सुबह सुबह का वक़्त था! कोई साढ़े पांच बजे होंगे, मैं और शर्मा जी उसी समय जागे थे, हम पीलीभीत आये हुए थे, जहां ये स्थान था, वो काफी सुंदर और प्राकृतिक सम्पदा से पूर्ण था! पहले मैं जागा था, फिर उनको जगाया था, वे भी जाग गए थे, मौसम बढ़िया था, अक्टूबर का महीना था तो गर्मी की पकड़ उन दिनों ढीली ही थी! कुल मिलाकर मौसम, खुशगवार था!
"कैसी नींद रही?" मैंने पूछा,
"बहुत बढ़िया, एक बार लेटने के बाद तो पता ही नहीं चला!" वे बोले,
"हाँ, ये तो है" मैंने कहा,
अपना ब्रश निकालते हुए और उस पर पेस्ट लगाते हुए,
मैं चला गुसलखाने की तरफ, तौलिया आदि वस्त्र ले लिए थे, नहाने-धोने का समय था, वैसे भी कल काफी सफर किया था! मैं यहां एक बाबा, गिरि के साथ आया था, हमें यहाँ मिलना था किसी से, जो कि आज पहुँचने वाले थे यहां!
तो मैं चला गया गुसलखाने,
स्नान किया, और फिर वस्त्र पहन बाहर आ गया,
फटकार के केश सुखाये और इतने में ही शर्मा जी चले गए स्नान करने, और मैं इतने में तैयार हो गया था!
मैं तैयार होकर बिस्तर पर बैठा, और जुराब पहनने लगा,
जुराब पहने तो फिर जूते भी पहन लिए, बाहर घूमने का कार्यक्रम था, अक्सर सुबह के समय ऐसे स्थान पर घूमना मुझे और शर्मा जी को सदैव ही अच्छा लगता है!
वे भी स्नान कर आये, वस्त्र पहने, फिर अपना साबुन आदि अलग रखा, और जुराब पहन, जूते पहन लिए उन्होंने भी, समझ ही गए थे कि हम चल रहे हैं बाहर टहलने!
हम आ गए बाहर,
कक्ष को ताला लगाया और चाबी मैंने शर्मा जी को दे दी,
उन्होंने अपनी कमीज़ की जेब में चाबी रख ली,
अब हम लगे टहलने, वहाँ काफी बढ़िया बगीचा लगा था,
फूल ऐसे खूबसूरत थे कि एक बार देखो तो छूने का मन करे!
कुछ जंगली फूल थे शखर के, वो बहुत सुंदर लगे! सुबह सुबह पक्षीगण का गीत-गान बहुत मधुर लगता है! इस से पता चलता है कि प्रकृति कितनी सतत है अपने नियम पर! सुबह, फिर दोपहर, फिर शाम, फिर रात! ये चक्र ऐसे ही सदैव चलता रहता है! चलता रहा है, और चलता ही रहेगा!
हम चलते जा रहे थे आगे, गीले बालों में मेरे जब हवा लगती, तो फुरफुरी सी उठ जाती!
"कल तक गए थे वैसे बस में" वो बोले,
"हाँ, बस भी ठीक नहीं थी" मैंने कहा,
"कमर का हलुआ बन गया!" वे कमर पर हाथ रखते हुए बोले!
"हाँ, कमर तीर-कमान हो गयी थी!" मैंने कहा,
"और उस पर से भीड़!" वे बोले,
"शुक्र है ठिकाने के लिए जगह मिल गयी, नहीं तो आज पाँव भी मन ही मन गालियां दे रहे होते!" मैंने कहा,
वे हंस पड़े!
तभी एक बड़ा सा शहतीर दिखा, जल्दी में ही काटा गया था शायद वो पेड़,
देखने से ठूंठ ही लग रहा था,
हम बैठ गए उसके ऊपर,
हमारे सामने ही बगुले बैठे थे, दरअसल वहाँ एक छोटा सा तालाब सा था, वहीँ आ बैठे थे वे सभी! उनकी तो दिन-चर्या आरम्भ हो गयी थी! भोजन का समय हो चला था उनका! कुछ छोटे बगुले भी थे, जो लगातार अपने पंख फैलाते और मुंह खोलते, बगुला-माँ या बगुला-पिता, उसके मुंह में वो चारा डाल देता! साथ ही साथ उन नन्हे बगुलों को सीख भी मिल रही थी कि किस प्रकार अपना अस्तित्व बचाये रखना है! चूंकि, कुछ ही दिनों के बाद, उसको निकाल दिया जाता परिवार से!
ये भी एक नियम है प्रकृति का! सब बंधे हैं इस से! कोई अछूता नहीं! न मैं और न आप!
उन बगुलों का शोर बहुत हो रहा था! खासतौर पर वो छोटे बगुले तो चिल्ला रहे थे! अपने माता-पिता के पीछे पीछे भाग रहे थे!
शर्मा जी और मैं, एकटक उन्ही को देखे जा रहे थे!
"अब बताओ, कैसे ये अपना मुंह फाड़ रहे हैं! छीन रहे हैं, और इन माँ-बाप को देखो! कैसे खिला रहे हैं इनको! ये क्या इनको कमा के खिलाएंगे!" वे बोले,
मैं मुस्कुराया!
"ये इनकी सहज-प्रवृति है शर्मा जी, जो इन्होने अपने माँ-बाप से सीखा, वही दोहराते जा रहे हैं, नया कुछ नहीं!" मैंने कहा,
"हाँ, ये तो सच है!" वे बोले,
तभी कुछ सारस भी आ धमके उधर! कोई आठ-दस!
अब बगुलों में मची खलबली!
सारस ने अपनी गर्दन हिलाकर, मंशा ज़ाहिर कर दी अपनी!
