन हो चुका था! दोनों ही साधकों ने शीश झुकाया! अपने उद्देश्य से बस, कुछ ही पल दूर थे! साधक आगे बढ़े! आगे बढ़ते ही घुटनों पर बैठ गए अपने! हाथ जोड़े, अपनी गर्दनें ऊपर करते हुए, देखते रहे उस युग्मा को! समय जैसे स्थिर हो चुका था! जैसे वो भी, इस विशेष दृश्य को निहारने के लिए स्वयं ही रुक गया था! सबकुछ जैसे बहुत धीमे धीमे हो रहा था! जैसे एक एक करके, मोती खुलते जा रहे थे! मोती, माला से!
मित्रगण! उसके पश्चात जो हुआ, उसका स्पष्टीकरण न तो बाबा अमर नाथ के पास था और न ही बाबा गिरि के पास! बस इतना याद है कि, उस युग्मा ने प्रयोजन पूछा उसके आगमन का, बस, यहीं अटक गए बाबा अमर नाथ! इस समय की उस विशेष लघु-संधि पर, अटक गए थे! आप स्वयं ही समझ सकते हैं कि क्यों! वो बाबा अमली की मुक्ति के लिए ही ये क्रिया कर रहे थे, और जब क्रिया अपने पूर्णावस्था को प्राप्त होने ही वाली थी, बाबा अमर नाथ अटक गए! उनके मन में दो-फाड़ हो गए! और अगले ही पल, वो प्रकाश एक बिंदु ने परिवर्तित हो गया! अब न वहां वो उज्जवल प्रकाश ही था और न ही वो युग्मा! न वो चक्र, और न वो वो बिंदु! घुप्प अँधेरा हो चला था! और अगले ही पल जो हुआ, बस उसी का प्रकाश फैला था! एक तेज धमाके के साथ वो रमास का पेड़, चीथड़े चीथड़े हो गया! क्या तना, क्या शाख, क्या पत्ते, और क्या जड़! सब अग्नि के मुख में समा गए! आग ने सब लीले लिया वहाँ! वे साधक, अपने अपने प्राण बचाने के लिए भाग छूटे वहाँ से! अग्नि के अंगार उनके बदन पर भी गिरे थे, वे भागे तो सामने ही एक तालाब सा था, उसमे पानी था शेष अभी, वे लपक कर कूद गए उस तालाब में! और इस तरह से प्राण बचाये अपने! प्राण बच गए थे, देह सुरक्षित थी! इसी का संतोष था उन्हें!
अब दो-फाड़ मन कैसे हुआ?
क्या सोच लिया था बाबा अमर नाथ ने?
बाबा गिरि ने क्या सोचा?
युग्मा ने क्या भांपा?
अब ये प्रश्न उठ खड़े हुए थे!
लेकिन, इन प्रश्नों के उत्तर स्वयं आप और मैं जानते हैं! सरल हैं! मानव-वृति को ज़ाहिर करते हैं! मानव लाख चाहे, अपनी मनोवृत्तियों को दबा तो सकता है, लेकिन उनका मूल नाश नहीं कर सकता!
लालच!
बाबा अमर नाथ के मन में लालच घुसा! काश, ये युग्मा सिद्ध हो उनसे! काश ऐसा ही हो! ऐसा


   
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श्रीशः उपदंडक
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हुआ, तो बाबा अमली को भी मुक्त करवा ही देंगे वो! उर भांपा क्या युग्मा ने? लालच की गंध! ऐसे कौन सी शक्ति है, जिसे अपने साधक की वृति न पता हो? और फिर, उसका आगमन किसलिए हुआ था? मात्र बाबा अमली के लिए! और हुआ क्या? सब सामने ही था!
