"तो फिर?" मैंने पूछा,
"तृप्तिका एक अप्सरा नहीं है! वो स्वयंभू महाशक्ति है! जैसा मैंने पहले बताया, वो साधक को उसी रूप में दर्शन देती यही, जैसी उसकी मनोदशा हुआ करती है उस समय!" वे बोले,
स्वयंभू?
क्या ऐसा भी सम्भव है?
और स्वयंभू को श्राप?
ये क्या कह रहे हैं बाबा?
लगता है उम्र का असर होने लगा है अब उन पर! बाबा अमली की बातों में आ गए हैं! तभी ऐसी ऐसी बातें कर रहे हैं! यही सोचा था मैंने!
"तो बाबा उसको साधने का लाभ क्या है?" मैंने पूछा,
"परमोच्च!" वे बोले,
"परमोच्च?" मैंने कहा,
दरअसल समझ नहीं आया मुझे!
खांसे वो, गला साफ़ किया, नाक पोंछी,
"कविश?" बोले बाबा,
और कविश ने गिलास फिर से भर दिए! मैं तो जोश में जल्दी जल्दी खींच गया गिलास! मुझे ये परमोच्च समझना था! कि किस प्रकार का परमोच्च!
"साधना बहु-आयामी मार्ग है, आपको ज्ञात है न?" वे बोले,
"हाँ बाबा" मैंने कहा,
"आयाम साधने पड़ते हैं" वे बोले,
"हाँ, निःसंदेह!" मैंने कहा,
"कंज में आ कर, आगे बढ़ना पड़ता है, हमेशा, पीछे लौटने का प्रश्न ही नहीं" वे बोले,
"सत्य है" मैंने कहा,
"द्वितीय चरण में साधक को क्या करना होता है, आपको ज्ञात है, अब यदि आपके पास ऐसा मार्ग हो, जो आपको सीधा ही चौथे चरण के उत्तरार्ध में पहुंचा दे, बिना किसी लाग-लपेट के, तो कैसा रहे?" वे बोले,
"क्या?" मैंने कहा,
"सोचो और बताओ" वे बोले, एक छींक मारने के बाद,
ये क्या कह रहे हैं बाबा? ऐसा कौन सा मार्ग है? तो क्या ये वो अप्सरा नहीं? दिमाग सूखने लगा था! इतना चला था कि अब तो कुंद पड़ने लगा था! अब ऐसा कौन सा मार्ग आ गया ऐसा?
"क्या ऐसा मार्ग है?" मैंने पूछा,
"यदि हो तो?" उन्होंने पूछा,
"हो तो, मैं जानना चाहूंगा" मैंने कहा,
कविश ने गिलास फिर से भरा!
"तो समझ लीजिये, तभी बुलाया गया है आपको" वे बोले,
अब ये तो वही बात हुई, कि इशारा करके बुलाया और जब आया तो भड़ाक से दरवाज़ा बंद! मैंने अब भी नहीं समझ सका था कुछ भी! बाबा अमर नाथ ने कुछ नहीं खोला था अभी तक, रहस्य बरकरार ही था!
"आप मुझे ये तो बताइये इस से मेरा क्या लेना देना?" मैंने पूछा,
"आपको अभी पूरी बात पता नहीं चली है" वे बोले,
"तो बताइये?" मैंने कहा,
"कविश" बोले बाबा,
अब कविश ने गिलास नहीं भरा!
शायद अब कविश को ही कहना था आगे!
"क्या आप चल सकते हैं बाबा अमली के पास?" उसने पूछा,
ये कैसा सवाल था! मैं दो-तीन दिन से यहाँ अटका था, और अब बाबा अमली के पास? तो मुझे क्यों बुलाया था उन्होंने यहां?
"कहाँ? नेपाल?" मैंने कहा,
"नहीं, नैनीताल" वो बोला,
नैनीताल, अधिक तो दूर नहीं दिल्ली से, और यहाँ से भी, जा तो सकते ही था मैं,
"वहां क्या काम है?" मैंने पूछा,
अब उसने बाबा को देखा,
बाबा ने मुझे देखा,
"आप चल सकते हैं?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, चल सकता हूँ" मैंने कहा,
अब कविश उठा, और अपना फ़ोन उठाया उसने, कुछ उंगलियां सी फिरायीं उसने उस पर, और फिर मेरी तरफ आया वो,
"ये देखिये" वो बोला,
मैंने फ़ोन हाथ में लिए, गौर से देखा, इसमें एक बुज़ुर्ग व्यक्ति था, लेटा हुआ, कृशकाय, बीमार, मृत्यु की बाट जोहता!
"कौन हैं ये?" मैंने पूछा,
"बाबा अमली" बोले बाबा अमर,
मैं चौंका!
उस कौमुदी, तृप्तिका के साधका का ये हश्र? अप्सरा के साधक तो, हृष्ट-पुष्ट, मज़बूत देह वाले, डील-डौल वाले, लम्बी आयु भोगने वाले, सदैव ही प्रौढ़ से रहने वाले और जवानी की चादर ओढ़े से रहते हैं, तो फिर बाबा अमली का ये हाल?
"ये बाबा अमली हैं?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
"ऐसा क्या हो गया इनको?" मैंने पूछा,
"ये गत छह-सात बरस से ऐसे ही हैं" बोले बाबा,
और तभी हंडे की बत्ती कम हुई! धीरे धीरे कम होती चली गयी! शायद गैस खत्म हो गयी थी, यही वजह थी, अब बस हलकी सी रौशनी थी, और कुछ नहीं! तो डिबिया जलानी पड़ी फिर!