क्या करते बेचारे बगुले! स्थान बदलने को हुए विवश!
एक ये भी नया पाठ सीखा उन नन्हे बगुलों ने!
कुछ हिम्मती बगुले डटे रहे, लेकिन एकदम सावधान होकर!
और जब सारस ने आवाज़ लगाई तो वे भी भाग निकले वहाँ से!
बहुत ही खूबसूरत नज़ारा था वो! पानी से टकराती हवा जब आती तो ठंडक लाती! और ये ठंडक जब हमारी त्वचा पर पड़ती, तो आनंद आ जाता!
हम करीब एक घंटे तक बैठे रहे, उसी तालाब का हिस्सा बन चुके थे!
बस फ़र्क़ इतना कि वे सब जल में आहार ढूंढ रहे थे और हम सूखे में बैठे थे!
शर्मा जी को चाय की तलब लगी! हम उठे, और चल दिए वापिस!
हम आ गए वापिस उस स्थान पर, ये स्थान बड़ा तो नहीं था, हाँ, फिर भी, छोटा भी नहीं कहा जा सकता था, कुल अठारह-बीस कक्ष रहे होंगे वहां, साथ ही साथ, इस स्थान में खाली भूमि बहुत थी, और यहीं ये डेरे के लोग, सब्जियां आदि उगा लेते थे!
हम आये अपने कक्ष में,
ताला खोला,
और अंदर बैठ गए,
जग उठाया, और पानी डाला गिलास में, दो गिलास मैंने पिए और एक शर्मा जी ने,
तभी एक सहायक आ गया वहाँ,
उसने चाय-नाश्ते की पूछी तो हमने हामी भर दी!
कोई पंद्रह मिनट के बाद, कुछ गर्म पकौड़ियों और चाय के साथ वो आ गया!
पकौड़े आलू के थे, प्याज के भी और मूंग की दाल के, पालक के साथ मथ दिए गए थे!
लेकिन थे लाजवाब! बहुत ज़ायक़ा था उनमे!
चाय का मजा चार गुना हो गया था!
चाय पी ली, बर्तन अलग रख दिए, और अब हाथ-मुंह धोने में चला गया गुसलखाने, वापिस आया तो शर्मा जी भी हो आये!
बैठ गए हम वहीँ!
तभी दरवाज़े से अंदर आये वो गिरि बाबा!
नमस्कार हुई, और वे भी बैठ गए!
"चाय-नाश्ता हो गया?" उन्होंने पूछा,
"हाँ! हो गया!" मैंने कहा,
"यही पूछने आया था मैं!" वे बोले,
"सहायक ले आया था अपने आप!" मैंने कहा,
"बता दिया था मैंने उसको" वे बोले,
"अच्छा!" मैंने कहा,
कुछ देर चुप्पी!
बाहर हवा चल रही थी, सूखते कपड़े हिल रहे थे रस्सी पर, और कुछ लडकियां उन्हें संभाल रही थीं! मैं खिड़की से बाहर झाँक रहा था और यही देख रहा था!
"अमर नाथ भी आ जाएंगे दोपहर बाद तलक" वे बोले,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"कल रात को ही बात हुई थी उनसे" वे बोले,
"अच्छा, ठीक!" मैंने कहा,
"आप आराम करो, कुछ चाहिए हो, तो बता देना" वे बोले,
"ज़रूर!" मैंने कहा,
वे उठे, हाथ जोड़े, और चले गए बाहर,
"अमर नाथ रुद्रपुर से आ रहे हैं?" शर्मा जी ने पूछा,
"नहीं, गोरखपुर से" मैंने कहा,
"ओह.." वे बोले,
मैंने अपने जूते खोल लिए,
अब मैं लेटा बिस्तर पर,
तकिया लगाया सर के नीचे,
और कर लीं आँखें बंद!
शर्मा जी के लाइटर की आवाज़ आई, बीड़ी जला ली थी उन्होंने,
उस बीड़ी की गंध ने इसे और साबित कर दिया!
अब आँखें बंद हुईं तो झपकी लग गयी! मुझे नहीं पता चला कि कब नींद आ गयी! एक तो मौसम बहुत बढ़िया था और ऊपर से शान्ति का माहौल! नींद तो आनी ही थी! मैं जब उठा तो नौ बजे थे, शर्मा जी नहीं थे वहाँ, शायद गुसलखाने गए हों, दरवाज़ा बंद था गुसलखाने का!
मैं उठ बैठा! खिड़की से बाहर झाँका, तो हवा अभी भी तेज ही थी, कपड़े जो सूख रहे थे, अब उतार लिए गए थे, और अब दूसरे कपड़े डाल दिए गए थे वहां, बिस्तर की चादरें थीं वे सभी! कुछ महिलायें अभी भी बाल्टियों में कपडे ला ला कर, उन रस्सियों पर डाल रही थीं!
सूरज का प्रकाश था तो तेज, लेकिन जून के महीने जैसा घातक नहीं था, आराम से सहन हो जाता था! इसी कारण से वो महिलायें आपस में बातें करते हुए हंसी-ठिठोली किये जा रही थीं! कुछ बालक-बालिकाएं भी थे वहाँ, वे अपने ही संसार में मस्त थे! उनकी क्रीड़ाएं वो ही जानें! वे भी भाग रहे थे! कोई गिरता था तो कोई गिराया जाता था! बड़े भाई और बहनें अपने अपने बहन-भाई का ख़याल रखने के लिए, दूसरों से झगड़ भी लिया करते थे! और कुछ देर में ही, फिर से क्रीड़ा में मग्न! यही है उनका संसार! हम्ररी तरह मतलबी नहीं! लालची नहीं! इस अनमोल संसार में हम अपना एक अलग ही संसार बनाकर रखते हैं! ऐसा उन बालक-बालिकों में नहीं होता! वहां समरसता हुआ करती है! मिल-बाँट के खाते हैं! खेलते हैं!