बाबा के मन में लालच, स्वार्थ घुसा! कोई नयी बात नहीं! अक्सर ऐसा होता है! कोई और होता तो उस युग्मा के दर्शन के पश्चात ऐसा ही होता! भूल जाता वो कि उद्देश्य क्या है उसका! मुझे आश्चर्य नहीं हुआ! रत्ती भर भी नहीं! कोई बात नहीं! लेकिन, बाबा अमर नाथ अब इस जीवन में तो, कभी आह्वान नहीं कर सकते थे उस युग्मा का! उन्होंने अपना हक़ खो दिया था! जो मात्र एक बार ही उपलब्ध होता है!
और अब बुलाया था मुझे, मेरे बारे में जानते थे वो, शंकर बाबा, दौला बाबा आदि ने बताया था उनको, श्री श्री श्री से भी कई बार मिले थे वे! इसी कारण से बुलाया था मुझे!
ये थी वो कहानी!
कहानी सुनी!
कमरे में शान्ति पसर गयी थी! सभी नज़रें बचा रहे थे, बाबा अमर नाथ आँखों पर हाथ धरे चुपचाप बैठे थे, बाबा गिरि, चेहरे को हाथ पर टिकाये, कोहनी को टेबल पर रखे, आँखें बंद किये बैठे थे! कविश, चुपचाप बैठा था, मैं मेज़ पर रखे हुए उस सलाद को देखे जा रहा था, जिस पर छिड़का नमक अब पानी बन चुका था! शर्मा जी, बाहर झाँक रहे थे!
तभी गिलास में मदिरा परोसने की आवाज़ आई!
कविश ने गिलास में मदिरा डाल दी थी,
"लीजिये" बोला वो,
मैंने गिलास लिया,
शर्मा जी को दिया,
फिर अपना गिलास उठाया,
सिप किया, सलाद का एक टुकड़ा उठाया, और चबाया, चबाने की आवाज़ ऐसी आई जैसे चुप्पी में सेंध लगा दी हो!
"आप समझ गए कि क्या प्रयास?" बाबा गिरि का स्वर आया,
"आ गया समझ" मैंने कहा,
मैंने कहा, और शब्द न थे, क्या कहता!
और एक घूँट भरा!
"अब अपनी राय दीजिये?" बोले बाबा,
मैं मुस्कुराया!
वे हैरत में पड़े! सच में, आँखें चौड़ी करते हुए मुझे देखा!
"बताइये?" बोले वो!
"प्रयास!" मैंने कहा,
"प्रयास?" वे बोले,
"हाँ, प्रयास करूँगा मैं!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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बाबा गिरि उठे, मेरे पास आये, मेरे कंधे पर हाथ रखा,
मैंने देखा उन्हें, आँखों में मायूसी ने घर जमा लिया था!
"बैठिये" मैंने कहा,
मेरे साथ ही, मेज़ पर, बैठ गए वो!
"मैं तैयार हूँ" मैंने कहा,
बाबा गिरि की आँखों में, एक चमक सी उठी!
वो चमक, एक किरण थी, एक आशा की किरण!!

अपना गिलास खत्म कर चुका था मैं, शर्मा जी भी अपना गिलास खत्म करने ही वाले थे, बाबा अमर नाथ लेट गए थे बिस्तर पर, और तभी उन्होंने करवट बदली हमारी तरफ, खांसी उठी उन्हें, खांसे, मुंह साफ़ किया और साँसें नियंत्रित करने लगे अपनी, बाबा गिरि ने अपना गिलास भर लिया था, मैं समझ रहा था कि वे उसी समय में पहुँच गए हैं जब वो युग्मा प्रकट हुई थी! न वो चूक होती और न आज ये कहानी मुझे पता चलती! ये समय है, समय ने ही सारी गांठें लगाई हैं, कब किसे खोले और कब कहाँ गाँठ मार दे! न वो चूक होती, और न मेरा आना ही होता वहाँ, न मैं इस विलक्षण युग्मा के विषय में जान ही पाता!