"क्या, बीमार हैं वो?" मैंने पूछा,
उन्होंने एक लम्बी सांस भरी,
"हाँ, बीमार हैं, लेकिन इस संसार की कोई बीमारी नहीं है उन्हें" वे बोले,
"मतलब?" मैंने पूछा,
वे खांसे, और बलग़म फेंकने बाहर गए, फिर आ गए, बैठ गए बिस्तर पर, कंबल ओढ़ा, और फिर देखा मुझे, तभी मैंने देखा, कविश ने फिर से गिलास भर दिए थे, हमने गिलास उठाये और खींच लिए,
"जानते ही होंगे, कि व्यक्ति मृत्यु मांगे, और मृत्यु ही ना आये उसे!" वे बोले
दयनीय! इस से अधिक और क्या दयनीयता होगी?
"हाँ, समझ रहा हूँ आशय आपका" मैंने कहा,
"बाबा अमली का यही हाल है" वे बोले,
और अब तो ये मरते में दो लात और मारने की सी बात थी!!!
मेरी समझ में झाग बन चुके थे, झाग भी ऐसे, जिनमे प्रश्नों के बुलबुले बनते तो स्थिर ही हो जाते, फूटते नहीं थे! और तब तक मेरे दिमाग में उछलकूद मची रहती थी! एक कारण स्पष्ट था इसके लिए, वो ये, कि बाबा अमली ने सिद्ध किया तृप्तिका को, अथवा कौमुदी को, जब वो सिद्ध हुई होगी, तो सबसे पहले अपने साधक की काय को निरोगी बनाएगी, लम्बी आयु प्रदान करेगी, आदि आदि, लेकिन बाबा की तस्वीर देख कर तो ऐसा लगता था कि जैसे वो कोई श्राप भोग रहे हैं, जैसे उस तृप्तिका ने श्राप दिया हो उन्हें! अब जो भी बात थी, वो या तो अभी पता चलने वाली थी, या फिर नैनीताल जाकर ही पता चलती! और नैनीताल यहाँ से दो घंटे की दूरी पर था! लेकिन बारिश ने रास्ते डुबो के रख दिए थे!
"बाबा?" मैंने सवाल किया,
"हाँ?" बोले वो,
"जब उन्होंने सिद्ध किया उस कौमुदी अथवा तृप्तिका को, तो वो तो आजीवन सेवा करती है, बाबा की ऐसी हालत क्यों है?" मैंने पूछा,
"इसी क्यों का उत्तर मैं आपको दूंगा" वो बोले,
"कब?" मैंने पूछा,
"नैनीताल पहुँच कर" वे बोले,
फिर से स्पष्ट नहीं बताया था उन्होंने!
"यहां क्यों नहीं?" मैंने पूछा,
"वहाँ कुछ दिखाना है आपको" वे बोले,
अब मैं चुप था, अब बोलने से कुछ फायदा ही नहीं था, अब सबकुछ वही पता चलना था, इसीलिए कुछ नहीं बोला मैं!
मैं उठा,
"रुको" बोले बाबा,
मैं रुक गया,
"अभी बैठो" वे बोले,
मैं फिर से बैठ गया,
कविश ने बची-खुची बोतल भी उड़ेल दी गिलासों में, सो अब वो खाली किये! कलेजी के जो टुकड़े बाकी थे, वे आपस में बाँट लिए!
"कभी नैनीताल जाना हुआ है?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, कई बार" मैंने कहा,
"बाबा अमली के पास?" पूछा उन्होंने,
"एक बार कोई आठ साल पहले, या फिर सात" मैंने कहा,
"उनसे मुलाक़ात हुई थी?" पूछा उन्होंने,
"नहीं" मैंने कहा,
"फिर कौन मिला था?" उन्होंने पूछा,
वो तो ऐसे पूछ रहे थे जैसे सभी को नाम से और चेहरे से जानते हों सभी को! जैसे वो ही उस डेरे के संचालक हों!
"बाबा शंकर से" मैंने कहा,
"अच्छा, बाबा शंकर" वो बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"अब बाबा शंकर नेपाल में हैं" बताया उन्होंने,
"अच्छा" मैंने कहा,
"तब बाबा अमली नहीं थे नैनीताल में, वो गोरखपुर में थे" वे बोले,
"आपके यहां" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
मैं जानता था, तभी बाबा अमर नाथ उनके लिए ये भागदौड़ कर रहे थे! बाबा अमली और बाबा अमर नाथ, जानकार थे एक दूसरे के, काफी लम्बे समय से!
तभी वो औरत अंदर आई, और वो लोटा ले गयी उठाकर, कविश उसके पीछे गया, कुछ बात हुई उनमे और फिर कविश आ बैठा वहीँ!
"अब आप आराम कीजिये, मौसम खुलते ही हम चलेंगे नैनीताल" बोले बाबा,
हम खड़े हो गए, बाबा गिरि वहीँ बैठे रह गए, मैं और शर्मा जी, नमस्कार करके बाहर चले आये! बत्ती थी नहीं, बस हम चलते रहे अंदाज़े से, दायें मुड़े तो उसी सहायक के कमरे से रौशनी आती दिखी, वहीँ मुड़ लिए, उस से दायें होते ही, गैलरी में हमारा कमरा था! आ गए हम वहाँ! डिबिया जल रही थी अभी तक, वैसे तेल बहुत था उसमे! मैंने जूते खोले, और लेट गया बिस्तर पर! शर्मा जी गुसलखाने चले गए!
वापिस आये वो, तो मैं तकिया लगाए बैठा था बिस्तर पर,
"क्या पहेलियाँ बुझा रहे हैं ये?" बोले वो,
"पता नहीं, क्या माज़रा है" मैंने कहा,
"पूछो तो बता दूंगा, बता दूंगा" वो बोले, जूते उतारते हुए,
"वैसे एक बात अजीब है" मैंने कहा,
"वो क्या?" उन्होंने पूछा,
"बाबा अमली के साथ जो भी हुआ है, उस कौमुदी अथवा तृप्तिका के कारण ही हुआ है, और ये मेरे जीवन का पहला ऐसा वाक़या होगा जब ऐसा हुआ हो, यहाँ तक कि अंत-समय में तो कर्ण-पिशाचिनी भी दुखी हो जाया करती है" मैंने कहा,
"हाँ, ये है रहस्य" वे बोले,
"अब ये सब वहीँ जाकर खुलेगा" मैंने कहा,
तभी बिजली कड़की!
