वर्ष २०१२ पीलीभीत क...
 
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वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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बाबा गिरि बाहर गए, और कुछ देर बाद ही अंदर आ गए! शायद सहायक को बता कर आये थे कुछ माल-शाल लाने के लिए!
"और आपके गुरु जी कैसे हैं?" बाबा ने पूछा,
"स्वस्थ हैं!" मैंने कहा,
"आपने सूचित किया उनको?" उन्होंने पूछा,
"किस विषय में?" मैंने पूछा,
"कि आप मुझे मिलोगे?" बोले वो,
"हाँ, यहां आने से पहले आज्ञा ले ली थी" मैंने कहा,
"अच्छा किया" वे बोले,
"नरकेश पूर्ण हुआ?' वो बोले,
"जी बाबा" मैंने कहा,
"अच्छा अच्छा!" वे बोले,
तभी सहायक आ पहुंचा वहाँ! थाली लिए! रख दी, थाली में सलाद और तला हुआ मुर्गा था! वही बढ़िया देसी मुर्गा!
फिर गिलास रखे, और फिर पानी!
"कविश, भोग दो" बोले बाबा,
कविश ने स्थान भोग दे दिया! और बोतल मेरे सामने सरका दी,
"भोग लगाएं" बोला कविश,
"आप ही बनायें" मैंने कहा,
"आप बनाएं" बोला कविश,
"लाओ, मैं बनाता हूँ!" बोले अमर नाथ बाबा!
अब अमर नाथ बाबा जैसा बुज़ुर्ग अपने हाथों से भोग दे, तो उस से बड़ा सौभाग्य ही क्या!!
बाबा ने बना दिए पैग! और बढ़ा दिए हमारी तरफ! थाली से मैंने मुर्गे का टुकड़ा उठाया, और उस पैग को खाली कर दिया! सभी ने अपने अपने तरीके से अपने अपने गिलास खाली किये! हाँ, शर्मा जी ने मेरा साथ दिया! मेरे संग ही गिलास उठाया था और मेरे संग ही खाली भी किया!
और वो मूर्ति! देखिये! अभी तक मेरी गोद में थी!
सच कहता हूँ मित्रगण!
एकदम सच!
मुझे उस निर्जीव मूर्ति में, सजीवता के दर्शन हुए थे! और शायद, मुझे प्रेम हो चला था उस से!
हा! हा! हा! कैसा प्रेम! देखिये! औघड़ मरा तो मूर्ति पर!
लेकिन मित्रगण! यही 'प्रेम' तो अगन है आगे बढ़ने की!
सो आगे बढ़ने के लिए एक कदम नहीं, कई कदम बढ़ चुके थे!
"बाबा अमली ने सिद्ध किया था कौमुदी को!" वो बोले,
मेरा तो रोम रोम सिहर गया! जानता तो था, पर अब मुहर लगते देख, बाबा अमली से चिढ़न


   
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श्रीशः उपदंडक
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सी होने लगी! सच में, एक अजीब सी चिढ़न!
"कब की बात है ये बाबा?" मैंने पूछा,
"जब उनकी उम्र चालीस बरस थी" वे बोले,
चालीस बरस!
एक प्रबल औघड़!
वाह! क्या लगन थी!
"और उन्हें किसने सूचित किया?'' मैंने पूछा,
"उनके गुरु, मल्लनाथ ने" वे बोले,
"आज क्या उम्र है उनकी?" मैंने पूछा,
"इक्यानवें बरस" वे बोले,
इक्यानवें वर्ष! ओह!!!!! इक्यावन वर्ष कौमुदी संग रही! एक और कील ठुक गयी!
"लेकिन कौमुदी अप्रसन्न हो गयी थी" वे बोले,
अब ये तो वार था!
तलवार का वार!
एक ही झटके में गर्दन उतार देने वाला वार!
अप्रसन्न?
क्यों?
किसलिए?
क्या ऐसा भी होता है?
यदि हाँ, तो कैसे?
रहस्य!
एक और रहस्य!
"ये मैं नहीं बता सकता" वे बोले,
"क्यों?" मैंने पूछा,
"इसी क्यों के लिए आपको बुलाया था मैंने" वे बोले,
हैं?
नहीं समझा मैं!
"किसलिए बाबा?" मैंने पूछा,
"अमली बाबा के हृदय में एक फांस है, वही निकालनी है" वे बोले,
फांस?
कैसी फांस?
अजीब रहस्य था! समझ से परे!
"कुछ तो बताइये बाबा?" मैंने पूछा,
वे चुप!
मैं उत्सुक!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उत्सुकता के बिच्छू डंक मारें!
"बताइये?" मैंने पूछा,
"बता दोऊँगा, ज़रूरी भी है" वे बोले,
आखिर में नहीं बताया उन्होंने!
"लो" वे बोले, गिलास भर दिया था उन्होंने!
मैंने उठाया, और उत्सुकता में, खींच लिया!
"ये मूर्ति?" वो बोले,
"हाँ...हाँ" मैंने कहा,
और ले ली उन्होंने मुझसे!
दिल का कोई टुकड़ा ही नहीं, पूरा दिल ही बाहर निकल आया मेरा तो पसलियों से बाहर!
उन्होंने कपड़े में लपेट दिया उसको!
और मुझे देखो!
मैं उसको देखता रहा, जहां उसका हिस्सा दिखाई देता, वहीँ नज़रें मार लेता!
"मैं सब बता दूंगा आपको" वे बोले,
और मूर्ति उस कविश को दे दी! कविश ने मूर्ति वापसी उस बैग में रख दी,
लेकिन रहस्य बही भी बना हुआ था!
"लो" वो बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
अब जिसका दिल ही चला आये बाहर, उसके लिए क्या मदिरा और क्या ज़हर! खींच लिया वो भी पैग!