तभी दरवाज़ा खुला गुसलखाने का, शर्मा जी आये थे बाहर,
हाथों में गीले कपड़े थे उनके!
"कपड़े धो रहे थे?" मैंने पूछा,
"हाँ, ये एक जोड़ी हैं, सोच धो ही लूँ" वे बोले,
"हाँ, ठीक किया" मैंने कहा,
वे चले बाहर, और एक रस्सी पर, डाल आये कपड़े अपने,
आये अंदर, हाथ पोंछे तौलिये से, और बैठ गए वहीँ कुर्सी पर,
तभी सहायक आया अंदर, उसके हाथों में दो थालियां थीं,
एक शर्मा जी ने पकड़ी और एक मैंने,
शर्मा जी भी आ बैठे बिस्तर पर, अखबार बिछा लिया गया था,
सहायक ने थालियां दीं और चला गया बाहर,
थाली में, एक कटोरी में डाल, ज़ीरे और लहसुन के तड़के वाली मसूर की डाल थी, एक कटोरी में, आलू और पत्ता-गोभी की सब्जी थी, एक कटोरी में दही और साथ में अचार, मिर्च का! साथ में नमक और भुना हुआ ज़ीरा, जो कि चूर्ण बना लिया गया था!
मैंने ज़ीरे का वो चूर्ण लिया और दो चुटकी दही में डाल दिया, और साथ में एक चुटकी नमक भी! चम्मच से मिला लिया और एक चम्मच खाया! तबीयत प्रसन्न हो गयी! कपडे में लिपटी हुई रोटियां खोलीं, किसी महिला ने ही बनायी थीं, साफ़ स्पष्ट था! उस महिला के हाथ गद्देदार रहे होंगे, तभी रोटी बीच में से मोटी थी! और आसपास से सामान्य! अब शुरू किया भोजन! दाल लज़ीज़ थी! उस लहसुन और ज़ीरे के तड़के ने तो स्वाद दो गुना कर दिया था उसका! और सब्जी! सब्जी ऐसे ज़ायकेदार की दो टूक की सब्जी एक टूक में ही खाए जा रहे थे हम! और वो मिर्चों का आचार! आँखों और नाक में पानी आ गया था, रुमाल न होता तो गड़बड़ हो जाती!
भोजन से निबट गए हम! बीच बीच में दाल और सब्जी ले ही ली थी, इसीलिए पेट अब गले तक भर चुका था! पानी पीकर हमने अब आराम किया!
आराम किया जी हमने कोई दो घंटे! पेट में मिर्चों ने जो आतंक काटा था, अब शांत था!
"आओ, बाहर ही चलें" वे बोले,
"चलो" मैंने कहा,
हमने जूते पहने अपने अपने, और चल दिए बाहर,
सबसे पहले शर्मा जी ने अपने कपड़े देखे, सूख चुके थे, थोड़ी-बहुत क़सर थी, सो भी ऊरी हो ही जाती एक आद घंटे में!
"वहाँ, वहां चलते हैं" वे बोले,
वहाँ एक पेड़ों का झुरमुटा था, खूब छाया थी वहां, और घास भी काफी थी!
"चलो" मैंने कहा,
हम चल पड़े वहीँ!
और जा बैठे, एक जगह सूखी थी वहां, वही बैठ लिए,
वहन बैठे, तो आसपास खेलते हुए श्वान आ पहुंचे, कान खड़े किये हुए, और पूंछ हिलाते हुए, हमें ही देखते रहे! मैंने एक को पुचकारा, बड़ी हिम्मत करने के बाद आया और सर पर हाथ फिरवाया! अब दोस्ती हुई तो खुल गया पूरी तरह से! उसकी देखादेख दूसरे भी आ पहुंचे! हो गयी उनकी मस्ती शुरू!
खैर, हम बैठे तो थे ही, तभी फ़ोन बजा मेरा, ये दिल्ली से ही आया था, किसी का काम था, उनसे बात हुई और बता दिया कि कोई हफ्ते बाद हम वापिस पहुंचेंगे वहाँ!
मौसम बढ़िया था! पेड़ झूम रहे थे हवा से! उनकी पत्तियों से छनकर आती सूरज की धूप, सुनहरी रंग की, बहुत सुंदर लगती! जैसे कोई नव-यौवना, कनखियों से देखे!
हम करीब एक घंटे से ज़्यादा वहाँ ठहरे!
वो श्वान अभी तक मस्ती मार रहे थे, बीच बीच में आ जाते थे खबर लेने!
और जब हम चले, तो वो भी चल दिए संग हमारे!
वे अपने अपने रास्ते हो लिए और हम अपने!
शर्मा जी ने कपड़े उतारे रस्सी से और अब मैंने कक्ष खोला, अंदर गए, और बैठ गए, शर्मा जी ने अपने कपड़ों की तह लगाई और रख दिए एक तरफ! घड़ी देखि तो दो बज चुके थे, और बाबा अमर नाथ की कोई खबर नहीं आई थी अभी तक!
कोई बात नहीं! हो जाती है देर-सवेर!
हम फिर से लेट गए!
और तभी सहायक आ गया, चाय लेकर, मेरा मन नहीं था, इसीलिए मैंने नहीं ली,
शर्मा जी ने चाय ली और पीने लगे!