"वो तो तब खुलेगा जब ये खुलेगा!" वो बोले,
"हाँ! ये तो पीछे ही पड़ा है!" मैंने कहा,
"अब सुबह देखी जायेगी, मुझे तो आ रही है नींद!" वे बोले,
"हाँ, सुबह ही देखते हैं" मैंने कहा,
अब वो लेटे तो मैं भी अपनी चादर ओढ़ के लेट गया था! मच्छर आ धमके थे तो मुंह ढकना पड़ा चादर से! और तब चैन की बंसी बजाई हमने! हम सो गए थे!
सुबह हुई! हम उठे! घड़ी देखी, तो आठ बजे थे! निवृत हुए, आज बारिश नहीं थी! मौसम खुला तो नहीं था लेकिन बरसात होगी, ऐसा भी नहीं लगा रहा था, आकाश में कहीं कहीं नीला आकाश दिख रहा था! दो दिन तो ताबड़तोड़ बरसात हुई थी!
"आज तो साफ़ लगता है!" शर्मा जी बोले,
"हाँ! आज साफ़ है" मैंने कहा,
तभी सहायक आया, चाय और कचौड़ियां लेकर! भूख लगी थी वैसे ही, रात को भोजन तो किया नहीं था, इसीलिए कचौड़ियां ही खेंच मारीं चाय के साथ! लेकिन मिर्च बहुत थी उनमे! लाल-मिर्च भी और हरी मिर्च भी! लेकिन स्वाद में बढ़िया थीं!
करीब नौ बजे बत्ती आई, हमने अपने अपने मोबाइल्स लगाए चार्जिंग में! न जाने कब चली जाए, पता नहीं था! दोपहर आते आते, बिजली चली गयी, और मौसम फिर से करवटें बदलने लगा! आकाश में फिर से बाद छा गए थे!
अब साफ़ था, कि अब बारिश हो कर ही रहेगी! और यही हुआ, चार बजे रिमझिम शुरू हो गयी! बादल तो नहीं गरजे, लेकिन बारिश अच्छी-खासी होने लगी थी!
थोड़ी देर बाद कविश और बाबा गिरि आये हमारे पास, कविश ने दवा मांगी, शर्मा जी ने दवा दे दी, बाबा का बुखार नहीं टूट रहा था, और अब कमज़ोरी ने जकड़ लिया था उन्हें बहुत! शर्मा जी ने दवा दे दी, कविश चला गया, बाबा गिरि हमारे साथ ही बैठे रहे!
"यहाँ तो मेघराज स्वयं ही आ धमके हैं बाबा!" मैंने कहा,
"देख लो! क्या हाल है" बोले वो,
और तभी बादल गरज उठे!
"यहां बाढ़ तो नहीं आती?" मैंने पूछा,
"नहीं, कभी नहीं आई" बताया उन्होंने,
पीछे बरसाती नदियां उफान पर थीं, बड़ी नदी में भी पानी बढ़ ही रहा होगा!
"एक बात बताइये बाबा?" मैंने कहा,
"पूछो" बोले बाबा,
"आप जानते हैं बाबा अमली को?" मैंने पूछा,
"हाँ, जानता हूँ" वे बोले,
"कब से?" मैंने पूछा,
"बरसों हो गए" बोले वो,
"सच में उनकी तक़लीफ़ है क्या?" मैंने पूछा,
"आप खुद देख लेना" वे बोले,
"वो तो देख ही लूँगा, आप बताइये तो सही?" मैंने कहा,
"अनुत्क्लन!" वे बोले,
"क्या?" मैंने पूछा,
"हाँ! वे मुक्त नहीं हो रहे हैं इस देह-बंधन से!" वे बोले,
ये तो बड़ी ही हैरत वाले बात थी! वो उत्कलन से दूर थे! ऐसा तो मैंने कभी नहीं सोचा था, न कभी सुना ही था! मृत्यु भी नहीं आ पा रही थी! कौन रोक रहा था? क्या वो कौमुदी??
मुझे फिर भी उनका ये उत्तर उत्तराभास से पूर्ण ही लगा! ऐसा कैसे सम्भव है!!
"क्या ये सत्य है?" मैंने पूछा,
"असत्य क्यों बोलूंगा?" उन्होंने कहा,
एक के बाद एक हथौड़ा पड़े जा रहा था सर में!
पहले कौमुदी अथवा तृप्तिका!
फिर बाबा अमली का उसे सिद्ध करना!
फिर बाबा अमली का इस हाल में होना!
और अब ये अनुत्क्लन!
आत्मा के उत्कलन से दूर पड़े थे बाबा अमली!!
"क्या ये सम्भव है?" मैंने पूछा,
"असम्भव क्या है इस संसार में?" उन्होंने मुझसे ही प्रश्न किया!
अब ये तो सच है! असम्भव तो कुछ भी नहीं!
सत्य कहा था बाबा गिरि ने! असम्भव तो कुछ नही इस संसार में यदि ठान ही लिया जाए! और कुछ ऐसा ही ठाना होगा बाबा अमली ने! इसीलिए हठ पकड़ा होगा और लग गए होंगे इस तृप्तिका की महासिद्धि के लिए! मैं आज भी उनको जीवट वाला मानता हूँ और मानता ही रहूँगा! मैंने मात्र एक ही ऐसा साधक देखा है जिसने इस तृप्तिका को सिद्ध किया था! लेकिन गलत कहाँ हुआ था, त्रुटि क्या हुई थी, ये जानना था, और इसीलिए पहले दिन से ही खोपड़ी में खुजली हो रही थी!