मैं तो अभी भी उसी बैग को देख रहा था! दांव लगता तो ले उड़ता!! ऐसे ख़याल आया था मेरे दिल में!
"बाबा अमली, जीवन भर, दुःख से पीड़ित ही रहे" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
अब मुझे क्या लेना!! हों परेशान!
"अपनी व्यथा मुझे सुनाई उन्होंने" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"मैंने मदद करने को कहा, लेकिन कर नहीं सका" वे बोले,
"कैसी मदद?" मैंने पूछा,
कान फिर से श्वान की तरह खड़े हुए मेरे!
चुप! सिर्फ गरदन ही हिलाएं!
"बता दूंगा, बता दूंगा" वे बोले,
मैंने इतंजार किया, लेकिन कुछ न बोले, और जब बोले तो.................

सच कहता हूँ, हालत बहुत खराब थी, उस कौमुदी की मूर्ति में तो जैसे प्राण ही बसने लगे थे मेरे! नाना-नानी की सुनाई हुई कहानियों में आये नाके का वर्णन आज मुझे सत्य सा लगने


   
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श्रीशः उपदंडक
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लगा! नाका, अर्थात दैत्य, जिसके प्राण या तो किसी तोते में बसते थे अथवा किसी गुड़िया में! अब समझ आ गया था कि प्राण कैसे बसते हैं! ये मूर्ति भी कुछ ऐसी ही थी! सच में प्राण बसने थे! मई अभी तक उस मूर्ति के विषय में ही सोचे जा रहा था, काश मैं रख सकूँ वो मूर्ति अपने पास! लेकिन वो अब उस बैग में थी जिसे कविश ने रख दिया था! और बाबा अमर नाथ के स्वामित्व में थी! आज तो मदिरा ने भी असर नहीं किया था! बल्कि और ध्यान केंद्रित कर दिया था! मुझे तो रह रह कर उस मूर्ति के अंग-प्रत्यंग और मुद्रा ही याद आये जा रही थी! स्वर्ण से कोई लेना देना नहीं था, स्वर्ण का कोई मोल नहीं था, बस किसी भी हालत में वो मूर्ति मिल जाए तो चैन आये! और बाबा अमर नाथ, वो अभी, फिलहाल में कुछ नहीं बता रहे थे, इस से उत्सुकता अब मेरी घोर निराशा में परिवर्तित हुए जा रही थी! मूर्ति मिलेगी अथवा नहीं? मिलेगी तो कैसे? दिमाग यहीं अटक गया था! कौमुदी-तंत्र से दिमाग हट चुका था, जैसे कोई व्यक्ति, गंगा जी का ध्यान तो करे लेकिन श्री गंगोत्री को भूल जाए! ऐसा आकर्षण था उसमे! या यूँ कहो कि एक ऐसी स्त्री के मादक-सौंदर्य ने ऐसा झकझोर दिया था कि समस्त संसार ही फीका लगे, ये जानते हुए भी कि वो स्त्री ब्याहता है! मैं अपने आपको बहुत 'कठोर' मानता हूँ इस विषय को लेकर, या यूँ कहो कि तटस्थ ही रहता हूँ, लेकिन उस मूर्ति ने मेरी तो सच्चाई ही उजागर कर डाली थी! वैसे मैंने एक से एक रूपवान और मादक मानव-स्त्री देखि हैं, परा-सौंदर्य भी देखा है, जिन्नाती-खूबसूरती भी देखी है, लेकिन इस निर्जीव मूर्ति ने तो मेरा अन्तःमन ऐसे भाव से भर दिया था, जिसको मैं अभी तक कोई संज्ञा नहीं दे पा रहा था!
"लो, ये लो" आवाज़ आई बाबा की,
मेरी तन्द्रा टूटी तभी!
ये गिलास था, भरा हुआ लबालब, सबसे अधिक मदिरा इस बार, मुझे ही परोसी गयी थी, मैंने झट से गिलास उठाया और खींच लिए! कड़वी लगी थी मदिरा, लेकिन काम-भाव में वो कड़वापन भी अत्यंत ही मृदु और मधुर लगा! तभी बाहर बिजली कड़की! बिजली ने मेरे मन की बात कही थी! मेरे मन में भी एक नहीं, अनेकों बिजलियाँ कड़क रही थीं! और मैं उस बिजली के प्रकाश में नहाये जा रहा था! बारिश ने फिर से ज़ोर पकड़ा! और तभी बत्ती चली गयी! घुप्प अँधेरा हो गया वहाँ, हाथ को हाथ न सुझाई दे, तभी शर्मा जी ने अपना लाइटर जलाया, प्रकाश हुआ, और तब कविश ने, वहीँ रखी एक मिट्टी के तेल से बनी हुई डिबिया जला दी, डिबिया की रौशनी लपलपा रही थी, उसके सामने रखी सभी वस्तुओं की परछाइयाँ अपने रूप से दोगुनी हो, दीवार पर नृत्य करने लगीं!
"आज नहीं रुकने वाली ये बारिश" बोले शर्मा जी,
"हाँ, सुबह से ही मौसम बना हुआ था" बोले बाबा गिरि,
बिजली फिर से कड़की!
और इस बार तो ऐसा लगा कि जैसे इस डेरे की मेहमान बन गयी है वो! जैसे शायद यहीं उतर आई है आकाश से!
