मई २०१२ का समय था, मेरे पास एक सज्जन आये थे, नाम था अशोक, आये थे जिला रोहतक से, सरकारी मुलाज़िम थे, सीधे सादे और स्पष्ट व्यक्तित्व उनका! साथ में उनकी पत्नी श्रीमती ममता भी थीं, वे भी सरल स्वभाव की महिला थीं, उन्होंने जो समस्या बताई थी उस से मुझे भी झटका लगा था, डॉक्टर्स, अस्पताल सभी चल रहे थे, कई कई परीक्षण भी हुए लेकिन नतीजा सबका वही सिफर का सिफर!
समस्या उनकी बड़ी बेटी नेहा में थी, उसको एक आँख से दीखना बंद हो गया था, एक हाथ ने काम करना बंद कर दिया था, बोला जाता नहीं था और खड़े होते ही पाँव सुन्न हो जाता था उसका डायन, डॉक्टर्स की पकड़ में बात या मसला या मर्ज़ हाथ नहीं आ रहा था, पहले पहल तो मुझे भी ये चिकित्सीय समस्या लगी थी, तब मैंने उसका फ़ोटो मंगवाया था, आज ये फ़ोटो लेकर आये थे, जब मैंने फ़ोटो देखा और देख दौड़ाई तो समय उसी में अर्थात नेहा में ही लगी! अब समस्या क्या थी, ये वहीँ जाकर पता चल सकता था, अतः नेहा को देखने के लिए मैंने आगामी शनिवार जो कि दो दिन बाद था, का समय दे दिया, मैं रोहतक पहुंचूंगा करीब दिन में ग्यारह बजे शर्मा जी के साथ, इसके बाद वे दंपत्ति चले गए थे!
अब शर्मा जी ने पूछा!
"ऐसा क्या हो सकता है?"
"हो तो बहुत कुछ सकता है" मैंने कहा,
"मसलन?" उन्होंने जिज्ञासावश पूछा,
"कोई लपेट, कोई आसक्ति या कोई प्रयोग" मैंने बताया,
"अच्छा!" वे बोले,
"अब रोहतक जाना है?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
शाम हुई!
महफ़िल सजी!
तभी अशोक जी का फ़ोन आया, शर्मा जी ने सुना, पता चला कि छोटी बेटी को भी ऐसे ही लक्षण दिखायी दे रहे हैं और डॉक्टर्स इसको कोई आनुवांशिक रोग केह रहे हैं, मुझे हैरत हुई!
उनको दिलासा दी और फ़ोन काट दिया!
हमने अब अपनी महफ़िल में चार चाँद लगाए मदिरा से!
खा-पी कर सो गए!
फिर आया इतवार!
हम निकल पड़े तभी करीब नौ बजे, मेरे जाने से पहले मुझे किसी के रोने की आवाज़ आयी, मैंने आसपास देख कोई नहीं था, बड़ी अजीब सी बात थी!
खैर, हम चल पड़े!
ग्यारह बजे हम रोहतक पहुंचे, अशोक जी को खबर कर दी गयी थी, वे हमे घर में ही मिले, हम अब घर में गए! घर में मुर्दानगी छायी थीं, एक मनहूसियत!
"नेहा कहाँ है?" मैंने पूछा,
"ऊपर के कमरे में है" वे बोले,
"मुझे दिखाइये?" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
हम चले,
मैं अंदर घुसा तो बदबू का भड़ाका आया! मुर्दे की सड़ांध की बदबू! असहनीय बदबू! मैंने रुमाल से नाक भींच ली,
सो रही थी नेहा, एक दरम्याने कद के लड़की!
"नेहा?" उसके पिता जी ने आवाज़ दी,
वो नहीं उठी!
और तभी मैंने एक बात पर गौर किया!
एक दीवार पर करीब छह छिपकलियां इकट्ठी हो गयीं थीं, सर उठाये सभी मुझे ही घूर रही थीं!
मैं एक कुर्सी पर बैठ गया!
कई आवाज़ें दीं तो उठी नेहा!
और...
