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वर्ष २०१२ नॉएडा के एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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निवि मुझे देख रोने लगी थी, बुक्का फाड़ कर! मुंह ढांपे कपड़े से! उसके दोनों भाई, माता-पिता, ताऊ और ताई सभी मौजूद थे वहाँ! अफरातफरी का माहौल था, निवि को जैसे रोने का दौरा पड़ा था, मैं उससे कुछ बात करता वो रोने लगी थी!

"जाओ, जाओ यहाँ से" वो यही कहे जा रही थी!

सभी बेचैन और मायूस थे,

"मेरी बात तो सुनो एक बार निवि?" मैंने कहा,

"जाओ" उसने कहा,

"नहीं" मैंने कहा,

"जाओ ना, जाओ" उसने लम्बी तान में रोते हुए कहा,

"नहीं जाऊँगा" मैंने कहा,

"जाओ, मैं मर जाउंगी" उसने कहा,

"कौन मारेगा तुमको?" मैंने पूछा,

कुछ ना बोली, बस रोते रही!

"मेरी बात सुनो?" मैंने कहा,

"नहीं, आप जाओ" उसने कहा,

"नहीं जाऊँगा" मैंने कहा,

"पापा भेजो इन्हे" वो रोते रोते बोली,

पापा क्या करें?

"निवि?" मैंने कहा,

"आप जाइये" उसने कहा,

"नहीं तो?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो और तेज रोई!

सभी ने समझाया उसको, नहीं मानी!

"जब तक बात नहीं कर लूँगा नहीं जाऊँगा" मैंने भी कहा,

और तेज रोई!

तभी हवा में एक तेज सुगंध आयी! बेला की खुश्बू!

वो और तेज रोई! आसमान सर पर उठा लिया उसने!

"सुनो लड़की?" मुझे गुस्सा आ या अब!

सुनना क्या वो देखे भी नहीं!

"कब से हाल है इसका ये?" मैंने पूछा,

"आज दोपहर से रो रही है" उसकी माँ ने कहा,

"जब से मैं चला हूँ तभी से?" मैंने पूछा,

"हाँ जी" वे बोलीं,

"निवि बात तो कर ले?" उसकी माता जी ने कहा,

और तेज रोये वो!

"निवि?" उसके पिता जी बोले,

निवि तो जैसे पागल हो गयी थी!

"सुन लड़की?" मैंने कहा,

तभी उसने अपने पास रखा हुआ पेन फेंक के मारा मुझपर!

हैरत की बात ये, कि वो मुझे आँखों से देख नहीं रही थी, बिस्तर में मुंह ढांपे रोये जा रही थी, चेहरा गड़ाए, और निशाना सटीक मुझ पर ही!

पेन मुझे मेरी गर्दन पर लगा!

"सुन लड़की, नहीं मानेगी तो ज़बरदस्ती बात करूँगा" मैंने धमकाया,

"मम्मी, इनको ले जाओ!" उसने रोते रोते कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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नहीं मानी वो!

"इसको उठाओ" मैंने कहा,

उसके दोनों भाइयों ने उठाया तो उसने संघर्ष किया!

"भैय्या नहीं, नहीं" वो रोये!

"उठाओ?" मैंने कहा,

"नहीं भैय्या" वो रोये और कहे!

"बिठाओ इसे?" मैंने कहा,

उन्होंने किसी तरह से उसको उठाया और जैसे ही बिठाने लगे वैसे हो दोनों भाई पछाड़ खाके गिरे नीचे! चीख निकल गयी उनकी!

इस से पहले मैं कुछ करता मैंने और सभी ने उठाया उनको और कमरे में मौजूद हर शख्स को बाहर भेज दिया!

"कौन है यहाँ?" मैंने पूछा,

"मैं" एक मर्दाना आवाज़ गूंजी,

"कौन मैं?" मैंने पूछा,

"मैं शहज़ाद" उसने कहा,

"कौन शहज़ाद?" मैंने पूछा,

"तुझसे पहले जो आये उनसे पूछ" आवाज़ आयी,

"मेरे सामने आ?" मैंने कहा,

"आता हूँ" उसने कहा,

और रौशनी दमकाता हुआ शहज़ाद हाज़िर हुआ!

एल लम्बा-चौड़ा कद्दावर जिन्न! नीले रंग के लिबास में खुश्बू फैलाता हुआ!, सुनहरी बाल कंधे तक झूलते हुए, मूंछें लौहरी उसकी!