मैं खड़ा हुआ, जितना जानना था जान लिया था, बाबा अमर नाथ ने मुझे खड़े होते हुए देखा, लेकिन रोका नहीं, न बाबा गिरि ने ही, मैं उठा तो शर्मा जी भी उठ गए थे, हम दोनों ने नमस्कार कही उन्हें और निकल आये बाहर उनके कमरे से, आज न तो मदिरा में ही आनंद आया था और न ही उस तले हुए मुर्गे में ही, मुझे तो लग रहा था कि जैसे सारी कहानी मेरे ही इर्द-गिर्द घूम रही है! जैसे ये सारा ही जंजाल मेरे लिए ही तैयार हुआ था! हम अपने कमरे में आ चुके थे, अब और मन था मदिरापान का, मैंने शर्मा जी से कहा, वे चले बाहर सामान लेने, पानी का जग साथ ले गए थे, अभी साढ़े आठ का ही समय था, और रात बाकी थी, मन में ऐसे ही सवाल आते तो सारी रात करवटों में ही कटती, इसीलिए मैंने और पीने की इच्छा ज़ाहिर की थी! थोड़ी देर में ही सारा इंतज़ाम हो गया, और हम खाने-पीने लगे, दिमाग घूमे जा रहा था, जो बाबा अमर नाथ के साथ हुआ था, वो मेरे साथ भी हो सकता था! मैं कोई अनोखा नहीं, मानव-वृतियों से बंधा हूँ, मुझे में काम, स्वार्थ आदि है, इसमें कोई असत्य नहीं, कब कहाँ जाग जाए, पता नहीं! उन पर नियंत्रण करना असम्भव तो नहीं, परन्तु सम्भव करना असम्भव सा प्रतीत हुआ करता है! खैर, हमने खाया-पिया और फिर हाथ-मुंह धो लिए, उसके बाद लेट गए आराम से, थोड़ी देर में ही नींद ने आ घेरा हमें, और हम सो गए!
सुबह हुई! नहाये-धोये! और बाहर आये! आज चार दिन बाद सूर्यदेव पूर्वांचल से बाहर आये थे! मेघों को संधि द्वारा मना लिया गया था! और वर्षा देवी भी अब कुपित नहीं थीं! बाहर प्राकृतिक सौंदर्य में जैसे सोने के गोटे लगा दिए थे बारिश ने और उसकी नमी ने! पेड़-पौधों के पत्तों में हरा रंग ऐसे भर गया था जैसे किसी नव-यौवना के उन्नत ओंष्ठ!! सौंदर्य देखते ही बनता था, पौधे तो पौधे, घास को भी यौवन आ पहुंचा था, सुनहरी रंग की ताज़ा घास की कोंपले, अपने बुज़ुर्गों से आगे जा पहुंची थीं! पक्षीगण बहुत प्रसन्न थे! कड़े मकौड़े बहुतायत में थे तो उनका आहार उपलब्ध था हर कहीं, जहां भी वो बैठें!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आइये, ज़रा टहलने चलें" मैंने कहा,
"चलिए" वो बीड़ी का बंडल साथ लेकर चले, और बोले,
हम आगे चले अब, रास्ते में जगह जगह, पानी भरा था, कहीं गड्ढे बन गए थे, कहीं कहीं पहले से बने हुए गड्ढे अब लबालब भर चुके थे! केंचुएं रेंग रहे थे मिट्टी में, हम उनसे बचते बचाते आगे बढ़ते हे! नमी तो थी, लेकिन सुबह के उस समय इतनी नमी बर्दाश्त के लायक थी! लोहबाग अपने अपने कामों पर लग गए थे, कुछ साइकिल पर चल निकले थे शहर की ओर, टेम्पो भरे हुए चल रहे थे! बारिश से ठहरी ज़िंदगी