"वैसे बाबा ये तृप्तिका अप्सरा..........?" मैंने कहा, लेकिन मेरी बात काट दी बीच में ही बाबा गिरि ने! उनकी आँखें चौड़ी हो गयी थीं और चेहरा गंभीर, हालांकि उनके चेहरे पर मुस्कुराहट भी थी!
"अप्सरा! वो अप्सरा नहीं है!" बोले वो!
अब ये एक और विस्फोट था! धमाका ऐसा था, कि अब तक की बनी सोचों की इमारत बुनियाद समेत नेस्तनाबूद हो गयी थी!
"ये क्या कह रहे हैं आप?" मैंने पूछा,
"हाँ, वो अप्सरा नहीं है" वे बोले,
"वो अप्सरा नहीं है? लेकिन बाबा अमर नाथ ने तो यही कहा था?" मैंने अचरज से कहा,
"कहा था, क्योंकि आप उसको अप्सरा ही समझ रहे थे अभी तक" वे बोले,
ये कैसा अजीब सा उत्तर था!
मुझे तो लगा मैं ऐसे प्रकांड विद्वानों के बीच आ बैठा हूँ जिनकी अपनी ही नियमावली है, अपनी ही शब्दावली और अपनी ही अर्थावली! उनके नियम, शब्द और अर्थ, ऐसे कि जिनसे मैं अनभिज्ञ हूँ अभी तक!
"तो बाबा, वो अगर अप्सरा नहीं है तो क्या है?" मैंने पूछा,
बाबा चुप रहे, शायद कोई उचित शब्द ढूंढ रहे थे, या कोई अन्य पारिभाषिक शब्द!
"क्या वो यक्षिणी है?" मैंने पूछा,
"नहीं वो यक्षिणी भी नहीं है" बोले वो!
अब ये तो और कुआँ खुद गया था! वो न तो अप्सरा ही थी और न ही यक्षिणी! तो फिर वो थी क्या? अजीब सा प्रश्न था! और जवाब क्या होगा, तो तो और भी अजीब सा ही होगा! लेकिन अब मैं बेताब हो उठा था उस जवाब को जानने के लिए!
"तो वो क्या है बाबा?" मैंने पूछा,
"युग्मा!" वे बोले,
युग्मा?
वो क्या है?
मैंने तो कभी नहीं सुना?
आखिर क्या पहेलियाँ हैं ये?
युग्मा, शब्द पर गौर करें तो दो प्रकृति का मिलन! लेकिन प्रकृति तो स्वयं एक ही है? क्या दो उच्च-योनियाँ? लेकिन दो पृथक-पृथक योनियाँ, युग्म कैसे बना सकती हैं? ऐसा करना तो मात्र श्री महाऔघड़ के द्वारा ही सम्भव है!
"मैं समझा नहीं?" मैंने पूछा,
"बताता हूँ!" वे बोले,
उन्होंने तब गिलास में पानी लिया, फिर कुल्ला करने के लिए बाहर गए, वापिस आये और फिर पानी पिया, फिर से बैठ गए!
मैं उनको हो तके जा रहा था!
घूर रहा था!
एकटक देखे जा रहा था!
"बड़े से बड़े साधक, मात्र उँगलियों पर ही गिनी जाने वाली अप्सराओं के बारे में जानते हैं! जैसे मेनका, उर्वशी, रम्भा आदि आदि, अंजना भी अप्सरा ही थीं, जिन्हे अंजनी कहा जाता है, उसी प्रकार एक और अप्सरा भी है, जो अदृश्य ही रहती है, अदृश्य, अर्थात, समीप होते हुए भी प्रकट नहीं रहा करती, और उसका नाम है वेत्ता!" वे बोले,
वेत्ता!
एक अलग ही अप्सरा है ये! ये मुझे पता चला आज! सच है, अप्सराओं को हम बस उँगलियों पर ही गिन सकते हैं! ये बात सत्य ही थी! और इस वेत्ता के विषय में मैंने आज तक कुछ नहीं जाना था! आज पहली बार ही नाम सुना था उसका! इस वेत्ता अप्सरा की प्रकृति पृथक होनी चाहिए, मैंने कयास लगाने आरम्भ किये तभी!
"तो ये वेत्ता दूसरी अप्सराओं से पृथक कैसे?" मैंने पूछा,
"दूसरी अप्सराओं से काम-भाव छलकता है, सेवा-भाव छलकता है, इसी कारण से इनको सिद्ध किया जाता है, लेकिन वेत्ता, इस से पृथक है! न उसमे काम-भाव है और न ही सेवा-भाव, वो यूँ समझिए, एक गुरु की भांति आपका मार्ग प्रशस्त किया करती है, साधना-पथ पर आगे बढ़ाया करती है, कोई विघ्न नहीं आने दिया करती! और मार्ग, छोटा हो जाया करता है!" वे बोले,
हाँ! ऐसा ही कुछ बताया था बाबा अमर नाथ ने भी, मार्ग छोटा होना, आगे बढ़ना, प्रशस्त होना! लेकिन ये तो वेत्ता एक ही पक्ष था, दूसरा क्या है? वो कौन है? वो भी कोई अप्सरा है क्या?
"बाबा, वेत्ता के विषय में पता चला, और ये युग्मा कैसे हुई फिर?'' मैंने पूछा,
"बता रहा हूँ" वे बोले,
उन्होंने चादर में पड़ी सिलवटें हटाईं हाथों से, उनको ठीक किया, खींच कर,
"एक यक्षिणी है नखाकेशी या नखकेशी! सुना है?" वे बोले,
"हाँ, सुना है" मैंने कहा,
"यही नखाकेशी और वेत्ता संयुक्त रूप से युग्म बना एक नयी महाशक्ति का सृजन किया करती हैं, जिसका नाम है तृप्तिका!" वे बोले!
