गालियां खायीं बहुत!
खानी पड़ीं!
एक इंसानी लड़की को कैसे सौंप दूँ में उस शहज़ाद जिन्न को! वो अपने में ही रहे, उल्लंघन उसने किया क़ायदे का, मैंने नहीं, मैं तो विरोध करूँगा जहां तक कर सकता हूँ, इल्म सीखने का ये मतलब नहीं कि मैं मतलबी हो जाऊं , इल्म बांटने से बढ़ता है और सही इस्तेमाल होने से इसमें लगातार नाइ धार लगती रहती है!
इल्म भोथरा नहीं होना चाहिए, नहीं तो खुद का ही नाश कर देगा!
यही तो सीखा है मैंने इतने वर्षों में!
तय हो गया!
मैं पीछे नहीं हटूंगा!
मैंने सोचा ही था कि एक वृद्ध जिन्न की आमद हुई!
सफ़ेद बाल और दाढ़ी मूंछ!
उम्र मेरे दादा श्री से भी अधिक!
बुज़ुर्गों का मैं सदैव मान करता हूँ अब चाहे वे मुझे गालियां ही दें!
“जी कहिये?” मैंने ही कहने की ज़हमत उठायी!
“आप ही है वो आलिम?” उसने पूछा,
“जी” मैंने कहा,
“दो बात साफगोई की” वे बोले,
“जी” मैंने सुनने की फरमाइश की!
“आपका क्या फायदा और क्यों बीचे रास्ते में?” उन्होंने पूछा,
“जी, फायदा कुछ नहीं बस इतना कि आदम हूँ तो आदमों के बात करूंगा, बीच में इसलिए कि नाफरमानी आपके शहज़ाद ने की, मैंने नहीं” मैंने साफगोई से कहा,
“बेहतर है” वे बोले,
“शुक्रिया” मैंने कहा,
“मैं समझाता हूँ उसको” वे बोले,
“एहसान” मैंने कहा,
“ज़रुरत ही नहीं” वे बोले और गायब!
कोई रिश्तेदार होंगे शायद!
कुछ देर और!
और फिर!
शहज़ाद आया वहाँ!
“सुनो ओ आलिम” वो बोला,
“कहो शहज़ाद” मैंने कहा,
“दो बातें, मैं इसको छोडूंगा नहीं और दूसरा फ़ना होने का डर नहीं” उसने साफ़ साफ़ कहा,
“एक बात! जो सही है वो सही है, जो गलत वो गलत” मैंने कहा,
वो अब गायब!
और!
आफ़रीन ओ’ सामान-ए-असबाब!
चार क़रीन औरतें वहाँ!
जवान!
खूबसूरत लिबास!
बेपनाह हुस्न वाली औरतें!
“क़रीन हो आप?” मैंने पूछा,
कामोत्तेजक हंसी!
“हमारा दीदार क़िस्मत वाले ही करते हैं” वे बोलीं,
“जानता हूँ!” मैंने कहा,
क़रीन! ज़यादा नहीं बताऊंगा! बस इतना कि इंसान का ईमान लम्हे में डिगाने वाली जिन्न-क़ौम!
क्या चाहिए?
सब हाज़िर!
बांदी! कनीज़, दहक-ए-हुस्न-, दौलत, जवानी, सब!
सब थोक में, खुदरा का तो सवाल ही नहीं!
“मुझसे क्या चाहिए?” मैंने पूछा,
वे हंसीं!
कुछ नहीं! आप भला क्या दोगे, आपके बस में है ही क्या?” वे हंस के बोलीं,
“बजह फरमाया आपने, मेरे बस में कुछ नहीं” मैंने कहा,
मैंने बात काटी उनकी, मैं जानता था कि उनका इशारा किस तरफ है!
“वैसे हम कुछ कहें?” उनमे से एक ने कहा,
“नाम बताओ अपना?” मैंने पूछा,
“अफ़रोज़” उसने कहा,
“हाँ, कहो अफ़रोज़” मैंने कहा,
“मुहब्बत के बीच में क्यों आते हो?” उसने कहा,
“जैसे आप!” मैंने समझा दिया!