ग़ज़ब का खूबसूरत जिन्न शहज़ाद!

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्यूँ सता रहे हो इस लड़की को?" मैंने पूछा,

"ये मेरी मेहबूबा है, सता तो आप रहे हैं इसको परेशान कर के" गर्व से उत्तर दिया उसने!

"मेहबूबा?" मैंने आश्चर्य व्यक्त किया,

"हाँ, मेरी मेहबूबा, दिलबर! उसने कहा,

"आग और पानी, हवा और मिट्टी का क्या मेल?" मैंने पूछा, हंसकर!

"मेल हो सकता है अगर बनाया जाए तो, जैसे मैंने बनाया" उसने मुझे प्रत्युत्तर दिया!

"ये बातें कभी पूरी नहीं होतीं शहज़ाद" मैंने कहा,

"शुक्रिया, मेरा नाम लेने के लिए" उसने कहा,

"तुम मुझे समझदार लगते हो, समझदारी दिखाओ, छोड़ दो इसको" मैंने कहा,

"आग से कहते हो ताप छोड़ दे? ए आलिम?" उसे तपाक से कहा,

"ओ आतिश! तेरा और एक आदमजात का क्या मेल?" मैंने कहा,

"मैंने बताया न आपको, मेल बनाने से बनता है" उसने कहा,

"लेकिन ये बेमेल है" मैंने कहा,

"आपकी दुनिया में" उसने कहा,

बात लाख पते की, की थी उसने!

"देख शहज़ाद, मैं यही कहूंगा, तुम जाओ अपनी दुनिया में वापिस" मैंने कहा,

"क्यों? मैं और ये इस ख़लक़त के किरदार नहीं?" उसने कहा,

मैं निरुत्तर हो गया! ऐसा उत्तर सुनकर!

"ज़िद न दिखाओ शहज़ाद" मैंने कहा,

"ज़िद? अभी दिखायी कहाँ?" उसने उत्तर दिया!

"मुझ पर बस नहीं चलेगा!" मैंने कहा,

"कोशिश करूंगा, जितना कर सकता हूँ" उसने कहा,

उसकी ज़िद! क्या बात!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क़ैद हो जाओगे! मजूरी करोगे!" मैंने कहा,

"मेरी मुहब्ब्त के खातिर? मैं तैयार हूँ" उसने कहा,

"इतनी पाक मुहब्ब्त?" मैंने कहा,

"हाँ, ये मेरी मुहब्बत है" उसने कहा,

सच कहा था उसने! इंसान कभी पाक मुहब्ब्त नहीं करता! कोई न कोई लालच निहित होता है उसमे! लेकिन जिन्न! जिनंपाक मुहब्ब्त करता है, कोई शक नहीं!

"उस से क्या फायदा?" मैंने पूछा,

"इसके बिना क्या फायदा?" उसने मेरी बात एकदम से काटी!

बात सही भी थी!

"मैं तो समझा रहा हूँ, ताकि तुम समझ जाओ" मैंने कहा,

"मैं समझा हुआ हूँ" उसने कहा,

"तुम नहीं समझे हुए शहज़ाद! और अगर मेरे दिल से पूछो तो मैं तुम्हे कोई नुक्सान नहीं पहुंचाना चाहता" मैंने कहा,

"अगर पहुंचा सके तो कोशिश ज़रूर करना. जैसे पहले दो आलिमों ने करी थी, उनका खाना खराब है अब, हाँ वायदा करता हूँ आपका नहीं करूँगा, क्योंकि आपके पास और भी जिन्नात हैं" उसने कहा,

"कौन है मेरे पास?" मैंने पूछा,

"खलील, शाही जिन्न" उसने कहा,

"हाँ! सो तो है" मैंने कहा,

"मैं तब भी नहीं मानने वाला आलिम साहब" उसने कहा,

"इतनी ज़िद न करो" मैंने कहा,

"ये ज़िद नहीं मेरी मुहब्ब्त को बचाने की गुहार है" उसने कहा,

"कैसी मुहब्ब्त? कोई कौवा कहे कि मैं इस इमारत से मुहब्बत करता हूँ तो क्या मैं मान लूँ?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आप न मानिये, वो कौवा इसमे खुश है न?" उसने कहा,

"और तुम अपनी ख़ुशी के लिए इसकी जान लोगे, एक मासूम आदमजात की?" मैंने पूछा,

"कैसी जान, मेरे होते हुए कौन जान लेगा इसकी, उसके टुकड़े कर दूंगा" वो गुस्से से बोला,

"इतनी मुहब्बत?" मैंने कहा,

"हां आलिम" उसने कहा,

तब मैंने तज़ज़ुर-अमल पढ़ा!