ओह! अब समझ आया मुझे! ऐसे युग्म, और ऐसे ही युग्मा! वेत्ता और नखाकेशी! और उस से सृजन हुआ इस तृप्तिका का! अब आ गया समझ! लेकिन अभी भी कुछ प्रश्न शेष थे! अब मैंने पूछने आरम्भ करने थे!
"कुछ प्रश्न हैं बाबा" मैंने कहा,
"पूछिए?" वे बोले,
"युग्म में रख कर, ये संयुक्त रूप से अपनी अपनी प्रकृति और प्रवृति की तरह ही पृथक पृथक कार्य किया करती हैं, अथवा कुछ परिवर्तन होता ही नहीं?" मैंने पूछा,
"नहीं! नहीं होता परिवर्तन! वे संयुक्त होते हुए भी एक ही हैं!" वे बोले,
एक प्रश्न का उत्तर मिला! और फिर दूसरा उतपन्न हो गया! उत्पन्न होना आजमी ही था! ये एक ऐसा गूढ़ विषय था जिसके बारे में मैंने कभी सुना ही नहीं था! और जिज्ञासा आसमान छू रही थी!
"तो इसका वर्णन कहाँ मिलता है?" मैंने पूछा,
"कहीं नहीं! किसी भी कोष और भंडार में नहीं, कहीं नहीं!" वे बोले,
ऐसा सम्भव हो सकता है! कुछ ज्ञान मौखिक है, वो एक सबल गुरु से उसके शिष्य को प्रदान किया जाता है! इसमें कोई संदेह नहीं था की कहीं इसका वर्णन नहीं हो!
"तो आपको कहाँ से प्राप्त हुआ? क्षमा कीजिये" मैंने कहा,
वे मुस्कुराये!
खड़े हो गए!
मुझे देखा,
फिर बाहर झाँका! बूंदाबांदी हो रही थी! मैंने भी बाहर झाँका, महिलायें बाहर दूसरी तरफ आ-जा रही थीं, कुछ पुरुष भी कुछ गठरियाँ उठाये आ-जा रहे थे, कहीं कहीं उनमे रुक कर बात भी हो रही थी!
फिर बाबा अचानक से बैठ गए!
"क्या पूछा था आपने?" वे बोले,
"यही की आपको ये ज्ञान कहाँ से मिला? क्षमा चाहूंगा ऐसे प्रश्न के लिए" मैंने कहा,
"क्षमा की कोई बात नहीं, मुझे ये ज्ञान.......स्वयं बाबा अमली ने ही दिया है" वे बोले,
बाबा अमली ने रहस्य खोल दिए थे? एक एक पृष्ठ? वो किसलिए? कहीं उनकी इस दयनीय हालत के लिए, वे स्वयं ही तो ज़िम्मेदार नहीं?
अब तो दिमाग घूमा! पसीने से छूटे! गर्दन पर पकड़ सी महसूस हुई! लगा कोई गर्दन को दबा रहा है! हालांकि हाथ मेरे स्वयं के ही थे!
"बाबा अमली ने आपको बताया?" मैंने पूछा,
"हाँ, बाबा अमर नाथ को भी" वे बोले,
"वो किसलिए?" मैंने पूछा,
अब चुप्पी साध ली उन्होंने!
चुप्पी भी ऐसी, कि कुँए में से बाहर आते आते, बीच में ही अटक जाएँ! न तो ऊपर और न ही नीचे!
"बताइये बाबा?" मैंने पूछा,
चुप!
नीचे देखें!
कभी बाहर झांकें!
मैं उनके उत्तर का इंतज़ार करूँ!
"बताइये?" मैंने कहा,
"उनकी मदद के लिए" वे बोले,
उन्होंने जैसे ही बोला, वैसे ही मैं उछला! इसके तो बहुत मायने निकलते थे! एक साथ वो सारे मायने मेरे सर में घुसने लगे! मैं खुद ही उलझ के रह गया था अब!
शर्मा जी मुझे देखें और मैं उन्हें!
इसका अर्थ था कि,
बाबा अमर नाथ और बाबा गिरि ने, अवश्य ही उस तृप्तिका को साधना चाहा होगा! अब सफल हो जाते तो मेरी कोई आवश्यकता ही नहीं थी! नहीं हुए होंगे सफल, इसी कारण से मुझे यहां बुलाया है! अब आ गया था समझ!
"तो..इसीलिए मुझे..आपने यहां बुलाया है" मैंने कहा,
वे मुस्कुराये!
उठे!
मुझे देखते रहे!
"हाँ, अब आप सब समझ गए हो!" वे बोले,
इस से पहले मैं कुछ कहता, वे पाँव पटकते हुए, बाहर चले गए!
मैं और शर्मा जी उन्हें जाते देखते रह गए! बहुत ही कम शब्दों में सब समझकर चले गए थे बाबा गिरि, लेकिन एक बात गले नहीं उतर रही थी, कि बाबा अमर ऊंचे दर्ज़े के औघड़ थे और बाबा गिरि भी कम नहीं थे, तो फिर इनसे भी चूक हो गयी? या वो प्रकट ही नहीं हुई? या फिर क्रिया ही नहीं की? अब ये सवाल डंक मारने लगे थे! आखिर ऐसा क्या हुआ था जिसके कारण उनको मुझे बुलाना पड़ा था? ये सवाल अब काफी भारी हुए जा रहा था, मेरा तो सर घूमने लगा था! चक्कर भी आते तो समझ में आ जाता! अब इन प्रश्नों का उत्तर बाबा अमर ही दे सकते थे, बाबा गिरि तो मुझे जितना समझा सकते थे, समझा दिया था!