"और लेंगे?" पूछा बाबा ने,
"नहीं, अब नहीं, अब आराम करूँगा" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं उठ खड़ा हुआ, शर्मा जी भी उठ गए, लेकिन बाबा गिरि वहीँ बैठे रहे,
"कमरे में ही रखी होगी डिबिया" बोले बाबा गिरि,
"ठीक है, देख लेते हैं" बोले शर्मा जी,
अब हम चले बाहर,
कमरे से बाहर आये तो बारिश ने स्वागत किया हमारा दिल खोल के, बाहर पतनाले बह रहे थे छतों से! अब तो पानी भी भर चुका था बाहर, लेकिन अँधेरा तो था ही, लाइटर को हाथ की आड़ में लिए हम आगे बढ़ते गए, और आ गए अपने कक्ष में, कक्ष में कुण्डी ही लगी थी, सो खोली, और अंदर गए, अब डिबिया ढूंढी, फर्श पर, कोने में डिबिया रखी थी, जला ली, और रख दी मेज़ पर! और अब बैठे गए हम बिस्तर पर, मैंने दीवार से टेक लगा ली तभी और चुपचाप से उस मूर्ति के विषय में ही सोचने लगा!
"गुरु जी?" बोले शर्मा जी,
मैंने देखा उन्हें,
"हाँ?" मैंने कहा,
"ये तंत्र-कौमुदी क्या है?" जिज्ञासा उन्हें भी थी, सो पूछ लिया उन्होंने,
"एक छलावा! सबसे गूढ़ विषय! इस तंत्र-जगत का!" मैंने कहा,
"छलावा?" बोले वो,
"हाँ, छलावा!" मैंने कहा,
"वो कैसे?" बोले वो,
"मुझे कुछ बताया तो गया था दादा श्री द्वारा, परन्तु अधिक नहीं, जितना बताया गया था, उसके अनुसार ये एक महा-शक्ति है, इसको अप्सरा और यक्षिणी-साधना के रूप में जाना गया है, लेकिन कौन सी अप्सरा, और कौन सी यक्षिणी, इस विषय में अधिक जानकारी किसी को नहीं! हाँ, अक्सर कुछ लम्पट व्यक्ति, सात्विक भी और तामसिक भी, अपने अपने ढंग से इसकी व्याख्या किया करते हैं! इस विषय में लिखित प्रमाण भी नहीं, हाँ, कुछ न कुछ अवश्य ही लिखा हो सकता है, मध्य-युग के उपरान्त, पर वो सटीक ही हो, इसमें संदेह है!" मैंने कहा,
"तो बाबा अमली ने कैसे सिद्ध किया?" पूछा उन्होंने,
"यही तो मैं सोच रहा हूँ!" मैंने कहा,
वे चुप हुए,
सोच में डूबे,
और फिर सिगरेट के पैकेट में रखी अपनी देसी सिगरेट निकाल ली!
"एक मेरे लिए भी" मैंने कहा,
उन्होंने दूसरी बीड़ी भी निकाल ली, और जला लीं दोनों, एक मुझे दी, और एक खुद ने ली,
मैंने एक ज़ोर का कश खींचा, और छोड़ा धुआं!
ऐसे ही शर्मा जी ने भी!
"तो ये बाबा क्या चाहते हैं?" पूछा उन्होंने,
"पता नहीं, अभी तक तो बताया ही नहीं" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कुछ भी हो, मामला संगीन सा लगता है" बोले वो,
"निःसंदेह!" मैंने कहा,
तभी बिजली फिर से कड़की!
खिड़की के रास्ते प्रकाश अंदर आया!
और एक पल के लिए मुझे सामने दीवार पर, वो मूर्ति ही देखने को मिली! मेरे तो दिलोदिमाग पर छा गयी थी वो! फिर से उलझ गया मैं उस मूर्ति में!
"और वो मूर्ति?" बोले वो!
जैसे चोर पकड़ा गया था! रंगे हाथ!
मैं मुस्कुराया!
"नायाब! उस मूर्ति जैसी कोई भी मूर्ति मैंने आज तक नहीं देखी! लगता है, प्राण हैं उसमे!" मैंने कहा,
"नहीं नहीं! मैंने पूछा, वो अमली बाबा को मिली?" बोले वो,
"हाँ, बताया तो यही गया था" मैंने दूसरा कश छोड़ते हुए कहा,
"किसने दी बाबा अमली को?" बोले वो,
"कहा था बाबा ने, कि कौमुदी ने" मैंने कहा,
अब मेरा उत्तर उन्हें पचा नहीं!
चुप हो गए!
मैं भी चुप!
कैसे बताऊँ?
मुझे तो स्वयं ही नहीं पता!
समय कोई ग्यारह का हो चुका था, अब रात गहरा चुकी थी, तो निर्णय हुआ कि अब सोना ही ठीक है, कल बात करते हैं इस विषय पर, तो हमने हाथ-मुंह धोये, और सोने की तैयारी की, बिस्तर ठीक किया, अपनी अपनी चादर निकले, चादर ओढ़ी और लेट गए!
लेकिन नींद नहीं आई!
आई भी तो टुकड़ों टुकड़ों में!
रात भर वो मूर्ति आदमकद बन, मेरे पास ही रही!
मैंने तो न जाने क्या क्या सोच लिया था! मेरी सोच का घोड़ा, निर्बाध और बेलगाम भागे जा रहा था! मैंने भी न रोका, भागने ही दिया!
खैर,
सुबह हुई, मेरी नींद खुली, शर्मा जी अभी सोये हुए थे, सुबह कोई छह का वक़्त हुआ था, खिड़की से बाहर झाँका तो बारिश बंद थी, लेकिन हवा अभी भी तेज थी, दूसरी तरफ की गैलरी में कुछ महिलायें आ-जा रही थीं, उनकी दैनिक-क्रिया आरम्भ हो चुकी थी, बाहर मैदान में जगह जगह पानी भर चुका था! मैं निवृत होने चला गया, फिर स्नान किया और आ गया बाहर, अब शर्मा जी को जगाया, वे उठे, और वे भी फिर फारिग होने चले गए, वापिस आये तो वहीँ बैठे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बत्ती अभी तक गोल थी, नहीं आई थी, हमारे मोबाइल्स भी चार्ज नहीं थे, बैटरी आधे से ज़्यादा खत्म थी, अब बत्ती आती तो इनको भी इनकी ख़ुराक मिलती!