"इस से कुछ नहीं होगा, मैंने पढ़ाई की है इसकी" उसने कहा,

और सच में ही कुछ नहीं हुआ!

"कुछ और इस्तेमाल करें" उसने ऐसा कहा!

ये तो खुली चुनौती थी मुझे!

अब मैंने दुर्रफ़खरदूम अमल पढ़ा अब!

वो गायब हुआ!

डर गया!

मैंने निवि को देखा, सुप्त! नशे में सुप्त!

और तभी फिर से हाज़िर हुआ शहज़ाद!

मैंने अमल पढ़ लिया था, उसकी और कर दिया, और देखिये! अमल वापिस हो गया!

"शहज़ाद, अभी भी मान जा" मैंने कहा,

"दुर्रफ़ काम नहीं आया तो घुटने टेक दो" उसने कहा,

इतनी बेबाकी? गुमान?

"ज़ुबान सम्भाल ओ आतिश!" मैंने गुस्से से कहा,

"आपका ही उत्तर दिया मैंने!" उसने कहा,

और वो फिर गायब हुआ!

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो लोप हो गया था! ये मेरा वहम था, और ये मैं जानता भी था, जिन्न बेहद कारगुज़ार होते हैं, आपके दिमाग को पढ़ते हैं और आपके कुछ करने से पहले ही उसकी काट कर डालते हैं! मेरु गुरु श्री ने इनके विषय में मुझे अच्छी पढ़ाई करवायी थी, जो आज तक काम आती है, इसी वजह से मैं इनसे टकराने का माद्दा रखता हूँ नहीं तो कोई भी आदमजात इनसे पार नहीं पा सकता! मैं इनकी नस नस से वाक़िफ़ हूँ! शहज़ाद कहीं नहीं गया था, वो किसी आलिम जिन्न को लेने गया था और वो फिर कुछ देर बाद हाज़िर हुआ!

उसके साथ एक बड़ा ही खौफनाक सा जिन्न था, इसको हथिया जिन्न बोलते हैं, खिलाड़ी जिन्न! यही मार-धाड़ करता है, मकानों की छतें उड़ा देता हैं ईंट-पत्थरों की बारिश कर देता हैं, ज़मीन पर अपना कब्ज़ा जमा लेता है, पीर का रूप धारण कर लेता है!

"कौन है तू?" उसने मुझसे पूछा,

"क्यों? शहज़ाद ने नहीं बताया?" मैंने उसको जवाब दिया!

"बहुत जुबां चलाता है?" उसने कहा,

"तुझे ऐसा लगा?" मैंने पूछा,

"बताता हु तुझे" उसने कहा,

और मुझ पर एक फंदा फेंका, मैंने तामूल-मंत्र से उसका वार खाली किया!

चौंका पड़ा वो!

"आलिम लगता है!" उसने कहा,

"पता नहीं, खुद देख ले!" मैंने कहा,

"देख लूँगा, अब तू जाएगा ही नहीं यहाँ से वापिस" उसने कहा,

और अब उसने मुझे पर कई वार किये, सभी खाली!

झुंझला उठा वो!

वो फिर गायब!

हार गया हथिया!

भाग गया शहज़ाद!

कुछ देर हुई, कोई नहीं आया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं एक कुर्सी पर बैठ गया और हाथ से एक कागज़ में आमद-बंद के रुक्के लिखने लगा, लिखने के बाद मैंने उस कमरे में वो सभी रुक्के दीवारों पर चस्पा करवा दिए! अब वहाँ कोई भी जिन्नात या गैबी चीज़ हाज़िर नहीं हो सकती थी! अब मैं फारिग हुआ, निवि सोयी हुई थी, मैं कमरे से बाहर निकला और उसके माँ-बाप के पास गया, बाकी सबको हटा दिया वहाँ से!

अब मैंने निवि के पिता जी से पूछा,

"ऐसा कबसे है इसके साथ?"