"वैसे, बाबा अमर नाथ को क्या काम हो सकता है आपसे?" उन्होंने पूछा,
"ये तो मुझे भी नहीं पता" मैंने कहा,
"किसी का अता-पता काढ़ना होगा?" वे बोले,
"हो सकता है" मैंने कहा,
"नहीं तो सत्तर साल के बाबा अमर नाथ को अब ऐसा कौन सा काम पड़ गया?" वे बोले,
"वो आएं तो पता चले" मैंने कहा,
"हाँ, आने ही वाले होंगे" वे बोले,
चाय पी ली उन्होंने,
और फिर से बीड़ी सुलगा ली!
मैंने भी एक आद सुट्टा लगा ही लिया!
फिर कोई दो घंटे और बीत गए!
और तभी बाबा गिरि आये अंदर!
हम खड़े हो गए तभी!
"हाँ, वो आ पहुंचे हैं, आराम कर रहे हैं, उनको बुखार है" वे बोले,
"ओह...कोई बात नहीं, साँझ को मिल लेंगे" मैंने कहा,
"हाँ, मैंने भी यही कहा है" वे बोले,
"कोई बात नहीं" मैंने कहा,
वे चले गए फिर वापिस, खबर ही देने आये थे,
"बाबा को बुखार हो रहा है" शर्मा जी बोले,
"हाँ, बदलता मौसम है" मैंने कहा,
"यही वजह है" वे बोले,
"चलो, आ तो गए!" मैंने कहा,
"दवा है मेरे पास, कहो तो दे आऊँ?" उन्होंने पूछा,
"पूछ लो, बाबा गिरि से बात कर लो" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
वे उठे, और अपना बैग खोला, उसमे से दवा निकाली, जेब में रखी और चले गए बाहर,
मैं वही रह गया था!
थोड़ी देर बाद आये वापिस,
"दे दी दवा?" मैंने पूछा,
"हाँ, बाबा गिरि को ही दे दी" वे बोले,
"ये ठीक किया" वे बोले,
"अब यहाँ डॉक्टर कहाँ से आये!" वे बोले,
"सही बात है, शहर ही जाना होगा!" मैंने कहा,
"और शहर पहुंचेंगे शाम तक!" वे बोले,
मैं मुस्कुरा गया!
वे लेट गए और मैं कुर्सी पर बैठ आगे वहीँ! समय काटे नहीं कट रहा था! बातें भी करें तो कितनी!
तभी बाहर देखा मैंने! बाहर आंधी चल रही थी! महिलायें आनन-फानन में अपने अपने सुखाये कपड़े उन ज़ोर से हिलती हुईं रस्सियों से उतार रही थीं! कुछ कपड़े तो ज़मीन पर कुलांच भर रहे थे! कमरे की खिड़की भी भनभना रही थी! मैं उठा और बंद कर दी खिड़की, अचानक से, फिर से खुल गयी!
"आंधी?" शर्मा जी ने पूछा,
"हाँ!" मैंने कहा,
वे उठे और बाहर झाँका!
"बहुत तेज आंधी है!" वे बोले,
"हाँ, बहुत तेज!" मैंने कहा,
वे चले बाहर की तरफ! साथ मैं भी चला उनके!
हम बाहर आये तो क्या नज़ारा था! पेड़ ऐसे झूम रहे थे कि जैसे आज ज़मीन छोड़, आकाश-मिलन होगा! छोटे छोटे पौधे भी उनके संग झूम रहे थे! धूल-धक्क्ड़ मची थी! आँखों में और नाक में धूल के कण जा रहे थे! लेकिन इसकी किसे चिंता! नज़ारा ही इतना शानदार था! आकाश में बदली छा गयी थीं! अब बरसात होने का समय था! बरसात हो तो ये धूल-धक्क्ड़ थमे! और यही हुआ! सिक्के-नुमा बूँदें गिरीं, लेकिन वो गर्म थीं! ठंडी नहीं, और फिर उसके बाद बारिश ने ज़ोर पकड़ा! हम गैलरी में ही खड़े थे, बारिश का रुख हमारी ओर नहीं था, इसीलिए पानी नहीं पड़ रहा था हम पर! हाँ, हवा बहुत तेज थी!
"बारिश बढ़िया होगी अब!" मैंने ज़ोर से कहा, अपने मुंह पर हाथ रखते हुए!
"हाँ! हो ही रही है!" वे बोले,
"हाँ, तेज हो गयी है!" मैंने कहा,
"मैं आया अभी" वे बोले,
और अंदर कक्ष में चले गए!
वहां से दो कुर्सियां खिसका लाये! एक मेरे लिए दी, मैंने ली और बैठ गया! वे भी बैठ गए!
"ये अच्छा हुआ! धूल जम जायेगी इस से" वे बोले,
"हाँ, अब नहीं है धूल" मैंने कहा,
और तभी बिजली कड़की!
उस स्थान को कंपा गयी!
श्वान भौंके सामने मुंह करके! उनके लिए ये सहज नहीं था!
तभी छतरी लिए और हाथ में केतली लिए सहायक आया!
"चाय?" उसने पूछा,
"हाँ, क्यों नहीं!" मैंने कहा,
"यार, खाली चाय बस?" शर्मा जी ने उस से कहा!
वो मुस्कुराया!
"क्या लाऊँ बताओ?" वो बोला,
"कुछ पकौड़े-शकौड़े मिल जाते तो मजा आ जाता!" वे बोले,
"अच्छा! टाइम लगेगा फिर" वो बोला,
"कोई बात नहीं!" वे बोले,
सहायक जाने लगा!
"रुक यार! फिर चाय भी तो चाहिए?" वे बोले उस से, वो रुक तो गया ही था!
"मिल जायेगी साहब!" वो बोला, और चला गया छतरी ताने!
"अब आएगा मजा बारिश का! चाय और साथ में पकौड़े!" वे बोले,
"हाँ! मजा आएगा पक्का!" मैंने कहा,
तभी फिर से बिजली कड़की!