"मैं आता हूँ अभी" बोले वो,
और चले गए,
थोड़ी देर बाद, एक केतली और दो कप ले आये, साथ में फैन थे, कोई एक फुट के फैन तो रहे ही होंगे वो! दो मैंने खाए चाय के साथ, बारिश की नमी से वो भी अब पीड़ित हो गए थे, मुंह में मैदा, चमड़े का सा एहसास करा रही थी! खैर, हमने उतार लिए पेट में, चाय भी पी ली, और शर्मा जी ने अपनी देसी सिगरेट जला ली!
अचानक से ही मुझे फिर से मूर्ति का ख़याल हो आया! अब तो मछली तड़पी! उछाल मारे! पानी में जाने के लिए, अपना बदन ऐंठे!
"बारिश बंद है फिलहाल" बोले वो!
और मैं बाहर आया उस मछली की तड़पन से!
"हाँ, अभी तो बंद है" मैंने कहा,
"लेकिन आकाश में अभी बादल बने हुए हैं" वो बोले,
"बारिश होगी फिर" मैंने बाहर देखते हुए कहा,
"लगता तो यही है" बोले वो!
मौसम में ठंडक आ गयी थी! बिना पंखे के भी आराम से बैठे थे हम! हाँ, मच्छर बहुत थे वहाँ! उनसे पार पाना कोई आसान काम नहीं था! वो भी खारे पानी के मच्छर! काट लेते तो जहां त्वचा पर ददोड़े बनते, वहीँ टीस से उठती रहती! जितना मार सकते थे हाथों से, उतनों को मार रहे थे, लेकिन उनकी सेना में दम था! एक शहीद होता तो एक टुकड़ी फिर से आ धमकती!

मच्छरों से तो निबट ही रहे थे हम, कि बाहर फिर से मेघ गरजे, लगता था कि आज फिर से बरसात होगी! वो भी मूसलाधार! उनकी गर्जन खोखली नहीं थी! क्योंकि कुछ ही देर में, आकाश में बादल छा गए थे, एकाएक मौसम ने करवट बदल ली थी और अब अँधेरा हो चला था बाहर! बिजली कड़की! और हुई रिमझिम शुरू! कुछ भी कहो, मौसम बहुत खुशगवार था! ठंडक बढ़ गयी थी! मैंने तो चादर ओढ़ ली थी, मच्छरों से तो बचाव होता ही, उस ठंडक से भी आराम मिलता! अक्सर ऐसे बदलते मौसम में शरीर का तापमान बाहर के तापमान से सामंजस्य नहीं रख पाता, जिसके कारण ज्वर हो जाता है, गला ख़राब और खांसी की भी संभावना बनी रहती है, और हम तो अपने घरों से दूर तो थे ही, यहां के शहर से भी दूर थे! थोड़ी बहुत दवा शर्मा जी के पास ज़रूर थी, वो वक़्त और ज़रुरत आने पर इस्तेमाल होती, तब तक बचाव करना बहुत ज़रूरी था! और यही सबसे बढ़िया इलाज है!
"लो जी! हो गयी शुरू" बोले शर्मा जी,
"हाँ, आज तो सुबह से ही झड़ी लग गयी!" मैंने कहा,
"चौमासे जैसा मौसम हो रहा है ये तो!" बोले वो,
"सही बात है, हमारे यहाँ तो चौमासे में भी ऐसा नहीं होता! रात-दिन की तो बात ही छोड़िये!"


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने कहा,
"शहरों में पेड़ आदि काट दिए जाते हैं, घनत्व बनता नहीं, बारिश कहाँ से हो!" बोले वो!
"हाँ, ये ही बात है" मैंने कहा,
तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई,
शर्मा जी उठे, दरवाज़ा खोला,
तो सामने सहायक था! चाय ले आया था फिर से, साथ में कुछ गर्मागर्म पकौड़े भी! अब इस से बढ़िया क्या होता! ऐसा मौसम, बारिश की रिमझिम! चाय और गर्मागर्म पकौड़े! शर्मा जी ने झट से पकड़े! ले आये, चाय दी मुझे, खुद बैठे, और वो छबड़िया रख ली बिस्तर पर जिसमें पकौड़े थे!
"ये सहायक बढ़िया आदमी है!" बोले वो,
"उसे पता है, चाय ही ले गया तो आप मांग लोगे उस से पकौड़े!" मैंने कहा,
वे हंस पड़े!
हम चाय के साथ वो गर्मागर्म पकौड़े खाते रहे! उनमे से निकलती भाप सर्दी का सा एहसास करा रही थी! कुछ भी कहो, वो पकौड़े बड़े ज़रूर थे लेकिन थे बहुत बढ़िया! पेट भर जाए लेकिन नीयत नहीं!
अभी हम चाय पी ही रहे थे कि बाबा गिरि ने प्रवेश किया! नमस्कार हुई उनसे और वे बैठ गए वहीँ, हमने चाय के बारे में पूछा तो बोले कि पी कर ही आ रहे हैं वो!
"आज फिर से बारिश है" मैंने कहा,
"हाँ, कल से ही झड़ी लगी हुई है" वे बोले,
"रात में तो बंद थी?" मैंने कहा,
"एक आद घंटे को ही बंद हुई थी, या फिर सुबह" वे बोले,
"अच्छा अच्छा!" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"तो अब तो रास्तों में भी पानी होगा?" मैंने पूछा,
"भर गया होगा!" वे बोले,
"यानि कि अभी यहीं ही रहना है हमको!" मैंने कहा,
"तो क्या परेशानी है! चाय पियो, पकौड़े खाओ!" वे हँसते हुए बोले!
मैं भी हंस पड़ा!