"जी कोई छह महीने हो गए, धीरे धीरे बात यहाँ तक आ गयी" वे बोले,

"अच्छा'' मैंने कहा,

"हमने इलाज भी करवाया लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ" वे बोले,

"आपको कभी नहीं लगा कि उसके व्यवहार में बदलाव है?" मैंने पूछा,

"बहुत बार लगा जी" वे बोले,

"फिर क्या किया आपने?" मैंने पूछा,

"तांत्रिक बुलवाया जी एक रुद्रपुर से, वो आया पूजा पाठ की, लेकिन एक रात उसकी गर्दन की हड्डी तोड़ दी किसी ने, उसको दाखिल करवाया और फिर वो चला गया, बोला प्रेतों का महासाया है, उसके बस की बात नहीं" वे बोले,

"अच्छा, फिर?" मैंने पूछा,

"ऐसे तो बहुत आये, लेकिन फिर एक मौलवी साहब को लिवा के लाये हम, लेकिन उन्होंने भी हाथ खड़े कर दिए, बोले कि भीड़ है भिड़ने के लिए और वे मुक़ाबला नहीं कर सकते, और चले गए, अब आप आयें, आप बताइये क्या समस्या है निवि के साथ, हम तो परेशान हो गए हैं बहुत" वे बोले,

"जिन्नाती साया है उस पर" मैंने कहा,

वे चौंके!

"क्या है, मैं समझा नहीं?" उन्होंने कहा,

"आपकी बेटी पर एक जिन्न आसक्त है" मैंने समझाया!

अब जैसे वो सोफे की दीवार में घुसे!

"अब?" उन्होंने डर से पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मैं कोशिश कर रहा हूँ" मैंने कहा,

"आप बचाइये मेरी बेटी को, हमें और हमारे परिवार को!" ये कहते हुए मेरे पाँव पड़ने लगे वो, मैंने उठाया उनको!

"चिंता न कीजिये, मैं भी टकरा रहा हूँ उनसे", मैंने कहा,

"कुछ चाहिए तो हुकम कीजिये" वे बोले,

"फिलहाल में कुछ नहीं" मैंने कहा,

"एक बात बताइये, छह महीने पहले ऐसा क्या हुआ था, मतलब कहीं आयी गयी थी निवि?" मैंने पूछा,

"हाँ जी, वो घूमने गयी थी अपने सहेलियों के साथ" उन्होंने बताया,

"कहाँ?" मैंने पूछा,

"जी हिमाचल प्रदेश" वे बोले,

'अच्छा!" मैंने कहा,

और तार जोड़ने लगा!

 

हिमाचल में से होकर एक गलियारा गुजरता है, मध्य-युगीन भारत में कई ऐसे वहाँ कार्य हुए हैं जहां ये जिन्नात चर्चा में आये हैं, कुछ एक बड़े नामी और प्रसिद्द स्थान हैं, इस गलियारे को हिंदुकुश की पहाड़ियों से जोड़ा जाता है, ये पीर-पंजाल से हो कर गुजरता है! यहीं से कोई जिन्नाती झपेट इस लड़की को लगी होगी! लेकिन मुझे पुख्ता जानकारी चाहिए थी, वो अब नेहा के कमरे में नहीं आ सकते थे, वहाँ आमद-बंद के रुक्के चस्पा थे!

तो अब??

अब एक ही रास्ता था मेरे पास!

नेहा को वहाँ से निकालना और, कहीं और ले जाना!

कहाँ?

ये था बड़ा सवाल!


   
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श्रीशः उपदंडक
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यही मैंने पूछा नेहा के पिता जी से, तो उन्होंने अपने बड़े भाई के घर पर ले जाना सुझाया, जगह ठीक थी, अगर प्रबंध हो जाए तो इस से बढ़िया कोई बात नहीं!

मसौदा तैयार हो गया!

नेहा के पिता जी ने बात की अपने बड़े बही से तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया, वे भी इस लड़की के कारण बड़े परेशान थे!

अब करना क्या था?

यही कि इस लड़की को होश में लाया जाए, उसमे जिन्नाती असरात थे, खुलकर मन करती, विरोध करती हाथापाई भी कर सकती थी! खबीस को मैं बीच में नहीं लाना चाहता था, क आद जिन्न होता तो देखा जाता, लेकिन यहाँ आलिम जिन्नात भी थे, अतः खबीस का विचार त्याग दिया मैंने!

अब हम पहुंचे नेहा के कमरे में!

वो औंधी हुए सोयी पड़ी थी!