"तो या ही कहानी" बोले शर्मा जी,
"हाँ, अब समझ में आया" मैंने कहा,
"लेकिन, बाबा अमर?" वे बोले,
जो कहना चाहते थे, वही तो मेरा प्रश्न था!
"हाँ, मुझे भी समझ में नहीं आ रहा" मैंने कहा,
"कहानी बहुत गहरी है, अभी बहुत से छोर छूटे हैं बाकी" वे बोले,
"लगता तो यही है" मैंने कहा,
"आप पूछिए बाबा अमर से?" वे बोले,
"हाँ, और कोई विकल्प भी नहीं" मैंने कहा,
"कब चलना है?" वे बोले,
उनको भी उत्सुकता सताए जा रही थी! मेरी ही तरह!
"अभी चलते हैं, भोजन कर लें पहले" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
तभी एक महिला का प्रवेश हुआ, उस से बात हुई, वो कपड़े लेने आई थे हमारे, धोने के लिए, कुछ चादर आदि भी थीं, उसने उनको उठाया, दूसरी चादर बिछायीं और हमारे कपड़े लेकर
चली गयी,
"ये बात बाबा अमर नहीं बता रहे थे!" वे बोले,
"हाँ, यही कारण है" मैंने कहा,
"कोई चूक हुई होगी" वे बोले,
"अब पता नहीं" मैंने कहा,
"चलो मिलकर पता लग जाएगा" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
अब वे वृद्ध औघड़ हैं, मान-सम्मान की बात है, नहीं बता रहे होंगे, शायद संकोच होगा उन्हें कोई!
कोई एक घंटा बीता, मैं तो यही सोचते सोचते लेट गया था कि कैसी साधना होगी वो, क्या क्या ध्यान रखना है, क्या चूक हुई थी, इसका तो विशेष ध्यान रखना था!
तभी सहायक आ गया, दो थाली ले आया था, आज खाना खा तो रहे थे हम, लेकिन सिर्फ पेट भरने के लिए, स्वाद नहीं आ रहा था! कारण स्पष्ट था, मुझे मेरे प्रश्नों का उत्तर चाहिए था! वो भी जल्द से जल्द!
शाम हुई, हुड़क लग रही थी बहुत तेज़! बारिश तो नहीं हुई थी आज ख़ास, और मौसम भी खुलने के आसार देने लगा था, ये सही था, अब अगर नैनीताल जाना था तो मौसम का सही होना बहुत मायने रखता था!
"आओ शर्मा जी" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
जूते पहनते हुए,
हमने कमरे की कुण्डी लगा दी, और चल दिए बाबा अमर के पास, वहां पहुंचे, तो बाबा गिरि भी वहीँ बैठे थे, बाबा अमर ने सर पर अंगोछा बाँधा था, शायद सर में दर्द था उनके!
प्रणाम किया हमने और हम वहीँ बैठ गए, कविश ने भी प्रणाम किया और वो भी वहीँ बैठ गया!
"अब तबीयत कैसी है बाबा?" मैंने पूछा,
"आज तो बेहतर है, सर में दर्द है, खांसी-ज़ुकाम नहीं है, बुखार भी रात से नहीं चढ़ा" वे बोले,
ये बढ़िया था! वो यदि हमारे साथ चलते तो कुछ विशेष बातें पता चल ही जातीं!
"दवा ली थी?" मैंने पूछा,
"हाँ, उन्ही से असर हुआ है" वे बोले,
"अभी है या ख़त्म?" मैंने पूछा,
"अभी है रात के लिए" वे बोले,
"ठीक है" मैंने कहा,
फिर कुछ पल शान्ति छायी!
"आपको बाबा गिरि ने बता दिया होगा?" बोले वो,
"हाँ, बता दिया है" मैंने कहा,
"उम्मीद है आप सब समझ गए होंगे" वे बोले,
"हाँ, समझ गया हूँ" मैंने कहा,
"हम्म" वे बोले,
खांसी और अपना मुंह पोंछा उन्होंने,
"लेकिन बाबा?" मैंने कहा,
"हाँ?" वे बोले,
"अभी कुछ शंकाएं हैं मेरे मन में, कुछ प्रश्न" मैंने कहा,
"पूछिए?" वे बोले,
अब मैंने टटोलना शुरू किया, कि सबसे पहले क्या पूछूँ, हो सकता है उनके उत्तर से मेरे अन्य कई प्रश्न सुलझ जाएँ, कुछ शंकाएं मिट जाएँ!
"सबसे पहले तो ये, कि बाबा अमली को हुआ क्या है?" मैंने पूछा,
वे गंभीर हुए!
नीचे देखा उन्होंने,
फिर मुझे, शर्मा जी और फिर गिरि बाबा को,
"सबकुछ सही चल रहा था, बाबा अमली बहुत खुश थे, उन्हें मार्ग में कोई बाधा नहीं आने दे रही थी वो युग्मा! ऐसे ही कोई बीस बरस बीत चुके थे, सब ठीक था, बाबा में घमंड नहीं था, वे सभी की मदद करते, उनसे मदद लेने वालों में मैं और ये बाबा गिरि भी हैं, अन्य भी बहुत हैं, जो आज तलक एहसानमंद हैं बाबा अमली के!" वे बोले, बाबा अमर नहीं, बाबा गिरि!
चलिए! बाबा अमली का चरित्र तो स्पष्ट हुआ! घमंड नहीं था उनमे! सभी की मदद किया करते थे वो! ये सबसे बड़ी बात थी! नहीं तो जो युग्मा को साध ले, उसमे घमंड आना तो स्वाभाविक ही है! लेकिन बाबा अमली में ऐसा कुछ नहीं हुआ था! वे सरल थे, मदद किया करते थे! और बीस बरस इसका उदाहरण थे!
"तो फिर ऐसा क्या हुआ था?" मैंने पूछा,
"बहुत बुरा हुआ था" बाबा गिरि बोले,
बुरा हुआ था?