"रात को कुछ समझ आया?" उन्होंने पूछा,
"सच पूछिए तो कुछ नहीं" मैंने कहा,
"वो कैसे?" पूछा उन्होंने,
"नहीं जान सका कि क्या चाहते हैं मुझसे वो" मैंने कहा,
"आज बता देंगे" वो बोले,
"आप ही बता दो?" मैंने कहा,
"मुझे भी नहीं पता सच पूछो तो" बोले बाबा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब रहस्य ऐसे आगे और गहरा जाता है, सो गहरा गया था! न जाने कैसी मदद चाहते हैं मुझसे वो, न जाने क्या बात है!
"अजीब सी बात है" मैंने कहा,
"कैसे?" उन्होंने पूछा,
"बताना चाहते तो कल ही बता न देते?" मैंने कहा,
"बता देंगे, इसीलिए यहां आये हैं वो और आपको बुलाया है" वो बोले,
"चलो, देखते हैं आज" मैंने कहा,
"आज बता देंगे" वे फिर से बोले,
"ठीक है" मैंने कहा,
बाहर अजीब सी बिजली कड़की! एक के बाद एक! पूरा कमरा नहा उठा उस रौशनी में!
"आज तो बहा ले जाएगा, ऐसा लग रहा है!" मैंने कहा,
"निकासी अच्छी है यहाँ की, और ये जगह है भी ऊंचाई पर" वे बोले,
"हाँ, ये तो है" मैंने कहा,
"चलो, आराम करो, भोजन आ ही जाएगा" वे बोले,
"जी" मैंने कहा,
वे उठे, अपनी धोती संभाली और चले गए बाहर, शर्मा जी ने दरवाज़ा बंद कर लिया था, और हमारे चाय-पकौड़े भी अब खत्म हो चले थे! अब हम हाथ पांच कर, लेट गए थे, कम था नहीं कुछ, ठाली ही बैठे थे, कहीं बाहर जाते तो बारिश ने अवरोध लगा दिए थे!
तभी शर्मा जी का फ़ोन बजा, उन्होंने उठाया, ये घर से था उनके, बातें हुईं, बताया कि अभी कोई हफ्ता लगा जाएगा, मौसम ख़राब है और बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही है! तो अभी हफ्ता था हमारे साथ, मुझे भी हफ्ते के बाद कुछ आवश्यक काम था दिल्ली में ही, सोच रहा था कि बारिश रुके तो हम जल्दी जल्दी ये काम निबटा लें!
कोई एक बजे भोजन किया हमने! भोजन कल की तरह ही स्वादिष्ट बना था! पेट भर के खाया हमने और फिर से आराम किया, उसके बाद मेरी आँख लग गयी थी, शर्मा जी भी सो गए थे, और जब नींद खुली तो पांच बजे का समय था! बारिश तो रुक चुकी थी, लेकिन बादल अभी भी धमका रहे थे! रह रह कर कभी कभी चाबुक चला ही देते थे!
शर्मा जी ने बाहर झाँका,
"अभी तो बंद है" वे बोले,
"हाँ, देखा मैंने" मैंने कहा,
"बस अब रुक जा!" वे बाहर देखते हुए बोले!
और तभी बादल गरज उठे!
मैं हंस पड़ा!
"मिल गया जवाब?" मैंने कहा,
"हाँ जी! फ़ौरन ही मिल गया! धमकी दे दी है!" वे बोले,
किसी तरह से और दो घंटे काटे! अपने कमरे में ही क़ैद थे हम, अब अँधेरा छा चुका था, बत्ती


   
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श्रीशः उपदंडक
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चार बजे करीब आई तो थी, लेकिन आधे घंटे के बाद, फिर से चली गयी थी! कमरे में वही मिट्टी के तेल की डिबिया जला ली गयी थी! थोड़ा बहुत प्रकाश हुआ था उस से, कम से कम दिख तो रहा ही था!
तो मित्रगण! अब हुई शाम! और हुई शाम तो लगी हुड़क!
मैंने शर्मा जी को कहा कि सहायक के पास जाएँ, कुछ खाने-पीने को ले आएं, गिलास आदि और पानी भी, तब तक मैं, बोतल निकला लेता हूँ! वे चले गए, मैंने बोतल निकाल ली, और रख दी बिस्तर पर, डिबिया खिसका कर, सामने मेज़ पर रख ली थी, तो मैंने बिस्तर पर अखबार लगा लिया, थोड़ी देर में ही शर्मा जी और वो सहायक आ गए, शर्मा जी के हाथों में गिलास और पानी था और सहायक छबड़िया में कुछ मसालेदार लाया था, कुछ सलाद भी थी! रखा सामान उन्होंने!
मैंने झट से छबड़िया का कपड़ा उठा के देखा, वाह! भुनी हुई कलेजी थी वो! अब वो कहाँ से लाया, पता नहीं, चूंकि बाहर तो बारिश थी, शहर तक जाना और आना इतनी जल्दी सम्भव न था! अब हमें क्या! जो चाहिए था, मिल गया था! अब शायद वहीँ किसी बकरे या मेढ़े को 'चटका' दिया होगा उसने! सहायक जाने से पहले कह गया था कि कुछ चाहिए हो तो बता दें हम उसे!
अब वो गया तो हम हुए शुरू! शर्मा जी ने पैग बनाया! और हमने पैग खींचने किये शुरू! भुनी हुई कलेजी के ऊपर नीम्बू छिड़क कर तो स्वाद ऐसा हो गया था कि और कुछ खाने का मन ही न करे!
"लज़ीज़!" मैंने कहा,
"हाँ, लेकिन मैं सलाद ही लूँगा" वो बोले,
"एक आद तो?" मैंने कहा,
"लेता रहूँगा" बोले वो,
अपने पेट का ख़याल रखा करते हैं शर्मा जी, इसीलिए कम ही खा रहे थे कलेजी, बाकी सलाद पर टूटे पड़े थे, मैं भी सलाद का एक आद टुकड़ा चबा ही लेता था!