वापिस डगर पर आ पहुंची थी! ज़िंदगी कभी नहीं ठहरती, वो आगे बढ़ती ही रहती है, हाँ, कुछ अल्प-विराम हो सकता है, लेकिन डगर पर लौट ही आती है वो! बालक-बालिकाएं हँसते-खेलते अपने विद्यालय की तरफ चल निकले थे! हर तरफ इंसानी मौजूदगी बढ़ चुकी थी! वहीँ रास्ते में एक सरकारी नल लगा था, जो अब चलता नहीं था, शायद चला भी न हो कभी, उस चबूतरा टूट-फुट चुका था और आसपास पत्थर बिखरे पड़े थे, पेड़ भी टूटे पड़े थे, कुछ लोग उन टूटे हुए पेड़ों की लकड़ियाँ आदि इकट्ठी कर रहे थे, और कुछ लोग उनको ढोह केले जाने के लिए, प्रबंध करने में लगे थे! हम आगे बढ़े, सड़क के दोनों ओर पानी कहीं कहीं भरा हुआ था, बड़ा वाहन आता कोई तो नहला सकता था हमें, इसलिए हम उस से दूर ही रहे! हम करीब पौना घंटा टहले, और फिर वापिस हुए, आठ बजे का समय होने का था, अब चाय की तलब लगी थी शर्मा जी को, तो हम वापिस हो लिए!
वापिस आये तो मैं तो कमरे में चला आया, शर्मा जी सीधे सहायक के पास चले गए, वुर जब वापिस आये तो चाय की केतली, दो कप और साथ में थोड़ा नमकीन ले आये थे, नमकीन भी थी सीली हुई, मुझ स एनही खायी गयी, शर्मा जी ने भी चुन चुन कर, मूंगफली के दाने ही खाए, एक आद मैंने भी चबा ही लिया! चाय पी ली, और फिर उसके बाद आराम किया! मौसम साफ़ था तो आज रवानगी हो सकती थी यहां से ही! और वैसे भी मैं बाबा अमली से मिलने का इच्छुक था! और अब तो इच्छा और बलवती हो चुकी थी!
कोई एक घंटे के बाद बाबा गिरि आये कमरे में, बैठे, उनसे नमस्कार हुई, उन्होंने चाय-नाश्ते के बारे में पूछा, तो बता दिया कि चाय पी ली है, लेकिन उन्होंने कहा कि साथ में भी कुछ लेना चाहिए था, उन्होंने बताया कि अभी वे कह देंगे कि नाश्ते में आलू-पूरी बना लें वो! आलू-पूरी तो बढ़िया थी! फिर दोपहर मे कौन खाता भोजन!
"आज मौसम साफ़ है" बोले बाबा,
"हाँ, आज तो बिलकुल साफ़ है" मैंने कहा,
"क्या विचार है?" पूछा उन्होंने,
"नैनीताल?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
"बाबा अमर नाथ की तबीयत कैसी है?" मैंने पूछा,
"फिलहाल बेहतर है, चल सकते हैं" वे बोले,
"तब तो ठीक है, चलते हैं" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"तो दोपहर में निकल चलते हैं?" वे बोले,
"ठीक है" मैंने कहा,
"तो आप तैयार रहना" वे बोले,
"बिलकुल" मैंने कहा,
अब वे उठे, और चले गए बाहर,
"निकल ही पड़ते हैं" मैंने कहा,
"हाँ ठीक है" शर्मा जी बोले,
"देर भली नहीं, वापिस भी जाना है" मैंने कहा,
"सो तो है" वे बोले,
थोड़ी और बातें हुईं घरबार की,
और मेरी आँख लग गयी फिर, उबासियां आने लगी थीं! मौसम की खुमारी थी!
मैं सो गया था!