“हम तो बनाने आये हैं, आपकी तरह बिगाड़ने नहीं” उसने कहा,
“मैं बिगाड़ नहीं रहा, छैनी से कुरेद कर नक्काशी कर रहा हूँ ग़र गौर करो तो” मैंनेकहा,
“बहुत खूब” उसने कहा,
“शुक्रिया” मैंने कहा,
“अपने इल्म का गलत इस्तेमाल नहीं कर रहे खुद नहीं जानते?” उसने कहा,
“नहीं, क़तई नहीं” मैंने कहा,
“क्या नहीं? जानते नहीं या इस्तेमाल गलत?” उसने कुरेदा!
इस्तेमाल गलत नहीं और मैं ये बखूबी जानता हूँ” मैंने कहा,
“गलत कहा आपने” वो बोली,
“गलत ही सही” मैंने बात ख़तम की!
कुछ लम्हे पोशीदगी के बीते!
“क्या चाहिए आपको?” उसने पूछा,
“कुछ नहीं” मैंने कहा,
और मेरे सामने ही वो कपड़ों की क़ैद से आज़ाद हो गयीं! सच कहता हूँ ऐसा बेपनाह हुस्न आपको कहीं और कभी भी इस ज़मीन पर नसीब नहीं होगा! खूबसूरत जिस्म जिसके आप महज़ ख्वाब ही ले सकते हैं, शफ्फ़ाफ़! नज़र गढ़ी तो हटेगी नहीं!
“हम तैयार हैं ता-उम्र आइन-इ-रूह में पैबंद होने के लिए!” वो बोली,
मैं चुप!
ऐसा चोर जो छोड़े भी नहीं और चोर भे कहलाये!
खैर!
“नहीं” मैंने कहा,
मैंने कहा और वहाँ और भी आ गयीं खूबसूरत क़रीन औरतें!
“ये सब भी” वे बोलीं,
नहीं” मैंने कहा!
“एक गयी तो दोबार कभी नहीं” उसने कहा,
बड़ी गहरी बात थी!
आप समझ के देखिये!
“नहीं!” मैंने कहा,
और अगले ही लम्हे!
सारा कमरा दमक उठा, सोना, हीरे! अकूत दौलत!
बस हाँ कहने के ज़रुरत और सब आपका!
लेकिन नेहा??
नहीं!
जिसलिए ये जंग है वो बदल के बदले नहीं दी जा सकती!
“नहीं अफ़रोज़” मैंने मना किया!
“सोच लो” उसने कहा,
“सोच लिया” मैंने कहा,
“क्या?” उसने पूछा,
“अब जाओ, बहुत हुआ” मैंने कहा,
“नहीं मानोगे?” उसने कहा,
“नहीं” मैंने दोहराया!
“पछताओगे” उसने कहा,
“कोई बात नहीं” मैंने कहा,
“मान जाइये” उसने इल्तज़ा की!
“नहीं” मैं अडिग!
“ठीक है!” वे बोलीं और गायब हुईं!
अँधेरा हो गया कमरे में!
वापिस जैसे धरती पर आ गया मैं!
वे चली गयीं! मेरा ईमान डिगाने आयी थीं! क़रीन, मित्रगण आप हमज़ाद, मरीद और क़रीन के बारे में और अधिक जानने के लिए विकिपीडिया के मदद ले सकते हैं वहाँ इनका वर्णन अवश्य ही होगा!
खैर, वे गयीं और उधर एक पहलवान जिन्न हाज़िर हुआ, गुस्से में, जैसे मुझे लील जाएगा नज़रों ही नज़रों में!
“क्या तू ही है वो बदबख्त आलिम?” उसने गुस्से से पूछा,
“बदबख्त? मैंने तो कोई बदबख्त काम नहीं किया साहब?” मैंने कहा,
“बद्तमीज़” उसने कहा,
“गुस्से को लगाम लगाइये, नहीं तो वो हाल करूँगा कि ता-उम्र ज़ुबान हलक़ में पनाह लेगी!” मैंने कहा,
“तेरी ये मज़ाल?” उसने कहा,
और उसने औज़ाख़ रुक्का पढ़ दिया,
मैंने ऐवांग से उसकी काट कर दी!