बाहर मेघ गरजे!
और हुई फिर से बूंदाबांदी शुरू!
"लो! फिर से" मैंने कहा,
"हाँ जी" वो बोले,
इस बार ऐसी बिजली कड़की, कि कान के पर्दे तक सतर्क हो गए!
"आज तो लगता है यहीं फट के रहेगा!" वे बोले,
मुझे हंसी आई!
तभी बाबा गिरि अंदर आये! बैठे, हमने उन्हें भी एक गिलास भरके दे दिया!
"बारिश फिर से तेज हो गयी" मैंने कहा,
"हाँ, रुकने का नाम ही नहीं ले रही" वे बोले,
मैंने अपना गिलास खत्म किया तब ही,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अब बाबा कैसे हैं?" मैंने पूछा,
"दोपहर में बुखार था उन्हें, काढ़ा दिया है उनको, खांसी-ज़ुकाम भी हो गया है" वे बोले,
"मौसम की चपेट में आ गए हैं" मैंने कहा,
"यही बात है" शर्मा जी बोले,
"चलना है उनके पास?" मैंने पूछा,
"अभी चलते हैं, मैंने हण्डा लगाने को कहा है वहां" वे बोले,
"ठीक है" मैंने कहा,
फिर से एक और गिलास, और वो भी खत्म!

बारिश अपने यौवन पर थी उस समय! मेघों ने सारी कसर झोंक मारी थी! और अब तो जैसे कुँए ही उलट दिए हे उन्होंने! बाहर सिर्फ शोर ही था, उस बारिश का शोर! जैसे सागर की लहरें तट पर बांधे हुए पत्थरों से टकराया करती हैं! ऐसी बारिश हाल-फिलहाल में मैने यहीं देखी थी! घनघोर बरसात! लगता था बारिश बूंदों में नहीं, कतार में हो रही हो जैसे! छत पर ऐसी पड़ रही थी कि जैसे आज छत में छेद कर देगी!
मैंने अपना आधा कोटा निबटा लिया था, बाबा ने भी दो गिलास खींच मारे थे, ठेठ पटियाला पैग! मेरे चार और उनके दो! पुराने चावल थे बाबा! अब अंग्रेजी कहाँ असर करती उनको! यही कारण था!
"आओ, चलते हैं" वे बोले, और खड़े हुए,
"चलो" मैंने कहा,
मैं खड़ा हुआ और जूते पहन लिए, शर्मा जी भी जूते पहन चल पड़े, बाहर अँधेरा था, दूर सहायक की रसोई में लगी डिबिया चमक रही थी, उसी का प्रकाश खिड़की उसके कमरे के दरवाज़े से बाहर आ रहा था, और दूर बायीं तरफ, तेज प्रकाश था, यहीं लगा था वो हण्डा, जहाँ बाबा अमर नाथ ठहरे हुए थे, हमने सहायक के कक्ष को पार किया, अरहर की दाल की खुश्बू आ रही थी वहां से! अब दूसरे लोगों के लिए भोजन बनाया जा रहा था शायद! हम आगे चलते रहे और पहुँच गए वहीं जहां बाबा अमर नाथ का कमरा था, कमरे से रौशनी आ रही थी, लेकिन कुछ कीट-पतंगे भी आ डटे थे, कुछ टिड्डे और दूसरे पतंगे भी थे, एक मेरे कंधे पर आ बैठा था, मैंने हाथ से हटाया उसको! अंदर गए, प्रणाम किया बाबा से, वो अपने बिस्तर पर, कंबल लपेटे बैठे थे, साथ की कुर्सी पर, कविश बैठा था, और संग उनके एक महिला भी थी, कोई चालीस बरस की रही होगी, दिखने में साध्वी तो नहीं लगती थी, तोतई रंग की साड़ी पहनी थी उसने, और हाथों में ज़ेवर भी थे, गले में भी और कानों में भी, ये कौन थी, पता नहीं चला था!
हम बैठ गए सभी वहाँ, वो औरत उठ गयी और चली गयी बाहर तभी के तभी, कद-काठी मज़बूत थी उस औरत की, वो जिस तरह से उठी थी, स्पष्ट था कि वो जानती थी कि हम आने वाले हैं और कुछ राय-मशविरा होने को है!
'आइये" बोले बाबा,
हम बैठ गए उधर ही, कविश उठा गया था, शर्मा जी वहां अब बैठ गए थे, दूसरी कुर्सी पर मैं


   
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श्रीशः उपदंडक
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बैठ गया था, बाबा गिरि बाबा के पास बैठ गए थे!
बारिश ने गति पकड़ ली थी! छत पर ऐसे पड़ रही थी जैसे गोलीबारी हो रही हो! और बाहर तो पूछो ही मत! सब कुछ तरबतर करने की फ़िराक में थी वो! पास रखे हंडे पर कीट-पतंगे होलिका-दहन की तैयारी में लगे थे, कुछ मौत से न डरने वाले, टक्कर मारने लगते थे उसे! पट-पट की आवाज़ें आ रही थीं! हण्डा ढका हुआ था, नहीं तो वो भी नेस्तनाबूद हो चुका होता उन चौड़ी छाती वाले वीरों से! कम से कम अपने समूह में सबसे चौड़ी छाती उन्ही की होगी, तभी तो आ डटे थे!
बाबा ने गला खखारा अपना, फिर खांसी, और रुमाल से अपनी नाक पोंछी, ज़ुकाम बढ़ गया था उनका, आवाज़ भी अलग ही हो गयी थी अब!
"अब कैसी तबीयत है आपकी?" मैंने पूछा,
"ठीक नहीं है, खांसी और ज़ुकाम ने ज़ोर पकड़ लिया है" वे बोले,
"कुछ दवा है हमारे पास, कहो तो दे दूँ?" मैंने कहा,
"काढ़ा पिया है अभी, सुबह तक आराम हो जाना चाहिए" वे बोले,
पुराने लोग दवा-दारु से, खासतौर पर अंग्रेजी दवाओं से बचते हैं, इसीलिए हाँ को न में कहने के लिए उत्तर दिया था उन्होंने अपने ही अंदाज़ में!
