मांसपेशियां बहुत सख्त थीं!
अच्छा साईस भी रहा होगा ये हलकारा!
अभी भी,
उस घोड़े के बदन पर,
खरैरा करने के निशान मौजूद थे!
"आइये हुज़ूर" बोला हलकारा,
"चलिए खान साहब" मैंने कहा,
अगर मैं,
कलुष मंत्र चलाता तो,
उस हल्कारे की प्रेत-माया का भान मुझे हो जाता!
लेकिन मैंने नहीं चलाया!
मैं वही सब महसूस करना चाहता था,
जो वो दिखाना चाहता था!
वो आगे चला,
और हम पीछे,
तभी जैसे,
हमने डेढ़ सौ वर्ष पीछे,
उसी समय में क़दम रखा!
उस स्थान पर,
अब गैंदे, मालिनि, बेला, चंपा आदि के पौधे लगे थे!
माहौल बहुत पवित्र था!
सामने एक कमरा बना था,
चूने से पुता था वो,
कमरे के ऊपर,
एक पीले रंग का झंडा लगा था!
मंदिर भी था,
लेकिन वो आगे था बहुत,
ये कमरा ही मिला था खान साहब को!
अब हम कमरे में घुसे,
दरी बिछी थी,
हमने,
अपने जूते उतारे और अंदर चले गए,
हलकारा भी बैठ गया,
अपने जूते उतार कर!
फौजी जूते!
उसमे तस्मे ऐसे थे, कि,
एक भैंस भी बाँध लो उनसे!
ऐसे मज़बूत!
"ये लीजिये" वो बोला,
ये एक घड़ा था,
छोटा सा घड़ा,
पानी था इसमें,
मैंने ओख बनायी,
और पानी पिया,
फिर शर्मा जी ने भी पिया,
और घड़ा रख दिया उसने!
हम अब प्रेत-मंडल में थे!
जो सत्य आँखों से देख रहे थे,
वास्तव में वो, सत्य नहीं,
आज से डेढ़ सौ वर्ष पहले बीते समय की,
परछाईं मात्र था!
और कुछ नहीं!
हलकारा उठा,
और एक थाली पकड़ी उसने,
सामने रखी हमारे,
इस पर कपड़ा ढका था,
उसने कपड़ा हटाया,
आठ रोटियां थीं,
बड़ी बड़ी!
अफ़ग़ानी रोटियां जैसी!
और फिर उसने एक कटोरदान खोला,
इसमें, गुड और गुड की शक्कर थी!
देसी घी से छनी हुई!
लबालब था देसी घी उसमे!
ख़ुश्बू बेहद लज़ीज़ थी!
"लीजिये हुज़ूर! नौश फ़रमाइये! इस गरीब के पास, फिलहाल यही है आपके लिए!" वो बोला,
कितना प्रेम था उसकी बातों में!
कितनी सच्चाई!
कितनी सादगी!
मैंने उसका दिल रखने के लिए,
एक रोटी उठायी,
एक शर्मा जी ने,
और फिर शक्कर ली,
रोटी पर रखी,
और खाने लगे!
"खान साहब, आप भी तो लीजिये?" मैंने कहा,
"आपने खाया, इस बन्दे ने खाया! आपको खाते देख, पेट भर गया इस नाचीज़ का!" बोला वो!
फिर से दिल जीता उसने!
हमने एक एक रोटी खा ली!
उसने और खाने की ज़िद की,
वो एक रोटी है,
हमारी आज की, छह रोटियों के बराबर थी!
फिर से पानी पिलाया उसने हमे!
अब बात आगे बढ़ानी थी,
मैं दीवार से कमर टिका कर,
बैठ गया!
तभी अपनी एक डिब्बी निकाली उसने!
और आगे मुझे दी,
मैंने डिब्बी खोली,
इसमें पान थे! देसी पान के बीड़े!
एक मैंने लिया,
और एक शर्मा जी ने!
केसर की सुगंध फ़ैल गयी मुंह में!
गुलकंद सा मीठा!
सुपारी ऐसी,
जैसे रुई की डली!