उसकी आँखें फट गयीं!
उसने तार्रूज़ रुक्का पढ़ा,
मैंने जज़ेमानिया से उसको वापिस फेरा!
उसने दरूद का सहारा लिया,
मैंने उस्तान से वापिस किया,
उसने दहक़िया इल्म चलाया, मुझे आधा काटने के लिए,
मैंने ऊर्वार्क से उसको काटा!
उसने आज़मूल बंध फेंका,
मैंने करूमी से खोला उसको!
वो हेप!
तभी और दो जिन्नात हाज़िर हुए!
“क्या चाहते हो ओ आलिम?” उनमे से एक ने कहा,
“आपको बताया होगा शहज़ाद ने, मेरी मंशा औ’ इरादा?” मैंने कहा,
“हम्म, पता चला” वो बोला,
“लेकिन मई कहूं कि ये जायज़ नहीं तब?” उसने कहा,
“क्या बात करते हैं आप साहब! जायज़ नाजायज़ क्या है ये आप बखूबी जानते हैं” मैंने कहा,
“मुहब्ब्त के आड़े नहीं आना चाहिए, ये था मुद्दा मेरा” वो बोला,
“कैसी मुहब्ब्त, सांप और नेवले की मुहब्ब्त? शेर और हिरन की मुहब्ब्त?” मैंने कहा,
“आप मेरा मतलब औरां न लीजिये” वो बोला,
“मैंने आपका मतला वाजिब ही लिया है, आप एक काम कीजिये, ऐसे बात नहीं बनेगी, आपके शेख साहिब होंगे उनको भेजिए, हो सकता है बात बन जाए” मैंने कहा,
“मुनासिब है” ये कहा और दोनों गायब!
वो लड़ाका जिन्न रह गया!
“आप भी जाइये?” मैंने कहा,
वो एकटक मुझे देखता रहा!
“जाइये जनाब!” मैंने कहा,
वो नहीं गया!
“क्या हुआ?” मैंने पूछा,
“कमाल!” उसने कहा,
“कैसे?” मुझे भी नहीं पता था तभी पूछा,
“आपने मेरे सभी अमल काट दिए” उसने कहा,
“ये तो जंग है जनाब, कभी मेरा अमल कटा और कभी आपका!” मैंने कहा,
‘और तब भी आपने मुझे नहीं उठाया?” उसने कहा,
अब मैं समझा!
मैं हार गया तो मुझे क़ैद क्यों नहीं किया!
‘देखिये, मैं आपको उठाऊं इस से कोई फायदा नहीं” मैंने कहा,
“वो क्यों?” उसने कहा,
“जो आपको अच्छा लगा वो आपने किये, जो मुझे अच्छा लगा वो मैंने किया, अब आपको उठाने में मुझे कोई अच्छाई नहीं लगी, बल्कि और बुरा लगता” मैंने कहा,
“मान गया मैं आपको” उसने कहा,
“शुक्रिया” मैंने कहा,
“मैं आपके लिए गवाही दूंगा, ये मेरा वायदा है आपसे” उसने कहा,
“शुक्रिया जनाब” वो बोला और गायब हुआ!
गवाही! जिन्नात में गवाही देने का मतलब है प्राण देना! इंसान की तरह नहीं, कहा और मुकर गए! वायदा और गवाही जिन्नाती दुनिया में बहुत मायने रखते हैं! उसके गवाही देने का मतलब था जैसा मैं चाहूंगा वो उसका साथ देगा! मेरे लिए तो ये जीत का एक कोना था, जिस पर अब मेरा हक़ हो गया था! चलो, कुछ सफलता तो मिली! अब भले ही कोई गवाही दे!
तभी एक बुज़ुर्ग जिन्न हाज़िर हुआ, सर पर फुनगी लगी टोपी पहने, उसके साथ चार और जिन्न! ये शायद शेख साहब थे!
“शेख साहब?” मैंने पूछा,
“जी” वे बोले,
मैंने सर झुकाया!