"वाह! बरस और बरस!" शर्मा जी बोले,
बीड़ी सुलगा ही ली थी उन्होंने! मजे ले रहे थे बीड़ी के!
तभी दो महिलायें समीप से गुजरीं, नमस्कार किया उन्होंने, हमने भी किया, वे दोनों आगे जाकर, दायें मुड़ गयीं, वहीँ डेरे की ही महिलायें थीं वो, उनके वस्त्रों से साफ़ पता चलता था!
करीब आधे घंटे के बाद सहायक आया, एक छोटी सी टोकरी लेकर, साथ में केतली थी उसके पास!
"ले आया भाई!" शर्मा जी ने कहा,
"हाँ जी" वो बोला,
उसने टोकरी दी उन्हें, और केतली मुझे पकड़ाई,
फिर उसने कप उठाये, वही कप जिनमे हमने अभी चाय पी थी, अंदर गया कक्ष में, और धो कर ले आया, फिर चाय डाल दी उनमे! फिर टोकरी से कपड़ा उठा लिया उसने! पकौड़े थे बढ़िया! गरम गरम! आलू, प्याज, गोभी और कटहल के! बहुत बढ़िया बने थे! हमने भुक्खड़ों की तरह से लील लिए सारे के सारे! इतने खाए कि डकार आ गयी! साथ ही साथ चाय भी पी थी!
"मजा आ गया!" वे बोले,
"सच में!" मैंने मुंह पोंछते हुए कहा,
बारिश पड़ ही रही थी तेज! हवा के संग कुछ बूँदें भी पड़ ही जाती थीं हमारे ऊपर! बहुत
बढ़िया लगता था ऐसा!
"ये नहीं रुकने वाली रात तक!" मैंने कहा,
"यही लगता है" वे बोले,
"चलो कोई बात नहीं, मौसम शानदार हो जाएगा!" मैंने कहा,
"हाँ, यक़ीनन!" वे बोले,
वे दो महिलायें फिर से गुजरीं वहां से, मुस्कुराते हुए, हम बी मुस्कुरा गए थे, अब कुछ सामान लेकर आ रही थीं, शायद सब्जी-भाजी थी उनकी पोटलियों में!
"रात के भोजन की तैयारी है शायद" वे बोले,
"हाँ, यही है" मैंने कहा,
बारिश पड़ती रही!
बिजली कड़कती रही!
हम ऐसे ही बैठे रहे!
आखिर उठ गए!
"आ जाओ, अंदर ही बैठते हैं" मैंने कहा,
उन्होंने अपनी कुर्सी खिसकाई और चल दिए अंदर, मैं भी चल दिया,
अंदर आये, कुर्सियां लगाईं, और बैठ गए, घड़ी देखि तो छह और साथ के बीच में थे छोटा काँटा और बड़ा काँटा आठ के पास पहुँचने ही वाला था! शाम का धुंधलका तो छा ही गया था, अब हुई शाम तो लगी हुड़क! अब करना था जुगाड़ खाने-पीने का!
"मैं आता हु, कहता हूँ सहायक को" शर्मा जी बोले,
"आ जाओ, तब तक मैं बोतल निकालता हूँ" मैंने कहा,
वे चले गए, और मैंने बैग में से, अखबार में लिपटी हुई एक बोतल निकाल ली! रख दी वहीँ बिस्तर पर!
कुछ ही देर में, शर्मा जी अ गये, साथ में कुछ खीरे, चुकंदर, गाजर भी थे! एक तश्तरी और दो चाक़ू!
"लो जी!" वे बोले,
"लाओ" मैंने कहा,
अब धोया उनको हमने, साफ़ किया, और की अब घिसाई शुरू उनकी! फिर कटाई! और इस तरह से सलाद बना ली हमने! तभी सहायक आ गया! वो जो भी लाया था, खुशबूदार था! मसाले की गंध आ रही थी!
"क्या ले आया?" शर्मा जी ने पूछा,
"देख लो जी आप खुद ही!" वो बोला रखते हुए,
मैंने खोला तो ये टला हुआ मुर्गा था! दिखने में तो शानदार लग रहा था, मैंने उठाया एक टुकड़ा, और खाया, क्या बेहतरीन स्वाद था उसका!
"अरे वाह!" मैंने कहा,
सहायक मुस्कुराया!
"तुमने ही बनाया?" मैंने पूछा, वो बचा हुआ टुकड़ा खाते हुए!
"हाँ जी!" वो बोला,
"क्या बात है!" मैंने कहा,
"अच्छा लगा?" उसने पूछा,
"अच्छा नहीं बहुत अच्छा!" मैंने कहा,
साथ में हरी चटनी भी थी उसके, लहसुन की तेज गंध आ रही थी! धनिया-पुदीना डाला गया था उसमे, कच्चे आम के साथ शायद!
"एक काम और कर यार?" बोले शर्मा जी,
"हाँ?" बोला वो,
"थोड़ा सा काल नमक, नीम्बू और एक प्याज हो तो ले आना!" वे बोले,
"अभी लाया" वो बोला और चला गया!
पानी वगैरह ले ही आया था वो, पानी भी ठंडा ही था!
"लो जी, हो जाओ शुरू!" मैंने कहा,
"बनाओ" वे बोले,
और अब बनाये मैंने पैग! बना कर, दे दिया उनको! उन्होंने और मैंने स्थान-भोग दिया और फिर एक दूसरा अन्य भोग! और उतार दिया गले के नीचे! कर दिया मदिरा पर एहसान!
साथ में था बढ़िया सामान! तो मजा हो गया दोगुना!
और तभी बाबा गिरि आ गए अंदर! बैठे! तो एक गिलास उनका भी बना दिया हमने! वे भी हो गए शामिल हमारी महफ़िल में!