"वाह खान साहब! पान बेहद ख़ास है!" मैंने कहा,
"शुक्रिया हुज़ूर आपका!" वो बोला,
"कहाँ से लाये?" मैंने पूछा,
"वहीँ बरेली से, एक हैं हमारे चौरसिया जी, बड़े मशहूर हैं! उन्ही के हैं ये पान!" वो बोला
"वाक़ई! बहुत लज़ीज़ है! चूना भी ऐसा है, जैसे मक्खन!" मैंने कहा,
"हाँ! चूना बेहद ख़ास लगाते हैं वो साहब!" वो बोला,
वो मुस्कुराया,
मैंने उसे,
एक बार में ही पूरा देख लिया!
बेचारा!
कैसे एक ही काल-खंड में,
अपनी दुनिया जी रहा है!
अटक गया है!
"खान साहब, घर में और कौन कौन हैं आपके?" मैंने पूछा,
"घर में, अम्मी हैं, वालिद का इंतकाल हो गया था, जब मैं नौ बरस का था, मेरी बेग़म हैं, ताज नाम है उनका, और मेरे तीन औलाद हैं, तीनों ही लड़के हैं, शहज़ाद, इकराम और फ़िरोज़" वो बोला,
''अच्छा! वहीँ गाँव में?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वो बोला,
"बहुत अच्छा, बालक सभी पढ़ते हैं?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, मदरसे में तालीम हांसिल कर रहे हैं" वो बोला,
"बढ़िया बात है" मैंने कहा,
"जी" वो बोला,
"और ये नौकरी?" मैंने पूछा,
"जी वो हैं जनाब सलीम शाह साहब, उनके मातहत ही लगी है, पहले मैं तांगा चलाता था, उन्होंने ही लगवायी ये नौकरी" वो बोला,
"अच्छा हुआ!" मैंने कहा,
"हाँ हुज़ूर! कम से कम गुजर बसर हो जाती है आराम से" बोला वो,
पल पल की खबर थी उसके पास!
गाँव की बातों में,
परिवार की बातों में,
बेटों की बातों में,
चेहरे पर चमक आ जाती थी उसके!
खुश हो जाता था वो!
मैं जानता था!
अभी वो अकेला था!
कोई नहीं था उसके साथ!
वो तो रोज ही,
ये रास्ता नाप रहा था!
कभी बरेली नहीं लौटा था!
जब तक,
मौलाना साहब को,
नहीं ढूंढ लेगा,
नहीं लौटेगा!
मुझे,
जल्दी ही कुछ करना था!
बहुत जल्दी!
समय भागे जा रहा था,
मेरे लिए!
उसके लिए तो,
समय का कोई मायने ही नहीं था!
वो स्थिर था,
अपने स्थिर समय में!
"खान साहब?" मैंने कहा,
"जी, फ़रमाइये" वो बोला,
"आपको सब याद है?" मैंने पूछा,
थोड़ा सकपका गया वो!
"मसलन?" उसने पूछा,
"मेरा मतलब, सलीम शाह साहब का आपको ये पोटली देना, वो बारिश का आना, आपका वहाँ इस पंडित तिलकराज जी के यहां विश्राम करना, सब याद है?" मैंने पूछा,
"जी! याद है सबकुछ!" वो बोला,
"पंडित जी कहाँ हैं?" मैंने पूछा,
"कह रहे थे कि हरद्वार(हरिद्वार) जाना है, शायद वहीँ गए हों? यहां तो हैं नहीं" वो बोला,
हैं नहीं!
उसे मालूम नहीं!
नहीं मालूम उसे असलियत!
"खान साहब?" आप उस रोज, मंदिर से निकले, मौलाना साहब के गाँव के लिए, तब आप पहुंचे उधर?" मैंने पूछा,
जैसे मोम सा पिघला!
चेहरे की रंगत उड़ी!
हाथ कांपने लगे!
साँसें तेज हुईं!
नथुने फड़क उठे!
कहीं खो गए खान साहब!
मुझे तो पता था,
लेकिन उनको नहीं!
मैंने हल्कारे के हाथ पर हाथ रखा,
मेरा हाथ झप्प से थाम लिया उसने,
उसका मोटा, मांसल हाथ, ठंडा था एकदम!
बर्फ के समान ठंडा!