आँखें मींडते हुए उठ गयी नेहा, उसने हमे देख नमस्कार की और एक अनजान सी निगाह से हमको देखा, उम्र रही होगी करीब इक्कीस या बाइस बरस, उस से अधिक नहीं, मैंने उसको पूरा देखा, ऊपर से नीचे तक, कोई निशान या कोई लपेट नहीं थी उसमे, ये चौंकाने वाली बात थी!
"अशोक जी, एक गिलास पानी लाइए" मैंने कहा,
वो पानी लेने गए,
"क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने नेहा से पूछा,
जानबूझकर!
"ने...ने...नेहा" उसने उबासी लेते हुए बताया,
"क्या समस्या है तुम्हारे साथ?" मैंने पूछा,
"कुछ भी नहीं? क्यों?" उसने मुझसे ही प्रश्न कर दिया,
अब तक पानी आ गया था, बात आधी ही रह गयी,
मैंने पानी को अभिमंत्रित किया और नेहा से कहा, "ये पानी पियो"
"उसने पानी का गिलास लिया!
उसको देखा,
सूंघा!
और नीचे बिखेर दिया!
बड़ी अजीब सी बात थी!
"नेहा?" चिल्लाये अशोक!
"ये क्या तंतर-मंतर है?" उसने पिता पर ध्यान नहीं दिया और मुझसे ही पूछा,
"किसने कहा ये तंतर-मंतर है?" मैंने उस से पूछा,
उसने मुंह फेर लिया!
"पापा, इनसे कहो ये जाएँ यहाँ से इसी वक़्त" उसने धमका के कहा!
अब मैं कुछ समझा!
"नेहा?" मैंने कहा,
"क्या है?" उसने झुंझला के पूछा,
"क्या नाम बताया तुमने अपना?" मैंने पूछा,
"क्यों? सुना नहीं?" उसने आँखें निकाल कर कहा!
"नहीं, भूल गया!" मैंने तपाक से उत्तर दिया!
"नेहा!" उसने कहा,
"नेहा तो इस लड़की का नाम है जिसकी देह है, तेरा नाम क्या है?" मैंने पूछा,
इस सवाल से अशोक जी को करंट सा लग गया! और नेहा संयत हो गयी!
"क्यों तुम्हे मैं कौन लगती हूँ?" उसने प्रश्न किया,
"मुझे तुम नेहा नहीं लगती" मैंने कहा,
"फिर?" उसने पूछा,
"ये तो तुम ही बताओ?" मैंने कहा,
अशोक जी घबराये!
मैंने उनको उनका हाथ पकड़ के नीचे बिठा लिया सोफे पर!
"हाँ? बता?" मैंने पूछा,
"जा,जा अब जा यहाँ से" उसने बेढंग से कहा,
"और न जाऊं तो?" मैंने कहा,
"तेरे बसकी बात नहीं, सुना?" उसने कहा,
अब तय हो गया कि नेहा, नेहा नहीं!
"तू बताती है या बकवाऊं तुझसे?" मैंने खड़े होकर पूछा,
'अच्छा! हाथ तो लगा कर देख, उखाड़ के फेंक दूँगी!" उसने कहा,
इतना सुन्ना था और मैंने खींच के एक झापड़ रसीद कर दिया उसको, वो पीछे गिर पड़ी!
खूंखार कुत्ते के भंति मुझपर झपटी तो मैंने एक और हाथ दिया उसको! वो फिर से नीचे गिरी, वो फि उठी तो अबकी बार शर्मा जी और अशोक ने पकड़ लिया उसे! वो अशोक के गर्दन पर काटने के लिए मशक्क़त करने लगी!
मुझे समय मिला और मैंने हामिर-अमल पढ़ दिया! और उसके चेहरे पर पानी फेंक मारा! झटके खाकर वो ढीली होती चली गयी और उन दोनों की बाजुओं में झूल गयी!
"लिटा दो इसको" मैंने कहा,
उन्होंने लिटा दिया!
वो लेट गयी, आँखें बंद करके!
और मैं वहीँ सोफे पर बैठ गया!