मैंने उनका हाथ पकड़ के देखा, बुखार था उन्हें, कम से कम एक सौ एक या दो तो रहा ही होगा,
"आप दवा ले लें, बुखार तेज है" मैंने कहा,
वो खांसी, और अपने हाथ से इशारा करके न कह दिया!
अब मुझे चुप होना पड़ा!
चुप्पी छा गयी थी तभी! और तभी बादल गरजे! बिजली कड़की! और उस हंडे की रौशनी उस बिजली की रौशनी में मोमबत्ती समान हो गयी थी एक पल को तो! हवा तेज चली तो दरवाज़ा भनभना गया, कविश गया और दरवाज़ा बंद कर दिया उसने, फिर से आ बैठा वहीँ!
"कल मैंने आपको बताया था बाबा अमली के विषय में" बोले बाबा,
"हाँ बाबा जी" मैंने कहा,
"उन्ही के विषय में आपको बुलाया गया है यहाँ" वे बोले,
"जी" मैंने कहा,
"सबसे पहले ये बता दूँ कि कौमुदी है क्या?" वे बोले,
"जी बाबा!" मैंने कहा,
यही तो जानना चाहता था मैं! अब आई थी पटरी पर गाड़ी! सीटी मारते हुए!
"कौमुदी......आज के समय में इस परा-विद्या का आधुनिक नाम है, कौमुदी नाम की कोई यक्षिणी और अप्सरा नहीं" वे बोले,
मेरे तो कान जठर गए!
मुंह खुला रहा गया!
जिव्हा हलक में जाते जाते रुकी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कोई नहीं है ये कौमुदी?
ऐसा कैसे?
"हाँ, कोई नहीं! कौमुदी एक जंगली पुष्प है, और एक शिला-खंड! हाँ, एक मुद्रा को भी कौमुदी-मुद्रा कहा जाता है, आजकल के समय में इस नाम का ही प्रचलन है!" वे बोले!
"अच्छा! तो सत्य क्या है?" मैंने पूछा,
"तृप्तिका अप्सरा!" वे बोले,
तृप्तिका?
ये तो पहली बार सुना मैंने! कौन है ये तृप्तिका? मुख्य अप्सराओं में तो इसका नाम कहीं नहीं है? जो सुनी हैं, जिनकी साधना होती है, उनमे से भी नहीं है, तो ये कौन है?
"ये कौन है बाबा?" मैंने पूछा,
"बस यूँ समझ लो कि एक शापित अप्सरा है ये!" वे बोले,
शापित अप्सरा! इतना लम्बा श्राप! कलयुग तक चलता आ रहा है ये श्राप? भला एक अप्सरा को ऐसा श्राप क्यों मिलेगा?
"किसने दिया श्राप?" मैंने पूछा,
"पता नहीं" वे बोले,
"आदि कुछ नहीं?" मैंने पूछा,
:किसी को ज्ञात नहीं" वे बोले,
"बाबा अमली?" मैंने पूछा,
"उन्हें भी ज्ञात नहीं" वे बोले,
ज्ञात नहीं, फिर भी सिद्ध? मान लिया चलो!
बाबा फिर से खांसी, गला साफ़ किया, बलग़म तक गया था, खींच कर साफ़ किया, और फिर उठ कर, बाहर चले गए, थूकने, वापिस आये तो रुमाल से नाक-मुंह पोंछा, वापिस बिस्तर में घुस गए,
अब कहानी में मोड़ नहीं, चौराहे आने लगे थे! वो भी एक नहीं, असंख्य!
"कविश? वो...(खांसी उठी, खांसे)..." इस से पहले वो बोलते, कविश उठ गया था,
वो बैग तक गया, और कल वाली एक और मदिरा की बोतल निकाल लाया, वहीँ रखी और बाहर चला गया, तब तक हमारे बीच बाहर बारिश के विषय में बातें होने लगीं!
कोई दस मिनट में कविश आ गया, साथ में सहायक भी सामान ले आया था, वहीँ रखा उन्होंने सामान, हण्डा उठकर, नीचे रख दिया, और सामान मेज़ पर रखा फिर,
वही भुनी कलेजी, सलाद और पानी था, गिलास, बस अब गिलास कांच के न होकर, स्टील के थे! सहायक गया वापिस,
"डालो कविश" बोले बाबा गिरि,
अब कविश ने डालना शुरू की मदिरा, भर भर के गिलास बना दिए,
"लो जी" बोला वो,
अब हम सभी ने अपने अपने गिलास उठा लिए,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ये लो, मैंने ही बनवायी थी" बाबा अमर नाथ बोले, कलेजी की तरफ इशारा करके,
"अच्छा! बहुत लज़ीज़ बनी हैं!" मैंने कहा,
"खाइये फिर" बोले वो!
और हम सभी ने एक एक टुकड़ा उठा लिया! टुकड़ा काटा, और गिलास खींच लिया, फिर बचा हुआ टुकड़ा भी खत्म कर दिया!
"बाबा अमली ने इसी तृप्तिका को सिद्ध किया था" बोले बाबा!
"अच्छा" मैंने कहा,
दरसल मैं अभी तक इसी ख़याल में खोया हुआ था कि बाबा अमली ने कैसे सिद्ध कर लिया? किसे ज्ञान था इस तृप्तिका का? किसने बताया उनको? विधि या रीत कैसे पता चली? कौन था वो महा-तांत्रिक??
"आप सोच रहे होंगे कि कैसे सिद्ध किया?" बोले बाबा,
यक़ीनन!
मैं यही तो सोच रहा था!