"जगाओ इसे" मैंने कहा,

किसी तरह से जगाया गया उसको!

उसने हमको देखा तो फिर से बुक्का फाड़ रोने लगी!

तड़प उठा होगा शहज़ाद अपनी मुहब्ब्त को रोता देखा, लेकिन वो आ नहीं सकता था अंदर!

अब मैं आगे बढ़ा!

"नेहा?" मैंने ज़ोर से कहा,

उसने कोई ध्यान नहीं दिया,

"नेहा?" मैंने फिर कहा,

अजी कौन सुने!

मैंने उसके बाल पकडे!

उसने ज़ोर लगाया!

मैंने और खींचा उसको, उसने लगाया और ज़ोर!

"लड़की? मरने की ठानी है क्या?" मैंने गुस्से से बाल छोड़ते हुए कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आप जाइये, जाइये यहाँ से" वो रोते रोते बोली,

बहुत हुआ!

हाँ!

बहुत हुआ नाटक!

"एक चुन्नी दो मुझे" मैंने कहा,

नेहा की माता जी ने

अब मैंने उसके बांधे हाथ!

वो ऐसे चिल्लाई जैसे किसी बकरी को छुरा दिखा दिया जाए!

पागल सी हो गयी!

गुस्से में मैंने एक झापड़ लगा दिया उसको!

"नेहा?" मैंने गुस्से से कहा,

वो नहीं सुन रही थी!

अचानक!

अचानक!

वो चुप!

मुझे घूरते हुए उठी!

मैंने सभी को पीछे किया,

"तू क़त्ल होगा अब" उसने मुझे बंधे हाथों से इशारा करके कहा गर्दन रेतने का इशारा करते हुए!

"कर लेना, मैं भगोड़ा नहीं!" मैंने कहा,

"कहाँ ले जाएगा मुझे?" उसने पूछा,

"तेरे ताऊ के यहाँ" मैंने कहा,

"अब सब मरेंगे" उसने हँसते हुए कहा,

"कौन मारेगा?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हमज़ाद!" उसने कहा,

"हमज़ाद?" मैंने कहा,

"हाँ" उसने कहा,

हमज़ाद ऐसा ही होता है जैसे छलावा! जिन्नात का यार होता है, बहुत ताक़तवर! यानि कि एक और महायोद्धा हाथ आजमाने आ रहा था!

बहुत खूब!

 

"अरे कुत्ते! हमज़ाद आ पहुंचा है" उसने बड़बड़ाया!

गुस्सा तो इतना आया कि घूँसा मार कर जबड़ा ही तोड़ दूँ इसका! लेकिन बिटिया थी, और उसकी कोई गलती भी नहीं थी! ये तो असरात थे! मुहब्ब्त के लब्बोलुबाब थे! (मित्रगण, यदि आपको कोई अलफ़ाज़ समझ न आये तो मुझसे पूछ सकते हैं, जिन्नाती भाषा में अरबी, फ़ारसी और पश्तून भाषा मिली होती है)

"देख लेंगे तेरे हमज़ाद को भी!" मैंने कहा,

"मार डालेगा! तुझे चीर देगा!" वो बोली,

"सुन लड़की, हमज़ाद भी मेरे लिए कुछ नहीं" मैंने कहा,

मैंने कहा और गहर की बत्ती गुल!

नीचे लगे स्टेबलाइजर में लगी आग! पटाखा छूटा!

मतलब?

हमज़ाद पास में ही था!

शर्मा जी ने अपने फ़ोन की लाइट जला ली थी!

अब मैं आपको हमज़ाद के बारे में बताता हूँ! जैसे छलावा होता है, वैसे ही होता है , जंगलों में घूमता रहता है, इंसान के कार्ब जाने में इसको महारत हांसिल है, औरत का रूप लेता है और सभी जीव-जंतुओं का भी रूप धर सकता है! बेहद शक्तिशाली होता है, कंधे चौड़े और बाल लोहरे होते हैं, केश घुंघराले होते हैं, जिसका यार बना, उसका यार बना, जिसका रक़ीब बना उस को बचाने वाला शायद ही नसीब हो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और यहाँ तो खुद हमज़ाद आ गया था!

"उठाओ इसे" मैंने कहा,

"ठहरो" वो बोली,

मैं तो ठहरा!

"मैं स्व्यं चलूंगी" वो बोली!

अंधे को मोती मिला!

अब काम का है या नहीं, ये तो वक़्त बताये!