"अब कैसी तबीयत है अमर बाबा की?" मैंने पूछा,
"अब ठीक है वैसे तो" वे बोले,
"बस अभी चलते हैं मिलने उनसे" मैंने कहा,
"हाँ, यही कहने आया था मैं" वे बोले,
"बस अभी, थोड़ी देर में" मैंने बोतल उठाकर देखा, तो एक एक ही पैग शेष था उसमे! वो भी निबटा दिया और फिर चल पड़े उनके साथ हम दोनों, मिलने बाबा अमर नाथ से मिलने!
वहाँ पहुंचे,
कक्ष में अंदर गए तो बाबा अमर नाथ लेटे हुए थे, हमने नमस्कार की उन्हें, उन्होंने मुस्कुरा कर उसका उत्तर दिया! हम बैठ गए फिर वहीँ कुर्सियों पर!
"अब कैसी तबीयत है?" मैंने पूछा,
"अभी ठीक हूँ" वे बोले,
तभी कमरे में एक और व्यक्ति आया, वो भी वहीँ बैठ आज्ञा, पता चला वो बाबा अमर नाथ का भांजा है, शुरू से ही संग रहा है उनके!
वो बाबा अमर नाथ का करीबी लग रहा था, चूंकि वो उनके सिरहाने आ बैठा था, और उस से पहले मैंने कभी नहीं देखा था उसको उनके साथ, इसीलिए अजीब सा लगा था मुझे पहली नज़र में, बाबा गिरि से तो काफी पुरानी जान-पहचान थी, करीब पचास साल पुरानी तो होगी
ही, उनके गुरु भी एक ही थे, बाबा अमर नाथ श्री श्री श्री महाबल नाथ के भी पुराने जानकार थे, और इसी कारण से मैं उनके सम्पर्क में आया था! और यही कारण था कि बाबा गिरि के कहने पर कि बाबा अमर नाथ मुझसे मिलना चाहते हैं, मैं नियत दिन पर यहां आ पहुंचा था!
बाहर अभी भी बारिश ही थी, बारिश अब तेज तो नहीं थी, लेकिन भिगोने के लिए पर्याप्त थी! कभी-कभार मेघ गरज कर अभी आकाश में हैं वो, बतला दिया करते थे!
"जी बाबा, बताइये कैसे याद किया, मैं हाज़िर हूँ" मैंने कहा,
वे उठने लगे, तो उनके भांजे ने सहारा दिया उनको, तो उठ गए वो, अपनी चादर सही की उन्होंने, फिर अपना कुरता भी और गला खखारा अपना!
"क्या आप अमली बाबा को जानते हैं?" उन्होंने पूछा,
अमली बाबा?
मैंने ज़ोर लगाया दिमाग पर, कुछ याद आया!
"हाँ, वो नेपाल वाले?" मैंने पूछा,
"हाँ, वही" वे बोले,
तो अमली बाबा अभी जीवित थे! जब में उनसे कोई सात साल पहले मिला था तो उनकी आयु पिचासी वर्ष की रही होगी! और मुझे बहुत ख़ुशी हुई ये जानकर कि अमली बाबा आज भी जीवित हैं!
"वो आजकल नैनीताल में हैं, अपने पुत्र के साथ, छोटा पुत्र नेपाल में है और बड़ा वाला उनके साथ ही रहता है, नाम है अनिरुद्ध, मेरी उनसे पिछले साल मुलाक़ात हुई थी, तब उन्होंने कुछ बताया था मुझे, मैंने काफी जानकारी जुटाई उस बारे में, लेकिन अधिक नहीं पता चल सका, एक तो अब मेरा स्वास्थ्य सही नहीं रहता, सांस की तकलीफ रहती है, और दूसरा अब साधना भी नहीं होती, कभी-कभार विद्या-जागरण कर लिया करता हूँ, अब मेरे शेष कार्य ये मेरा भांजा, कविश ही करता है" वे बोले, उस भांजे के कंधे पर हाथ रखते हुए,
अब तक तो सब सही था! स्वास्थ्य सही नहीं रहता, ठीक है, दिख भी रहा था, कविश वहीँ बैठा था, अच्छी कद-काठी का व्यक्ति था, स्वाभाव के बारे में मैं जानता नहीं था, चूंकि कभी परखा नहीं था!
"अच्छा बाबा! वैसे क्या बताया था अमली बाबा ने आपको?" मैंने पूछा,
वे चुप हुए, और सोचने लगे कुछ, अपनी हल्की दाढ़ी पर हाथ फेरा, फिर गले में पहना हुआ ताबीज़ पकड़ा, और मुझे देखा,
कुछ पल ऐसे ही देखा मुझे!
"कौमुदी के बारे में सुना है?" उन्होंने पूछा!
कौमुदी!!
क्या?
कौमुदी???
मैं हुआ सन्न!
क्या कह रहे हैं बाबा?
क्या हुआ इनको?
ये तो मात्र किवदंती सी लगती है मुझे!
सुना तो है, लेकिन बहुत कम! एक बार अपने दादा श्री के श्री मुख से! बाबा क्यों पूछ रहे हैं मुझसे?
"कौमुदी?" मैंने पूछा,
दबी सी आवाज़ में...
सहमी सी आवाज़ में......
यक़ीन से परे से लहजे में.......
हाँ....यक़ीन से परे के लहजे में.....
"हाँ, कौमुदी!" वे बोले!
मुझे अब भी यक़ीन नहीं हुआ!
शर्मा जी का तो ये हाल था कि जैसे कोई कहे हवा आई तो नज़रें गढ़ा के देखें कि कहाँ? किस ओर!!