"याद आया खान साहब?" मैंने पूछा,
"हल्का हल्का याद है" वो बोला,
"ज़ोर डालो, याद करो" मैंने कहा,
"मैं मंदिर से निकला था, उस रोज पंडित जी ने, मुझे आलू और पूरी खिलाई थीं, इसी कमरे में, वो लेकर आये थे, मेरा सारा समान यहीं रखा था, मैं वही सामान, जो मौलाना साहब का था, लेकर गाँव की ओर बढ़ा था" वो बोला,
"फिर?" मैंने कहा,
"फिर.............उस रात, पिछली रात बहुत बारिश हुई थी, रास्ते पर, पानी भरा था, कई परिंदे उस पानी में खेल रहे थे, मैं सुबह ही पहुंचा था वहाँ, रास्ता मेरे लिए अनजान था, पेड़ उखड़े पड़े थे, कई जगह मुझे दूसरी ओर से आना पड़ा, एक जगह रास्ता संकरा था, सामने पेड़ टूटा पड़ा था, पेड़ बहुत बड़ा था, मैं फंस गया था, घोड़ा उस टाप नहीं सकता था, नीचे पानी भरा था, मैं फंस गया था" वो बोला,
"फिर?" मैंने पूछा,
तभी बारिश पड़ने लगी,
"मैंने एक तिरपाल( उसने कुछेड़ बोला था उसको) रखी थी अपने पास, सारा सामान ढका था मैंने उस से, हाँ, मैं भीग रहा था, बारिश तेज हुई, मेरी आँखों में पानी भरने लगा, तभी, एकाएक आवाज़ हुई, जैसे कोई पेड़ टूटा हो, कोई गुद्दा टूटा हो, और मेरे सामने अँधेरा छा गया, उस वक़्त मैं, अपनी आँखें पोंछ रहा था अपनी" वो बोला,
"पिलखन का पेड़ था वो?" मैंने पूछा,
"जी, शायद वही था!" वो बोला,
"उसके बाद क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"उसके बाद............याद नहीं, शायद मैं सो गया था, जब उठा, वो मेरा घोड़ा वहीँ खड़ा था, मेरे पास, मैंने अपना घोड़ा पकड़ा, और उठा, सामान सही से रखा था, मेरे सामने वो पेड़ था काफी बड़ा पेड़!" वो बोला,
"फिर?" मैंने पूछा,
"मैं वापिस चल दिया, और कोई रास्ता नहीं था" उसने कहा,
"यहां पहुंचे?" मैंने पूछा,
अब अटका वो हलकारा!
नहीं पहुंचा वो!
कभी नहीं पहुंचा!
वो उस अदृश्य योनि में प्रवेश कर चुका था!
इसे द्रिक-अवस्था कहते हैं!
इसकी व्याख्या कोई नहीं कर पाया!
और जो कुछ पता चला वो बस इतना,
कि ये आत्मा की स्वतः ही ली गयी एक,
चरण-अवस्था है!
इस अवस्था में,
ये हलकारा करीब डेढ़ सौ वर्ष तक रहा!
अपना फ़र्ज़ पूरा करना था,
ये याद था!
वो लौटा!
लेकिन एक प्रेत बनकर!
प्रेत-योनि में आ कर!
अब मैं उसे जो बताता,
उसे यक़ीन ही नहीं होता!
मैं मुस्कुराया!
"खान साहब, एक बात कहूँ?" मैंने कहा,
"जी, ज़रूर कहिये!" वो बोला,
"मौलाना साहब अब कहीं नहीं हैं" मैंने कहा,
वो चौंका!
आँखें गोल हो गयीं!
मुंह खुला रहा गया!
"इंतकाल फर्मा गए क्या वो?" उसने पूछा,
"बहुत पहले ही खान साहब!" मैंने कहा,
अब उसने एक आयत पढ़ी!
उस रूह की शान्ति के लिए!
"कब?" उसने पूछा,
"डेढ़ सौ बरस पहले!" मैंने कहा,
वो हैरान!
ये मैं क्या कह रहा हूँ!
ये कैसी पहेली!
डेढ़ सौ बरस?
नामुमकिन!