“कहिये?” वे बोले,
“कहना तो आपको है साहब” मैंने कहा,
“हाँ मुझे पता चला, मैंने समझाया भी लेकिन वो जात से बहार जाने को भी तैयार है लेकिन मान नहीं रहा, कहता है कि वो उस लड़की के बिना नहीं रह सकता, अब आप बताएं मैं क्या करूँ?” उसने मजबूरी बताते हुए कहा,
“मैं समझ गया हूँ” मैंने कहा,
बड़ी मुसीबत थी ये, अब अगर कोई दंड पाने को भी तैयार है तो आप उसको क्या दंड देंगे?
अजीब मुसीबत थी!
तभी मुझे एक बीच का रास्ता सूझा,
“एक तजवीज़ दूँ शेख साहब?” मैंने कहा,
“जी ज़रूर” वे बोले,
“आप अगर मुझे एक माहका समय दें तो मैं इधर इस आदमजात लड़की को समझा सकता हूँ, हो सकता है समझ जाये, आगे उसकी मर्जी, ऐसा ही आप शहज़ाद को केह दें, कैसा मशविरा है?” मैंने कहा,
“बेहतरीन रास्ता निकाला है आपने!” वे बोले,
“शुक्रिया” मैंने कहा,
“मैं अभी आता हूँ” शेख साहब ने कहा और कुछ ही देर में फिर हाज़िर हुए, शहज़ाद को लिए!
“मैंने समझा दिया है इसको, लेकिन इसका भी कुछ कहना है” वे बोले,
“जी कहिये?” मैंने कहा,
“ये ही बतायेगा” वे बोले,
“जनाब आलिम साहब!” वो बोला,
“कहिये शहज़ाद साहब” मैंने उत्तर दिया,
“मुझे ये मशविरा मंजूर है लेकिन एक शर्त है” उसने कहा,
“बताइये क्या शर्त है?” मैंने कहा,
“एक माह तक आप उस पर कोई अमल नहीं करेंगे, वायदा?” शहज़ाद ने कहा,
“वायदा” मैंने कहा,
“ठीक है, आप समझा लीजिये उसको, मान जाए तो में नहीं तो आप हट जाना, मंजूर?” उसने कहा,
“मंजूर” मैंने कहा,
और सभी गायब!
असरात भी गायब!
किस्सा अभी ख़तम नहीं लेकिन!
एक माह का वक़्त था!
समझ जाए तो ठीक, न समझे तो आगे उसकी क़िस्मत!
एक और तन्वी सही!
मैं क्या करू? जितना कर सकता था कर लिया, जितना कर सकूंगा अवश्य ही करूँगा!
मैं कमरा खोल कर बाहर आया, उसके माता-पिता के पास गया, सभी बर्फ से जमे थे! मेरे इंतज़ार में धुआं भी नहीं उड़ रहा था बर्फ से!
अब मैंने यही बात सभी को बताई!
एक माह का वक़्त!
अब संझाना इनका काम,
मैं केवल एक बार समझाऊंगा,
अमल इस्तेमाल नहीं करूँगा,
वायदा नहीं तोडूंगा,
जिसने मुझ पर यक़ीन किया मैं उसका वायदा पाक़ रखूँगा, नहीं तोडूंगा!
अब मैं चला शर्मा जी के साथ बाहर!
मैं वहाँ से उसी रात वापिस आ गया शर्मा जी के साथ रात क्या सुबह ही हो चली थी! जिन्नाती असरात होने से शरीर में दर्द हो रहा था, सर फटे जा रहा था, किसी तरह से मैं अपने स्थान पर आया, शर्मा जी ने छोड़ा और मैं शर्मा जी समेत बिस्तर में ढेर हो गया!
आँख खुली, ढाई बजा था दिन का, कमर और कन्धों में अभी भी दर्द था, शर्मा जी सोये थे, मैंने जगाया नहीं, मैं खुद ही बाहर आया, हाथ-मुंह धोये और फिर एक सहायक से चाय के लिए कह दिया, और अंदर आ गया कक्ष के, कुर्सी में धंस गया, मेरा जानकार एक कुत्ता भूरा मेरे पास आ गया, मैं उसके सर पर हाथ फेरता रहा, फिर उसनी किसी बिल्ली आदि को देखा तो भाग छूटा!