ये लपेट लगती थी, परन्तु ये पता लगाना था कि ये लपेट कहीं से लगी है या फिर किसी ने लगायी है, और नेहा हर हालत में ये कभी नहीं बताने वाली थी, इसीलिए मैंने अशोक जी से ही सवाल किये, "किसी से कोई पारिवारिक शत्रुता तो नहीं?"
"नहीं गुरु जी" वे बोले,
पहली शंका समाप्त!
"अच्छा, नेहा का किसी से कोई प्रेम-प्रसंग तो नहीं?" मैंने पूछा,
"नहीं गुरु जी" वे बोले,
दूसरी शंका भी समाप्त!
"आपने फ़ोन पर बताया था कि छोटी लड़की के ऊपर भी ऐसे ही असरात हैं, वो कहाँ है?" मैंने पूछा,
"अब वो ठीक है, आज अपनी बुआ के घर गयी है" वे बोले,
"अच्छा, एक बात और नेहा कहीं जल्दी में बाहर गयी थी?" मैंने पूछा,
"नहीं गुरु जी" वे बोले,
तीसरी शंका ने भी दम तोड़ा!
अब तक नेहा की माता जी भी आ चुकी थीं वहाँ, वो दरअसल चाय के लिए आयी थीं, बताने, नेहा को सोते देखा तो घबरा गयीं, शर्मा जी ने समझा बुझा दिया, फिर भी वे वहीँ बैठ गयीं,
अब मैंने ममता जी से प्रश्न किया, "क्या कोई ऐसी बात तो नेहा ने आपको बताई हो?"
"नहीं जी" उन्होंने उत्तर दिया,
अर्थात मेरे लिए और मुश्किलें बढ़ीं!
"आपकी छोटी बेटी का क्या नाम है?'' मैंने पूछा,
"सोनिया" वे बोलीं,
"क्या उसने कुछ बताया हो?'' मैंने पूछा,
"नहीं जी" वे बोलीं,
यहाँ भी रास्ता बंद!
तभी नेहा के बदन में झटके से लगे! वो झूलती हुई सी खड़ी हो गयी, बैठ गयी, डरावने तरीके में, गर्दन नीचे किये हुए और दोनों हाथ आगे करके!
ये निश्चित रूप से भयानक लपेट थी!
उसको ऐसा करते देख अशोक और ममता जी चिल्लाने लगे, हाल ऐसा कि जैसे बकरे को कसाई का चापड़ दिखायी दे जाए! बड़ी मुश्किल से उनको शांत किया, रोते-चिल्लाते ममता जी कमरे से बाहर भाग गयीं!
अब मैं खड़ा हुआ!
उसके पास तक गया, वो उसी रूप में गर्दन नीचे किये मेरी तरफ घूम गयी!
"कौन है तू?" मैंने पूछा,
कोई जवाब नहीं!
"बता? क्यों इस लड़की के पीछे पड़ी है?" मैंने पूछा,
पुनः कोई उत्तर नहीं!
अब मैंने एक मंत्र पढ़ा! इसको आमद-अमल कहा जाता है, मैंने मंत्र पढ़कर उसकी दिशा में फूंक मार दी, उसने मेरी तरफ झटके से गर्दन उठाई! उसकी काली पुतलियाँ गायब थीं, चढ़ा ली थीं उसने ऊपर! फिर हलके से मुस्कुराई!
"कौन है तू?" उसने मुझसे पूछा,
मैं कुछ नहीं बोला,
उसने फिर से गर्दन नीचे की,
मैंने फिर से मंत्र फूंका,
उसने फिर से गर्दन ऊपर उठायी, अबकी काली पुतलियाँ अपनी जगह थीं!
"कौन है तू?" उसने पूछा,
अब मैंने अपना परिचय दे दिया, देना पड़ा!
"क्या करने आया है?" उसने पूछा,
"कौन है तू ये बता?" मैंने कहा,
"क्या करेगा?" उसने नशे की सी हालत में पूछा,
"बकवास न कर, जल्दी बता?" मैंने कहा,
ना बोली वो कुछ भी!