"हाँ.....हां बाबा!" मैंने कहा,
"शतभाल शव! घाड़!" वे बोले,
मैं तो गिरते गिरते संभला!
शतभाल घाड़?
अर्थात एक नपुंसक का शव?
उसकी शव-साधना?
"उसी शतभाल घाड़ ने बताया था उनको!" वे बोले,
अब तो मित्रगण! मैंने अपने आपको नगण्य ही जाना अपने आपको! बाबा अमली ने शतभाल-साधना की थी! शतभाल-साधना में ऐसे कई गूढ़ रहस्य हैं जिनसे आप बहुत कुछ जान सकते हैं! आप जो पूछना चाहें, वो बताता जाएगा! सभी विधियां! सभी क्रियाएँ! अब समझा में! अब कम से कम ये तो पता चला, कि वो महा-तांत्रिक आखिर था कौन!! मैंने कभी ये साधना नहीं की थी, किसी भी नपुंसक का शव नहीं प्राप्त हुआ था मुझे पच्चीस वर्षों में! देखा तो था, लेकिन कभी इसकी साधना नहीं की थी!
लेकिन बाबा अमली! वो सफल हुए थे!
सफल इस शतभाल-साधना में!
अब सुलझने लगी थी डोर! बस ढूंढना था अब उसका छोर!

छोर ढूंढने के लिए अभी मेहनत बाकी थी! लेकिन अभी भी ये ज्ञात नहीं था कि इसमें मेरी क्या आवश्यकता आन पड़ी थी? बाबा अमर नाथ सब जानते थे, बाबा अमली अभी भी जीवित थे, वो पूर्ण रूप से मदद करने के समर्थ थे! तो मैं कहाँ टिकता था बाबा अमली के सामने? बाबा अमली तो स्वयं ही सिद्ध कर चुके थे उस तृप्तिका को! तो मामला अभी अटका ही हुआ था! हाँ, इतना ज़रूर कि डोर पकड़ में आ चुकी थी! लेकिन बाबा अमर पहेलियाँ सी बुझाए जा रहे थे, स्पष्ट रूप से नहीं बता रहे थे! और मुझे यही जिज्ञासा काटे जा रही थी! हाँ, एक बात बड़ी


   
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श्रीशः उपदंडक
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ही विशेष थी! वो वो, वो शतभाल क्रिया! मेरे इस पूर्ण तांत्रिक-जीवन में आजतक मैंने शतभाल क्रिया नहीं देखी थी, सुनी अवश्य ही थी, लेकिन कभी बैठा नहीं था उसमे, न ही कोई निमंत्रण आदि ही आया था! इतना तो पता ही था कि शतभाल-क्रिया से वो रहस्य उजागर हुआ करते हैं जो मालूम ही नहीं किसी को! अच्छे से अच्छा साधक भी इस से अनजान ही रहता है! तो इसी शतभाल-क्रिया से बाबा अमली ने वो रहस्य जाना होगा, और ये तृप्तिका-साधना चुनी होगी! अब किसलिए चुनी, ये तो बाबा अमली ही जानें! इस से क्या मिलता है, प्रथमदृष्टया तो काम की प्राप्ति हुआ करती है! और शायद यही कारण रहा होगा! तब बाबा की आयु भी कम ही रही होगी और देह में जान होगी!
मुझे तो यही लग रहा था, नहीं तो कोई साधक भला अप्सरा-सिद्धि की विधि क्यों पूछेगा! वो मार्ग में आगे बढ़ता जाए, कोई विघ्न न हो, कोई अवरोध न आये, इसके लिए निर्बाध-क्रिया विधि पूछे तो कोई औचित्य समझ में आता है, अब अप्सरा-सिद्धि से लाभ क्या?
अभी हम बात कर ही रहे थे कि दरवाज़े पर दस्तक हुई, कविश उठा और चला दरवाज़ा खोलने, एक औरत आंध्र आई, गौर से देखा तो वो, वही औरत थी जो अभी गयी थी वहां से, कपड़े से पकडे हुए एक लोटा ले आई थी, शायद काढ़ा था इसमें, कविश ने लिया और एक गिलास में डाल दिया, और दे दिया बाबा को, बाकी वहीँ रख दिया, धक दिया एक तश्तरी से, वो औरत एक चादर ले गयी अपने साथ, और वापिस चली गयी, कविश ने दरवाज़ा बंद कर दिया उसके जाते ही!
बाहर बिजली कड़क रही थी! बारिश अपने ज़ोर पर थी! खिड़की से अंदर आता प्रकाश कमरे में बैठे कुछ भूतों समान हमें चमका जाता था!
"तो बाबा एक बात बताइये, मुझे अब तक समझ जो आया है वो ये कि बाबा अमली ने शतभाल-क्रिया की, विधि जानी, और फिर उसके बाद तृप्तिका-अप्सरा को साध लिया और कर ली सिद्ध, अब तक तो यही है, और वो मूर्ति उस कौमुदी अथवा तृप्तिका की ही है, लेकिन इसमें मेरा क्या काम है?" मैंने पूछा,
"यही तो बताना है आपको!" बाबा ने कहा,
"तो बताइये?" मैंने कहा,
"एक बात बताइये, ये तृप्तिका अप्सरा, कैसी होगी रूप में?" उन्होंने पूछा,
"दूसरी अप्सराओं जैसी" मैंने कहा,
वे मुस्कुराये, काढ़े का एक घूँट पिया और मुझे देखा,
"नहीं!" वे बोले,
नहीं???
कई नहीं? अप्सरा तो अप्सरा ही है, उनमे क्या अंतर?
"अप्सरा क्या प्रदान किया करती यही, ये विषय नहीं है, ऐसा कुछ नहीं लिया बाबा अमली ने!" वे बोले,
"नहीं लिया?' मेरे मुंह से निकला,
"हाँ, नहीं" वे बोले,


   
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