अब शर्मा जी उठ गए,
नमस्कार हुई,
सहायक चाय ले आया,
चाय पीनी आरम्भ की,
“क्या टाइम हो गया?” उन्होंने पूछा,
“पौने तीन हो गए” मैंने कहा,
“बहुत सोये जी हम तो” वे बोले,
“थक गए थे” मैंने कहा,
चाय पी और शर्मा जी कुर्सी पर बैठ गए,
“क्या लगता है आपको गुरु जी, मान जायेगी निवि?” उन्होंने पूछा,
“अब उसके माँ-बाप समझाएं भला-बुरा, मैं तो आखिरी दिन समझाऊंगा, अगर अड़ी रही तो सबसे बड़ा दुश्मन मैं ही ठहरूंगा उसका तो” मैंने कहा,
“हाँ, ये तो है” वे बोले,
और फिर हम अपने अपने काम में मशगूल हो गए,
करीब पंद्रह दिन बाद मुझे खबर लगी कि निवि समझने लगी है, उसे उस शहज़ाद से कोई लगाव नहीं रहा, या लगाव घटता जा रहा है! खबर तो अच्छी थी, उसके पिता ने दी थी, लेकिन हो सकता है समय बिता रही हो? मन में कुछ और ही हो? ऐसे ख़याल बहुत आते मन में मेरे!
और फिर,
मित्रगण,
एक माह से एक रोज पहले मैं शर्मा जी के साथ गया निवि के घर,
निवि पतली-दुबली हो चुकी थी, चेहरे पर मुंहासे निकल आये थे, लगता था जैसे कि बीमार है, ये छोड़ने का गम तो नहीं था, ये इंतज़ार था! लकिन अब फैंसला उसका था, आगे की वो जाने!
उसने नमस्ते की, हमने नमस्ते ली!
बस कुछ माकूल सवाल!
यही पूछने थे मैंने उस से!
सो पूछे,
“निवि, सोच लिया?” मैंने पूछा,
“क्या?” उसने असमंजस में जवाब दिया,
“जाना है या रहना है?” मैंने पूछा,
“रहना है” उसने कहा,
“पलटने के आसार लगते हैं मुझे!” मैंने कहा,
कुछ न बोली वो!
मैं समझ गया!
अब क्या पूछना!
बस!
सवाल ख़तम!
मैं उठा वहाँ से!
और सच्चाई बता दी मैंने उसके माता-पिता को!
वे भी सन्न!
बेचारे!
वे भी क्या करते!
जहां मैं वहाँ वे!
“ठीक है, मैं कल आता हूँ संध्या समय” मैंने कहा,
“जी” वे भारी मन से बोले,
“एक बार और कोशिश कर लो, जी भर के, बात बन ही जाए” मैंने कहा,
“जी” वे बोले,
और हम वहाँ से बाहर!
“वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था, शर्मा जी ने कहा,
“ये दिल के मामले हैं, आँखें कुछ और कहती हैं, दिल कुछ और और दिमाग सबसे अलग!” मैंने कहा,
“हाँ जी” वे बोले,
“हां, फैंसला मुझे पता है!” मैंने कहा,
“मैं भी जानता हूँ” वे बोले,
अब हमारी गाड़ी सर्र से दौड़ती चली गयी हमे लेकर!
हमारे स्थान पर!
और आया फैंसले का वो दिन जब मैं वहाँ पहुंचा, और फिर फैंसले की वो रात जब शहज़ाद वहाँ आना था और इस तरह फैंसले की वो घडी जब कमरे में मैं और निवि ही थे!
रात दस बजे,
शहज़ाद हाज़िर हुआ अकेला! दमकता हुआ! अपने संग जिन्नाती फूल लिए, बड़े बड़े सुलतान गुलाब लिए! उसने मुझे देख सर हिलाया और मैंने उसे! वक़्त वही से चलना शुरू हुआ जहां से उस दिन रुका था!
निवि चहक उठी!
शहज़ाद ने निवि को देखा! उसके करीब आया,
निवि उठी और उसकी कमर तक ही आयी वो! कैसे बेमेल में!
देखा था मैंने अपनी आँखों से!
फैंसला हो चुका था!
बस होठों से तस्दीक़ होना बाकी था!