फिर से झटके खाये और नीचे गिर गयी!
जो भी था या थी, अब नहीं था या थी, वो जा चुका था!
मैं फिर से अपनी जगह जा बैठा!
"ये..क....क्या है गुरु जी?" कांपते से बोले अशोक जी,
"कोई लपेट है अशोक जी, वही पता कर रहा हूँ" मैंने कहा,
"ये ठीक तो हो जायेगी न?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, हाँ क्यों नहीं" मैंने कहा,
"मेरी बच्ची को बचा लो गुरु जी, बड़ा एहसान होगा आपका!" उनकी रुलाई फूट पड़ी ये कहते ही,
मैंने चुप किया उनको,
"आप ज़रा बाहर जाएँ, मैं मालूम करता हूँ" मैंने कहा,
वे बाहर गए तो मैंने दरवाज़ा बंद कर दिया अंदर से,
"शर्मा जी, वो लौंग का जोड़ा निकालिये" मैंने कहा,
"उन्होंने एक पोटली से लौंग का जोड़ा निकल लिया और मुझे दे दिया,
मैंने उस जोड़े को एक मंत्र पढ़ते ही जला दिया,
वो जल पड़ा,
जलते ही खड़ी हो गयी वो!
गर्दन नीचे किये हुए,
"अब बता कौन है तू?" मैंने पूछा,
वो हंसने लगी!
हंसती रही!
और तेज!
और तेज!
मैंने एक लौंग मंत्र पढ़कर मारी उसको, लौंग लगते ही वो चिल्लाई और वहीँ बैठ गयी!
फिर हंसने लगी!
अब मुझे गुस्सा आया!
"बताती है या बकवाऊं?" मैंने कहा,
"जो करना है कर ले" उसने धीरे से कहा,
"ठीक है, ऐसे नहीं मानेगी तू" मैंने कहा, और अब मैंने एक मंत्र पढ़ा, अपने एक महाप्रेत को बुलाने के लिए!
आश्चर्य वो हाज़िर नहीं हुआ!
मतलब ये ताक़त वैसी नहीं है जैसा मैंने अनुमान लगाया था!
उसने ताली मारी!
"नहीं आया!" वो बोली,
ताली मारी!
"नहीं आया! मेरा बच्चा नहीं आया!" वो बोली,
क्या?
बच्चा?
महाप्रेत बच्चा?
ये कौन है फिर?
"कौन है तू?" मैंने पूछा,
अब उसने एक अजीब सी भाषा बोली, बेहद अजीब, मुझे कुछ भी समझ नहीं आया, ख़ाकधूर!
"क्या हुआ रे?" उसने हँसते हुए कहा,
इस से पहले मैं जवाब देता वो लपक के मेरी और आयी और मुझे मेरे गले से पकड़ लिया! मेरे गले पैर उसके नाख़ून गढ़ गए, शर्मा जी ने छुड़ाने की कोशिश की तो उनको एक हाथ से धक्का देकर बिस्तर पर गिरा दिया! बड़ी भयानक स्थिति, वो गुस्सैल कुत्ते की तरह गुर्राए जा रही थी! संघर्ष ज़ारी रहा!
"बुला? किसको बुला रहा है, मैं भी देखूं?" उसने कहा,
अब मेरे पास कोई रास्ता नहीं था, मैंने तभी इबु का शाही रुक्का पढ़ा!
इबु! हाज़िर हुआ इबु! उसने आव देखा न ताव, नेहा को उठाया और सामने दीवार पर फेंक के मारा! मेरी गर्दन से रगड़ते नाखूनों ने खून निकाल दिया! इबु फिर बढ़ा और और उसको उठाया और फिर बिस्तर में मारा फेंक कर, दीवान का पाट टूटा और वो उसके अंदर!
इबु फिर भी नहीं रुका, उसको उसकी टांग से पकड़ा और फिर खींच कर बाहर निकला, तब तक उसके अंदर से वो बहार निकल चुकी थी या था, जो कुछ भी था!
गुस्से में फुफकारता हुआ खड़ा रह गया!