मैंने कभी नहीं बताया था उन्हें इस तंत्र-कौमुदी के विषय में! इस साधना को आज सात्विक लोगों ने कमाई का धंधा बना दिया है! इसको यक्षिणी और अप्सरा साधना से जोड़ दिया गया है! लेकिन ऐसा है नहीं! दरअसल कौमुदी भी एक स्वच्छंद महाशक्ति है! साधक जिस रूप में पूजे, उसी रूप में प्रकट होती है, और इस संसार और उस संसार में ऐसा कुछ नहीं, जो ये प्रदान न कर सके! मेरे लिए तो ये किवदंती ही थी! मैंने न तो कोई ऐसा चिन्ह देखा था, न ही कोई ऐसा साक्ष्य, प्रमाण आदि , न कोई मूर्ति, न कोई लिखित में प्रमाण! कुछ भी नहीं! और सबसे बड़ी बात, न ही कोई साधक!!!
इसीलिए मुझे यक़ीन नहीं हो रहा था!
(मित्रगण, ये तंत्र में बहुत बड़ा रहस्य है, सबसे गूढ़तम विषयों में से एक है)
"लेकिन मैंने कभी नहीं सुना कौमुदी के विषय में बाबा" मैंने कहा,
"मैं बताता हूँ" वे बोले,
फिर कुछ देर चुप हुए,
और कविश की ओर देखा, कविश से कुछ कहा,
कविश उठा और चला एक तरफ! मैं उसे ही देख रहा था! वो एक बैग तक गया, बैग खोला, और उसमे से कपड़े में लिपटी हुई कोई वस्तु थी वो, वो ले आया बाबा के पास उसे, बाबा को दे दी,
मेरे कान लाल हुए!
आँखें चौड़ी भट्टा सी हो गयीं!
क्या है इसमें?
के वस्तु है ये?
मारे जिज्ञासा के दिमाग घूमने लगा!
बाबा ने उस वस्तु को निकाला आराम आराम से वो कपड़ा खोलकर, और जो वस्तु निकली,
वो एक मूर्ति थी, शुद्ध सोने की बनी हुई मूर्ति, और उस मूर्ति के साथ में ही एक और पोटली थी, छोटी सी, वो भी खोली, उसने से एक और पोटली सी निकली, वो भी खोली, तो उसमे से कोई चमकदार सी मिट्टी सी निकली! सबकुछ आँखों के समक्ष हो रहा था! लेकिन ये सब था क्या?
"इधर आओ" वो बोले,
मैं झट से उठा!
जैसे मांस का टुकड़ा देखते ही कोई श्वान उठ जाता है! उन तक पहुंचा!
"ये, ये देखो" वो बोले,
उन्होंने वो मूर्ति मुझे दी, वजन में कोई डेढ़ किलो के आसपास होगी वो मूर्ति, कोई सवा फ़ीट लम्बी, किसी अत्यंत ही सुंदर स्त्री की नग्न मूर्ति, ढालने वाले ने, पहले स्त्री सौंदर्य का परमोच्च देखा होगा, छत्तीस काम-कलाएं जानी होंगी, चौंसठ स्त्री-मुद्रा सीखी होंगी, एक सौ इक्कीस स्त्री के अंग-प्रत्यंग विन्यासों का अध्ययन किया होगा! कमाल था!! बेहद कमाल की मूर्ति! लगता था कि अभी बोल पड़ेगी!
"कौमुदी!" बाबा ने कहा,
यदि ये कौमुदी है, तो रति की कट्टर शत्रु है! रति तो युद्ध ही छेड़ देगी उसके साथ! यही सोच था मैंने उस पल! एक पल के लिए तो, मुझे भी हैरत हो गयी थी कि ये मूर्ति कौमुदी का रूप है!
"ये कहाँ से मिली बाबा?" मैंने पूछा,
"बाबा अमली ने दी थी मुझे" वे बोले,
"अच्छा" मैंने धीरे से कहा,
मैं अभी भी, उस मूर्ति के अंग-प्रत्यंग देख रहा था! एक एक अंग ऐसा था कि जैसे किसी अप्सरा को श्राप मिला हो और वो इस मूर्ति के रूप में श्राप भोग रही हो!!
"और उन्हें?" मैंने पूछा,
वे चुप हुए,
मैंने प्रतीक्षा की,
जब कोई उत्तर नहीं दिया उन्होंने तो, मैंने ही पूछा फिर से,
"उन्हें कहाँ से मिली ये मूर्ति?" मैंने पूछा,
"कौमुदी से" वे बोले,
क्या?????????
मेरे कान में विस्फोट हुआ!
बाबा का दिमाग चल गया है क्या?
क्या ऐसा सम्भव है?
मेरे दिमाग में सोच-विचार की रेलगाडी दौड़ पड़ीं! बेलगाम! किसी भी मुक़ाम पर न रुकने वाली वो रेलगाड़ियां!!! भागे जा रही थी अपनी उच्च-गति पर!
"विश्वास नहीं हुआ?" वे बोले,
कैसे होता?
कैसे करता मैं विश्वास?
और मान भी लिया जाए, तो कौमुदी क्यों देगी कोई मूर्ति?
किसलिए?
क्या औचित्य?
"नहीं हुआ विश्वास" मैंने कह दिया!
अब नहीं हुआ था तो कहना ही था!
मैं बैठ गया वो मूर्ति पकड़े पकड़े! वहीँ, कुर्सी पर, उस मूर्ति ने मुझे जैसे सम्मोहन में ग्रस्त कर लिया था! मैं बार बार उसको देखता, निहारता और डूब जाता उसमे!
"ये देखो" वो बोले,
मैंने मूर्ति एक हाथ में पकड़ी, और उठ कर गया उनके पास,
उन्होंने मुझे मेरे सीधे हाथ में कुछ दिया, मैंने गौर से देखा, ये तो कीकर के पेड़ की पत्तियां थीं, शुद्ध सोने की बनी हुई, एकदम असली जैसी, लेकिन था खालिस सोना! आज का कोई भी कारीगर उनको नहीं गढ़ सकता! मुझे विश्वास है!