कोई डेढ़ घंटे के बाद शर्मा जी ने जगाया मुझे, मैं जागा, नास्ता आ गया था, नाश्ता क्या, पूरा भोजन ही था, गर्मागर्म पूरियां थीं और आलू की सब्जी, साथ में दही और अचार, मिर्चों का! पेट भर खाया! और फिर हमने किया थोड़ा सा आराम! पहले तो डकारों से निबटे! और फिर थोड़ा इधर उधर टहले, वो महिला जो कपडे ले गयी थी, कपड़े ले आई थी, हमने कपड़े अपने अपने बैग में रख लिए!
दोपहर हुई,
हमने अपने अपने बैग संभाल लिए थे, अब बस निकलने की तैयारी थी वहां से, बाबा अमली के पास जाना था, और मैं सच में बहुत बेसब्र था उस औघड़ को देखने के लिए जो इस पूरी गाथा का केंद्र बिंदु था! तभी कमरे में बाबा गिरि आये, नए भूरे कुर्ते में और नयी धोती में ऐसे लग रहे थे जैसे सरपंच!
"तैयार हो?" बोले वो,
"हाँ, पूरी तरह" मैंने कहा,
"चलिए फिर" वे बोले,
अब शर्मा जी ने आखिरी बार कमरे को टटोला, कि कहीं कुछ छूट न जाए, सब ठीक था,
"चलिए" मैंने कहा,
और अब हम बाहर चले, कमरे को कुण्डी लगाई,
बाबा आगे और हम पीछे पीछे, सीधे पहुंचे बाबा अमर नाथ के कमरे में, वे भी तैयार थे, वो महिला भी तैयार थी, बाबा से प्रणाम हुआ और बाबा ने बिठा लिया,
"तैयार हो गए?" बाबा अमर ने पूछा,
"जी" मैंने कहा,
अब वे खड़े हुए, अपने आप, अब स्वास्थय ठीक था उनका!
उनका सामान उठाया कविश ने, और चला गया बाहर, वो महिला भी उसके संग ही चली गयी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आओ फिर" बोले बाबा अमर,
हम उठ खड़े हुए, और बाहर आये,
बाबा भी बाहर आये, बाबा गिरि ने कुण्डी लगा दी कक्ष की और चले अब सब बाहर के लिए,
हम चलते चलते बाहर आ गए, यहां से एक टेम्पो पकड़ा, और सीधा बस-अड्डे के लिए कूच कर गए!

रास्ता बहुत खराब था! कभी कभार तो लगता था कि सड़क खेत में और खेत सड़क पर आ गए हैं! ऐसे ऐसे हिचकोले कि लगे अभी पहिया उठा और टांगें टूटीं! वो तो चालक माहिर था, अादी रहा होगा इन सड़कों का, या ऐसी सड़कों का जो बचा लेता था! कभी कभी तो आमने सामने बैठे लोगों के सर टकरा जाते थे एक दूसरे से! मेरे सामने शर्मा जी बैठे थे, उन्होंने तो चश्मा उतार लिया था और रख लिया था जेब में! नहीं तो टूट-फूट जाता पक्का! कहीं कहीं मवेशी बीच सड़क में आ बैठते थे, उन्हें खदेड़ा जाता, कभी कभी कोई ज़िद्दी बकरी सामने आ खड़ी होती, हटती ही नहीं! कोई कोई बकरी का बच्चा अपने नए सींगों का परीक्षण करने आ खड़ा होता सड़क के बीच! तो ये सड़क ऐसी थी! डर लगता था कि कहीं टेम्पो अपनी टांग न उठा जाए कोई! आखिरकार वो भयानक यात्रा समाप्त हुई हमारी! और हम पहुंचे बस अड्डे! जान बची लाखों पाये! खून जमते जमते बचा था! अब शर्मा जी ने अपना चश्मा निकाल लिया था और पहन भी लिया था! अब जाकर टांगें सीढ़ी हुईं थीं, नहीं तो उसमे बैठे बैठे पता ही नहीं चल रहा था कि टांग है कहाँ अपनी!
"आओ" बोले बाबा गिरि!