अब मैंने इबु को वहाँ से लोप किया,
तोड़-फोड़ और छीन-झप्पटा सुनकर सभी भागे वहाँ! दीवान टूटा था, वे घबराये, शर्म जी को मैंने देखा, उनका चेहरा छिल गया था, ऊँगली का नाख़ून फट गया था! और नेहा टूटे दीवान पर औंधे मुंह लेटी हुई थी!
"क्या हुआ गुरु जी?" अशोक ने कांपते कांपते पूछा,
"ये जो कोई भी है बहुत शक्तिशाली है" मैंने कहा,
"कौ...कौन है ये?" उन्होंने पूछा,
"अभी नहीं पता" मैंने कहा,
वे ठगे से रह गए!
"शर्मा जी के साथ मैं बहार निकला, अशोक भी आ गए बाहर, मेरा खून और शर्मा जी का हाल देखकर वे अब घबरा गए!
अब मैंने वो कमरा और उसका प्रवेश-द्वार कीलित कर दिया!
"डॉक्टर पर चलिए" मैंने कहा,
"जी" अशोक जी ने कहा,
हम डॉक्टर पर गए, टिटनेस के इंजेक्शन लगवाए और शर्मा जी का नाख़ून काट कर पट्टी कर दी डॉक्टर ने!
वापिस घर आये!
नेहा कमरे में कुछ गाना सा गा रही थी!
उसने हमको देखा!
हंसी! ताली मारी!
"तू फिर आ गया?" उसने पूछा,
"हाँ! तू भाग गयी थी ना, इसलिए?" मैंने कहा,
"भागी कहाँ?" उसने पूछा,
"बकवास ना कर" मैंने कहा,
अब वो हंसी! जैसे मैंने मजाक किया हो!
"मैं तो कहीं नहीं भागी?'' वो बोली,
"झूठ बोलती है?" मैंने कहा,
"मुझे किसका डर पड़ा जो भागूंगी?" उसने कहा,
अब मैं घूमा! घूमा इसलिए कि ये सच में ही नहीं भागी, भागा कोई और था, और ये कोई और थी, दो सवार थीं उस पर! अब मैंने जानने का प्रयास किया, ताकि कुछ हाथ लगे,
"कौन है तू?" मैंने पूछा,
"विमला" उसने कहा,
"कौन विमला?'' मैंने पूछा,
"बहादुरगढ़ वाली विमला, ये अशोक जानता है" वो बोली,
अब अशोक का रहा मुंह खुला!
ममता जैसे गिरने ही वाली थीं ज़मीन पर!
"कौन है ये विमला?" मैंने अशोक से पूछा,
"जी...जी..." शब्द न निकले मुंह से उनके,
"बताइये?" मैंने पूछा,
"जी...मेरी बहन, बड़ी बहन" वो बोले,
"हाँ! अब बोला कुत्ता!" नेहा ने हँसते हुए कहा,
कुत्ता?
एक बहन अपने भाई को कुत्ता क्यों बोल रही है?
"अशोक जी? इसने आपको कुत्ता क्यों कहा?" मैंने पूछा,
"इसकी बनती नहीं थी हमारे परिवार से" वे बोले,
"झूठ बोलता है कुत्ता!" नेहा ने कहा,
"झूठ कैसे?" मैंने पूछा,
"इसने पैसा नहीं दिया मेरा, मेरा घर गिरवी पड़ा था, आदमी मेरा था नहीं, इसको मालूम था, बीमार पड़ी मैं बहुत, मैं चल बसी, मेरा बेटा इसके पास आया इसने झूठ बोला कि कोई पैसा नहीं लिया, पूछो इस से?" वो गुस्से से बोली,
"क्या ये सच है?" मैंने पूछा अशोक से,
"हा..जी" वे बोले,
चेहरा फक्क!
हालत पस्त!
रंगे हाथ पकड़ा गया हो चोर जैसे!