"ये कीकर की पत्तियां सी लगती हैं" मैंने कहा,
"नहीं, रमास है" वे बोले,
"ओह..हाँ! रमास ही है!" मैंने कहा,
रमास!
रमास!
सर में फिर से धमाके से हुए!
रमास के नीचे ही तो, सिद्ध किया जाता है कौमुदी को? ओह!! कहाँ फंसा मैं!!!! रमास का पौधा भी अपने हाथों से ही लगाया जाता है, उसका रोपण, रक्त से हुआ करता है, बलि-कर्म पश्चात, उसको भूमि में रोपा जाता है! और जब वो वृक्ष बन जाता है, तो उसका पूजन कर, उस कौमुदी की साधना की जाती है!!
मेरे हाथ कांपे!
शरीर कांपा!
मेरी तो रूह ही ठंडी पड़ गयी थी!!!
तो क्या कौमुदी सत्य है?
और जब कौंड़ी प्रकट हुआ करती है, तो वो रमास का वृक्ष अपने पूर्ण जीवन तक, स्वर्ण सी पत्तियां दिया करता है! इसके आभूषण तो नहीं बन सकते, लेकिन गुण-धर्म में वो स्वर्ण ही होता है!! और वो पत्तियां ही इस समय मेरे हाथ में थीं! मैंने फिर से मूर्ति को देखा! लगा, देख रही हैं उसकी आँखें मुझे! मैं सिहर गया! पसीने छलछला गए शरीर पर! कीड़े से रेंग गए बदन पर!
"अब विश्वास हुआ?" उन्होंने पूछा,
कैसे? कैसे करता मैं विश्वास?
मेरे हाथ अभी तक काँप रहे थे!
और जब बाबा ने वो मूर्ति मुझसे लेनी चाही, तो मैंने कस के पकड़ ली थी वो मूर्ति!!
वो मूर्ति लें चाहते थे और मैं, छोड़ नहीं रहा था! एक अजीब सा लगाव सा हो गया था, एक अजीब सा खिंचाव! सच कहता हूँ, न जाने कैसा अजीब खिंचाव था वो! शायद यही सोच रहा था मेरे मन का चोर की जब ये मूर्ति इतनी सुंदर है तो स्वयं कौमुदी कैसी होगी! और बाबा अमली! उन्होंने सिद्ध कर ली? कैसे? कैसे?? ये कैसे का जवाब नहीं मिल पा रहा था! और यही कैसे, जैसे मेरी जान ही लेके छोड़ता! मैंने नहीं छोड़ी मोररटी, आखिर में, बाबा ने ही छोड़ दी वो मूर्ति! मैंने फिर से निहारा उसको! स्वर्ग की अप्सरा थी वो मूर्ति! उसकी देह तो जैसे जीवंत ही हो चली थी! और मैं, कौए की तरह उसी को देखे जा रहा था! एकटक!
बाबा ने वो पत्तियाँ मेरे हाथ से ले लीं, मैं चौंका तो ज़रूर, लेकिन दे ही दीं!
"अब मेरा यक़ीन आया?" उन्होंने पूछा,
मैंने ध्यान नहीं दिया उनके प्रश्न पर!
मैं तो मूर्ति में ही गड़ गया था!
उन्होंने दुबारा पूछा!
"जी?" मैंने कहा,
"मेरा यक़ीन आया आपको अब?" वे फिर से बोले,
"हाँ....हाँ....हाँ" मैंने कहा,
और फिर से उस मूर्ति को देखा, उस मूर्ति के कुछ केश जो स्वर्ण से बने थे, उसके आधे वक्ष को ढके थे, बड़ा ही खूबसूरत सा दृश्य लगा मुझे वो सब! उसकी नाभि के नीचे, एक स्वर्ण-डोर बंधी थी, वो डोर ऐसी डोर थी कि जैसे, खींच ही ले अपने अंदर!
"कौमुदी!" मैंने मन ही मन आनंदित होते हुए कहा!
बाबा भांप गए थे मेरा आशय! उनके लिए तो बेहतर था कि मैं इसमें विशेष ध्यान दूँ! यदि मैं लालायित हो गया, तो काम हो सकता है! लेकिन काम? वो क्या था? कैसा काम? क्या चाहते थे बाबा मुझसे इस कौमुदी को लेकर? ये जानना ज़रूरी था! और इसीलिए मैंने प्रश्न कर ही लिया!
"बाबा इसमें आप क्या मदद चाहते हैं मेरी?" मैंने कहा,
बाबा चुप थे, लेकिन देख मुझे ही रहे थे!
"भोग लगा लिया?" उन्होंने पूछ लिया!
लेकिन ये उत्तर नहीं था मेरे प्रश्न का! अजीब सी बात थी! मैं चौंका तो ज़रूर!
"हाँ, लगा ही रहे थे हम लोग" मैंने कहा,
उन्होंने बाबा गिरि कि ओर देखा, और बाबा गिरि ने मुझे! मुझे समझ ही नहीं आया! फिर बाबा अमर नाथ ने, कविश को देखा, आँखों ही आँखों में बात हुई उनकी! कविश उठा और चल पड़ा एक तरफ! मुझे समझ नहीं आया, लेकिन मेरी नज़रें उसी पर गड़ी रहीं! वो अपने बैग के पास गया, और एक बोतल निकाल ली, ये बढ़िया अंग्रेजी शराब थी! लगता था कोई विदेशी चेला-चपाटा दे गया था उनको!
अब समझ में आ गया!
सारा माज़रा! सारा खेल!