"खान साहब! बहुत वक़्त गुजर गया है! डेढ़ सौ साल!" मैंने कहा,
वो ऐसा कि,
जैसे अभी रो ही पड़ेगा!
"खान साहब, अब न शाह साहब हैं, न ही मौलाना साहब, न ही वो चौरसिया और न ही आपके वे तीनों बेटे!" मैंने कहा,
वो खामोश!
मुझे घूरते हुए!
"और खान साहब! आप भी नहीं! आप भी ज़िंदा नहीं!" मैंने कहा,
मैं नहीं कहना चाहता था,
लेकिन बनते न बन पड़ा रुकना!
कहना ही पड़ा!
शायद,
समझ जाए ये हलकारा!
वो खड़ा हो गया,
भर गया, और भाग लिया,
मैं भी बाहर गया,
और देखा उसे,
वो अपने घोड़े से चिपका,
रो रहा था,
बहुत तेज बहुत तेज!
उसके रोने से,
मेरा जिगर चिर गया,
मेरी आँखों से आंसू बह निकले!
इस हल्कारे ने,
मेरे अल्फ़ाज़ों पर,
बिना जाँचे-समझे,
यक़ीन कर लिया था!
उफ़!
कितना सरल है ये हलकारा!
हे मेरे मालिक!
इसको आज़ाद कर!
इसको इसके,
इस दुःख से निजात दिल अब!
ले ले इसे अपनी पनाह में!
ये दुनिया,
नहीं बची इसके लिए अब!
कोई नहीं ऐसा आज,
इस जैसा!
ऐसा भला,
और ये सिला?
नहीं!
और नहीं!
मैं आगे बढ़ा,
चला उस तरफ!
उसने आंसू पोंछे,
और मुझे देखा,
सुरमा बह चला था आँखों से उसकी!
मैं पहुँच गया उसके पास!
हल्कारे के आंसू नहीं रुक रहे थे,
करुण रूदन था स्वर में,
होंठ काँप रहे थे,
अपने बदन को,
बार बार छू छू कर देखे जा रहा था वो हलकारा!
एक तो पहले से ही,
प्रेत योनि का कष्ट था,
ऊपर से ये सच्चाई!
तोड़ के रख दिया उसको,
मेरे अल्फ़ाज़ों ने!
आंसू पोंछे उसने!
मैंने कंधे पर हाथ रखा उसके,
उसकी लम्बाई ऐसी थी,
कि मुझे उचकना पड़ा थोड़ा सा,
मुझे देखा उसने,
मायूस सा होकर,
"मैं......मैं.......एक बार अपने घर जाना चाहता हूँ" वो बोला,
इसमें खतरा था,
इस रास्ते तक तो,
वो जानता था सबकुछ,
लेकिन अब न जाने कितने ही ऐसे आलिम और क्षुद्र तांत्रिक,
होंगे जो पकड़ना चाहेंगे उसको,
वो बहुत काम का था उनके लिए,
मना भी नहीं किया जा सकता था,
रिस्क तो उठाना ही था,
"ज़रूर खान साहब, लेकिन वायदा करो, वापिस यहीं आओगे, अभी" मैंने कहा,
"मेरा वायदा है" वो बोला,
मैंने हाँ कही,
और उसने जान पड़ी!
उसी क्षण,
उसी क्षण वो दौड़ लिया वहाँ से,
अपने घर!
कितने दिनों के बाद याद आई थी उसको!
चलो,
ये इच्छा भी पूर्ण हो उसकी!
मित्रगण!
इसके पश्चात,
अब न वहाँ वो कमरा शेष था,
न ही वो फूल वाले पौधे,
कुछ नहीं!
वर्तमान आ धमका था वहाँ!
और जहाँ हम खड़े थे,
वो सूखा बंजर इलाक़ा था!
हम, प्रेत-मंडल से बाहर थे!
कुछ पल बीते,
हम वैसे ही खड़े थे,
यहीं आना था वापिस उस हलकारे को!
और फिर,
वो प्रकट हुआ!
प्रकट!
पहली बार प्रकट!
चूंकि,
अब वो जान गया था प्रेत-रहस्य!