वो तैयार हुई!

हम भी तैयार!

"अपनी क़ब्र की मिटटी साथ ले जाना" नेहा ने मुझसे कहा,

"साथ ही है" मैंने कहा,

"मुस्तैद रहना" उसने फुसफुसाया,

"मुस्तैद हूँ" मैंने कहा,

अब मैंने साक्षात मणिभद्र क्षेत्रपाल का उन्मुख-मंत्र जागृत कर लिया था! अब किसकी मजाल कोई आये!

और,

अब हम चले नेहा के ताऊ की गहर की तरफ!

पहुंचे!

वे लोग प्रतीक्षा कर रहे थे!

मैं नेहा के साथ ही चला!

हम कमरे में आये, मैंने सभी को बाहर किया, शर्मा जी को भी!

और तभी!

तभी नेहा ने कहा, "हमज़ाद, आओ"


   
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श्रीशः उपदंडक
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कमरे में रखी हर चीज़ गिर गयी!

और!

"कौन है तू?" एक मर्दाना आवाज़ आयी!

"मैं?? मैं?? पता नहीं" मैंने कहा,

"तैयार है?" उसने कहा,

"हाँ" मैंने कहा,

और मेरे सामने एक बारह फीट का आदमी प्रकट हुआ! भयानक!

ये था हमज़ाद!

"आ गए?" मैंने कहा,

"हाँ, तुझे लेने" वो बोला,

"अच्छा?" मैंने कहा,

"हाँ!' वो बोला,

"तो ठीक है, जो चाहे कर ले!" मैंने चुनौती दी!

हा! हा! हा!

"तू करेगा मेरा मुक़ाबला?" वो बोला,

और मेरे सामने अब हमज़ाद नहीं, एक जंगली शूकर खड़ा था! उसने रूप बदल लिया था! शेर को भी उसकी जाँघों में दांत घुसेड़ने वाला जंगली शूकर!

मानिने तभी एराम-विद्या का मंत्र पढ़ा!

वो हर्रा-गुर्रा के मेरी और भगा!

और!

मुझ में से पार हो गया!

मुझ पर कोई असर नहीं!

वो पलटा, और वार करते हुए वहीँ पहुँच गया जहां था!


   
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सब बेकार!

 

हमज़ाद को एक फायदा हमेशा मिलता है! जहां छलावा सूरज की रौशनी पड़ते ही गायब हो जाता है वहाँ हमज़ाद डटा रहता है, और यहै इंसान उस से मार खा जाता है, इंसान को ऐसे घसीटता है जैसे कोई रेल का इंजन! जिन्नात का यार होता है है ये हमज़ाद! हमज़ाद की सबसे बड़ी पहचान ये है कि ये छाँव से बचता है, जहां छलावा छाँव पसंद करता है वहीँ हमज़ाद छाँव से बचता है, जो हिस्सा इसका छाँव में रहता है वो काला दिखायी पड़ता है! और शेष सफ़ेद!

जंग छिड़ी थी!

हमजज़ाद ने आखिर में नौ रूप बदले! कभी अजगर, कभी सांड और कभी गोह, बस न चला! और भन्न से गायब हो गया! हार गया हमज़ाद!

ये देख नेहा के होश उड़े!

"नहीं!" वो चिल्लाई!

"नहीं, ये कैसे?" वो दोबार चिल्लाई!

"सुन लड़की, अपने होश में आ, समजह, समझने की कोशिश कर कि मैं क्या कह रहा हूँ?'" मैंने कहा,

"नहीं, नहीं" उसे अब फिर से रोना शुरू किया!

ऐसा रोये, ऐसा रोये कि जैसे तन से प्राण ही छूटने वाले हों!

"नेहा?" मैंने कहा,

"तू मरेगा! आज ही मरेगा" अब वो खड़ी हुई और लगी मुझ पर झपटने! मैंने उसको नीचे गिराया, इस से पहले कि मैं उसको झापड़ लगता, आँखें तरेडते हुए हाज़िर हुस शहज़ाद!

"बस, बहुत हुआ" उसने गुस्से से कहा,

"अभी कहाँ, शहज़ाद?" मैंने कहा,

"मुझे ले जाओ, ले जाओ अपने संग शहज़ाद!" अब नेहा लगाए गुहार!

"सुन आलिम, एक और मौका देता हूँ" उसने कहा,

"मौका?" मैं हंसा!


   
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