कैसा बुरा?
उस युग्मा के होते हुए बुरा?
ऐसा नहीं होना चाहिए........
"ऐसा क्या हुआ था?" मैंने पूछा,
कुछ पल शान्ति छायी थी वहां, सन्नाटा, साँसों की आवाज़ें आ रही थीं बाबा अमर की छाती से, उसमे बलग़म फंसा था, उसी के अवरोध के कारण ऐसा हो रहा था, अजीब अजीब सी आवाज़ें थीं वो,
"बताइये बाबा? क्या हुआ था?" मैंने पूछा,
"बाबा अमली का एक पोता था, खेमा, खेमचंद, बाबा अमली खेमचंद को खेमा ही कहते थे" वे बोले,
खेमचंद! खेमा! लेकिन था? अब नहीं है क्या? अब जीवित नहीं?
"क्या खेमा जीवित नहीं?" मैंने पूछा,
"वो जीवित होता, तो आज ये नौबत ही न होती" वे बोले,
फिर से ज़ंजीरों में देह उलझी!
फिर से हथौड़े बजे!
दिमाग में घंटे बजने लगे!!!
"क्या हुआ था खेमा को?" मैंने पूछा,
बाबा अमर खांसे, मेरा ध्यान उन पर गया, वो खानी को रोक रहे थे, लेकिन खांसी रुकने का नाम नहीं ले रही थी, उनको अभी खांसी थी, हाँ, ज़ुकाम नहीं था!
"कोई बारह बरस बीते, बाबा अमली का सारा संसार अपने पोते के इर्द-गिर्द समा गया था! खेमा सारा दिन साथ ही रहता अपने दादा के, साथ ही भोजन करता, साथ ही सोता और साथ ही आता-जाता उनके! बाबा अमली उसके लिए अपना आवश्यक से आवश्यक कार्य भी त्याग देते! खेमा ज़िद करता तो यात्रा पर भी नहीं जाते!" बाबा गिरि बोले,
"अच्छा! दादा-पोते का प्रेम!" मैंने कहा,
"हाँ! अथाह प्रेम था दोनों में" वे बोले,
"कविश?" बाबा अमर ने कहा,
कविश उठा, और चला अपने बैग की तरफ, मैं समझ गया कि अब मदिरा का प्रबंध होने जा रहा है! कविश ने बोतल निकाल दी, और रख दी मेज़ पर, फिर बाहर गया, अन्य सामान लेने!
"हाँ बाबा, फिर?" मैंने पूछा,
"एक बार खेमा खो गया था! मेले में, बाबा अमली को खबर नहीं दी किसी ने, उस रात नहीं आया वो, उसी रात बाबा अमली को खबर दी उनकी ही देख ने, वो बहुत गुस्सा हुआ अपने पुत्र से, डांट-डपट कर दी सभी के साथ, और जा पहुंचे उसको लेने! खेमा उसी मेले में, एक मंदिर में बैठा था, कई साधुओं के साथ!" वे बोले,
"मिल गया खेमा!" मैंने कहा,
"हाँ, और जो बाबा अमली रोये, उसके गवाह हम भी हैं" वे बोले,
"समझ सकता हूँ, उनके जिगर का टुकड़ा था खेमा" मैंने कहा,
"हाँ, जिगर का ही टुकड़ा मानो" वे बोले,
"समझ गया" मैंने कहा,
"उसके बाद बाबा अमली ने विशेष ध्यान रखा उसका, कहीं जाता तो साथ में कोई न कोई अवश्य ही होता था उसके! आँखों से ओझल न हो, ऐसा इंतज़ाम कर दिया था उन्होंने!" वे बोले!
"वाह!" मैंने कहा,
"वक़्त बीता, खेमा बड़ा हुआ, कोई प**** साल का, लेकिन अपने दादा के साथ वो बच्चे की तरह ही रहा! दादा से लड़ता, झगड़ता!" वे बोले,
मेरी आँखों में तस्वीर बनती गयी उन दोनों के इस प्रेम की!
दादा और पोते का प्रेम तो बहुत पावन हुआ करता है! एक ऐसा प्रेम जिसमे दादा अपने जीवन को स्वयं ही पुनः अपने जीते जी जिया करता है! कुछ ऐसा ही प्रेम था बाबा अमली और उनके पोते खेमा के बीच! मैं समझ सकता हूँ कि कितना प्रेम करते होंगे वो अपने पोते को! उसके लिए सबको डांट-डपट दिया करते थे, चाहे खेमा का बाप हो या फिर माँ! खेमा को कोई कष्ट न हो, इसका पूर्ण ख़याल रखा करते थे बाबा अमली! पर न जाने ऐसा क्या हुआ था की खेमा को इस संसार से विदा होना पड़ा, वो भी बाबा अमली के सामने ही, इस से बड़ा और दुःख इस संसार में नहीं है की कोई दादा अपने जीते जी अपने पुत्र अथवा पोते को अर्थी पर देखे, इस से बड़ा कोई दुःख है ही नहीं इस संसार में, वहीँ भोग रहे थे बाबा अमली, उनके प्रति मेरा सर उनके सम्मान में झुके जा रहा था, कंठ में पीड़ा होने लगी थी मेरे, कोई और कुछ कहता तो शायद आंसू भी निकल ही आते मेरे!