"कितना पैसा लिया था?" मैंने पूछा,
"पांच लाख" वे बोले,
"कब?" मैंने पूछा,
"दस साल हुए" वे बोले,
"हम्म, किया तो आपने बहुत ही गलत, और भुगत रही है बेचारी ये लड़की" मैंने कहा,
"विमला?" मैंने पूछा,
"हाँ?" उसने कहा,
"तेरे पैसे मिल जायेंगे तुझे मय ब्याज" मैंने कहा,
वो रो पड़ी!
रोते रोते जो समझ आया वो यही कि अब उसका लड़का भी ज़िंदा नहीं था, उसने आत्महत्या कर ली थी,
बहुत बुरा हुआ था,
मैं भी परेशान हो गया,
अशोक की रुलाई फूट पड़ी,
दोषाभिव्यक्ति से!
"विमला?" मैंने पूछा,
"हाँ?" उसने कहा,
"तुझे किसी ने भेज या तू स्व्यं आयी यहाँ?" मैंने पूछा,
"खुद आयी हूँ" उसने कहा,
इतना कहा और धम्म से गिर पड़ी नेहा!
चली गयी विमला!
ये विमला थी तो पहले कौन था?
ये क्या हो रहा था?
नेहा कहाँ है?
बड़ा अजीबोगरीब किस्सा हो चला था ये!
तभी फिर से हरक़त हुई उसमे! कमर अकड़ गयी उसकी और फिर उठ बैठी!
"कौन?" मैंने पूछा,
"सलाम उस्ताद!" उसमे से एक मर्दाना आवाज़ आयी!
मैं चौंका!
"कौन?" मैंने पूछा,
"इकराम हूँ साहब मैं!" उसने बताया,
अब जैसे मेरे ऊपर पानी का बड़ा सा भांड फूटा, जैसे आँखें खोलने का मौका भी नहीं मिला और फुरफुरी चढ़ गयी!
"कहाँ से आये हो?" मैंने पूछा,
"यहीं से, हुमायुंपुर से ही?" उसने हंस के कहा,
"अच्छा, यहाँ क्या कर रहे हो?" मैंने पूछा,
"तफरीह!" उसने कहा,
बड़ा बेबाक था!
"किसने भेजा इकराम तुझे?" मैंने पूछा,
"भेजा किसी ने नहीं है साहब, बस जगह खाली थी सो चला आया!" उसने कहा,
"खाली जगह?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" उसने कहा,
"समझाओ मुझे तफ्सील से?" मैंने कहा,
"लीजिये, यहाँ भीड़ खड़ी है साहब!" उसने कहा,
"कौन कौन है?" मैंने पूछा,
"अभी बताता हूँ" उसने कहा,
फिर नेहा ने अपनी उँगलियों पर गिना!
"जी यहाँ पर मेरे यार है तीन" वो बोला,
"कौन कौन?" मैंने पूछा,
"जी बजा माफ़ करे, एक मैं हूँ इकराम, दूसरा मेहबूब, तीसरा अशरफ और चौथा एहसान" उसने बताया,
मुझे झटका लगा!
खाली जगह!
अब मैं समझ गया!
समझ गया सारा मसला!
नेहा सवारी थी और ये सारे सवार!
वाह!
भाई वाह!
जो भी खिलाड़ी था बेहद मुलव्विस खेल खेल रहा था!
क्या कहने!
"इकराम, मियाँ बात ऐसी है, अभी इसी वक़त आप और आपके यार, तशरीफ़ ले जाएँ, मुनासिब होगा!" मैंने कहा,
"जी साहब! गुस्सा न करें, अब हमारी क्या बिसात! हम चले यहाँ से, बजा माफ़ करे!" उसने कहा,
चार झटके खाये उसने और साफ़!
अब मैंने शर्मा जी को वहीँ रखा और सभी को बाहर किया वहाँ से, और फिर मैंने बाल पकडे उसके! और इबु का शाही-रुक्का पढ़ दिया!
इबु ज़र्र से हाज़िर हुआ!
मैंने उस से 'जगह' साफ़ करने को कहा!
और अब इबु ने लगाईं झाड़!
एक एक को फेंका उसने!
न जाने कितने सवार!
मचा दी चीख पुकार!