“आपने समझाया मेरी मेहबूबा को?” शहज़ाद ने पूछा,
“जितना समझा सकते थे” मैंने कहा,
“तब तो आप हार गए आलिम” उसने कहा,
“आपकी मुहब्ब्त के आगे” मैंने कहा,
“मैंने आपको लाख समझाया था, मान जाते तो एक माह की जुदाई न होती, मुझसे पूछिए जुदाई का वो आलम” उसने कहा,
“मैं समझ सकता हूँ” मैंने कहा,
अब गले से लगा लिया शहज़ाद ने उसे!
निवि लिपट के खूब रोई!
शहज़ाद आंसू पोंछता रहा उसके!
मैं ऊपरवाले पर हंस रहा था! अरे! देख! नीचे आके देख! अपने बन्दे देख! उनके करम देख! बेमेल मेल देख!
फिर और हंसा!
क्या देख! तू तो सब जानता है!
तेरी रजा के बगैर क्या होता है!
सांस अंदर जाए और वापिस ही न आये!
माफ़ करना!
इंसान हूँ, इंसानी फ़ितरत है!
हार!
हाँ!
हार गया मैं!
क्या करूँ!
हारना पड़ा!
जज़बातों से हार गया मैं!
कोमल मुहब्ब्त के फोकी रुई से बने हलके जज़्बात मुझ पर बहुत भारी पड़े!
हाँ…………
सही कहा तूने शहज़ाद!
हार गया मैं!
हार गया एक आलिम!
हाँ…….
हार क़ुबूल!
“आलिम?” शहज़ाद ने कहा,
“हाँ?” मैंने पूछा,
“शुक्रिया” उसने कहा,
“किसलिए?” मैंने पूछा,
“जानबूझकर हारने के लिए!” वो बोला,
मैं चुप! जैसे मानों पानी में डूब गया होऊं मैं!
“मैं जानबूझकर नहीं हार शहज़ाद! तुम्हारी मुहब्ब्त ने हराया मुझे!” मैंने कहा,
“नहीं! आप अगर चाहते तो मुझे फ़ना कर देते, नामोनिशान मिटा देते मेरा! है या नहीं?” उसने पूछा,
मेरा चुप रहना ही बेहतर था!
सो चुप रहा!
और तभी शेख साहब हाज़िर हुए!
मैंने सलाम किया!
सलाम क़ुबूल हुआ!
मैं हंसा!
वे भी हँसे!
बातचीत हो गयी!
और फिर मेरा दोस्त गवाह हाज़िर हुआ!
मेरे पास आया और मेरा माथा चूमा!
“कभी भी याद करना, मैं दर पर हाज़िर हो जाऊँगा” उसने कहा,
चुप मैं!
मैं चलने लगा तो शहज़ाद ने रोक लिया!
“मौका मिले तो कभी मेहमान नवाजी का मौका दीजियेगा” वो बोला,
मैंने हाँ में गर्दन हिलायी!
“मैं बिछ जाऊँगा, मेरे ऊपर से मेरी दहलीज पर करना” उसने कहा,
मैं हल्का सा हंसा!
और कमरे से बाहर!
मैंने बता दिया कि अब निवि निवि नहीं!
जिसने रोना है रोये जिसने हंसना है हँसे!
वक़्त बीत चला!
इक्कीस नवंबर २०१२ की रात को निवि ऐसी सोयी कि कभी उठी ही नहीं! केवल उसकी देह ही उठी!
अब कुछ भी कहो!
शहज़ाद ले गया,
या,
वो खुद चली गयी!
फैंसला उसका था!
हाँ, मैंने कभी शहज़ाद को नहीं बुलाया, न मेहमान ही बना उसका, हालांकि मुझ पर दबाव बनाया गया निवि के परिवार द्वारा, लेकिन मैं नहीं झुका! तंत्र खेल नहीं!
हाँ, मेरा गवाह दोस्त ज़रूर आया! दो बार, मिलने के लिए, और न ओ मैंने और न कभी उसने निवि का ज़िकर किया!
मैं जानता हूँ निवि कहाँ है!
बस, खुश है!
खुश रहे!
हमेशा!
साधुवाद!