हम चले उनके पीछे पीछे!
बारिश के कारण ऐसी कीचड़-काचड़ मची थी कि हाल खराब था, सड़क कहाँ है ये बताना ही मुश्किल था, ऊपर से वो फल और चाँट वाले ठेलों ने ऐसी गंदगी मचाई थी कि कोई जानवर भी न आये वहाँ बचा-खुचा खाने!
बाबा ने बस देख ली, बस की हालत ऐसी थी कि जैसे नीलामी से खरीदी गयी हो! इंजन की आवाज़ से पूरी बस ऐसे कचकचा रही थी जैसे किसी युद्ध में रसद लेके जाती हो! जोड़-जोड़ खुला था उसका, और दूसरी बात और, उसके बाद बस भी कब आये, पता नहीं! बैठना मज़बूरी थी, सो बैठ गए हम उसमे! हमें जगह मिल गयी बैठने की, मैं खिड़की की तरफ बैठा, और शर्मा जी साथ में, और उनके साथ बाबा गिरि बैठे! डीज़ल के धुंए की बदबू फैली थी वहां! जितनी भी बसें वहां थीं, सभी चालू थीं! नैनीताल पहुँच कर आँखें साफ़ न की जाएँ तो अगले दिन खुलेंगी ही नहीं, सूज जातीं!
"अब चला ले भाई?" शर्मा जी ने कहा,
उनका इशारा चालक की तरफ था! और चालक बार बार हुर्र ही हुर्र मचा रहा था स्पीड-पैडल दबा कर! एक स्थानीय भाषा की को कोई सी.डी. चल रही थी! गायक और गायिका क्या गा रहे थे, समझ से परे थे हमारे तो! शायद भोजपुरी गाना था वो, या अन्य कोई भाषा! नीचे कंडक्टर और दूसरे हेल्पर उस बस को पीट रहे थे! बुला रहे थे, लोगों को पकड़ पकड़ के ला रहे थे कि आओ, शाही-सवारी जाने को है! ये छूटी तो खटारा भी नहीं मिलेगी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अरे चला ले यार?" बोले शर्मा जी!
"ऐसे कैसे!" मैंने कहा,
"यहाँ तो दम घुट जाएगा!" वे बोले,
"अरे जब तक बन्दे पर बंदा नहीं चढ़ जाएगा, पाँव रखने की जगह भी नहीं मिलेगी, तब चलाएगा ये!" मैंने कहा,
इंजन की हुर्र ही हुर्र सुनते सुनते पक गए हम तो!
और आखिर में चालक मेहरबान हुआ! सीट अभी भी खाली ही थीं, तो अंदाजा यही था कि अब सड़क पर मंद गति से ही रेंगने वाली है ये बस! सड़क से ही उठाती जायेगी सवारियों को! और इस तरह से बस चली! जब बस चली तो बाहर आते ही यातायात में फंस गयी! ऐसा शोर था वाहनों का जैसे रेल-इंजन के हॉर्न लगवा लिए हों सभी ने! किसी तरह से बस निकली वहाँ से, और अब दूसरे गियर में ही चलने लगी! हालांकि सड़क खाली थी! लेकिन सवारी उठानी थी, रोक रोक के हाल खराब कर दिया उन्होंने!
"साला घंटा तो यहीं बीत गया!" शर्मा जी बोले,
"हाँ! अब समझो कि शाम तक पहुँच जाएँ तो गनीमत है!" मैंने कहा,
"देखो, क्या होता है" वो बोले,
अब थोड़ी देर में, वो भी ऊँघने लगे, और मैं भी!
बस चालीस की रफ़्तार से भी नहीं भाग रही थी!
तभी ब्रेक लगी! रास्ते में कोई दुर्घटना हुई थी, तो जाम लगा था, बीस-पच्चीस मिनट यहां लग गए! पुलिस ने रास्ता बनाया तो आगे निकले हम! रास्ता ऐसा था कि अगर कोई विदेशी राजदूत आ जाए इस रास्ते से तो रोज सपने में यही सड़क देखे!