मैंने हिम्मत जुटाई, ताकि और प्रश्न पूछ सकूँ, शंकाओं का समाधान कर सकूँ, तब तक सहायक पानी और सामान ले आया था, बत्ती थी नहीं, इसीलिए हण्डा जल रहा था अपनी पूरी ताक़त से, और उसने अपने संगी साथियों को, जो की कीट-पतंगे थे, आमंत्रित कर लिया था! पट-पट की आवाज़ आती थी जब कोई धुरंधर उसके शीशे से टकराता था! और वैसे भी बाहर नमी थी, कीड़े मकौड़े आदि अपने अपने बिल छोड़, चूंकि वहाँ पानी घुस चुका था, सभी बाहर ही चहलकदमी कर रहे थे! बाहर गैलरी में तो जैसे उनकी मैराथन दौड़ का सा आयोजन था! वे लड़ भी रहे थे और होड़ भी लगा रहे थे एक दूसरे से, पंखों वाले कुछ कदम उड़ते और जहां पाँव जमते, वहीँ टिक जाते थे! आज बारिश नहीं थी, मौसम भी साफ़ ही था, बाहर झाँकने पर, आकाश में तारागण दीख रहे थे, लेकिन स्वयं तारापति, आच्छादित मेघों के बीच संधि करने में जुटे हुए थे!
"लीजिये" आवाज़ आई कविश की,
गिलास तैयार था, साथ में सलाद थी और टला हुआ मुर्गा था, उसके टुकड़े बहुत बड़े बड़े थे, लेकिन तला बेहतरीन गया था, साथ में हरी-मिर्च की चटनी भी थी!
मैंने गिलास लिया, शर्मा जी ने भी लिया, मैंने एक टुकड़ा उठाया, और शर्मा जी को दिया, उन्होंने लिया और फिर मैंने दूसरा टुकड़ा उठा लिया, थोड़ा सा चबाया और स्थान भोग देते हुए, मैंने गिलास अपने गले में उड़ेल लिया! फिर उस टुकड़े को चबाया, चटनी के साथ, चटनी ऐसी तीखी थी की मदिरा की धार से भी टक्कर ले गयी थी वो तो! तभी अचानक से बाबा अमली का ख़याल आया, और उनके उस पोते का, खेमा का,
"बाबा? क्या हुआ था खेमा को?" मैंने पूछा,
बाबा गिरि मदिरा के गिलास से स्थान-भोग दे रहे थे उस समय, मैंने प्रतीक्षा की, उनको देखा मैंने, कुछ मंत्र बुदबुदा रहे थे!
"बाबा खेमा को क्या हुआ था?" पूछा मैंने फिर से,
"बताता हूँ" बोले बाबा गिरि,
मेरी उत्सुकता की जैसे परीक्षा ले रहे थे बाबा!
"बाबा अमली माह में एक बार इस तृप्तिका को भोग अर्पित किया करते थे, ये तीन रात्रि की
क्रिया हुआ करती थी, इसमें वो तृप्तिका उनकी समस्याएं का निबटारा किया करती, उनको गूढ़ ज्ञान दिया करती" वे बोले और रुके,
ये तो होता ही है, भोग अर्पित तो किया ही जाता है, जिसको सिद्ध किया हो, उसके संग ये ही नियम है, उसका पालन आवश्यक है करना!
"ऐसे ही एक बार बाबा उस क्रिया में लगे थे, ये तीन रात और तीन दिवस की अखंड क्रिया थी, इसमें बाबा न किसी से मिलते थे, और न कोई ये जानता था कि वो कहाँ है, वो अज्ञात में वास किया करते थे, बस एक ही था जो ये जानता था, उनका पोता खेमा! वो अपने दादा को दूर से बैठा देख, बहुत खुश हुआ करता था! रोज न देखे तो भोजन-अन्न सब त्याग दिया करता था! और जब बाबा आया करते थे वापिस, तो अपने दादा से, उनके हाथों से बना भोजन खाया करता था खेमा! कभी कभी तो वो इन तीन दिन और तीन रात तक कुछ खाता ही नहीं था! बीमार न हो जाए, इसका ख़याल रखा जाता, लेकिन वो भी ज़िद्दी था! अपने दादा कि तरह ही! नहीं खाना तो नहीं खाना!" वे बोले,
दादा-पोते के इस प्रेम को देख, मेरा तो रोम रोम पुलकित हो उठा था! ये नाता ही ऐसा है! इसमें पोते को अपना पिता नहीं, दादा ही सर्वोत्तम लगता है! वो बात जो पूरा घर नहीं जानेगा, वो दादा और दादी को अवश्य ही पता होगी! अपने पोते और पोती द्वारा! कुछ ऐसा ही था बाबा अमली और उनके इस पोते का प्रेम!
लेकिन अभी तक, ये नहीं पता चला था की आखिर उसे हुआ क्या था?
"क्या हुआ था उस बार?" मैंने पूछा,
"बहुत बुरा" वे बोले,
"क्या बुरा?" मैंने पूछा,
"बहुत ही बुरा" वे बोले,
लम्बी सांस छोड़ते हुए,
"बाबा, मेरी परीक्षा न लीजिये, कृपा कीजिये, बता दीजिये" मैंने कहा,
"बताता हूँ अभी" बोले बाबा,
उनके ये कहना कि बताता हूँ अभी ऐसा लगता था कि सारा कलयुग मेरे ही सर पर उतर आया है! ऐसा बोझ लगता था!
कविश ने फिर से गिलास भरे,
हमें दिए,
मैंने पकड़ा,
और झट से खींच गया, थोड़ी सी चटनी चाटी, फिर टुकड़ा उठाया, और चबा लिया!
"बाबा को एक दिन और एक रात हो चुकी थी, ये दूसरा दिन था, उस दिन खेमा शाम के समय कोई पांच बजे, उनको दूर से देख कर आ रहा था, एक नहर पड़ती है वहां, अक्सर ही पानी भरा रहता है उसमे, और देखो तो नदी सी प्रतीत होती है, उस नदी पर एक पुल बना था, पुल संकरा था, एक बुग्घी ही आ-जा सकती थी, वो उस पुल के बीच में था, हाथ में सरकंडा लिए, मिट्टी को खंगालता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था, सामने देख नहीं रहा था, और जब देखा, तो