थका-मांदा,
हारा हुआ,
टूटा,
मायूस,
घोड़े से उतरा वो,
और धीरे धीरे सामने आया,
आँखों में मोटे मोटे आंसू लिए,
"मैं जान गया हूँ सच" वो बोला,
"मुझे मालूम था, इसीलिए नहीं रोका था आपको खान साहब" मैंने कहा,
अब वो फूट फूट के रोया!
अपने पुत्रों का नाम ले,
अपनी पत्नी का नाम ले,
अपने गाँव का नाम ले,
अपनी माँ का नाम ले,
मेरा भी कलेजा काँप उठा!
शर्मा जी का भी मन उदास हो उठा!
वो हँसता हुआ चेहरा,
जोश से भरा,
अब सुस्त था!
"खान साहब!" मैंने कहा,
मुझे देखा उसने,
"सब चले गए, अपने अपने बसेरे को, आप ही रह गए हो! मैं आपको आज़ाद कर सकता हूँ, अगर आप चाहो तो" मैंने समझाया,
"हुज़ूर....." रुंधे गले से बोला वो,
फिर आंसू पोंछे,
"हुज़ूर, मेरे पास अब, चंद यादें हैं, और कुछ नहीं, मैं अकेला हूँ, कोई संग नहीं, बस आप है, और ये साहब, और कोई नहीं, मुझे यहीं रहने दीजिये, मेरी गुजारिश है" वो बोला,
मैंने उसे सभी खतरों के बारे में बताया,
आगाह किया,
खूब समझाया,
नहीं माना वो!
अपने अल्फाज़पन के, अदबी-अल्फ़ाज़ों के जाल में फंसा लिया मुझे!
एक मौक़ा!
एक मौक़ा और दिया जाए उसे,
यही सोचा!
"एक वायदा करता हूँ, जिस रोज, ये दर्द, बला से बर्दाश्त हो जाएगा, मैं आपके दर आ बैठूंगा, मेरा साथ दीजियेगा, मैं हमेशा आपका अहसानमंद रहूँगा" वो बोला,
बहुत गहरी बात कही थी,
बहुत गहरी!
"जैसा आप चाहो खान साहब!" मैंने कहा,
वो भर उठा फिर से,
सैलाब से,
होंठ काँप उठे उसके...
कुछ पल शान्ति रही वहां!
"वो सामान वहीँ रखा है अंदर, कमरे में खान साहब" मैंने कहा,
गर्दन हिलायी उसने,
"अब हम चलते हैं" मैंने कहा,
वो चुप खड़ा था,
"सलाम" मैंने कहा,
"एक दरख्वास्त है" वो बोला,
"कहिये खान साहब?" मैंने कहा,
"मैं अकेला हूँ, आप आते रहिएगा मेरे पास, मैं.... मैं......."वो कहते कहते रुका!
मैं एकदम सामने हुआ उसके!
उसने अब,
भर लिया मुझे अपनी छाती में,
उसकी सिसकियों से,
मेरा पूरा बदन हिल गया!
"ज़रूर खान साहब! मैं आता रहूँगा! मेरा वायदा है!" मैंने कहा,
उसके बाद,
हमने विदा ली,
बहुत दूर तक संग आया हमारे,
फिर अपनी हद में ही रहकर,
लौट गया,
लोप हो गया वो हलकारा,
भास्कर साहब के घर पर,
इसके बाद, कोई दस्तक नहीं हुई,
हाँ, कभी कभार उस रास्ते पर,
घोड़ा दौड़ाता कोई आता तो है, लेकिन नज़र नहीं आता!
उसके बाद,
मैं तीन बार और मिला उस से,
वो दर्द में डूबा है बहुत,
फिर भी,
वो शक्कर और वो रोटियां,
कभी खिलाये बगैर, वापिस नहीं भेजता!
वो हलकारा,
मोहम्मद जमाल खान,
आज भी वहीँ है,
और लगता है, किसी दिन,
आ ही जाएगा मेरे पास,
यहां से दूर,
बहुत दूर जाने को!
उस दिन मुझे दुःख तो होगा,
लेकिन मेरी रूह को जो शान्ति मिलेगी,
उस से बड़ा सुख,
शायद ही कुछ और होगा!
-------------------------साधुवाद!------------------------