आखिरकार उस उबाऊ और थकाऊ यात्रा का अंत हुआ! हम उतरे बस से! टांगें अकड़ गयी थीं! कमर में नचके आ चुके थे! तोड़-मोड़ के ठीक की कमर!
"भ*** बचाये ऐसी यात्रा से तो!" बोले शर्मा जी,
"सही कहा" मैंने कहा,
अभी तो एक और धमाका होना था! बाबा गिरि ने कहा कि अभी यहाँ से अठारह-बीस किलोमीटर और दूर जाना है! ये सुनते ही बेहोशी आने लगी! लेकिन क्या करते! आखिर में पकड़ी सवारी, बैठे और चल दिए! हम कोई आठ बजे पहुंचे वहां!
ये स्थान बहुत बड़ा था! झंडे लगे थे! तेज हवाओं ने फाड़ दिया था उनको! कुछ से तो झंडे गायब थे, अब बांस ही बांस थे!
हम अंदर गए!
मैं तो बैठ गया एक जगह! शर्मा जी भी बैठ गए! दस मिनट बाद एक व्यक्ति के संग आये बाबा गिरि, और ले गए संग हमें! हमें कमरा दिया गया! कमरा क्या था, कोठरी सी थी! एक पलंग पड़ा था, दो आदमी सो सकते थे वैसे आराम से, लेकिन स्नानालय बाहर बना था! हम बैठ गए, सामान रखा, और मैं तो जूते खोल, आ लेटा बिस्तर पर! मेरे संग शर्मा जी भी आ बैठे, खड़े हुए, पंखा चलाया, रेगुलेटर को घुमाया, उल्टा-सीधा, पंखा नहीं चला! बत्ती जलायी, बत्ती थी ही


   
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श्रीशः उपदंडक
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नहीं!! ये तो हमें मालूम ही होना चाहिए था, क्योंकि जब हम आये थे, तो वहां अँधेरा था, सिर्फ हंडे ही जल रहे थे! हमने ही उन्हें बिजली का प्रकाश समझ लिया था! वे फिर से आ लेटे वहाँ! तभी वही व्यक्ति आया, हण्डा लेकर! हण्डा लगा दिया उसने! उस से बात हुई उसने अपना नाम हरकिशन बताया! उसने खाने-पीने को पूछा, तो फिलहाल में मना कर दिया हमने, हाँ, थोड़ी देर बाद बताने को कह दिया था उसको!
"जगह तो बहुत बड़ी लगती है" शर्मा जी बोले,
"हाँ, है तो बड़ी" मैंने कहा,
"लेकिन इसने ठहराया कहाँ है हमें?" उन्होंने पूछा,
"अब जो जगह होगी, दे दी" मैंने कहा,
मुंह से कराह निकाली उन्होंने करवट लेते हुए!
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"कमर का फलूदा बन गया!" वे बोले,
मुझे हंसी आ गयी!
हमने आराम किया कोई आधा घंटा! कमर सीधी की तो आराम मिला! उसके बाद हम उठे, मैं स्नान करने चला गया था, अच्छी तरह से रगड़-रगड़ के स्नान किया! मोमबत्ती जल रही थी उधर, गुसलखाने में, पानी भी बरमे का ही था, पानी ठंडा था, फुरफुरी छूट गयी! मैं वापिस आया तो शर्मा जी चले गए स्नान करने! आ गये वापिस तो हमने अब जुगाड़ करने की सोची! हुड़क लगी थी ज़बरदस्त!
शर्मा जी चले गए बाहर, मैंने बोतल निकला ली, ये आखिरी बोतल थी दिल्ली वाली, अब आगे क्या हो, ये आगे ही देखना था! आये शर्मा जी, कह आये थे सामान भेजने को!
थोड़ी देर बाद एक लड़की आई उधर, बड़ी ही तेज-तर्रार सी लगी! झटपट से सामान रखा उसने, कपड़े से मेज़ साफ़ कर दी!
"कुछ और चाहिए हो तो बोलो?" बोली वो,
मैं उठा, सामान देखा, खीरे कटे थे, गाज़र भी थी, लेकिन आधी चिरी हुई, थोड़ी सी नमकीन थी, ये तो पर्याप्त नहीं था!
"कोई मसालेदार नहीं है सामान?" मैंने पूछा,
"कैसा मसाला?" उसने पूछा,
"अरे कोई मुर्गा आदि?" मैंने पूछा,
"वो खाने में मिल जाएगा" वो बोली,
"अभी नहीं?" मैंने पूछा,
"अभी चाहिए?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
बिना हाँ-ना कहे चली गयी!
मैं और शर्मा जी मुंह देखें एक दूसरे का!
"लड़की है या अफ़लातून!" बोले वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"तेजी भरी है इसमें!" मैंने कहा,
"वो तो दीख रहा है" वे बोले,
तभी वो आ गयी, एक कटोरा पकड़े हुए, रख दिया वहीँ,
"ये लो" वो बोली,
"ठीक है" मैंने कहा,
"और कुछ?" पूछा उसने,
"गिलास?" मैंने पूछा,
गिलास नहीं थे वहां!
"लायी" वो बोली, और चली गयी!
"ये तो ओख से पिलाने वाली थी!" मैंने कहा,
"कमाल है!" वे बोले,
तभी आई वो, भागते भागते!
"ये लो" वो बोली, स्टील के गिलास ले आई थी!
"ठीक है" मैंने कहा,
"पानी वहां है, वहाँ से ले लेना अगर ज़रूरत पड़े तो" वो बोली,
"ले लेंगे" मैंने कहा,
वो बाहर चली गयी तभी के तभी!
"लो जी! हो जाओ शुरू!" मैंने कहा,
"आता हूँ" वे बोले और बाहर चले, लघु-शंका त्याग करने!
तभी बाबा गिरि आये अंदर! बैठे!
"आओ बाबा!" मैंने कहा,
"करो करो!" बोले वो!
और तभी शर्मा जी भी आ गए!
गिलास दो बने ही थे, बाबा ने कहा कि वे बाबा अमर नाथ के संग हैं, वहीँ है उनका इंतज़ाम! वो देखने आये थे कि सामान मिला या नहीं! इसके बाद वे चले गए वहां से!
और हम हो गए शुरू फिर!

तो हमारा कार्यक्रम अब गति पकड़ने लगा था! वो लड़की जो कटोरे में सामान लायी थी वो बकरे का मांस था, तरी वाला, स्वाद बेहद लज़ीज़ था! सारे मसाले देसी ही थे और शायद सिल पर पीसे गए थे! बनाया किसी महिला ने ही था, ये भी पता चलता था, चूंकि पानी अधिक था उसमे, मर्द लोग अक्सर गाढ़ा ही पसंद करते हैं बकरे का मांस! ये मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, पक्का ही हो, मुझे पता नहीं! लेकिन मसाला इतना बेहतर था कि स्वाद दोगुना हो गया था, अदरक के लच्छे से आते थे मुंह में, साबुत काली-मिर्च भी आती थी! और साबुत दालचीनी तो हाथ से ही निकालनी पड़ती थी! मिर्चें बेशुमार थीं! नाक से पानी बहने लगा था लेकिन स्वाद के मारे, हम खाते जा रहे थे, उसकी तरी बेहतरीन थी! मदिरा का आनंद दोगुना हो चला था! तभी हमारा पानी समाप्त हुआ, शर्मा जी उस लड़की के बताये हुए स्थान तक जाने के लिए उठे,


   
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